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________________ (२) अब भी संप पेली जे अति शीतल वा तैना स्पर्शनी बैंश जमा न याय ने रोत्रिए पण जेमां सुखनी प्रवेश डे एवा जेमा सुंदर जरका है. ऍ प्रकारनी पोतानो मठ सर्व काळमां सुखकारी केम न होय. - टीका:- तथा च तत्र नित्यस्थाः सततवासिनः । सुविहितादि देवद्रव्योपजोग जयाद्यतिनिमित्तनिर्मितत्वेन महासावद्यत्वाच्च मठे न वसंत किंतुया चिते याह शिताह शि परगृहादावेव तत्रापिनानवरत वसति ॥ अर्थः- वळी ते स्थानकने विषे निरंतर निवास करता एवा लिंगधारी डे ने सुविदित साधु मे ते तो देवद्रव्यमी उपन्नोग थाएं जयथकी यतिने निमित्ते निपजान्यो में ए हेतु माटे ने महा सावधपणुं वे ए हेतु माटे त्यां नथी वसंता त्यारे क्यों वसें बे? तो मागी लीधेनुं जेतुं तेनुं पारकुं घर तेने विषेज निवास करे बे शमी पण निरंतर निवास नथी करता. टीका:- नित्यवासित्वप्रसंगा नित्यवासस्य च यतीना श्री. द्धादिप्रतिबंध लाघवादिहेतुत्वेन प्रतिषेधात् ॥ ॥ यक् ॥ परिबंधो लहुयत्तं न जणुवयारो न देस विन्नाणं ॥ "मोबोराह नए दोसा विहारानी
SR No.023205
Book TitleSangh Pattak - 40 Kavyano Attyuttam Shikshamay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri, Nemichandra Bhandagarik
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages704
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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