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________________ 48. अथ श्री संघपट्टका - (६ थशे एवो प्रसंग प्रातःथयो. हवे सिझांती लिंगधारीउने पूडे जे, जो तमो एम कहेता हो के, तीर्थनो उच्छेद थशे तो ते जगोए तमने पुडीए बीए. टीकाः-श्रथ केनं प्रमाणेन नवता तदन्नावो निरणायि॥ किं प्रत्यदेण नतानुमानेन अहोस्विदागमेनेति त्रयः कपास्त्रि. कूटाचलकूटा श्च मंदैर्दुरारोहा प्ररोहंति ॥ तत्र न तावत्प्रत्यक्षण अर्वाग्दृशां प्रत्यकेण सर्वत्र तनावस्य निर्नेतुमशक्यत्वात्तथात्वे च सर्वसर्वज्ञत्वापत्तेः॥ अर्थः--जे हवे कया प्रमाणे करीने तमोए तीर्थनो उल्लेद थशे एवो निर्णय कों? शुं प्रत्यक्ष प्रमाणवमे कों? अथवा अनुमान प्रमाणवमे कर्यो? के आगम प्रमाणवमे कर्यो? ए प्रकारे त्रण विकल्प नुत्पन्न थाय नेते त्रिकूटाचल पर्वतनां त्रण शिखर होय नही ? एम मंद बुद्धिवालाथी:आरोहण न थाय एवा पुर्घट . एटले त्रण विकल्पनुं समाधान थाय एम नथी, तेमांप्रथम प्रत्यक्ष प्रमाणवतमारीवात सिझनथी थती, केमजे जेनी दृष्टि अवराएली ने, एटले जेने अल्प ज्ञान ले ते पुरुषोने प्रत्यक्षपणे सर्व जगाए तीर्थनो नछेद थशे एवो निर्णय करवानुं सामर्थ्य नथी ए हेतु माटे, ने जो सर्व पदार्थनो निर्णय करवानुं सामर्थ्य होय तो सर्व लोकने सर्वज्ञपणानी प्राप्ति थाय ए हेतु माटे एटले प्रत्यक्ष प्रमाणवके आपण जेवाथी तीर्थनो नछेद निर्णय करी शकाय तेम नथी. टीका-ततश्च क्वचिद्देशकालादौ तथानूतस्यापि संघस्य सं
SR No.023205
Book TitleSangh Pattak - 40 Kavyano Attyuttam Shikshamay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri, Nemichandra Bhandagarik
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages704
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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