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________________ -18 अथ श्री संघपट्टकः ( २२७ ) इज करे बे ने पात्रने विषे पोताना द्रव्यनो व्यय करे बे माटे एवा श्रावक लोकवमेज कार्य थयुं त्यारे सिद्धांतमां निषेध करेलो ने अनर्थना समूहनुं मूळ एवो द्रव्यनो परिग्रह करवो तेणे करीने सयुं एटले द्रव्यनो अंगिकार करवो घटतो नथी. टीका:- परमेवं कालाद्यौचित्येन पथ्यादिदातृसङ्गावेपियदिदानींतना यत्याजासा बालकाध्यापनमंत्रादिप्रयोगवैद्यकादिजिः पथ्यपुस्तक लेखना दिव्यपदेशेन गृयिज्योऽयमय मिकदा स्वापतेय निचयंसं चिन्वाना उपलज्यंते तयनं विषयतृषा कर्षितान्तःकरणतयातेषामेवं द्रव्यसंग्रह प्रवृत्तिर्नतु ग्लानादि हेतुना ॥ " अर्थ:--परंतु या काळने उचित एवां पथ्यादि श्रौषधना देनार विद्यमान ते पण जे काळना था लिंगधारी पुरुषो बाळकोनुं जणावतुं मंत्रादि प्रयोग करवा तथा वैडुं कखं तथा जेने जेवां जोइए तेने तेवां पुस्तक लखी आपवां इत्यादि द्रव्य उपार्जन करवानी क्रियानो मिषवमे हूं मोटो धनाढय थनुं हुं मोटो धनाढय थनं एवा अभिप्रायथी गृहस्थ लोको पासेथी धनना समूह ग्रहण करनारा एटले गृहस्थ पाथी अनेक युक्तिवमे धन लइ संचय करनारा देखाय बे ते निचे विषय तृष्णावके आकर्षण थयां जे अंत:करण तेथे करीने ते लिंगधारीने द्रव्य संग्रह करवामां प्रवृत्ति देखाय बे, एटले ते लिंगधारी विषय जोगववानी इच्छाएज द्रव्य पासे राखे बे पण ग्लानादि कारणे राखता नथी. टीका :- यक्तं । एका कित्वा विशुपठनतो मंत्रतंत्रैश्च
SR No.023205
Book TitleSangh Pattak - 40 Kavyano Attyuttam Shikshamay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri, Nemichandra Bhandagarik
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages704
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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