SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 8. अथ श्री संघटकः -- टीका-असा वेव चिरोपात पापसर्वकषो न्हणां । घनाघना हते कोऽन्यः ॥ प्लोष मोष कमो वने ॥४३॥ अर्थ-एज नमस्कार माणसना घणां काल सुधी उपार्जन करेला पापनो नाश करनार ले ते उपर दृष्टांत जेम वनने विषेश. ग्निदाहथी रक्षा करवामां समर्थ मेघविना बीजो कोण होय ? को नही तेम॥ टीकाः-ये मुं नव्या अपव्याज लनंते पोतव नवं लंघयंति नवांनोधि ते गनीर मन्नीरवः ॥ ४ ॥ अर्थः-जे नव्यप्राणी फाऊसमान नवकार मंत्रने पामे डे, ते प्राणी निर्नय थका गंजीर संसार समुज्नु उलंघन कर ॥४॥ टीकाः-पशवो प्येन मासाद्य नाकं साकं महच्छूिया ॥विंदंति कृत संसार तानवा मानवा व ॥४५॥ अर्थः-पशु पण ए नवकार मंत्रने पामी मोटी खदमीये सहित स्वर्गने पामे , जेम कर्यु ले संसार हलकास पणु जेमणे एवा माणस स्वर्गने पामे तेम ॥ ४५ ॥ टीकाः-नमत्सुर शिरोमौलिबिशासनवैन जुनक्ति शक्तिमान् प्राज्य स्वाराज्य य बचीपतिः ॥ ४६॥... अर्थः-जे नवकार मंत्रना प्रजावथी समर्थने, इंसाणीना स्वामीने नमता जे देवताना मस्तक मुकुट तेमणे अंगीकार करी ने याज्ञा वचननी कुरा जेमां एवं पोतानुं मोटुं इंज. पदवीनुं राज्य लोगो ने ॥४॥
SR No.023205
Book TitleSangh Pattak - 40 Kavyano Attyuttam Shikshamay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri, Nemichandra Bhandagarik
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages704
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy