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________________ 49 अय श्री संघपट्टकः -- ॥ मूल काव्यम् ॥ यत् किंचितिथं यदप्यनुचितं यल्लोकलोकोत्तरो। त्तीर्ण यद्नव देतुरेव नविनां यच्ास्त्रबाधाकरं ॥ तत्तम इति ब्रुवंति कुधियो मूढास्तदईन्मत। ज्रांत्या लांति च दाउरंतदशमाश्चर्यस्य विस्फूर्जितम्॥श्न॥ टीकाः-तत्तदितिवीप्सायां सर्वसंग्रहमाद ॥ धर्म सा- ... धनमनुष्टान मिह धर्मस्ततश्चधर्म इति सुकृतमिदमित्येवंरुप. तया ब्रुवंति वदंति कुधीयो जुर्मेधसो नाम जैनाः ॥ यत्किंइत्याद।। यत्किंचिदिति सामान्यतो निर्दिष्टं विशेष तोऽनिर्दिष्टनाम के वितथमली श्रेणिकराजरजोहरणवंदनादि न ह्येतदागमक्वचिद्विखितमस्ति येन सत्यं स्यात् परं लिंगिनः स्ववंधता ।। पादनायै तदपि धर्म इति नापते ॥ अर्थः-कही| ए सर्वे वातोनो संग्रह थाय ने ते कहे जे पुष्ट बुद्धिवाळा केवळ नाम मात्रथी जैनी कहेवाता एवा ए लिंगधारी जे ते आगळ कहीशुं ए सर्वेने थातो धर्म बे एप्रकारे बोले बे. तत् शब्दनुं बेवार नच्चारण कर तेथी श्रागळं कहे जे श्रा जगाए धर्म साधन करवानुं जे अनुष्टान तेने धर्म कहोए एटले धर्मरुपपणे स्थापन करे . ते शुंस्थापन करे ? तो जे कांश स्थापन करे ले ते कहीए जीए. जे कांश सामान्यथी देखामयुं होय ने विशेषथकी नाम न देखामयुं होय एवी जगाए जुटुं बोले ,
SR No.023205
Book TitleSangh Pattak - 40 Kavyano Attyuttam Shikshamay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri, Nemichandra Bhandagarik
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages704
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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