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________________ ( ५० ) अथ श्री संघपकः तो जेमां दोष न होय तेमां पण दोष खोली काढीने दोषनुंज प्र इ करे बे ॥ दण टीका :- यदुक्तं ॥ नात्रातीव विधातव्यं दोषदृष्टिपरं मनः ॥ दोषो विद्यमानोपि तच्चितानां प्रकाशत इति ॥ २ ॥ अर्थ :-- जे माटे शास्त्रमां कयुं बे जे अतिशे दोष दृष्टिने विषे तत्पर मन न करवुं केम जे दोष न होय तो पण दोष दृष्टिवा - लाना चित्तमां दोष नासे बे ॥ इत्यादि ॥ टीका:- तथा मिथ्यापथप्रत्यर्थी ति ॥ मिथ्यापथो वक्ष्यमा - पलक्षणो यथानंदप्ररूपितोत्सूत्रमार्गः ॥ तस्य प्रत्यर्थी विरोधी ॥ उत्सूत्रमार्ग श्रोतुमप्यनिच्तुः ॥ उत्सूत्रपथा जिलापूकस्य हि ययार्थ सिद्धांतोपदेशस्त्रासाय स्यात् ॥ अर्थः-- वली ते श्रोता केवो होय तो मिथ्यामार्गनो शत्रु, एटले गल कहीशुं एवां जेनां लक्षण बे एवो पोतानी इच्छा प्रमाणे प्ररूपणा करयो जे उत्सूत्र मार्ग तेनो विरोधी एटले उत्सूत्र मार्गने सांगलवानी पण इच्छा नथी करता, केम के उत्सर्ग मार्गना अनि लाषी पुरुषने निश्चे यथार्थ सिद्धांतनो जे उपदेश ते त्रासजणी थाय बे. टीका:--यदुक्तं । खुद्द मिगाणं पुण सुद्धदेसणा सीहनायसमेति अर्थः- जे माटे शास्त्रमां कयुं बे जे क्रुद्र पुरुष रूप मृग तेमने शुद्ध देशना बे ते सिंहनाद जेवी बे एटले त्रास उपजावनारी इत्यादि ॥ टीका:- तथा विनीत इति ॥ गुर्वादिष्वन्युत्थानादिकरणलालसः ॥ विनीतायैव हि गुरुवः सिद्धांततत्त्वं प्रतिपादयंति ॥
SR No.023205
Book TitleSangh Pattak - 40 Kavyano Attyuttam Shikshamay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri, Nemichandra Bhandagarik
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages704
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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