SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 328
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (३०४) - अथ श्री संघपट्टक ॥ मूल काव्यम् ॥ क्षुत्क्षामःकिल कोपिरकशिशुकःप्रव्रज्य चैत्यै क्वचित्, कृत्वा कंचन पदमदतकलिः प्राप्त स्तदाचार्यकं ॥ चित्रं चैत्यगृहे गृहीयति निजे गोकुटुंबीयतिस्वं, शकीयति बालिशीयति बुधान विश्वंवराकीयति ॥१५॥ . टीका:-कुतकामो बुजुक्षा श्लदणाकुक्षिः गृहस्थावस्थायां किले ति:संजावनायां प्रत्यक्षोपलब्धमायर्थं संजावनास्यदतयवसंतो वदंतीतिन्यायः ॥ श्रतः स्तदज्ञापनाय किलेति पदं ॥ अन्यथा संप्रति प्रत्यक्ष एवायमर्थ इति ॥ अर्थः-जुखवते जेनुं पेट चोंटी गयुं डे ने आंखो मी नतरी गने एवो रांकनो पुत्र गृहअवस्थामां होय एवं संनवे . माटे आ जगाए किल अव्ययनो संभावनारुप अर्थ करवो. केम जे सतपुरूष ते प्रत्यक्ष जणातो एवोपण अर्थने संन्नावनानुं स्थानक के ए प्रकारेज कहे जे. एवो न्याय . ए हेतु माटे ते न्याय जणा. ववाने किल ए प्रकारचें पद मूक्यु डे जो एम न होय तो आ का. ळमां ए अर्थ प्रत्यक्ष देखाय ने एटले रांकना नोकरा ए प्रकारना थयेला प्रत्यक्ष देखाय ले तो एवात संजवे जे एम संन्नावना शीद कहेत? टीकाः कोपि श्वसात नामा रंका निकाकोऽत एव कुत्सि:
SR No.023205
Book TitleSangh Pattak - 40 Kavyano Attyuttam Shikshamay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri, Nemichandra Bhandagarik
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages704
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy