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________________ (२) (८२) -48. अथ श्री संघपहकः -- टीकाः-तथाच निश्राकृतपदवाच्यस्य शशविषाणायमानत्वेनानिश्राकृततुल्यकतया तत्र वंदनानिधानमपि कथं घटामटाट्यते॥ तस्मात्तव्यपदेशान्यथानुपपत्त्यैव यतीनां तत्र वासो ऽवसीयते ॥ अर्थः ने वली ससलानां शींगमानी पेठे वस्तुताये निश्राकृत चैत्यज नथी ने निकेवल अनिश्राकृत एवं जे एक चैत्य डे, एम अंगिकार करो तो निश्राकृत चैत्यने विषे वंदन- जे कहेवू ते कीये प्रकारे घटशे, निश्राकृत चैत्यनो अंगीकार नहीं करोतो तेनुं कहे, व्यर्थ थशे माटेज निश्चय करीए बीए जे साधुने चैत्यमा रहेवार्नु , टीकाः-तथा संजावणे विसदो देखियखरंटजयणउवएसो इत्याद्यागमे ग्लानप्रतिजागरणचिंतायां देवकुलिकशब्दादपि चैत्यवाससिद्धिः देवकुलिकनिवासमंतरेण देवकुलिकव्यपदेशानुपपत्तेजनहि ग्रामानावे सीमाविधानं नामेति लौकिकन्यायात्। एवं चैवमाद्यागमवचनप्रामाण्यादागमाक्तत्वमप्यस्येति निश्चीयते ॥ ..... ... ... अर्थ:-वली संन्नावण इत्यादि आगम गाथाने विष देवकुलिक शब्द कह्यो , ते देवकुलिक शब्दथी पण चैत्यवासनी सिद्धि थाय डे, केम के देवकुल कहेतां देवालय ते जेमने डे ते देवकुखिक कहीए, एटले देवमंदिरवाला एटलो अर्थ थयो, देवमंदिरमां निवास कर्या विना देवमंदिरवालो एम कहेवू न घटेते उपर लौकिक न्याय देखामे जे जेम के गाम विना सीमामानुं करवू ते निश्चे होय नहीं ए प्रकारना लौकिक न्यायथी चैत्य निवास कर्या विना चैत्यवाला अमुक पुरुषो एवो व्यवहार होय नहीं. एवं कहेतां ए प्रकारना
SR No.023205
Book TitleSangh Pattak - 40 Kavyano Attyuttam Shikshamay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri, Nemichandra Bhandagarik
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages704
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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