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________________ 9. अथ श्री संघपट्टकः - (८५) जे आगमनी साये विरोध नथी ए प्रकारे निस्सकम इत्यादि शास्त्र ववने करीने श्रागन साथे मन तो चैत्यवास ने एबुं प्रतिपादन पूर्वे कर्यु ले ने गीतार्थनुं आचरण आगमने प्रमाण करनार पुरुषने श्रवश्य प्रमाण करवा योग्य ले. जे माटे शास्त्रमा कडं ले जे गीतार्थ जनो ज्ञानादिरूप कार्यनुं आलंबन करीने जे कांश पण कार्य करे ३. तेमां थोगो अपराध अने घणो गुण रह्यो डे माटे ते सर्वने प्रमाणरूप . टीकाः-इति जगवत्प्रतिपादितमुमुकुप्रवृत्तिनिवृत्तिरूपागमश्रुतादिव्यवहारपचंकांतःपात्यागमविरुझाचरणानन्युपगमे ' च नगवदप्रामाण्यसंजनात् ॥ तथाच नगवदाशातनाप्रसंगात् .. अर्थः-ए हेतु माटे लगवाने प्रतिपादन कर्या जे मुमुकुने प्रवृत्ति निवृति रूप आगम श्रुतादि रूप पांच व्यवहार तेमांनुश्रागमथी अविरोध भावे एवं जे आचरण तेनो अंगीकार नहीं करो तो नगवानने पण अप्रमाणपणानी प्राप्ति थशे माटे, वली जगवाननी श्राशातना थवानो प्रसंग थशे ए हेतु माटे टीकाः-आचरितलक्षणस्येहोपपत्तेः ॥ तथा चागमः ॥ असढण समान्नं जं कथ्थई केणई असावजं न निवारियमः । न्नेहिं, बहुगुणमणुमयमायरियं . अर्थः-शिष्ट पुरुषे जे आचरण कर्यु ते आचरण लक्षणनी अहींयां सिद्धि , एटले शिष्ट पुरुषना सरखं आचरण कर ते युक्त बे, ते उपर शास्त्रनुं प्रमाण , जे शग्नाव विनाना जे पापरहित मोटा पुरुष तेमणे ज्यां जे कंश्क आचरण कर्यु ते निर्दोष ठे
SR No.023205
Book TitleSangh Pattak - 40 Kavyano Attyuttam Shikshamay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri, Nemichandra Bhandagarik
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages704
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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