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________________ ( ४७० ) - अथ श्री संघपट्टक थयेलो जे उदय तेने पोताना विषाद सहित एटले खेद पूर्वक दे खाता सता कहे . ॥ मूल काव्यम् ॥ सर्वत्र स्थगिताश्रवाः स्वविषयव्यासक्तसर्वेप्रिया । वल्गौरव चंमदं तुरगाः पुष्यत्कषायोरगाः ॥ सर्वाकृत्यकृतोपि कष्टमधुनांत्याश्चर्यराजाश्रिताः । स्थित्वा सन्मुनिमूईसुद्धत धियस्तुष्यंति पुष्यंति च ॥१॥ टीका :- सर्वत्रलोक समक्ष समक्षं च श्राश्रवति संचिनो ति जीवः कर्म निरित्याश्रवाः पंचप्राणातिपातादयस्ततश्चास्थ गि निरुद्धायाश्रवायैस्ते तथा ॥ किल यतीनां सप्तदशविधसंयममध्यात्पंचाश्रवद्वार निरोधः परमसंयमस्तेनैव तेषां पंचमहा व्रतधारित्व सिद्धेस्तत्व तिनिरंकुशत्वान्न तानि निरुषंति ॥ अर्थः- सर्व जगाए एटले लोकना देखतां प्राणातिपात श्रादिक पांच श्रव ते जेमले रोक्या नथी एटले पांच प्रकारना आश्रवने बाना तथा उघामा सेवन करनार जीव जे ते जेणे करीने कर्मनो संचय करे बे तेने याश्रव कहीए. ए प्रकारे श्राश्रव शब्दनी व्युत्पत्ति बे. वळी यतिने सत्तर प्रकारना संयममांथी पांच प्रकारना - यवनो निरोध करतो ते परम संयम कहीए तेसे करीनेज तेमने पांच महाव्रतनुं धारवाएं सिद्ध थाय ने पण ते लिंगधारी तो
SR No.023205
Book TitleSangh Pattak - 40 Kavyano Attyuttam Shikshamay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri, Nemichandra Bhandagarik
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages704
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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