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अथ श्री संघपट्टक
॥ मूल काव्यम् ॥ क्षुत्क्षामःकिल कोपिरकशिशुकःप्रव्रज्य चैत्यै क्वचित्, कृत्वा कंचन पदमदतकलिः प्राप्त स्तदाचार्यकं ॥ चित्रं चैत्यगृहे गृहीयति निजे गोकुटुंबीयतिस्वं, शकीयति बालिशीयति बुधान विश्वंवराकीयति ॥१५॥
. टीका:-कुतकामो बुजुक्षा श्लदणाकुक्षिः गृहस्थावस्थायां किले ति:संजावनायां प्रत्यक्षोपलब्धमायर्थं संजावनास्यदतयवसंतो वदंतीतिन्यायः ॥ श्रतः स्तदज्ञापनाय किलेति पदं ॥ अन्यथा संप्रति प्रत्यक्ष एवायमर्थ इति ॥
अर्थः-जुखवते जेनुं पेट चोंटी गयुं डे ने आंखो मी नतरी गने एवो रांकनो पुत्र गृहअवस्थामां होय एवं संनवे . माटे आ जगाए किल अव्ययनो संभावनारुप अर्थ करवो. केम जे सतपुरूष ते प्रत्यक्ष जणातो एवोपण अर्थने संन्नावनानुं स्थानक के ए प्रकारेज कहे जे. एवो न्याय . ए हेतु माटे ते न्याय जणा. ववाने किल ए प्रकारचें पद मूक्यु डे जो एम न होय तो आ का. ळमां ए अर्थ प्रत्यक्ष देखाय ने एटले रांकना नोकरा ए प्रकारना थयेला प्रत्यक्ष देखाय ले तो एवात संजवे जे एम संन्नावना शीद कहेत?
टीकाः कोपि श्वसात नामा रंका निकाकोऽत एव कुत्सि: