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________________ 9. अथ श्री संघपट्टकः (१८३) तार्थ पुरुषोए ए चैत्यवास आचर्यो बे, माटे अप्रमाणिक नथी. एम जे तारूं कहेवं ते सारं नथी. एटले खोटुं कहुं हुं केमजे नत्सूत्र आचरणा करवी एज मोटो विशेष दोष , एम अमोए प्रथम दे. खाम्युं . ने पासथ्यादिके ए चैत्यवास श्राचर्यो , ए प्रकारे कही देखामवं तेणे करीने गीतार्था चहितरुपी हेतुनुं खमन कर्यु बे. माटे ते घणा पासथ्थाए चैत्यवास आचरण कों तो पण अशुहिनो करनार डे; अप्रमाणिक ले केम जे जो एक गीतार्थ पुरुषे आचरण कयों होय तो पण प्रामाणिकपणुं थाय ए हेतु माटे टीका:- यदाह ॥ जं जीय मसोहिकरं पासत्थपमत्त संजया मं बहुएहि विआनंनतेजीएण ववहाशे॥ जंजीयं सोहिकरं संविग्गपरायणेण दंतेण ॥ इकेणवि श्राश्नं तेएय जीएण ववहारो ॥ अर्थः-शास्त्रमा कयु डे जे ते अशुद्धि करनार कल्प जे जे पासथ्था ने प्रमत्त एटले मनमां आवे तेम चालनार नाम साधु एवा घशा पुरुषोए आचरण कर्यु ते जीतकल्पे करीने व्यवहार करवा योग्य नथी ने ते जीतकल्प शुद्धि करनार जे जे संविग्न परायण ने दांत एवा एक पुरुषे पण जे आचरण कर्यु जे. ते जीतकल्पे करीने व्यवहार करवा योग्य . टीकाः-एतेन यदपि गीतार्थाचरितत्वस्या सिक्षाविहेवा
SR No.023205
Book TitleSangh Pattak - 40 Kavyano Attyuttam Shikshamay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri, Nemichandra Bhandagarik
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages704
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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