SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 383
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ • -48 अथ श्री संघपट्टकः ( ३५९ ) क्षणथी आरंजीनेज प्राणातिपातने विषे प्रवृत्ति थइ ए हेतु माटे ते कयुं वे जे. टीका:- दीक्षादातुश्च दोषसंख्यापि वक्तुं न शक्यते । त हिदया तावर्जतुजा तव्याघातप्रवृत्तेः॥ तदहोमूंढा एतावतं पापकलापमात्मन्यारोपयंतोजा विजवज्रमणान्मनागवि न बिभ्यतीति ॥ अर्थ :-- दीक्षा देनारने पण जे दोष थाय ते ते दोषनी संख्या पण कलेवा समर्थ नथी केमजे ते दीक्षा यापनारनी दिक्षाए करीने तेटला जंतुना समूहनो नाश थवामां प्रवृत्ति थइ ए हेतु माटे अहो तो आश्चर्य ने जे ए मूढ पुरुष थाटलोबधो पापनो पोताने विषे आरोपण करें बे पण आगळ थये एवं संसारमां मण थशे तेथी लगार मात्र पण जय पामता नथी. समूह टीका:- तडुक्तं || ज्यो तिज्यों तितकृत्स्नदेवसदनप्रायः प्र दी पोच्चरही पाञ्चिर्निकुरंबचुंबननवत्तंगत्पतंगैषणां ॥ निस्त्रिंशानिशि सूत्रयं तिकुधियो मुग्धामुधामी हहा नंदिंसंदितिसम्मितां स्वपरयोः संसार कारागृहे ॥ . अर्थः- ज्योतिः एटले ग्रह, नक्षत्र जेवुं देदीप्यमान जै समस्त देवमंदिर तेमां घणा दीवाथी उत्पन्न यह दिव्यकांति तेनो जे समूह तेना स्पर्शथी जंपापात करता जे पतंगीया तथा तेनका यि प्राणि तेना नाशं करवामां तरवार समान दुष्ट बुद्धिवाला था मुग्ध
SR No.023205
Book TitleSangh Pattak - 40 Kavyano Attyuttam Shikshamay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri, Nemichandra Bhandagarik
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages704
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy