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WWEEसाहेन, लापर
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चौबीस तीर्थकरचरित्र
0
कृष्णलाल वर्मा
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जैन रत्न (प्रथम खंड )
या
चौबीस तीर्थकर परिश्र
भूमिका लेखकजैनाचार्य श्रीविजयवल्लभ सूरिजी महाराजके प्रशिष्य रत्न मुनि श्रीचरणविजयजी महाराज
सन १९३५
लेखक–
श्रीयुत कृष्णलाल वर्मा
प्रकाशक
ग्रंथभंडार, लेडी हार्डिज रोड, माटुंगा ( बंबई )
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मूल्य छः रुपये
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प्रकाशक
कृष्णलाल वर्मा प्रोप्राइटर ग्रंथभंडार, लेडी हार्डिज रोड
माटुंगा (बंबई)
ायक सजन
१ सेठ वेलनी लखमसी नप्पूबंबई २ सेठ नानजी लद्धा बंबई
३ यतिजी महाराज श्री अनूपचंद्रजी उदयपुर ___४ सेठ मूलचंद्रजी, सोभागमलजी और पूनमचंदेनी बंबई ।
मुद्रकएस. व्ही. परुळेकर,
बंबई वैभव प्रेस, सेंढर्ट रोड, बंबई।
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လိုလိုသိပြီး
जैनरत्न
पंज (घ )
“လှောင်၌
वन्दे श्रीवीर मानन्दम्
श्रीयुत कृश्नलाल वर्मा का "जैन रत्नप्रथम खंड " ग्रन्थ हमने देखा, जिसमें चतुर्विंशति (२४) तीर्थंकरों का चरित्र है. ऐसे लोकोपयोगी जैन साहित्य की आज के जमाने में अति आवश्य करता है जो किंचित् रूप में वर्माजी ने सफलता प्राप्त की है. इसग्रन्थ में अधिक भागविष्टिशलाका पुरुष चरित्र भगवान् श्री हेमचन्द्राचार्य विरचित के अनुसार है इसलिए इसकी प्रामाणिकता में शंका को अवकाशा नहीं है. श्रीवीर संवत् २४६२ श्री आत्मसंवत् ४० विक्रम संवत् १९९२ ई० सन १९३५ मार्गशीर्ष कृष्ना सप्तमी सूर्य वार तारीख १७ नवम्बर इतिशम् । द. वल्लभ विजय.
आचार्य महाराज श्री विजयवल्लभ सूरिजिकी सम्मति
၁၆
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विषय सूची
(ओ)
(क) सहायक ग्रंथ ... (ख) भूमिका (ग) निवेदन १. आश्रय. ...
1. आरंभ
...
.
.
.
३. तीर्थकर-चरित-भूमिका.
१. आरे ... ... २. तीर्थंकरोंकी माताओंके चौदह स्वप्न ३. पंचकल्याणक (गर्भ, जन्म, दीक्षा, केवल और
निर्वाण कल्याणक) एवं चौसठ इन्द्रोके नाम १४-३१ ४. अतिशय
... ३२-३६ ४. श्री आदिनाथ-चरित ( १ ले तीर्थकर)
३७-९२ १. तेरह भव
३८-५२ २. पूर्वज ..
५२-५५ ३. जन्म और बचपन
५५-५९ ४. यौवन काल और गृहस्थ जीवन
५९-७२ ५. साधु जीवन ... ... ... ७२-९२ ५. श्री अजितनाथ-चरित ( २ रे तीर्थकर ) ... ९३-११९ ६. श्री संभवनाथ-चरित ( ३रे तीर्थकर ) ... ११९-१२५ ७. श्री अभिनंदन स्वामी-चरित (४ थे तीर्थकर) १२६-१२८ ८. श्री सुमतिनाथ स्वामी-चरित ( ५ वें तीर्थकर ) १२९-१३२ ९. श्री पद्मप्रभु-चरित ( ६ ठे तीर्थकर) ... १३२-१३५ १०. श्रीसुपार्श्वनाथ चरित (७ वें तीर्थंकर ) ...
१३५-१३७ ११. श्रीचंद्रप्रभ-चरित ( ८ वें तीर्थकर) .. १३७-१४०
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...
१२. श्रीपुष्पदंत (सुविधिनाथ) चरित (९ वे तीर्थकर ) १४०-१४३ १३. श्री शीतलनाथ-चरित (१० वें तीर्थकर) ... १४३-१४६ १४. श्री श्रेयांसनाथ-चरित ( ११ वें तीर्थकर ... १४६-१४८ १५. श्री वासुपूज्य-चरित ( १२ वें तीर्थकर ) ... १४७-१५१ १६. श्री विमलनाथ-चरित ( १३ वें तीर्थकर )... १५१-१५३ १७. श्री अनंतनाथ-चरित (१४ वें तीर्थकर )... १५४-१५६ १८. श्री धर्मनाथ-चरित ( १५ वें तीर्थकर ) १५६-१५८ १९. श्री शांतिनाथ-चरित ( १६ वें तीर्थकर)... १५९-२०६ २०. श्री कुन्थुनाथ-चरित ( १७ वें तीर्थकर २०६-२०८ २१. श्री अरनाथ-चरित ( १८ वें तीर्थकर ) २०९-२१० २२. श्री मल्लिनाथ-चरित ( १९ वें तीर्थकर ) ... २११-२१६ २३. श्री मुनिसुव्रत-चरित (२० वें तीर्थकर) २१६-२२० २४. श्री नमिनाथ-चरित (२१ वें तीर्थकर) २२०-२२२ २५. श्री नेमिनाथ-चरित (२२ वे तीर्थकर) ... २२२-२६०. २६. श्री पार्श्वनाथ-चरित (२३ वें तीर्थकर ) ... २६०-२८७ २७. श्री महावीरस्वामी-चरित (२४ वें तीर्थकर) २८७-४४० १. पूर्वके २६ भव ... ...
२८८-३०४ २. भगवान महावीरका (२७ वाँ) भव ... ३०४-३०७ ३. जन्म और जन्मोत्सव ...
३०८-३१० ४. देवका गर्व हरण किया ...
३१०-३१२ ५. अध्ययन, ब्याह और संतान
३१२-३१३ ६. दीक्षा, आधे देव दूष्य वस्त्रका दान ३१३-३१५ ७. गवाल कृत उपसर्ग, स्वावलंबनका उपदेश ३१५-३१७ ८. बेलाका पारणा, भक्तिजात उपसर्ग . ३१७-३१८ ९. दुइज्जतक तापसोंके आश्रममें
३१८-३२० १०. शूलपाणि यक्षको प्रतिबोध
३२१-३२५
...
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(उ)
११. दूसरेके दुःखका खयाल (अच्छंदककी कथा) ३२५-३२६ १२. चंडकौशिकका उद्धार ... ... ३२६-३३४ १३. सुदंष्ट्र नागकुमारका उपद्रव ... ३३४-३३५ १४. पुण्यको दर्शनसे लाभ, नालंदामें दूसरा चौमासा ३३६-३३९ १५. चंपानगरीमें तीसरा चौमासा
३३९-३४१ १६. पृष्ठ चंपामें चौथा चौमासा ... ३४१-३४४ १७. भद्दिलपुरमें पाँचवाँ चौमासा
३४५१८. भद्रिकामें छठा और आलभिकामें सातवाँ चौमासा ३४७-३४८ १९. राजगृहमें आठवाँ और म्लेच्छ देशोंमें नवाँ चौमासा ३४९ २०. गोशालाका परिवर्तवाद ... ... ३४९-३५० २१. गोशालकको तेजोलेश्याकी विधि बताई ३५१-३५२ २२. श्रावस्तीमें दसवाँ चौमासा
३५३-३५४ २३. संगमदेव कृत २० उपसर्ग...
३५४-३५१ २४. वैशालीमें ग्यारहवाँ चौमासा
३५९-३६४ २५. चंपानगरीमें बारहवाँ चौमासा
३६४-३६५ २६. कानोंमें कीलें ठोकनेका उपसर्ग
३६५-३६६ २७. केवलज्ञानकी प्राप्ति और दस आश्चर्य... ३६७-३६८ २८. उपसर्गोंके कारण और कर्ता
और की
...
३६९-३७० २९. उपमाएँ ... ... ... ३७१-३७३ ३०. महावीर स्वामीने कितने तप-उपवास किये? ३७३-३७६ ३१. महावीर स्वामीको विद्वान शिष्योंकी प्राप्ति ३७७-३८८ ३२. राजा श्रेणिकको प्रतिबोध...
३८८-३९० ३३. ऋषभदत्त, देवानंदा और जमालीको दीक्षा ३९०-३९३ ३४. महावीरके प्रभावसे शत्रुओमें मेल .... ३९३-३९६ ३५. चोरोंके सर्दारको दीक्षा ... ... ३६. दस श्रावकः : ... ... .... ३९७-३९८
३९६
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(ऊ)
३७. महावीर स्वामीपर गोशालकका तेजोलेश्या रखना ३९८-४०३ ३८. सिंह अनगारकी शंका ...
४०३-४०४ ३९. प्रभुका सिंहके आग्रहसे औषध लेना ... ४०४-४०५ ४०. राजर्षि प्रसन्नचंद्रको दीक्षा
४०५-४०८ ४१. केवलज्ञानका उच्छेद
४०८-४०९ ४२. मेंडकसे देव ... ...
४०९-४११ ४३. साल राजाको दीक्षा
४११४४. अंबड सन्यासीका आगमन...
४१२४५. राजा दशार्णभद्र
४१३-४१४ ४६. धन्ना, शालिभद्र आर रोहिणेय चोरको दीक्षा ४१४-४१५ ४७. राजा उदयनको दीक्षा ... ... ४१६ ४८. अंतिम राजर्षि कौन होगा? ... ४१६ ४९. अभयकुमार हल्लविहल्ल और श्रेणिककी पत्नियोंको दीक्षा
४१६-४१७ ५०. राजा हस्तिपालके स्वमोंका फल और उसे दीक्षा ४१८-४२१ ५१. कल्कि राजा
४२१-४२५ ५२. तीर्थकर विचरते हैं तब कैसी हालत रहती है ? ४२६ ५३. पाँचवाँ आरा
___ ... ... ४२६-४२८ ५४. छठा आरा
४२९-४३० ५५. उत्सर्पिणी कालके आरे ... ... ४३०-४३३ ५६. केवलज्ञानका और त्रिविध चारित्रका उच्छेद ४३४ ५७. मोक्ष ... ... ... ४३५-४२७ ५८. दीवाली पर्व ... ... ... ४३८-४३९
५९. गौतम गणधरको ज्ञान और मोक्षलाभ ४३९-४४० २८. तीर्थकरोंके संबंधकी जानने योग्य जरूरी बातें ४४१-४५३ २९. जैन दर्शन ... ... ... ४५४ .
भाग
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१. अवतरण
... ... ... ४५४-४५७ २. जीवतत्त्व
४५७-४६६ ३. अजीव (धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल, काल) ४६६-४७१ ४. पुण्य और पाप ...
४७१-४७२ ५. आस्रव ... ... ... ४७२-४७३ ६. संवर
४७४ ७. बंध ( आठकर्म, ज्ञानावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, ___ आयु, नाम, गोत्र, अन्तराय) ... ४७४-४७८ ८. निजरा ... ... ... ४७९-४८० ९. मोक्ष ..
४८०-४८९ १०. मोक्ष मार्ग ( दर्शन, ज्ञान, चारित्र, साधुधर्म, गृहस्थधर्म, ___ सम्यग्दर्शन, देवतत्त्व, गुरुतत्त्व, धर्मकी व्याख्या) ४८९-५०१ ११. गुणश्रेणी अथवा गुणस्थान ( १४ गुण ठाणा) ५०१-५०७ १२. अध्यात्म
५०७-५२१ १३. जैनाचार ...
५२१-५३४ १४. न्याय-परिभाषा
५३४-५४० १५. स्याद्वाद
५४०-५५७ १६. नय ...
५५७-५६४ १७. जैन दृष्टिकी उदारता
५६४-५६९ १८. उपसंहार ... ३०. परिशिष्ट (१) ..
५७०
५६९
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सहायक ग्रंथ
१ त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरित्र-श्रीमद्हेमचंद्राचार्य रचित.
२ श्रीमद्भगवती सूत्रम्-श्रीरायचंद्राजिनागम संग्रहका गुजराती अनुवादसहित (तीन खंड)
३ विशेषावश्यक-गुजराती भाषान्तर दो भाग (आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित)
४ जैनागम शब्दसंग्रह-शतावधानी पं० मुनि श्रीरत्नचंद्रजी महाराजद्वारा संपादित ।
५ जैनतत्त्वादर्श-श्रीमद्विजयानंद सूरिजी महाराज विरचित ।
६ श्री वीरनिर्वाण संवत और जैन कालगणना-मुनि श्रीकल्याण विजयजी महाराज लिखित ।।
७ पाइअसद्द महण्णवो-(प्राकृत हिन्दी कोश ) लेखक, पंडित हरगोविंददास टी. सेठ न्याय-व्याकरण तीर्थ ।
८ अर्द्धमागधीकोश ४ भाग-सम्पादक, शतावधानी पं० मुनि श्रीरतनचंद्रजी महाराज।
९ श्री महावीरस्वामाचरित्र-लेखक, वकील नंदलाल लल्लूभाई बडौदा।
१० भगवान महावीरका आदर्श जीवन । लेखक, प्रसिद्ध वक्ता पं० मुनि श्री चौथमलजी महाराज।
११ दश उपासको-( उवासम्ग दसाओका गुजराती अनुवाद) अनुवादक, अध्यापक बेचरदासजी दोशी व्याकरण-न्याय तीर्थ ।
१२ भगवान महावीरनी धर्मकथाओ-( गुजराती ) लेखक, पं० बेचरदास दोशी व्याकरण-न्याय तीर्थ ।
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वन्दे श्रीवीरमानन्दम् ।
* भूमिका
नमः सत्योपदेशाय, सर्वभूतहितैषिणे।
वीतदोषाय वीराय, विजयानन्दसूरये ॥ वर्तमान समय मुद्रण युग कहा जाता है । इसमें विविध विषयोंके अनेक बहुमूल्य ग्रन्थ भिन्न भिन्न संस्थाओं द्वारा छपकर प्रकाशित हो रहे हैं। आबालवृद्ध सभी मुद्रणकलासे मुद्रित ग्रन्थ ही पढ़ना चाहते हैं । सुंदर स्याही, बढ़िया कागज मनोहर अक्षर और लुभावनी बाइंडिंगसे अलंकृत पुस्तकें सबसे पहले पढ़ी जाती हैं । इस मुद्रणकलाने अपनी प्राचीन हस्तलिखित कलाको इतना धक्का पहुँचाया है कि जिसका वर्णन करना दुष्कर है । __ यह स्पष्ट है कि पुरानी लिखाईके जमानेमें पुस्तकें इतनी ही दुर्लभ, और महँगी थीं जितनी आज सुलभ और सस्ती हैं। आज हर एक आसानीसे पुस्तकें पढ़ सकता है । उस जमानेमें बड़ी कठिनतासे पुस्तकें पढ़नेको मिलती थीं । यदि किसीसे एक पुस्तक लेनी होती थी तो अधिक खुशामद करनी पड़ती थी । आज भी-ऐसे सुलभताके समयमें भी प्राचीन भंडारोंसे हस्तलिखित पस्तकें निकलवाते काफी अनुभव हो रहा है। पसीना उतरता है तब जाकर संरक्षकोंको दया आजावे तो पुस्तक नीकालके देते हैं। वह भी आधी या पाव संपूर्ण
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(औ)
तो मिलनी बहुत ही दुर्लभ है। कहीं कहीं सिफारश पहुँचानेसे मिल भी जाती है।
इस समय लिखित ग्रंथोंको पढनेवाले भी बहुत ही अल्प संख्यामें हैं। कितने ही तो लिखित पुस्तक है यह सुनकर हाथमें भी नहीं लेते । इस मुद्रणकलाने त्यागी वर्गको और गृहस्थवर्गको इतना वशकर लिया है कि वे प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थोंको पढना तक भूल गये हैं। यह कितना शोचनीय है ! ___ इस मुद्रणकलाने संसारपर उपकार भी बहुत किया है। इससे प्रायः सारा संसार पढ़ना सीखा ह । प्रत्येक व्यक्ति बढ़ियासे बढ़िया ग्रन्थ अल्प मूल्यम किसीकी भी खुशामद किये बिना सरलतासे प्राप्तकर सकता है और विना संकोच पढ़कर आत्मश्रेय कर सकता है। प्राचीन समयमें यह जरा मुश्किलसे मिलता था । कर्णोपकर्णसे शास्त्रका रहस्य सीखते थे। आज साक्षात् शास्त्र ग्रंथ हाथमें लिये और आद्योपान्त पढकर संतोष मानते हैं । __ ऐसे उपयोगी सुंदर कलाप्रधान मुद्रणयुगमें अनेक शास्त्र और चरित्रादि ग्रन्थ प्रसिद्ध हो रहे हैं।
वर्तमान दुनियाको नवीनता चाहिए । प्राचीन पद्धतिसे लिखे हुए ग्रन्थ जब नई पद्धतिसे लिखकर प्रकाशित कराये जाते हैं तब उनका बहुत आदर होता है। इसी तरह बहुत बड़े ग्रन्थकी बात थोडेमें मधुर भाषाके अंदर लिखी जाती है तो वाचकवर्ग उसको पढनेसे घाबराता नही है। प्रत्येक यह चाहता है कि थोड़ेमें ज्यादा ज्ञान मिले । बात भी सत्य है।
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(अ) यह पद्धति आज कलका नहीं है। बहुत प्राचीन कालसे चली आती है । संसारमें देखा जाता है कि महाभारत एक लक्ष श्लोक. प्रमाण बनाया गया था । २४ सहस्र श्लोक प्रमाण रामायण रचा गया था । पीछेसे ऐसे विद्वान हुए कि जिन्होंने थोड़ेमें संपूर्ण सारयुक्त बाल भारत, और बाल रामायण इत्यादिक रचे और उनसे पढ़नेवालोंका बहुत ही उपकार हुआ । __इसी तरह कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य महाराजने प्रायः छत्तीस हजार श्लोक प्रमाण त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित्र नामका तिरसठ. महापुरुषोंका सुन्दर जीवनवृत्तान्त-युक्त ग्रंथ बनाया। आचार्य श्रीहरिभद्र सूरिजी महाराजने संवेगरसपूर्ण श्रीसमरादित्य चरित्र हजारों, श्लोकोंके प्रमाणमें बनाया परन्तु यह सब बहुत विस्तृत होनेसे सभी लाभ उठा सकें इस विचारसे बाद में लघु त्रिषष्टिकी और संक्षेप समरादित्य चरित्रादिकी रचना की गई। इन सब प्रमाणोंसे सिद्ध होता है कि लोकरुचिको आदरपूर्वक ध्यानमें लेकर Short is sweet क अनुसार विस्तृत ग्रन्थ संक्षेपमें परन्तु भाव युक्त भाषामें रचे गये । इनसे समाज और भद्रिक आत्माआको बड़ा भारी लाभ हुआ । इसलिये थोड़ेमें अधिक जान सकें यह भावना आजकी नहीं परन्तु ऊपरके दृष्टान्तसे साफ प्रतीत होता है कि प्राचीन कालसे चली आती ह। उपर्युक्त प्रमाणोंसे ऐसा मानना आवश्यक है।
प्राचीन साहित्य संस्कृत, प्राकृत, मागधी, और अपभ्रंशादि भाषाऑमें रचा हुआ अधिक देखनेमें आता है । इसका प्रधान कारण यह है कि ये भाषाएँ उस समय इसी तरह प्रचलित थीं जिस तरह आज हिन्दी, गुजराती, मराठी, मारवाडी, बंगाली वगैरा हैं। बड़े बड़े सम्राट. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(अः)
राजा और महाराजा संस्कृत तथा प्राकृत प्रभृति भाषा के सर्वोच्च ज्ञाता होते थे । इस लिये उस समय में प्रत्येक प्रांत और देश में राजभाषाका व्यवहार संस्कृत प्राकृतादिका ही था । आज लाखों ग्रन्थ इस बात की साक्षी दे रहे हैं ।
बढ़ रहा
आज राजभाषा सर्वत्र संस्कृत - प्राकृत हटकर इंग्लिश (English) देखने में आती है । इस लिये हर जगह इसी इंग्लिश भाषाका है । कुछ लोग संस्कृत - प्राकृत भाषाओंको ( Dead language ) मरी हुई भाषा कह रहे हैं । अर्थात इसके जाननेवाले अल्प संख्या में पाये जाते हैं । सर्वत्र राजभाषाका प्रचार तो वेगसे | लोकसमूह अपने निर्वाहके लिये राजभाषाको जितना आदर देता है उतना औरको नहीं देता । अपने अपने देशों में मातृभाषाएँ तो कायम ही हैं मगर आज जितनी वेगसे राजभाषाकी गति है उतनी ही वेगसे हिन्दी भाषा पहुँच रही है भारतके अधिक भागमें हिन्दी बोली जानेके कारण सुज्ञोंने इसका नाम राष्ट्रभाषा रखा है । यह बात बिलकुल सत्य है । इसलिये इंग्लिशसे दूसरे नंबर पर इसीका सर्वत्र आदर है ।
1
इस राष्ट्रभाषा में जो ग्रन्थ प्रकाशित होते हैं उनका आदर सब स्थानों में होता है । उनसे हर एक भाषा जाननेवाला लाभ उठा सकता है। इसलिये श्रीयुत वर्माजीने यह स्तुत्य प्रयास किया है । उन्होंने त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरित्ररूपी महासागरमें डुबकी लगाकर उसमें से २४ बहुमूल्य मोती निकाले हैं । अर्थात् तिरसठ महापुरुषों के चरित्रोंमेंसे २४ पुरुषोत्तम तीर्थंकरोंके चरित्र हिन्दीमें लिखे हैं । भाषा बड़ी ही सरल, रोचक और कोमल है ।
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(क)
तीर्थंकरों और दूसरे महापुरुषोंके चरित्रोंका वर्णन पैंतालीस आगम शास्त्रोंमें, उनकी नियुक्तिमें, चूर्णिमें, टीकाओंमें और वसुदेव हिण्डी वगैरहमें आता है। उसी परसे कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्यने विस्तृत रूपसे त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरित्रकी मनोहर रचना की है। इस त्रिषष्टिके पहले भी अनेक चरित्र और कथा ग्रन्थ लिखे गये हैं परंतु प्रायः वे सभी प्राकृत और मागधी भाषामें ही अधिकतर उपलब्ध होते हैं। __ पैंतालीस आगमशास्त्र-जो जैनोंके सर्वस्व कहे जाते हैंप्राकृत-मागधी भाषामें ही श्री पूर्वाचार्योंने रचे हैं। इसका कारण स्पष्ट है कि उक्त आगम शास्त्रोंको अर्थ रूपसे श्रीतीर्थंकर भगवान कहते हैं और सूत्ररूपसे श्रीगणधर महाराज रचना करते हैं । " अत्यं भासइ अरहा, सुत्तं गुंथति गणहरा निउणा " यह रचना केवल लोकोपयोगी बनानेके लिये, हरेक सुगमतासे जान सके इस पवित्र इरादेसे, की गई हैं। शास्त्रोंमें आता है कि,
वालस्त्रीमन्दमूर्खाणां, नृणां चारित्रकांक्षिणाम् ।
अनुग्रहार्थ तत्त्वज्ञैः, सिद्धान्तः प्राकृतः कृतः ॥ बाल जीवोंके, स्त्रियोंके, मन्द बुद्धिवालोंके अपंडित जनोंके, आर चारित्रकी आकांक्षा रखनेवालोंके अनुग्रहार्थ-भलेके लिये तत्त्वज्ञोंने सिद्धान्तोंको प्राकृत-मागधी भाषामें रचा है। इस प्रमाणसे स्पष्ट प्रतीत होता है कि उदार चेता पूर्व महापुरुषोंने उस समयमें प्रचलित देश भाषामें ही शास्त्रोंको रचकर लोकोपकार किया है।
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(ख)
श्रीहेमचन्द्राचार्य भगवानके बाद जितने चरित्र लिखे गये हैं वे प्रायः सभी संस्कृतमें ही हैं। कारण उस समय संस्कृत भाषाका प्राधान्य था।
क्रमशः समय बीतता गया और साथ ही भाषा भी बदलती गई। लोग अपनी बोलचालकी भाषाहीमें धार्मिक पुरुषोंके जीवन चरित्र देखनेको उत्सुक हुए । समयको पहचाननेवाले उपकारी महात्माओंने और आचार्योंने उस समयकी प्रचलित भाषामें रास वगैरहकी रचना कर धार्मिक लोगोंकी धर्मभावनाको प्रफुल्लित और समाजको धर्मोन्मुख रखा । द्रव्य-क्षेत्रकाल और भावके अनुसार गीतार्थ पूर्व महापुरुषोंने मूल वस्तुको उसी स्वरूपमें कायम रख बाहरके रूपोंमें अनेक परिवर्तन किये हैं। आज भी अनेक परिवर्तन हो रहे हैं।
संसारमें सभी प्राणी निमित्त पाकर आचरण करनेवाले हैं । अनादिकालसे इस आत्माको शुभाशुभ निमित्त मिलते रहे हैं। अनादि स्वभाववश यह आत्मा अशुभ निमित्त पाते ही उस तरफ खिंच जाता है। परंतु शुभकी तरफ अच्छे निमित्त पानेपर भी बड़ी मुश्किलसे खिंचता है। जबतक निमित्त पाकर आत्मा शुभ मार्गकी तरफ नहीं झुकता है तबतक कभी उसका छुटकारा नहीं होनेवाला है । यह बात निर्विवाद और सुस्पष्ट है ।
निमित्त कहाँ तक इस आत्माको साहाय्य करता है इसका एक सुंदर आदर्श उदाहरण जो शास्त्रोंमें दिया गया है वह दिखलाना अनुचित नही समझा जावेगा ।
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(ग)
* समुद्रमें जिनेश्वरकी प्रतिमा-मूर्तिके आकारकी मछलियाँ होती हैं । उनको देखकर दूसरी कई मछलियाँ सम्यक्त्ववान बनती हैं और अपने आत्माका कल्याण करती हैं । जब अगाध समुद्रमें रहनेवाले जलचर आत्मा भी इस तरह निमित्त पाकर आत्मकल्याण करते हैं तब मनुष्योंको जिनप्रतिमा-मूर्ति कितनी उपकारक हो सकती है इसका विचार बुद्धिशालियोंको अवश्य ही करना उचित है । निमित्त प्राप्तकर प्राणियोंके विचार बदलते हैं और वे पश्चात्तापादि कर आत्मसाधनमें लग जाते हैं। इसमें संदेहके लिये कोई स्थान नहीं है।
जिन प्रतिमा-मूर्ति आदि निमित्तोंकी जितनी जरूरत है उतनी ही जरूरत उनके आदर्श चरित्रोंको जानने की है। उसी जरूरतको पूर्ण करनेके लिए, संस्कृत प्राकृतको नहीं जाननेवालोंके लिए, समयानुकुल लोकरुचिको ध्यानमें लेकर श्रीयुत कृष्णलाल वर्माजीने चौबीस तीर्थकरोंके उत्तम चरित्रोंकी रचना राष्ट्रभाषा हिन्दीमें की है। इनका मूल आधार कलिकाल सर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य रचित त्रिषष्टि शलाकापुरुष चरित्र है। ___ प्रत्येक आत्मा तीर्थकरोंके पवित्र चरित्रामृतका पानकर अपनी
आत्माको पवित्र बना सके इस हेतुसे वर्माजीने वर्तमानकी लोक भाषामें ये चरित्र तैयार किये हैं। भाषा इतनी सरल और सुंदर है कि बेपढ़े स्त्री पुरुष बालक और बालिका तक इस ग्रन्थको समझ सकते हैं और अपनी आत्माका हित साध सकते हैं । वर्माजीके लिखे हुए ग्रन्थोंमें हमेशा भाषा सौष्ठवकी रक्षा होती है।
*उपदेश प्रासाद ग्रन्थके तीसरे विभागके तेरहवें स्तंभमें यह वर्णन है।
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(घ )
इसमें भगवान आदिनाथ, शांतिनाथ, नेमनाथ, पार्श्वनाथ और महावीरके चरित्र सविस्तर लिखे गये हैं । शेष सभी संक्षेपमें हैं ।
यहाँ एक बातका खुलासा करना जरूरी जान पड़ता हैं । आजकल कुछ विधवाविवाहकी हिमायत करनेवाले शास्त्रोंके - माननीय आगम शास्त्रोंके - पाठों को समझे विना कहा करते हैं कि प्रभु श्री ऋषभदेवने सुनंदा के साथ पुनर्लग्न किया था । उनको मैं सस्नेह मगर जोर देकर कहता हूँ कि यह बात बिलकुल गलत है । शास्त्रोंका अभ्यास किये बगैर इस तरहकी व्यर्थ बातें करनेसे बहुत ही हानि होती है । अपनी क्षुद्र वृत्तियोंका खयाल न कर प्रभुतक पहुँचना सचमुच ही शोचनीय है । पुरुषोत्तम जगद्वंदनीय पुरुषके लिए ऐसी बात कहना वास्तवमें हास्यास्पद है | सत्य बात तो यह है कि
युगलियोंके समयमें शादी जैसी कोई प्रथा ही नहीं थी । श्रीऋषभदेव प्रभुका, इन्द्रने आकर व्याह करवाया था तभीसे शादी की रीति चली है। जो आज तक चली जा रही है ।
यह भी ध्यान देनेकी बात है कि जब श्रीऋषभदेव प्रभु बालक थे तभी, एक युगलियाका जन्म हुआ था । युगलियाके मातापिता उनको – बालक और बालिकाको - किसी ताडवृक्षके नीचे बिठाकर क्रीडा करनेको दूर जाते हैं इतनेहीमें हवा चलती है । ताड़फल टूटता है, बालकके । सिरपर आकर गिरता है । बालक वहीं मर जाता है । बालिका अकेली रह जाती है । मातापिता बालिकाका पालन करते हैं । कुछ दिन बाद उसके मातापिता भी मर जाते हैं । अत्यंत रूपवती बालिका अकेली रह जाती है । कुछ युग लिये इसको
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निराधार इधर उधर
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(ङ)
भटकते देख श्रीनाभि कुलकरके पास लाते हैं। नाभि कुलकर बालि काको, उसका वृत्तान्त जानकर, ग्रहण करते हैं और सबको पूछकर, सबकी सम्मतिसे, सबके सामने कहते हैं कि, बड़ी, होनेपर यह सुनंदा श्री ऋषभदेवकी पत्नी होगी। उस समय प्रभु बालक थे, सुनंदा भी बालक थी । प्रभु बालिका सुमंगला और सुनंदाके साथ बड़े होते हैं । योग्य उम्रके होनेपर इन्द्र और इन्द्राणियाँ मिलकर प्रभुके साथ दोनोंका ब्याह कराते हैं। तभीसे प्रभुके साथ पतिपत्नीका व्यवहार चालू होता है । यह बात आवश्यक चूर्णि, आवश्यक टीका, जंबूद्वीप पन्नति और त्रिषष्टि शलाकाचरित्रमें साफ तौरमे लिखी हुई है, तो भी यह कह देना कि प्रभुने विधवाब्याह किया था, कितना निंद्य और तिरस्करणीय है सो कहनेवालोंको खुद सोच लेना चाहिए। जिनको मूल पाठ देखना हो वे ऊपर जिन ग्रन्थोंके नाम दिये हैं उनमेंसे कष्ट करके देख लें। टीकाकारोंने कितना सुंदर खुलासा किया है वह भी देखनेसे साफ साफ मालूम हो जायगा । कहनेवालों को यह भी ध्यानमें रखना चाहिए कि जगद्वंदनीय प्रभु विधवाविवाह जैसा घृणित कार्य कभी कर ही नहीं सकते । __ यह खुलासा इसलिये करता हूँ कि शास्त्रोंके सबल प्रमाण मौजूद होते हुए भी परमार्थको जाने बगैर यद्वा तद्वा शास्त्रोंके नामसे उछल पड़ना और दुनियामें असत्य फैलाना इससे आत्मकल्याण नहीं है । भद्रिक आत्माएँ शास्त्रोंके वचनोंका परमार्थ न समझते होनेसे सत्य मान लेते हैं । इसलिये भवभीरु आत्माओंके लिये यह खुलासा सशास्त्र वचन प्रमाणसे किया गया है। सर्वे दुनियाका व्यवहार को दिखलानेवाले प्रभुके लिये इस तरह कहना यह सर्वथा सत्यसे दूर
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(च) है । आशा रखता हूँ कि ऊपरके वास्तविक खुलासेसे पुनर्विवाहके प्रलापकोंको सत्य जाननेको मिलेगा, और वे अपने जीवनमें परिवर्तनकर शुद्ध ब्रह्मचर्यकी तरफ पूर्ण दत्तचित्त होकर सत्यके ग्राहक बनेंगे। अस्तु ।
अंतमें इतनी नन सूचना करना उचित जान पड़ता है कि, एक बार इन चरित्रोंको शुरूसे आखिर तक जरूर पढ़ जाना चाहिए । सम्पूर्ण पढ़नेके बाद विचार स्थिर करने चाहिए। ऊपर ऊपर पढ़नेसे पढनेमें आनंद नहीं आता है और कई बार मिथ्या कल्पनाएँ भी घर कर जाती हैं । जिनेश्वरोंके पुनीत चरित्र पढ़नेसे आत्माका कल्याण होता है यह बात फिरसे कहनेकी जरूरत नहीं है।
श्रीयुत वर्माजीने जैसे चौबीस तीर्थकरोंके हिन्दी भाषामें सुंदर और उपयोगी चरित्र लिखकर प्रकाशित कराये हैं, वैसे ही शेष ३९ महापुरुषोंके चरित्र भी शीघ्र ही लिखकर प्रकाशित करावें ऐसी मेरी साग्रह सूचना है। ___ चौबीस तीर्थंकरोंके चरित्र लिखकर वर्माजीने संसारपर और खासकर हिन्दी समाजपर महान् उपकार किया है। इन चरित्रोंद्वारा उन्होंने साहित्यकी एक बहुत बड़ी कमीको पूरा किया है, इसके लिए उन्हें धन्यवाद है।
कलिकाल सर्वज्ञ श्रीहेमचंद्राचार्यने संस्कृतमें 'त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरित्र' नामका एक बड़ा सविस्तर ग्रंथ लिखा है । उसको ही सुंदर सफाईदार टाइपोंमें, निर्णयसागरके समान सुप्रसिद्ध प्रेसमें ऊँचे ब्ल्यु कागजोंपर छपाना स्थिर किया गया है। पूज्यपाद प्रातःस्मर
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(छ)
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णीय आचार्य श्रीविजयवल्लभ सूरि महाराजकी कृपासे और पूज्य प्रवर मुनिवर्य श्रीमान पुण्यविजयजी महाराजकी सहायतासे उसको सम्पादन करनेका कार्य मैंने अपने सिर लिया है। भावनगरकी श्रीआत्मानंद जैनसभा इसको श्रीजैन आत्मानंद शताब्दि सीरीजमें प्रकाशित करेगी। मुझे आशा है कि थोड़े ही समयमें मैं इसका, दसपासे, प्रथम पर्व विद्वानोंके करकमलोंमें दे सकूँगा। ___ श्रावकवर्गसे मैं आग्रह करूँगा कि, वह वर्माजीके ग्रंथरत्नको शीघ्र खरीद कर शेष महापुरुषोंके चरित्र छपानेमें ग्रंथभंडारके सहायक बनें। __शासनदेव श्रीवर्मानीकी उत्तम लेखनीसे लिखे गये इस ग्रंथ चरित्र रत्नको, हरेक घरमें और हरेक व्यक्तिके हाथमें पहुँचा कर वर्माजीके उत्साहको प्रति दिन बढावे । और दूसरे चरित्र लिखनेकी उन्हें प्रेरणा करे । इसी शुभाषासे विराम लेता हूँ। गोडीजीका उपाश्रय । न्यायांभोनिधि जैनाचार्य श्रीमद्विजयानंद सूरीश्वरजी, पायधुनी, बंबई नं. ३. प्रसिद्ध नाम श्री आत्मारामजी महाराजके पट्टधर वि० सं० १९९१ पूज्यपाद आचार्य श्रीविजयवल्लभ सूरीश्वरजी वीर सं० २४६१ महाराजके प्रशिष्य रत्न पंन्यास श्री उमंगविजयजी आत्म सं० ४० । महाराजके अन्तेवासी, विद्वज्जन कृपाकांक्षीविजयादसमी सोमवार | ता. ७--१०-३५ )
मुनि-चरणविजय
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निवेदन जैनोंका इतिहास बहुत बड़ा है। उसको व्यवस्थित रूपसे निकालनेकी बहुत जरूरत है । मगर इस जरूरतको पूरा करनेकी तरफ बहुत कम ध्यान दिया गया है।
हिन्दीकी बात दूर रही गुजरातीमें भी इसका कोई उद्योग किया गया हो ऐसा मालूम नहीं होता। यद्यपि गुजरातीमें बहुत जैनसाहित्य प्रकाशित हुआ है, तथापि ऐसा एक भी ग्रंथ अब तक प्रकाशित नहीं हुआ है जिससे कोई आदमी जैनोंके इतिहासको सिलसिलेवार जान सके। ____ मेरा कई बरसोंसे विचार था कि यह काम किया जाय; मगर शक्तिकी मर्यादा काममें हाथ लगानेसे रोकती रही थी। जिस विशाल ज्ञानकी, गहन अध्ययन और खोजकी एवं इनके लिए जिन आवश्यक साधनोंकी जरूरत है उन्हें अपने पास न पाकर मैं चुप रहता था । ___ आखिरकार सन १९२९ में मैंने अपनी अल्प शक्तिके अनुसार इस दिशामें काम करनेका इरादा पक्का कर लिया। ___ इस इरादेको कार्यरूपमें परिणत करनेके लिए — जैनरत्न' नामक ग्रंथ कई खंडोंमें प्रकाशित करानेकी योजना की गई। जिन्होंने जैनतत्त्वोंको आचरणमें लाकर यह सिद्ध किया है कि जैनतत्त्व एक काल्पनिक वस्तु नहीं है प्रत्युत वह जीवनको उच्च, आदरणीय, परोपकारमय और पवित्र बनानेवाला एक व्यवहारोपयोगी कीमिया है, जिन्होंने अपने जीवनसे यह प्रमाणित किया है कि, जैनतत्त्व व्यवहार
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SEEEEEEEEEEL EEEEEEEEEEEETEEEER EEEEEEEEEEE
BEESSEEEEEEEEEEEE»CCESSSSSSEEEEEEEEEEEEEEEE
जैनरत्न
पेज ( ग )
SEESE EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEK ISES ZEES 'GESET TESSESSESSESSES
श्रीयुत कृष्णलाल वर्मा इस ग्रंथके लेखक CeeeeeeeeeeeeCEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEESeeeee
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(झ)
कुशल, वीर, साहसी और आनके लिए प्राण देनेकी तालीम देनेवाला एक बहुत बड़ा गुरु है । जिन्होंने बताया है कि, जैनधर्मको धारण करनेवाला अन्याय और अत्याचारका मुकाबिला करनेके लिए असीम साहसी और वज्रतुल्य कठोर भी होता है और स्नेह एवं सौजन्यके सामने अत्यंत नम्र और कुसुमके समान कोमल भी होता है; जिन्होंने बताया है कि जैनधर्मधारक जुल्मियोंको कषायरहित होकर, तलवारके घाट भी उतार सकता है और मौका पड़नेपर हँसते हँसते अपने प्राण भी दे सकता है। जिन्होंने दुनियाको दिखाया है कि, जैनी राजा बनकर राज्यकी रक्षा कर सकता है, मंत्री बनकर सुचारु रूपसे राज्यतंत्र चला सकता है, व्यापारी बनकर देशको समृद्धि बढा सकता है, न्यायासनपर बैठकर दूधका दूध और पानीका पानी कर सकता है, युद्ध में जाकर तलवारके जौहर दिखा सकता है, धन पाकर नम्रता पूर्वक उस धनको प्रजाकी भलाईके लिए खर्च सकता है विद्या पाकर प्रजाजीवनको उन्नत बनानेमें और साहित्यकी अभिवृद्धि करनेमें उसका उपयोग कर सकता है; और साधु बनकर संयम, नियम, तप और त्यागका महान आदर्श और मुक्तिप्राप्तिका सर्वोत्तम मार्ग संसारको दिखा सकता है। उन सभीको मैं जैनोंके रत्न समझता हूँ। और ऐसे रत्नोंका जीवन-संग्रह इस ग्रंथमें किया जाय । यही जैनरत्नको योजनाका मुख्य उद्देश है।। __ ऐसे रत्न तीर्थकर हुए है, चक्रवर्ती आदि राजा हुए हैं, मंत्री हुए हैं, आचार्य हुए हैं, साधु हुए हैं श्रावक हुए हैं, और श्राविकाएँ हुई हैं। वर्तमानमें भी ऐसे रत्नोंकी कमी नहीं है । इसलिए प्रत्येक खंडके दो विभाग किये गये हैं।
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(ञ)
एक विभाग है प्राचीन महापुरुषोंकी जीवनियोंका और दूसरा
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विभाग है, अर्वाचीन जैन सद्गृहस्थों के परिचयोंका | प्राचीन महापुरुषोंकी जीवनियोंका कार्य कठिन है; परंतु परंतु वर्तमान सद्गृहस्थों के परिचयका कार्य अत्यंत कठिन निकला । कठिनाइयों और अवहेलनाओंका यदि वर्णन करने बैठूं तो शायद सौ दो सौ पेजकी एक खासी पुस्तक बन जाय । मगर मैं अपनी कठिनाइयों की गाथा सुनाकर अपने कृपालु पाठकों का समय बर्बाद न करूँगा । हाँ जिन सज्जनोंने मुझे उत्साह प्रदान किया और ग्रंथको छपाने के लिए पहलेसे धन प्रदानकर मेरा हौसला बढ़ उन सज्जनोंके नाम उपकारके साथ यहाँ स्मरण किये बगैर भी न रह सकूँगा । वे सज्जन हैं १ - सेठ वेलजी लखमसी B. A LL. B. बंबई । ( २ ) सेठ नानजी लद्धा बंबई । ( ३ ) यतिजी महाराज श्री अनूपचंद्रजी उदयपुर । ( ४ ) सेठ मणिलाल मेघजी थोभण बंबई ( ५ ) सेठ मोहनचंद्रजी मूथा दिगरस ( ६ ) सेठ कुंदनमलजी कोठारी दारव्हा । इनके अलावा वे सभी कृपालु ग्राहक जो पहले से ग्रंथके ग्राहक बने हैं और जिनके नाम सधन्यवाद आगे दिये गये हैं ।
उपकार माननेके बाद इस विलंब के लिए मैं नम्रतापूर्वक क्षमा माँगता हूँ । आशा है ग्राहकगण मुझे क्षमा करेंगे। मैं जानता हूँ कि पहलेसे रुपये देकर चार पाँच बरस तक ग्रंथ प्राप्त करनेके लिए राह देखना अति कठिन है; परंतु कृपालु ग्राहकोंने उस कठिनताको धीरज पूर्वक सहा इसके लिए मैं उनका अत्यंत आभारी हूँ ।
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(ट)
इन बरसोंमें सद्गृहस्थोंकी जीवनियोंमें जो कई उल्लेखनीय घटनाएँ हो गईं हैं। और जो हमें मालूम हुई हैं उनमेंसे मुख्यके उल्लेख यहाँ किये जाते हैं।
१-(क) सेठ वेलजी लखमसीको सन् १९३४ में इंडियन मर्चेटस चेम्बरने इंडिअन लेजिस्लेटिव एसेम्बली ( बड़ी धारासभा) के मेम्बर चुनना चाहा था। अगर ये जाते तो संभवतः ये ही इस सभाके पहले जैन मेम्बर होते; परंतु वेलनी सेठने वहाँ जाना स्वीकार न किया ।
(ख ) वेलजी सेठके छोटे भाई जादवजी सेठका सन १९३२ के नवंबरमें अवसान हो गया। यह बात बड़े खेदकी हुई ( इनकापूरा हाल जाननेको ‘जैनरत्न उत्तरार्द्ध श्वेतांबर स्थानकवासी जैन पेन १ से १२ तक देखो )
२-डॉ. पुन्शी हीरजी मैशरी सन १९३३ में बंबईकी म्युनिसिपल कोर्पोरेशनकी स्टेडिंग कसेटीके प्रमुख ( Chair man ) चुने गये थे। यह मान मात्र इन्हींको, जैनोंमें सबसे पहले मिला था। (देखो-जै. र. उ. श्वे. जै. पेज २३-२७ ) ___३-बड़े खेदके साथ लिखना पड़ता है कि सेठ चाँपसी भाराकी कंपनीकी जाहोजलाली अब पहलेसी नहीं रही है; परंतु उन्होंने जो धर्मकार्य किये हैं वे कायम हैं। प्रत्येक जाहोजलालीवाले सदग्रहस्थको इससे सबक लेना चाहिए और अपनी बढ़तीके समय जितना हो सके उतना धर्मकार्य कर लेना चाहिए। (देखो-जै. र. उ. श्वे. स्था. जै. पेज २९-३२)
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(ठ)
हिन्दी भाषा में जैन साहित्यका अभाव है । और उसमें भी चरित्र ग्रन्थ तो सर्वथा नहीं के बराबर हैं। इस अभावकी पूर्ति करनेका काम पाँच बरस पहले मैंने अपने निर्बल कंधोपर उठाया । बोझबहुत और शक्ति कम इसलिए इन पाँच बरसों में बहुत ही कम काम कर सका हूँ। तो भी मुझे संतोष है कि, मैं करीब ८ सौ पेजका ग्रन्थ पाठकों के भेट करनेमें समर्थ हुआ हूँ ।
मैं कह चुका हूँ कि, ग्रन्थमें दो विभाग हैं - पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध । पूर्वार्द्ध में प्राचीन जैन महापुरुषोंके चरित्र और उत्तरार्द्ध में वर्तमान सज्जनों और सन्नारियोंके परिचय देनेका विचार किया गया है । तद्नुसार जैनरत्नके प्रथम खंडमें—
( १ ) पूर्वार्द्ध में चौबीस तीर्थंकरोंके चरित्र हैं । ये चरित्र श्वेतांबर मूर्तिपूजक ग्रन्थानुसार दिये गये हैं । स्थानकवासी सम्प्रदाय मूर्तिपूजाकी बातोंके सिवा वे ही सब बातें मानता है जो श्वेतांबर मूर्तिपूजक समाज मानता है । इसलिए मूर्तिपूजाकी घटनाओंको छोड़ देनेके बाद ये चरित्र सर्वथा स्थानकवासी सम्प्रदाय की मान्यता के अनुसार हो जायँगे ।
दिगंबर सम्प्रदायकी मान्यताके अनुसार घटनाओं में बहुतसा अंतर है । मेरा इरादा था कि दोनों सम्प्रदायों में जो अन्तर है उसका एक परिशिष्ट जोड़ दिया जाय; परंतु परिस्थितियों की अनुकूलता के कारण ऐसा करना स्थगित रखा गया है ।
( २ ) उत्तरार्द्धमें भगवान महावीरके पुजारी तीनों सम्प्रदायोंके अनेक सज्जनों और सन्नारियोंका परिचय है । यह परिचय गुणग्रहणकी
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(ड)
दृष्टिसे और उन्होंने समाज या देशके लिए क्या क्या कार्य तनसे, मनसे या धनसे, किये हैं उनका दिग्दर्शन करानेके इरादेसे दिया है। दोषदृष्टिको इसमें जगह नहीं दी गई है। दोष कषायोंसे होते हैं। कषायोंकी न्यूनाधिकताके अनुसार सभी साधारण मनुष्योंमें न्यूनाधिक प्रमाणमें दोष हैं । सज्जन दोषोंकी उपेक्षा करते हैं और गुणोंको अपनाते हैं । _ मैं जानता हूँ कि जैन समाजमें सैकड़ों ही नहीं हजारों-लाखों रत्न हैं। सन्नारियाँ भी हैं और सज्जन भी हैं। मगर जैनरत्नकी प्रथम जिल्दमें बहुत थोडोंका, जिनका थोडे श्रमसे प्राप्त हो सका परिचय है । भविष्यमें अधिकका परिचय देनेकी कोशिश की जायगी । ___ जैनरत्नकी दूसरी जिल्दमें हम चक्रवर्तियों, वासुदेवों प्रति वासुदेवों
और बलदेवोंके चरित्र प्रकाशित करायँगे । फिर भगवान महावीर के बाद सिलसिलेवार इतिहास क्रमसे प्राचीन चरित्र प्रकाशित करानेका यत्न किया जायगा । उनमें जैनाचार्यों, जैनसाधुओं जैन राजाओं जैनमंत्रियों और प्रसिद्ध प्रसिद्ध श्रावकोंके चरित्र रहेंगे सुविधाके अनुसार इस क्रममें परिवर्तन भी किया जा सकेगा। ___ ऊपर जिनका उल्लेख किया गया है उनके चरित्र पूर्वार्द्ध में रहेंगे। उत्तरार्द्धमें सभी अर्वाचीन-वर्तमान जैन सज्जनों और सन्नारियोंके परिचय रहेंगे।
हमारा इरादा है कि, नैनरत्न धीरे धीरे जैनसमाजका एक उत्तम चरित्र-कोश हो जाय । मगर यह तभी संभव है, जब जैन सज्जन मेरी मदद करें।
इसकी योजना विस्तार पूर्वक ग्रन्थके अंतमें दी गई है।
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(ढ)
जैन रत्न के उत्तरार्द्ध में जिन सद्गृहस्थों के परिचय प्रकाशित कराये दानवीरों की सूची यहाँ दी जाती हैं दिये हैं । सबके पूर्ण परिचय पाठक
|
गये हैं उनमें से कुछ ऐसे जिन्होंने लाखों रुपये दान में उत्तरार्द्धमें देखें ।
दानकी रकम
दानदाता
१,३२,०००) सेठ वेलजी लखमसी नप्पू बंबई | १,४८,६००) सेठ हीरजी भोजराज एण्ड सन्स बंबई ३,२५,०००) सेठ मेघजी थोभण
५३,०००) सेठ देवजी खेतसी
१,०५,०००) सेठ चांपसी भारा १,,७५,०००) सेठ सोजपाल काया
१,००,०००) सेठ गणपत नप्पू २४,३०,१०१) सेठ खेतसिंह खीयसिंह २५,०००) सेठ हीरजी खेतसिंह १,३०,०००) सेठ हेमराज खीयसिंह
३,०५,७५०) सर वसनजी त्रिक्रमजी नाइट
३,२९,५९०) सेठ मोतीलाल मूलजी बंबई ।
४,४३,०००) सेठ देवकरण मूलजी
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99
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आदर्श जीवनमें प्रकाशित दानवीर सज्जनोंकी दानसूची ।
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तीनों सज्जन
एकही कुटुं
बके हैं ।
४७,०१,४९१)
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(ण)
इसमें जो जैन दर्शनका भाग है वह न्यायतीर्थ मुनि श्री न्यायविजयजी महारानका लिखा हुआ है। उन्होंने इसे जैनरत्नमें छापनेकी इजाजत दी है, इसके लिए मै उनका कृतज्ञ हूँ। __ आचार्य महाराज श्री विजयवल्लभ सूरिजीका उपकार मानता हूँ कि जिन्होंने अनेक कार्योंके होते हुए भी तीर्थंकरोंके चरित्र शुरूसे अंततक पढ़कर उनमें रही हुई अशुद्धियोंको शुद्ध करवा दिया है । इस ग्रंथमें जो शुद्धिपत्र है वह आपहीकी कृपाका फल है। ___ अंतमें मुनि श्री चरणविजयनी महाराजके प्रति कृतज्ञता प्रकट करता हूँ कि जिन्होंने कार्यकी अधिकताके होते हुए भी ग्रंथकी भूमिका लिख देनेकी कृपा की है।
कृष्णलाल वर्मा.
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(त)
जैनरत्नके पहलेसे ग्राहक होनेवाले सज्जन ।
प्रति.
यतिजी महाराज
| सेठ राजमलजी जयपुर श्री अनूपचंद्रनी उदयपुर ५ श्री हीरालालजी कामठी १ सेठ वेलजी लखमसी बंबई। ५ सेठ कुँवरजी आनंदनी बंबई १ सेठ नानजी लद्धा बंबई। ५ सेठ त्रिकमजी नरसी, डाह्याभाई । सेठ मूलचंदजी सोभागमलनी, सेठ वीरचन्द मेघजी थोभण वंबई ३ पूनमचंदनी ५
सा. हीरजी कानजी मणसी बंबई १ सेठ नेमीचन्द्रजी तराला
सा. वीरजी लद्धा, बंबई १ सेठ मोहनचन्द्रनी दिगरस
ला. शिवचरण लालजी सेठ शिवचन्द्रजी दिगरस सेठ कुंदनमलजी दारव्हा
जसवंत नगर १ ३
| सेठ वीरचंद पानाचंद माटुंगा १ मंत्री श्रींवीरतत्त्व प्रकाशक मंडल शिवपुरी ३
सेठ पदमसी शिवजी बंबई १ विजय धर्मलक्ष्मी ज्ञानमंदिर
डॉ. पुन्सीजी हीरजी बंबई १
१ ___ आगरा २ | सेठ लद्धाभाई मणसी बंबई पं० भगवानदासजी जयपुर १ | सेठ कुँवरजी केशवजी शामनी श्री ईश्वरलालनी जयपुर १
बंबई १ श्रीपूज्यनी श्रीधरणेन्द सेठ खीमजी जेठाभाई बंबई १
सूरिजी जयपुर १ । सा. चांपसी मालसी बंबई १
or or
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जैन-रत्न
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- आश्रय
सुख और दुःख जिनके सामने तुच्छ थे; मोह-माया जिनको कभी विचलित न कर सके; आरंभ किया हुआ काम जिन्होंने कभी अधूरा नहीं छोड़ा, आत्मकल्याण और जीव मात्रकी भलाई करना जिनका ध्रुव ध्येय था; भयका भयंकर भूत और स्नेहका हृदयको पानी पानी कर देनेवाला महान स्वर्गीय देव जिनको कभी अपने स्थिर मार्गसे चहित नहीं कर सका और जिनका नाम प्रत्येक मानव हृदय-पटपर, जानमें या अजानमें, अंकित है उन्हीं वीतराग वीर प्रभुका बलदायक आश्रय ग्रहणकर आज 'जैनरत्न'का यह महान कार्य आरंभ करता हूँ।
आरंभ
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Om
जैनशास्त्र कहते हैं कि, जैनधर्म अनादि अनंत है । इस कथनमें कोई अतिशयोक्ति नहीं मालूम होती। कारण सत्य और अहिंसा, अस्तेय और अपरिग्रह एवं ब्रह्मचर्य ये सिद्धान्त अनादि अनन्त हैं। कोई नहीं बता सकता कि वे कबसे आरंभ हुए और कबतक रहेंगे ? ऐसे महान् सिद्धान्त जिस धर्मकी
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जैन-रत्न
जड़ हों वह धर्म अनादि अनन्त है यह बात मानलेनेमें किसीको कोई ऐतराज नहीं हो सकता। दुनियामें जितने धर्म प्रचलित हैं उन सबमें उपर्युक्त सिद्धान्त ही किसी और किसी अंशमें काम कर रहे हैं। और उन्हीं सिद्धान्तोंके कारण वे धर्म टिके हुए हैं। __जैनधर्ममें उपर्युक्त सिद्धान्तोंकी विस्तृत विवेचना की गई है । उन सिद्धान्तोंके अनुसार जीवन बितानेवाली आत्माएँ महान् हुई हैं, होती हैं और होती रहेंगी। ऐसे सिद्धान्तोंको पालनेवाले सामान्य जीव भी सर्वज्ञ-सिद्ध-ईश्वर तक हो सकते हैं। एक महात्माने कहा है कि
'जो नर करणी करे, तो नर नारायण होय ।'
यह कथन बिल्कुल ठीक है। आदमी अगर करणी करे यानी वह सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य इन पाँच सिद्धान्तोंका अपने जीवनमें पूरा पालन करे तो वह आदमी मामूली आदमी मिटकर नारायण-ईश्वर-सर्वज्ञ बन जाता है।
जो पूर्णरूपसे इन सिद्धान्तोंको पालते हैं वे ईश्वर-तीर्थकर या सामान्य केवली-सर्वज्ञ होते हैं । जो इनका पालन करनेमें कुछ कमी करते हैं वे उनसे नीचे दर्जेके होते हैं । जैनशास्त्रोंने उनके चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव, पति वासुदेव और श्रावक ऐसे दर्जे गिनाये हैं। आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पूर्ण रूपसे पाँचों सिद्धान्तोंको पालनेवालोंकी पंक्तिमें आ जाते हैं।
जैनरत्नमें हम उपयुक्त सिद्धान्तोंका जिन महापुरुषोंने पालन किया है या करते हैं उन्हींके जीवनका परिचय करायँगे ।
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तीर्थंकर चरित-भूमिका
तीर्थंकर चरित-भूमिका
इस भूमिकामें उन बातोंका वर्णन दिया है जो समानरूपसे सभी तीर्थंकरोंके होती हैं । वे बातें मुख्यतया ये हैं
१-तीर्थकरोंकी माताओंके चौदह महा स्वम । २-पंच कल्याणक। ३-अतिशय ।
ये बाते भूमिका रूपमें इसलिए दी गई हैं कि, प्रत्येक तीर्थकरके चरित्रमें बार बार इन बातोंका वर्णन न देना पड़े। हरेक चरित्रमें समय बतानेके लिए आरोंका उल्लेख आयगा । इसलिए आरोंका परिचय भी इस भूमिकामें करा दिया जाता है।
आरे
समय विशेषको जैन शास्त्रोंमें आराका नाम दिया गया है । एक कालचक्र होता है । मुख्यतया इस कालचक्रके दो भेद किये गये हैं। एक है 'अवसर्पिणी' यानी उतरता और दूसरा है 'उत्सर्पिणी' यानी चढ़ता । अवसर्पिणीके छ: भेद हैं। जैसे-(१) एकान्त सुषमा ( २ ) सुषमा (३) सुषम दुःखमा (४) दुःखम सुषमा (५) दुःखमा और
* दिगंबर जैन आम्नायमें १६ स्वप्ने माने जाते हैं और श्वेतांबर जैन आम्नायमें चौदह ।
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जैन-रत्न mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm
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(६) एकान्त दुःखमा । इसी तरह उत्सर्पिणीके उल्टे गिननेसे छः भेद होते हैं । अर्थात् (१) एकान्त दुःखमा (२) दुःखमा (३) दुःखम सुषमा (४) सुषम दुःखमा (५) सुषमा, और (६) एकान्त सुषमा । इन्हीं बारह भेदोंका समय जब पूर्ण होता है तब कहा जाता है कि, अब एक. कालचक्र समाप्त हो गया है।
नरक, स्वर्ग, मनुष्य लोक और मोक्ष ये चार स्थान जीवोंके रहनेके हैं । उनमें से अन्तिम स्थानमें अर्थात् मोक्ष में तो केवल कर्म-मुक्त जीव ही रहते हैं। वाकी तीनमें कमलिप्त जीव रहते हैं। नरकके जीवीके चौदह (१४ ) भेद किये गये हैं । स्वर्गके जीवोंके एकसौ अठानवे (१९८) भेद किये गये हैं और मनुष्य लोकके जीवोंके ३५१ भेद किये गये हैं। मनुष्य लोकके कुछ क्षेत्रोंमें 'आरों का उपयोग होता है। इसलिये हम यहाँ मनुष्य लोकके विषयमें थोडासा लिख देना उचित समझते हैं।
मनुष्य लोकमें मुख्यतया ३ खंडोंमें मनुष्य बसते हैं। (१) जम्बू द्वीप (२) धातकी खण्ड और (३) पुष्कराई । जंबुद्वीपकी अपेक्षा धातकी खण्ड दुगना है और पुष्करार्द्ध, धातकी खण्डकी बराबर ही है । यद्यपि पुष्कर द्वीप धातकी. खण्डसे दुगना है तथापि उसके आधे हिस्सेहीमें मनुष्य बसते हैं इसलिए वह धातकी खण्डके बराबर ही माना जाता है । जंबुद्वीपमें,-भरत, ऐरवत, महाविदेह, हिमबन्त, हिरण्यवन्त, हरिवर्ष, रम्यकवर्ष, देवकुरु और उत्तर कुरु, ऐसे नौ,
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तीर्थंकर चरित-भूमिका
क्षेत्र हैं। धातकी खण्डमें इन्हीं नामोंके इनसे दुगने क्षेत्र हैं और धातकी खन्डके बराबर ही पुष्करा में हैं। इनमेंके आरंभके यानी भरत, ऐरवत और महाविदेह कर्म-भूमिके क्षेत्र हैं और बाकीके अंकर्म-भूमिके । इन्हीं कर्म-भूमिके पंद्रह क्षेत्रोंमें,-पाँच भरत, पांच ऐरवत, और पांच विदेहमें, इन आरोंका प्रभाव और उपयोग होता है, और क्षेत्रोंमें नहीं। __ महाविदेहमें केवल चौथा ' आरा' ही सदा रहता है। भरत और ऐरवतमें उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीका ब्यबहार होता है । प्रत्येक आरेमें निम्न प्रकारसे जीवोंके दुःख सुखकी घटा बढ़ी होती रहती है।
१-एकान्त सुषमा-इस ओरमें मनुष्योंकी आयु तीन पल्योपम तककी होती है। उनके शरीर तीन कोस तक होते हैं भोजन वे चार दिनमें एक बार करते है । संस्थान उनका 'समचतुरस्र ' होता है । संहनन उनका 'वज्र ऋषभ नाराच'
१-जहां असि (शस्त्रका) मसि (लिखने पढ़ने का) और कृषि ( खेतीका) व्यवहार होता है उसे कर्मभूमि कहते हैं। __२-जहां इनका व्यवहार नहीं होता है और कल्प वृक्षोंसे सब कुछ मिलता है उन्हें अकर्मभूमि कहते है ॥
३-संस्थान छः होते हैं । शरीरके आकार विशेषको संस्थान कहते हैं । (१) सामुद्रिक शास्त्रोक्त शुभ लक्षणयुक्त शरीरको ‘समचतुरस्त्र' संस्थान कहते हैं । (२) नाभिके ऊपरका भाग शुभ लक्षण युक्त हो
और नीचेका हीन हो उसे 'न्यग्रोध' संस्थान कहते हैं। (३) नाभिके नीचेका भाग यथोचित हो और ऊपरका हीन हो उसे 'सादी' संस्थान कहते हैं । (४) जहाँ हाथ, पैर, मुख, गला आदि यथा लक्षण हों और छाती, पेट, पीठ आदि विकृत हों उसे 'वामन' संस्थान कहते हैं । (५)
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जैन - रत्न
होता है । वे क्रोध - रहित, निरभिमानी, निर्लोभी और अधर्मत्यागी होते हैं । उस समय उनको असि, मसि और कृषिका व्यापार नहीं करना पड़ता है । अकर्म - भूमिके मनुष्योंकी भाँति ही उन्हें भी उस समय दस कल्पवृक्ष सारे पदार्थ देते हैं। जैसे - ( १ ) 'मद्यांग' नामक कल्पवृक्ष मद्य देते हैं । (२) 'भृतांग' पात्र - बर्तन देते हैं । ( ३ ) ' तूर्यांग' तीन प्रकार के बाजे देते हैं । (४-५) 'दीपशिखा' और 'ज्योतिष्क' प्रकाश देते हैं । (६) 'चित्रांग' विचित्र पुष्पों की मालाएँ देते हैं । (७) 'चित्ररस' नाना भाँतिके भोजन देते हैं । ( ८ ) 'मण्यंग ' इच्छित जहाँ हाथ और पैर हीन हों बाकी अवयव उत्तम हों उसे ' संस्थान कहते हैं । ( ६ ) शरीर के समस्त अवयव लक्षण - हीन हों उसे 'हुंडक' संस्थान कहते हैं ।
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कुब्जक
४ - संहनन भी छः ही होते हैं। शरीर के संगठन विशेषको संहनन कहते हैं । ( १ ) दो हाड़ दोनों तरफसे मर्कट बंधद्वरा बँधे हों, ऋषभ नामका तीसरा हाड़ उन्हें पट्टीकी तरह लपेटे हो और उन तीनों हड्डियों में एक हड्डी ठुकी हुई हो, वे वज्र के समान दृढ़ हों, ऐसे संहननको 'वज्र ऋषभ नाराच' कहते हैं । ( २ ) उक्त हड्डिया हों; परन्तु कालीकी तरह ठुकी हुई हड्डी न हो उसे 'ऋषभनाराच' संहनन कहते हैं । ( ३ ) दोनों ओर हाड़ ओर मर्कट बंध तो हों; परन्तु कीली और पट्टी के हाड़ न हों उसे 'नाराच' संहनन कहते हैं। ( ४ ) जहाँ एक तरफ मर्कट बंध और दूसरी तरफ कीली होती है उसे 'अर्द्धनाराच' संहनन कहते हैं । (५) जहाँ केवल कीलीसे हाड़ संधे हुए हों, मर्कट बंध पट्टी न हो उसे ' कीलक संहनन कहते हैं । ( ६ ) जहाँ अस्थियाँ केवल एक दूसरेसे अड़ी हुई ही हों, कीली, नाराच, और ऋषभ न हों; जो जरासा धक्का लगते ही भिन्ना हो जाय उसे 'छेवदु' संहनन कहते हैं ।
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तीर्थकर चरित-भूमिका
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आभूषण अर्थात जेवर देते हैं (९) 'गेहाकार' गंधर्व नगरकी तरह उत्तम घर देते हैं और (१०) 'अनग्न' नामक कल्पवृक्ष उत्तमोत्तम वस्त्र देते हैं। उस समयकी भूमि शर्करासे (शक्करसे)भी अधिक मीठी होती है । इसमें जीव सदा सुखी ही रहते हैं । यह आरा चार कोटाकोटि सागरोपमका होता है । इसमें आयुष्य,
१- आँख फुरकती हैं इतने समयमें असंख्यात समय हो जाते हैं । अथवा वह सूक्ष्मातिसूक्ष्म क्षणरूप काल जिसके भूतभविष्य का अनुमान न हो सके, जिसका फिर भाग न हो सके उसको 'समय' कहते हैं। ऐसे असंख्यात समयोंकी एक 'आवली' होती है । ऐसी दो सौ और छप्पन आवलियोंका एक 'क्षुल्लक भव' होता है ; इसकी अपेक्षा किसी छोटे भवकी कल्पना नहीं हो सकती है । ऐसे उत्तर क्षुल्लक भवसे कुछ अधिकमें एक 'श्वासोच्छ्वास रूप प्राणकी' उत्पत्ति होती है । ऐसे सात प्राणोत्पत्ति कालको एक 'स्ताक' कहते हैं । ऐसे सात स्तोकको एक 'लव' कहते हैं। ऐसे सतहत्तर लवका एक मुहूर्त (दो घड़ी) होता है । इस ( एक मुहूर्तमें १,६७,७७,२१६ आवलियाँ होती है।) तीस मुहूर्त्तका एक 'दिन रात' होता है । पन्द्रह दिन रातका एक 'पक्ष' होता है। दो पक्षोंका एक महीना होता है । बारह महीनों का एक वर्ष होता है। (दो महीनोंकी एक 'ऋतु' होती है । तीन ऋतुओंका एक 'अयन' होता है। दो अयनोंका एक वर्ष होता है।) असंख्यात वर्षांका एक पल्यापम होता है । दश कोटाकोटि पल्योपमका एक सागरोपम होता है । बीस कोटाकोटि सागरोपमका एक कालचक्र होता है। ऐसे 'अनंत' कालचक्रका एक पुद्गल परावर्तन होता है।
(नोट-यहाँ 'अनन्त' शब्द और 'असंख्यात' शब्द अमुक संख्याके द्योतक हैं । शास्त्रकारोंने इनके भी अनेक भेद किये हैं । इस छोटीसी भूमिकामें उन सबका वर्णन नहीं हो सकता । इन शब्दों ('असंख्यात या' अनन्त ) से यह अर्थ न निकालना चाहिए कि संख्या ही न हो सके। जिसका कभी अन्त ही न आवे।) ।
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जैन-रत्न
संहनन, आदि और कल्पवृक्षोंका प्रभाव क्रमशः कम होता जाता है। ___२-सुषमा-यह आरा तीन कोटाकोटि सागरोपमका होता है। उसमें मनुष्य दो पल्योपमकी आयुवाले, दो कोस ऊँचे शरीरवाले और तीन दिनमें एक बार भोजन करनेवाले होते हैं। इसमें कल्प वृक्षोंका प्रभाव भी कुछ कम हो जाता है। पृथ्वीके स्वादमें भी कुछ कमी हो जाती है और जलका माधुर्य भी कुछ घट जाता है। इसमें सुखकी प्रबलता रहती है । दुःख भी रहता है मगर बहुत थोड़ा। ____३-सुषमा दुःखमा-यह आरा दो कोटाकोटि सागरोपमका होता है । इसमें मनुष्य एक पल्योपमकी आयुवाले, एक कोस ऊँचे शरीरवाले, और दो दिनमें एक बार भोजन करनेवाले होते हैं। इस आरेमें भी ऊपरकी तरह प्रत्येक पदार्थमें न्यूनता आती जाती है । इसमें सुख और दुःख दोनोंका समान रूपसे दौरदौरा रहता है । फिर भी प्रमाणमें सुख ज्यादा होता है।
४-दुखमा मुषमा-यह आरा बयालीस हजार कम एक कोटाकोटि सागरोपमका होता है। इसमें न कल्पवृक्ष कुछ देते है न पृथ्वी स्वादिष्ट होती है और न जलमें ही माधुर्य रहता है। मनुष्य एक करोड़ पूर्व आयुष्यवाले और पाँच सौ धनुष ऊँचे शरीरवाले होते हैं । इसी आरेसे असि, मसि और कृषिका कार्य प्रारंभ होता है। इसमें दुःख और सुखकी समानता रहनेपर भी दुःख प्रमाणमें ज्यादा होता है।
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तीर्थंकर चरित-भूमिका
५-दुःखमा-यह आरा इक्कीस हजार वर्षका होता है । इसमें मनुष्य सात हाथ ऊँचे शरीरवाले और सौ वर्षकी आयु वाले होते हैं । इसमें केवल दुःखका ही दौरदौरा रहता है। सुख होता है मगर बहुत ही थोड़ा।
६ एकान्त दुखमा- यह भी इकोस हजार वर्षका ही होता है । इसमें मनुष्य एक हाथ ऊँचे शरीरवाले और सोलह बरसकी आयुवाले होते हैं । इसमें सर्वथा दुःख ही होता है ।
इस प्रकार छठे आरेके इक्कीस हजार वर्ष पूरे हो जाते हैं, तब पुनः उत्सर्पिणी काल प्रारंभ होता है। उसमें भी उक्त प्रकार ही से छः आरे होते हैं । अन्तर केवल इतनाही होता है कि, अवसर्पिणीके आरे एकान्त सुषमासे प्रारंभ होते है और उत्सर्पिणीके एकान्त दुःखमासे । स्थिति भी अवसर्पिणीके समान ही उत्सर्पिणीके आरोंकी भी होती है । पाठकोंको यह ध्यानमें रखना चाहिए कि ऊपर आयु और शरीरकी ऊँचाई आदिका जो प्रमाण बताया है वह आरेके प्रारंभमें होता है। जैसे जैसे काल बीतता जाता है वैसे ही वैसे उनमें न्यूनता होती जाती है
और वह आरा पूर्ण होता है तब तक उस न्यूनताका प्रमाण इतना हो जाता है, जितना अगला आरा प्रारंभ होता है उसमें मनुष्योंकी आयु और शरीरकी ऊँचाई आदि होते हैं । ___ ऊपर जिन आरोंका वर्णन किया गया है उनमें से तीसरे
और चौथे आरेमें तीर्थंकर होते हैं।
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जन-रत्न
तीर्थंकरोंकी माताओंके चौदह स्वप्न
+are, अनादिकालसे संसारमें यह नियम चला आरहा है कि, जब जब किसी महापुरुषके, इस कर्मभूमिमें आनेका समय होता है तभी तब उसके कुछ चिन्ह पहिलेसे दिखाई दे जाते हैं। इसी भाँति जब तीर्थंकर होनेवाला जीव गर्भमें आता है तब उस विदुषीको यानी तीर्थकर जब गर्भम आते हैं तब उनकी माताओंको चौदह स्वप्न आते हैं । सब तीर्थकरोंकी माताओंको एकहीसे स्वप्न आते हैं । स्वप्नमें जो पदार्थ आते हैं उनके दिखनेका क्रम भी समान ही होता है । केवल प्रारंभमें फर्क हो जाता है । जैसे ऋषभ देवजीकी माता मरुदेवीने पहिले वृषभ-बैल देखा था: अरिष्टनेमिकी माता शिवादेवीने पहिले हस्ति-हाथी देखा था आदि । ये स्वप्न चौदह महास्वप्नोंके नामोंसे पहिचाने जाते हैं। जो पदार्थ स्वप्नमें दिखते हैं उनके नाम ये हैं (१) वृषभ (२) हस्ति ( ३ ) केसरी सिंह (४) लक्ष्मी देवी (५) पुष्पमाला (६) चंद्रमंडल (७) सूर्य (८) महाध्वज (९) स्वर्ण कलश (१०) पद्मसरोवर (११) क्षीरसमुद्र (१२) विमान (१३ ) रत्नपुंज और (१४) निर्धूम अग्नि
ये पदार्थ कैसे होते हैं उनका वर्णन शास्त्रकारोंने इस तरह किया है।
[१] वृषभ-उज्ज्वल, पुष्ट और उच्च स्कंधकला, लम्बी और सीधी पूँछवाला, स्वर्णके घूघरोंकी मालावाला और
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तीर्थंकर चरित-भूमिका
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विद्युत्युक्त - बिजलीसहित शरद ऋतुके मेघ समान वर्णवाला होता है ।
[ २ ] हाथी - सफेद रंगवाला, प्रमाणके अनुसार ऊँचा, निरन्तर गंडस्थल से झरते हुए मदसे रमणीय, चलते हुए कैलाश पर्वतकी भ्रान्ति करानेवाला और चार दाँतवाला होता है। [ ३ ] केशरीसिंह - पीली आँखोंवाला, लम्बी जीभवाला, धवल (सफेद) केशरवाला और शूरवीरोंकी जयध्वजा के समान पूँछवाला होता है ।
[ 8 ] लक्ष्मी देवी – कमलके समान आँखोंवाली, कमलमें निवास करनेवाली, दिग्गजेन्द्र अपनी सूँडोंमें कलश उठा कर जिसके मस्तकपर डालते हैं ऐसी, शोभायुक्त होती है । [१] पुष्पमाला - देव वृक्षोके पुष्पोंसे गूँथी हुई और धनुष के समान लम्बी होती है।
६] चंद्रमंडळ - अपने ही [ तीर्थंकरों की माताओंको उनके ही ] मुखकी भ्रान्ति करानेवाला, आनन्दका कारण रूप और कांतिके समूह से दिशाओंको प्रकाशित कियेहुए होता है । ] सूर्य - रातमें भी दिनका भ्रम करानेवाला, सारे अंधकारका नाश करनेवाला, और विस्तृत होती हुई कान्ति वाला होता है ।
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[C] महाध्वज - - चपल कानोंसे जैसे हाथी सुशोभित होता है वैसे ही घूघरियों की पंक्तिके भारवाला और चलायमान पताकासे शोभायुक्त होता है ।
[९] स्वर्ण कलश - विकसित कमलोंसे इसका मुख भाग १ – शेरकी गर्दन में जो बाल होते है उन्हें केशर कहते हैं ।
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अर्चित होता है, यह समुद्र मंथन के बाद सुधाकुंभ - अमृत के कलशके समान और जलसे परिपूर्ण होता है ।
[१०] पद्म सरोवर - इसमें अनेक विकसित कमल होते भ्रमर उनपर गुंजार करते रहते हैं ।
[११] क्षीर समुद्र - यह पृथ्वीमें फैली हुई शरद ऋतुके मेघकी लीलाको चुरानेवाला और उत्ताल तरंगों के समूहसे चित्तको आनंद देनेवाला होता है ।
[१२] विमान - यह अत्यंत कान्तिवाला होता है । ऐसा जान पड़ता है कि, जब भगवानका जीव देवयोनिमें था तब वह उसीमें रहा था। इसलिए पूर्व स्नेहका स्मरण कर वह आया है । [१३] रत्नपुंज - यह ऐसा मालूम होता है कि, मानों किसी कारण से तारे एकत्र हो गये हैं; या निर्मल कांति एक जगह जमा हो गई है ।
[१४] निर्धूम अग्नि- इसमें धुआँ नहीं होता । यह ऐसा प्रकाशित मालूम होता है कि, तीन लोकमें जितने तेजस्वी पदार्थ वे सब एकीभूत हो गये हैं । x
जब ये चौदाह स्वप्न आते हैं और तीर्थकर, देवलोक से च्यवकर माताके गर्भ में आते हैं तब इन्द्रोंके आसन काँपते हैं । इन्द्र उपयोग देकर देखते हैं । उनको मालूम होता है कि, भगवानका जीव अमुक स्थानमें गर्भमें गया है तब वे वहाँ जाते हैं और गर्भधारण करनेवाली माताको इन्द्र इस तरह स्वर्मो का फल सुनाते है:
X दिगम्बर आम्नायमें ' दो मच्छ' और 'सिंहासन' ये दो स्वम अधिक हैं । तथा महाध्वजकी जगह 'नाग भुवन' है । और सब समान हैं ।
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"हे स्वामिनी ! तुमने स्वप्नमें वृषभ देखा इससे तुम्हारे कूख से मोहरूपी कीचमें फंसे हुए धर्मरूपी रथको निकालने वाला पुत्र होगा। आपने हाथी देखा इससे आपका पुत्र महान पुरुषोंका भी गुरु और बालका स्थानरूप होगा । सिंह देखा इससे आपका पुत्र पुरुषोंमें सिंहके समान धीर, निर्भय, शूरवीर और अस्खलित पराक्रमवाला होगा । लक्ष्मीदेवी देखी इससे आपका पुत्र तीन लोककी साम्राज्यलक्ष्मीका पति होगा । पुष्पमाला देखी इससे आपका पुत्र पुण्य दर्शनवाला होगा; अखिल जगत् उसकी आज्ञाको मालाकी तरह धारण. करेगा । पूर्णचंद्र देखा इससे आपका पुत्र मनोहर और नेत्रोंको आनंद देनेवाला होगा । सूर्य देखा उससे तुम्हारा पुत्र मोहरूपी अन्धकारको नष्ट कर जगत्में उद्योत करने वाला होगा । धर्मध्वज देखा इससे आपका पुत्र आपके वंशमें महान प्रतिष्ठा वाला और धर्म ध्वजी होगा । पूर्ण कुंभ देखा, इससे आपका पुत्र सर्व अतिशयोंसे पूर्ण यानी सर्व अतिशय युक्त होगा । पद्मसरोवर देखा इससे आपका पुत्र संसार रूपी जंगलमें पापतापसे तपते हुए मनुष्योंका ताप हरेगा । क्षीर समुद्र देखा इससे आपका पुत्र अधृष्य-नहीं पहुंचने योग्य होनेपर भी लोग उसके पास जा सकेंगे। विमान देखा इससे आपके पुत्रकी वैमानिक देव भी सेवा करेंगे । रत्नपुंज देखा इससे आपका पुत्र सर्वगुण सम्पन्न रत्नोंकी खानके समान होगा। और जाज्वल्यमान निधूम अग्नि देखा इससे आपका पुत्र अन्य तेजस्वियोंके तेजको फीका करनेवाला होगा।
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आपने चौदह स्वप्ने ही देखे हैं इससे आपका पुत्र चौदह राजलोकका स्वामी होगा।"
इस तरह स्वप्नोंका फल सुनाकर इन्द्र अपने अपने स्थान'पर चले जाते हैं।
पंच कल्याणक
तीर्थकरोंके जन्मादिके समय इन्द्रादि देव मिलकर जो उत्सव करते हैं उन उत्सवोंको कल्याणक कहते हैं। इन उत्सवोंको देवता अपना और प्राणीमात्रका कल्याण करनेवाले समझते हैं इसीलिए इनका नाम कल्याणक रक्खा गया है । ये एक तीर्थंकरके जीवनमें पांच बार किये जाते हैं । इस लिये इनका नाम पंचकल्याणक रक्खा गया है । इन पाँचोंके नाम हैं [१] गर्भ-कल्याणक [२] जन्म-कल्याणक [३] दीक्षा-कल्याणक [ ४ ] केवलज्ञान-कल्याणक और [५] निर्वाण-कल्याणक । इन पाँचो कल्याणकोंके समय इन्द्रादि देव कैसी तैयारियाँ करते हैं उनका स्वरूप यहाँ लिखा जाता है।
[१] गर्भ-कल्याणक-भगवानका जीव जब माताके गर्भमें आता है तब इन्द्रोंके आसन कंपित होते हैं । इन्द्र सिंहासनसे उतरकर भगवानकी स्तुति करते हैं और फिर जिस स्थानपर भगवान उत्पन्न होनेवाले होते हैं वहाँ वे जाकर भगवानकी माताको जो चौदह स्वप्न आते है उन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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स्वप्नोंका फल सुनाते हैं । बस इस कल्याणक इतना ही होता है।
२] जन्म-कल्याणक-भगवानका जब जन्म होता है तब यह उत्सव किया जाता है । जब भगवानका प्रसव होता है तब दिककुमारियाँ आती हैं।
सबसे पहिले अधोलोककी आठ दिशा-कुमारियाँ आती है । इनके नाम ये हैं,-भोगंकरा, भोगवती, सुभोगा, भोगमालिनी, तोयधारा, विचित्रा, पुष्पमाला और अनिंदिता। ये आकर भगवानको और उनकी माताको नमस्कार करती हैं। फिर भगवानकी मातासे कहती हैं कि,-"हम अधोलोक की दिक्कुमारियाँ हैं । तुमने तीर्थंकर भगवानको जन्म दिया है । उन्हींका जन्मोत्सव करने यहाँ आई हैं । तुम किसी तरहका भय न करना । उसके बाद वे पूर्व दिशाकी ओर मुखवाला एक सूतिका गृह बनाती है। उसमें एक हजार स्तंभ होते हैं। फिर 'संवत' नामकी पवन चलाती हैं । उससे मुनिका गृहके एक एक योजन तकका भाग काँटों और कंकरों रहित हो जाता है । इतना होनेबाद ये गीत गाती हुई भगवानके पास बैठती हैं। - इनके बाद मेरु पर्वतपर रहनेवाली उर्द्धलोक वासिनी, मेघंकरा, मेघवती, सुमेघा, मेघमालिनी, तोयधारा, 'विचित्रा, वारिषेणा और वलाहिका, नामक आठ दिक्कुमारियाँ आती है। वे भगवान और उनकी माताको नमस्कार कर विक्रियासे आकाशमें बादल कर, सुगंधित जलकी दृष्टि
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जैन-रत्न
करती हैं। जिसमें अधोलोक वासिनी दिक्कुमारियोंकी साफ की हुई एक योजन जगहकी धूल नष्ट हो जाती है। वह सुगंधसे परिपूर्ण हो जाती है । फिर वे पंचवर्णी पुष्प बरसाती हैं। उनसे पृथ्वी अनेक प्रकारके रंगोंसे रंगी हुई दिखती है । पीछे वे भी तीर्थंकरोंके गुणानुवाद गाती हुई अपने स्थानपर वैठ जाती हैं। __ इनके बाद पूर्व रुचकादि' ऊपर रहनेवाली नंदा, नंदोत्तरा, आनंदा, नंदिवर्द्धना, विजया, वैजयंती, जयंती और अपराजिता नामकी आठ दिक्कुमारियाँ आती हैं। वे भी दोनोंको नमस्कारकर अपने हाथोंमें दर्पण-आईने ले गीत गाती हुई पूर्व दिशामें खड़ी होती हैं।
इनके बाद दक्षिण रुचकादिमें रहनेवाली समाहारा, सुप्रदत्ता, सुप्रबुद्धा, यशोधरा, लक्ष्मीवती, शेषवती, चित्रगुप्ता और वसुंधरा नामकी आठ दिक्कुमारियाँ आती हैं और दोनों माता-पुत्रको नमस्कार कर, हाथोंमें कलश ले गीत गाती हुई दक्षिण दिशामें खड़ी रहती हैं। ___ इनके बाद, पश्चिम रुचकादिमें रहनेवाली इलादेवी, सुरादेवी, पृथ्वी, पद्मावती, एकनासा, अनवमिका, भद्रा, और अशोका नामकी आठ दिक्कुमारियाँ आती हैं और दोनों
१-रुचक नामका १३ वाँ द्वीप है । इसके चारों दिशाओंमे तथा, चारों विदिशाओंमें, पर्वत है । उन्हीं के पूर्वदिशावाले पर्वतपर रहनेवाली। इसी तरह दक्षिण रुचकाद्रि आदि दिशा विदिशाओंके लिए भी समझना चाहिए।
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तीर्थंकर चरित-भूमिका
को प्रणाम कर हाथोंमें पंखे ले गीत गाती हुई उत्तर दिशा में खड़ी हो जाती हैं। __फिर उत्तर रुचक पर्वतपर रहनेवाली अलंबुसा, मिश्रकेशी, पुण्डरीका, वारणी, हासा, सर्वप्रभा, श्री और ही नामकी आठ दिक्कुमारियाँ आती हैं. और दोनोंको नमस्कार कर, हाथोंमें चमर ले गीत गाती हुई उत्तर दिशामें खड़ी होती हैं।
फिर ईशान, अग्नि, वायव्य और नैऋत्य विदिशाओंके अन्दर रहनेवाली चित्रा, चित्रकनका, सतेरा और सूत्रामणि नामकी दिक्कुमारियाँ आती हैं और दोनोंको नमस्कार कर, अपनी अपनी बिदिशाओं में दीपक लेकर गीत गाती हुई खड़ी होती हैं।
इन सबके बाद रुचक द्वीपसे रूपा, रूपासिका, सुरूपा और रूपकावती नामकी चार दिक्कुमारियाँ आती हैं। फिर भगवानके जन्मगृहके पास ही पूर्व, दक्षिण और उत्तरमें तीन कदली गृह बनाती हैं। प्रत्येक गृहमें विमानोंके समान सिंहासन सहित विशाल चौक रचती हैं । फिर भगवानको अपने हाथोंमें उठा, माताको चतुर दासीकी भाँति सहारा दे, दक्षिणके चौकमें ले जाती हैं । दोनोंको सिंहासनपर बिठाती हैं और लक्षपाक तैलकी मालिश करती हैं। वहाँसे उन्हें पूर्व दिशाके चौकमें लेजाकर सिंहासनपर बिठाती हैं, स्नान करबाती हैं, सुगंधित काषाय वस्त्रोंसे उनका शरीर पौंछती हैं, गोशीर्ष चंदनका विलेपन करती हैं और दोनोंको दिव्य वस्त्र तथा विद्युतप्रकाशके समान विचित्र आभूषण पहनाती हैं।
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जन-रत्न
तत्पश्चात् वे दोनों को उत्तरके चौक में लेजाकर सिंहासनपर बिठाती हैं । वहाँ वे अभियोगिक देवताओं के पाससे क्षुद्र हिमवंत पर्वत से गोशीर्ष चंदनका काष्ठ मँगवाती हैं । अरणिकी दो लकड़ियोंसे अनि उत्पन्न कर होममें योग्य तैयार कियेहुए गोशीर्ष चंदनके काष्ठसे होम करती हैं। उससे जो भस्म होती है उसकी रक्षापोटली कर वे दोनों के हाथोंमें बाँध देती हैं। यद्यपि प्रभु और उनकी माता महामहिमामय ही हैं, तथापि दिक्कुमारियोंका ऐसा भक्तिक्रम है, इसलिए वे करती ही हैं। तत्पश्चात् वे भगवानके कानमें कहती हैं, 'तुम दीर्घायु होओ।' फिर पाषाणके दो गोलों को पृथ्वी में पछाड़ती हैं । तब दोनोंको वहाँसे सूतिका गृहमें लेजाकर सुला देती हैं और गीत गाने लगती हैं ।
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दिक्कुमारियाँ जिस समय उक्त क्रियायें करती हैं उसी समय स्वर्ग में शाश्वत घंटोंकी एक साथ उच्च ध्वनि होती है । उसको सुनकर सौधर्म देवलोकके इन्द्र सौधर्मेन्द्र पालक नामका एक असंभाव्य और अप्रतिम विमान रचवाकर तीर्थकरों के जन्म नगरको जाता है । वह विमान पाँच सौ योजन ऊँचा और एक लाख योजन विस्तृत होता है । उसके साथ आठ इन्द्राणियाँ और उसके आधनिके हजारों लाखों देवता भी जाते हैं । विमान जब स्वर्ग से चलता है तब ऊपर बताया गया इतना बड़ा होता है । परंतु जैसे जैसे वह भरतक्षेत्रकी ओर बढ़ता जाता है वैसे ही वैसे वह संकुचित होता जाता है । यानी इन्द्र अपनी विक्रियालब्धिके बल से उसे छोटा बनाता जाता है । जब विमान सूतिकागृहके पास पहुँचता है तब वह बहुत ही छोटा हो जाता है ।
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तीर्थंकर चरित-भूमिका
वहाँ पहुँचनेपर सिंहासनमें बैठे ही बैठे इन्द्र मूतिका गृहकी परिक्रमा देता है और फिर उसे ईशान कोणमें छोड़ आप हर्षचित्त होकर प्रभुके पास जाता है । वहाँ पहले प्रभुको प्रणाम करता है फिर माताको प्रणामकर कहता है,-" माता ! मैं सौधर्म देवलोकका इन्द्र हूँ। भगवानका जन्मोत्सव करने के लिए आया हूँ। आप किसी प्रकारका भय न रक्खें ।"
इतना कहकर वह भगवानकी मातापर अवस्वापनिका नामकी निद्राका प्रयोग करता है । इससे माता निद्रित-बेहोशीकी दशामें हो जाती है । भगवानकी प्रतिकृतिका एक पुतला भी बनाकर उनकी बगलमें रख देता है फिर वह अपने पाँच रूप बनाता है। देवता सब कुछ कर सकते हैं। एक स्वरूपसे भगवानको अपने हाथोमें उठाता है । दूसरे दो स्वरूपोंसे दोनों तरफ खड़ा होकर चँवर ढोलने लगता है। एक स्वरूपसे छत्र हाथमें लेता है और एक स्वरूपसे चोबदारकी भाँति वज्र धारण करके आगे रहता है । इस तरह अपने पाँच स्वरूप सहित वह भगवानको आकाश मार्गद्वारा मेरु पर्वतपर ले जाता है। देवता जयनाद करते हुए उसके साथ जाते हैं । मेरु पर्वतपर पहुँच कर वह निर्मल कातिवाली अति पांडुकंबला नामकी शिलासिंहासन-जो अन्तिस्नात्रके योग्य होती है-पर, भगवानको अपनी गोदमें लिए हुए बैठ जाता है। ___ जिस समय वह मेरु पर्वतपर पहुँचता है उस समय 'महाघोष' नामका घंटा बजता है, उसको सुन, तीर्थकरका जन्म जान, अन्यान्य ६३ इन्द्र भी मेरु पर्वतपर आते हैं।
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जैन-रत्न
चौसठ इन्द्रोंके नाम नीचे दिये जाते हैं ।
. (वैमानिक देवोंके इन्द्र १०) १-सौधर्भेन्द्र-(इसके आनेका वर्णन ऊपर दिया है।) २-ईशानेन्द्र, अपने अठासी लाख विमानवासी देवताओं
सहित 'पुष्पक' विमानमें बैठकर आता है। ३-सनत्कुमार इन्द्र, बारह लाख विमानवासी देवताओं
सहित 'सुमन' विमानमें बैठकर आता है। ४-महेन्द्र इन्द्र, आठ लाख विमानवासी देवताओं सहित
'श्रीवत्स ' विमानमें बैठकर आता है। ५-ब्रह्मेन्द्र इन्द्र, चार लाख विमानवासी देवताओं सहित
'नंद्यावर्त : विमानमें बैठकर आता है। ६-लांतक इन्द्र, पचास हजार विमानवासी देवताओं सहित
'कामगव' विमानमें बैठकर आता है। ७-शुक्र इन्द्र, चालीस हजार विमानवासी देवताओं सहित
'पीतिगम । विमानमें बैठकर आता है। ८-'सहस्रार' इन्द्र, छः हजार विमानवासी देवताओं सहित
'मनोरम' विमानमें बैठकर आता है। ९-'आनत प्राणत' देवलोकका इन्द्र, चार सौ विमानवासी
देवताओं सहित 'विमल ' विमानमें बैठकर आता है। १०-आरणाच्युत देवलोकका इन्द्र, तीन सौ विमानवासी
देवताओं सहित 'सर्वतोभद्र' नामके विमानमें बैठकर आता है।
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तीर्थंकर चरित-भूमिका
(भुवन-पतिदेवोंके इन्द्र २०) ११- चमरचंच ' नगरीका स्वामी 'चमरेन्द्र' इन्द्र, अपने
लाखों देवताओं सहित आता है। १२-'बलिचंचा' नगरीका स्वामी 'बलि' इन्द्र, अपने
देवताओं सहित आता है। १३-धरण नामक इन्द्र, अपने नागकुमार देवताओं सहित
आता है। १४-भूतानंद नामका नागेन्द्र, अपने देवताओं सहित
आता है। १५-१६-विद्यत्कुमार देवलोकके इन्द्र हरि और हरिसह
आते हैं। १७-१८-सुवर्णकुमार देवलोकके इन्द्र वेणुदेव और वेणुदारी
आते हैं। १९-२०-अग्निकुमार देवलोकके इन्द्र अग्निशिख और अग्नि
माणव आते हैं। २१-२२-वायुकुमार देवलोकके इन्द्र वेलम्व और प्रभंजन
आते हैं। २३-२४-स्तनित्कुमारके इन्द्र सुघोष और महाघोष आते हैं। २५-२६-उदधिकुमारके इन्द्र जलकांत और जलप्रभ ,, , २७-२८-द्वीपकुमारके इन्द्र पूर्ण और अविशष्ट , २९-३०-दिक्कुमारके इन्द्र अमित और अमित वाहन,, ,,
१-भुवनपतिदेव रत्नप्रभा पृथ्वीमें रहते हैं । रत्नप्रभा पृथ्वीका जाडापन १८०००० योजन है।
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जैन - रत्न
( व्यंतर योनि के देवेन्द्र १६ ) ३१ - ३२ - पिशाचोंके इन्द्र काल और महाकाल; ३३ - ३४ - भूतोंके इन्द्र सुरूप और प्रतिरूप; ३५-३६ - यज्ञों के इन्द्र पूर्णभद्र और मणिभद्र; ३७-३८ - राक्षसों के इन्द्र भीम और महाभीम; ३९-४०-किन्नरोंके इन्द्र किन्नर और किंपुरुष; ४१-४२ - किंपुरुषोंके इन्द्र सत्पुरुष और महापुरुष; ४३ - ४४ - महोरगोंके इन्द्र अतिकाय और महाकाय; ४५-४६ - गंधर्वोके इन्द्र गीतरति और गीतयशा;
( बाण व्यंतरोंकी दूसरी आठ निकायके इन्द्र १६ ) ४७-४८- अप्रज्ञाप्तिके इन्द्र संनिहित और समानक; ४९-५० - पंचप्रज्ञाप्ति के इन्द्र घाता और विधाता; ५१-५२ - ऋषिवादितना के इन्द्र ऋषि और ऋषिपालक ५३ - ५४ - भूतवादितना के इन्द्र ईश्वर और महेश्वर; ५५-५६ - कंदितनाके इन्द्र सुवत्सक और विलाशक; ५७-५८ - महाक्रंदितनाके इन्द्र हास और हासरित; ५९-६० - कुष्मांडनाके इन्द्र श्वेत और महाश्वेत; ६१-६२ - पावकनाके इन्द्र पवक और पवकपतिः ( ज्योतिष्क देवोंके इन्द्र २ ) ६३-६४ - ज्योतिष्क देवोंके इन्द्र-सूर्य और चन्द्रमा
२२
इस तरह वैमानिकके दस ( संख्या १- १० तक ) इन्द्र, भुवनपतिकी दस निकायके बीस ( संख्या ११-३० तक ) इन्द्र, व्यंतरोंके बत्तीस ( संख्या ३१-६२ ) इन्द्र, और
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तीर्थंकर चरित-भूमिका
ज्योतिष्कोंके दो ( संख्या ६३-६४ तक ) इन्द्र कुल मिलाकर ६४ इन्द्र अपने लक्षावधी देवताओं सहित सुमेरु पर्वतपर भगवानका जन्मोत्सव करने आते हैं । *
२३:
सबके आ जाने बाद अच्युतेन्द्र जन्मोत्सव के उपकरण लानेकी अभियोगिक देवताओंको आज्ञा देता है । वे ईशान कोणमें जाते हैं । वैक्रियसमुद्वातद्वारा उत्तमोत्तम पुद्गलोंका आकर्षण करते हैं। उनसे (१) सोनके ( २ ) चाँदी के ( ३ ) रत्नके ( ४ ) सोने और चाँदी के ( ५ ) सोने और रत्नके ( ६ ) चाँदी और रत्नके ( ७ ) सोना चाँदी और रत्न के तथा (८) मिट्टी के इस तरह आठ प्रकारके कलश बनाते हैं । प्रत्येक प्रकारके कलशकी संख्या एक हजार आठ होती है । कुल मिलाकर इन घड़ोंकी संख्या एक करोड़ और साठ लाखकी होती है । इनकी ऊँचाई पचीस योजन, चौड़ाई बारह योजन और इनकी नालीका मुँह एक योजन होता है । इसी प्रकार उन्होंने आठ तरह के पदार्थों से झारियाँ, दर्पण, रत्नके करंडिये, सुप्रतिष्टक (डिब्बियाँ) थाल, पात्रिकाएँ ( रकाबियाँ) और पुष्पों की चंगेरियाँ भी तैयार कीं । इनकी संख्या कलशोंहीकी भाँति प्रत्येककी एक हजार और आठ थीं । लौटते समय वे 1 मागधादि तीर्थोंसे मिट्टी, गंगादि महा नदियोंसे जल, ' क्षुद्र हिमवंत पर्वत से सिद्धार्थ पुष्प ( सरसों के फूल ) श्रेष्ठ गंध
* ज्योतिष्कोंके असंख्यात इन्द्र हैं । वे सभी आते हैं । इसलिए असंख्यात इन्द्र आकर प्रभुका जन्मोत्सव करते हैं । असंख्यात के नाम चंद्र और सूर्य दो ही हैं इसलिए दो ही गिने गये हैं ।
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२४
जैन-रत्न
और सर्वौषधि, उसी पर्वतके 'पद्म' नामक सरोवरमेंसे कमल; इसी प्रकार अन्यान्य पर्वतों और सरोवरोंसे भी उक्त पदार्थ लेते आते हैं। ___ सब पदार्थोंके आ जानेपर अच्युतेन्द्र भगवानको, जिन घड़ोंका ऊपर उल्लेख किया गया ह उनसे, स्नान कराता है, शरीर पौंछकर चंदनका लेप करता है, पुष्प चढ़ाता है, रत्नकी चौकीपर चाँदीके चावलोंसे अष्टमंगल लिखता है और देवताओं सहित नृत्य, स्तुति आदि करके आरती उतारता है। __ फिर शेष ( सौधर्मेंद्रके सिवा ) ६२ इन्द्र भी इसी तरह पूजा प्रक्षालन करते हैं। __तत्पश्चात ईशानेन्द्र सौधर्मेन्द्रकी भाँति अपने पाँच रूप बनाता है, और सौधर्मेन्द्रका स्थान लेता है। सौधर्मेन्द्र भगवानके चारों तरफ स्फटिक मणिके चार बैल बनाता है। उनके सींगोंसे फव्वारों की तरह पानी गिरता है। पानीकी धारा चारों ओरसे भगवानपर पड़ती है । स्नान करा कर फिर अच्युतेन्द्रकी भाँति ही पूजा, स्तुति आदि करता है। तत्पश्चात वह फिरसे पहिलेहीकी भाँति अपने पाँच रूप बनाकर भगवानको ले लेता है।
इस प्रकार विधि समाप्त हो जानेपर सौधर्मेन्द्र भगवानको वापिस उनकी माताके पास ले जाता है । सोनेकी आकृति माताकी गोदसे हटाकर भगवानको लिटा देता है, माताकी
१-दर्पण, वर्धमान, कलश, मत्य युगल, श्रीवत्स, स्वस्तिक, नंदावर्त और सिंहासन ये आठ मंगल कहलाते हैं।
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तीर्थंकर चरित-भूमिका wwwwwwwwwwwwwww * अवस्वापनिका' नामकी निद्राको हरण करता है, तीर्थकरोंके खेलनेके लिए खिलौने रखता है और कुबेरको धनरत्नसे प्रभुका भंडार भरनेके लिये कहता है । कुबेर आज्ञाका पालन करता है । यह नियम है कि, अहंत स्तन-पान नहीं करते है, इसलिए उनके अंगूठेमें इन्द्र अमृतका संचार करता है। इससे जिस समय उन्हें क्षुधा लगती है वे अपने हाथका अंगूठा मुँहमें लेकर चूस लेते हैं। फिर धात्री-कर्म (धायका कार्य ) करनेके लिए चार अप्सराओंको रखकर इन्द्र चला जाता है । ___ ३-दीक्षाकल्याणक । तीर्थंकरोंके दीक्षा लेनेका समय आता है उसके पहिले तीर्थकर वरसी दान देते हैं । इसमें एक वर्षतक तीर्थकर याचकोंको जो चाहिये सो देते हैं । नित्य एक करोड़ आठ लाख स्वर्ण मुद्राओं जितना देते हैं । एक वर्षमें कुल मिलाकर तीन सौ अठासी करोड़ अस्सी लाख स्वर्ण मुद्राएँ दानमें देते हैं । यह धन इन्द्रकी आज्ञासे कुबेर लाकर 'पूरा करता है। ___ जब दीक्षाका दिन आता है तब इन्द्रोंके आसन चलित होते हैं । इन्द्र भक्तिपूर्वक प्रभुके पास आते हैं और उन्हें एक पालकी तैयारकर उसमें बैठाते है । फिर मनुष्य और देव सब मिलकर पालकी उठाते हैं, प्रभुको वनमें ले जाते हैं । प्रभु वहाँ सब वस्त्रालंकार उतारकर डाल देते हैं और इन्द्र देवदुष्य वस्त्र देता है उसे ग्रहण करते हैं। फिर वे केलंचन
१-अपने ही हाथोंसे अपने केश उखाड़नेको केशलुंचन कहते हैं ।
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जैन-रत्न
करते हैं । सौधर्मेन्द्र उन केशोंको अपने पल्लोमें ग्रहणकर क्षीर-समुद्रमें डाल आता है। तीर्थकर फिर सावद्ययोगका त्याग करते हैं। उसी समय उन्हें 'मनःपर्यवज्ञान' उत्पन्न होता है । इन्द्रादि देवता प्रभुसे विनती करते हैं और अपने अपने स्थानपर चले जाते हैं । तीर्थकर बिहार करने लगते हैं।
४-केवलज्ञान-कल्याणक । सकल संसारकी; समस्त चराचरकी बात जिस ज्ञानद्वारा मालूम होती है उसे केवलज्ञान कहते हैं। जिस दिन यह ज्ञान उत्पन्न होता हैं, उसी दिनसे, तीर्थकर नामकर्मका उदय होता है । जब यह ज्ञान उत्पन्न होता है तब इन्द्रादि देव आकर उत्सव करते हैं । और प्रभुकी धर्मदेशना सुनने के लिए समवसरणकी रचना करते हैं। इसकी रचना देवता मिलकर करते हैं। यह एक योजनके विस्तारमें रचा जाता है । वायुकुमार देवता भूमि साफ़ करते हैं । मेघकुमार देवता सुगंधित जल बरसाकर छिड़काव लगाते हैं। व्यंतर देव स्वर्ण-मणिका और रत्नोंसे फर्श बनाते हैं। पचरंगी फूल विछाते हैं, और रत्न, मणिका और मोतीयोंके चारों तरफ तोरण बाँध देते हैं । रत्नादिककी पुतलियाँ बनाई जाती हैं, जो किनारोंपर बड़ी सुन्दरतासे सजाई जाती हैं। उनके शरीरके प्रतिबिंब परस्परमें पड़ते हैं इससे ऐसा मालूम होता है कि, वे एक दूसरीका आलिंगन कर रही हैं। स्निग्ध नीलमणियोंके घड़ेहुए मगरके चित्र, नष्ट, कामदेव-परित्यक्त निज चिन्हरूप मगरकी भ्रान्ति उत्पन्न करते हैं । श्वेत छत्र ऐसे सुशोभित होते
१-इस ज्ञानके होनेसे पंच-इन्द्रिय जीवोंके मनकी बात मालूम होती है।
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तीर्थंकर चरित-भूमिका
हैं मानों भगवानके केवलज्ञानसे दिशाएँ प्रसन्न होकर मधुर हास्य कर रही हैं । फर्राती हुई ध्वजाएँ ऐसी जान पड़ती हैं. मानों पृथ्वीने नृत्य करनेके लिए अपने हाथ ऊँचे किये हैं। तोरणोंके नीचे स्वस्तिक आदि अष्ट मंगलके जो चिन्ह बनाये जाते हैं वे बलि-पट्टके समान मालूम होते हैं। समवसरणके ऊपरी भागका यानी सबसे पहिला गढ़-कोट वैमानिक देवता बनाते हैं। वह रत्नमय होता है और ऐसा जान पड़ता है, मानों रत्नगिरिकी रत्नमय मेखला ( कंदोरा ) वहाँ लाई गई है । उस कोटपर भाँति भाँतिकी मणियोंके कंगूरे बनाये जाते हैं वे ऐसे मालूम होते हैं, मानों वे आकाशको अपनी किरणोंसे विचित्र प्रकारका वस्त्रधारी बना देना चाहते हैं। उसके बाद प्रथमः कोटको घेरे हुए ज्योतिष्कपति दूसरा कोट बनाते हैं । उसका स्वर्ण ऐसा मालूम होता है, मानों वह ज्योतिष्क देवोंकी ज्योतिका समूह है । उस कोटपर जो रत्नमय कंगूरे बनाये जाते हैं, वे ऐसे जान पड़ते हैं मानों सुरों व असुरोंकी स्त्रियों के लिए मुख देखनेको रत्नमय दर्पण रक्खे गये हैं। इसके बाद भुवनपति देव तीसरा कोट बनाते हैं । वह अगले दोनोंको घेरे हुए होता. है। वह ऐसा जान पड़ता है मानों वैताठ्य पर्वत मंडलाकार हो गया है-गोल बन गया है । उसपर स्वर्णके कंगूरे बनाये जाते हैं वे ऐसे जान पड़ते हैं मानों देवताओंकी वापिकाओंके (बावड़ियोंके) जलमें स्वर्णके कमल खिले हुए हैं । प्रत्येक गढ़में ( कोटमें ) चार चार दाजे होते हैं। प्रत्येक द्वारपर व्यंतर देव धूपारणे (धूपदानियाँ) रखते हैं। उनसे इन्द्रमणिके स्तंभसी.
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जैन-रत्न
धूम्रलता (धुआँ) उठती है । समवसरणके प्रत्येक द्वारपर चार चार रस्तोंवाली बावड़ियाँ बनाई जाती हैं। उनमें स्वर्णके कमल रहते हैं। दूसरे कोरके ईशान कोणमें प्रभुके विश्रामार्थ एक देवछंद (विश्राम-स्थान ) बनाया जाता है । अंदरके यानी प्रथम कोटके पूर्वद्वारके दोनों किनारे, स्वर्णके समान वर्णवाले, दो वैमानिक देवता द्वारपाल होकर रहते हैं । दक्षिण द्वारमें दो व्यन्तर देव द्वारपाल होते हैं । पश्चिम द्वारपर रक्तवर्णी दो ज्योतिष्क देव द्वारपाल होते हैं वे ऐसे जान पड़ते हैं मानों संध्याके समय सूर्य और चंद्रमा आमने सामने आ खड़े हुए हैं। उत्तर द्वारपर कृष्ण काय भुवनपति द्वारपाल होकर रहते हैं। दूसरे कोटके चारों दर्वाजोपर, क्रमशः अभय, पास, अंकुश और मुद्गरको धारण करनेवाली; श्वेतमाणि, शोणमणि, स्वर्णमणि
और नीलमाणिके समान कान्तिवाली, पहिलेहीकी तरह चार निकायकी (चार जातिकी) जया, विजया, अजिता और अपराजिता नामकी दो दो देवियाँ प्रतिहार ( चोबदार ) बनकर खड़ी रहती हैं। और अन्तिम कोटके चारों दर्वाजोंपर तुंबरु, खट्वांगधारी, मनुष्य-मस्तक-मालाधारी और जटा मुकुटमंडित नामक चार देवता द्वारपाल होते हैं। समवसरणके मध्य भागमें व्यन्तर देव तीन कोसका ऊँचा एक चत्य-वृक्ष बनाते हैं। उस वृक्षके नीचे विविध रत्नोंकी एक पीठ रची जाती हैं । उस पीठपर अप्रतिम मणिमय एक छंदक (बैठक) रचा जाता है। छंदकके मध्यमें पाद पीठ सहित रत्नसिंहासन रचा जाता है । सिंहासनके दोनों बाजू दो यक्ष चामर लेकर खड़े होते हैं । समवसर
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तीर्थंकर चरित-भूमिका
णके चारों दाजोंपर अद्भुत कान्तिके समूहवाला एक एक धर्मचक्र स्वर्णके कलशमें रक्खा जाता है। __ भगवान चार प्रकारके [ वैमानिक, भुवनपति, व्यंतर और ज्योतिष्क ] देवताओंसे परिवेष्टित समवसरणमें प्रवेश करनेको रवाना होते हैं । उस समय सहस्र पत्रवाले स्वर्णके नौ कमल बनाकर देवता भगवानके आगे रखते हैं। भगवान जैसे जैसे आगे बढ़ते जाते हैं, वैसे ही वैसे देवता पिछले कमल उठाकर आगे धरते जाते हैं। भगवान पूर्व द्वारसे समवसरणमें प्रविष्ट होकर चैत्य-वृक्षकी प्रदक्षिणा करते हैं और फिर तीर्थको नमस्कारकर सूर्य जैसे अंधकारको नष्ट करनेके लिए पूर्वासनपर आरूढ होता है वैसे ही मोहरूपी अंधकारको छेदनेके लिए प्रभु पूर्वाभिमुख सिंहासनपर विराजते हैं । तब व्यंतर अवशेष तीन तरफ भगवानके रत्नके तीन प्रतिबिंब बनाते हैं । यद्यपि देवता प्रभुके अंगूठे जैसा रूप बनानेकी भी शक्ति नहीं रखते हैं तथापि प्रभुके प्रतापसे उनके बनाये हुए प्रतिबिंब प्रभुके स्वरूप जैसे ही बन जाते हैं। प्रभुके मस्तकके चारों तरफ फिरता हुआ शरीरकी कान्तिका मंडल ( भामंडल ) प्रकट होता है । उसका प्रकाश इतना प्रबल होता है कि उसके सामने सूर्यका प्रकाश भी जुगनुसा मालूम होता है। प्रभुके समीप एक रत्नमय ध्वजा होती है।
विमानपतिकी स्त्रियाँ पूर्व द्वारसे प्रवेश करती हैं, तीन प्रदक्षिणा देती हैं और तीर्थकर तथा तीर्थको नमस्कारकर प्रथम
१-साधु, साधी, श्रावक और श्राविकाके समूहको तीर्थ कहते हैं।
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जैन-रत्न
कोटमें, साधु साध्वियों के लिए स्थान छोड़कर उनके स्थानके मध्य भागमें अग्निकोणमें खड़ी रहती हैं । भुवनपति, व्यंतर
और ज्योतिष्क देवोंकी स्त्रियाँ दक्षिण दिशासे प्रविष्ट होकर नैर्ऋत्य कोणमें खड़ी होती हैं । भुवनपति, ज्योतिष्क और व्यंतर देवता पश्चिम द्वारसे प्रविष्ट होकर वायव्य कोणमें बैठते हैं । वैमानिक देवता, मनुष्य और मनुष्य-स्त्रियाँ उत्तर द्वारसे प्रविष्ट होकर ईशान दिशामें बैठते हैं। ये सब भी विमानपति देवोंकी स्त्रियोंकी भाँति ही पहिले प्रदक्षिणा देते हैं, तीर्थकर
और तीर्थको नमस्कार करते हैं और तब अपना स्थान लेते है । वहाँ पहिले आये हुए-चाहे वे महान् ऋद्धि वाले हों या अल्प ऋद्धिवाले हो-जो कोई पीछेसे आता है उसे नमस्कार करते है और पीछे से आनेवाला पहिलेसे आकर बैठे हुओंको नमस्कार करता है । प्रभुके समवसरणमें किसीको, आनेकी, कोई रोकटोक नहीं होती । वहाँपर किसी तरहकी विकथा (निंदा) नहीं होती; विरोधियोंके मनमें वहाँ वैरभाव नहीं रहता; वहाँ किसीको किसीका भय नहीं होता। दूसरे कोटमें तिर्यंच आकर बैठते हैं और तीसरे गढमें सबके वाहन रहते हैं।
५-निर्वाणकल्याणक । जब तीर्थकरोंके शरीरसे आत्महंस उडकर मोक्षमें चला जाता है, तब इन्द्रादि देव शरीरका संस्कार करनेके लिए आते हैं। अभियौगिक देव नन्दनवनमेंसे गोशीर्ष चन्दनके काष्ट लाकर पूर्व दिशामें एक गोलाकार चिता रचते हैं। अन्य देवता क्षीरसमुद्रका जल लाते हैं। उससे इन्द्र भगवानके शरीरको स्नान कराता है, गोशीर्ष चन्दनका लेप
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तीर्थंकर चरित-भूमिका
३१
करता है, हंसलक्षणवाले श्वेत देवदुष्य वस्त्रसे शरीरको आच्छा दन करता है और मणिकाके आभूषणोंसे उसे विभूषित करता है । दूसरे देवता भी इन्द्रकी भाँति ही शरीरको स्नानादि कराते हैं । फिर एक रत्नकी शिविका तैयार करते हैं । इन्द्र शरीरको उठाकर शिविकामें रखता है। इन्द्र ही उसको उठाता है । शिविकाके आगे आगे कई देवता धूपदानियाँ लेकर चलते हैं। कई शिविकापर पुष्प उछालते हैं, कई उन पुष्पोंको उठाते हैं। कई
आगे देवदुष्य वस्त्रोंके तोरण बनाते हैं, कई यक्षकर्दमका (धूप) छिड़काव करते हैं, कई गोफनसे फैंके हुए पत्थरकी तरह शिविकाके आगे लोटते हैं, और कई रुदन करते हुए पीछे पीछे आते हैं। __इस तरह शिविका चिताके पास पहुँचती है । इन्द्र प्रभुके शरीरको चितामें रखता है । अग्निकुमार देवता चितामें अग्नि लगाता है । वायुकुमार देवता वायु चलाता है इससे चारों तरफ अग्नि फैलकर जलने लगती है । चितामें देवता बहुतसा कपूर और घड़े भर २ के घी तथा शहद डालते हैं। जब अस्थिके सिवा सब धातु नष्ट हो जाते हैं तब मेघकुमार क्षीर समुद्रका जल बरसाकर चिता ठंडी करता है । फिर सौधर्मेंद्र ऊपरकी दाहिनी डाढ़ लेता है, चमरेन्द्र नीचेकी दाहिनी डाढ़ लेता है, ईशानेन्द्र ऊपरकी बाई डाढ़ ग्रहण करता है और बलीन्द्र नीचेकी बाई डाढ़ लेता है । अन्यान्य देव भी अस्थियाँ लेते हैं।
फिर वे जहाँ प्रभुका अग्निसंस्कार होता है उस स्थानपर तीन समाधियाँ वनाते हैं और तब सब अपने २ स्थानपर चले जाते हैं।
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जैन-रत्न
अतिशय अतिशय-यानी उत्कृष्टता, विशिष्ट चमत्कारी गुण । जो आत्मा ईश्वर-स्वरूप होकर पृथ्वी मण्डलपर आता है उसमें सामान्य आत्माओंकी अपेक्षा कई विशेषताएँ होती हैं। उन्हीं विशेषताओंको शास्त्रकारोंने 'अतिशय ' कहा है। तीर्थकरोंके चौतीस अतिशय होते हैं । वे इस प्रकार हैं:१-शरीर अनन्त रूपमय, सुगन्धमय, रोगरहित, प्रस्वेद (पसीना) रहित और मलरहित होता है । २-उनका रुधिर दुग्धके समान सफेद और दुर्गन्ध-हीन होता है। ३-उनके आहार तथा निहार चर्मचक्षु-गोचर नहीं होते हैं।
(यानी उनका भोजन करना और पाखाने पेशाब जाना किसीको दिखाई नहीं देता है।) ४-उनके श्वासोछासमें कमलके समान सुगंध होती है। ५-समवसरण केवल एक योजनका होता है, परन्तु उसमें कोटाकोटि मनुष्य, देव और तिर्यच विना किसी प्रकारकी वाधाके बैठ सकते हैं। ६-जहाँ वे होते हैं वहाँसे पच्चीस योजनतक यानी दो सौ कोसतक आसपासमें कहीं कोई रोग नहीं होता है और जो पहिले होता है वह भी नष्ट हो जाता है। ७-लोगोंका पारस्परिक वैरभाव नष्ट हो जाता है । ८-मरीका रोग नहीं फैलता है।
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तीर्थंकर चरित-भूमिका
murmammmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm
९-अतिवृष्टि-आवश्यकतासे ज्यादा बारिश-नहीं होती है। १०-अनादृष्टि-बारिशका अभाव नहीं होता है। ११-दुर्भिक्ष नहीं पड़ता है। १२-उनके शासनका या किसी दूसरेके शासनका लोगोंको
भय नहीं रहता है। १३-उनके वचन ऐसे होते हैं कि, जिन्हें देवता, मनुष्य और
तिर्यंच सब अपनी भाषामें समझ लेते हैं। १-वचन ३५ गुणवाले होते हैं। (१) सब जगह समझे जा सकते हैं । (२) एक योजनतक वे सुनाई देते हैं । (३) प्रौढ ( ४ ) मेघके समान गंभीर (५) सुस्पष्ट शब्दोंमें (६) सन्तोषकारक (७) हर एक सुननेवाला समझता है कि वे वचन मुझीको कहे जाते हैं (८) गूढ आशयवाले (९) पूर्वापर विरोधरहित (१०) महापुरुषोंके योग्य (११) संदेह-विहीन (१२) दूषणरहित अर्थवाले (१३) कठिन विषयको सरलतासे समझानेवाले (१४) जहाँ जैसे शोभे वहाँ वैसे बोले
जा सकें (१५) षड् द्रव्य और नौ तत्त्वोंको पुष्ट करनेवाले (१६) हेतु पूर्ण (१७) पद रचना सहित (१८) छः द्रव्य और नौ तत्त्वोंकी पटुता सहित (१९) मधुर (२०) दूसरेका मर्म समझमें न आवे ऐसी चतुराईवाले (२१) धर्म, अर्थ प्रतिबद्ध ( २२) दीपकके समान प्रकाश-अर्थ सहित (२३) परनिन्दा और स्वप्रशंसा रहित (२४) कर्ता, कर्म, क्रिया, काल और विभक्ति सहित (२५) आश्चर्यकारी (२६) उनको सुननेवाला समझे कि वक्ता सर्व गुण सम्पन्न है । (२७) धैर्य्यवाले ( २८) विलम्ब रहित (२९) भ्रांति रहित (३०) प्रत्येक अपनी भाषामें समझ सकें ऐसे (३१) शिष्ट बुद्धि उत्पन्न करनेवाले (३२) पदोंका अर्थ अनेक तरहसे विशेष रूपसे बोले जायँ ऐसे ( ३३) साहसपूर्ण (३४) पुनरुक्ति-दोष-रहित और (३५) सुननेवालेको दुःख न हो ।
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३४
जैन-रत्न mmmmmmm १४-एक योजनतक उनके वचन समानरूपसे १५-सूर्यकी अपेक्षा बारह गुना अधिक उनके भामडंलका तेज
होता है। १६-आकाशमें धर्मचक्र होता है। १७-बारह जोड़ी (चौबीस ) चंवर बगैर दुलाये दुलते हैं। १८-पादपीठ सहित स्फटिक रत्नका उज्ज्वल सिंहासन होता है। १९-प्रत्येक दिशामें तीन तीन छत्र होते हैं । २०-रत्नमय धर्मध्वज होता है। इसको इन्द्र-ध्वजा भी कहते हैं। २१-नौ स्वर्ण कमलपर चलते हैं (दो पर पैर रखते हैं, सात __ पीछ रहते हैं, जैसे जैसे आगे बढ़ते जाते हैं वैसे ही वैसे
देवता पिछले कमल उठाकर आगे रखते जाते हैं। ) २२-मणिका, स्वर्णका और चाँदीका इस तरह तीन गढ़ होते हैं। २३-चार मुंहसे देशना-धर्मोपदेश-देते हैं । (पूर्व दिशामें
भगवान बैठते हैं और शेष तीन दिशाओंमें व्यंतर देव
तीन प्रतिबिंब रखते हैं।) २४-उनके शरीरप्रमाणसे बारह गुना अशोक वृक्ष होता है।
वह छत्र, घंटा और पताका आदिसे युक्त होता है । २५-काँटे अधोमुख-उल्टे हो जाते हैं। २६-चलते समय वृक्ष भी झुककर प्रणाम करते हैं। २७-चलते समय आकाशमें दुंदुभि बजते हैं। २८-योजन प्रमाणमें अनुकूल वायु होता है । २९-मोर आदि शुभ पक्षी प्रदक्षिणा देते फिरते हैं। ३०-सुगंधित जलकी दृष्टि होती है।
हैं
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नीर्थंकर चरित-भूमिका
३१-जल-स्थलमें उद्भूत पाँच वर्णवाले सचित्त फूलोंकी,
घुटने तक आ जायँ इतनी, दृष्टि होती है। ३२-केश, रोम, डाढी, मुंछ, और नाखुन ( दीक्षा लेनेके
बाद ) बढ़ते नहीं हैं। ३३-कमसे कम चार निकायके एक करोड़ देवता पासमें
रहते हैं। ३४-सर्व ऋतुएँ अनुकूल रहती हैं।
इनमेंसे प्रारंभके चार (१-४) अतिशय जन्महीसे होते हैं इस लिये वे स्वाभाविक-सहजातिशय या मूलातिशय कहलाते हैं।
फिर ग्यारह (५.१५) अतिशय केवलज्ञान होनेके बाद उत्पन्न होते हैं । ये 'कर्मक्षयजातिशय' कहलाते हैं । इनमेंके सात (६-१२) उपद्रव, तीर्थकर विहार करते हैं, तब भी नहीं होते हैं यानी विहारमें भी इनका प्रभाव वैसा ही रहता है । ___ अवशेष उन्नीस ( १६-३४ ) देवता करते हैं। इसलिए वे "देवकृतातिशय' कहलाते हैं।
ऊपर जिन अतिशयोंका वर्णन किया गया है उनको शास्त्रकारोंने संक्षेपमें चार भागोंमें विभक्त कर दिया है। जैसे-(१) अपायापगमातिशय (२) ज्ञानातिशय (३) पूजातिशय और (४) वचनातिशय । १-जिनसे उपद्रवोंका नाश होता है उन्हें 'अपायापगमातिशय' कहते हैं । ये दो प्रकारके होते हैं । स्वाश्रयी और पराश्रयी।
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जैन-रत्न
(अ) जिनसे अपने संबंधके अपाय-उपद्रव द्रव्यसे और
भावसे नष्ट होते हैं वे ' स्वाश्रयी' कहलाते है। (ब) जिनसे दूसरोंके उपद्रव नष्ट होते हैं उनको 'पराश्रयी'
अपायापगमातिशय कहते हैं । अर्थात जहाँ भगवान विचरण करते हैं वहाँसे प्रत्येक दिशामें सवा सौ योजन तक प्रायः रोग, मरी, वैर, अतिवृष्टि, अनादृष्टि, दुष्काल आदि
उपद्रव नहीं होते है। २-ज्ञानातिशय-इससे तीर्थकर लोकालोकका स्वरूप भली. प्रकारसे जानते हैं । भगवानको केवलज्ञान होता है, इससे
कोई भी बात उनसे छिपी हुई नहीं रहती हैं। ३-पूजातिशय-इससे तीर्थकर सर्वपूज्य होते हैं। देवता,
इन्द्र, राजा, महाराजा, बलदेव, वासुदेव, चक्रवर्ती आदि
सभी भगवानकी पूजा करते हैं। ४-वचनातिशय-इससे देव, तिर्यंच और मनुष्य सभी भग
वानकी वाजीको अपनी अपनी भाषामें समझ जाते हैं। इसके ३५ गुण होते हैं । (जिनका वर्णन तेरहवें अतिशयके फुट नोटमें किया जा चुका है।)
१-सारे रोग द्रव्य उपद्रव हैं।
२--अंतरंगके अठारह दूषण भाव उपद्रव हैं । अठारह उपद्रव ये हैं(१) दानान्तराय (२) लाभान्तराय (३) भोगान्तराय (४) उपभोमान्तराय (५) वीर्यान्तराय (६) हास्य (७) रति (८) अरति (९) शोक (१०) भय (११)जगुप्सा-निंदा (१२) काम (१३) मिथ्यात्व (१४) अज्ञान (१५) निद्रा (१६) अविरति (१७) राग और (१८) द्वेष ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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श्री आदिनाथ चरित
श्री आदिनाथ - चरित |
३७
आदिमं पृथिवीनाथ - मादिमं निष्परिग्रहम् । आदिमं तीर्थनाथं च ऋषभस्वामिनं स्तुमः ॥ ३ ॥ ( सकलाई त - स्तोत्र )
भावार्थ- पृथ्वीके प्रथम स्वामी, प्रथम परिग्रह - त्यागी ( साधु ) और प्रथम तीर्थंकर श्री ' ऋषभ ' देव स्वामीकी हम स्तुति करते हैं ।
विकास
जैनधर्म यह मानता है कि, जो जीव श्रेष्ठ कर्म करता है, वह धीरे धीरे उच्च स्थितिको प्राप्त करता हुआ अन्तमें आत्मस्वरूपका पूर्ण रूप से विकासकर, जिन कर्मोंके कारण वह दुःख उठाता है उन कर्मोंको नाशकर, ईश्वरत्व लाभकर, सिद्ध बन जाता है - मोक्षमें चला जाता है और संसार के जन्म, जरा, -सरण से छुटकारा पा जाता है ।
जैनधर्म के सिद्धान्त, उसकी चर्या और उसके क्रियाकांड मनुष्यको इसी लक्ष्यकी ओर ले जाते हैं और उसे श्रेष्ठ कर्ममें लगाते हैं । जैनधर्म पुराणोंमें इन्हीं श्रेष्ठ कर्मोंके शुभ फलोंका और उन्हें छोड़नेवालों पर गिरनेवाले दुःखोंका वर्णन किया गया है ।
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३८
जैन-रत्न
भगवान आदिनाथके जीवकी जबसे मुख्यतया उत्क्रांति होनी प्रारंभ हुई तबसे लेकर आदिनाथ तककी स्थितिका वर्णन संक्षेपमें यहाँ देदेनेसे पाठकोंको इस बातका ज्ञान होगा कि जीव कैसे उत्तम कर्मों और उत्तम भावनाओंसे ऊँचा उठता जाता है; आत्माभिमुख होता जाता है ।।
प्रथम भव-क्षितिप्रतिष्ठ नगरमें 'धन' नामक एक साहूकार रहता था। उसके पास अतुल सम्पत्ति थी । एक बार उसने अपने यहाँसे अनेक प्रकारके पदार्थ लेकर वसन्तपुर नामके नगरको जानेका विचार किया। उसके साथ दूसरे व्यापारी तथा अन्य लोग भी जाकर लाभ उठा सकें इस हेतुसे उसने सारे नगरमें ढिंढोरा पिटवा दिया। यह भी कहला दिया कि, साथ जानेवालोंका खर्चा सेठ देगा । सैकड़ों लोग साथ जानेको तैयार हुए । धर्मघोष नामके आचार्य भी अपनेसाधु-मंडल सहित उसके साथ चले। ___ कई दिनके बाद मार्गमें जाते हुए साहूकारका पड़ाव एक जंगलमें पड़ा । वर्षाऋतुके कारण इतनी बारिश हुई कि वहाँसे चलना भारी हो गया । कई दिन तक पड़ाव वहीं रहा । जंगलमें पड़े रहनेके कारण लोगोंके पासका खाना-पीना समाप्त हो गया । लोग बड़ा कष्ट भोगने लगे। सबसे ज्यादा दुःख साधुओंको था क्योंकि निरन्तर जल-वर्षाके कारण उन्हें दो दो तीन तीन दिन तक अन्न-जल नहीं मिलता था । एक दिन साहूकारको खयाल आया कि, मैंने साधुओंको साथ लाकर उनकी खबर न ली। वह तत्काल ही उनके पास गया
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श्री आदिनाथ-चरित
३९
धन
और उनके चरणोंमें गिरकर क्षमा माँगने लगा । उसका अन्त:करण उस समय पश्चात्तापके कारण जल रहा था । मुनिने उसको सान्त्वना देकर उठाया । उस समय बारिश बंद थी । 'धन' ने मुनि महाराज से गोचरी लेनेके लिए अपने डेरे चलनेकी प्रार्थना की । साधु गोचरीके लिए निकले और फिरते हुए घनसेठके डेरे पर भी पहुँचे । मगर वहाँ कोई चीज साधुओंके ग्रहण करने लायक न मिली । बड़ा दुःखी हुआ और अपने भाग्यको कोसने लगा | मुनि वापिस चलनेको तैयार हुए। इतनेहीमें उसको घी नजर आया । उसने घी ग्रहण करनेकी प्रार्थना की । शुद्ध समझकर मुनि महाराजने ' पात्र' रख दिया । धन सेठको घृत वहोराते समय इतनी प्रसन्नता हुई मानों उसको पड़ी निधि मिल गई है । हर्षसे उसका शरीर रोमांचित हो गया । नेत्रोंसे आनंदाश्रु वह चले । वहोरानेके बाद उसने साधुओंके चरणोंमें वंदना । की । उसके नेत्रोंसे गिरता हुआ जल ऐसा मालूम होता था, मानों वह पुण्य बीजको सींच रहा है ।
संसार- त्यागी, निष्परिग्रही साधुओंको इस प्रकार दान देने और उनकी तब तक सेवा न कर सका इसके लिए पश्चात्ताप करनेसे उसके अन्तःकरणकी शुद्धि हुई और उसे मोक्षका कारण दुर्लभ बोध - बीज ( सम्यक्त्व ) मिला । 'रात्रिको वह फिर साधुओंके पास गया । धर्मघोष आचार्यने उसे धर्मका उपदेश दिया । सुनकर उसे अपने कर्तव्यका भान हुआ ।
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जैन - रत्न
वर्षा बीतने और मार्गों के साफ हो जाने पर साहूकार वहाँसे रवाना हुआ और अपने नियत स्थानपर पहुँचा ।
४०
दूसरा भव— मुनियोंको शुद्ध अन्तःकरणसे दान देनेके प्रभाव से 'धन' सेठका जीव, मरकर, उत्तर कुरुक्षेत्र में, सीता नदी के उत्तर तटकी तरफ, जम्बू वृक्षके उत्तर भागमें, युगलिया रूपसे उत्पन्न हुआ | उस क्षेत्रमें हमेशा एकांत सुखमा आरा रहता है । वहाँ के युगलियोंको तीसरे दिनके अन्तमें भोजन करने की इच्छा होती है । उनका शरीर तीन कोसका होता है । उनकी पीठमें दो सौ छप्पन पसलियाँ होती हैं । उनकी आयु तीन पल्योपमकी होती हैं। उन्हें कषाय बहुत थोड़ी होती है, ऐसे ही माया-ममता भी बहुत कम होती है । उनकी आयुके जब ४९ दिन रह जाते हैं तब त्रीके गर्भ से एक सन्तानका जोड़ा उत्पन्न होता है । आयु समाप्त होने तक अपनी सन्तानका पालनकर अंतमें वे मरने पर स्वर्गमें जाते हैं । उस क्षेत्रकी मिट्टी शर्करा के समान मीठी होती है । शरद ऋतुकी चन्द्रिकाके समान जल निर्मल होता है । वहाँ दश प्रका रके कल्पवृक्ष इच्छित पदार्थको देते हैं। इस प्रकारके स्थान में धन सेठका जीव आनन्द-भोग करने लगा |
तीसरा भव—- युगलियाका आयु पूर्णकर धनसेठका जीव मरा और पूर्व संचित पुण्य - बलके कारण सौधर्म देवलोकमें जाकर देवता हुआ ।
* देखो पेज ६-७
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श्रीआदिनाथ-चरित
चौथा भव-वहाँसे च्यवकर धनसेठका जीव पश्चिम महाविदेह क्षेत्रके अंदर, गंधिलावती विजय प्रांतमें, वैताढ्य पर्वत पर, गंधारके गंधस्मृद्धि नगरमें, विद्याघरोंके राजा शतबलकी रानी चंद्रकान्ताकी कूखसे पुत्र रूपमें उत्पन्न हुआ । नाम 'महाबल' पड़ा । वयस्क (जवान) होनेपर विनयवती नामकी योग्य कन्याके साथ उसका ब्याह हुआ। शतबलने अपनी ढलती आयु देखकर दीक्षा ग्रहण की । महाबल राज्याधिकारी हुआ।
महाबल विषय-भोगमें लिप्त होकर काल बिताने लगा। खुशामदी और नीच प्रकृतिके लोग उसको नाना भाँतिके कौशलोंसे और भी ज्यादा विषयोंके कीचमें फंसाने लगे।
एक बार उसके स्वयंबुद्ध मंत्राने इस दुःखदायी विषयवासनासे मुंह मोड़कर परमार्थ साधनका उपदेश दिया। विषय. पोषक खुशामदियोंने स्वयंबुद्धका विरोधकर इस आशयका उपदेश दिया कि,-"जहाँ तक जिन्दगी है वहाँतक खाना पीना और चैन उड़ाना चाहिए । देह नाश होनेपर न कोई आता है न जाता है । " स्वयंबुद्धने अनेक युक्तियोंसे परलोक और आत्माके पुनर्जन्मको सिद्ध किया और कहा:-" शायद आपको याद होगा कि, आप और मैं एक बार नंदनवनमें गये थे । वहाँ हमने एक देवताको देखा था। वे आपके पितामह थे। उन्होंने संसार छोड़कर तपश्चर्या करनेसे स्वर्गकी प्राप्ति होना बताया था और कहा था कि, आपको भी संसारके दुःखकारी विषय-सुखोंमें लिप्त न होना चाहिए।"
महाबलने परलोक आदि स्वीकारकर इस युवावस्थामें संसार
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४२
जैन-रत्न
marrrrrrrrrrrrrrror
त्यागके उपदेशका कारण पूछा । स्वयंबुद्धने कहा कि, मैंने एक ज्ञानी मुनिक द्वारा मालूम किया है कि, आपकी आयु केवल एक महीनेहीकी बाकी रह गई है। इसीलिए आपसे शीघ्र ही धर्म-कार्यमें प्रवृत्त होनेका अनुरोध करता हूँ। ____यह सुनकर महाबलने उसी समय, अपने पुत्रको बुलाकर राज्यासनपर बिठा दिया और अपने समस्त कुटुंब परिवार, स्वजन संबंधी, नौकर, रैयत, छोटे बड़े सबसे क्षमा माँगकर मोक्षकी कारण दीक्षा ग्रहण की। फिर उसने चतुर्विध आहारका त्यागकर, शुद्ध आत्मचिन्तवनमें-समाधिमें दिन बिताये और क्षुधा पिपासा आदि परिसह सह, दुर्द्धर तपकर, शरीरका त्याग किया। ___ पाँचवाँ भव-धनसेठका जीव महाबलका शरीर छोड़कर श्रीप्रभनामके देवलोकमें ललितांग नामका देव हुआ । अनेक प्रकारके सुखोपभोगोंमें समय बिताया और आयु समाप्त होने पर देव देहका त्याग किया।
छठा भव --धनसेठका जीव वहाँसे च्यवकर जम्बद्वीपके सागर समीपस्थ पूर्व विदेहमें, सीता नामकी महानदीके उत्तर तटपर, पुष्कलावती नामक प्रदेशके लोहार्गल नगरके राजा सुवर्णजपके घर, उसकी लक्ष्मी नामकी रानीकी कूखसे जन्मा । उसका नाम वज्रजंघ रक्खा गया । उसका व्याह वज्रसेन राजाकी गुणवती स्त्रीकी कूखसे जन्मी हुई श्रीमती नामकी कन्याके साथ हुआ । वज्रजंघ जब युवा हुआ तब उसके पिता उसको राज्य-गद्दी सौंपकर साधु हो गये ।
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श्रीआदिनाथ-चरित
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वज्रजंघ न्यायपूर्वक शासन और राज्य-लक्ष्मीका उपभोग करने लगा।
वज्रजंघके श्वसुर वज्रसेनने भी अपने पुत्र पुष्करपालको राज्य देकर दीक्षा ले ली । कुछ कालके बाद सीमाके सामंत राजा लोग पुष्करपालसे युद्ध करनेको खड़े हुए। वज्रजंघ अपने सालेकी मददको गया। सामंतोंको परास्तकर जब वह वापिस लौटा तब मार्गमें उसे सागरसेन और मुनिसेन नामक दो मुनियोंके दर्शन हुए । मुनियोंकी देशना सुनकर उसके हृदयमें वैराग्य उत्पन्न हुआ। वह यह विचारता हुआ अपने नगरको चला कि, मैं जाते ही अपने पुत्रको राज्य देकर दीक्षा ग्रहण कर लूँगा । नगरमें पहुँचा और वैराग्यकी भावना भाता हुआ अपने शयनागारमें सो गया।
उधर वज्रजंघके पुत्रने राजके लोभसे, धनका लालच देकर, मंत्रियोंको फोड़ लिया और गजाको मारनेका षड्यंत्र रचा। आधी रातके समय राजकुमारने वज्रजंघके शयनागारमें विषधूप किया । जहरीले तेज धूएने राजा और रानीके नथनोंमें घुसकर उनका प्राण हर लिया।
सातवाँ और आठवाँ भव-राजा और रानी त्यागकी शुभ कामनाओंमें मरकर उत्तरकुरुक्षेत्रमें युगलिया पैदा हुए। वहाँसे आयु समाप्त कर दोनों सौधर्मदेवलोकमें अति स्नेह वाले देवता हुए । दीर्घकाल तक सुखोपभोगकर दोनोंने देवपर्यायका परित्याग किया।
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४४
जैन-रत्न wwmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm
नवाँ भव-वहाँसे च्यवकर धनसेठका जीव जम्बूद्वीपके विदेह-क्षेत्रमें क्षितिप्रतिष्ठितनगरमें सुविधि वैद्यके घर जीवानंद नामक पुत्र हुआ । उसी समय नगरमें चार लड़के और भी उत्पन्न हुए । उनके नाम क्रमशः महीधर, सुबुद्धि, पूर्णभद्र और गुणाकर थे। श्रीमतीका जीव भी देवलोकसे च्यवकर उसी नगरमें ईश्वरदत्त सेठका केशव नामक पुत्र हुआ। ये छाहों अभिन्न हृदय मित्र थे । जीवानंद अपने पिताकी भाँति ही बहुत अच्छा वैद्य हुआ। ___एक बार छहों मित्र वैद्य जीवानंदके घर बैठे थे । अचानक ही एक मुनि महाराज वहाँ आ गये । तपसे उनका शरीर सूख गया था। कुसमय और अपथ्यकर भोजन करनेसे उन्हें कृमिकुष्ट व्याधि हो गई थी। सारा शरीर कृमिकुष्टसे व्याप्त हो गया था। तो भी उन महात्माने कभी किसीसे औषधकी याचना नहीं की थी।
गोमूत्रिका विधानसे मुनि महाराजका वहाँ आगमन देखकर उन्होंने उन्हें नमस्कार किया। उनके चले जाने पर महीधरने जीवानंदसे कहा:-" तुम्हें चिकित्साका अच्छा ज्ञान है तो भी तुम वेश्याकी भाँति पैसेके लोभी हो । मगर
१-साधु गोचरी जाते हैं तब उनके लिए जमीनपर पड़े हुए गोमूत्रकी भाँति भिक्षार्थ जानेकी शास्त्राज्ञा है । अर्थात् साधुओंको सिलसिलेवार घरोंमें गोचरी नहीं जाना चाहिए । एक घरमें जाकर फिर उसके सामनेवाले घरमें जाना चाहिए, कम भी छोड़के जाना चाहिए । इससे कोई साधुओंके लिए खास तरहसे किसी प्रकारकी तैयारी न कर सके। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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श्री आदिनाथ - चरित
हर जगह पैसेहीका खयाल नहीं करना चाहिए । दयाधर्मका भी विचार रखना चाहिए । मुनि महाराजके समान निष्परिग्रहियोंकी चिकित्सा धन प्राप्तिकी आशा छोड़कर करना चाहिए । अगर तुम ऐसे मुनियोंकी भी चिकित्सा निर्लोभ होकर नहीं करते हो तो तुम्हें और तुम्हारे ज्ञानको धिक्कार है ।"
४५:
जीवानंदने कहा :- " मुझे खेद है कि, मुनिकी चिकित्सा के लिए जो सामग्रियाँ चाहिएँ वे मेरे पास नहीं हैं । मेरे पास केवल लक्षपाक तैल है । गोशीर्षचंदन । गोशीर्षचंदन और रत्नकंबल नहीं हैं। अगर तुम ला दो तो मैं मुनिका इलाज करूँ । "
पाँचों मित्र दोनों चीजें ला देना स्वीकारकर वहाँसे रवाना हुए। फिरते हुए एक वृद्ध व्यापारीके पास पहुँचे । व्यापारीने कहाः – “ प्रत्येकका मूल्य एक एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ हैं । ” उन्होंने कहाः - " हम मूल्य देने को तैयार हैं । " " व्यापारीने कहा :- " ये चीजें तुम किसके लिए चाहते हो १ " उन्होंने मुनि महाराजका हाल सुनाया । सुनकर व्यापारीने कहा:- " मैं इनका मूल्य नहीं लूँगा । तुम ले जाओ और मुनि महाराजका इलाज करो । वे दोनों चीजें लेकर रवाना हुए। मुनि महाराजकी दशाका विचार करने से वृद्धको वैराग्य हो गया । उसने घर-बार त्याग कर दीक्षा ले ली ।
- जीवानंदको जब गोशीर्षचंदन और रत्नकंबल मिले तब वह बहुत प्रसन्न हुआ | छहों मित्र मिलकर मुनि महाराजके पास गये । मुनि महाराज नगरसे दूर एक वटवृक्षके नीचे कायोत्सर्ग ध्यान में निमग्न थे । तीनों बैठ गये । मुनि महाराजने जब ध्यान :
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जैन-रत्न
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mirmwamirmirmirien.
छोड़ा तब उन्होंने सविधि वंदना करके महाराजसे इलाज करानेकी प्रार्थना की। यह भी निवेदन किया कि चिकित्सामें किसी जीवकी हिंसा नहीं होगी। महाराजने इलाज करनेकी सम्मति दे दी । वे तत्काल ही एक गायका मुर्दा उठा लाये । फिर उन्होंने मुनि महाराजके शरीरमें लक्षपाक तैलकी मालिश की। तैल सारे शरीरमें प्रविष्ट हो गया । तैलकी अत्यधिक उष्णताके कारण मुनि महाराज मूर्छित हो गये । शरीरके अंदरके कीड़े व्याकुल होकर शरीरसे बाहिर निकल आये । जीवानंदने रत्नकंबल मुनि महागजके शरीर पर ओढ़ा दिया । कंबल शीतल था इसलिए सारे कीड़े उसमें आ गये । जीवानंदने आहिस्तगीसे कंबलको उठाकर गायके मुर्दे पर डाल दिया। 'सत्पुरुष छोटेसे छोटे अपकारी कीड़ेके प्राणोंकी भी रक्षा करते हैं।' कीड़े गायके शरीरमें चले गये। जीवानंदने मुनि महाराजके शरीर पर अमृतरसके समान प्राणदाता गोशीर्ष चंदनका लेप किया। उससे मुनि महाराजकी मुर्छा भंग हुई । थोड़ी देरके बाद
और लक्षपाक तैलकी मालिश की । पहिली बार चर्मगत कीड़े निकले थे; अबकी बार मांसगत कीड़े निकले । उनको भी पूर्ववत् गऊके शवमें छोड़ दिया और गोशीर्ष चंदनका लेप किया। तीसरी बार और लक्षपाक तैल मला । उससे हड्डियोंमेंके सब कीड़े निकल गये । पूर्ववत् कीड़ोंको गोशवमें छोड़कर बड़े भक्तिभावसे जीवानंदने मुनिमहाराजके शरीरमें गोशीष चंदनका विलेपन किया। उससे उनका शरीर स्वस्थ होकर कुंदनकी भाँति दमकने लगा। जीवानन्दने और उसके पाँचों साथियोंने
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श्रीआदिनाथ-चरित
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भक्ति-पुरस्सर वंदनाकर कहा:-"महाराज ! हमने इतनी देरतक आपके धर्म-ध्यानमें बाधा डाली इसके लिए हमें क्षमा कीजिए।"
कुछ कालके बाद उन्हें वैगग्य उत्पन्न हुआ । जीवानंदने अपने पाँचों मित्रों सहित दीक्षा ले ली। अनेक प्रकारसे जीवोंकी रक्षा करते और संयम पालते हुए वे तपश्चरण करने लगे। अन्त समयमें उन्होंने संलेखना करके अनशनव्रत ग्रहण किया और आयु समाप्त होनेपर उस देहका परित्याग किया। ___ दसवाँ भव-धनका जीव जीवानंद नामसे ख्यात शरीरको छोड़कर अपने छहों मित्रों सहित, बारहवें देवलोकमें इन्द्रका सामानिक देव हुआ। यहाँ बाईस सागरका आयु पूर्ण किया। ___ ग्यारहवाँ भव-वहाँसे च्यवकर धनसेठका (जीवानंदका) जीव जंबूद्वीपके पूर्व विदेहमें, पुष्कलावती विजयमें, लवण समुद्रके पास, पुंडरीकिनी नामक नगरके राजा वज्रसेनके घर, उसकी धारणी नामा रानीकी कूखसे, जन्मा । नाम वज्रनाभ रक्खा गया। जब ये गर्भ में आये थे तब इनकी माताको चौदह महा स्वप्न आये थे । जीवानंदके भवमें इनके जो मित्र थे वे भी पाँच तो इनके सहोदर भाई हुए और केशवका जीव दूसरे राजाके यहाँ जन्मा ।
जब ये वयस्क हुए तब इनके पिता 'वज्रसेन' राजाने दीक्षा ग्रहण कर ली । ये स्वयंबुद्ध भगवान थे।
वज्रनाभ चक्रवर्ती थे । जब इनके पिताको केवलज्ञान हुआ तभी इनकी आयुधशालामें भी चक्ररत्नने प्रवेश किया ।
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जैन-रत्न
अन्यान्य तेरह रत्न भी उनको उसी समय प्राप्त हुए। जब उन्होंने पुष्कलावती विजयको अपने अधिकारमें कर लिया तब समस्त राजाओंने मिलकर उनपर चक्रवर्तित्वका अभिषेक किया । ये चक्रवर्तीकी सारी संपदाओंका भोग करते थे तो भी इनकी बुद्धि हर समय धर्म-साधनकी ओर ही रहती थी। __एक बार वज्रसेन भगवान विहार करते हुए पुंडरीकिणी नगरीके निकट समोसरे । वज्रनाभ भी धर्मदेशना सुननेके लिए गये । देशना सुनकर उनकी वैराग्य-भावना बहुत ही प्रबल हो गई। उन्होंने अपने पुत्रको राज्य सौंपकर दीक्षा ल ली । घोर तपस्या करने लगे । तपश्चरणके प्रभावसे उनको खेलादि लब्धियाँ प्राप्त हुई; परन्तु उन्होंने लब्धियोंका कभी ___x१ खेलौषधि लब्धि-इस लब्धिवालेका थूक लगानेसे कोढ़ियोंके कोढ़ मिट जाते हैं। २-जलौषधि लब्धि-इस लब्धिवालेके कान, नाक और शरीरका मैल सारे रोगोंको मिटाता है और कस्तूरीके समान सुंगधवाला होता है। ३-आमौषधि लब्धि-इस लब्धिवालेके स्पर्शसे सारे रोग मिट जाते हैं । ४-सौषधि लब्धि-इस लब्धिवालेके शरीरसे छूआ हुआ बारिशका जल और नदीका जल सारे रोग मिटाता है । इसके शरीरसे स्पर्शकरके आया हुआ वायु जहरके असरको दूर करता है । उसके वचनका स्मरण महाविषकी पीडाको मिटाता है और उसके नख, केश, दाँत और शरीरसे जो कुछ होता है वह दवा बन जाता है । ५-वैक्रिय लब्धि-इससे नीचे लिखी शक्तियाँ प्राप्त होती हैं१-अणुत्व शक्ति-बारीकसे बारीक वस्तुमें भी प्रवेश करनेकी
शक्ति । सूईके नाके से इस शक्तिवाला निकल सकता है । २-महत्व शक्ति-इस शक्तिसे शरीर इतना बड़ा किया जा ___ सकता है कि मेरु पर्वतका शिखर भी उसके घुटने तक रहे।
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उपयोग नहीं किया । कारण मुमुक्षु पुरुष प्राप्त वस्तुमें भी आकांक्षा रहित होते हैं ।
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३ - लघुत्व शक्ति - इस शक्ति से शरीर पवनसे भी हलका बनाया जा सकता है।
४ - गुरुत्व शक्ति- इससे शरीर इतना भारी बनाया जा सकता है कि इन्द्रादि देव भी उसके भारको सहन नहीं कर सकते । ५ – प्राप्ति शक्ति- इससे पृथ्वीपर बैठे हुए आकाशस्थ तारोंको भी छू सकता है।
- प्रकाम्य शक्ति-इससे जमीन की तरह पानीपर चल सकता है और जलकी तरह जमीनमें स्नानादि कर सकता है ।
७- ईशत्व शक्ति - इससे चक्रवर्ती और इन्द्रके जैसा वैभव किया जा सकता है ।
८ – वशित्व शक्ति- इससे क्रूर प्राणी भी वशमें आ जाते हैं । ९- अप्रतिघाती शक्ति - इससे एक दवजिंकी तरह पर्वतों और चट्टानों में से मनुष्य निकल सकता है ।
१० - अप्रतिहत अन्तर्ध्यान शक्ति- इससे मनुष्य पवनकी तरह अदृश्य हो सकता है ।
११ – कामरूपत्व शक्ति- इससे एक ही समय में अनेक तरहके रूप धारणकर सारा लोक पूर्ण किया जा सकता है ।
६ - बीजबुद्धि लब्धि - इससे एक अर्थसे अनेक अर्थ जाने जा सकते हैं । जैसे- एक बीज बोनेसे अनेक बीज प्राप्त होते हैं । ७ – कोष्ट बुद्धि लब्धि - जैसे कोठेमें अनाज रहता है वैसे ही इससे पहले सुनी हुई बात पुनरावर्तन न करनेपर भी हमेशा याद रहती है । ८ - पदानुसारिणी लब्धि - इससे आरंभका बीचका या अंतका, चाहे किसी स्थलका एक पद सुननेसे सारा ग्रंथ याद आ जाता है । ९ - मनोबली
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उन्होंने वीश स्थानकका* आराधनकर तीर्थकर नाम लब्धि-इससे मनुष्य एक वस्तुको जानकर सारे श्रुतशास्त्रोंको जान सकता है। १०-वचनबली लब्धि-इससे मूलाक्षर याद करनेसे सारे शास्त्र अन्तर्मुहूर्तमें याद कर सकता है । ११-कायबली लब्धि-इससे मनुष्य बहुत कालतक मूर्तिकी तरह कायोत्सर्ग करनेपर भी थकता नहीं है । १२-अमृतक्षीरमध्वाज्याश्रवि लब्धि-इस लब्धिवाले के पात्रमें अगर खराब चीज होती है तो भी वह अमृत, क्षीर ( दूध ) मधु ( शहद ) और बीके समान स्वाद देनेवाली हो जाती है और उसका वचन अमृत, क्षीर, मधु और घीके समान तृप्ति देनेवाला होता है । १३-अक्षीण महानसी लब्धि-इससे पात्रमें पड़ा हुआ पदार्थ अक्षय ( कभी समाप्त नहीं होनेवाला ) हो जाता है। [इसी लब्धिके कारण एक बार गौतम स्वामी एक पात्रमें क्षीर लाये थे और उससे पन्द्रह सौ तपस्वियोंको पारण कराया था।] १४-अक्षीण महालय लब्धि-इससे थोड़ी जगहमें भी असंख्य प्राणियोंके रहनेकी व्यवस्था की जा सकती है । १५-संभिन्न श्रोत लब्धि-इसके कारण एक इन्द्रीसे सभी इन्द्रियोंके विषयका ज्ञान हो जाता है । १६-१७-जंघाचारण और विद्याचारण लब्धियाँ-इन दोनों लब्धियोंसे जहाँ इच्छा हो वहाँ जा सकते हैं । इनके अलावा और भी अनेक लब्धियाँ हैं कि जिनसे किसीकी भलाई या बुराई की जा सकती है। ___ *१ इन्हें बीस पद भी कहते हैं । वे ये हैं-१ अरिहंतपद-अर्हत
और अर्हतोंकी प्रतिमाकी पूजा करना उन पर लगाये हुए अवर्णवादका निषेध करना और अद्भुत अर्थवाली उनकी स्तुति करना, २-सिद्धपद सिद्ध स्थानमें रहे हुए सिद्धोंकी भक्तिके लिए जागरण तथा उत्सव करना
और उनका यथार्थ कीर्तन करना, ३--प्रवचनपद-बाल, ग्लान और नव दीक्षित शिष्यादि यतियोंपर अनुग्रह करना और प्रवचम यानी चतुविध जैनसंघका वात्सल्य करना; ४-आचार्यपद-अत्यन्त सत्कार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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कर्म-बाँधा । वीस स्थानकोमेंसे केवल एक स्थानकका पूर्णरूपसे आराधन भी तीर्थंकर नामकर्मके बंधका कारण होता है । परन्तु सहित आहार, औषध और वस्त्रादिके दानद्वारा गुरुभक्ति करना, ५-स्थविरपद-पर्यायस्थविर ( बीस वर्षकी दीक्षापर्यायवाला; ) वयस्थविर ( साठ वर्षकी वयवाला ) और श्रुतस्थविर ( समवायांगधारी ) की भक्ति करना, ६–उपाध्यायपद-अपनी अपेक्षा बहुश्रुतधारीकी अन्न-वस्त्रादिसे भक्ति करना, ७-साधुपद-उत्कृष्ट तप करने वाले मुनियोंकी भक्ति करना, ८ ज्ञानपद-प्रश्न, वाचन मनन, आदि द्वारा निरन्तर द्वादशांगी रूप श्रुतका सूत्र, अर्थ और उन दोनोंसे ज्ञानोपयोग करना, ९-दर्शनपद-शंकादि दोषरहित स्थैर्य आदि गुणोंसे भूषित
और शमादि लक्षणवाला दर्शन-सम्यक्त्व पालना, १०-विनयपद-ज्ञान, दर्शन,चारित्र और उपचार इन चारोंका विनय करना, ११-चारित्रपदमिथ्या करणादिक दश विध समाचारीके योगमें और आवश्यकमें अतिचार रहित यत्न करना, १२-ब्रह्मचर्यपद-अहिंसादि मूलगुणोंमें और समिति आदि उत्तर गुणोंमें अतिचार-रहित प्रवृत्ति करना, १३-समाधिपद-क्षण क्षणमें प्रमादका परिहारकर ध्यानमें लीन होना; १४-तपपद-मन और शरीरको बाधा-पीडा न हो इस तरह तपस्या करना; १५-दानपद-मन, वचन और कायशुद्धिके साथ तपस्वियोंको दान देना, १६–वैयावच्चपद आचार्यादि दस (१जिनेश्वर २ सूरि ३ वाचक ४ मुनि ५ बालमुनि ६ स्थविरमुनि ७ ग्लानमुनि ८ तपस्वीमुनि ९ चैत्य १० श्रमणसंघ) की अन्न, जल और आसनसे सेवा करना, १७-संयमपद-चतुर्विध संघके सारे वित्र मिटाकर मनमें समाधि उत्पन्न करना, १८-अभिनवज्ञानपद-अपूर्व ऐसे सूत्र, अर्थ तथा दोनोंका यत्न पूर्वक ग्रहण करना, १९-श्रुतपद-श्रद्धासे उद्भासन (बहुमानपूर्वक वृद्धि-प्रकाशन) करके तथा अवर्णवादका नाश करके श्रुतज्ञानकी भक्ति करना, २०-तीर्थपद-विद्या, निमित्त, कविता, वाद और धर्म-कथा आदिसे शासनकी प्रभावना करना। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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वज्रनाभने तो बीसों स्थानकोंका आराधन किया था । खड़की धाराके समान प्रव्रज्याका-चारित्रका-चौदह लाख पूर्व तक अतिचार रहित उन्होंने पालन किया और अन्तमें दोनों प्रकारकी संलेखना पूर्वक पादपोपगमन अनशन-व्रत स्वीकार कर देह त्यागा।
बारहवाँ भव-मरकर अनुत्तर विमानमें तेतीस सागरोपमकी आयुवाले देवता हुए।
तेरहवाँ भव-आदिनाथ नामरूप ।
पूर्वज।
जब मनुष्यका अधःपात होने लगता है तब वह परमुखापेक्षी हो जाता है। हम तीर्थकर चरित-भमिकामें यह बता चके हैं कि, तीसरे आरेके अन्तमें कल्प वृक्षोंका दान कम हो जाता है। युगलियों में भी कषायोंका थोड़ा उदय हो जाता है। उनके कारण वे कुछ अयोग्य कार्य भी करने लग जाते हैं। उस अयोग्य कार्यको रोकनेके लिए किसी सशक्त मनुष्यकी आवश्यकता होती है । युगलिये अपने से किसी एक मनुष्यको चुन लेते हैं । वह पुरुष कुलकर कहलाता है । वही युगलियोंको बुरे कामोंसे रोकनेके लिए दंड भी नियत करता है ।
तीसरे आरेके अन्तमें एक युगलियोंका जोड़ा उत्पन्न हुआ। पुरुषका नाम सागरचन्द्र था और स्त्रीका प्रियदर्शना । उनका शरीर नौ सौ धनुषका था। उनकी आयु पल्योपमकी थी। उनका संहनन 'वज ऋषभनाराच' और संस्थान 'समचतुरस्र'था।
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इनके पूर्व भवमें एक मित्र था । वह कपट करनेसे मरकर उसी स्थान पर चार दाँतवाला हाथी हुआ । एक दिन उसने फिरते हुए सागरचन्द्र और प्रियदर्शनाको देखा । उसके हृदयमें पूर्व स्नेहके कारण प्रेमका संचार हुआ। उसने दोनोंको आहिस्तगीके साथ सूंडसे उठाकर अपनी पीठपर बिठा लिया। अन्यान्य युगलियोंने, सागरचन्द्रको इस हालतमें देखकर आश्चर्य किया। उसको विशेष शक्तिसम्पन्न समझा और अपना न्यायकर्ता बना लिया । वह विमल-श्वेत, वाहन-सवारी पर बैठा हुआ था, इसलिए लोगोंने उसका नाम 'विमलवाहन' रक्खा ।
क्योंकि कल्पवृक्ष उस समय बहत ही थोडा देने लगे थे. इसलिए युगलियोंके आपचमें झगड़े होने लग गये थे । इन झगड़ोंको मिटाना ही विमलवाहनका सबसे प्रथम काम था। उसने सोच-विचारकर सबको आपसमें कल्पवृक्ष बाँट दिये।
और 'हाकार ' का दंड विधान किया । जो कोई दूसरेके कल्पक्षपर हाथ डालता था, वह विमलवाहनके सामने लाया जाता था। विमलवाहन उसे कहता:-"हा! तूने यह किया" इस कथनको वह मौतसे भी ज्यादा दंड समझता था और फिर कभी अपराध नहीं करता था।
प्रथम कुलकर विमलवाहनके युगल संतान उत्पन्न हुई । पुरुषका नाम चक्षुष्मान था और स्त्रीका चन्द्रकान्ता । विमलवाहन के बाद चक्षुष्मान कुलकर हुआ। वह भी अपने पितादीकी भाँति 'हाकार' दंड विधानसे काम लेता था। यह
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दूसरा कुलकर था । जोड़ेका शरीर आठ सौ धनुपका और आयु असंख्य पूर्वकी थी ।
इनके जो जोड़ा उत्पन्न हुआ उसका नाम यशस्वी और सुरूपा थे । आयु दूसरे कुलकरके जोड़ेसे कुछ कम और शरीर साढ़े सात सौ धनुषका था । पिताकी मृत्युके बाद यशस्वी तीसरा कुलकर नियत हुआ । उसके समयमें ' हाकार ' दंडविधान से कार्य न चला। तब उसने ' माकार का दंडविधान और किया । अल्प अपराधवालेको ' हाकार ' का विशेष अपराधवालेको 'माकार'का और गुरुतर अपराध वालेको दोनोंका दंड देने लगा ।
सुरूपाकी कूख से अभिचन्द्र और प्रतिरूपाका जोड़ा उत्पन्न हुआ | वह अपने मातापिता से कुछ अल्प आयुवाला और साढ़े सौ धनुष शरीरवाला था | यशस्वी के बाद अभिचन्द्र चौथा कुलकर नियत हुआ । वह अपने पिताकी 'हाकार' और 'माकार' दोनों नीतियों से काम लेता रहा ।
छः
प्रतिरूपाने एक जोड़ा उत्पन्न किया । उसका नाम प्रसेनजित और चक्षुकान्ता हुआ। उनके मातापितासे उनकी आयु कुछ कम थी । शरीर छः सौ धनुष प्रमाण था । प्रसेनजित अपने पिता के बाद पाँचवाँ कुलकर नियत हुआ । इसके सम
में ' हाकार' और 'माकार' नीतिसे काम नहीं चला तब उसने ' धिक्कार ' का तीसरा दंडविधान और बढ़ाया ।
चक्षुकान्ताके गर्भ से मरुदेव और श्रीकान्ता नामका जोड़ा उत्पन्न हुआ | वह अपने मातापितासे आयुमें कुछ कम और
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शरीर प्रमाणमें साढ़े पाँच सौ धनुष था । प्रसेनजितके बाद मरुदेव छठा कुलकर नियत हुआ। वह तीनों प्रकारके दंडविधानसे काम लेता रहा। __ श्रीकान्ताने नाभि और मरुदेवा नामका एक जोड़ा प्रसवा । उसकी आयु अपने मातापितासे कुछ कम और शरीर सवा पाँच सौ धनुष था। मरुदेवके बाद नाभि सातवें कुलकर नियत हुए। वे भी अपने पिताकी भाँति तीनों-'हाकार' 'माकार' और ‘धिक्कार ' दंडविधानसे काम लेते रहे।
जन्म और बचपन। तीसरे आरेके जब चौरासी लाख पूर्व और नवासी पक्ष (तीन बरस साढ़े आठ महीने ) बाकी रहे तब आषाढ़ कृष्णा चतुर्दशीके दिन उत्तराषाढा नक्षत्र और चंद्रयोगमें 'धनसेठ' ( वज्रनाभ ) का जीव तेतीस सागरका आयु पूरा कर सर्वार्थसिद्धिसे च्यवा और जैसे मान सरोवरसे गंगाके तटपर हंस आता है उसी भाँति मरुदेवाके गर्भ में आया। उस समय प्राणी मात्रके दुःख कुछ क्षणके लिए हल्के हुए। ___ माता मरुदेवाको चौदह महा स्वप्न आये । इन्द्रोंके आसन काँपे । उन्होंने अवधिज्ञानसे प्रथम तीर्थकरका गर्भ में आना देखा । वे सब इकडे होकर माता मरुदेवाके पास आये। उन्होंने स्वमोंका* फल सुनाया । फिर वे मरुदेवाको प्रणाम कर अपने स्थानपर चले गये।
* देखो तीर्थकरचरित-भूमिका पृष्ठ १०-१४ तक ।
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___ जब गर्भको नौ महीने और साढ़े आठ दिन व्यतीत हुए, सारे ग्रह उच्च स्थानमें आये, चंद्रयोग उत्तराषाढा नक्षत्रमें स्थित हुआ तब चैत महीनेकी काली आठमके दिन आधीरातमें मरुदेवा माताने युगल धर्मी पुत्रको उत्पन्न किया। उपपाद शय्यामें जन्मे हुए देवताओंकी तरह भगवान सुशोभित होने लगे। तीन लोकमें, अन्धकारको नाश करनेवाले बिजलीके प्रकाशकी तरह, उद्योत हुआ। आकाशमें दुंदुभि बजने लगे। क्षण वार नारकी जीवोंको भी उस समय अभूत पूर्व आनन्द हुआ। शीतलमंद पवनने सेवकोंकी तरह पृथ्वीकी रजको साफ करना प्रारंभ किया। मेघ वस्त्र डालने और सुगंधित जलकी वर्षा करने लगे। ___ छप्पन दिक्कुमारियाँ मरुदेवा माताकी सेवामें आई सौधर्मेन्द्र व दूसरे तिरसठ इन्द्रों ने मिलकर प्रभुका जन्म-कल्याणक किया। ___ माता मरुदेवा सवेरे ही जागृत हुई । रातमें स्वप्न आया हो इस तरह उन्होंने इन्द्रादि देवोंके आगमनकी सारी बातें नाभिराजासे कहीं। भगवानके उरुमें (जांघ) ऋषभका चिन्ह था, और माता मरुदेवाने भी स्वप्नमें सबसे पहले ऋषभहीको देखा था, इसलिए भगवानका नाम 'ऋषभ' रक्खा गया । भगवानके साथ जन्मी हुई कन्याका नाम सुमंगला रक्खा गया। योग्य समयमें भगवान इन्द्रके संक्रमण किये हुए अंगूठेके अमृतका पान करने लगे । पाँच धाएँ-जिन्हें इन्द्रेन नियत की थीं हर समय भगवानके पास उपस्थित रहती थीं।
६ देखो, तीर्थकरचरित-भूमिका पृष्ठ १८-३१ तक ।
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भगवानकी आयु जब एक बरसकी हो गई, तब सौधर्मेन्द्र वंश स्थापन करनेके लिए आया। सेवकको खाली हाथ स्वामीके दर्शन करनेके लिये नहीं जाना चाहिए, इस खयालसे इन्द्र अपने हाथमें इक्षुयष्टि (गन्ना) लेता गया । वह पहुँचा उस समय भगवान नाभि राजाकी गोदमें बैठे हुए थे । प्रभुने अवविज्ञान द्वारा इन्द्रके आनेका कारण जाना* । उन्होंने इक्षु लेनेके लिए हाथ बढ़ाया । इन्द्रने प्रणाम करके इक्षुयष्टि प्रभुके अर्पण की । प्रभुने इक्षु ग्रहण किया । इसलिए उनके वंशका नाम ' इक्ष्वाकु ' स्थापनकर' इन्द्र स्वर्गमें गया।
युगादिनाथ ( ऋषभदेव )का शरीर पसीने, रोग और मलसे रहित था । वह सुगंधित, सुंदर आकारवाला और स्वर्णकमलके समान शोभता था। उसमें मांस और रुधिर गऊके दुग्धकी धारके समान उज्ज्वल और दुर्गध विहीन थे। उनके आहार (भोजन) निहार (दिशा फिरने) की विधि चर्मचक्षुके अगोचर थे। उनके श्वासकी खुशबू विकसित कमलके समान थी। ये चारों अतिशय प्रभुको जन्मसे ही प्राप्त हुए थे। वऋषभ नाराच संहनन और समचतुरस्र संस्थानके वे धारी थे। देवता बालरूप धारण कर प्रभुके साथ क्रीडा करने आते थे । कलिकाल सर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यने उसका वर्णन इन शब्दोंमें किया है:
*-तीर्थकरोंको जन्मसे ही अवाधिज्ञान होता है।
8-तीर्थकरोंके चौतीस अतिशय होते हैं। उन्होंमें ये प्रारंभके चार हैं । देखो तीर्थकरचारत-भूमिका पृष्ट १-३६ तक । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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" समचतुरस्र संस्थान वाला प्रभुका शरीर ऐसा शोभता था मानों वह क्रीडा करनेकी इच्छा रखनेवाली लक्ष्मीकी कांचनमय क्रीडा-वेदिका है । जो देवकुमार समान उम्रके होकर क्रीडा करनेको आते थे उनके साथ भगवान उनका मन रखनेके लिए खेलते थे । खेलते वक्त घूलधूसरित शरीरवाले और घूघरमाल धारण किये हुए प्रभु ऐसे शोभते थे, मानों मदमस्त गजकुमार है । जो वस्तु प्रभुके लिए सुलभ थी, वही किसी ऋद्धिधारी देवके लिए अलभ्य थी । यदि कोई देव प्रभुके बलकी परीक्षा करनेके लिए उनकी अँगुली पकड़ता था, तो वह उनके श्वासमें रेणु (रेतीके दाने) के समान उड़कर दूर जा गिरता था। कई देवकुमार कंदुक (गैंद) की तरह पृथ्वीपर लोटकर प्रभुको विचित्र कंदुकोंसे खेलाते थे । कई देवकुमार राजशुक ( राजाका तोता) बनकर चाटुकार (मीठा बोलनेवाले) की तरह 'जीओ! जीओ! आनंद पाओ! आनंद पाओ! इस तरह अनेक प्रकारके शब्द बोलते थे। कई देवकुमार मयूरका रूप धारणकर केका. वाणी (मोरकी बोली) से षड्ज स्वरमें गायन कर नाच करते थे। प्रभुके मनोहर हस्तकमलोंको ग्रहण करनेकी और स्पर्श करनेकी इच्छासे कई देवकुमार हंसोंका रूप धारणकर गांधार स्वरमें गायन करते हुए प्रभुके आसपास फिरते थे। कई प्रभुके प्रीतिपूर्ण दृष्टिपातामृत पानकरनेकी इच्छासे क्रौंचपक्षीका रूप धारणकर उनके समक्ष मध्यम स्वरमें बोलते थे। कई प्रभुको प्रसन्न करनेके लिए कोकिलाका रूप धारणकर, पासके वृक्षोंकी डालियोंपर बैठ पंचम स्वरमें राग आलापते थे। कई तुरंग
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.www.wwwxx (घोड़े) का रूप धरकर, अपने आत्माको पवित्र करनेकी इच्छासे, धैवत ध्वनिसे हेपारव (हिनहिनाहट ) करते हुए प्रभुके पास आते थे। कई हाथीका स्वरूप धर निषाद स्वरमें बोलतेहुए अधोमुख होकर अपनी सूंड़ोंसे भगवानके चरणोंको स्पर्श करते थे । कई बैलका रूप धारणकर अपने सींगोंसे तट प्रदेशको ताड़न करते, और ऋषभ स्वरमें बोलते हुए प्रभुकी दृष्टिको विनोद कराते थे। कई अंजनाचलके समान भैंसोंका रूपधर, परस्पर युद्धकर प्रभुको युद्धक्रीडा बताते थे। कई प्रभुके विनोदार्थ मल्लका रूपधर, भुजाएँ ठोक, एक दूसरेको अक्षवाट ( अखाड़े) में बुलाते थे। इस तरह योगी जिस तरह परमात्माकी उपासना करते हैं उसी तरह देवकुमार भी विविध विनोदोंसे निरन्तर प्रभुकी उपासना करते थे।" ___ अंगूठे चूसनेकी अवस्था बीतने पर अन्य गृहवासी अर्हत पकाया हुआ भोजन करते हैं, परन्तु आदिनाथ भगवान तो देवता उत्तर कुरुक्षेत्रसे कल्पवृक्षोंके फल लाते थे उन्हें भक्षण करते थे और क्षीर समुद्रका जल पीते थे।
यौवनकाल और गृहस्थ जीवन वालपन बीतने पर भगवानने युवावस्थामें प्रवेश किया । तब भी प्रभुके दोनों चरणोंके मध्य भाग समान, मृदु, रक्त, उष्ण, कंपरहित, स्वेदवर्जित और समान तलुएवाले थे । उनमें चक्र, माला, अंकुश, शंख, ध्वजा, कुंभ तथा स्वस्तिकके चिन्ह थे। उनके अंगूठेमें श्रीवत्स था । अँगुलियाँ छिद्र-रहित और सीधी
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थीं। अँगुलि-तलमें नंदावर्त के चिन्ह थे । अँगुलियोंके प्रत्येक पर्वमें जौ थे । इसी भाँति दोनों हाथ भी बहुत सुन्दर, नवीन आम्रपल्लवके समान हथेलीवाले, कठोर, स्वेदरहित, छिद्रवर्जित
और गरम थे । हाथमें दंड, चक्र, धनुष, मत्स्य, श्रीवत्स, वज्र, अंकुश, ध्वज, कमल, चामर, छत्र, शंख, कुंभ, समुद्र, मंदर, मकर, ऋषभ, सिंह, अश्व, रथ, स्वस्तिक, दिग्गज, प्रासाद, तोरण, और द्वीप आदिके चिन्ह थे । उनकी अँगुलियाँ और अंगूठे लाल तथा सीधे थे। पाँवोंमें यव थे । अँगुलियोंके अग्रभागमें प्रदक्षिणावर्त थे। उनके करकमलके मूलमें तीन रेखाएँ शोभती थीं। उनका वक्षस्थल स्वर्णशिलाके समान, विशाल, उन्नत और श्रीवत्सरत्नपीठके चिन्हवाला था। उनके कंधे ऊँचे और दृढ़ थे । उनकी बगलें थोड़े केशवाली, उन्नत तथा गंध, पसीना और मलरहित थीं । भुजाएँ घुटनों तक लंबी थीं। उनकी गर्दन गोल, अदीर्घ और तीन रेखाओंवाली थी। मुख गोल, कान्तिके तरंगवाला कलंकहीन चंद्रमाके समान था। दोनों गाल कोमल, चिकने और मांसपूर्ण थे । कान कंधे तक लंबे थे। अंदरका आवत बहुत ही सुंदर था । होठ बिंबफलके समान लाल और बत्तीसों दाँत कुंद-कलीके समान सफेद थे । नासिका अनुक्रपसे विकासवाली और उन्नत थी। उनके चक्षु अंदरसे काले, सफेद, किनारेपर लाल और कानों तक लंबे थे। भाँफने काजलके समान श्याम थीं। उनका ललाट विशाल, मांसल, गोल, कठिन, कोमल, और समान अष्टमी के चंद्रमाके समान सुशो
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भित होता था । इस प्रकार नाना प्रकार के सुलक्षणवाले प्रभु सुर, असुर, और मनुष्य सभी के सेवा करने योग्य थे । इन्द्र उनका हाथ थामता था, यक्ष चमर ढालते थे, धरणेन्द्र द्वारपाल बनता था और वरुण छत्र रखता था; तो भी प्रभु लेशमात्र भी, गर्व किये विना यथारुचि विहार करते थे । कई बार प्रभु बलवान इन्द्रकी गोद में पैर रख, चमरेन्द्रके गोदरूपी पलंग में अपने शरीरका उत्तर भाग स्थापन कर, देवताओंके आसनपर बैठे हुए दिव्य संगीत और नृत्य सुनते और देखते थे । अप्सराएँ प्रभुकी हाजिरीमें खड़ी रहती थीं; परन्तु प्रभुके मनमें किसी भी तरहकी आसक्ति नहीं थी ।
जब भगवानकी उम्र एक बरस से कुछ कम की थी, तबकी बात है । कोई युगल - अपनी युगल संतानको एक ताड़ वृक्षके नीचे रखकर - रमण करनेकी इच्छासे क्रीडागृह में गया । हवा झौंके से एक ताडफल बालकके मस्तकपर गिरा। बालक मर गया । बालिका माता पिता के पास अकेली रह गई ।
थोड़े दिनों के बाद बालिकाके मातापिताका भी देहांत हो गया । वालिका वनदेवीकी तरह अकेली ही वनमें घूमने लगी । देवीकी तरह सुन्दर रूपवाली उस बालिकाको युगल पुरुषोंने आश्चर्यसे देखा और फिर वे उसे नाभि कुलकरके पास ले गये । नाभि कुलकरने उन लोगोंके अनुरोधसे बालिकाको यह कहकर रख लिया कि यह ऋषभकी पत्नी होगी । प्रभु सुमंगला और सुनंदा के साथ बालक्रीडा करते हुए यौवनको प्राप्त हुए ।
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जैन - रत्न
एक बार सौधर्मेन्द्र प्रभुका विवाह - समय जानकर प्रभुके पास आया और विनयपूर्वक बोला :- "प्रभो ! यद्यपि मैं जानता हूँ कि, आप गर्भवासही से वीतराग हैं, आपको अन्य पुरुषार्थों की आवश्यकता नहीं है इससे चौथे पुरुषार्थ मोक्षका साधन करनेही के लिए आप तत्पर हैं; तथापि मोक्षमार्गकी तरह व्यवहार मार्ग भी आपहीसे प्रकट होनेवाला है । इसलिए लोकव्यवहा रको चलाने के लिए मैं आपका विवाहोत्सव करना चाहता हूँ । हे स्वामी, आप प्रसन्न होइए और त्रिभुवनमें अद्वितीय रूपवाली सुमंगला और सुनंदाका पाणिग्रहण कीजिए ।
प्रभुने अवधिज्ञानसे उस समय, यह देखकर कि, मुझे अभी तिरयासी लाख पूर्व तक भोगोपभोग भोगने ही पड़ेंगे, सिर हिला दिया । इन्द्रने प्रभुका अभिप्राय समझकर विवाहकी तैयारियाँ कीं । बड़ी धूमधामके साथ सुनंदा और सुमंगला के साथ भगवानका ब्याह हो गया ।
६२
विवाहोत्सव समाप्त कर स्वर्गपति इन्द्र अपने स्थानपर गया स्वामीकी बताई हुई ब्याहकी रीति तभी से लोकमें चली ।
उस समय कल्पवृक्षोंका प्रभाव कालके दोष से कम होने लग गया था । युगलियोंमें क्रोधादि कषायें बढ़ने लगी थीं । हाकार, ' ' माकार' और 'धिक्कारकी ' दंडनीति उनके लिए निरुपयोगी हो गई थी। झगड़ा बढ़ने लगा था । इसलिए एक दिन सब पुरुष जमा होकर प्रभुके पास गये और अपने दुःख सुनाये । प्रभुने कहा :- " संसार में मर्यादा उल्लंघन करनेवालों को राजा दंड देता है | अतः तुम किसीको राज्याभिषेक करो ।
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श्रीआदिनाथ-चरित
चतुरंगिनी सेनासे उसे सशक्त बनाओ। वह तुम्हारे सारे दुःखोंको दूर करेगा।" ___ उन्होंने कहा:-" हम आपहीको राज्याभिषेक करना चाहते हैं।" __ प्रभुने कहा:--"तुम नाभि कुलकरके पास जाओ। वे आज्ञा दें उसको राज्याभिषेक करो।"
लोग नाभि कुलकरके पास गए। उन्होंने कहा:-"ऋषभको तुम अपना सजा बनाओ।" ___ लोग वापिस लौटकर आये बोले:--" आपहीको राज्याभिषेक करनेकी नाभि कुलकरने हमें आज्ञा दी है।"
लोग विधि जानते न थे। उन्होंने पहिली बार ही राज्याभिषेककी बात सुनी थी। वे केवल जल चढ़ानेहीको अभिषेक करना समझकर जल लेने गये। उस समय इन्द्रका आसन काँपा। उसने अवधिज्ञान द्वारा प्रभुके राज्याभिषेकका समय जाना । उसने आकर राज्याभिषेक कर प्रभुको दिव्यावस्त्रालंकारासे अलंकृत किया। इतनेहीमें युगलिये पुरुष भी कमलके पत्रोंमें जल लेकर आ गए। वे प्रभुको वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत देखकर आश्चर्यान्वित हुए । ऐसे सुन्दर वस्त्राभूषणोंपर जल चढ़ाना उचित न समझ उन्होंने प्रमुके चरणोंमें जल चढ़ाया और उन्हें अपना राजा स्वीकारा । इन्द्रने उन्हें विनीत समझ उनके लिए एक नगरी निर्माण करनेकी कुबेरको आज्ञा दी और उसका नाम विनीता रखनेको कहा। फिर वह अपने स्थान पर चला गया।
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जैन-रत्न
कुबेरने बारह योजन लम्बी और नौ योजन चौड़ी नगरी बनाई। उसका दूसरा नाम अयोध्या रक्खा गया । जन्मसे बीस लाख पूर्व बीते तब प्रभु प्रजाका पालन करनेके लिये विनीता नगरीके स्वामी बने । अवसर्पिणी कालमें ऋषभदेव ही सबसे पहिले राजा हुए । ये अपनी सन्तानकी तरह प्रजाका पालन करने लगे। उन्होंने बदमाशोंको दंड देने और सत्पुरुषोंकी रक्षा करने के लिए उद्यमी मंत्री नियत किये; चोर, डाकुओंसे प्रजाको बचानेके लिए रक्षक-सिपाही नियत किये । हाथी, घोड़े रक्खे: घुड़सवारोंकी और पैदल सैनिकोंकी सेनाएँ बनाई । रथ तैयार करवाये । सेनापति नियत किये। ऊँट, गाय, भैंस, बैल, खच्चर आदि उपयोगी पशु भी प्रभुने पलवाये । ___ कल्पवृक्षोंका सर्वथा अभाव हो गया । लोग कंद, मूल, फलादि खाने लगे । कालके प्रभावसे, शालि, गेहूँ, चने, आदि पदार्थ अपने आप ही उस समय उत्पन्न होने लगे। लोग उन्हें कच्चे ही, छिलकों सहित, खाने लगे। मगर वे हजम न होने लगे इस लिए एक दिन लोग प्रभुके पास गये । प्रभुने कहा-"तुम इनको छिलके निकालकर खाओ।" इस तरह कुछ दिन किया तो भी वे अच्छी तरह न पचने लगे, तब लोग फिर प्रभुके पास गये । प्रभुने कहा,-" छिलके निकालकर पहिले हाथोंमें मलो और फिर भिगोकर किसी पत्तेमें लो और खाओ।" ऐसा करनेसे भी जब वह नहीं पचने लगा, तब लोगोंने फिरसे जाकर प्रभुसे विनती की। प्रभुने कहा:" पूर्वोक्त विधि करने के बाद औषधिको (धान्यको) मुट्ठीमें
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श्रीआदिनाथ-चरित
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या बगलमें, थोड़ी देर दबाओ और उनमें जब गरमी पहँचे तब उन्हें खाओ।" लोग ऐसा ही करने लगे। मगर फिर भी उनकी शिकायत नहीं मिटी। ___ एक दिन जोरकी हवा चली। वृक्ष परस्पर रगड़ाये। उनमें अग्नि पैदा हुई । रत्नोंके भ्रमसे लोग उसे लेनेको दौड़े। मगर वे जलने लगे, तब प्रभुके पास गये । प्रभुने सब बात समझकर कहा कि, स्निग्ध और रुक्ष कालके योगसे अग्नि उत्पन्न हुई है। तुम उसके आसपाससे घास फूस हटाकर, उसमें औषधि पकाओ और खाओ।
पूर्वोक्त क्रिया करके लोगोंने उसमें अनाज डाला । देखते ही देखते सारा अनाज उसमें जलकर भस्म हो गया। लोग वापिस प्रभुके पास गये । प्रभु उस समय हाथीपर सवार होकर सैर करने चले थे । युगलियोंकी बातें सुनकर उन्होंने थोड़ी गीली मिट्टी मँगवाई । महाबतके स्थानमें, जाकर हाथीके सिरपर मिट्टीको बढ़ाया और उसका बर्तन बनाया और कहा:" इसको अग्निमें रखकर सुखा लो। जब यह मूख जाय तब इनमें नाज रखकर पकाओ और खाओ। सभी ऐसे बासन बना लो।" उसी समयसे बर्तन बनानेकी कलाका आरंभ हुआ।
विनीता नगरीके बाहिर रहनेवाले लोगोंको वर्षादिसे कष्ट होने लगा। इसलिये प्रभुने लोगोंको मकान बनानेकी विद्या सिखाई। चित्रकला भी सिखाई । वस्त्र बनाना भी बताया। जब प्रभुने बढ़े हुए केशों और नाखूनोंसे लोगोंको पीडित होते देखा, तब कुछको नाईका काम सिखलाया। स्वभावतः कुछ लोग उक्त
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m mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm. प्रकारकी भिन्न भिन्न कलाओंमें निपुण हो गये। इस लिए उनकी अलग जातियाँ ही बन गई। उनकी पाँच जातियाँ हुई। १-कुंभार; २ चित्रकार; ३ वार्षिक (राज) ४-जुलाहा; ५नाई। __ अनासक्त होते हुए भी अवश्यमेव भोक्तव्य कर्मको भोगनेके लिए, विवाहके पश्चात छः लाखसे कुछ न्यून पूर्वे वर्ष तक प्रभुने सुमंगला और सुनन्दाके साथ विलास किया । सुमंगलाने १४ महास्वप्नों सहित चक्रवर्ती भरत और ब्राह्मीको एक साथ प्रसवा सुनन्दाने भी बाहुबलि और सुन्दरीका जोड़ा प्रसवा । तत्पश्चात सुमंगलाने ४६ युग्म पुत्रोंको और जन्म दिया । इस तरह प्रभुके कुल मिलाकर१००पुत्र और २ कन्याएँ उत्पन्न हुए।* ___ * एक सौ पुत्रों के नाम-१-भरत; २-बाहुबलि; ३-शंख; ४विश्वकर्मा, ५-विमल; ६-सुलक्षणः, ७-अमल; ८-चित्रांग; ९-ल्यात कीर्ति; १०-वरदत्त; ११-सागर; १२-यशोधर; १३-अमर; १४-रथवर; १५-कामदेव; १६-ध्रुव; १७-वत्सनंद; १८-सुर; १९-कामदेव; २०ध्रुव, २१-वत्सनंद; २२-सुर; २३-सुवृंद२४-कुरु; २५-अंग; २६बंग; २७-कौशल; २८-जीर; २९-कलिंग; ३०-मागध, ३१-विदेह; ३२-संगम; ३३-दशार्ण; ३४-गंभीर; ३५-वसुवर्मा, ३६-सुवर्मा, ३७-राष्ट्र; ३८-सौराष्ट्र; ३९-बुद्धिकर; ४०-विविधकर; ४१-सुयशा; ४२-यशःकीर्ति; ४३-यशस्कर; ४४-कीर्तिकर; ४५-सुरण; ४६ ब्रह्मसेन; ४७-विक्रान्त; ४८-नरोत्तम; ४९-पुरुषोत्तम; ५०-चंद्रसेन; ५१महासेन; ५२-नभसेन; ५३-भानु, ५४-सुकान्त; ५५-पुष्पयुत; ५६श्रीधर; ५७-दर्दश; ५८-सुसुमार; ५९-दुर्जय; ६०-अजयमान; ६१सुधर्मा; ६२धर्मसेन; ६३-आनंदन; ६४-आनंद; ६५-नंद; ६६-अपराजित; ६७-विश्वसेन; ६८-हरिषण; ६९-जय; ७०-विजय; ७१विजयंत; ७२-प्रभाकर; ७३-अरिदमन; ७४-मान, ७५-महा बाह; Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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प्रभुकी सन्तान जब योग्य वयको प्राप्त हुई; सब उन्होंने प्रत्येकको भिन्न २ कलाएँ सिखाईं। __ भरतको ७२ कलाएँ*सिखलाई थीं। भरतने भी अपने भाइयोंको वे कलाएँ सिखलाई । बाहुबलिको प्रभुने हस्ति, अश्व, स्त्री और पुरुषके अनेक प्रकारके भेदवाले लक्षणोंका ज्ञान दिया। ब्राह्मीको दाहिने हाथसे अठारह लिपियाँ बतलाई, और सुंद७६-दीर्घ बाहु, ७७-मेघ, ७८-सुघोष; ७९-विश्व; ८०-वराह ८१-सुसन; ८२-सेनापति; ८३-कुंजरवल; ८४-जयदेव; ८५-नागदत्त; ८६-काश्यप; ८७-बल; ८८-वीर; ८९-शुभमति; ९०-सुमति; ९१-पद्मनाभ; ९२-सिंह; ९३-सुजाति; ९४-संजय; ९५-सुनाम; ९६-मरुदेव; ९७-चित्तहर; ९८-सरबर; ९९-दृढरथ; १००-प्रभंजन; __ * कन्याओं के नाम-ब्राह्मी और सुंदरी।
*---पुरुष की ७२ कलाओंके नाम ये हैं,-लेखन गणित, गीत, मृत्य, वाद्य, पठन, शिक्षा, ज्योतिष, छंद, अलंकार, व्याकरण, निरुक्ति, काव्य कात्यायन, निघटुं, गजारोहण, अश्वारोहण उन दोनों की शिक्षा, शास्त्राभ्यास, रस, यंत्र, मंत्र, विष, खन्य गंधवाद, प्राकृत, संस्कृत, पैशाचिक, अपभ्रंश, स्मृति, पुराण, विधि, सिद्धान्त, तर्क, वैदक, वेद, आगम, संहिता इतिहास; सामुद्रिक विज्ञान, आचार्य विद्या; रसायन, कपट, विद्यानुवाद, दर्शन, संस्कार, धूर्त, संबलक, मणिकर्म, तरुचिकित्सा खेचरीकला, अमरीकला, इन्द्रजाल, पाताससिद्धि, पंचक, रसबती, सर्वकरणी, प्रासादलक्षण, पण, चित्रोपला, लेप, चर्मकर्म, पत्रछेद,नखछेद, पत्रपरीक्षा, वशीकरण,काष्ट घटन. देश भाषा, गारुड, योगांग धातुकर्म, केवल विधि, शकुन रुत ।
६-इंस, भत, यज्ञ, राक्षस, उदि, यौवनी, तुरकी, किरी, द्राविडी, सेंधवी, मालवी, बड़ी, नागरी, भाटी, पारसी, आनिमित्ति, चाणाकी, मूल
देवी । ये अठारह लिपियाँ हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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जैन-रत्न wwwmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm...mmar~ रीको बायें हाथसे गणितका ज्ञान दिया। वस्तुओंका मान ( माप) उन्मान ( तोला, माशा आदि तोल) अवमान (गज़, फुट, इंच आदि माप ) और प्रतिमान (तोला, माशा आदि वजन) बताया । माणि आदि पिरोना भी सिखलाया। उनकी आज्ञासे वादी और प्रतिवादीका व्यवहार राजा, अध्यक्ष और कुलगुरुकी साक्षीसे होने लगा । हस्ति आदिकी पूजा; धनुर्वेद तथा वैद्यककी उपासना; संग्राम, अर्थशास्त्र, बंध, घात, वध और गोष्ठी आदिकी प्रवृत्ति भी उसी समयसे हुई । यह मेरी माता है, यह मेरा पिता है, यह मेरा भाई है, यह मेरी बहिन है, यह मेरी स्त्री है, यह मेरी कन्या है । यह मेरा धन है, यह मेरा मकान है आदि, मेरे-तेरे-की ममता भी उसी
(नोट)-प्रभुने स्त्रियोंकी ६४ कलाएँ भी सिखाई थीं। कल्पसूत्रमें इसका उल्लेख है। मगर किसको सिखाई थीं, इसका उल्लेख हमारे देखने में नहीं आया। उन ६४ कलाओंके नाम ये हैं,-नृत्य, आचित्य, चित्र, वाजित्र, मंत्र, तंत्र, धन, वृष्टि, कलाकृष्टि, संस्कृत वाणी, क्रिया कल्प, ज्ञान, विज्ञान, दंभ, जलस्तंभ, गीता, ताल, आकृतिगोपन, आरामरोपण, काव्य शक्ति, वक्रोक्ति, नर लक्षण, गजपरीक्षा, अश्वपरीक्षा, वास्तु शुद्धि, लघुवृद्धि, शकुनविचार. धर्माचार, अंजन योग, चूर्ण योग, गृहीधर्म, सुप्रसादन कर्म, सोना सिद्धि, वर्णिका वृद्धि, वाक पाटव, करलाधव ललित, चरण, तैल सुरभिकरण भ्रत्यापेचार, गेहाचार व्याकरण, परनिराकण, वीणानाद, वितंडावाद, अंकस्थिति. जनाचार, कुंभक्रम, सारिश्रम, रत्नमणिभेद, लिपिपरिच्छेद, वैद्य किया, कामाविष्करण, रसोई, केशबंध. शालिखंडन, मुख मंडन, कथाकथन कुसुमग्रंथन, वरवेश, सर्व भाषाविशेष, वाणिज्य, भोज्य, अभिधान परिज्ञान
यथास्थान आभूषण धारण, अत्याक्षारिका आरै प्रेहलिका। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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समयसे प्रारंभ हुई । प्रभुको वस्त्राभूषणोंसे आच्छादित देख कर लोग भी अपनेको वस्त्रालंकारसे सजाने लगे । प्रभुने जिस तरहसे पाणिग्रहण किया था उसी तरह, उसके बाद और लोग भी पाणिग्रहण करने लगे । वह प्रवृत्ति आज भी चल रही है । प्रभुके विवाह के बाद दूसरेकी कन्याके साथ ब्याह करनेका रिवाज हुआ । चूड़ा, उपनयन आदि व्यवहार भी उसी समयसे चले । यद्यपि ये सारी क्रियाएँ सावध हैं तथापि समयको देखकर, लोगोंके कल्याणार्थ प्रभुने इनका व्यवहार चलाया । प्रभुने जो कलाएँ चलाई, उनका शनैः शनैः विकास हुआ । अर्वाचीन कालके बुद्धि-कुशल लोगोंने उनके शास्त्र बनाये । उनसे लोग आजतक लाभ उठा रहे हैं।
प्रभुने चार प्रकारके कुल बनाये । उनके नाम ये थे; १उग्रः २-भोग; ३-राजन्य, ४-क्षत्री।
(१) नगरकी रक्षाका काम यानी सिपाहीगिरी करनेवालोंको एवं चोर लुटेरे आदि प्रजापीडक लोगोंको दंड देनेवालोंका जो समूह था उस समूहके लोग उग्रकुलवाले कहलाते थे ।
(२) जो लोग मंत्रीका कार्य करते थे वे भोगकुलवाले कहलाते थे। ___(३) जोलोग प्रभुके समवयस्क थे और प्रभुकी सेवामें हर समय रहते थे वे राजन्यकुलवाले कहलाते थे।
(४) बाकीके जो लोग थे वे सभी क्षत्री कहलाते थे । चार प्रकारकी नीतियाँ भी प्रभुने नियत की थीं । वे थीं शाम, दाम, दंड, और भेद । जिस समय जिसकी आवश्यकता
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होती थी, उस समय उसीसे काम लिया जाता था । प्रभुने सबको विवेक सिखाया था, त्याज्य और ग्राह्यका ज्ञान दिया था ।
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एक बार वसन्त आया तब प्रभु परिजनोंके आग्रहसे नंदनोद्यानमें क्रीडा करने गये । नगरके लोग जब अनेक प्रकारकी 1 क्रीडा कर रहे थे तब प्रभु एक तरफ बैठे हुए देख रहे थे, देखते ही देखते उनको विचार आया कि अन्यत्र भी कहीं ऐसी सुखसमृद्धि होगी ? क्षण वारके बाद उन्होंने अपने पूर्व भवके समस्त सुखोपभोग और फिर उसके बाद होनेवाले जन्म-मरण आदिके दुःख देखे । विचार करते हुए उनके अन्तःकरणमें वैराग्य भावना उदित हुई । कलिकालसर्वज्ञ श्रीमद् हेमचंद्राचार्यने उसका वर्णन इस तरह किया है:--
“ विषय - सुखमें लीन, अपने आत्महितको भूले हुए लोगों को धिक्कार है ! इस संसाररूपी कूप में प्राणी ' अरघट्टघटि न्याय से ( रेंटकी घेड़ें जैसे कुए में जाती हैं, भरती हैं और वापिस खाली होती हैं; वे इसी तरह चक्कर - खाया करती हैं । वैसे ही ) अपने कर्मसे गमनागमन किया करते हैं। मोहसे अंधे बने हुए उन प्राणियोंको धिकार है कि, जिनका जन्म सोते हुए मनुष्य की भाँति फिजूल चला जाता है । चूहे जैसे वृक्षोंको खा जाते हैं उसी तरह राग, द्वेष, और मोह उद्यमी प्राणियोंके धर्मको भी मूलमेंसे छेद डालते हैं । मुग्ध लोग वटवृक्षकी भाँति उस क्रोधको बढ़ाते हैं कि, जो क्रोध अपनेको बढ़ाने वालेहीको जड़ से खा डालता है । हाथीपर चढ़े हुए महावतकी तरह मानपर चढ़े हुए
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लोग भी मर्यादाका उल्लंघन करते हैं। और दूसरोंका तिरस्कार करते हैं। माया कोंचकी फलीकी तरह लोगोंको सन्तप्त करती है; परन्तु फिर भी लोग मायाका परित्याग नहीं करते हैं। तुषोदक से ( बहेड़ाके जल से ) जैसे दुग्ध फट जाता है और काजलसे जैसे निर्मल-सफेद वस्त्र पर दाग लग जाते हैं वैसे ही, लोभ मनुष्यके गुणोंको दूषित करता है । जब तक संसार रूपी काराग्रहमें (जेलखानेमें ) ये चार कषायरूपी चौकीदार सजग (खबरदारीसे ) पहरा देते हैं तबतक जीव इससे निकलकर मोक्षमें कैसे जा सकता है ? अहो ! भूत लगेहुए प्राणीकी तरह पुरुष अंगना के ( स्त्री के ) आलिंगनमें व्यग्र रहते हैं और यह नहीं देखते हैं कि, उनका आत्महित क्षीण हो रहा है । औषधसे जैसे सिंहको आरोग्य करके मनुष्य अपना काल बुलाता है वैसे ही मनुष्य जुदा जुदा प्रकारके मादक और कामोद्दीपक पदार्थ सेवनकर उन्मादी बन अपने आत्माको भवभ्रमणमें फँसाते हैं । सुगंध यह है या यह ? मैं किसको ग्रहण करूँ ? इस तरह सोचता हुआ मनुष्य लंपट होकर भ्रमरकी तरह भटकता फिरता है । उसको कभी सुख नहीं मिलता। खिलोनेसे जैसे बच्चोंको भुलाते हैं वैसे ही मनुष्य क्षण वारके लिए मनोहर लगनेवाली वस्तुओंमें लुभाकर अपने आत्माको धोखा देते हैं। निद्रालु पुरुष जैसे शास्त्रके चिन्तनसे भ्रष्ट होता है वैसे ही मनुष्य वेणु (बंसी) और वोणाके नादमें कान लगाकर अपने आत्महितसे भ्रष्ट होता है । एक साथ प्रबल बने हुए वात, पित्त और कफ जैसे जीवनका अन्त कर देते
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हैं वैसे ही प्रबल विषय-कषाय भी मनुष्यके आत्महितका अन्त कर देते हैं । इसलिए इनमें लिप्त रहनेवाले प्राणियोंको धिक्कार है।"
प्रभु जिस समय इस प्रकार वैराग्यकी चिन्तासन्ततिके तन्तुओं द्वारा व्याप्त हो रहे थे, उस समय ब्रह्म नामक पाँचवें देवलोकके अन्तमें बसनेवाले सारस्वत, आदित्य, वन्हि, अरुण, गर्दितोय, तुषिताश्व, अव्यबाध, मरुत और रिष्ट, नौ प्रकारके लोकान्तिक देव प्रभुके पास आये और सविनय बोले:" भरतक्षेत्रमें नष्ट हुए मोक्षमार्गको बतानेमें दीपकके समान हे प्रभो ! आपने लोकहितार्थ अन्यान्य प्रकारके व्यवहार जैसे प्रचलित किये हैं वैसे ही अब धर्मतीर्थको भी चलाइये।"
इतना कह वन्दनाकर देवता अपने स्थानको गए । प्रभु भी दीक्षा ग्रहण करनेका निश्चयकर वहाँसे अपने महलोंमें गये ।
साधुजीवन प्रभुने महलमें आकार भरतको राज्य ग्रहण करनेका आदेश दिया । भरतने वह आज्ञा स्वीकार की । प्रभुकी आज्ञासे सामन्तों, मन्त्रियों और पुरजनोंने मिलकर भरतका राज्याभिषेक किया । प्रभुने अपने अन्यान्य पुत्रोंको भी जुदा जुदा देशांके राज्य दे दिये । फिर प्रभुने वर्षीदान देना प्रारम्भ किया। नगरमें घोषणा करवा दी कि जो जिसका अर्थी हो वह वही आकार ले जाय । प्रभु सूर्योदयसे लेकर सूर्यास्त तक एक करोड़ आठ लाख स्वर्णमुद्राओंका दान नित्य प्रति करते
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थे। तीन सौ अध्यासी करोड़ और अस्सी लाख स्वर्ण मुद्राओंका दान प्रभुने एक बरसमें किया था । यह धन देवताओंने लाकर पूरा किया था। प्रभु दीक्षा लेनेवाले हैं यह जानकर लोग भी वैराग्योन्मुख हो गये थे, इसलिए उन्होंने उतना ही धन ग्रहण किया था, जितनी उनको आवश्यकता थी।
तत्पश्चात् इन्द्रने आकर प्रभुका दीक्षा-कल्याणक* किया । चैत्रकृष्ण अष्टमीके दिन जब चंद्र उत्तरा आषाढा नक्षत्रमें आया था, तब दिनके पिछले पहरमें प्रभुने चार मुष्टिसे अपने केशोंको लुचित किया। जब पाँचवीं मुष्टिसे प्रभुने अवशेष केशोंका लोच करना चाहा तब इन्द्रने उतने केश रहने देनेकी प्रार्थना की। प्रभुने यह प्रार्थना स्वीकार की; क्योंकि,-'स्वामी अपने एकान्त भक्तोंकी याचना व्यर्थ नहीं करते हैं। प्रभुके दीक्षा महोत्सवसे संसारके अन्यान्य जीवोंके साथ नारकी जीवोंको भी सुख हुआ । उसी समय प्रभुको मनुष्य क्षेत्रके अंदर रहनेवाळे समस्त संज्ञी पचेन्द्री जीवोंके मनोद्रव्यको प्रकाशित करनेवाला मनःपर्ययज्ञान प्रकट हुआ।
प्रभुके साथ ही कच्छ, महाकच्छ आदि चार हजार राजाओंने प्रभुके साथ दीक्षा ले ली ।
प्रभु मौन धारणकर पृथ्वीपर विचरण करने लगे। पारणेवाले दिन प्रभुको कहींसे भी आहार नहीं मिला । क्योंकि लोग आहारदानकी विधिसे अपरिचित थे । वे तो प्रभुको पहिलेके समान ही घोड़े, हाथी, वस्त्र, आभूषण, आदि भेट करते थे, ___ *-देखो तीर्थकर चरित-भूमिका, पृष्ट २५ ।
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जैन-रत्न mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm परन्तु प्रभुको तो उनमेंसे एककी भी आवश्यकता नहीं थी। मिक्षा न मिलनेपर भी किसी तरह मनःक्लेश बिना जंगम तीर्थकी भाँति प्रभु विचरण करते थे और क्षुधापिपासादि भूख प्यास वगैरा परिसहोंको सहते थे । अन्यान्य साधु भी प्रभुके साथ साथ विहार करते रहते थे।
क्षुधा आदिसे पीडित और तत्वज्ञानसे अजान साधु विचार करने लगे कि भगवान न जंगलमें पके हुए मधुर फल खाते हैं और न निर्मल झरणोंका जल ही पीते हैं। सुंदर शरीरपर इतनी धूल जम गई है तो भी उसे हटानेका प्रयास नहीं करते। धूप और सरदीको झेलते हैं; भूख प्यासकी वाधा सहते हैं; रातको कभी सोते भी नहीं हैं। हम रात दिन इनके साथ रहते हैं। परंतु कभी दृष्टि उठाकर हमारी तरफ देखते भी नहीं हैं । न जाने इन्होंने क्या सोचा है? कुछ भी समझमें नहीं आता । हम इनकी तरह कबतक ऐसे दुःख झेल सकते हैं ? और दुःख तो झेले भी जा सकते हैं, परंतु क्षुधातृषाके दुःख झेलना असंभव है । इस तरह विचारकर सभी गंगा तटके नजदीकवाले वनमें गये और कंद,मूल, फलादिका आहार करने लगे और गंगाका जल पीने लगे । तभीसे जटाधारी तापसोंकी प्रवृत्ति हुई।
कच्छ और महाकच्छके नमि और विनमि नामक पुत्र थे। वे प्रभुने दीक्षा ली थी तब कहीं प्रभुकी आज्ञासे गये हुए थे। वे जब लौटकर आए तब उन्हें ज्ञात हुआ कि, प्रभुने दीक्षा ले ली है। वे प्रभुके पास गये और उनकी सेवा करने लगे तथा उनसे प्रार्थना करने लगे कि, हे प्रभो ! हमको राज्य दीजिए।
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श्री आदिनाथ - चरित
एक बार धरणेन्द्र प्रभुकी वंदना करनेके लिए आया । उस समय उसने नमि विनमिको प्रभुकी सेवा करते और राज्यकी याचना करते देखकर कहा: – “ तुम भरतके पास जाओ वह तुम्हें राज्य देगा । प्रभु तो निष्परिग्रही और निर्मोह हैं । " उन्होंने उत्तर दिया :- " प्रभुके पास कुछ है या नहीं इससे हमें कोई मतलब नहीं है । हमारे तो ये ही स्वामी हैं । ये देंगे तभी लेंगे हम औरोंसे याचना नहीं करेंगे ।”
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धरणेन्द्र उनकी बातों से प्रसन्न हुआ । उसने प्रभुसेवा के फल स्वरूप गौरी और प्रज्ञप्ति आदि अड़तालीस हजार विद्याएँ उन्हें दीं और कहा: – “ तुम वैताढ्य पर्वतपर जाकर नगर बसाओ - " और राज्य करो । " नमि और विनमिने ऐसा ही किया ।
कच्छ और महाकच्छ गंगानदीके दक्षिण तटपर मृगकी तरह वनचर होकर फिरते थे और वल्कलसे ( वृक्षोंकी छालसे ) अपने शरीरको ढकते थे । गृहस्थियोंके घर के आहारको वे कभी ग्रहण नहीं करते थे । चतुर्थ और छट्ट आदि तपोंसे उनका शरीर सुख गया था । पारणाके दिन सड़े गले और पृथ्वीपर पड़े हुए पत्तों और फलोंका भक्षण करते थे और हृदय में प्रभुका ध्यान धरते थे ।
प्रभु निराहार एक बरस तक आर्य और अनार्य देशों में विहार करते रहे । विहार करते हुए प्रभु गजपुर ( हस्तिनापुर ) नगर में पहुँचे । वहाँ बाहुबलिका पुत्र सोमप्रभ राजा राज्य
करता था ।
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प्रभुको आते देखकर प्रजाजन विदेशसे आये हुए बन्धुकी तरह प्रभुको घेरकर खड़े हो गये । कोई प्रभुको अपने घर विश्राम लेनेकी, कोई अपने घर स्नानादिसे निपटकर भोजन करनेकी, और कोई अपने घरको चलकर पावन करनेकी प्रार्थना करने लगा । कोई कहने लगा,-" मेरी यह मुक्तामाल स्वीकारिये । "कोई कहने लगा,-" आपके शरीरके अनुकूल रेशमी वस्त्र में तैयार कराता हूँ। आप उन्हें धारण कीजिये । " कोई कहने लगा,-" मेरा यह घोड़ा सूर्यके घोड़ेको भी परास्त करनेवाला है, आप इसको ग्रहण कीजिए।" कोई बोला,-" आप क्या हम गरीबोंकी कुछ भी भेट न स्वीकारेंगे?" आदि । मगर प्रभुने तो किसीको भी कोई उत्तर नहीं दिया। प्रभु आहारके लिए घर २ जाते थे और कहीं शुद्ध आहार न मिलनेसे लौट आते थे। __ शहरमें प्रभुके आनेकी धूम मच गई । सोमप्रभ राजाके पुत्र श्रेयांस कुमारने भी प्रभुके आगमनके समाचार सुने । यह अपने प्रपितामहके आगमन समाचार सुनकर हर्षसे पागल बना हुआ नंगे पैर अकेला ही प्रभुके दर्शनार्थ दौड़ा । उसने जाकर प्रभुके चरणोंमें नमस्कार किया । फिर वह खड़ा होकर उस मूर्तिको देखने लगा। देखते ही देखते उसे जातिस्मरण ज्ञान हो गया । उसके द्वारा उसे मालूम हुआ कि, साधुओंको शुद्ध आहार कैसे देना चाहिए । उसी समय प्रजाजनोंमैसे कइयोंने गन्नेके रससे भरेहुए घड़े लाकर श्रेयांस कुमारके भेट किये । कुमारने उसे शुद्ध समझकर प्रभुसे
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स्वीकार करनेकी प्रार्थना की। प्रभुने शुद्ध आहार समझ अंजलि जोड़ हस्तरूपी पात्र आगे किया । उस पात्रमें यद्यपि बहुतसा रस समा गया; परन्तु कुमारके हृदयरूपी पात्रमें हर्ष न समाया। प्रभुने उस रससे पारणा किया । सुर, नरोंने
और असुरोंने प्रभुके दर्शन रूपी अमृतसे पारणा किया । मनुष्योंने आनंदाश्रु बहाये । आकाशमें देवताओंने दुंदुभि-नाद किया और रत्नोंकी, पंचवर्णके पुष्पोंकी, गंधोदककी और दिव्य वस्त्रोंकी दृष्टि * की । वैशाख सुदी ३ के दिन श्रेयांस कुमारका दिया हुआ यह दान अक्षय हुआ। इससे वह दिन पर्व हुआ और अक्षय तृतीयाके नामसे ख्याति पाया । यह पर्व-त्योहार आज भी प्रसिद्ध है। संसारमें अन्यान्य व्यवहार भगवान श्रीऋषभदेवने चलाये, मगर दान देनेका व्यवहार श्रेयांसकुमारने प्रचलित किया।
दुंदुभिनादसे और रत्नादिकी दृष्टिसे नगरके नर-नारी श्रेयांसके महलकी ओर आने लगे । कच्छ और महाकच्छ आदि कुछ तापस भी, जो उस समय दैववशात् हस्तिनापुर आये थे, प्रभुके पारणेकी बात सुनकर वहाँ आ गये । सबने श्रेयांसकुमारको धन्यधन्य कहा, उसके पुण्यको सराहा और प्रभुको उपालंभ देते हुए कहा:-" हमारा, यद्यपि प्रभुने पहिले पुत्रवत् पालन किया था, तथापि हमसे कोई ___ *-तीर्थकरोंका जब प्रथम पारणा होता है तभी ये पंच दिव्य होते हैं। यानी दुंदुभि बजती है और देवता रत्न, पाँच प्रकारके पुष्प, सुगन्धित : जल और उज्ज्वल वनोंकी वृष्टि करते हैं।
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पदार्थ भेटमें नहीं लिया । हमने कितना अनुनय विनय किया, कितनी आर्त प्रार्थनाएँ कीं तो भी प्रभु हमारे पर दयालु नहीं हुए, परन्तु तुम्हारी बात उन्होंने सहसा मान ली । तुम्हारी दी हुई भेट प्रभुने तत्काल ही स्वीकार कर ली । "
श्रेयांस कुमारने उत्तर दिया:- “ तुम प्रभुके ऊपर दोष न लगाओ | वे पहिलेकी तरह अब राजा नहीं हैं । वे इस समय संसार - विरक्त, सावद्यत्यागी यति हैं । तुम्हारी भेट की हुई चीजें संसार भोगी ले सकता है, यति नहीं । सजीव फलादि भी प्रभु के लिए अग्राह्य हैं । इन्हें तो हिंसक ग्रहण कर सकता है । प्रभु तो केवल ४२ दोषरहित, एषणीय, कल्पनीय और मासुक अन्न ही ग्रहण कर सकते हैं "
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उन्होंने कहा :- " युवराज ! आजतक प्रभुने कभी यह बात नहीं कही थी । तुमने कैसे जानी १ "
श्रेयांस कुमार बोले :- "मुझे भगवान के दर्शन करनेसे जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न हुआ । सेवककी भाँति मैं आठ भवसे प्रभुके साथ साथ स्वर्ग और मृत्युलोक सभी स्थानोंमें हूँ | इस भवसे तीन भव पहिले भगवान विदेह भूमिमें उत्पन्न हुए थे । ये चक्र। वर्ती थे और मैं इनका सारथि था। इनका नाम वज्रनाभ था। उस समय इनके पिता वज्रसेन तीर्थकर हुए थे । इन्होंने बहुत काल तक भोग भोगकर उनसे दीक्षा ली। मैंने भी इन्हीं के साथ दीक्षा ले ली। जब हमने दीक्षा की थी तब भगवान वज्रसेनने कहा था कि, वज्रनाभका जीव भरतखंडमें प्रथम तीर्थंकर होगा । उस समय साधुओकों कैसा आहार दिया जाता है सो मैंने
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देखा था। मैंने खुदने भी शुद्ध आहार ग्रहण किया था। इसलिए मैं शुद्ध आहार देनेकी रीति जानता था । इसीसे मैंने प्रभुको शुद्ध आहार दिया और प्रभुने ग्रहण किया।" लोग ये बातें सुनकर प्रसन्न हुए और आनंदपूर्वक अपने घर चले गये ।
प्रभु वहाँसे विहारकर अन्यत्र चले गये । श्रेयांसकुमारने जिस स्थानपर प्रभुने आहार किया था वहाँ एक स्वर्ण-वेदी बनवाई और वह उसकी भक्तिभावसे पूजा करने लगा।
एक बार विहार करतेहुए प्रभु बाहुबलि देशमें, बाहुबलिके तक्षशिला नगरके बाहिर उद्यानमें आकर ठहरे । उद्यान-रक्षकने ये समाचार बाहुबलिके पास पहुँचाए । बाहुबलि अत्यन्त हर्षित हुए। उन्होंने प्रभुका स्वागत करनेके लिए अपने नगरको सजानेकी आज्ञा दी । नगर सजकर तैयार हो गया। बाहुबलि आतुरतापूर्वक दिन निकलनेकी प्रतीक्षा करने लगे और विचार करने लगे कि, सवेरे ही मैं प्रभुके दर्शनसे अपनेको और पुरजनोंको पावन करूंगा। इधर प्रभु सवेरा होते ही प्रतिमास्थिति समाप्त कर (समाधि छोड़) पवनकी भाँति अन्यत्र विहार कर गये । ___ बाहुबलि सवेरे ही अपने परिवार और नगरवासियों सहित बड़े जुलूसके साथ प्रभुके दर्शन करनेको रवाना हुए। मगर उद्यानमें पहुँचकर उन्हें मालूम हुआ कि प्रभु तो विहार कर गये हैं। बाहुबलिको बड़ा दुःख हुआ। तैयार होकर आनेमें वक्त खोया इसके लिए वे बड़ा पश्चात्ताप करने लगे। मन्त्रियोंने उन्हें समझाया और कहा:-" प्रभुके चरणोंके वज्र, अंकुश
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मत्स्यके जिस स्थानपर चिन्ह हो भावसहित यह मानो
चक्र, कमल, ध्वज, और गए हैं उस स्थान के दर्शन करो और कि, हमने प्रभुके ही दर्शन किये हैं । "
बाहुबलिने अपने परिवार और पुरजनों सहित उस जगह वंदना की और उस स्थान का कोई उल्लंघन न करे इस खयालसे उन्होंने वहाँ रत्नमय धर्मचक्र स्थापन किया । वह आठ योजन विस्तारवाला, चार योजन ऊँचा और एक हजार आरों वाला था । वह सूर्यबिंबकी भाँति सुशोभित था । बाहुबलिने वहाँ अठाई महोत्सव किया । अनेक स्थानोंसे लाए हुए पुष्प वहाँ चढ़ाए। उनसे एक पहाड़ीसी बन गई। फिर बाहुबलि नित्य उसकी पूजा और रक्षा करनेवाले लोगोंको वहाँ नियत कर, चक्रको नमस्कारकर, नगरमें चला गया ।
प्रभु तपमें निष्ठा रखते हुए विहार करने लगे । भिन्न २ प्रकारके अभिग्रह करते थे । मौन धारण किए हुए यवनाडंब आदि म्लेछदेशों में भी प्रभु विहार करते थे और वहाँके रहनेवाले निवासियोंको अपने मौनोपदेश से भद्रिक बनाते थे । अनेक प्रकारके उपसर्ग और परिसह सहन करते हुए प्रभुने एक हजार बरस पूर्ण किये ।
प्रभु विहार करते हुए अयोध्या नगरीमें पहुँचे । वहाँ पुरिमताल नामक उपनगरकी उत्तर दिशामें शकटमुख नामक उद्यान था उसमें गये । वहाँ अष्टम तपकर, प्रतिमारूपमें रहे । प्रभुने ' अप्रमत्त' (सातवाँ ) गुणस्थान प्राप्त किया । फिर 'अपूर्वकरण' ( आठवाँ ) गुणस्थान में आरूढ़ होकर प्रभुने ' सविचार
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श्रीआदिनाथ-चरित ~~~~~~~~~r mmmmmmmm प्रथक्त्व वितर्क' युक्त शुक्ल ध्यानके प्रथम पायेको प्राप्त किया। उसके बाद 'अनिवृत्ति' (नवाँ) गुणस्थान तथा 'मूक्ष्म संपराय' (दसवाँ) गुणस्थानको प्राप्त किया और क्षण वारहीमें प्रभु क्षीणकषायी बने, फिर उसी ध्यानसे लोभका हननकर उपशांत कषायी हुए । तत्पश्चात् 'ऐक्यश्रुत अविचार' नामके शुक्ल ध्यानके दूसरे पायेको प्राप्तकर अन्त्य क्षणमें, तत्काल ही प्रभुने 'क्षीणमो' (बारहवें ) गुणस्थानको पाया । उसी समय प्रभुके पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, और पाँच अन्तराय कर्म भी नष्ट हो गए । प्रभुके घातिया कर्मका हमेशाके लिए नाश हो गया ।
इस तरह व्रत लेनेके बाद एक हजार बरस बीतनेपर फाल्गुन मासकी कृष्णा ११ के दिन, चन्द्र जब उत्तराषाढा नक्षत्रमें आया था तब, सवेरे ही तीन लोकके पदार्थोंको बताने वाला, त्रिकाल-विषयज्ञान (केवलज्ञान-ब्रह्मज्ञान ) प्राप्त हुआ। उस समय दिशाएँ प्रसन्न हुई। वायु सुखकारी बहने लगा। नारकीके जीवोंको भी क्षण वारके लिए सुख हुआ।
इन्द्रादिक देवोंने आ कर प्रभुका केवलज्ञानकल्याणक* किया । समवसरणकी रचना हुई। सब प्राणी धर्मदेशना सुननेके लिए बैठे।
राजा भरत सदैव सवेरे ही उठकर अपनी दादी मरुदेवा माताके चरणों में नमस्कार करने जाते थे । मरुदेवा माता पुत्रवियोगमें रो रो कर अंधी हो गई थीं। भरतने जाकर दादीके
*-देखो, तीर्थकर चरित भूमिका पृष्ठ २६-३० तक ।
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चरणोंमें सिर रक्खा और कहा:- आपका पौत्र आपको प्रणाम करता है । " ___ मरुदेवाने भरतको आशीर्वाद दिया । उनकी आँखोंसे जलधारा बह चली । हृदय भर आया । वे भर्राई हुई आवाजमें बोली:-" भरत ! मेरी आँखोंका तारा ! मेरा लाडला ! मेरे कलेजेका टुकड़ा ऋषभ मुझे, तुझे, समस्त राज्य-संपदाको, प्रजाको और लक्ष्मीको तृणकी भाँति निराधार छोड़कर चला गया । हाय ! मेरा प्राण चला गया, परन्तु मेरी देह न गिरी। हाय ! जिस मस्तकपर चंद्रकान्तिके समान मुकुट रहता था आज वही मस्तक सूर्यके प्रखर आतापसे तप्त हो रहा है। जिस शरीरपर दिव्य वस्त्रालंकार सुशोभित होते थे वही शरीर आज डाँस, मच्छरादि जन्तुओंका खाद्य और निवासस्थान हो रहा है । जो पहिले रत्नजटित सिंहासनपर आरूढ़ होता था उसीके लिए आज बैठनेको भी जगह नहीं है। वह गेंडेकी तरह खड़ा ही रहता है। जिसकी हजारों सशस्त्र सैनिक रक्षा करते थे वही आज असहाय, सिंहादि. हिंस्र पशुओंके बीचमें विचरण करता है। जो सदैव देवताओंका लाया हुआ भोजन जीमता था उसे आज भिक्षान भी कठिनतासे मिलता है। जिसके कान अप्सराओंके मधुर गायन सुनते थे वही आज साँकी कर्णकटु फूत्कार सुनता है । कहाँ उसका पहिलेका सुखवैभव और कहाँ उसकी वर्तमान भिक्षुक स्थिति ! उसका उज्ज्वल, कमलनालसा सुकुमार शरीर आज सूर्यके प्रखर आताप, शीतकालके भयंकर तुषार और वर्षाऋतुके कठोर जलपातको सहकर
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काला और रुक्ष हो गया है। उसके भरे हुए गाल और उसका विकसित वदन सूख गये हैं। उसका वह सूखा हुआ मुँह हर समय मेरी आँखोंके सामने फिरा करता है ! हाय ! मेरे लाल ! तेरी क्या दशा है ?" ___ भरतका भी हृदय भर आया । वे थोड़ी देर स्थिर रहे । आत्मसंवरण किया और फिर बोले:-" देवी ! धैर्यके पर्वत समान, वज्रके साररूप, महापराक्रमी, मनुष्योंके शिरोमणि, इन्द्र जिनकी सेवा करते हैं ऐसे मेरे पिताकी माता होकर आप ऐसा दुःख क्यों करती हैं ? वे संसार सागरको पार करनेके लिए उद्यम कर रहे हैं । हम उनके लिए विघ्न थे । इसीलिए उन्होंने हमारा त्याग कर दिया है । भयंकर जीवजन्तु उनको पीड़ा नहीं पहुँचा सकते । वे तो प्रभुको देखते ही पाषाणमूर्तिकी भाँति स्थिर हो जाते हैं। क्षुधा, तृषा, शीत, आताप और वर्षादि तो उनको हानि न पहुँचाकर उल्टे उनको, कर्म-शत्रुओंको नाश करनेमें, सहायता देते हैं। आप, जब उन्हें केवलज्ञान प्राप्त होनेकी बात सुनेंगी तब मेरी बात पर विश्वास करेंगी।" ___ इतनेहीमें वहाँ यमक और शमक नामके दो व्यक्ति आए । यमकने नमस्कारकर निवेदन किया:-"महाराज ! आज पुरिमताल उपनगरके शकटमुख नामक उद्यानमें युगादि नाथको केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ है । " शमकने निवेदन कियाः-" स्वामिन् ! आपकी आयुधशालामें आज चक्ररत्न उत्पन्न हुआ है।" __ भरत विचार करने लगे कि, पहिले मुझे किसकी पूजा करनी चाहिए । अन्तमें उन्होंने प्रभुकी ही पूजा करनेके लिए
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जाना स्थिर किया | यमक और शमकको पुरस्कार देकर विदा किया । फिर वे मरूदेवा माता से बोले :- " माता ! आप हमेशा कहती थीं कि, मेरा पुत्र भिखारी है । आज चलकर देखिए कि, आपका पुत्र कैसा सम्पत्तिवाला है । "
मरुदेवा माताको हस्तिपर सवारकरा अपने परिजन सहित भरत प्रभुको वाँदनेके लिए चले । दूरसे भरतने समवसरणका रत्नमयगढ़ देखकर कहा :- " माता ! देवी और देवताओंके बनाये हुए प्रभुके इस समवसरणको देखिए, पिताजीकी चरणसेवाके उत्सुक देवताओंका जयनाद सुनिए, आकाशमें बजते हुए दुंदुभिकी ध्वनि श्रवण कीजिए, ग्राम ( रागका उठाव ) और रागसे पवित्र बनी हुई प्रभुका यशोगान करनेवाली गंधकी हर्षोत्पादिनी गीति कर्णगोचर कीजिए । "
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पानीके प्रबल प्रवाहसे जैसे अनेक दिनोंका जमा हुआ कचरा भी साफ़ हो जाता है, उसी तरह आनंदाश्रुके प्रबल प्रवाइसे मरुदेवा माताकी आँखोंमें आये हुए जाले साफ़ हो गये । उन्हें स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगा । उन्होंने अतिशय सहित तीर्थकरों के समवसरण - वैभवको देखा । उन्हें बड़ा आनन्द हुआ । वे प्रभुके उस सुखमें तल्लीन हो गई । तत्काल ही समकालमें अपूर्वकरण के क्रमसे वे क्षपकश्रेणी में आरूढ़ हुई, घातिया कर्मोंका नाश होने से उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ । वे अंतकृत केवली हुई । उसी समय उनके आयु आदि अघाति कर्म भी नाश हो गये । उनका आत्मा हाथीके होदेमें ही देहको छोड़कर मोक्षमें चला गया। इस अवसर्पिणी कालमें मरुदेवी माता सबसे प्रथम
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सिद्ध हुई । देवताओंने उनके शरीरको, सत्कार करके क्षीरसमुद्रमें निक्षिप्त किया-डाला।
भरत समवसरणमें पहुँचे । प्रभुके तीन प्रदक्षिणा दे, प्रणामकर इन्द्रके पीछे जा बैठे । भगवानने सर्व भाषाओंको स्पर्श करनेवाली ( अर्थात् जिसको प्रत्येक भाषा जाननेवाला समझ सके ऐसी) पैंतीस अतिशयवाली और योजनगामिनी वाणीसे देशना दी । उसमें संसारका स्वरूप और उससे छूटनेका उपाय बताया तथा सम्यक्त्वके प्रकारों और श्रावकके वारह व्रतोंका खास तरहसे विवेचन किया।
प्रभुकी देशना सुनकर,भरत राजाके पुत्र ऋषभसेनने भरतके अन्यान्य पाँच सौ पुत्रों और सात सौ पौत्रों सहित दीक्षा ले ली। भरतके पुत्र मरीचीने भी दीक्षा ली । ब्राह्मीने भी उसी समय दीक्षा ले ली। सुंदरीने भी दीक्षा लेना चाहा; परन्तु भरतने आज्ञा नहीं दी। इसलिए वह श्राविका हुई । भरतने भी श्रावकके व्रत ग्रहण किये । मनुष्य तिर्यंच और देवताओंकी पर्षदामेंसे, कइयोंने मुनिव्रत ग्रहण किया, कई श्रावक बने
और कइयोंने केवल सम्यक्त्व ही धारण किया । तापसोंमेंसे कच्छ और महाकच्छको छोड़कर और सभीने प्रभुके पास आकर फिरसे दीक्षा ले ली। उसी समयसे ऋषभसेन (पुंडरीक ) आदि साधुओं, ब्राह्मी आदि साध्वियों, भरत आदि श्रावकों और सुंदरी आदि श्राविकाओंके समूहको मिलाकर चतुर्विध संघकी स्थापना हुई । उस चतुर्विध संघकी योजना आज भी है। और उसके द्वारा अनेक जीवोंका कल्याण होता है।
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। उस समय प्रभुने गणधर होने योग्य ऋषभसेन आदि चौरासी सद्बुद्धि साधुओंको, सर्व शास्त्र समन्वित उत्पाद, व्यय और धौव्य नामकी पवित्र त्रिपदीका उपदेश दिया। उस त्रिपदीके अनुसार उन्होंने (साधुओंने) चतुर्दश पूर्व और द्वादशांगी रची। फिर इन्द्र दिव्य चूर्णका (वासक्षेपका) एक थाल भरकर प्रभुके पास खड़ा रहा । प्रभुने खड़े होकर चतुर्दश पूर्व और द्वादशांगीपर, क्रमशः चूर्ण क्षेप किया-डाला और सूत्रसे, अर्थसे, सूत्रार्थस, द्रव्यसे, गुणसे, पर्यायसे और नयसे, उन्हें अनुयोग-अनुज्ञा दी, ( उपदेश देनेकी आज्ञा दी ) तथा गणकी अनुज्ञा भी दी। तत्पश्चात् देवताओं, मनुष्यों, और उनकी स्त्रियोंने दुंदुभिकी ध्वनि प्रर्वक उनपर चारों तरफसे वासक्षेप किया। प्रभुकी वाणीको ग्रहण करनेवाले सभी गणधर हाथ जोड़कर खड़े रहे । उस समय प्रभुने पूर्वकी तरफ मुँहकर बैठे हुए पुनः धर्मदेशना दी ।
उज्ज्वल शालिका बनाहुआ और देवताओं द्वारा सुगन्धमय किया हुआ, बलि (नैवेद्य) समवसरणके पूर्व द्वारसे अंदर लाया गया। स्त्रियाँ मंगल-गीत गाती हुई उसके पीछे पीछे आई। वह बलि प्रभुके दक्षिणा करके उछाला गया । उसका आधा भाग पृथ्वीमें पड़नेके पहिले ही देवतओंने ग्रहण कर लिया। अवशेष आधेका आधा भरतने लिया और आधा लोगोंने बाँटके ले लिया । उस बलिके प्रभावसे पहिलेके जो रोग होते हैं वे नष्ट हो जाते हैं और आगामी छ: मासतक कोई रोग नहीं होता है।
प्रभु वहाँसे उठकर मध्य भागस्थ देवछंदामें विश्राम करनेके लिये बैठे । गणधरोंमें मुख्य ऋषभसेनने प्रभुके चरणोंमें
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बैठकर धर्मदेशना दी। तत्पश्चात् सभी अपने अपने स्थानपर चले गये।
इस प्रकार तीर्थकी स्थापना होनेपर प्रभुके पास रहनेवाला 'गोमुख ' नामका यक्ष प्रभुका अधिष्ठायक देवता हुआ । इसी भाँति प्रभुके तीर्थमें उनके पास रहनेवाली प्रतिचक्रा नामकी देवी शासन देवी हुई, जिसे हम चक्रेश्वरीके नामसे पहिचानते हैं।
महर्षियों-साधुओंसे परिवृत्त प्रभुने वहाँसे विहार किया। उनके केश, डाढ़ी और नाखून बढ़ते नहीं थे । प्रभु जहाँ जाते थे वहाँ वैर, मरी, ईति, अदृष्टि, दुर्भिक्ष, अतिवृष्टि और स्वचक्र
और परचक्रसे होनेवाला भय-ये उपद्रव नहीं होते थे। __ सुंदरीको भरतने दीक्षा नहीं लेने दी, इससे वे घरहीमें
आंबिल करके हमेशा रहती थीं । भरत जब छः खंड पृथ्वीको विजय करके आये तब उन्होंने सुंदरीकी कृश मूर्ति देखी । उसका कारण जाना और उन्हें दीक्षा लेनेकी आज्ञा दे दी। उस समय अष्टापदपर प्रभुका समवसरण आया हुआ था। सुंदरीने वहाँ जाकर प्रभुके पाससे दीक्षा ले ली।
भरत छ: खंड पृथ्वी विजय करके आये तब उन्होंने अपने भाइयोंसे भी कहलाया कि तुम आकर हमारी सेवा करो। अठानवे भाइयोंने उत्तर दिया कि, हम भरतकी सेवा नहीं करेंगे। राज्य हमें हमारे पिताने दिया है।
तत्पश्चात उन्होंने प्रभुके पास जाकर सारी बातें निवेदन की। प्रभुने उन्हें धर्मोपदेश देकर संयम ग्रहण करनेकी सूचना की । तदनुसार उन्होंने संयम ग्रहण कर लिया ।
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___ एक बार प्रभुने आर्या ब्राह्मी और सुंदरीसे कहा:- भरतसे विग्रहकर, विजयी बननेके बाद बाहुबलिको वैराग्य हो गया उसने दीक्षा ग्रहणकर घोर तपश्वाचरण आरंभ किया। इस समय उसके घाति कर्म क्षय हो गये हैं। परंतु मान कषायका अभीतक नाश नहीं हुआ है । वह सोचता है कि, मैं अपनेसे छोटे भाइयोंको कैसे प्रणाम करूँ ? जबतक यह भाव रहेगा उसे केवलज्ञान नहीं होगा । अतः तुम जाकर उसे उपदेश दो। यह समय है । वह तुम्हारा उपदेश मान लेगा। ब्राह्मी और सुंदरीने ऐसा ही किया। बाहुबलिको केवलज्ञान हो गया। ___ परिव्राजक मतकी उत्पत्ति-एक बार उष्ण ऋतुमें भरतके पुत्र मरिचि मुनि घबराकर विचार करने लगे कि, इस दुस्सह संयम-भारसे छूटनेके लिए क्या प्रयत्न करना चाहिए ? अगर पुनः गृहस्थ होता हूँ तो कुलकी मर्यादा जाती है और चारित्र पाला नहीं जाता । सोचते सोचते उन्हें एक उपाय सूझा, उन्होंने श्वेतके बजाय कषाय (लाल पीले) रंगके वस्त्र धारण किये । धूप वर्षासे बचनेके लिए वे छत्ता रखने लगे । शरीर पर चंदनादिका लेप करने लगे। स्थूल हिंसाका ही त्याग रक्खा। द्रव्य रखने लगे। जोड़े पहिनने लगे । और नदी
आदिका जल पीने लगे और हमेशा कच्चे जलसे स्नान करने लगे। इतना करनेपर भी वे विहार प्रभुके साथ ही करते थे और जो कोई उनसे उपदेश सुनने आता था उसे शुद्ध धर्महीका उपदेश देते थे। अगर कोई उनसे पूछता था कि, तुम ऐसा आचरण क्यों करते हो तो उसे वे कहते थे कि, मेरेमें इतनी शक्ति नहीं है।
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wwwmww~~~~~..............mm एक बार वे रुग्ण हुए। साधुओंने व्रत-त्यागी समझकर उनकी सेवा नहीं की। इससे उनको विशेष कष्ट हुआ और उन्होंने अपने समान कुछको बनानेका विचार किया । ये जब अच्छे होकर एक बार प्रभुकी देशनामें बैठे हुए थे तब कपिल नामक राजकुमार देशना सुनने आया। भगवानका प्रतिपादित धर्म उसे बहुत कठोर जान पड़ा । उसने इधर देखा । विचित्र वेषवाले मरिचि उसके नजर आये । उसने उनके पास आकर उन्हें धर्मोपदेश देनेके लिए कहा । अपना सहायक करनेके लिए उन्होंने अपने कल्पित धर्मका उपदेश दिया । कपिलको अपना शिष्य बनाया तभीसे यह परिव्राजकमत प्रचलित हुआ।
ब्राह्मणोंकी उत्पत्ति-एक बार भरत चक्रवर्तीने सारे श्रावकोंको बुलाकर कहा कि, तुम लोगोंको कृषि आदि कार्य न करके केवल पठनपाठनमें और ज्ञानार्जनमें ही अपना समय बिताना चाहिए और भोजन हमारे रसोड़ेमें आकर कर जाना चाहिए। वे ऐसा ही करने लगे । मुफ्तका भोजन मिलता देख कर कई आलसी लोग भी अपनेको श्रावक बता बताकर भोजन करने आने लगे। तब श्रावकोंकी परीक्षा करके उन्हें भोजन दिया जाने लगा। जो श्रावक होते थे उनके, ज्ञान दर्शन और चारित्रके चिन्हवाली, कांकणी रत्नसे तीन रेखाएँ कर दी जाती थीं। भरतने उन्हें यह आज्ञा दे रक्खी थी कि तुम जब भोजन करके रवाना हो तब मेरे पास आकर यह पद्य बोला करो
" जितोभवान् वर्द्धते भीस्तस्मान्माहन माहन ।"
अर्थात्-तुम जीते हुए हो; भय बढ़ता है इसलिए ( आत्मगुणको ) न मारो न मारो । सदैव उच्च स्वरसे वे लोग इस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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वाक्यका उच्चारण करते थे, इसलिए लोगोंने उनका नाम 'माहना रक्खा । राजाने उन लोगोंको भोजन दिया, इसलिए प्रजा भी उन्हें जिमाने लगी। उनके स्वाध्यायके लिए-ज्ञानके लिए ग्रंय बनाये गये। उनका नाम वेद (ज्ञान) रक्खा गया। माहन शब्द अपभ्रंश होते होते 'ब्राह्मण' हो गया। अतः वे लोग और उनकी सन्तान 'ब्राह्मण' के नामसे ख्यात हुए। भरत चक्रवर्तीके बाद जब कांकणी रत्नका अभाव हो गया तब उनके पुत्र मूर्ययशाने स्वर्णके तीन सूत बनाकर उन्हें पहिननेके लिए दिये । पछिसे शनैः शनैः ये मृत रूईके हो गये और उसका नाम यज्ञोपवीत पड़ा। __ एक बार भगवानके समवसरणमें चक्रवर्ती भरतके प्रश्न करनेपर प्रभुने कहा कि, इस अवसर्पिणी कालमें भरतक्षेत्रमें मेरे बाद तेईस तीर्थकर होंगे और तेरे बाद ११ चक्रवर्ती तथा ६ वासुदेव ६ बलदेव और ६ प्रतिवासुदेव होंगे।
दीक्षाके पश्चात जब लाख पूर्व बीते तब प्रभुने अपना निर्वाण समय नजदीक समझ अष्टापद पर्वतकी तरफ प्रयाण किया। वहाँ जाकर दस हजार मुनियोंके साथ प्रभुने चतुर्दश तप ( छः उपवास ) करके पादोपगमनं अनशन किया।
भरत चक्रवर्ती अनशनके समाचार सुनकर व्याकुल हुए और अपने परिवार सहित अष्टापदपर पहुँचे । ध्यानस्थ प्रभुको नमस्कारकर उनके सामने बैठ गये।
चौसठ हन्द्रोंके भी आसन काँपे । उन्होंने प्रभुका निर्वाण समय जाना । वे प्रभुके पास आये और प्रदक्षिणा देकर पाषाणमूर्तिकी भाँति स्थिर होकर सामने बैठ गये। १-वृक्षकी तरह स्वस्थ और निश्चेष्ट रहनेको 'पादोपगमन ' कहते हैं।
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श्री आदिनाथ चरित -wwwwwwwwwwwwwwww
इस अवसर्पिणीकालके तीसरे आरेके जब नन्यानवे पक्ष (४ बरस एक महीना और पन्द्रह दिन ) रहे तब माघकृष्णा त्रयोदशीके सवेरे, अभिचि नक्षत्रमें, चंद्रका योग आया था उस समय पर्यकासनस्थ प्रभुने बादर काययोगमें रहकर बादर वचन-योग और बादर मनोयोगको रोका; फिर सूक्ष्म काययोगका आश्रय ले, बादर काययोग, सूक्ष्म मनोयोग तथा सूक्ष्म वचनयोगको रोका। अन्तमें वे मूक्ष्म काययोगका भी त्यागकर
और 'सूक्ष्म क्रिया' नामक शुक्ल ध्यानके तीसरे पायेके अन्तको प्राप्त हुए । तत्पश्चात् उन्होंने 'उछिन्नक्रिया' नामके शुक्ल ध्यानके चौथे पायेका-जिसका काल केवल पाँच हस्व अक्षरोंके उच्चारण जितना ही है-आश्रय किया । अन्तमें केवलज्ञानी, केवलदर्शनी, सर्व दुःखविहीन, आठों कर्मोंका नाश कर सारे अर्थोंको सिद्ध करनेवाले अनंत वीर्य, अनंत सुख और अनंत ऋद्धिवाले, प्रभु बंधके अभावसे एरंड फलके बीजकी तरह उव गतिवाले होकर स्वभावतः सरल मार्ग द्वारा लोकाग्रको ( मोक्षको) प्राप्त हुए । प्रभुके निर्वाणसे-सुखकी छायाका भी कभी दर्शन नहीं करनेवाले-नारकी जीवोंको भी क्षण वारके लिए सुख हुआ।
दस हजार श्रमणों ( साधुओं) को भी, अनशन व्रत लेनेके और क्षपकश्रेणीमें आरूढ़ होनेके बाद केवलज्ञान प्राप्त हुआ। फिर मन, वचन और कायके योगको सर्व प्रकारसे रुद्ध कर वे भी ऋषभदेव स्वामीकी भाँति ही परम पदको प्राप्त हुए।
चक्रवर्ती भरत वज्राहतकी भाँति इस घटनासे मृच्छित हो कर पृथ्वीपर गिर पड़े। इन्द्र उनके पास बैठकर रुदन करने लगा । देवताओंने भी इन्द्रका साथ दिया। मूञ्छित चक्री
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जैन - रत्न
जब चैतन्य हुए तब उन्होंने भी पशुपक्षियों तकको रुळादेनेवाला आक्रंदन करना प्रारंभ किया ।
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जब सबका शोक रुदनसे कुछ कम हुआ तब प्रभुका निर्वाण महोत्सव ( निर्वाणकल्याणक) किया गया और प्रभुका भौतिक शरीर भी देखते ही देखते चितामें भस्मसात हो गया ।
इस तरह एक महान आत्मा हमेशा के लिए संसार से मुक्त हो गया । अपने अन्तिम भवमें संसारका महान उपकार कर गया और संसारको सुखका वास्तविक स्थान तथा उस स्थान पर पहुँचने का मार्ग दिखा गया ।
प्रभुकी चौरासी लाख आयु इस प्रकार पूर्ण हुई थी । २० लाख पूर्व कुमारावस्थायें, ६३ लाख पूर्व राज्यका पालन और सुख भोगमें, १००० वर्ष छद्मस्थावस्थामें १००० वर्ष कम एक लाखपूर्व केवली पर्याय में । उनका शरीर ५०० धनुष उँचा था ।
भगवानका धार्मिक परिवार इस प्रकार था - ८४ गणधर ८४ गण; ८४ हजार साधु; ३ लाख साध्वियाँ; ३०५००० श्रावक; ५५४००० श्राविकाएँ; ४७५० चौदह पूर्वधारी श्रुत केवली; ९ हजार अवधिज्ञानी; २०००० केवलज्ञानी; २०६०० वैक्रियक लब्धिवाले, १३६५० ऋजुमति मन:पर्ययज्ञानी और १२६५० वादी थे । २०००० साधु और चालीस हजार साध्वियाँ मोक्षमें गई । २२९०० साधु अनुत्तर विमानमें गये ।
* - देखो तीर्थंकरचरित भूमिका, पृष्ठ ३० – ३१ ।
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श्रीअजितनाथ चरित।
अहंतमजितं विश्व-कमलाकरभास्करम् ।
अम्लानकेवलादर्श-संकातजगतं स्तुवे ॥ "संसाररूपी कमलसरोवरको प्रकाशित करनेमें सूर्यके समान और जगत्को अपने निर्मल केवलज्ञान द्वारा जाननेमें दर्पणके समान श्रीअजितनाथ स्वामीकी मैं स्तुति करता हूँ ।"
१ प्रथम भव-समस्त द्वीपोंके मध्यमें नाभिके समान जम्बूद्वीप है। उसमें महाविदेह क्षेत्र है। इस क्षेत्रमें हमेशा 'दुखमा सुखमा' नामका चौथा आरा * वर्तता है। इसी क्षेत्रमें सीता नामक एक बड़ी नदी थी। उसके दक्षिण तटपर वत्स नामका देश था । वह बहुत समृद्धिशाली था । उसमें सुसीमा नामकी नगरी थी । उसकी सुंदरताको देखकर देखनेवाले स्वर्गकी कल्पना करने लगते थे । कई कहते थे पातालस्थ असुर देवोंकी यह भोगावती नगरी है । कई कहते थे यह देवताओं की अमरावती है जो स्वर्गसे यहाँ उतर आई है और कई कहते थे यह तो उन दोनोंकी छोटी बहन है। पाताल और स्वर्गमें उन्होंने अधिकार किया है । इसने मनुष्य लोकमें अपना स्थान बनाया है।
* देखो तीर्थकर चरितभूमिका,-पज ८ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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जैन-रत्न ~~mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm इसी नगरमें विमलवाहन नामका राजा राज्य करता था। वह प्रजाको सन्तानकी तरह पालता था, पोषता था और उन्नत बनाता था । न्याय तो उसके जीवनका प्रदीप था । और तो
और वह निजकृत अन्याय भी कभी नहीं सहता था । उसके लिए दंड लेता था, प्रायश्चित्त करता था। प्रजाके लिए वह सदा अपना सर्वस्व न्योछावर करनेको तत्पर रहता था । प्रजा भी उसको प्राणोंसे ज्यादा प्यार करती थी। जहाँ उसका पसीना गिरता वहाँ प्रजा अपना रक्त बहा देनेको सदा तैयार रहती थी । वह शत्रुओंके लिए जैसा वीर था, वैसा ही नम्र और याचकोंके लिये दयालु और दाता था। इसीलिए वह युद्धवीर, दयावीर और दानवीर कहलाता था। राज-धर्ममें रहकर बुद्धिको स्थिर रख, प्रमादको छोड़, जैसे सर्पराज अमृतकी रक्षा करता है वैसे ही वह पृथ्वीकी रक्षा करता था।
संसारमें वैराग्योत्पत्तिके अनेक कारण होते हैं । संस्कारी आत्माओंके अन्तःकरणोंमें तो प्रायः, जब कभी वे सांसारिक कार्योंसे निवृत्त होकर बैठे होते हैं, वैराग्यके भाव उदय हो आते हैं।
राजा विमलवाहन संस्कारी था, धर्मपरायण था। सवेरेके समय, एक दिन, अपने झरोखेमें बैठे हुए उसको विचार आया, "मैं कब तक संसारके इस बोझेको उठाये फिरूँगा। जन्मा, बालक हुआ-बाल्यावस्था दूसरोंकी संरक्षतामें, खेलने कूदनेमें
और लाड प्यारमें खोई। जवान हुआ-युवती पत्नी लाया, विषयानंदमें निमग्न हुआ, इन्द्रियोंका दास बना, उन्मत्त होकर भोग
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श्रीअजितनाथ-चरित
भोगने लगा, धर्मकी थोडीबहुत भावनाएँ जो लडकपनमें प्राप्त हुई थीं उन्हें भुला दिया । मगर उसका क्या परिणाम हुआ ? पिताके देहान्तने सब सुख छीन लिया। छिः ! वास्तविक सुख तो कभी छिनता नहीं है। वह विषय-सेवनका उन्माद जाता रहा । गया मगर सर्वथा न मिटा । राज्यकायके बोझके तले वह दब गया। राजा बननेपर दुःख और चिन्ताकी मात्रा बढ़ गई। कठोर राज्यशासन चलानेमें कितनोंको सताया ? कितनोंका जी दुखाया ? उच्चाकांक्षा, राज्यलोभ और अहमन्यताके कारण कितनोंको तहोबाला किया? यह सब कुछ किया किन्तु आत्मसुख न मिला । अब पवन विकपित लता-पत्रकी भाँति यौवनकी चंचलता भी जाती रही, और राज्यगर्वका उन्माद भी मिट गया । जिन चीजोंको मैं सुखदायी समझता था, जिन भोगोंके लिए मैंने समझा था कि इन्हें भोग डालूँगा मगर जैसेके तैसे ही हैं। मेरी ही भोगनेकी शक्ति जाती रही तो भी तृष्णा न मिटी।" ___पाठकगण! विवेकी और धर्मी मनुष्योंके दिलोंमें ऐसे विचार प्रायः आया ही करते हैं । भर्तहरिने ऐसे ही विचारोंसे प्रेरित होकर लिखा है:
भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्तास्तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः। कालो न यातो वयमेव याता
स्तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः॥ भाव यह है कि, हमने बहुत कुछ भोग भोगे परन्तु भोगोंका अन्त न आया हाँ हमारा अन्त हो गया। हमने तापोंको
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जैन-रत्न
दुःखोंकों नहीं सुखाया परन्तु संसारके तापोंने शोक, चिन्तादिने तपा तपाकर हमारे शरीरको क्षीण कर दिया। काल-समय समाप्त न हुआ, परन्तु हमारी आयु समाप्त हो गई। जिस तृष्णाके वशमें होकर हमने अपने कार्य किये वह तृष्णा तो नष्ट न हुई मगर हम ही नष्ट हो गये। उर्दूके कवि जौक़ने कहा है:
पर जौक त न छोडेगा इस पीरा जाल को, यह पीरा जाल गर तुझे चाहे तो छोड़ दे । अभिप्राय यह है कि, लोग दुनियाको नहीं छोड़ते । दुनिया ही लोगोंको निकम्मे बनाकर छोड़ देती है।
विमलवाहन वैराग्य-भावोंमें निमग्न था, उसी समय उसने सुना कि अरिंदम नामक आचार्य महाराज विहार करते हुए आये हैं और उद्यानमें ठहरे हैं।
इस समाचारको सुनकर राजाको इतना हर्ष हुआ जितना हर्ष दानेके मोहताजको अतुल सम्पत्ति मिलनेसे या बाँझको सगर्भा होनेसे होता है । वह तत्काल ही बड़ी धूमधामके साय आचार्य महाराजको वंदना करनेके लिए रवाना हुआ। उद्यानके समीप पहुँचकर राजा हाथीसे उतर गया। उसने अंदर जाकर आचार्य महाराजको विधिपूर्वक वंदन किया।
मुनिके चरणों में पहुँचते ही राजाने अनुभव किया कि, मुनिके दर्शन उसके लिए, कामबाणके आघातसे बचाने के लिए वज्रमय बख्तर के समान हो गये हैं; उसका राग-रोग मुनिदर्शनऔषधसे मिट गया है; द्वेष-शत्रु मुनिदर्शन-तेजसे भाग गया है।
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२ श्री अजितनाथ-चरित
९७ wwww.rrrrrrrrrrrrrr कोष-अग्नि दर्शन-मेघसे बुझ गई है; मानवृक्षको दर्शनगनने उखाड़ दिया है। माया-सर्पिणीको दर्शनगरुड़ने डस लिया है। लोभपर्वतको दर्शनवज्रने विध्वंस कर दिया है; मोहान्धकारको दर्शनसूर्यने मिटा दिया है । राजाके अन्तःकरणमें एक अभूतपूर्व आनन्द हुआ । पृथ्वीके समान क्षमाको धारण करनेवाले आचार्य महाराजने उसको धर्मलाभ दिया। राजा बैठ गया । आचार्य महाराज धर्मोपदेश देने लगे।
जब उपदेश समाप्त हो गया, तब राजाने पूछा:-" दयानाथ ! संसाररूपी विषवृक्षके अनन्त दुःखरूपी फलोंको भोगने हुए भी मनुष्योंको जब वैराग्य नहीं होता; वे अपने घरबार नहीं छोड़ते; तब आपने कैसे राज्यसुख छोड़कर संयम ग्रहण कर लिया ?" __मुनिने अपनी शान्त एवं गंभीर वाणीमें उत्तर दिया:"राजन् ! संसारमें जा सोचता है उसके लिये प्रत्येक पदार्थ वैराग्यका कारण होता है और जो नहीं सोचता उसके लिए मारीसे भारी घटना भी वैराग्यका कारण नहीं होती । मैं जब गृहस्थ था तब अपनी चतुरंगिणी सेना. सहिन दिग्विजय करने निकला । एक जगह बहुत ही सुन्दर वागीचा मिला । मैंने वहीं डेरा डाला और एक दिन बिताया। दूसरे दिन मैं वहाँसे चला गया । कुछ कालके बाद जब मैं दिग्विजय करके वापिस लौटा तब मैंने देखा कि, वह बागीचा नष्ट हो गया है, मुमन-सौरभपूर्ण वह बागीचा कंटकाकीर्ण हो रहा है । उसी समय मेरे अन्न:करणमें एक वैराग्य-भावना उठी । संसारकी असारता आर
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जैन - रत्न
उसका मायाजाल मेरी आँखों के सामने खड़ा हुआ । मैंने, अपने राज्य में पहुँचते ही राज्य लड़केको सौंप दिया और, निर्वाण प्राप्तिके लिए चिन्तामणि रत्नके समान फल देनेवाली दीक्षा, महामुनिके पाससे, ग्रहण कर ली
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राजाका अंतःकरण पहले ही संसार से उन्मुख हो रहा था । इस समय उसने इसे छोड़ देनेका संकल्प कर लिया । उसने आचार्य महाराज से प्रार्थना को: - " गुरुवर्य ! मैं जाकर राजवार अपने लड़केको सौंपूँगा और कल फिर आपके दर्शन करूँगा । आपसे संयम ग्रहण करूँगा । कल तक आप यहाँ से विहार न करें । " आचार्य महाराजाने राजाकी प्रार्थना स्वीकार की । राजा नगरमें गया ।
नगरमें जाकर विमलवाहनने अपने मंत्रियोंको बुलाया । उनके सामने अपनी दीक्षा लेनेकी इच्छा प्रकट की । मंत्रियोंने खिन्न अंतःकरण के साथ राजाकी इच्छा में अनुमोदन दिया । तब राजाने अपने पुत्रको बुलाया और उसे राजभार ग्रहण करनेके लिये कहा । यद्यपि उसका हृदय बहुत दुखी था तथापि पिताकी आज्ञाको उसने सिरपर चढ़ाया। विमलवाहनने पुत्रको राजसिंहासन पर बिठाकर, आचार्य महाराजके पाससे दूसरे दिन दीक्षा ले ली ।
इन्होंने समिति, गुप्ति, परिसह आदि क्रियाओंको निर्दोष करते हुए अपने मनको स्थिर किया । वे सिद्ध, गुरु, बहुश्रुत, स्थविर, तपस्वी, श्रुतज्ञान और संघमें भक्ति रखते थे । यही
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२ श्री अजितनाथ-चरित
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उनका इन स्थानकोंका आराधन था । इनसे और अन्यान्य तीर्थकर नामकर्म उपार्जन करनेवाले स्थानकोंका x आराधन करके, तीर्थकर नामकर्म उपार्जन किया । उन्होंने एकावली, रत्नावली और 'ज्येष्ठ सिंहनिष्क्रीडित' तथा 'कनिष्ठ सिंहनिष्क्रीडित' आदि उत्तम तप किये । F अन्तमें उन्होंने दो प्रकारकी संलेखना और अनशन व्रत ग्रहण करके पंच परमेष्ठीका ध्यान करते हुए उस देहका त्याग किया। वहाँसेमरकर राजाविमलवाहनका जीव 'विजय' नामके अनुत्तर
विमानमें, तेतीस सागरोपमकी आयु वालादेव
हआ।वहाँके देवताओंका शरीर एक हाथका
__होता है। उनका शरीर चन्द्रकिरणों के समान उज्ज्वल होता है। उन्हें अभिमान नहीं होता । वे सदैव सुखशय्या सोते रहते हैं। उत्तरक्रियाकी शक्ति रखते हए भी उसका उपयोग करके वे दूसरे स्थानों में नहीं जाते । वे अपने अवधिज्ञानसे समस्त लोकनालिका (चौदह राजलोकका) अवलोकन किया करते हैं। वे आयुष्यके सागरोपमकी संख्या जितने पक्षोंसे, यानी तेतीस पक्ष बीतनेपर, एक बार श्वास लेते हैं। तेतीस हजार बरसमें एक बार उन्हें भोजनकी इच्छा होती है। इसी प्रकार विमलवाहन राजाके जीवका भी काल बीतने लगा। जब आयुमें छः महीने बाकी रहे तब दूसरे देवताओंकी तरह उन्हें मोह न हुआ, प्रत्युत पुण्योदयके निकट आनेसे उनका तेज और भी बढ़ गया। x देखो पेज ५०-५१ F तपोंका हाल जाननेके लिए देखो-' श्री तपोरत्न महोदधि'
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जैन-रत्न
विनीता नगरीके स्वामी आदि तीर्थकर श्रीऋषभदेव स्वामीके बाद
इक्ष्वाकु वंशमें असंख्य राजा हुए। उस समय ३ तीसरा भव जितशत्रु वहाँके राजाथे, विजयादेवी उनकी
रानी थी। विजयादेवीने हस्ती आदिक चौदह स्वप्न देखे।वे सगर्भा हुई।विमलवाहन राजाका जीव विजया विमानसे च्यवकर, रत्नकी खानिके समान विजयादेवीकी कूखमें आया। उस दिन वैशाखकी शुक्ला त्रयोदशी थी, और चन्द्रका योगरोहिणी नक्षत्रमें आया था। इनको गर्भमें ही तीन ज्ञान (मति, श्रुति और अवधि)थे।
उसी दिन रातको राजाके भाई सुमित्रकी स्त्री वैजयंतीको भी-जिसका दूसरा नाम यशोमती था-वे ही चौदह स्वप्न आए । उसकी कूखमें भावी चक्रवर्तीका जीव आया। ___ सवेरा होनेपर राजाको दोनोंके स्वप्नोंकी बात मालूम हुई । राजाने निमित्तकोंसे फल पूछा । उन्होंने नक्षत्रादिका विचार करके स्वप्नोंका फल बताया कि, विजयादेवीकी कूखसे तीर्थकर जन्म लेंगे और यशोमतीके गर्भसे चक्रवर्ती । ___ इन्द्रादि देवोंके आसन विकंपित हुए । उन्होंने आकर गर्भकल्याणकका उत्सव किया।
जब नौ महीने और साढ़े आठ दिन व्यतीत हुए तब माघ शुक्ला अष्टमीके दिन विजयादेवीने, सत्य और प्रिय वाणी जैसे पुष्पको जन्म देती है, वैसे ही पुत्ररत्नको प्रसव किया। मुहूत्त शुभ था। सारे ग्रह उच्चके थे । नक्षत्र रोहिणी था। पुत्रके पैरमें हाथीका चिन्ह था। प्रसवके समय देवी और पुत्र-दोनोंको
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२ श्री अजितनाथ-चरित
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किसी प्रकारका कष्ट नहीं हुआ । बिजलीके प्रकाशके समान कुछ क्षणके लिए तीनों भुवनमें उजाला हो गया । क्षण वारके लिए उस समय नारकी जीवोंको भी सुख हुआ। चारों दिशा
ओंमें प्रसन्नता हुई। लोगोंके अन्तःकरण प्रात:कालीन कमलकी भौति विकसित हो गये। दक्षिण वायु मंद मंद बहने लगी। चारों तरफ शुभसूचक शकुन होने लगे। कारण, महात्माओंके जन्मसे सब बातें अच्छी ही होती हैं। ___ छप्पन कुमारिकाओंके आसन काँपे और वे प्रभुकी सेवामें आईं । इंद्रादि देवोंके आसन विकंपित हुए । चौसठ इन्द्रोंने आकर प्रभुका जन्मकल्याणक किया।
उसी रातको वैजयंतीने भी, जैसे गंगा स्वर्णकमलको प्रकट करती है वैसे ही एक पुत्रको जन्म दिया ।
जितशत्रु राजाको यथा समय समाचार दिये गये । राजाने बड़ा हर्ष प्रकट किया। उसने प्रसन्नताके कारण राज-विद्रोहियों, और शत्रुओं तकको छोड़ दिया । शहरमें ये समाचार पहुँचे । आनंद-कोलाहलसे नगर परिपूर्ण हो गया। बड़े बड़े सामन्त और साहूकार लोग आ आकर अपनी प्रसन्नता प्रकट करते हुए राजाको भेट देने लगे। किसीने रत्नाभूषण, किसीने बहु मूल्य रेशमी और सनके वस्त्र, किसीने शस्त्रास्त्र, किसीने हायी घोड़े और किसीने उत्तमोत्तम कारीमरीकी चीजें भेट की। राजाने उनकी आवश्यकता न होते हुए भी अपनी प्रजाको प्रसन्न रखनेके लिए सब प्रकारकी भेटें स्वीकार की।
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- जैन-रत्न mmmmmmmmmmmwwwmwwwm~~~~~~
समस्त नगरमें बंदनवार बँधे । दस दिन तक नगरमें राजाने उत्सव कराया। मालका महसूल न लिया और किसी-- को दंड भी न दिया।
कुछ दिन बाद राजाने नामकरण संस्कारके लिए महोत्सव किया । मंगल गीत गाये गये । बहुत सोच विचारके बाद राजाने अपने पुत्रका नाम ' अजित ' रक्खा । कारण, जबसे यह शिशु कूखमें आया तबसे राजा अपनी पत्नीके साथ चौसर खेलकर कभी नहीं जीते । भ्राताके पुत्रका नाम 'सगर' रक्खा गया।
अजितनाथ स्वामी अपने हाथका अंगूठा चूसते थे । उन्होंने कभी धायका दूध नहीं पिया । उनके अंगूठेमें इन्द्रका रक्खा हुआ अमृत था । सभी तीर्थंकरोंके अंगूठेमें इन्द्र अमृत रखता है । दूजके चंद्रमाकी तरह दोनों राजकुमार बढ़ने लगे। __ योग्य आयु होने पर 'सगर' पढ़नेके लिए भेजे गये। तीर्थकर जन्महीसे तीन ज्ञानवाले होते हैं। इसी लिए महात्मा अजितकुमार उपाध्यायके पास अध्ययनके लिए नहीं भेजे गये। .. उनकी बाल्यावस्था समाप्त हुई । अब उन्होंने जवानीमें प्रवेश किया। उनका शरीर साढ़े चार सौ धनुषका, संस्थान समचतुरस्र और संहनन 'वज्र ऋषभ नाराच' था। वक्षस्थलमें श्रीवत्सका चिन्ह था । वर्ण स्वर्णके समान था। उनकी. केशShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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श्री अजितनाथ - चरित
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राशि यमुनाकी तरंगों के समान कुटिल और श्याम थी । उनका ललाट अष्टमीके चंद्रमा के समान दमकता था । उनके गाल स्वर्णके दर्पण की तरह चमकते थे । उनके नेत्र नीले कमल के समान स्निग्ध और मधुर थे । उनकी नासिका दृष्टिरूपी सरोवर के मध्य भागमें स्थित पालके समान थी । उनके होठ बिंब फलके जोड़ेसे जान पड़ते थे । सुंदर आवर्त्तवाले कर्ण सीपसे मनोहर लगते थे। तीन रेखाओंसे पवित्र बना हुआ उनका कंठ शंख के समान शोभता था । हाथी के कुंभस्थलकी तरह उनके स्कंध ऊँचे थे। लंबी और पुष्ट भुजाएँ भुजंगका भ्रम कराती थीं । उरस्थल स्वर्णशैलकी शिलाके समान शोभता था । नाभि मनकी तरह गहन थी । वज्रके मध्य भागकी तरह उनका कटि प्रदेश कुश था । उनकी जाँघ बड़े हाथीकी सूंडसी सरल और कोमल थी । दोनों कुमार अपने यौवनके तेज और शरीरके संगठनसे बहुत ही मनोहर दीखते थे । सगर अपने रूप और पराक्रमादि गुणोंसे मनुष्यों में प्रतिष्ठा पाता, जैसे इन्द्र देवोंमें पाता है । और अजित स्वामी अपने रूप और गुणसे, मेरु पर्वत जैसे सारे पर्वतोंमें अधिक मानद है वैसे ही, देवलोकवासी, ग्रैवेयकवासी और अनुत्तर विमानवासी देवोंसे एवं आहारक शरीर से भी अधिक माननीय थे ।
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रागरहित अजित प्रभुको राजाने और इन्द्रने व्याह करनेके लिए पूछा । प्रभुने अपने भोगावली कर्मको जान अनुमति दी । इनका व्याह हुआ । सगरका भी ब्याह हो गया । ये आनंदसे सुखोपभोग करने लगे ।
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जैन रत्न
जितशत्रु राजाको और उनके भाई सुमित्रको वैराग्य हो आया । उन्होंने अपने पुत्रोंसे, जिनकी आयुके अठारह लाख पूर्व समाप्त हो गये थे, कहा:-" पुत्रो! हम अब मोक्ष साधन करना चाहते हैं । धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ हम भली प्रकार साध चुके । इस लिए तुम यह राज्य-भार ग्रहण करो। अजित राजा बने आर सगर युवराज होकर रहे । हमें दीक्षा स्वीकार करनेकी अनुमति दो।"
अजितनाथ बोले:-" हे पिताजी ! आपकी इच्छा शुभ है । अगर भोगावली कर्मका विघ्न बीचमें न आता तो मैं भी आपके साथ ही संयम ग्रहण कर लेता । पिताके मोक्ष-पुरुषार्थ साधनमें अगर पुत्र बाधक बने तो वह पुत्र, पुत्र नहीं है । मगर मेरी इतनी प्रार्थना है कि, आप मेरे चाचाजीको यह भार सौंपिए । मेरे सिर यह भार न रखिए ।" ___ सुमित्र बोले:-"मैं संयम ग्रहण करनेके शुभ कामको
नहीं छोड़ सकता । राज्य-भार मेरे लिए असह्य है ।" ___ अजितकुमार:-" यदि आप राज्य ग्रहण नहीं करना चाहते हैं तो घरहीमें भावयति होकर रहिए । इससे हमें सुख होगा।" __राजा बोला:-" हे बंधु ! तुम आग्रह करनेवाले अपने पुत्रकी बात मानो । जो भावसे यति-साधु होता है वह भी यति ही कहलाता है । और तुम्हारा यह बड़ा पुत्र तीर्थकर है, इसके तीर्थमें तुम्हारी इच्छा पूर्ण होगी । दूसरा पुत्र चक्रवर्ती है। इन्हें धर्मानुकूल शासन करते देखकर तुम्हें अत्यंत प्रसन्नता होगी"
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२ श्री अजितनाथ - चरित
यद्यपि सुमित्रकी दीक्षा लेनेकी बहुत इच्छा थी, तथापि उन्होंने अपने ज्येष्ठ बन्धुकी आज्ञा मानकर भावयति रूपसे घरहीमें रहना स्वीकार कर लिया । सत्य है: - " सत्पुरुष अपने गुरुजनकी आज्ञाको कभी नहीं टालते । "
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जितशत्रु राजाने प्रसन्न होकर बड़े समारोह के साथ अजितकुमारको राज्याभिषेक किया । सबको बड़ी प्रसन्नता हुई । भला विश्वरक्षक स्वामी प्राप्त कर किसको प्रसन्नता न होगी ? फिर अजितकुमारने सगरको युवराज पद दिया ।
जितशत्रु राजाने दीक्षा ग्रहण की। बाह्य और अंतरंग शत्रुओंको जीतनेवाले उन राजर्षिने अखंड व्रत पाला । क्रमशः केवलज्ञान हुआ और अंतमें शैलेशी ध्यानमें स्थित उन महा-माने अष्टकमका नाश कर परम पद प्राप्त किया ।
अजितनाथ स्वामी समस्त ऋद्धि सिद्धि सहित राज करने लगे । जैसे उत्तम सारथीसे घोड़े सीधे चलते हैं वैसे ही अजित स्वामी के समान दक्ष और शक्तिशाली नृपको पाकर प्रजा भी नीति मार्ग पर चलने लगी । उनके शासन में पशुओंके सिवा कोई बंधन में नहीं था । ताड़ना वाजिंत्रोंहीकी होती थी । पिंजरे में पक्षी ही बंद किये जाते थे । अभिप्राय यह है कि, प्रजामें सब तरहका सुख था । वह नीतिके अनुसार आचरण करती थी । उसमें अजित स्वामीके प्रभावसे अनीतिका लेश भी नहीं रह गया था ।
उनके पास सकल ऐश्वर्य था तो भी उन्हें उसका अभिमान
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जैन-रत्न
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नहीं था । अतुल शरीर बल रखते हुए भी उनमें मद न था। अनुपम रूप रखते हुए भी उन्हें सौन्दर्यका अभिमान नहीं था। विपुल लाभ होते हुए भी उन्मत्तता उनके पास नहीं आती थी। अनेक प्रलोभन और मद-मात्सर्यको बढ़ानेवाली सामग्रियोंके होते हुए भी वे सबको उपेक्षाकी दृष्टिसे देखते थे। तृणतुल्य समझते थे । इस प्रकार राज्य करते हुए अजित स्वामीने तिरपन लाख पूर्वका समय व्यतीत किया। ___ एक दिन प्रभु अकेले बैठे हुए थे। अनेक प्रकारके विचार उनके अंतःकरणमें उठ रहे थे। अन्तमें वैराग्य भावनाकी लहर उठी। उस भावनाने उनके अन्यान्य समस्त विचारोंको बहा दिया । हृदयके ही नहीं, समस्त शरीरके शिरा प्रशिरामेंरंगरग और रेशे रेशेमें वैराग्य-भावनाने अधिकार कर लिया। संसारसे उनका चित्त उदास हो गया।
जिस समय अजित स्वामीका चित्त निर्वेद हो गया था उस समय सारस्वतादि लोकांतिक देवताओंने आकर विनती की "हे भगवन् ! आप स्वयंबुद्ध हैं । इसलिए हम आपको किसी तरहका उपदेश देनेकी धृष्टता तो नहीं करते परंतु प्रार्थना करते हैं कि, आप धर्मतीर्थ चलाइए।"
देवता चरणवंदना कर चले गये । अजित स्वामीने मनो. नुकूल अनुरोध देख, भोगावली कर्मोंका क्षय समझ, तत्काल ही सगर कुमारको बुलाया और कहा:--" बंधु ! मेरे भोगकर्म समाप्त हो चुके हैं। अब मैं संसारसे तैरनेका कार्य करूँगा-दीक्षा लँगा। तुम इस राज्यको ग्रहण करो।"
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२ श्री अजितनाथ - चरित
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सगरकुमार के हृदयपर मानों वज्र गिरा । दुःखसे उनका चेहरा श्याम हो गया । नेत्रोंसे अश्रुजल बरसने लगा | भला स्वच्छंदतापूर्वक सुखभोगको छोड़कर कौन मनुष्य उत्तरदायित्वका बोझा अपने सिर लेना चाहेगा ? उन्होंने गद्गद् कंठ होकर नम्रतापूर्वक कहा : - " देव ! मैंने कौनसा ऐसा अपराध किया
कि, जिसके कारण आप मेरा इस तरह त्याग करते हैं ? यदि कोई अपराध हो भी गया हो तो आप उसके लिए मुझे क्षमा करें । पूज्य पुरुष अपने छोटों को उनके अपराधोंके लिए सजा देते हैं, उनका त्याग नहीं करते । वृक्षका सिर आकाश तक पहुँचता हो, परन्तु छाया न देता हो, तो वह निकम्मा है । घनघटा छाई हो परन्तु बरसती न हो तो वह निकम्मी है । पर्वत महान हो मगर उसमें जलस्रोत न हो तो वह निकम्मा है । पुष्प सुन्दर हो परन्तु सुगन्ध - विहीन हो तो निकम्मा है । इसी तरह तुम्हारे बिना यह राज्य मेरे लिए भी निकम्मा है । आप मुक्ति के लिए संसारका त्याग करते हैं, मैं आपकी चरणसेवाके लिए संसार छोडूंगा । मैं माता, पुत्र, पत्नी सबको छोड़ सकता हूँ; परन्तु आपको नहीं छोड़ सकता। यहाँ मैं युवराज होकर आपकी आज्ञा पालता था, वहाँ शिष्य होकर आपकी सेवा करूँगा । यद्यपि मैं अज्ञ और शक्ति - हीन हूँ तो भी आपके सहारे, उस बालककी तरह जो गऊकी पूँछ पकड़कर नदी पार हो जाता
|
मैं भी संसार सागर से पार हो जाऊँगा । मैं आपके साथ दीक्षा लूँगा, आपके साथ बन बन फिरूँगा, आपके साथ अनेक प्रकारके दुःसह कष्ट सहूँगा, मगर आपको छोड़कर
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जैन - रत्न
राज्यसुख भोगने के लिये मैं यहाँ न रहूँगा । अतः पूज्यवर ! मुझे साथ लीजिये !"
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जिसके प्रत्येक शब्दसे प्रभु-विछोहकी आंतरिक दुःसह वेदना प्रकट हो रही थी, जिसका हृदय इस भावनासे टूक ट्रक हो रहा था कि, भगवान मुझे छोड़कर चले जायँगे; उस मोहमुग्ध सगर कुमारको प्रभुने अपनी स्वाभाविक अमृतसम वाणीमें कहा :- “ बंधु ! मोहाधीन होकर मेरे साथ आनेकी भावना अनुचित है । मोहं आखिर दुःखदायी है । हाँ दीक्षा लेनेकी तुम्हारी भावना श्रेष्ठ है । संसार सागर से पार उतरने का यही एक साधन है । तो भी अभी तुम्हारा समय नहीं आया है। अभी तुम्हारे भोगावली कर्म अवशेष हैं । उन्हें भोगे बिना तुम दीक्षा नहीं ले सकते । अतः हे युवराज ! क्रमागत अपने इस राज्यभारको ग्रहण करो, प्रजाका पालन करो, न्याय से शासन करो और मुझे संयम लेनेकी अनुमति दो। "
सगरकुमार स्तब्ध होकर प्रभुके मुखकी ओर देखने लगा । क्या करता और क्या नहीं ? उसके हृदयकी अजब हालत थी । एक ओर स्वामी- विछोह की वेदना थी और दूसरी तरफ स्वामीकी आज्ञा भंग होनेका खयाल था । वह दोमेंसे एक भी करना नहीं चाहता था । न विछोह - वेदना सहने की इच्छा थी और न आज्ञा मोडनेहीकी । मगर दोनों परस्पर विरोधी बातें एक साथ कैसे होतीं ? दिन रातका मेल कैसे संभव था ? आखिर कुमारने विछोह - वेदनाको, आज्ञा मोड़नेसे ज्यादा अच्छा समझा ।
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२ श्री अजितनाथ-चरित
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'गुरुजनोंकी आज्ञा मानना ही संसारमें श्रेष्ठ है। इसलिए प्रभुसे विलग होनेमें सगरकुमारका हृदय खंड खंड होता था तो भी उसने प्रभुकी आज्ञा शिरोधार्य की और भन्न स्वरमें कहा:-" प्रभो ! आपकी आज्ञा शिरसा वंद्य है।" __ प्रभुने सगरकुमारको राज्याधिकारी बनाया और आप वर्षीदान देनेमें प्रवृत्त हुए । इन्द्रकी आज्ञासे तिर्यक्जुंभक नामवाले देवता, देश से ऐसा धन ला लाकर चौकमें, चौराहोंपर, तिराहों पर और साधारण मार्गमें जमा करने लगे जो स्वामी बिनाका था, जो पृथ्वीमें गड़ा हुआ था, जो पर्वतकी गुफाओंमें था, जो श्मशानमें था और जो गिरे हुए मकानोंके नीचे दबा हुआ था। __ धन जमा हो जानेके बाद सब तरफ ढिंडोरा पिटवा दिया गया कि, लोग आवें और जिन्हें जितना धन चाहिए वे उतना ले जावें । प्रभु सूर्योदयसे भोजनके समयतक दान देते थे । लोग आते थे और उतना ही धन ग्रहण करते थे जितने की उनको आवश्यकता होती थी। वह समय ही ऐसा था कि, लोग मुफ्तका धन, बिना जरूरत लेना पसन्द नहीं करते थे। प्रभु रोज एक करोड़ आठ लाख स्वर्ण मुद्राएँ दानमें देते थे। इससे ज्यादा खर्च हों इतने याचक ही न आते थे अ और इससे कम भी कभी खर्च नहीं होता था । कुल मिलाकर एक बरसमें प्रभुने तीन सौ अट्ठासी करोड़ अस्सी लाख स्वर्ण मुद्राएँ दानमें दी थीं। - जब दान देनेका एक वर्ष समाप्त हो गया तब सौधर्मेन्द्रका आसन काँपा । उसने अवधिज्ञान द्वारा इसका कारण जाना।
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जैन - रत्न
वह अपने सामानिक देवादिको साथमें लेकर प्रभुके पास आया । अन्यान्य इन्द्रादि देव भी विनिता नगरीमें आ गये । देवताओं और मनुष्योंने मिलकर दीक्षा महोत्सव किया । प्रभु सुप्रभा नामकी पालकी में सवार कराये गये । बड़ी धूमधामके साथ पालकी रवाना हुई । लक्षावधी सुरनर पालकीके साथ चले । देवांगनाएँ और विनिता नगरीकी कुल - कामिनियाँ, मंगल गीत गाती हुईं पीछे पीछे चलने लगीं ।
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।
जुलूस अन्तमें ' सहसाम्रवन' नामक उद्यानमें पहुँचा । भगवान वहाँ पहुँचकर शिविकासे उतर गये । फिर शरीर परसे उन्होंने सारे वस्त्राभूषण उतार दिये, और इन्द्रका दिया हुआ अदूषित देवदूष्य वस्त्र धारण किया । उस दिन माघ महीना था, चन्द्रमाकी चढ़नी हुई कलाका शुक्ल पक्ष था; नवमी तिथि थी; चन्द्र रोहिणी नक्षत्रमें आया था । उस समय सप्तच्छद वृक्षके नीचे छटुका तप करके सायंकाल के समय प्रभुने पञ्च मुष्टि लोच किया । इन्द्रने अपने उत्तरीय वस्त्रमें केशोंको लिया और उन्हें क्षीर समुद्र में पहुँचा दिया ।
प्रभु सिद्धोंको नमस्कार कर तथा सामायिकका उच्चारणकर, सिद्धशिला तक पहुँचाने योग्य दीक्षावाहन पर आरूढ़ हुए । उसी समय भगवानको मन:पर्ययज्ञान हुआ ।
अन्यान्य एक हजार राजाओंने भी उसी समय चारित्र ग्रहण किया ।
अच्युतेन्द्रादि देवनायकों और सगरादि नरेन्द्रोंने विविध प्रकार से भक्तिपुरःसर प्रभुकी स्तुति की । फिर इन्द्र अपने देवों
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२ श्री अजितनाथ - चरित
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सहित नंदीश्वर द्वीपको गये और सगर विनिता नगरीमें गया । दूसरे दिन प्रभुने ब्रह्मदच राजाके घर क्षीरसे छट्ट तपका पारणा किया । तत्काल ही देवताओंने ब्रह्मदत्तके आंगन में साढ़े बारह करोड़ स्वर्ण मुद्राओंकी और पवन विताडि लता पल्लवों की शोभाको हरनेवाले बहु मूल्य सुंदर वस्त्रोंकी दृष्टि की; दुंदभिनाद से आकाश मंडलको गुंजा दिया; सुगंधित जलकी दृष्टिकी और पचवण पुष्प बरसाये । फिर उन्होंने बड़े हर्ष के साथ कहाः – “यह प्रभुको दान देनेका फल है । ऐसे सुपात्र दानसे केवल ऐहिक सम्पदा ही नहीं मिलती है बल्के इसके प्रभावसे कोई इसी भवमें मुक्त भी हो जाता है, कोई दूसरे भवमें मुक्त होता है, कोई तीसरे भव सिद्ध बनता है और कोई कल्पातीत * कल्पों में उत्पन्न होता है । जो प्रभुको भिक्षा लेते देखते हैं वे भी देवताओंके समान नीरोग शरीरवाले हो जाते हैं । "
I
जब भगवान ब्रह्मदत्तके घरसे पारणा करके चले गये, तब उसी समय ब्रह्मदत्तने जहाँ भगवानने पारण किया था वहाँ एक वेदी बनवाई, उस पर छत्री चुनवाई और हमेशा वहाँ वह भक्तिभाव से पूजा करने लगा ।
भगवान ईर्ष्या समितिका पालन करते हुए विहार करने लगे । कभी भयानक वनमें, कभी सघन झाड़ियोंमें, कभी पर्वतके सर्वोच्च शिखरपर और कभी सरोवरके तीरपर, कभी नाना विधिके फल फूलों के वृक्षोंसे पूरित उद्यानमें और कभी वृक्ष
* ग्रैवेयक और अनुत्तर विमानको कल्पातीत कहते हैं ।
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जैन रत्न
विहीन मरुस्थलमें, सभी स्थानोंमें निश्चल भावसे, शीत, घाम और वर्षाकी बाधाओंकी कुछ परवाह न करते हुए प्रभुने ध्यान और कायोत्सर्गमें आपना समय बिताना प्रारम्भ किया। ___ चतुर्थ, अष्टम, दशम, मासिक, चतुर्मासिक, अष्टमासिक,
आदि उग्र तप सभी प्रकारके अभिग्रहों सहित, करते हुए भगवानने बारह वर्ष व्यतीत किये।
बारह वर्षके बाद भगवान पुनः सहसाम्रवन नामक उद्यानमें आकर सप्तच्छद वृक्षके नीचे कायोत्सर्ग ध्यानमें निमग्न हुए । ' अप्रमत्तसंयत' नामके सातवें गुणस्थानसे प्रभु क्रमशः 'क्षीणमोह ' नामके गुणस्थानके अन्तमें पहुँचे । वहाँ पहुँचते ही उनके सभी घाति कर्म नष्ट हो गये । पौष शुक्ला एकादशीके दिन चन्द्र जब रोहिणी नक्षत्रमें आया तब प्रभुको 'केवलज्ञाना उत्पन्न हो गया। __ इस ज्ञानके होते ही तीन लोकमें स्थित तीन कालके सभी भावोंको प्रभु प्रत्यक्ष देखने लगे । सौधर्मेन्द्रका आसन काँपा। उसने प्रभुको ज्ञान हुआ जान सिंहासनसे उतरकर विनती की। फिर वह अपने देवों सहित सहसाम्रवनमें आया । अन्यान्य इन्द्रादि देव भी आये। सबने मिलकर समवसरणकी रचना की। भगवान चैत्यवृक्षकी प्रदक्षिणा दे, 'तीर्थायनमः' इस वाक्यसे तीर्थको नमस्कार कर मध्यके सिंहासनपर पूर्व दिशामें मुख करके बैठे। व्यंतर देवोंने तीनों ओर प्रभुके प्रतिबिंब रक्खे । वे भी असली स्वरूपके समान दिखने लगे । बारह पर्षदाएँ अपने २ स्थानपर बैठ गईं । सगरको भी ये समाचार मिले । वह बड़ी
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२ श्री अजितनाथ-चरित
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धूमघामके साथ प्रभुकी वन्दना करनेके लिये आया और भक्तिपूर्वक नमस्कारकर अपने योग्य स्थान पर बैठ गया । इन्द्र और सगरने प्रभुकी स्तुति की।
भगवानने देशना दी । श्रीमद् हेमचन्द्राचार्यने इस देशनामें धर्मध्यानका वर्णन किया है और उसके चौथे पाये संस्थानविजयका-जिममें जंबूद्वीपकी, रचना मेरुपर्वत आदिका उल्लेख है-वर्णन विस्तार पूर्वक किया है। .
देशना समाप्त होने पर सगर चक्रवर्तीके पिता वसुमित्रनेजो अब तक भावयति होकर रहे थे-प्रभुसे दीक्षा ले ली।
इसके बाद गणधर नामकर्मवाले और श्रेष्ठ बुद्धिवाले सिंहसेन आदि पचानवे मुनियोंको समस्त आगमरूप व्याकरणके प्रत्याहारोंकीसी उत्पत्ति, विगम और ध्रौव्यरूप त्रिपदी सुनाई। रेखाओंके अनुसार जैसे चित्रकार चित्र खींचता है वैसे ही त्रिपदीके अनुसार गणधरोंने त्रिपदीके अनुसार सहित द्वादशांगीकी रचना की।
श्रीअजितनाथ भगवानके तीर्थका अधिष्ठाता ' महायज्ञ । नामका यक्ष हुआ और अधिष्ठात्री देवी हुई · अजितबला ।। यक्षका वर्ण श्याम है, वाहन हाथीका है, हाथ आठ हैं। देवीका रंग स्वर्णसा है । उसके हाथ चार हैं । वह लोहासनाधिरूढ है। ___ भ्रमण करते हुए एक बार भगवान कौशांबी नगरीके पास आये । वहाँ समवसरणकी रचना हुई। भगवानने देशना देनी शुरू की । उसी समय एक ब्राह्मण पतिपत्नी आये । वे भगवानको नमस्कार कर, परिक्रमा दे, बैठ गये ।
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जैन-रत्न
___ जब देशना समाप्त हुई तब ब्राह्मणने पूछा:-"भगवन् ! यह इस भाँति कैसे है ? भगवानने उत्तर दिया:-" यह सम्यक्त्वकी महिमा है । यही सारे अनिष्टोंको नष्ट करनेका और सारे अर्थकी सिद्धियों का एक प्रबल कारण है। ऐहिक ही नहीं पारमार्थिक महाफल मुक्ति और तीर्थकर पद भी इसीसे मिलता है।"
ब्राह्मण सुनकर हर्षित हुआ और प्रणाम करके बोला:-"यह ऐसा ही है । सर्वज्ञकी वाणी कभी अन्यथा नहीं होती।" ___ श्रोताओंके लिए यह प्रश्नोत्तर एक रहस्य था, इसलिए मुख्य गणधरने, यद्यपि इसका अभिप्राय समझ लिया था तथापि पर्षदाको समझानेके हेतुसे, प्रभुसे प्रश्न किया:-" भगवान ! ब्राह्मणने क्या प्रश्न किया और आपने क्या उत्तर दिया ? कृपा करके स्पष्टतया समझाइए।"
प्रभुने कहा:-" इस नगरके थोड़ी ही दूर पर एक शालिग्राम नामका अग्रहार*है । वहाँ दामोदर नामका एक ब्राह्मण बसता था । उसके एक पुत्र था उसका नाम शुद्धमट था । सुलक्षणा नामक कन्याके साथ उसका ब्याह हुआ था । दामोदरका देहान्त हो गया । शुद्धभटके पास जो धन सम्पत्ति थी वह दैवदुर्विपाकसे नष्ट हो गई। वह दाने दानेको मोहताज हो गया । बिचारेके पास खानेको अन्नका दाना और शरीर ढकनेको फटा पुराना कपड़ा तक न रहा।
आखिर एक दिन किसीको कुछ न कहकर वह घरसे चुपचाप निकल गया । अपनी प्रिय पत्नी तकको न बताया कि, _* दानमें मिली हुई जमीनपर जो गाँव बसाया जाता है उसे अग्रहार कहते हैं।
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२ श्री अजितनाथ-चरित
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वह कहाँ जाता है । सुलक्षणा बिचारी बड़ी दुखी हुई । मगर क्या करती ? उसका कोई वश नहीं था । वह रो रोकर अपने दिन निकालने लगी। __ चौमासा निकट आया तब विपुला नामक साध्वीजी उसके घर चौमासा निर्गमन करनेके लिए आई । सुलक्षणाने उन्हें रहनेका स्थान दिया । साध्वीकी संगतिसे सुलक्षणाका उद्वेगमय मन शान्त हुआ और उसने सम्यक्त्व ग्रहण किया । साध्वीने सुलक्षणाको धर्मशिक्षा भी यथोचित दी। चातुर्मास बीतने पर साध्वीजी अन्यत्र विहार कर गई । सुलक्षणा धर्मध्यानमें अपना समय बिताने लगी। ___ कुछ कालके बाद शुद्धभट द्रव्य कमाकर अपने घर आया। उसने पूछा:-"प्रिये! तुने मेरे वियोगको कैसे सहन किया?"
उसने उत्तर दिया:-"मैं आपके वियोगमें रात दिन रोती थी। रोनेके सिवा मुझे कुछ नहीं सूझता था । अन्नजल छूट गया था।थोड़े जलकी मछलीकी तरह तड़पती थी । दावानलमें फँसी हुई हरिणीकी तरह मैं व्याकुल थी। शरीर सूख गया था । जीवनकी घड़ियाँ गिनती थी। ऐसे समयमें विपुला नामक एक साध्वीजी चातुर्मास बितानेके लिए यहाँ आई। उनका आना मेरे हृद्रोगको मिटानेमें अमृतसम फलदायी हुआ। उन्होंने मुझे धर्मोपदेश देकर शान्त कर दिया । समयपर उन्होंने मुझे सम्यक्त्व धारण कराया। यह सम्यक्त्व संसार-सागरसे तैरनेमें नौकाके समान है।"
ब्राह्मण ने पूछा:-"वह सम्यक्त्व क्या है ?" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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जैन-रत्न
सुलक्षणाने उत्तर दिया:-"सच्चे देवको देव मानना, सच्चे गुरुको गुरु मानना और सच्चे धर्मको धर्म मानना यही सम्यक्त्व है ।" ___ शुद्धभटने पूछा:-"अमुक सच्चा है, यह बात हम कैसे जान सकते हैं ?" __सुलक्षणाने उत्तर दिया:-" जो सर्वज्ञ हों, रागादि दोषोंको जीतनेवाले हों और यथास्थित अर्थको कहनेवाले हों; वे ही सच्चे देव होते हैं। जो महाव्रतोंके धारक हों, धैर्यवाले हों, परिसहजयी हों, भिक्षावृत्तिसे प्रासुक आहार ग्रहण करनेवाले हों, निरन्तर समभावोंमें रहनेवाले हों और धर्मोपदेशक हों वे ही सच्चे गुरु होते हैं। जो दुर्गतिमें पड़नेसे जीवोंको बचाता है वह धर्म है। यह संयमादि दश प्रकारका है।" स्त्रीने फिर कहा,-" शम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा और आस्तिकता ये पाँच लक्षणसम्यक्त्वको पहचाननेके हैं।"
स्त्रीकी बातें शुद्धभटके हृदयमें जम गई। उसने कहा:-"प्रिये ! तुम भाग्यमती हो कि, तुम्हें चिंतामणि रत्नके समान सम्यक्त्व प्राप्त हुआ है।" ___ शुद्ध भावना भाते और कहते हुए शुद्धभटको भी सम्यक्त्वकी प्राप्ति हो गई। दोनों श्रावक-धर्मका पालन करने लगे। ___ अग्रहारके अन्यान्य ब्राह्मण इनका उपहास करने लगे और तिरस्कार पूर्वक कहने लगे कि, ये कुलांगार कुलक्रमागत धर्म को छोड़कर श्रावक हो गये हैं । मगर इन्होंने किसीकी परवाह न की। ये अपने धर्म पर दृढ़ रहे ।
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२ श्री अजितनाथ-चरित
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एक बार सरदीके दिनोंमें ब्राह्मण चौपालमें बैठे हुए अग्नि ताप रहे थे । शुद्धभट भी अपने पुत्रको गोदमें लेकर फिरता हुआ उधर चला गया । उसको देखकर सारे ब्राह्मण चिल्ला उठे,"-दूर हो ! दूर हो ! हमारे स्थानको अपवित्र न कर ।"
शुद्धभटको क्रोध हो आया और उसने यह कहते हुए अपने लड़केको आगमें फेंक दिया कि यदि जैनधर्म सच्चा है और सम्यकृत्व वास्तविक महिमामय है तो मेरा पुत्र अग्निमें न जलेगा। • सब चिहुँक उठे और खेद तथा आक्रोशके साथ कहने लगे:-" अफ्सोस ! इस दुष्ट ब्राह्मणने अपने बालकको जला दिया ।" ___ वहाँ कोई सम्यक्त्ववान देवी रहती थी। उसने बालकको बचा लिया। उस देवीने पहले मनुष्य भवमें संयमकी विराधना की थी, इससे मरकर वह व्यंतरी हुई । उसने एक केवलीसे पूछा था,-"मुझे बोधिलाभ कब होगा?" केवलीने उत्तर दिया था,-"तू सुलभबोधि होगी, तुझे सम्यक्त्वकी प्राप्तिके लिए भली प्रकारसे सम्यक्त्वकी आराधना करनी पड़ेगी।" तभी से देवी सम्यक्त्व प्राप्तिके प्रयत्नमें रहती थी। उस दिन सम्यक्त्वका प्रभाव दिखानेहीके लिए उसने बच्चेकी रक्षा की थी।
ब्राह्मण यह चमत्कार देखकर विस्मित हुए । उस दिनसे उन्होंने शुद्धभटका तिरस्कार करना छोड़ दिया।
शुद्धभटने घर जाकर सुलक्षणासे यह बात कही । सुलक्षणाने कहा:-"आपने ऐसा क्यों किया? यह तो अच्छा हुआ कि दैवयोगसे कोई व्यन्तर देव वहाँ था जिसने बालकको
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जैन-रत्न
बचा लिया। यदि न होता तो हमारी कितनी हानि होती ? हमारा बालक जाता और साथ ही मूर्ख लोग जैनधर्मकी भी अवहेलना करते । सम्यक्त्व तो सत्य-मार्ग दिखानेवाला एक सिद्धान्त है । यह कोई चमत्कार दिखानेकी चीज नहीं है । अतः हे आर्यपुत्र ! आगेसे आप ऐसा कार्य न करें ।" ।
फिर अपने पतिको धर्ममें दृढ बनानेके लिये सुलक्षणा उसको लेकर यहाँ आई । ब्राह्मणने मुझसे प्रश्न किया और मैंने उत्तर दिया कि, यह प्रभाव सम्यक्त्वहीका है।
शुद्धभटने सुलक्षणा सहित दीक्षा ली। अनुक्रमसे दोना केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्षमें गये। __ अजितनाथ स्वामीको केवलज्ञान हुआ तबसे वे विहार करते थे और उपदेश देते थे। उनके सब मिलाकर पचानवे गणधर थे, एक लाख मुनि थे, तीन लाख तीस हजार साध्वियाँ थीं, तीन हजार सात सौ चौदह पूर्वधारी थे, एक हजार साढ़े चार सौ मनःपर्यवज्ञानी थे, नौ हजार चार सौ अवधिज्ञानी थे, बारह हजार चार सौ वादी थे, बीस हजार चार सौ वैक्रियक लब्धिवाले थे, दो लाख अठानवे हजार श्रावक थे, और पाँच लाख पैंतालीस हजार श्राविकाएँ थीं।
दीक्षा लेनेके बाद एक लाख पूर्वमें जब चौरासी लाख वर्ष बाकी रहे तब, भगवान अपना निर्वाण निकट समझकर सम्मेत शिखर पर गये । जब उनकी बहत्तर लाख वर्षकी आयु समाप्त हुई तब उन्होंने एक हजार साधुओंके साथ, पादोपगमन अनशन किया। उस समय एक साथ सभी इन्द्रोंके आसन काँपे ।
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३ श्री संभवनाथ-चरित
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वे अवधिज्ञान द्वारा प्रभुका निर्वाण समय निकट जान सम्मेत शिखरपर आए और देवताओं सहित प्रदक्षिणा देकर प्रभुकी
सेवा करने लगे। ___जब पादोपगमन अनशनका एक मास पूर्ण हुआ तब प्रभुका निर्वाण हो गया। उस दिन चैत्र शुक्ला पंचमीका दिन था; चन्द्रमा मृगशिर नक्षत्रमें आया था। इन्द्रादि देवोंने मिलकर प्रभुका निर्वाण-कल्याणक किया।
उनका शरीर ४५० धनुष ऊँचा था । प्रभुने अठारह लाख पूर्व कौमारावस्थाम, तरेपन लाख पूर्व चौरासी लाख वर्ष राज्य करने में, बारह बरस छदमस्थावस्थामें और चौरासी लाख बारह वर्ष कम एक लाख पूर्व केवल ज्ञानावस्थामें बिताये थे। इस तरह बहत्तर लाख पूर्वकी आयु समाप्त कर भगवान अजितनाथ, ऋषभदेव प्रभुके निर्वाणके पचास लाख करोड़ सागरोपम वर्षके बाद, मोक्षमें गये ।
३ श्री संभवनाथ-चरित
त्रैलोक्य प्रभवे पुण्य संभवाय भवच्छिदे ।
श्रीसंभव जिनेन्द्राय मनो भवभिदे नमः॥ भावार्थ-तीन लोकके स्वामी, पवित्र जन्म वाले, संसारको छेदनेवाले और कामदेवको भेदनेवाले श्री संभवनाथ जिनेन्द्रको मैं नमस्कार करता हूँ।
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जैन - रत्न
धातकी खंडके ऐरावत द्वीपमें क्षेमपरा नामक नगर था । वहाँके राजाका नाम विपुलवाहन था । वह
१ प्रथम भव साक्षात् इन्द्रके समान शक्ति - वैभव - शाली था । शक्ति होते हुए भी उसे किसी तरहका मद न था । गऊ जैसे बछड़े की या माली जैसे अपने बागीचे की रक्षा करता है वैसे ही वह प्रजाकी रक्षा करता था । वह पूर्ण धर्मात्मा था । देव - श्री अरहंत, गुरु श्री निर्ग्रथ और धर्म- दयामयकी वह भली प्रकार से भक्ति तथा उपासना करता था । उसकी प्रजा भी प्रायः उसका अनुसरण करनेवाली थी ।
भावी प्रबल होता है । होनहारके आगे किसीका जोर नहीं चलता । एक बार भयंकर दुष्काल पड़ा । देशमें अन्न- कष्ट बहुत बढ़ गया । लोग भूखके मारे तड़प तड़पकर मरने लगे ।
राजा यह दशा न देख सका । उसने अपने काम करनेवालोंको आज्ञा दे दी कि, कोठारमें जितना अनाज है सभी देशके भूखे लोगोंमें बाँटा जाय, मुनियोंको प्रासुक आहार पानी मिले इसकी व्यवस्था हो और जो श्रावक सर्वथा अयोग्य उन्हें राज्यके रसोड़ेमें भोजन कराया जाय ।
इतना ही नहीं मुनियोंको, एषणीय, कल्पनीय और प्रासुक आहार अपने हाथोंसे देने और अन्यान्य श्रावकोंको, अपने सामने भोजन कराकर, संतोष - लाभ कराने लगा ।
१२०
इस भाँति जबतक दुष्काल रहा तबतक वह सारे देश की और खास कर समस्त संघकी भली प्रकार से सेवा करता और उसे संतोष देता रहा । इससे उसने तीर्थकर नामकर्म बाँधा ।
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३ श्री संभवनाथ-चरित
१२१ ~~morrrror
एक बार वह छतपर बैठा हुआ था। संध्याका समय था । आकाशमें बदली छाई हुई थी। देखते ही देखते जोरकी हवा चली और बदली छिन्न भिन्न हो गई।
उसने सोचा, इस बदलीकी तरह संसारकी सारी वस्तुएँ छिन्न भिन्न हो जायँगी, मौत हर घड़ी सिरपर सवार रहती है, वह न जाने किस समय धर दबायेगी । वह नहीं आती है तब तक आत्मकल्याण कर लेना ही श्रेष्ठ है। .
दूसरे दिन विपुलवाहनने बहुत बड़ा दरबार किया, उसमें अपने पुत्रको राज्य सिंहासन पर बिठाया और फिर स्वयंप्रभसूरिके पास जाकर दीक्षा ले ली। राजमुनिने राज्यकी भाँति ही अनेक प्रकारके उपसर्ग
सहते हुए भी संयमका पालन किया और २ दूसरा भव अन्तमेवे अनशन कर, मृत्यु, पा, आनत
नामके नवे देवलोकमें उत्पन्न हुए। इसी जम्बूद्वीपके पूर्व भरता में श्रावस्ती नामका शहर था।
___ उसमें जितारी नामका राजा राज्य करता ३ तीसरा भव था। उसमें नामके अनुसार गुण भी थे।
उसके सेनादेवी नामकी पटरानी थी । वह इतनी गुणवती थी कि, लोग उसको जितारीका सेनापति कहा करते थे । इसी रानीको फाल्गुन मासकी अष्टमीके दिन, मृगशिर नक्षत्रमें चन्द्रमाका योग आने पर चौदह स्वप्न आये । उसी समय विपुलवाहनका जीव अपनी देव-आयु पूर्णकर रानी सेनादेवीके गर्भमें आया। उस समय क्षण वारके लिए नारकियोंको भी सुख हुआ।
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१२२
जैन-रत्न
स्वप्न देखते ही देवी जागृत हुईं और उठकर राजाके पास गईं । राजाको त्वम सुनाये । राजाने कहा:-" हे देवी ! इन स्वप्नोंके प्रभावसे तुम्हारे एक ऐसा पुत्र होगा जिसकी तीन लोक पूजा करेंगे।" __इन्द्रोंका आसन काँपा । उन्होंने देवों सहित आकर गर्भकल्याणक किया। फिर एक इन्द्रने आकर सेनादेवीको नमस्कार किया और कहा:-" हे स्वामिनी ! इस अवसर्पिणी कालमें जगतके स्वामी तीसरे तीर्थंकर तुम्हारे घर जन्म लेंगे।"
स्वामका अर्थ सुनकर महिषीको इतना हर्ष हुआ, जितना हर्ष मेघकी गर्जना सुनकर मयूरीको होता है। अवशेष रात उन्होंने जागकर ही बिताई। ___ जब नौ महीने और साढ़े सात दिन व्यतीत हुए तब सेनादेवीने जरायु और रुधिर आदि दोषोंसे वर्जित पुत्रको जन्म दिया । उनके चिन्ह अश्वका था। उनका वर्ण स्वर्णके समान था । उस दिन मार्गशीर्ष शुक्ला चतुर्दशीका दिन था, चन्द्रमा मृगशिर नक्षत्रमें आया था। जन्म होते ही तीन लोकमें अन्धकारको नाश करनेवाला प्रकाश हुआ। नारकी जीवोंको भी क्षण वारके लिए सुख हुआ। सारे ग्रह उच्च स्थानपर आये। सारी दिशायें प्रसन्न हो गईं । सुखकर मंद पवन बहने लगा, लोग क्रीडा करने लगे । सुगंधित जलकी दृष्टि हुई, आकाशमें दुंदुभि बजे, पवनने रज दूर की और पृथ्वीने शान्ति पाई।
छप्पन कुमारियाँ आकर सेवा करने लगीं । इन्द्रोंके आसन. काँपे । उन्होंने आकर प्रभुका जन्मकल्याणक किया।
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३ श्री संभवनाथ-चरित
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सवेरे ही जितारी राजाने बड़ा भारी उत्सव किया। सारा नगर राजभवनकी तरह मंगल-गान और आनन्दोल्लाससे परिपूर्ण हो गया। प्रभु जब गर्भ में थे तब शंबा (फलि, चवले का धान्य) बहुत हुआ था इसलिए उनका नाम शंबक नाथ अथवा संभवनाय रक्खा गया।
प्रभुका बाल्यकाल समाप्त हुभा । युवा होनेपर ब्याह हुआ । पन्द्रह लाख पूर्व भोग भोगनेके बाद जितारी रोजाने दीक्षा ली और प्रभुका राज्याभिषेक किया। प्रभुने चवालीस लाख पूर्व और चार पूर्वांग* तक राज्यका उपभोग किया।
तीन ज्ञानके धारक प्रभु एक बार एकांतमें बैठे हुए थे । उसी समय उन्हें विचार आया,-"यह संसार विष-मिश्रित मिठाईके समान है। खानेमें स्वाद लगते हुए भी प्राणहारी है । ऊसर भूमिमें अनाज कभी पैदा नहीं होता, इसी प्रकार चौरासी लाख जीव-योनिकी दशा है । मनुष्यभव बड़ी कठिनतासे मिलता है। प्रबल पुण्यका उदय ही इस योनिका कारण होता है । मनुष्यभव पाकर भी जो इसको व्यर्थ खो देता है, आत्मसाधन नहीं करता है उसके समान संसारमें अभागा कोई नहीं है । यह तो अमृत पाकर उसे पैर धोनेमें खर्च कर देना है। मनुष्य होकर भोग विलासमें ही समय निकाल देना मानों रत्न पाकर कौओंको खिला देना है।"
भगवान जब इस प्रकार वैराग्य भावनामें मग्न थे उस समय १-एक पूर्वाग चौरासी लाख बरसका होता है ।
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जैन-रत्न
लोकान्तिक देवताओंने आकर विनतीकी:-“हे प्रभो! तीर्थ चलाइए।" फिर देवता नमस्कार कर चले गए।
वर्षी दान देनेके अनन्तर भगवानने सहसाम्र वनमें आकर मार्गशीर्ष शुक्ला पूर्णिमाके दिन चन्द्रमा जब मृगशिर नक्षत्रमें आया था तब संध्याके समय पंच मुष्टि लोच किया और इंद्रका दिया हुआ देवदूष्य वस्त्र धारण कर सर्व सावद्य योगोंका त्याग कर दिया।
इन्द्रादि देव तपकल्याणक मना स्तुति कर अपने अपने स्थानको गये। दूसरे दिन भगवान पारणेके लिये नगरमें गये । सुरेन्द्र राजाके घर पारणा किया।
चौदह बरस तपश्चरण करनेके बाद प्रभुको केवलज्ञान हुआ। उस दिन कार्तिक महीनेकी कृष्णा ५ थी और चन्द्रमा मृगशिर नक्षत्रमें आया था। केवलज्ञान होने के बाद देवताओंने समवसरणकी रचना की । प्रभुने उसमें बैठकर देशना दी। देशना सुनकर अनेक लोगोंको वैराग्य हुआ और उन्होंने दीक्षा ग्रहण की।
भगवानने चारु आदि गणधरोंको स्थिति, उत्पाद और नाश इस त्रिपदीका उपदेश दिया। इस त्रिपदीका अनुसरण करके १०२ गणधरोंने चौदह पूर्व सहित द्वादशांगीकी रचना की। उसके बाद प्रभुने उनपर वासक्षेप डाला । __ संभवनाथ प्रभुके शासनका अधिष्ठाता देवता त्रिमुख और देवी दुरितारी थे । देवताके तीन मुँह, तीन नेत्र और छः हाथ थे। उसका वर्ण श्याम था। उसका वाहन मयूरका था । देवी चारभुजा वाली थी । उसका वर्ण गोरा था और सवारी उसके मेषकी थी।
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३ श्री संभवनाथ-चरित
~~~~~mmmmmmmmmmmm प्रभुके परिवारमें १०२ गणघर, दो लाख साधु, तीन लाख दो हजार एक सौ पचास चौदह पूर्व धारी, नौ हजार छ: सौ अवधि ज्ञानी, बारह हजार एक सौ पचास मनःपर्यवज्ञानी, पन्द्रह हजार केवलज्ञानी, उन्नीस हजार आठ सौ क्रियक लब्धिवाले, बारह हजार वादलब्धिवाले (वादी), दो लाख तरानवे हजार श्रावक और छः लाख छत्तीस हजार श्राविकाएँ थे । __ केवलज्ञान होनेके बाद चार पूर्वाग और चौदह वर्ष कम एक लाख पूर्व तक प्रभुने विहार किया था।
फिर अपना मोक्ष काल समीप समझकर प्रभु परिवार सहित समेतशिखर पर्वतपर गये । वहाँ एक हजार मुनियोंके साथ उन्होंने पादोपगमन अनशन किया । इन्द्रादि देव आकर प्रभुकी सेवाभक्ति करने लगे।
जब सर्वयोगके निरोधक शैलेशी नामके ध्यानको प्रभने समाप्त किया तब चैत्र शुक्ला पंचमीके दिन प्रभुका निर्वाण हुआ। उस समय चंद्रमा मृगशिर नक्षत्रमें आया था । एक हजार मुनि भी प्रभुके साथ ही उसी समय मोक्षमें गये । इन्द्रादि देवोंने केवलज्ञानकल्याणक किया। ____ कुमारावस्थामें पन्द्रह लाख पूर्व, राज्यमें चार पूर्वांग सहित चँवालीस लाख पूर्व, और दीक्षामें एक पूर्वांग कम एक लाख पूर्व, इस तरह सब मिला कर साठ लाख पूर्वकी आयु प्रभुने समाप्त की । उनका शरीर ४०० धनुष्य ऊँचा था। ___ अजितनाथ स्वामीके निर्वाणके तीस लाख कोटि सागरो.. पम समाप्त हुए तब संभवनाथ प्रभु मोक्षमें गये।
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४ श्री अभिनंदन स्वामी-चरित
अनेकांतमतांभोधि-समुल्लासनचंद्रमाः।
दद्यादमंदमानंद, भगवानभिनंदनः ॥ भावार्थ-अनेकांत ( स्याद्वाद ) मत रूपी समुद्रको आनंदित करनेमें चंद्रमाके समान हे अभिनंदन भगवान ! ( सबको) अत्यानंद दीजिए। जंबूद्वीपके पूर्व विदेहमें मंगलावती नामका प्रात था। उसमें
___ रत्नसंचय नामकी नगरी थी। उसमें महा१ प्रथम भव बल नामका राजा राज्य करता था। उसको
वैराग्य हो जानेसे उसने विमलसरि नामके आचार्यके पाससे दीक्षा ली । बहुत बरसों तक चारित्र पाला । बीस स्थानकमेंसे कई स्थानकोंका आराधन किया और अन्तमें वह कालधर्म पाया। . महाबलका जीव मरकर विजय नामके विमानमें महर्दिक
देवता हुआ। तेतीस सागरोपमकी आयु
२ दूसरा भव
भोगी।
महाबलका जीव विजय नामक विमानसे च्यवकर भरत
क्षेत्रकी अयोध्या नगरीके राजा संवरकी ३ तीसरा भव सिद्धार्था राणीकी कोखमें वैशाख सदि
चौथ के दिन आया । देवताओंने गर्भकल्या'णक किया । फिर नौ महीने और साढ़े सात दिन पूरे हुए तब
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४ श्री अभिनंदन स्वामी-चरित
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सिद्धार्था राणीने महा सुदि २ के दिन पुत्ररत्नको जन्म दिया। इन्द्रादि देवोंने जन्मकल्याणक किया। उनका लांछन वानरका था और वर्ण सोनेके समान था। प्रभु जब गर्भ में थे तब सारे नगरमें अभिनंदन (हर्ष) ही अभिनंदन हुआ था इसलिए पुत्रका नाम अभिनंदन रक्खा। __ युवा होनेपर राजाने अनेक राजकन्याओंके साथ उनका व्याह किया। साढ़े बारह लाख पूर्वतक उन्होंने युवराजकी तरह संसारका सुख भोगा। फिर संवर राजाने दीक्षा ली और अभिनंदन स्वामीको राज्यासनपर बिठाया । आठ अंग सहित साढ़े छत्तीस लाख पूर्व तक उन्होंने राज्यधर्मका पालन किया।
फिर जब उनको दीक्षा लेनेकी इच्छा हुई तब लोकांतिक देवोंने आकर प्रार्थना की:-" स्वामी ! तीर्थ प्रवर्ताइए।" तब सांवत्सरिक दान देकर महा सुदि १२ के दिन अभिचि नक्षत्र सहसाम्र वनमें छह तप सहित प्रभुने दीक्षा ली । इन्द्रादिदेवोंने दीक्षाकल्यणक किया। दूसरे दिन प्रभुने इन्द्रदत्त राजाके घर पारणा किया। अनेक स्थानोंपर विहार करते हुए प्रभु फिरसे सहसाम्रवनमें आये । वहाँ छह तप करके रायण (खिरणी) के झाड़के नीचे काउसग्ग किया । शुक्ल ध्यान करते हुए उनके घातिया कर्मोंका नाश हुआ और पोस सुदि १४ के दिन अभिचि नक्षत्रमें उनको केवलज्ञान हुआ।
इन्द्रादि देवोंने समवसरणकी रचना की । प्रभुने सिंहासनपर बैठकर देशना दी और उत्पाद, व्यय एवं ध्रुवमय त्रिपदीकी
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जैन - रत्न
व्याख्या की । उसीके अनुसार गणधरोंने द्वादशांगी वाणीकी रचना की ।
अभिनंदन प्रभु के तीर्थमें यक्षेश्वर नामका यक्ष और कालिका नामकी शासन देवी हुए ।
क्रमशः अभिनंदन नाथके संघमें, 2 गणधर तीन लाख साधु, छः लाख तीस हजार साध्वियाँ नौ हजार आठ सौ अवधिज्ञानी, एक हजार आठ सौ चौदह पूर्वधारी, ग्यारह हजार छः सौ पचास मनः पर्यवज्ञानी, चौदह हजार वाद लब्धिवाले, दो लाख अठासी हजार श्रावक और पाँच लाख सत्ताईस हजार श्राविकाएँ, इतना परिवार हुआ ।
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प्रभु केवलज्ञान अवस्थामें आठ पूर्वांग और अठारह वर्ष कम लाख पूर्व तक रहे। फिर निर्वाण समय नजदीक जान समेत शिखर पर्वतपर आये । वहाँ एक मासका अनशन व्रत लेकर वैशाख सुदि ८ के दिन पुष्य नक्षत्रमें मोक्ष गये । इन्द्रादि देवोंने मोक्षकल्याणक किया । उनके साथ एक हजार मुनि भी मोक्षमें गये ।
अभिनंदन स्वामीने, कौमारावस्थामें साढ़े बारह लाख पूर्व, राज्य में आठ पूर्वाग सहित साढ़े छत्तीस लाख पूर्व और दीक्षा में आठ पूर्वागमें एक लाख पूर्व कम इस तरह कुल पचास लाख पूर्व की उम्र भोगी और वे मोक्षमें गये । उनका शरीर ३५० धनुष्य उँचा था ।
संभवनाथ स्वामीके निर्वाणके बाद दस लाख करोड सागरोपम बीते तब अभिनंदन नाथका निर्वाण हुआ ।
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५ श्रीसुमतिनाथ स्वामी-चरित
धुसकिरीटशाणाग्रो-त्तेजितांघ्रिनखावलिः। भयवान् सुमतिस्वामी, तनोत्वभिमतानि वः ॥ मावार्थ-देवताओंके मुकटरूपी शाणके अग्रे भागके कोनोंसे जिनकी नख-पंक्ति तेजवाली हुई है ऐसे भगवान सुमतिनाथ तुम्हें वांछित फल देवें। जंबू द्वीपके पूर्व विदेहमें पुष्कलावती नामका प्रांत था। उसमें
शंखपुर नामका शहर था । वहाँ विजयसेन १पहला भव नामका राजा राज्य करता था। उसके सुदर्शना
नामकी राणी थी। उसके कोई सन्तान नहीं हुई। एक दिन किसी उत्सवमें राणी उद्यानमें गई । वहाँ शहरकी दूसरी स्त्रियाँ भी आई हुई थीं। उनमें एक सेठानी भी थी। आठ सुंदर युवतियाँ और अन्यान्य नौकरानियाँ उसके साथ थीं। उन्हें देखकर राणीको कुतूहल हुआ। उसने दर्याफ्त कराया कि, वे कौन थीं, तो मालूम हुआ कि, आठ युवतियाँ उसके दो बेटोंकी बहुएँ थीं। यह जानकर राणीको आनंद हुआ। साथ ही इस बातका दुःख भी हुआ कि उसके कोई पुत्र नहीं है। उसने राजाको जाकर अपने ममका दुःख कहा ।
राजाने राणीको अनेक तरहसे समझाया बुझाया और अमशनव्रत करके देवीकी आराधना की । देवी प्रकट हुई। राजाने
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जैन-रत्न
पुत्र माँगा । देवी यह वरदान देकर चली गई कि एक जीव देवलोकसे च्यवकर तेरे घर पुत्ररूपमें जन्म लेगा। ___ समयपर राणी गर्भवती हुई । उस रातको राणीने स्वममें सिंह देखा । गर्भके प्रभावसे राणीको दया पलवानेका और अठाई उत्सव करानेका दोहद रहा । राजाने वह दोहद पूर्ण कराया।
समयपर पुत्र उत्पन्न हुआ। उसका नाम पुरुषसिंह रखा गया। जब वह जवान हुआ तब राजाने उसे आठ राजकन्याएँ ब्याह दीं। ___ एक दिन कुमार उद्यानमें फिरने गया। वहाँ उसने विनयनंदन नामके युवक आचार्यको देखा । उनका उपदेश सुन उसे वैराग्य हुआ। कुमारने मातापितासे आज्ञा लेकर दीक्षा ले ली और बीस स्थानकोंमेसे कई स्थानोंकी आराधनाकर तीर्थकर गोत्र बाँधा। मरकर सिंहरथका जीव वैजयंत विमानमें महर्द्धिक देवता
- हुआ । उसने तेतीस सागरोपमकी आयु
भोगी।
जंबूद्वीपमें विनीता (अयोध्या) नामकी नगरी मेघ नामका
राजा था। उसकी राणी मंगलादेवीको चौदह ३ तीसरा भव स्वप्न सहित गर्भ रहा । सिंहरथका जीव वैजयंत
विमानसे च्यवकर श्रावण सुदि २ के दिन मघा नक्षत्रमें रानीके गर्भमें आया । इन्द्रादिदेवोंने गर्भकल्याणक किया।
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५ श्री सुमतिनाथ स्वामी-चरित
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नौ महीने और साढ़े सात महीने बीतने पर वैशाख मुदि८ के दिन चंद्र नक्षत्रमें मंगलादेवीने कोंच पक्षीके चिन्हवाले पुत्ररत्नको जन्म दिया। इन्द्रादिदेवोंने जन्मकल्याणक किया। पुत्रका नाम सुमतिनाथ रखा गया । कारण,-एक बार रानीने, ये गर्भ में थे तब, एक ऐसा न्याय किया था जो किसीसे नहीं हो सका था। ___ युवा होनेपर प्रभुने अनेक ब्याह किये, राज्य किया और फिर वैराग्य उत्पन्न होनेपर वर्षीदान दे वैशाख सुदि ९ के दिन मघा नक्षत्रमें एक हजार राजाओंके साथ दीक्षा ले ली । इन्द्रादिदेवोंने तपकल्याणक किया। दूसरे दिन विजयपुरके राजा पद्मराजके घर उनने बेलाका पारणा किया।
बीस बरस विहार करके प्रभु वापिस सहसाम्र वनमें-जहाँ दीक्षा ली थी-आये । वहाँ प्रियंगु ( मालकांगनीका झाड ) के नीचे छ? तप करके काउसग्गमें रहे । घाति कर्मोंका नाश होनेसे चैत्र सुदि ११ के दिन मघा नक्षत्रमें उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । इन्द्रादि देवोंने ज्ञानकल्याणक किया ।
उनके शासनमें तुंबुरु नामका यक्ष और महाकाली नामकी शासनदेवी हुए। उनके संघमें १०० गणधर ३ लाख २० हजार साधु, ५ लाख ३० हजार साध्वियाँ, २ हजार ४ सौ चौदह पूर्व धारी, ११ हजार अवधिज्ञानी, १० हजार साढ़े चार सौ मनः पर्यवज्ञानी, १३ हजार केवली, १८ हजार चार सौ वैक्रिय लब्धिवाले, १० हजार साढ़े चार सौ वादलब्धिवाले, २ लाख ८१ हजार श्रावक और ५ लाख १६ हजार श्राविकाएँ थे।
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१३२
जैन-रत्न
मोक्षकाल निकट जान प्रभु सम्मेत शिखरपर गये । वहाँ एक हजार मुनियोंके साथ मासखमण कर रहे और चैत्र सुदि ९ के दिन पुनर्वसु नक्षत्रमें मोक्ष गये । इन्द्रादि देवोंने मोक्षकल्याण किया।
दस लाख पूर्व कौमारावस्थामें, उन्तीस लाख बारह पूर्वांग राज्यावस्थामें और बारह पूर्वांग कम एक लाख पूर्व चारित्रावस्थामें इस तरह ४० लाख पूर्वकी आयु पूर्णकर सुमति नाथ प्रभु मोक्ष गये । उनका शरीर तीन सौ धनुष ऊँचा था। __ अभिनंदन प्रभुके निर्वाणके बाद ९ लाख करोड सागरोपभ बीते तब सुपति नाथ प्रभुका निर्वाण हुआ।
६ श्री पद्मप्रभुचरित
पद्मप्रभ प्रभोर्देह-मासः पुष्णंतु वः श्रियम् ।
अंतरंगारिमथने, कोपाटोपादिवारुणाः॥ भावार्थ-काम, क्रोधादि अंतरंग शत्रुओंका नाश करनेके कोपकी प्रबलतासे मानों पनप्रभुका शरीर लाल हो गया है वह लाली तुम्हारी लक्ष्मीका ( मोक्ष लक्ष्मीका ) पोषण करे। धातकी खण्डके पूर्व विदेहमें वत्स नामका नगर है । उसीमें
सुसीमा नामकी नगरी थी। उसका राजा अपरा१ प्रथम मव जिंत या । उसको, कोई कारण पाकर, संसारसे
वैराग्य हो गया । उसने पिहिताश्रय मुनिके
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६ श्री पद्मप्रभुचरित
पाससे दीक्षा ली । चिस्काल तक तपश्चर्या करके कीस स्थानककी आराधना की । उसीके प्रभाक्से तीर्थकर गोत्रका उपार्जन किया।
अन्तमें अपराजितने शुभ ध्यानपूर्वक प्राण छोडा, मर कर २ दसरा भव नवप्रवयकर्म देव हुआ। वहाँ ३३ सागरोपम
' तक सुख भोग आयु पूर्ण कर वह मरा। जंबूद्वीपमें भरतक्षेत्र है। उसमें कौशाम्बी नामकी नगरी थी।
उसका प्रजापति धर था। उसकी रानीका नाम ३ तीसरा भव सुसीमा था। उसीके गर्भमें अपराजित राजाका
जीव माघ वदि६ के दिन चित्रा नक्षत्रमें आया। इन्द्रादिक देवोंने गर्भकल्याणक किया । नौ महीने साढ़े सात दिन व्यतीत होनेपर कार्तिक वदि ११ के दिन चित्रा नक्षत्रमें प्रभुने जन्म धारण किया । इन्द्रादि देवोंने जन्मकल्याणक मनाया । सुसीमा देवीको गर्भ कालमें पद्मशय्या (कमलकी सेज) पर सोनेकी इच्छा हुई थी, इसीसे प्रभुका नाम पद्मप्रभु रखा गया । अनुक्रमसे बढ़ते हुए भगवान यौवनास्थाको प्राप्त हुए । पिताने उनको विवाह योग्य जानकर अनेक राजकन्याओंके साथ उनका विवाह कर दिया। उनके साथ साढ़े सात पूर्वतक भोग भोगे । अर्थात युवराज पदमें रहे । पीछे पिताने प्रभुका राज्यतिलक किया। साढ़े इक्कीस लाख पूर्व तक राज्य किया। इसके बाद लोकान्तिक देवोंने आकर प्रार्थना की:-" हे प्रभो ! अब दीक्षा धारण करके जमतके जीवोंका कल्याण कीजिये।"
उन्होंने देवोंकी बात मान, संवत्सरी दान दे, कार्तिक यदि १३ के दिन चित्रा नक्षत्रमें सहसाम्रवनमें जाकर, एक हज़ार
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जैन-रत्न ~~~~~~~~~
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राजाओंके साथ छ? तप सहित (बेला करके) दीक्षा ली। इन्द्रीददेवोंने दीक्षाकल्याणकका उत्सव किया । दीक्षाके दूसरे दिन सोमसेनराजाके यहाँ पारणा किया। ___ छः मास विहार कर प्रभु पुनः सहसाम्र वनमें पधारे। वटवृक्षके नीचे उन्होंने कायोत्सर्ग धारण किया। और शुक्ल ध्यानपूर्वक घातिया कोंका नाशकर चैत्र सुदि १५ के दिन चित्रा नक्षत्रमें केवललक्ष्मी पाई। केवलज्ञान होनेपर देवोंने समोशरणकी रचना की। भगवानने भव्य जीवोंको उपदेश दिया।
१०७ गणधर, ३ लाख ३० हजार साधु, ४ लाख २०. हजार साध्वियाँ, २ हजार तीन सौ चौदह पूर्वधारी, १० हजार अवधिज्ञानी, १० हजार तीन सौ मनःपर्ययज्ञानी, ४ हजार केवली, १६ हजार एक सौ आठ वैक्रियक लब्धिधारी, ९ हजार ६ सौ वादी, २ लाख ७६ हजार श्रावक और ५ लाख ५ हजार श्राविकाएँ इतना भगवानका परिवार था। कुसुम नामक यक्ष और अच्युता नामक शासन देवी थी।
भगवानने दीक्षा लेनेके बाद छः मास सोलह पूर्वांग न्यून एक लाख पूर्व व्यतीत होनेपर मोक्षकाल समीप जान सम्मेद शिखरमें अनशन व्रत ग्रहण किया । एक मासके अन्तमें मार्गशीर्ष वदि ११ के दिन चित्रा नक्षत्रमें तीन सौ आठ मुनियोंके साथ भगवान मोक्ष पधारे । इन्द्रादि देवोंने मोक्षकल्याणक किया।
प्रभुकी कुल आयु ३० लाख पूर्वकी थी, जिसमेंसे उन्होंने साढ़े सात लाख सोलह पूर्वाग तक कुमारावस्था भोगी, साढ़े इक्कीस लाख पूर्व तक राज्य किया, सोलह पूर्वाग. न्यून एक
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७ श्री सुपार्श्वनाथ चरित
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लाख पूर्व तक चारित्र पाला, और तब वे मोक्ष गये । उनका शरीर २५० धनुष ऊँचा था ।
सुमतिनाथके निर्वाणके बाद ९० हजार कोटि सागरोपम बीते, तब पद्मप्रभु मोक्षमें गये ।
७ श्री सुपार्श्वनाथ - चरित
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श्रीसुपार्श्वजिनेन्द्राय, महेंद्रमहितांधये । नमश्वतुर्वर्ण संघ – गगनाभोग भास्वते ॥
-
भावार्थ - साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका इस चतुर्विध संघरूपी आकाशके प्रकाशको फैलानेमें सूर्यके समान और इन्द्रोंने जिनके चरणोंकी पूजा की है ऐसे श्री सुपार्श्व जिनेंद्रको मेरा नमस्कार हो ।
घातकी खण्डके पूर्व विदेहमें क्षेमपुरी नामकी नगरी थी । उसमें नंदिषेण राजा राज्य करता था । उसको १ प्रथमभव संसार से वैराग्य हुआ और उसने अरिदमन नामक आचार्यके पास दीक्षा ली, कठिन महाव्रतोंको पाळा, तथा बीस स्थानककी आराधना कर तीर्थ - कर गोत्रका बंध किया ।
अन्त समयमें अनशन पूर्वक प्राणत्याग कर नंदिषेणका जीव छठे ग्रैवेयकमें देव हुआ ।
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२ द्वितीय भव
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जैन-रत्न
२८ सागरोपमकी आयु पूर्ण कर छठे ग्रैवेयकसे चयकर नंदी
षेणकाजीव बनारस नगरीके राजा प्रतिष्ठकी रानी ३ तृतीय भव पृथ्वीके गर्भ में, भाद्रपद वदि ८ के दिन अनुराधा
___ नक्षत्रमें आया । इन्द्रादि देवोंने गर्भकल्याणक किया । साढ़े नौ मास बीतने पर पृथ्वी देवीने जेठ सुदि १२ के दिन विशाखा नक्षत्रमें स्वस्तिक लक्षण युक्त, पुत्रको जन्म दिया। इन्द्रादि देवोंने जन्मकल्याणक किया । शिशुकालको व्यतीत कर भगवान युवा हुए । अनेक राजकन्याओंसे उन्होंने शादी की। उनके साथ सुख भोगते हुए जब पाँच लाख पूर्व बीत गये तब राज्यपदको ग्रहण किया।
राज्य करते हुए बीस लाख पूर्वांग अधिक १४ लाख पूर्व चले गये । तब लोकान्तिक देवोंने आकर दीक्षा लेनेकी विनती की। प्रभुने संवत्सरी दान किया और सहसाम्रवनमें जाकर जेठ सुदि १२ के दिन अनुराधा नक्षत्रमें दीक्षा ग्रहण की । इन्द्रादि देवोंने दीक्षाकल्याणक किया । दूसरे दिन राजा महेन्द्रके घर पर पारणा किया।
नौ मासतक विहार करके फिर उसी वनमें आकर प्रभुने कायोत्सर्ग धारण किया और ज्ञानावरणादि कर्मोंको नष्टकर फाल्गुन वदि ८ के दिन विशाखा नक्षत्रमें केवलज्ञान पाया। इन्द्रादि देवोंने समोशरणकी रचना कर ज्ञानकल्याणक मनाया।
भगवानका परिवार इस प्रकार था, ९५ गणधर, ३ लाख साधु, ४ लाख ३० हजार साध्वियाँ, २ हजार तीस चौदह पूर्व पारी, ९ हजार अवधिशानी, १५० मनःपर्ययज्ञानी
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८ श्री चंद्रप्रम-चरित
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१५ हजार ३ सौ वैब्रिक्क लब्धिधारी, ११ हजार केवली, ८ हजार ४ सौ वादी, २ लाख ५७ हजार श्रावक, ४ लाख ९३ हजार श्राविकाएँ, और मातंग नामक यक्ष, व शान्ता नामक शासन देवी। __ केवलज्ञान होनेके बाद नौ मास बीस पूर्वाग न्यून बीस लाख पूर्व व्यतीत होने पर निर्वाण काल समीप जान प्रभु सम्मेद शिवरपर पधारे । पाँच सौ मुनियोंके साथ उन्होंने एक मासका अनशन व्रत धारण किया । और फाल्गुन वदि ७ के दिन मूल नक्षत्रमें वे मोक्ष गये। इन्द्रादि देवोंने मोक्षकल्याणक किया।
सुपार्श्वनाथजीकी कुल आयु २० लाख पूर्वकी थी, उसमेंसे ५ लाख पूर्वतक वे कुमार रहे, १४ लाख पूर्व और २० पूर्वागतक उन्होंने राज्य किया। बीस पूर्वांग न्यून एक लाख पूर्वतक वे साधु रहे, बादको मोक्ष गये । उनका शरीर २०० धनुष ऊँचा था। __ पद्मप्रभुके निर्वाणके बाद ९०० कोटि सागरोपम बीते, तब सुपार्श्वनाथजी मोक्षमें गये ।
८ श्री चंद्रप्रभ-चरित
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सदैव संसेवनतत्परे जने, भवंति सर्वेऽपि सुराः सुदृष्टयः। समग्रलोके समचित्तवृत्तिना, त्वयैवसंजातमतो नमोऽस्तुते॥ __ भावार्थ-सभी देवता उन मनुष्योंपर कृपा करते हैं जो इमेशा उनकी सेवामें तत्पर रहते हैं। परन्तु सभी लोगोंपर (जो सेवा करते हैं उनपर भी और जो सेवा नहीं करते हैं उनपर भी)
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जैन-रत्न mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm
समान मनवाळे (एकसी कृपा करनेवाले ) तो आप ही हुए हैं। इसलिए हे चंद्रप्रभ भगवान ! आपको मेरा नमस्कार है। धातकीखण्ड द्वीपमें मंगलावती नामका देश है। उसकी प्रधान
नगरी रत्नसंचयी है। उसका राजा पद्म था। कोई १ प्रथमभव कारण पाकर उसको संसारसे वैराग्य उत्पन्न
___ हो गया। उसने युगंधर मुनिके पास मुनिव्रत धारण किया । चिरकाल तक शुद्ध चारित्रको पाला और बीस स्थानकी आराधना कर तीर्थकर कर्मका उपार्जन किया । आयु पूर्ण होनेपर पद्मनाभ वैजयन्त नामक विमानमें
देव हुआ । वहाँके सुख भोगकर उसने
२ दूसरा भव मरण किया।
पद्मनाभका जीव चन्द्रपुरीके राजा महासेनकी रानी लक्ष्मणाके
गर्भमें, स्वर्गसे चयकर चैत्र वदि ५ के दिन ३ तीसरा भव अनुराधा नक्षत्रमें आया। इन्द्रादि देवोंने गर्भ
कल्याणक मनाया पौष वदि ११ के दिन अनुराधा नक्षत्रमें लक्ष्मणा देवीने पुत्रको जन्म दिया । इन्द्रादि देवोंने जन्मकल्याणक मनाया। माताको गर्भकालमें चन्द्रपानकी इच्छा हुई थी इससे पुत्रका नाम चन्द्रप्रभ रखा गया।
शिशुकालको लांघकर प्रभु जब यौवनावस्थाको प्राप्त हुए । तब अनेक राजकन्याओंके साथ उनका पाणिग्रहण हुआ। उन्होंने ढाई लाख पूर्व युवराज पदमें बिताये। पीछे २४ पूर्वयुक्त साढ़े छः लाख पूर्वतक राज्यसुख भोगा। तदनन्तर लौकान्तिक देवोंने आकर दीक्षा लेनेकी प्रार्थना की। उनकी बात मानकर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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८ श्री चंद्रप्रभ-चरित
१३९
भगवानने वर्षीदान दिया और फिर पौष वदी १३ के दिन अनुराधा नक्षत्रमें सहसाम्रवन जा, एक हजार राजाओंके साथ दीक्षा ली। इन्द्रादि देवोंने दीक्षाकल्याणक मनाया। मुनिपदके दूसरे दिन सोमदत्त राजाके यहाँ क्षीरान्नका पारणा किया ।
फिर तीन मास तक विहार कर भगवान वापिस सहसाम्र उद्यानमें पधारे, और पुन्नाग वृक्षके नीचे कायोत्सर्ग धारण. किया । फाल्गुन वदि ७ के दिन अनुराधा नक्षत्रमें भगवान:को केवलज्ञा हुआ। इन्द्रादि देवोंने ज्ञानकल्याणक मनाया और समोशरणकी रचना की। सिंहासनपर विराजकर प्रभुने भव्य जीवोंको उपदेश दिया।
पृथ्वीपर विहार करते समय प्रभुका परिवार इस प्रकार था,९३ गणधर, ढाई लाख साधु, ३ लाख ८० हजार साध्वियाँ, २ हजार चौदह पूर्वधारी, ९ हजार अवधिज्ञानी, ९ हजार मनःपर्ययज्ञानधारी, १० हजार केवली, १४ हजार वैक्रियक लब्धिवाले, ७ हजार ६ सौ वादी, ढाई लाख श्रावक, ४ लाख ९१ हजार श्राविकाएँ तथैव विजय नामक यक्ष और भ्रकुटि नामकी शासन देवी । ___ २४ पूर्व तीन मास न्यून एक लाख पूर्व तक विहार कर भगवान निर्वाणकाल समीप जान सम्मेद शिखर पर्वतपर पधारे। वहाँपर उन्होंने एक हजार मुनियोंके साथ अनशन व्रत धारण किया। और एक मासके अन्तमें योगोंका निरोध कर भाद्रपद वदि ७ के दिन श्रवण नक्षत्रमें उक्त मुनियोंके साथ वे मोक्ष गये । इन्द्रादि देवोंने मोक्षकल्याणक किया।
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१४०
जैन-रत्न
चन्द्रप्रभुका कुल आयु प्रमाण १० लाख पूर्वका था। उससे उन्होंने ढाई लाख पूर्व शिशुकालमें बिताये, २४ पूर्व सहित साढ़े छः लाख पूर्व पर्यंत राज्य किया और २४ पूर्व सहित एक लाख पूर्व तक वे साधु रहे । उनका शरीर १५० धनुष ऊँचा था।
सुपाचं स्वामीके मोक्ष गये पीछे नौ सौ कोटि सागरोपम बीतने पर चन्द्रप्रभजी मोक्षमें गये ।
९ श्री पुष्पदंत (सुविधिनाथ) चरित
करामलकवद्विश्वं, कलयन् केवलश्रिया।
अचिंत्यमाहात्म्यनिधिः, सुविधिर्बोधयेस्तु वः भावार्थ--जो अपनी केवलज्ञानरूपी लक्ष्मीसे जगत्को हाथके आँक्लेकी तरह जानते हैं और जो अचिन्त्य (जिसकी कल्पना भी न हो सके ऐसे ) माहात्म्यरूपी दौलतवाले हैं वे सुविधिनाथ तुम्हारे लिए बोधके कारण होओ। पुष्करवर द्वीपमें पुष्कलावती नामक देश है। उसकी नमरी
पुण्डरीकणी थी। उस नगरीका राजा महापद्म १ प्रथम भव था । वह संसारसे विरक्त हो गया और जगनंद
गुरुके पाससे उसने दीक्षा ले ली। वह एकावली तपको पालता था, इससे उसने तीर्थकर कर्म बाँधा। २ दूसरा भव
- अन्तमें वह शुभ ध्यानपूर्वक मरकर वैजयंत 'विमानमें महर्द्धिक देव हुआ।
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९ श्री पुष्पदंत ( सुविधिनाथा ) चरित. १४१
mmmmmmmmmmmmmion वहाँके अनुपम सुखोंको भोग कर महापाका जीव वैजयंत
विमानसे च्यवकर काकंदी नगरीके राजा ३ तीसरा भव सुग्रीवकी रानी रामाके गर्भमें, फाल्गुन यदि ९
के दिन मूल नक्षत्रमें आया । इन्द्रादि देवोंने गर्भकल्याणकका उत्सव मनाया। क्रमशः गर्भका समय पूर्ण होनेपर महारानी रामाने मार्गशीर्ष वदि ५ के दिन मूल नक्षत्रमें मंगरंके चिन्ह सहित, पत्ररत्नको जन्म दिया । इन्द्रादि देवोंने जन्मोत्सव मनाया । गर्भ समयमें माता सब विधियोंमे कुशल हुई थी इसलिए उनका नाम सुविधिनाथ एवं गर्भ समयमें माताको पुष्पका दोहला उत्पन्न हुआ था इससे उनका नाम पुष्पदन्त रेखा गया।
युवा होने पर पिताके आग्रहसे भगवानने अनेक राजकन्याओंके साथ विवाह किये । वे ५० हजार पूर्व तक युवराज रहे । इसके बाद ८८ पूर्वाग सहित ५० हजार पूर्व तक उन्होंने राज्य किया। फिर एक समय लोकान्तिक देवोंने आकर विनती की:-. "हे प्रभु ! अब जगतके जीवोंके हितार्थ दक्षिा धारण कीजिये।" तब प्रभुने वर्षीदान करके मार्गशीर्ष वदि ६ के दिन मूल नक्षत्रमें एक हजार राजाओंके साथ सहसाम्रवनमें जाकर दीक्षा धारण की। इन्द्रादि देवोंने दीक्षाकल्याणक किया। श्वेतपुरके राजा पुष्पके घर दूसरे दिन प्रभुने पारणा किया।
वहाँसे विहार कर चार मास बाद भगवान उसी उद्यानमें आये । और मालुर वृक्षके नीचे कायोत्सर्गकर कार्तिक
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जैन - रत्न
सुदि ३ मूल नक्षत्र में उन्होंने चार घातिया कर्मोंको नष्टकर केवलज्ञान पाया ।
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प्रभुका परिवार इस प्रकार था, -८८ गणधर, २ लाख साधु, १ लाख २० हजार साध्वियाँ, ८ हजार ४ सौ अवधिज्ञानी, डेढ़ हजार चौदह पूर्वधारी, साढ़े सात हजार मनःपर्ययज्ञानी, ७ हजार ५ सौ केवली, १३ हजार वैक्रिय लब्धिधारी, ६ हजार वादी, २ लाख २९ हजार श्रावक और ४ लाख ७२ हजार श्राविकाएँ तथैव अजित नामक यक्ष व सुतारा नामकी शासन देवी ।
मोक्षकाल पास जान पुष्पदन्त स्वामी सम्मेद शिखरपर पधारे | और वहाँ उन्होंने एक हजार : मुनियोंके साथ एक मासका अनशन धारण किया । अन्तमें योग निरोधकर कार्तिक दि ९ के दिन मूल नक्षत्र में पुष्पदन्तजी सिद्ध हुए । इन्द्रादि देवोंने निर्वाणकल्याणक मनाया ।
पुष्पदन्तजीकी कुल आयु २ लाख पूर्वकी थी, उसमें से उन्होंने आधा पूर्व शिशुकालमें, ८८ पूर्वांग सहित आधा लाख पूर्व राज्यकालमें, ८८ पूर्वांग न्यून एक लाख पूर्व साधुपनमें बिताया। फिर वे मोक्ष गये । उनका शरीर १०० धनुष ऊँचा था । चन्द्रप्रभुके निर्वाण जानेके बाद ९० कोटि सागरोपम बीतने पर सुविधिनाथजी मोक्षमें गये ।
श्री सुविधिनाथ मोक्षमें गये उसके बाद हुंडा अवसर्पिणी कालके दोष से त्यागी साधु न रहे । तब लोग श्रावकों से ही धर्म पूछने लगे । श्रावक लोग अपनी इच्छानुसार धर्मोपदेश देने
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१० श्री शितलनाथ-चरित
१४३
लगे। भद्रिक लोग उन्हें, उपकारी समझकर, द्रव्यादि भेटमें देने लगे । लोभ बुरी बला है । उन श्रावकोंने लोभके वश होकर उपदेश दिया:-" तुम लोग भूमिदान, स्वर्णदान, रूप्यदान, गृहदान, अश्वदान, राजदान, लोहदान, तिलदान, कपासदान
आदि दान दिया करो । इन दानोंसे तुमको इस लोकमें और 'परलोकमें महान फलोंकी प्राप्ति होगी।"
इस उपदेशके अनुसार लोग दान भी देने लगे । लोभसे मार्गच्युत बने हुए उन श्रावकोंने दान भी खुद ही लेना आरंभ कर दिया । वे ही लोगोंके गृहस्थ गुरु बन गये । इन श्रावकोंमें उन लोगोंकी सन्तति मुख्य थी जो भरत चक्रवर्तीके समयमें 'माहन 'माहन । बोलते हुल ब्राम्हणोंके नामसे मशहूर हो गये थे। और इसी लिए वे श्रावक मुख्यतया ब्राह्मण कहलाये । ऐसा अनुमान होता है ।
१० श्री शीतलनाथ-चरित
सत्त्वानां परमानंद-कंदो दनवांबुदः ।
स्याद्वादामृतनिस्वंदी, शीतलः पातु वो जिनः॥ भावार्थ-प्राणियोंके उत्कृष्ट आनंदके अंकुर प्रकट होनेमें नवीन मेघके समान और स्याद्वाद मतरूपी अमृतको बरसानेवाले श्री शीतलनाथ तुम्हारी रक्षा करें।
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जैन - रत्न
पुष्करद्वीपमें वज्र नामक देश है । उसकी राजधानी सुसीमा नामक नगरी थी । उसका राजा पद्मोत्तर था १ प्रथम भव उसने बहुत वर्षों तक राज्य किया । संसारसे वैराग्य होने पर उसने त्रिसाद्य नामक आचार्यके पाससे दीक्षा ली, तीव्र तप सहित शुद्ध व्रतोंको पाला और बीस स्थानककी आराधनाकर तीर्थंकर कर्म बाँधा ।
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२ द्वितीय भव - अन्तमें मरकर वह दशवें देवलोकमें देव हुआ। वहाँसे च्यवकर पद्मोत्तरका जीव भरत क्षेत्रके ३ तीसरा भव भद्रिला नगरके राजा दृढरथकी रानी नंदाके उदरमें, वैशाख सुदि ६ के दिन पूर्वाषाढा नक्षत्रमें आया । इन्द्रादि देवोंने गर्भकल्याणक मनाया | गर्भका समय पूर्ण होनेपर नंदा रानीने माघ वदि १२ के दिन पूर्वाषाढा नक्षत्रमें श्रीवत्स लक्षणयुक्त, पुत्रको जन्म दिया । इन्द्रादि देवोंने जन्मकल्याणक मनाया । राजाने हर्षित होकर बहुत दान दिया । पहिले राजाको गर्मी बहुत लगती थी, परन्तु यह पुत्र गर्भमें आया, उसके बाद राजानें एक दिन रानीका अंग छुआ, इसीसे राजाकी बहुत दिनोंकी गर्मी शान्त हो गई । इस कारणसे उन्होंने पुत्रका नाम शीतल
नाथ रखा ।
शिशु कालमें प्रभुकी अनेक धायें सेवा करती थीं । दूजके चाँद समान बढ़ते हुए प्रभु युवा हुए । पिताने अनेक राजकन्याओंके साथ उनके व्याह कर दिये । उन्होंने २५ हजार पूर्व तक युवराज पदके मुख भोगे । और ५० हजार पूर्व तक
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१० श्री शीतलनाथ-चरित
१४५ -mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm राज्य किया। पीछे लोकान्तिक देवोंने प्रभुसे दीक्षा लेनेकी प्रार्थना की। __ संवत्सरी दान देनेके बाद प्रभुने छट्ठ व्रतकर माघ वदि १२ के दिन पूर्वाषाढ़ा नक्षत्रमें सहसाम्र वनमें जा एक हजार राजाओंके साथ दीक्षा ली। इन्द्रादि देवोंने तपकल्याणक किया। दूसरे दिन राजा पुनर्वसुके घर उनने पारणा किया। वहाँसे विहार कर तीन मासके बाद प्रभु उसी उद्यानमें आये। पीपल वृक्षके नीचे उन्होंने कायोत्सर्ग धारण किया । शुक्ल ध्यानके दूसरे भेदपर चढ़ और घातिया कर्मोंको क्षय कर पौष वदि ४ के दिन पूर्वाषाढा नक्षत्रमें शीतलनाथजी केवली हुए। इन्द्रादि देवोंने ज्ञानकल्याणक मनाया और समोशरणकी रचना की । प्रभुने सिंहासनपर बैठकर भव्य जीवोंको दिव्य उपदेश दिया।
शीतलनाथजीके शासनमें इतना परिवार था,-ब्रह्म नामक यक्ष, अशोका शासन देवी, ८१ गणधर, १ लाख साधु, एक लाख छः साध्वियाँ, १३०० चौदह पूर्वधारी, १४ सौ ७ हजार २ सौ अवधिज्ञानी, साढ़े सात हजार मनःपर्यय ज्ञानी, ७ हजार केवली, ४ हजार वैक्रियलब्धिधारी, ५ हजार ८ सौ वादी, २ लाख ८९ हजार श्रावक, और ४ लाख ५८ हज़ार श्राविकाए।
अपना निर्वाण काल समीप जान प्रभु सम्मेदशिखरपर आये । वहाँ उन्होंने एक हजार मुनियोंके साथ अनशन व्रत धारण किया। एक मासके वाद वैशाख वाद २ पूर्वाषाढा नक्षत्र
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१४६ wwwmmmmmm
जैन-रत्न
में उन्हीं मुनियोंके साथ प्रभु मोक्षमें गये । इन्द्रादि देवोंने मोक्षकल्याणक मनाया। ___२५ हजार पूर्व कुमार वयमें, ५० हजार पूर्व राज्य कालमें, २५ हजार पूर्व दीक्षा कालमें, इस प्रकार प्रभुकी आयुके १ लाख पूर्व व्यतीत हुए । उनका शरीर ९० धनुष ऊँचा था।
सविधिनाथजीके मोक्ष जानेके बाद नौ कोटि सागरोपम वीते, तब शीतलनाथजी मोक्षमें गये ।
११ श्री श्रेयांसनाथ-चरित
भवरोगार्तजन्तूना-मगदंकारदर्शनः । निःश्रेयसश्रीरमणः श्रेयांसः श्रेयसेऽस्तु वः॥ भावार्थ--जिनका दर्शन ( सम्यक्त्व ) संसाररूपी रोगसे पीडित जीवोंके लिए वैद्यके समान है और जो मोक्षरूपी लक्ष्मीके स्वामी हैं वे श्री श्रेयांसनाथ भगवान तुम्हारे कल्याणके हेतु होवें। पुष्करद्वीपमें कच्छ देश है । उसमें क्षेमा नामकी एक
नगरी थी । वहाँका राजा नलिनगुल्म था। १ प्रथम भव उसने बहुत दिनों तक राज्य किया । एक
___ समय संसारसे उसको वैराग्य हुआ । उसने वज्रदन्त मुनिके पाससे दीक्षा ली और बीस स्थानककी आराधना कर तीर्थकर गोत्र बाँधा।
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२ दूसरा भव
११ श्री श्रेयांसनाथ - चरित
प्राण तज कर नलिनगुल्म शुक्र नामक दशवें देवलोकमें उत्पन्न हुआ ।
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वहाँसे च्यवकर सिंहपुरी नगरके राजा विष्णुकी रानी के उदरसे जेठ बदि ६ के दिन श्रवण नक्षत्रमें ३ तीसरा भव आया । इन्द्रादि देवोंने गर्भकल्याणक मनाया । गर्भकाल पूरा होनेपर विष्णु माता की कुक्षिसे भाद्रपद वदि १२ के दिन श्रवण नक्षत्र में गेंडेके चिन्ह सहित पुत्ररत्नका जन्म हुआ । इन्द्रादि देवोंने जन्मकल्याणक किया । पुत्रका नाम श्रेयांस कुमार रखा गया। क्योंकि उनके जन्मसे राजाके घर सब श्रेय ( कल्याण ) हुआ था ।
अनुक्रमसे प्रभु युवा हुए । तब पिताने अनेक राजकन्याओं के साथ उनका पाणिग्रहण करा दिया । वे २१ लाख वर्षतक युवराज रहे और ४२ लाख वर्षतक उन्होंने राज्य किया । जब लोकान्तिक देवोंने आकर दीक्षा लेनेकी विनती की, तब प्रभुने वर्षीदान दिया और सहसाम्र वनमें जाकर फाल्गुन वाद १३ के दिन श्रवण नक्षत्रमें छट्ट तपकर दीक्षा ली । इन्द्रादि देवने तपकल्याणक किया । दूसरे दिन उन्होंने राजा नंदके यहाँपर पारणा किया । वहाँसे अन्यत्र विहार कर एक मास बाद वापिस वे उसी वनमें आये । अशोक वृक्षके नीचे कायोत्सर्ग धार शुक्लध्यानके साथ कर्मोंका नाश कर माघ वदि ss के दिन चन्द्र नक्षत्र में प्रभु केवलज्ञानी हुए । इन्द्रादि देवोंने केवलज्ञानकल्याणक किया ।
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श्रेयांसनाथजीके परिवारमें, ईश्वर नामका यक्ष और मानवी नामकी शासनदेवी हुई । इसी तरह ७६ गणधर, ८४ हजार साधु, १ लाख ३ हजार साध्वियाँ, १३०० चौदह पूर्वधारी, छः हजार अवधिज्ञानी, छः हजार मनःपर्यवज्ञानी, साढे छः हजार केवली, ११ हजार वैक्रिय लब्धिधारी, ५ हजार वादलाब्धिधारी, २ लाख १९ हजार श्रावक और ४ लाख ३६ हजार श्राविकाएँ थे।
प्रभु अपना मोक्षकाल समीप जान सम्मेदशिखरपर गये। एक हजार मुनियोंके साथ उन्होंने अनशन व्रत लिया और एक मासके अन्तमें श्रावण सुदि २ के दिन घनिष्ठा नक्षत्रमें प्रभु माक्ष गये । इन्द्रादि देवोंने मोक्षकल्याणका उत्सव किया।
श्रेयांसनाथकी आयु ८४ लाख वर्षकी थी, उसमेंसे वे २१ लाख वर्ष कुमार वयमें रहे, ४२ लाख वर्ष राज्यमें रहे और २१ लाख वर्ष उन्होंने चारित्र पाला। इनका शरीर ८० धनुष ऊँचा था।
शीतलनाथजीके निर्वाणके बाद ६६ लाख ३६ हजार वर्ष १०० सागरोपम न्यून एक कोटि सागरोपम बाद श्रेयांसनाथजी मोक्ष गये । इनके तीर्थमें त्रिपृष्ट वासुदेव, चल नामक बलदेव, और अश्वग्रीव प्रति वासुदेव हुए।
. १ इसका दूसरा नाम 'मनुज' भी है । २ इसका दूसरा नाम 'श्रीवत्सा' भी है।
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१२ श्री वासुपूज्य-चरित
rare. विश्वोपकारकीभूत-तीर्थकृतकनिर्मितिः।
सुरासुरनरैः पूज्यो, वासुपूज्यः पुनातु वः॥ भावार्थ-जिन्होंने जगत्का उपकार करनेवाला तीर्थकर नाम कर्म निर्माण किया है-उपार्जन किया है और जो देवता, असुर
और मनुष्य सभीके पूज्य हैं, वे वासुपूज्य स्वामी तुम्हें पवित्र करें। पुष्करवर द्वीपमें मंगलावती नामक देश है । उसकी
राजधानी रत्नसंचया नामकी नगरी थी । १ प्रथम.भव उसमें पद्मोत्तर नामका राजा राज्य करता
था । उसको संसारसे वैराग्य हुआ और उसने वज्र नामक गुरुके पाससे दीक्षा ले ली। आठ प्रवचन माता (५ सुमति ३ गुप्ति ) को पाल कर और बीस स्थानककी आराधना कर उसने तीर्थकर नाम कर्म बाँधा ।
- प्राण तज कर पद्मोत्तरका जीव दशवे देव२ द्वितीय भव
'लोकमें उत्पन्न हुआ। जंबूद्वीपके भरतक्षेत्रमें चंपा नगरी थी । उस नगरीके राजा
वासुपूज्यके जया नामकी रानी थी । पद्मोत्तर३ तीसरा भव का जीव स्वर्गसे च्यवकर जेठ सुदि ९ के दिन
शतभिशाखा नक्षत्रमें जयादेवीके गर्भमें आया । इन्द्रादि देवोंने गर्भकल्याणक किया । नौ माह साढ़े सात दिन
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जैन - रत्न
बीतने पर फाल्गुन वदि १४ के दिन वरुण नक्षत्रमें जयादेवीकी कुक्षिसे महिषीलक्षण - युक्त पुत्रका जन्म हुआ । इन्द्रादि देवोंने जन्मकल्याणक किया । और उसे बालकका नाम वासुपूज्य रखा गया । यौवन काल आनेपर पिताके आग्रह करने पर भी उन्होंने विवाह नहीं किया । और न राज्य ही किया । वे बाल ब्रह्मचारी रहे । वे संसारको असार, और भोगों को किंपाक फलके समान जानते थे। इसीसे उदास रहते थे ।
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एक दिन लोकान्तिक देवोंने आकर दीक्षा लेने की प्रार्थना की वासुपूज्य स्वामीने बर्षोदान देकर फाल्गुन वदि ३० के दिन वरुण नक्षत्र में छह तप सहित दीक्षा ली । इन्द्रादि देवोंने तपकल्याणक किया । दूसरे दिन महापुर नगर में राजा सुनंदके यहाँ उन्होंने पारणा किया ।
प्रभु एक मास छद्मस्थपनेमें विहार कर गृह - उद्यान में आये । और पाटल (गुलाब) वृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग पूर्वक रहे । वहाँ पर माघ सुदि २ के दिन शतभिषाखा नक्षत्रमें प्रभुको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । इन्द्रादि देवोंने ज्ञानकल्याणक किया । प्रभुने भव्य जीवोंको उपदेश दिया और नाना देशोंमें विहार किया ।
उनके शासनमें ६६ गणधर, ७२ हजार साधु, १ लाख साध्वियाँ, ४ सौ चौदह पूर्वधारी, ५४ सौ अवधिज्ञानी, १०८ मन:पर्ययज्ञानी, ६ हजार केवली, १० हजार वैक्रियक लब्धिधारी, ४ हजार ८ सौ वादी, १ लाख १५ हजार श्रावक, ४ लाख ३६ हजार श्राविकाएँ तथैव चन्द्रा नामकी : शासन देवी, और कुमार नामक यक्ष थे ।
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१३ श्री विमलनाथ-चरित
१५१
___ मोक्षकाल निकट जान भगवान चंपा नगरीमें पधारे । वहाँ छ: सौ मुनियोंके साथ अनशन व्रत ग्रहण कर एक मासके अन्तम अषाढ़ सुदि १४ के दिन उत्तरा भाद्रपद नक्ष- त्रमें प्रभु मोक्षको गये । इन्द्रादि देवोंने निर्वाणकल्याणक किया। ___ प्रभु १८ लाख वर्ष कुमार वयमें और ५४ लाख वर्ष दीक्षापर्यायमें इस तरह ७२ लाख वर्षकी आयु समाप्तकर मोक्षमें गये । उनका शरीर ७० धनुष ऊँचा था।
श्रेयांसनाथके मोक्ष जानेके ५४ सागरोपम बीतने पर वासुपूज्यजी मोक्षमें पधारे । इनके समयमें द्विपृष्ट वासुदेव, विजय बलभद्र और तारक प्रतिवासुदेव हुए थे।
१३ श्री विमलनाथ-चरित विमलस्वामिनो वाचः, कतकक्षोदसोदराः ।
जयंति त्रिजगञ्चेतो-जलनैर्मल्यहेतवः ॥ भावार्थ-कतक फलके चूण जैसी, तीन लोकके प्राणियोंके हृदयरूपी जलको निमल बनानेवाली श्री विमलनाथ स्वामीकी वाणी जयवंती होव । धातकी खण्डके प्राग विदेहमें भरत नामका देश है। उसमें
___महापुरी नगरी थी । उसका राजा पद्मसेन था। १ प्रथम भव उसको वैराग्य उत्पन्न हुआ। सर्व गुप्तमुनिके
पास उसने दीक्षा ली । सम्यक् प्रकारसे चारित्रका पालन किया। और अद्भिक्ति आदि बीस स्थानककी
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१५२
जैन-रत्न
romrammar
आराधनासे तीर्थकर गोत्र बाँधा । चिर कालतक मुनिव्रत पालन किया। आयु पूर्ण होनेपर पद्मोत्तरका जीव सहस्रार स्वर्गमें बड़ा
ऋद्धिवान देव हुआ । वहाँ पर नाना प्रकारके
२ दूसरा भव सुख भोगे।
स्वर्गसे पद्मोत्तरका जीव च्यवकर कंपिला नगरके राजा
कृतवर्माकी रानी श्यामाके गर्भ में वैशाख सुदि ३ तीसरा भव १२ के दिन भाद्रपदमें आया । इन्द्रादि देवोंने
गर्भकल्याणक मनाया । गर्भका समय पूरा होनेपर माघ सुदि३ के दिन उत्तरा भाद्रपद नक्षत्रमें वराह (सूअर) के चिन्ह युक्त पुत्रको श्यामा देवीने जन्म दिया । इन्द्रादि देवोंने जन्मकल्याणक मनाया । गर्भ समयमें माताके परिणाम निर्मल रहे थे इससे पुत्रका नाम विमलनाथ रखा गया। युवा होनेपर पिताने विमल कुमारका विवाह अनेक कन्याओंके साथ कर दिया। भगवान १५ लाख वर्ष तक युवराज पदमें रहे । ३० लाख वर्ष तक राज्य किया । फिर लोकान्तिक देवोंने आकर प्रार्थना की:- "हे प्रभु! दीक्षा धारण कीजिये।" भगवानने संवत्सरी दान दे, एक हजार राजाओंके साथ छ? तप सहित सहसाम्र वनमें दीक्षा धारण की । इन्द्रादि देवोंने तपकल्याणक मनाया। तीसरे दिन राजा जयके घर पारणा किया । दो वर्ष तक अनेक देशोंमें विहारकर प्रभु फिर उसी उद्यानमें आये और जंबू वृक्षके नीचे कायोत्सर्ग पूर्वक रहे। क्षपक श्रेणी में आरूढ़ होकर उन्होंने घातिया कोका क्षय किया और पौर्षे
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१३ श्री विमलनाथ - चरित
१५३
वदि ६ के दिन उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में केवलज्ञान पाया । इन्द्रादि देवोंने ज्ञानकल्याणक मनाया ।
प्रभुके शासन में ५७ गणधर, ६८ हजार साधु, १ लाख ८ सौ साध्वियाँ, १ हजार एक सौ चौदह पूर्वधारी, ४ हजार ८ सौ अवधिज्ञानी, ९ हजार ५ सौ मन:पर्ययज्ञानी, ५ हजार ५ सौ वैयिलब्धिधारी, २ लाख ८ हजार श्रावक, ४ लाख ३४ हजार श्राविकाएँ, षडमुख नामक यक्ष, और विदितां शासन देवी थे ।
अपना मोक्षकाल समीप जान प्रभु सम्मेदाचलपर आये और छः हजार मुनियोंके साथ एक मासका अनशनत्रत धारण कर आषाढ वदि ७ के दिन मोक्षमें गये । इन्द्रादि देवोंने मोक्षकल्याणक किया ।
१५ लाख वष कुमार वयमें, ३० लाख वर्ष तक राज्य कार्यमं, और १५ लाख वर्ष संयममें इस तरह ६० लाख वर्षकी आयु भोग प्रभु मोक्षमें गये । उनका शरीर ६० धनुष ऊँचा था ।
वासुपूज्य जीके ३० सागरोपम बाद विमलनाथजी मोक्षमें गये । इनके तीर्थमें स्वयंभू वासुदेव, भद्र नामक बलदेव और मेरक प्रति वासुदेव हुए ।
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१४ श्री अनन्तनाथ-चरित
स्वयंभूरमणस्पर्द्धि-करुणारसवारिणा ।
अनंतजिदनंता वः प्रयच्छतु सुखश्रियम् ॥ भावार्थ-अपने करुणा-रसरूपी जलके द्वारा स्वयंभू रमण समुद्रसे स्पर्धा करनेवाले श्रीअनंतनाथ भगवान अनंत मोक्षसुखरूपी लक्ष्मी तुम्हें देवें । धातकी खण्डद्वीपके ऐरावत देशमें अरिष्ठा नामक नगरी थीं।
__उसमें पद्मरथ राजा राज्य करता था । किसी १ प्रथम भव कारण उसको संसारसे वैराग्य हुआ । रक्ष
नामक आचार्यके समीप उसने दीक्षा ली । बीस स्थानककी आराधनासे उसने तीर्थकर गोत्रका बंध किया।
अन्तसमयमें शरीर छोड़कर पद्मरथका जीव प्राणत नामक २ दूसरा भव देवलोकमें पुष्पोत्तर विमानमें देवता हुआ । जंबूद्वीपकी अयोध्या नगरीमें सिंहसेन राजा था। उसकी
सुपक्षा नामकी रानी थी । उस रानीके गर्भ में ३ तीसरा भव पद्मरथका जीव देवलोकसे च्यव कर श्रावण
वदि ७ के दिन रेवती नक्षत्रमें आया । इन्द्रादि देवोंने गर्भकल्याणक मनाया । गर्भावस्था पूर्ण होनेपर रानीने वैशाख सुदि १३ के दिन पुष्य नक्षत्रमें बाज पक्षीके लक्षणयुक्त पुत्रको जन्म दिया । इन्द्रादि देवोंने जन्मकल्याणक किया। गर्भकालमें पिताने अनंत शत्रु जीते थे, इससे इनका नाम
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१४ श्री अनन्तनाथ-चरित
१५५
अनन्तनाथ रखा गया । शिशुकालको त्याग कर प्रभु युवा हुए। उस समय पिताने अनेक कन्याओं के साथ उनकी शादी की। साढ़े सात लाख वर्ष तक युवराज रहे । फिर पिताके आग्रहसे राजा बने । और १५ लाख वर्ष तक राज्य किया। ___एक दिन लोकान्तिक देवोंने आकर दीक्षा लेनेकी प्रेरणा की। समय जान, वर्षीदान दे, सहसाम्रवनमें जा, वैशाख वदि १४ के दिन रेवती नक्षत्रमें प्रभुने छह तप युक्त दीक्षा ली। इन्द्रादि देवोंने दीक्षाकल्याणक मनाया। दूसरे दिन राजा विजयके घर परमान्नसे ( खीरसे) पारणा किया। प्रभु विहार करते हुए तीन वर्षके बाद वापिस उसी वनमें पधारे । अशोक वृक्षके नीचे कायोत्सर्ग ध्यानमें रहे । घाति काँका नाश होनेसे वैशाख वदि १४ के दिन रेवती नक्षत्रमें भगवानको केवलज्ञान हुआ । इन्द्रादि देवोंने ज्ञानकल्याणक किया। __ प्रभुके शासनमें-पाताल नामक यक्ष, अंकुशा नामकी शासन देवी, ५० गणधर, ६६ हजार साधु, ६२ हजार साध्वियाँ, ९ सौ चौदह पूर्वधारी, ४ हजार ३ सौ अवधिज्ञानी, ४ हजार ५ सौ मनःपर्ययज्ञानी, ५ हजार केवली, ८ हजार वैक्रियक लब्धि वाले, ३ हजार वादी, २ लाख ६ हजार श्रावक, और ४ लाख १४ हजार श्राविकाएँ थे।
मोक्षकाल समीप जान प्रभु सम्मेद शिखरपरगये और सात हजार साधुओंके साथ अनशन व्रत धारण कर चैत्र सुदि ५ के दिन पुष्य नक्षत्रमें मोक्षको पधारे । इन्द्रादि देवोंने निर्वाणकल्याणक मनाया।
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जैन-रत्न
१५६ mmmmmm
साढे सात लाख वर्ष कुमार वयमें, १५ लाख वर्ष राज्य कार्यमें और साढ़े सात लाख वर्ष दीक्षा पालनेमें इस तरह ३० लाख वर्षकी आयु पूर्ण कर प्रभु मोक्षमें गये । उनका शरीर ५० धनुष ऊँचा था। _ विमलनाथजीका निर्वाण हुआ, उसके पीछे नौ सागरोपम बीतने पर अनन्तनाथजी मोक्षमें गये ।
इनके तीर्थमें चौथा वासुदेव पुरुषोत्तम, चौथा बलदेव सुप्रभ और चौथा प्रतिवासुदेव मधु हुए ।
१५ श्री धर्मनाथ-चरित
कल्पद्रुमसधर्माण-मिष्टप्राप्तौ शरीरिणाम् ।
चतुर्दा धर्मदेष्टारं, धर्मनाथमुपास्महे ॥ भावार्थ-जो प्राणियोंको इच्छित फलकी प्राप्तिमें कल्पवृक्षके समान हैं और जो दान, शील, तप और भावरूपी चार प्रकारके धर्मका उपदेश करनेवाले हैं उन श्री धर्मनाथप्रभुकी हम उपासना करते हैं। धातकी खण्डके पूर्व विदेहमें, भरतनामके देशमें भदिल नगर
था । वहाँका राजा दृढरथ था। उसको संसारसे १ प्रथम भव वैराग्य उत्पन्न हुआ । उसी समय उसने विमल
____वाहन गुरूके पाससे दीक्षा ली । चिर कालतक सकल चारित्र पाला, और बीस स्थानकी आराधनासे तीर्थकर गात्र बाँधा।
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१५ श्री धर्मनाथ-चरित
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२ दूसरा भव-समाधिमरण करके दृढरथका जीव वैजयन्त नामक विमानमें देव हुआ। रत्नपुर नगरके राजा भानुकी रानी सुव्रताके गर्भ में दृढरथ
___राजाका जीव वैजयन्त विमानसे च्यवकर ३ तीसरा भव वैशाख सुदि ७ के दिन पुष्य नक्षत्रमें आया ।
इन्द्रादि देवाने गर्भकल्याणक मनाया । गर्भकालको पूर्णकर सुव्रता रानीके उदरसे, माघ सुदि ३ के दिन पुष्य नक्षत्रमें, वज्र लक्षण-युक्त पुत्रका जन्म हुआ। इन्द्रादि देवोंने जन्म-कल्याणक मनाया । जब प्रभु गर्भमें थे उस समय माताको धर्म करनेका दोहला हुआ था इससे उनका नाम धमनाथ रखा गया । ___ उन्होंने यौवन कालमें पाणिग्रहण किया, ५ हजार वर्ष तक राज्य किया फिर लोकान्तिक देवोंके विनती करने पर वर्षीदान दे प्रकाञ्चन उद्यानमें जा, एक हजार राजाओंके साथ माघ सुदि १३ के दिन पुष्य नक्षत्रमें दीक्षा ली । इन्द्रादि देवोंने तप कल्याणक मनाया । दूसरे दिन धर्मसिंह राजाके यहाँ प्रभुने परमान्नसे (खीरसे) पारणा किया।
भगवान विहार करते हुए दो वर्ष बाद उसी उद्यानमें पधारे । उन्होंने दधिपर्ण वृक्षके नीचे ध्यान धरा । घातिया कोंका क्षय होनेसे पौष सुदि १५ के दिन पुष्य नक्षत्रमें उन्हें केवलज्ञान हुआ। इन्द्रादि देवोंने ज्ञानकल्याणक मनाया। केवलज्ञान उत्पन्न होनेपर दो वर्ष कम ढाई लाख वर्ष तक उन्होंने नाना देशोंमें विहार किया और प्राणियोंको उपदेश दिया ।
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जैन-रत्न
धर्मनाथजीके संघमें ४३ गणधर, ६४ हजार साधु, ६२ हजार ४ सौ आयाएँ, ९ सौ चौदह पूर्वधारी, ३ हजार ६ सौ अवधिज्ञानी, ४ हजार ५ सौ मनःपर्ययज्ञानी, ४ हजार ५ सौ केवली, ७ हजार वैक्रियकलब्धिधारी, २ हजार ८ सौ वादी, २ लाख ४० हजार श्रावक और ४ लाख १३ हजार श्राविकाएँ थे। तथा किन्नर यक्ष शासन देव, और कंदर्पा नामा शासन देवी थी। __ भगवान, मोक्षकाल समीप जान सम्मेदशिखरपर आये और १०८ मुनियोंके साथ अनशन व्रत ग्रहणकर जेठ सुदि ५ के दिन पुष्य नक्षत्रमें मोक्ष गये । इन्द्रादि देवोंने मोक्षकल्याणक किया । प्रभु ढाई लाख वर्ष कुमारपनमें, ५ लाख वर्ष राज्यकार्यमें और ढाई लाख वर्ष साधुपनमें रहे । इस तरह उन्होंने १० लाख वर्षकी आयु पूर्ण की। उनका शरीर पैंतालीस धनुष ऊँचा था।
अनंतनाथजीके निर्वाण जानेके बाद चार सागरोपम बीतने पर धर्मनाथजी मोक्षमें गये।
इनके तीर्थमें पाँचवाँ वासुदेव पुरुषसिंह, सुदर्शन बलदेव, और निशुंभ प्रतिवासुदेव हुए।
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१६ श्री शांतिनाथ - चरित
सुधासोदरवाग्ज्योत्स्ना - निर्मलीकृत दिङ्मुखः । मृगलक्ष्मातमः शान्त्यै, शान्तिनाथजिनोऽस्तु वः ॥ भावार्थ — जिनकी अमृतके समान वाणी सुनकर लोगोंके मुख उसी तरह प्रसन्न हुए हैं जैसे चाँदनीसे दिशाएँ प्रसन्न होती हैं - प्रकाशित होती हैं । और जिनके हिरनका चिन्ह है वे शान्तिनाथ भगवान तुम्हारे पापको उसी तरह नष्ट करें जैसे चंद्रमा अंधकार का नाश करता है ।
जंबूद्वीप के भरतक्षेत्रम रत्नपुर नामका शहर था । उसमें श्रीषेण नामका राजा राज्य करता था । उसके १ पहला भव अभिनंदिता और शिखिनंदिता नामकी दो ( राजा श्रीषेण ) रानियाँ थीं । अभिनंदिताके इन्दुषेण और बिंदुषेण नामके दो पुत्र हुए। वे जब बड़े हुए
तब विद्वान और युद्ध व न्यायविशारद हुए ।
भरतक्षेत्रके मगध देशमें अचलग्राम नामका एक गाँव था । उसमें धरणीजट नामका एक विद्वान ब्राह्मण रहता था । वह चारों वेदोंका जानकार था । उसके यशोभद्रा नामकी स्त्री थी । उसके गर्भ से क्रमशः नंदिभूति और शिवभूति नामके दो पुत्र जन्मे । धरणीजटके घरमें एक दासी थी । वह सुंदरी थी । धरणीजटका मन बिगड़नेसे उस दासीके गर्भ से एक लड़का जन्मा । उस लड़केका नाम कपिल रखा गया ।
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जैन-रत्न
धरणीजट नंदिभूति और शिवभूतिको विद्या पढ़ाता था। कपिलकी तरफ कभी ध्यान भी नहीं देता था । परन्तु कपिल बुद्धिमान था-मेधावी था इस लिए वह उसका बाप जो कुछ यशोभद्राके लड़कोंको पढ़ाता था उसे ध्यानपूर्वक सुनकर पाठ कर लेता था । इस तरह कपिल पढ़कर धरणीजटके समान दिग्गज विद्वान हुआ।
विद्वान कपिल, निज शहरमें, विद्वान होते हुए भी, अपना अपमान होता देख, वहाँसे विदेशोंमें चला गया । दासीपुत्र समझकर धरणीजटने उसे जनेऊ न पहनाई, इसलिए उसने अपने आप यज्ञोपवीत धारण किया। चारों तरफ कपिलकी विद्वत्ताकी धाक बैठ गई । जहाँ जाता वहींके विद्वान लोग उसका आदर करते । कपिल फिरता फिरता रत्नपुर नगरमें पहुँचा । वहाँ सत्यकी नामका एक विद्वान ब्राह्मण रहता था उसके यहाँ अनेक विद्वान शिष्य पढ़ते थे । कपिल सत्यकीकी पाठशालामें गया। शिष्योंने उससे अनेक प्रश्न पूछे । कपिलने सबका यथोचित उत्तर दिया । सत्यकीने भी शास्त्रोंके अनेक गूढाशय पूछे । कपिलने सबका आशय भली प्रकार समझाया । इससे सत्यकी बड़ा खुश हुआ । उसने कपिलको, आग्रह करके अपने यहाँ रखा और अपनी शालाका मुख्य अध्यापक बना दिया । 'गुणोंकी कदर कहाँ नहीं होती है ? ' सत्यकीका अपने पर प्रेम देख कपिल उसकी बड़ी सेवा करने लगा। उसके कामका सभी बोझा उसने उठा लिया।
एक बार सत्यकीकी पत्नी जंबूकाने कहा:-"देखिये, अपनी
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१६ श्री शांतिनाथ-चरित
१६१
कन्या सत्यभामा अब जवान हो गई है । इसलिए उसकी शादीका कहीं इन्तजाम कीजिए । जिसके घर जवान कन्या हो, कर्ज हो, वैर हो और रोग हो उसे शांतिसे नींद कैसे आ सकती है ? मगर आप तो बेफिक्र हैं।"
सत्यकीने जवाब दिया:-" मैंने इसके लिए योग्य वर ढूँढ लिया है । कपिल मेरी निगाहमें सब तरहसे लायक है । अगर तुम्हारी सलाह हो तो सत्यभामाके साथ इसकी शादी कर दी जाय । " ___ जंबुकाको यह बात ठीक लगी। यह उसके लिए और भी संतोषकी बात हुई कि कपिलके साथ शादी होनेसे कन्या घरपर ही रहेगी। शुभ मुहूर्तमें दोनोंकी शादी हो गई। सुखसे उनके दिन बीतने लगे। विद्वत्ता और मिष्ट व्यवहारके कारण लोग उसको बहुत भेटें देने लगे । जिससे उसके पास धन भी काफी हो गया । कुछ समयके बाद उसके सास ससुरका देहांत हो गया। ___एक बार कपिल कहीं नाटक देखने गया था। रात अंधेरी थी। जोरसे पानी बरस रहा था। इसलिए लौटते समय कपिलने अपने कपड़े उतारकर बगलमें दबाये और वह नंगा ही घरपर चला आया। अपने दालानमें आकर उसने दर्वाजा खुलवाया। सत्यभामाने दर्वाजा खोला और कहा:-" ठहरिए मैं सूखे कपड़े ले आती हूँ।" कपिलने कहा:-" मेरे कपड़े सूखे ही हैं । विद्याके बलसे मैंने उन्हें नहीं भीगने दिया ।" ___ मगर घरमें आनेपर सत्यभामाने देखा कि कपिलका सिर गीला है और पैर भी गीले हैं। बुद्धिमती कपिला समझ
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जैन-रत्न
गई कि पतिदेव नंगे आये हैं और मुझे झूठ कहा है। पतिकी झुठाईसे सत्यभामाके हृदयमें अद्धश्रा उत्पन्न हुई।
अचलग्राममें धरणीजट दैवयोगसे निर्धन हो गया । उसने सुना था कि कपिल रत्नपुरमें धनी हो गया है इसलिए वह धनकी आशासे कपिलके पास आया । कपिलने अपनी पत्नीसे कहा:-" मेरे पिताके लिए मुझसे अलग ऊँचा आसन लगाना और उनकी अच्छी तरहसे सेवाभक्ति करना।" कपिलको भय था कि, कहीं मेरे पिता मुझसे परहेज कर मेरी असलियत जाहिर न कर दें।
सत्यभामाको इस आदेशसे संदेह हुआ और कपिल जब भोजन करके चला गया तब उसने धरणीजटको पूछा:"पूज्यवर ! आप सत्य बताइए कि आपका पुत्र शुद्ध कुलवाली कन्याके गर्भसे जन्मा है या नहीं ? इनके आचरणोंसे मुझे शंका होती है । अगर आप झूठ कहेंगे तो आपको ब्रह्महत्याका पाप लगेगा।" __धरणीजट धर्मभीरु था। वह ब्रह्महत्याके पापके सोगंदकी अवहेलना न कर सका । उसने सच्ची बात बता दी। साथ ही यह भी कह दिया कि मेरे जानेतक तू कपिलसे इस विषयकी चर्चा मत करना।
जब धरणीजट कपिलसे सहायतार्थ काफी धन लेकर अचल ग्राम चला गया तब सत्यभामा राजा श्रीषेणके पास गई और उसको कहाः-" मेरा पति दासीपुत्र है । अंजानमें मैं अब
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१६ श्री शांतिनाथ-चरित
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तक इसकी पत्नी होकर रही । अब ब्रह्मचर्यव्रत लेकर अकेली रहना चाहती हूँ । कृपाकर मुझे उससे छुट्टी दिलाइए।"
राजाने कपिलको बुलाकर कहा:-" तेरी पत्नी अब संसार-सुख भोगना नहीं चाहती । इसलिए इसको अलहदा रह कर धर्मध्यान करने दे।" कपिलने कहा:-" राजन् पतिके जीते पत्नीका अलहदा रहना अधर्म है । स्त्रीका तो पतिकी सेवा करना ही धर्मध्यान है । मैं अपनी पत्नीको अलहदा नहीं रख सकता।"
सत्यभामा बोली:-"ये मुझे अलहदा न रहने देंगे तो मैं आत्महत्या करूँगी। इनके साथ तो हरगिज न रहूँगी।"
राजा बोला:-" हे कपिल ! यह प्राण देनेको तैयार है। इससे तू इसको थोड़े दिन मेरी राणियोंके साथ रहने दे। वे पुत्रीकी तरह इसकी रक्षा करेंगी। जब इसका मन ठिकाने आ जाय तब तू इसे अपने घर ले जाना ।"
इच्छा न होते हुए भी कपिलने सम्मति दी । सत्यभामा अनेक तरहके तप करती हुई अपना जीवन बिताने लगी। ___ कौशांबीके राजा बलके श्रीकांता नामकी एक कन्या थी। जवान होनेपर उसका स्वयंवर हुआ । श्रीषेणके पुत्र इन्दुषेणको कन्याने पसंद किया। दोनोंका ब्याह हुआ । श्रीकांता जब सुसरालमें आई तब उसके साथ अनंतमतिका नामकी एक वेश्या भी आई थी। उस वेश्याके रूपपर इंदुषेण और बिंदुषेण दोनों मुग्ध हो गये । फिर उसको पानेके लिए दोनोंने यह फैसला किया कि, हम द्वंद्व युद्ध करें । जो
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जैन-रत्न
जीता रहेगा वह वेश्याको रखेगा। दोनों लड़ने लगे । मातापिताने उन्हें बहुत समझाया । मगर वे न माने । तब श्रीषेणने जहर मिला हुआ फूल सूंघकर आत्महत्या कर ली। दोनों राणियोंने भी राजाका अनुसरण किया। सत्यभामाने भी यह सोचकर जहरवाला फूल सँघ लिया कि अगर जीति रहूँगी तो अब कपिल मुझे अपने घर जरूर ले जायगा।
दोनों भाई युद्ध कर रहे थे उसी समय कोई विद्याघर विमानमें बैठकर आया । दोनोंको लड़ते देखकर वह नीचे आया और बोला:-" विषयांध मूर्यो! यह तुम्हारी बहिन है। उसे जाने बिना कैसे उसे अपनी सुखसामग्री बनानेको लड़ रहे हो ?" दोनों लड़ना बंद कर खड़े हो रहे और बोले:बताओ यह हमारी बहन किस तरह है ?"
विद्याधर बोला:-" मेरा नाम मणिकुंडली है । मेरे पिताका नाम सुकुंडली है । पुष्कलावती प्रांतमें वैताढ्य पर्वत पर आदित्यनाभ नामका नगर मेरे पिताकी राजधानी है । मैं विमानमें बैठकर अमितयश नामके जिन भगवानको वंदना करने गया था। वहाँ मैंने भगवानसे पूछा, “ मैं किस कर्मसे विद्याधर हुआ हूँ ?" भगवानने जवाब दिया,-" वीतशोका नामकी नगरीमें रत्नध्वज नामका चक्रवर्ती राजा राज करता था। उसके कनकश्री और हेममालिनी नामकी दो रानियाँ थीं। कनकश्रीके कनकलता और पद्मलता नामकी दो लड़कियाँ हुई। हेममालिनीके एक कन्या हुई । उसका नाम पद्मा था। पद्मा एक आयोके पास धर्मध्यान और तप जप करने लगी। अंतमें
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१६ श्री शांतिनाथ-चरित
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उसने दीक्षा ले ली। एक बार उसने चतुर्थ तप किया था ।
और दिशा फिरने गई थी। रस्तेमें उसने दो योद्धाओंको एक वेश्याके लिए लड़ते देखा । उसने सोचा, वह वेश्या भाग्यमती है, कि उसके लिए दो वीर लड़ रहे हैं। मेरे तपका मुझे भी यही फल मिले कि, मेरे लिए दो वीर लहें । अंतमें नियाणेके साथ मरकर वह देवलोकमें जन्मनेके बाद अब अनंतमतिका नामकी वेश्या हुई है। कनकलता और पद्मलता मर, भवभ्रमण कर, अब इन्दुषेण और बिन्दुषेण नामके राजपुत्र हुए हैं। तुम कनकश्री थी। अभी इन्दुषेण और बिन्दुषेण अनंतमतिकाके लिए लड़ रहे हैं। तुम जाकर उन्हें समझाओ । " इसी लिए में तुम्हारे पास आया हूँ।" __ यह हाल सुनकर उनको बड़ा अफसोस हुआ। दुनियाकी इस विचित्रतासे उन्हें वैराग्य हुआ और उन्होंने धर्मरुचि नामक आचर्यके पाससे दीक्षा ले ली। श्रीषेण, अभिनंदिता, शिखिनंदिता और सत्यभामाके जीव
मरकर जंबूद्वीपके उत्तर क्षेत्रमें जुगलिया उत्पन २ दूसरा भव हुए। श्रीषेण और अभिनंदिता पुरुष स्त्री हुए और
शिखिनंदिता व सत्यभामा स्त्री पुरुष हुए। उनकी आयु तीन पल्योपमकी और उनका शरीर तीन कोस ऊँचा था।
३ तीसरा भव श्रीषेणादि चार युगलियोंकी मृत्यु हुई और चे प्रथम कल्पमें देव हुए।
भरत क्षेत्रमें वैतान्य गिरिपर रथनुपुर चक्रवाल नामका शहर
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जैन-रत्न
था। उसमें जलनजटी नामका विद्याधर राजा चौथा भव (श्री- राज्य करता था। उसके अर्ककीर्ति नामका पुत्र षेणका जीव और स्वयंप्रभा नामकी पुत्री थी। अर्ककीर्तिका ब्याह अमिततेज विद्याधरोंके राजा मेघवनकी पुत्री ज्योतिर्माला हुआ) के साथ हुआ । श्रीषेण राजाका जीव सौधर्म
कल्पसे च्यवकर ज्योतिर्मालाके गर्भमें आया । ज्योतिर्मालाने उस रातको, अपने तेजसे आकाशको प्रकाशित करते हुए एक सूर्यको अपने मुखमें प्रवेश करते देखा । समयपर पुत्रका जन्म हुआ । उसका नाम अमिततेज रखा गया । अमिततेतजके दादा ज्वलनजटीने अर्ककीर्तिको राज्य देकर जगन्नंदन और अभिनंदन नामक चारण ऋषिके पाससे दीक्षा ले ली।
सत्यभामाका जीव भी च्यवकर ज्योतिर्मालाके गर्भसे पुत्री रूपमें उत्पन्न हुआ। उसका नाम सुतारा रखा गया।
अर्ककीर्तिकी बहिन स्वयंप्रभाका ब्याह त्रिपृष्ठ वासुदेवके साथ हुआ था। अभिनंदिताका जीव सौधर्मकल्पसे च्यवकर स्वयंप्रभाके गर्भसे पुत्ररूपमें उत्पन्न हुआ। उसका नाम श्रीविजय रखा गया। शिखिनंदिताका जीव भी प्रथम कल्पसे ज्यवकर स्वयंप्रभाके गर्भसे पुत्री रूपमें उत्पन्न हुआ। उसका नाम ज्योतिःप्रभा रखा गया। स्वयंप्रभाके एक विजयभद्र नामका तीसरा पुत्र भी जन्मा।
सत्यभामाके पति कपिलका जीव अनेक योनियों में फिरता
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१६ श्री शांतिनाथ-चरित
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हुआ चमरचंचा नामकी नगरीमें अशनिघोष नामका विद्याधरोंका प्रसिद्ध राजा हुआ। .
अर्ककीर्तिने अपनी पुत्री सुताराका ब्याह त्रिपृष्ठके पुत्र श्रीविजयके साथ किया और त्रिपृष्ठने अपनी कन्या ज्योतिःप्रभाका ब्याह अर्ककीर्तिके पुत्र अमिततेजके साथ कर दिया।
कुछ कालके बाद अर्ककीर्तिने अपने पुत्र अमिततेजको राज्य देकर दीक्षा ले ली।
त्रिपृष्ठका देहांत हो गया और उसके भाई अचल बलभद्रने त्रिपृष्ठके पुत्र श्रीविजयको राज्य देकर दीक्षा ले ली। ___ एक बार अमिततज अपनी बहिन सुतारा और बहनोई श्रीविजयसे मिलनेके लिए पोतनपुरमें गया । वहाँ जाकर उसने देखा कि सारे शहरमें आनंदोत्सव मनाया जा रहा है। __ अमिततेजने पूछा:-" अभी न तुम्हारे पुत्र जन्मा है, न वसंतोत्सवका समय है न कोई दूसरा खुशीका ही मौका है फिर सारे शहरमें यह उत्सव कैसा हो रहा है ?" ___ श्रीविजयने उत्तर दिया:-" दस रोज पहले यहाँ एक निमित्तज्ञानी आया था। उसने कहा था कि, आजके सातवें दिन पोतनपुरके राजापर बिजली गिरेगी। यह सुनकर मंत्रियोंकी सलाहसे मैंने सात दिनके लिए राज्य छोड़ दिया और राज्यासिंहासनपर एक यक्षकी मूर्तिको बिठा दिया। में आबिलका तप करने लगा । सातवें दिन बिजली गिरी और यक्षकी मूर्तिके टुकड़े हो गये । मेरी प्राणरक्षा हुई इसीलिए सारे शहरमें आनंद मनाया जा रहा है।"
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१६८
जैन-रत्न
यह सुन अमिततेज और ज्योतिःप्रभाको बहुत खुशी हुई। थोड़े दिन रहकर दोनों पतीपत्नी अपने देशको चले गये ।
एक बार श्रीविजय और सुतारा आनंद करने ज्योतिर्वन नामके वनमें गये । उस समय कपिलका जीव अशनिघोष प्रतारणी नामकी विद्याका साधनकर उधरसे जा रहा था । उसने सुताराको देखा । उसपर वह पूर्वभवके प्रेमके कारण मुग्ध हो गया और उसने उसको हर ले जाना स्थिर किया।
उसने विद्याके बलसे एक हरिण बनाया । वह बड़ा ही सुंदर था। उसका शरीर सोनेसा दमकता था। उसकी आँखें नील कमलसी चमक रही थीं। उसकी छलांगें हृदयको हर लेती थीं। सुताराने उसे देखा और कहा:-" स्वामी मुझे यह हरिण पकड़ दीजिए।"
श्रीविजय हरिणके पीछे दौड़ा । वह बहुत दूर निकल गया । इधर अशनिघोषने सुताराको उठा लिया और उसकी जगह बनावटी सुतारा डाल दी । यह चिल्लाई-" हाय ! मुझे साँपने काट खाई ।" यह चिल्हाहट सुनकर श्रीविजय पीछा आया । उसने बेहोश सुताराके अनेक इलाज किये । मगर कोई इलाज कारगर न हुआ । होता ही कैसे ? जब वहाँ सुतारा थी ही नहीं फिर इलाज किसका होता ?
थोड़ी देरके बाद उसने देखा कि, सुताराके प्राण निकल गये हैं । यह देखकर वह भी बेहोश हो गया । नौकरोंने उपचार किया तो वह होशमें आया । सचेत होकर वह अनेक तरहसे विलाप करने लगा। अंतमें एक बहुत बड़ी चिता तैयार
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१६ श्री शांतिनाथ-चरित
१६९
करा उसने भी अपनी पत्नीके साथ जल मरना स्थिर किया । धू धू करके चिता जलने लगी।
उसी समय दो विद्याधर वहाँ आये । उन्होंने पानी मंत्रकर चितापर डाला । चिता शांत हो गई और उसमेंसे प्रतारणी विद्या अट्टहास करती हुई भाग गई । श्रीविजयने आश्चर्यसे ऊपरकी तरफ देखा । उसने अपने सामने दो युवकोंको खड़े पाया । श्रीविजयने पूछा:-" तुम कौन हो ? यह चिता कैसे बुझ गई है ? मरी हुई सुतारा कैसे जीवित हुई है और वह हँसती हुई कैसे भाग गई है ?" ___ उनमें से एकने हाथ जोड़कर नम्रतापूर्वक जवाब दियाः
" मेरा नाम संभिन्नश्रोत है । यह मेरा पुत्र है । इसका नाम दीपशिख है। हम स्वामीसे आज्ञा लेकर तीर्थयात्राके लिए निकले थे। रास्तेमें हमने किसी स्त्रीके रुदनकी आवाज सुनी । हम रुदनकी तरफ गये। हमने देखा कि हमारे स्वामी अमिततेजकी बहिन सुताराको दुष्ट अशनिघोष जबर्दस्ती लिये जा रहा है और वे रस्तेमें विलाप करती जा रही हैं। हमने जाकर उसका रस्ता रोका और उससे लड़नेको तैयार हुए । स्वामिनीने कहा,-"पुत्रो! तुम तुरत ज्योतिर्वनमें जाओ और उनके प्राण बचाओ । मुझे मरी समझकर कहीं वे प्राण न दे दें । उनको इस दुष्टताके समाचार देना । वे आकर इस दुष्ट पापीके हाथसे मेरा उद्धार करेंगे।" हम तुरत इधर दौड़े आये।
और मंत्रबलसे हमने अनिको बुझा दिया । बनावटी सुतारा जो मंत्रबलसे बनी हुई थी-भाग गई ।"
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१७०
जन-रत्न wmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmar
यह हाल सुनकर श्रीविजयका दुःख क्रोधमें बदल गया । उसकी भ्रकुटि तन गई। उसके होंठ फड़कने लगे। वह बोला:"दुष्टकी यह मजाल ! चलो मैं इसी समय उसे दंड दूंगा और सुताराको छुड़ा लाऊँगा।"
सांभन्नश्रोत बोला:-स्वामिन् आप हमारे स्वामी अमिततेजके पास चलिए । उनकी मददसे हम स्वामिनी सुताराको शीघ्र ही छुड़ाकर ला सकेंगे। अशनिघोष केवल बलवान ही नहीं है, विद्यावान भी है। वह जब बलसे हमको न जीत सकेगा तो विद्यासे हमें परास्त कर देगा। हमारे पास उसके जितनी विद्या नहीं है।" ___ श्रीविजयको संभिन्नश्रोतकी बात पसंद आई। वह विद्याधरोंके साथ वैताढ्य पर्वतपर गया। अमिततेजने बड़े आदरसे उसका स्वागत किया और इस तरह आनेका कारण पूछा । संभिन्नश्रोतने अमित तेजको सारी बातें कहीं । सुनकर अमिततेजकी आँखें लाल हो आईं। उसके पुत्र क्रुद्ध होकर बोले:-"दुष्टकी इतनी हिम्मत कि वह अमित तेजकी बहनका हरण कर जाय । पिताजी ! हमें आज्ञा दीजिए । हम जाकर दुष्टको दंड दें और अपनी फूफीको छुड़ा लावें ।" . अमिततजने श्रीविजयको शस्त्रावरणी ( ऐसी विद्या जिससे कोई शस्त्र असर न करे ) बंधनी ( बाँधनेवाली ) और मोक्षणी ( बंधनसे छुड़ानेवाली ) ऐसी तीन विद्याएँ दी और फिर अपने पुत्र रश्मिवेग, रविवेग आदिको फौज देकर कहा:"पुत्रो ! अपने फूफाके साथ युद्धमें जाओ और दुष्टको दंड
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१६ श्री शांतिमाथ-चरित
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देकर अपनी फूफीको छुड़ा लाओ। युद्धमें पीठ मत दिखाना । जीतकर लौटना या युद्ध में लड़कर प्राण देना" __ श्रीविजय सहस्रावधी सेना लेकर चमरचंचा नगरी पर चढ़ गया। उसने नगरको घेर लिया और अशनिघोषके पास दूत भेजा। दूतने जाकर अशनिघोषको कहा:-" हे दुष्ट ! चोरकी तरह तु हमारी स्वामिनी सुताराको हर लाया है । क्या यही तेरी वीरता और विद्या है ? अगर शक्ति हो तो युद्धकी तैयारी कर अन्यथा माता सुताराको स्वामी श्रीविजयके सपुर्द कर उनसे क्षमा माँग ।" __ अशनिघोषने तिरस्कारके साथ दूतको कहा:-" तेरे स्वामीको जाकर कहना, अगर जिंदगी चाहते हो तो चुपचाप यहाँसे लौट जाओ। अगर सुताराको लेकर जानेहीका हट हो ता मेरी तलवारसे यमधामको जाओ और वहाँ सुताराकी इन्तजारी करो।"
दूतने आकर अशनिघोषका जवाब सुनाया। श्रीविजयने रणभेरी बजवा दी । अशनिघोषके पुत्र युद्ध के लिए आये । अमिततेजके पुत्रोंने उन सबका संहार कर दिया। यह सुनकर अशनिघोष आया और उसने अमिततेजके पुत्रोंका नाश करना शुरू किया। तब श्रीविजय सामने आगया। उसने अशनिघोषके दो टुकड़े कर दिये । दो टुकड़ेंके दो अशनिघोष हो गये । श्रीविजयने दोनोंके चार टुकड़े कर डाले तो चार अशनिघोष हो गये। इस तरह जैसे जैसे अशनिघोषके टुकड़े होते जाते थे वैसे ही
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वैसे अशनिघोष बढ़ते जाते थे और वे श्रीविजयकी फौजका संहार करते जाते थे। इस तरह युद्धको एक महीना बीत गया। श्रीविजय अशनिघोषकी इस मायासे व्याकुल हो उठा । ____ अमिततेज जानता था कि अशनिघोष बड़ा ही विद्यावाला है। इसलिए वह परविद्याछेदिनी महाज्वाला नामकी विद्या साधनेके लिए हिमवंत पर्वतपर गया । अपने पराक्रमी पुत्र सहस्ररश्मिको भी साथ लेता गया। वहाँ एक महीनेका उप वास कर वह विद्या साधने लगा । उसका पुत्र जाग्रत रहकर उसकी रक्षा करने लगा।।
विद्या साधकर अमिततेज ठीक उस समय चमरचंचा नगरमें आ पहुँचा जिस समय श्रीविजय अशनिघोषकी मायासे व्याकुल हो रहा था। अमिततेजने आते ही महाज्वाला विद्याका प्रयोग किया। उससे अशनिघोषकी सारी सेना भाग गई । जो रही वह अमिततेजके चरणोमें आ पड़ी। अमिततेज प्राण लेकर भागा । महाज्वाला विद्या उसके पीछे पड़ी।
अशनिघोष भरतार्द्धमें सीमंत गिरिपर केवलज्ञान प्राप्त बलदेव मुनिकी शरणमें गया। अशनिघोषको केवलीकी सभामें बैठा देख महाज्वाला वापिस लौट आई। कारण- केवलीकी सभामें कोई किसीको हानि नहीं पहुंचा सकता है।' महाज्वालाके मुखसे बलदेव मुनिको केवलज्ञान होनेकी बात सुनकर अमिततेज, श्रीविजयादि सभी विमानमें बैठकर केवलीकी सभाम गये सुताराको भी वे अपने साथ लेते गये थे । अशनिघोष भाग गया था तब उन्होंने सुताराको पीछेसे बुला ली थी।
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१६ श्री शांतिनाथ - चरित
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जब केवली देशना दे चुके तब अशनिघोषने पूछा:-- “मेरे मनमें कोई पाप नहीं था तो भी सुताराको हर लानेकी इच्छा मेरी क्यों हुई ?" केवलीने सत्यभामा और कपिलका पूर्व वृत्तांत सुनाया और कहा :- " पूर्वभवका स्नेह ही इसका मुख्य कारणथा । "
फिर अमिततेजने पूछा:- " हे भगवान ! मैं भव्य हूँ या अभव्य १" केवलीने उत्तर दिया :- " इससे नवें भवमें तुम्हारा जीव पाँचवाँ चक्रवर्ती और सोलहवाँ तीर्थकर होगा और श्रीविजय राजा तुम्हारा पहला पुत्र और पहला गणधर होगा ।"
अशनिघोषने संसार से विरक्त होकर वहीं बलभद्र मुनिसे दीक्षा ले ली। अमिततेजादि अपनी अपनी राजधानियोंमें गये । फिर अनेक बरसों तक धर्मध्यान, प्रभुभक्ति, तीर्थयात्रा और व्रत संयम करते रहे। अंतमें दोनोंने दीक्षा ले ली ।
आयु समाप्तकर अमिततेज और श्रीविजय प्राणत नामके दसवें कल्पमें उत्पन्न हुए । वहाँ वे पाँचवाँ भव सुस्थितावर्त और नंदितावर्त नामके विमानके स्वामी मणिचूल और दिव्यचूल । बीस सागरोपमकी आयु उन्होंने
नाम के देवता हुए सुखसे बिताई ।
छठा भव ( अपराजित बलदेव )
[ इसमें अनंत वीर्य वासुदेव और दमितारी प्रति वासुदेवकी कथा एँ भी शामिल हैं । ] इस जम्बूद्वीपमें सीता नदीके दक्षिण तटपर धनधान्य पूर्ण एवं समृद्धि शालिनी शुभा नामक एक नगरी थी ।
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इस नगरी में स्तिमितसागर नामक राजा राज्य करता था। उसके वसुंधरा और अनुद्धरा नामकी दो रानियाँ थीं । रातको वसुंधरा देवीने बलदेवके जन्मकी सूचना देनेवाले चार स्वम देखे । पूर्व जन्मके अमिततेज राजाका जीव नंदितावर्त विमानसे च्यवकर उनकी कोखमें आया ।
गर्भ समय पूर्ण होनेके बाद महादेवीके गर्भसे, श्रीवत्सके चिह्नवाला, श्वेतवर्णी, एवं पूर्ण आयुवाला, एक सुन्दर पुत्र उत्पन्न हुआ; जिसका नाम अपराजित रक्खा गया।
इधर अनुदरा देवीकी कोखसे, पूर्व जन्मके विजय राजाका जीव आया। उसी रात को महादेवीने वासुदेवके जन्मकी सूचना करनेवाले सात महास्वप्न देखे । गर्भका समय पूरा होनेके बाद शुभ दिनको, महादेवी अनुद्धराके गर्भसे, श्यामवर्णी एक सुन्दर बालकका जन्म हुआ । राजाने जन्मोत्सव करके उसका नाम अनंतवीर्य रक्खा ।
एक समय शुभा नगरीके उद्यानमें स्वयंप्रभ नामक एक महा मुनि आये । राजा स्तिमितसागर उस दिन फिरता हुआ उसी उद्यानमें जा निकला । वहाँ महा मुनिके दर्शन कर राजाको आनंद हुआ। मुनि ध्यानमें बैठे थे । इसलिए राजा उनके तीन प्रदक्षिणा दे, हाथ जोड़ सामने बैठ गया । जब मुनिने ध्यान छोड़ा तब राजाने भक्तिपूर्वक उन्हें वंदना की । मुनिने धर्मलाभ देकर धर्मोपदेश दिया । इससे राजाको वैराग्य हो गया। उसने अपनी राजधानीमें जाकर अपने पुत्र अनंतवीर्यको
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राज्य दिया, फिर स्वयंप्रभ मुनिके पास जाकर दीक्षा ग्रहण की और चिर काल तक चारित्र पाला । एक बार मनसे चारित्रकी विराधना हो गई, इससे वह मरकर भुवनपति निकायमें चमरेन्द्र हुआ। ___ अनंतवीर्यने जबसे शासनकी बाग डोर अपने हागमें ली, तबसे वह एक सच्चे नृपतिकी तरह राज्य करने लगा। उसका भ्राता अपराजित भी राज्य कार्यमें अनंतवीर्यका हाथ बँटाने लगा । एक समय कोई विद्याधर उनकी राजधानीमें आ निकला । उसके साथ उन दोनों भाइयोंकी मैत्री हो गई । इस कारणसे वह उनको म विद्या देकर चला गया ।
अनंतवीर्यके यहाँ बबरी और किराती नामकी दो दासियाँ थीं। वे संगीत, नृत्य एवं नाट्यकलामें बड़ी निपुण थीं। वे समयपर अनंतवीर्य और अपराजितको अपनी विविध कलाओं द्वारा बड़ा आनन्द दिया करती थीं।
एक समय अनंतवीर्य वासुदेव और अपराजित बलदेव राजसभामें उन रमणियोंकी नाट्यकलाका आनन्द लूट रहे थे। चारों ओर हर्ष ही हष था। उसी अवसरपर, दूसरोको लड़ा देनेमें ख्यात, नारदका राजसभामें आगमन हुआ। मगर दोनों भाई नाटक देखनेमें इतने निमग्न थे कि वे नारद मुनिका यथोचित सत्कार न कर सके । बस फिर क्या था ? नारद मुनि उखड़ पड़े और अपने मनमें यह सोचते हुए चले गये कि मैं इस अपमानका इन्हें अभी फल चखाता हूँ। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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वायुवेगसे वे वैताढ्य गिरीपर गये और दमितारी नामक विद्याधरोंके राजाकी सभा पहुँचे । राजाने अचानक मुनिका आगमन देखकर सिंहासन छोड़ दिया। उनका स्वागत करने के लिए वह सामने आया और उसने उन्हें, नम्रतापूर्वक अभिवादन कर, उचित आसनपर बिठाया । मुनिने आशीर्वाद देकर कुशल प्रश्न पूछा । यथोचित उत्तर देकर दमितारिने कहा:-" मुनिवर्य ! आप स्वच्छन्द होकर सब जगह विचरते हैं और सब कुछ देखते और सुनते हैं । इस लिए कृपाकर कोई ऐसी आश्चर्य युक्त बात बतलाइये जो मेरे लिए नई हो ।" ___ नारद तो यही मौका ढूँढ रहे थे, बोले:-" राजन् ! सुनो, एक समय मैं घूमता घामता शुभा नगरीमें जा निकला । वहाँ अनंतवीर्यकी सभामें बर्बरी और किराती नामक दो दासियाँ देखीं। वे संगीत, नाट्य, एवं वाद्य कलामें बड़ी चतुर हैं । उनकी विद्या देखकर मैं तो दंग रह गया। स्वर्गकी अप्सराएँ तक उनके सामने तुच्छ हैं । हे राजा ! वे दासियाँ तेरे दरबारके योग्य हैं।"
इस तरहका विषबीज बोकर नारद मुनि आकाश मार्गसे अपने स्थानपर गये। उनके जानेके बाद दमितारिने अपने एक दूतको बुलाया और धीरेसे उसको कुछ हुक्म दिया । दूतने उसी समय शुभा नगरीको प्रस्थान किया और अनंतवीर्यकी राजसभामें जाकर कहा:-" राजन् ! आपकी सभामें बर्बरी और किराती नामकी जो दासियाँ हैं। उन्हें हमारे स्वामी दमितारिके भेंट करो, क्योंकि वे गायनवादनकलामें अद्भुत हैं। और जो कोई अनोखी वस्तु अधीनस्थ राजाके यहाँ हो वह स्वामीके घर ही पहुँचनी चाहिए।"
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दूतके ये वचन सुनकर अनंतवीर्यने कहा:जा । हम विचार कर शीघ्र ही जवाब भेजेंगे।" दूत लौट गया और उसने राजाको कहा:-" लक्षणसे तो ऐसा मालूम होता है कि वे तुरत ही दासियोंको स्वामीके चरणों में भेज देंगे।"
दोनों भाइयोंके हृदयमें दमितारीकी इस अनुचित माँगसे क्रोधकी ज्वाला जल उठी; मगर दमितारी विद्याबलसे बली होनेके कारण वे उसको परास्त नहीं कर सकते थे । इसलिए थोड़ी देर चुपचाप सोचते रहे । फिर अनंतवीर्य बोला:-- " राजा दमितारी अपने विद्याबलसे हमें इस प्रकारकी घुड़कियाँ देता है। अगर हमारे पास भी विद्या होती तो उसे कभी ऐसा साहस न होता । अतः हमको भी चाहिये कि हम भी हमारे मित्र विद्याधरकी दी हुई विद्याकी साधना कर बलवान बनें।"
वे ऐसा विचार कर ही रहे थे कि विज्ञप्ति आदि विद्याएँ प्रकट हुई। उन्होंने निवेदन कियाः-" हे महानुभाव ! जिन विद्याओंके विषयमें आप अभी बातें कर रहे थे, हम वे ही विद्याएँ हैं। आपने हमें पूर्व जन्महीमें साध ली थीं। इसलिये अभी हम आपके याद करते ही आपकी सेवामें हाजिर हो गई हैं।" यह सुन दोनों भाइयोंको बड़ा आनंद हुआ। विद्याएँ उनके आधीन हुई।
एक दिन दमितारीका दूत आकर राजसभामें बड़े अपमान जनक वचन बोला:-"रे अज्ञान राजा ! तूने घमंडमें आकर स्वामीकी आज्ञाका उल्लंघन किया है और अभी तक अपनी दासियोंको नहीं भेजा है। जानता है इसका क्या फल होगा?"
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यह सुनकर अनंतवीयको यद्यपि क्रोध हो आया था, परन्तु उसने जहरकी यूंट पी ली और गंभीर स्वरमें कहाः- "तुम ठीक कहते हो । इसका क्या फल होगा ? राजाने रत्नाभूषण, हाथी, घोड़े आदि बड़ी २ मूल्यवान वस्तुएँ नहीं माँगी हैं । माँगीं हैं केवल दासियाँ । राजाकी यह तुच्छ इच्छा भी क्या मैं पूरी न करूँगा? ठहर, मैं अभी ही तेरे साथ दासियोंको भेज देता हूँ"
विद्याके बलसे अनंतवीर्य और अपराजित बर्षरी और किरातीका रूप धारण कर दूतके साथ दमितारीकी राजसभामें उपस्थित हुए । दूतने अपने स्वामीको प्रणाम करनेके बाद उन दोनों नर्तकियोंको हाजिर किया । महाराजने सौम्य दृष्टिसे उनकी तरफ देखा और उनको अपनी कला दिखलानेके लिए कहा।
महाराजकी आज्ञासे उन नटियोंने अपनी नाट्यकलाका अपूर्व परिचय देना प्रारंभ किया । रंगमंचपर नाना प्रकारके अभिनय दिखाकर उन्होंने दर्शकोंके हृदयपर विजय प्राप्त कर ली । उनकी कलामें ऐसी निपुणता देखकर दमितारी उत्साहके साथ बोला:-" सचमुच ही संसारमें तुम दोनों रत्नके समान हो । हे नटियो ! मैं तुमपर प्रसन्न हूँ ! तुम आनंदसे मेरी पुत्री कनकश्रीकी सखियाँ बनकर रहो और उसको नृत्य, गान आदिकी शिक्षा दो।"
पूर्ण यौवना सुंदरी कनकधीको कपटवेषी दोनों भाई अच्छी तरह नाट्यकला सिखाने लगे । बीच बीचमें अपराजित अनंतवीर्यके रूप, गुण एवं शौर्यकी प्रशंसा कर दिया करता था। एक दिन कनकश्रीने अपराजित से पूछा:-"तुम जिसकी प्रशंसा
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करती हो वह कैसा है ? मुझे पूरा हाल सुनाओ ।" उसने कहाः-"अनंतवीर्य शुमा नगरीका राजा है । उसका रूप कामदेवके जैसा है। शत्रुका वह काल है, याचकोंके लिए वह साक्षात लक्ष्मी है और पीडितोंके लिए वह निर्भय स्थान है । उसके मैं क्या बखान करूँ?" इस तरह अनंतवीर्यकी तारीफ सुनकर कनकश्री उसको देखनेके लिए लालायित हो उठी। उसके चहरेपर उदासी छा गई। यह देखकर अपराजित बोला:" भद्रे ! सोच मत करो । अगर चाहोगी तो शीघ्र ही अनन्तवीर्यके दर्शन होंगे।"
कनकधी बोली:-" मेरे ऐसे भाग कहाँ हैं कि मुझे अनन्तवीर्यके दर्शन हों । अगर तु मुझे उनके दर्शन करा देगी तो मैं जन्मभर तेरा अहसान माँनूगी । "
"अच्छा ठहरो ! मैं अभी अनंतबीयको लाती हूँ।" कह कर अपराजित बाहर गया और थोड़ी ही देरमें अनंतवीर्यको लेकर वापिस आया । कनकत्री उस अद्भुत रूपको देखकर मुग्ध हो गई । उसने अपना जीवन अनंतवीर्यको सौंप दिया। ___ अनंतवीर्य बोला:-"कनकधी ? अगर शुभा नगरीकी महाराणी बनना चाहती हो तो मेरे साथ चलो।" कनकश्रीने उत्तर दिया:-" मेरे बलवान पिता आपको जगतसे विदा कर देंगे।" ___ अपराजित हँसा और बोला:-"तुम्हारा पिना ही दुनियामें वीर नहीं है । अनंतवीर्यकी विशाल वीर भुजाओंकी तलवार तुम्हारा पिता न सह सकेगा । तुम बेफिक्र रहो और इच्छा हो
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तो शीघ्र ही शुभा नगरीको चली चलो।"" मैं तैयार हूँ।" कहकर कनकश्रीने अपनी सम्मति दी । “ तब चलो।" कहकर अनंतवीर्य राजसभाकी ओर बढ़ा। कनकभी भी उसके पीछे चली । अपराजित भी असली रूप धर उनके पीछे हो लिया। ये तीनों राजसभामें पहुँचे । राजा और दर्बारी सभी उन्हें आश्चर्यके साथ देखने लगे। अनंतवीर्य धनगंभीर वाणीमें बोला:-“हे दमितारी और उसके सुभटो ! सुनो ! हम अनंतवीर्य और अजितारी राजकन्या कनकधीको ले जा रहे हैं। तुमने हमारी दासियाँ चाही थीं। वे तुम्हें न मिली; मगर आज हम तुम्हारी राजकन्या ले जा रहे हैं । जिनमें साहस हो वे आवें और हमारा मार्ग रोकें । तुम्हें हमने सूचना दे दी है। पीछेसे यह न कहना कि हम राजकन्याको चुराकर ले गये।" अनंतवीर्य कनकधीको उठाकर वहाँसे चल निकला। अपराजितने उसका अनुसरण किया।
दमितारीके क्रोधकी सीमा न रही। उसने तत्काल ही अपने सुभटोंको आज्ञा दी:-"वीरो! जाओ और उन दृष्टोंको शीघ्र ही पकड़कर मेरे सामने लाओ!" __ आज्ञाकी देर थी। 'मारो' 'पकड़ो' की आवाजसे कानोंके पर्दे फटने लगे ।कोलाहलपूर्ण एक विशाल सेनाने टिड्डीदलकी तरह अनन्तवीर्यका पीछा किया। अनन्तवीर्यने अपने विद्याबलसे सेना बना ली । वह दमितारिकी सेनासे दुगनी थी। अब घोर संग्राम होने लगा । रणांगणमें वीर योद्धा अपनी रणविद्याका परिचय देने लगे । मार काटके सिवाय वहाँ और . कुछ नहीं
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था। दमितारीकी सेना कटते कटते हतोत्साह हो गई । उसी समय वासुदेव अनन्तवीर्यने अपने पांचजन्य शंखकी नादसे शत्रुसेनाको बिल्कुल ही हतवीर्य कर दिया।
दमितारी अपनी फौजकी यह हालत देखकर रथपर चढ़कर रणांगणमें आया । उसने अनंतवीर्यको ललकारा । अनन्तवीर्य भी उससे कब हटनेवाले थे । दोनों वीर अपने २ दिव्य शस्त्रोद्वारा युद्ध करने लगे । बहुत देर तक इसी तरह लड़नेके बाद दमितारिने अपने चक्रका सहारा लिया और उसको चलानेके पहले अनंतवीर्यसे कहा:-" रे दुर्मति ! अगर जीवन चाहता है तो अब भी कनकश्रीको मुझे सौंप और मेरी आधीनता स्वीकार कर, वरना यह चक्र तेरा प्राण लिए बिना न रहेगा।" __ ये वचन सुनकर अनंतवीर्यने हँसकर उत्तर दिया:"मूर्ख ! तू किस घमंडमें भूला है? मैं तेरे चक्रको का,गा, तुझे मारूँगा और तेरी कन्याको लेकर विजय दुंदुभि बजता हुआ अपनी राजधानीमें जाऊँगा।" इतना सुनते ही दमितारीने वासुदेवपर अपना चक्र चला दिया। चक्र लगनेसे वासुदेव मूच्छित हो गया। अपराजितकी सेवा शुश्रूषासे वह वापिस होशमें आया। अब अनंतवीर्यने भी अपने चक्रका प्रयोग किया। चक्रने अपनी करतूत बतलाई। उसने दमितारीका शिरच्छेद कर दिया।
उसी समय आकाशमें आकर देवताओंने विद्याधरोंको अनन्तवीर्यका प्रभुत्व स्वीकार करनेकी सम्मति दी और कहा:" हे विद्याधरो ! यह अनंतवीर्य विष्णु ( वासुदेव ) है और अपराजित उनका भाई बलभद्र है । इनसे तुम कभी जीत ने
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सकोगे ।" देवताओंकी यह वाणी सुनकर सबने उनकी आधीनता स्वीकार कर ली।
फिर अनन्तवीर्य कमलश्री और अपराजितके साथ शुभापुरीको रवाना हुए। वे मार्गमें मेरु पर्वतपरसे गुजरे। विद्याधरोंने प्रार्थना क:-" पर्वतपरके जैनमंदिरोंके दर्शन करते जाइए।" तदनुसार अनन्तवीर्यने सबके साथ मेरु पर्वतपर जैन चैत्योंके दर्शन किये । वहाँ पर उन्हें कीर्तिधर नामक मुनिके भी दर्शन हुए। उसी समय उन मुनिके घाति कर्म नाश हुए थे और उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था । देवता उनको वन्दना करनेके. निमित्त वहाँ आये हुए थे। अनन्तवीर्य आदि बहुत खुश हुए। वे मुनीके प्रदक्षिणा देकर पर्षदामें बैठे और देशना सुनने लगे। देशना खतम होनेके बाद कनकश्रीने मुनिसे प्रश्न कियाः-" भगवन ! मेरे पिताका वध और मेरे बान्धवोंसे विरह होनेका क्या कारण है ?"
मुनि बोले:-"धातकी खण्ड नामक द्वीपमें शंखपुर नामक एक समृद्धिशाली गाँव था। उसमें श्रीदत्तानामकी एक गरीब स्त्री रहती थी। वह दूसरोंके यहाँदासत्ति कर अपना निर्वाह किया करती थी।
एक समय श्रीदत्ता भ्रमण करती हुई देवगिरिपर चढ़ी। वहाँपर उसे सत्ययशा नामक महामुनिके दर्शन हुए । श्रीदत्ताने बंदना की और मुनिने 'धर्मलाभ ' दिया । श्रीदत्ता बोली:" भगवन् ! मैं अपने पूर्व जन्मके दुष्कर्मोंसे इस जन्ममें बड़ी दुःखी हूँ । इसलिये कोई ऐसा माग मुझे बताइए जिससे मैं इस हालतसे छूट जाऊँ।" दयालु मुनिने उस दुःखी अबलाको धर्म
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चक्रवाल नामका एक मंत्र बतलाकर कहा:-" हे स्त्री ! देवगुरुकी आराधनामें लीन होकर तू दो और तीन रात्रिके क्रमसे साढे तीस उपवास करना ।इस तपके प्रभावसे तुझे फिर कभी ऐसा कष्ट सहन नहीं करना पड़ेगा।" ___ श्रीदत्ताने तप आरंभ किया । उसके प्रभावसे पारणेमें ही स्वादिष्ट भोजन खानेको मिला । अब दिन २ उसके घरमें समृद्धि होने लगी। उसके खान, पान, रहन, सहन, सभी बदल गये । एक दिन उसको जीर्ण शीर्ण घरमेंसे स्वर्णादि द्रव्यकी प्राप्ति हुई । इससे उसने चैत्यपूजा और साधु साध्वियोंकी भक्ति करनेके लिए एक विशाल उद्यापन (उजमणा) किया। ___ तपस्याके अंतमें वह किन्हीं साधुको प्रतिलाभित करनेके लिए दर्वाजेपर खड़ी रही । उसे सुव्रतमुनि दिखे । उसने बड़े भक्तिभावके साथ प्रासुक अन्नसे मुनिको प्रतिलाभित किया। फिर उसने धर्मोपदेश सुननेकी इच्छा प्रकट की । मुनिजीने कहा:-" साधु जब भिक्षार्थ जाते हैं तब कहीं धर्मोपदेश देने नहीं बैठते, इसलिए तू व्याख्यान सुनने उपाश्रयमें आना । " साधु चले गये । श्रीदत्ता व्याख्यान सुनने उपाश्रयमें गई
और वहाँ उसने सम्यक्त्व सहित श्रावकधर्म स्वीकार किया। __धर्म पालते हुए एक बार श्रीदत्ताको सन्देह हुआ कि मैं धर्म पालती हूँ उसका फल मुझे मिलेगा या नहीं ? भावी प्रबल होता है । एक दिन जब वह सत्ययशा मुनिको वंदना करके घर लौट रही थी। उस समय उसने विमानपर बैठे हुए दो विद्याधरोंको आकाश मार्गसे जाते देखा। उनके रूपको देखकर
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श्रीदत्ता उनपर मोहित हो गई । वादमें उसके हृदयमें धर्मके प्रति जो संदेह उत्पन्न हुआ था उसको निवारण किये बिना ही वह मर गई।
प्राचीन कालमें वैताट्य गिरिपर शिवमन्दिर नामक बड़ा समृद्धि शाली नगर था। उसमें विद्याधरोंका शिरोमणि कनक पूज्य नामक राजा राज्य करता था । उसके वायुवेगा नामकी धर्मपत्नी थी। उस दम्पतीके मैं कीर्तिधर नामक पुत्र हुआ। मेरे अनिलवेगा नामकी एक धर्मपत्नी थी । उसकी कोखसे दमितारी नामक पुत्र हुआ । यही छठा प्रति वासुदेव था। ___एक समय विहार करते हुए भगवान शान्तिनाथ मेरे नगर
की ओर होकर निकले और नगरके बाहर उपवनमें विराजमान हुए। मैंने भगवानका आगमन सुन, दौड़कर दर्शन किये । दर्शन मात्रसे मुझे संसारसे वैराग्य उत्पन्न हो गया और मैं दीक्षा लेकर इस पर्वतपर आया और तप करने लगा । अब घातिया कोंके नाश होनपर मुझे केवलज्ञान प्राप्त हुआ है। उधर दमितारीके मदिरा नामकी रानीकी कोखसे श्रीदत्ताका जीव उत्पन्न हुआ और तुम उसकी पुत्री कनकधीके रूपमें विद्यमान हो । जिन धर्मके विषयमें तुम्हें सन्देह हुआ इसी कारणसे तुम्हें यह दुःख भोगना पड़ा है ।" - मुनिसे अपने पूर्व भवकी कथा सुनते ही कनकश्रीको वैराग्य उत्पन्न हो गया । वह विनय पूर्वक अपने पतिसे निवेदन करने लगी:-" प्राणेश ! उस जन्ममें मैंने ऐसे दुष्कृत्य किये जिससे ये फल भोग रही हूँ । न जाने आगे क्या होने
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वाला है । इसलिये मुझे शीघ्र ही दीक्षा ग्रहण करनेकी आज्ञा प्रदान कीजिए।" अपनी प्रियाकी यह प्रार्थना सुनकर अनंतवीर्यको बड़ा विस्मय हुआ। तो भी उसने कहाः-" प्रिये ! अपने नगरमें चलकर स्वयंप्रभ मुनिसे दीक्षा लेना।" कनकश्रीने पतिकी बात मान ली।। __ सबके साथ अनंतवीर्य अपनी राजधानीमें पहुँचा। वहाँ जाकर क्या देखता है कि, दमितारीकी पहले भेजी हुई सेनासे घिरा हुआ उसका पुत्र अनंतसेन बड़ी वीरतासे लड़ रहा है। इस तरह अपने भतीजेको शत्रुके चंगुलमें देखकर अपराजितको बड़ा क्रोध आया। उसने क्षणभरमें सारी सेनाको मार भगाया। फिर वासुदेवने सबके साथ नगरमें प्रवेश किया। बड़े समारोहके साथ अनंतवीर्यका अर्द्ध-चक्रीपनका अभिषेक हुआ। ___एक समय विहार करते हुए स्वयंप्रभ भगवान स्वेच्छासे शुभा नगरीके बाहर उद्यानमें आकर ठहरे । सब लोग दर्शनोंको गये । कनकश्रीने इस समय अपने पतिकी आज्ञासे दीक्षा ग्रहण कर ली। उसी दिनसे वह तप करने लगी और उसने क्रमसे एकावली, मुक्तावली, कनकावली, भद्र, महाभद्र और सर्वतोभद्र इत्यादि तप किये । अन्त में वे केवलज्ञान प्राप्तकर मोक्ष गईं। ___ वासुदेव अनंतवीर्य अपने भाई अपराजितके साथ राज्यलक्ष्मी भोगने लगे। अपराजितके विरता नामकी एक स्त्री थी। उससे सुमति नामकी एक कन्या उत्पन्न हुई । वह बाल्यावस्थाहीसे बड़ी धर्मनिष्ठा थी । वह श्रावकके बारह व्रत अखंड करती थी। एक दिन वह उपवासके उपरान्त पारणा करने बैठने ही वाली
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थी कि उसे द्वारकी तरफसे एक मुनि आते हुए दिखे । उसने झट उठते ही, अपने ही थालके अन्नसे मुनिको प्रति लाभित किया । उसी वक्त वहाँ वसुधारादि पाँच दिव्य प्रकट हुए । 'त्यागी महात्माओं को दिया हुआ दान अनंतगुणा फलदायी होता है । ' मुनि वहाँसे चले गये । उसके बाद रत्नदृष्टिकी खबर सुनकर बलभद्र और वासुदेव सुमतिके पास आये । इस घटना से सबको विस्मय हुआ । बालिकाके अलौकिक कार्यसे प्रसन्न होकर दोनों भाइयोंने सोचा कि इस बालिकाके लिए कौनसा योग्य वर होना चाहिए । आखिर उन्होंने महानन्द नामक मंत्री से सलाह करके स्वयंवर करनेका निश्चय किया ।
अब स्वयंवरकी तैयारियाँ होने लगीं । एक विशाल मण्डपकी रचना हुई । सब राजाओं और विद्याधरोंके यहाँ निमन्त्रण भेजे गये ।
निश्चित दिनको बड़े २ राजा महाराजा एकत्रित हुए । सुमति भी सोलह शृंगार करके अपनी सखी सहेलियोंके साथ हाथमें वरमाला लिए हुए मण्डपमें उपस्थित हुई । उसने एक बार सबकी तरफ देखा । स्वयंवरमंडप में उपस्थित सुमतिके पाणिप्रार्थी इस रूपकी अलौकिक मूर्तिको देखकर आश्चर्यमें डूब गये ।
उसी समय मण्डपके मध्य में स्वर्णसिंहासन पर विराजमान एक देवी प्रकट हुई । देवीने अपनी दाहिनी भुजा उठाकर सुमतिको कहा:-- “ मुग्धे धनश्री ! विचार कर ! अपने
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पूर्व भवका स्मरण कर ! यदि याद नहीं पड़ता हो तो सुन ! पुष्करवर द्वीपार्द्धमें, भरतक्षेत्रके मध्यखण्डमें विशाल समृद्धिवाला श्रीनंद नामक एक नगर था । उसमें महेन्द्र नामक राजा राज्य करता था। उसके अनंतमति नामकी एक रानी थी। उसके दो पुत्रियाँ हुई। उनमेंसे कनकधी नामकी कन्या तो मैं हूँ और धनश्री तू । जब हम दोनों युवतियाँ हुई तब एक समय दोनों प्रसंग वश गिरि पर्वतपर चढ़ीं । वहाँ एक रम्य स्थानमें हमें नंदनगिरि नामक मुनिके दर्शन हुए । बड़े भक्तिभावसे हमने उनकी देशना सुनी। फिर हमने गुरुजीसे निवेदन किया कि हमारे योग्य कोई आज्ञा दीजिए । तब गुरुजीने हमें योग्य समझ श्रावकके बारह व्रत समझाये हमने उन्हें, अंगीकार कर, निर्दोष पालना शुरू किया।
एक समय हम दोनों फिरती हुई अशोक वनमें जा निकलीं। उसी समय त्रिपृष्ट नगरका स्वामी विरांग नामक एक जवान विद्याधर हमको हर ले गया। परंतु उसकी स्त्री वज्रश्यालिकाने दयाकर हमें छोड़नेके लिए उसको मजबूर किया। उसने क्रुद्ध होकर हमें एक भयंकर वनमें ले जाकर फैंक दिया। हमारी हड्डियाँ पसलियाँ चूर चूर हो गई। अन्त समय जानकर हम दोनोंने अनशन व्रत लेकर नमोकार मंत्रका जाप आरंभ कर दिया। वहाँसे मरकर मैं सौधर्म देवलोकमें नवमिका नामक देवी हुई। तू भी वहाँसे मरकर कुबेर लोकपालकी मुख्य देवी हुई । वहाँसे च्यवकर तू बलभद्रकी पुत्री सुमति हुई है । देवलोकमें रहते समय हमारे बीचमें यह शर्त हुई थी कि जो पहले पृथ्वपिर
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जैन-रत्न m....~ आवे उसे दूसरी अहंत धर्मकी भक्तिकी याद दिलावे । इसीलिए मैं आज यहाँ आई हूँ । अब त संसारमें न फँस और जीवनको सार्थक बनानेके लिये दीक्षा ग्रहण कर ।" ___ इतना कहकर देवी मंडपको आलोकित करती हुई आकाश मार्गकी ओर चली गई । उधर वह गई और इधर सुमति पूर्व जन्मके वृतान्तकी याद आते ही भूञ्छित होकर जमीनपर गिर पड़ी । कुछ सेवा शुश्रूषाके बाद जब उसे चेत आया तो वह सभाजनोंसे हाथ जोड़कर विनयपूर्वक बोली:--" मेरे पिता और भाईके तुल्य उपस्थित सज्जनो! आपको मेरे लिए यहाँ निमन्त्रण दिया गया है । मगर मैं इस संसारसे छूटना चाहती हूँ। इसलिए आप विवाहोत्सवकी जगह मेरा दीक्षोत्सव मनाकर मुझे उपकृत कीजिए और मुझे दीक्षा लेनेकी आज्ञा दीजिए।"
राजा लोग यह विनय भरी वाणी सुनकर बोले:-"हे अनघे ! ऐसा ही हो । " सुमति सात सौ कन्याओंके साथ सुव्रत मुनिसे दीक्षा ग्रहण कर, उग्र तप कर, केवलज्ञान पा अन्तमें मोक्ष गई । ___ कालान्तरमें वासुदेव अनंतवीर्य चौरासी लाख पूर्वकी आयु भोगकर निकाचित कर्म से प्रथम नरकमें गया । वहाँ क्यालीस हजार वर्ष पर्यन्त नरकके नाना प्रकारके कष्ट सहन किये । फिर वासुदेवभवके पिताने-जो चमरेंद्र हुए थे-वहाँ आकर उसकी वेदना शान्त की। ___ बंधुके शोकसे व्याकुल होकर बलभद्र अपराजितने भी तीन खण्ड पृथ्वीका राज्य अपने पुत्रको सौंप, जयघर गणघरके पास दीक्षा ग्रहण की। उनके साथ सोलह हजार राजाओंने भी
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दीक्षा ली। इस तरह बलभद्र चिरकाल तक तप करते रहे। अन्तमें अनशन कर मृत्युको प्राप्त हुए और अच्युत देवलोकमें इन्द्र हुए। ___ इधर अनंतवीर्यका जीव भी नरक भूमिमें दुष्कर्मोंके फलभोग स्वर्णके समान शुद्ध हो गया। फिर वह नरकसे निकल कर, वैताब्य पर्वतपर गगनवल्लभ नगरके स्वामी मेघवाहनकी मेघमालिनी पत्नीके गर्भसे उत्पन्न हुआ । उसका नाम मेघनाद रक्खा गया। जब वह यौवनको प्राप्त हुआ तब मेघवाहनने उसको राज्य देकर दीक्षा ले ली।
राज्य करते हुए एक बार मेघनाद प्रज्ञप्ति विद्या साधनेके लिए मंदर गिरिपर गया। वहाँ नंदन वनमें स्थित सिद्ध पत्तनमें शाश्वत प्रतिमाकी पूजा करने लगा। उस समय वहाँ कल्पवासी देवताओंका आगमन हुआ। अच्युतेन्द्रने अपने पूर्व भवके भाईको देखकर, भ्रातृस्नेहसे, कहा:-"भाई ! इस संसारका त्याग करो।" ___ उस समय वहाँ अमर गुरु नामक एक मुनि आये हुए थे। मेघनादने उनसे चरित्र अंगीकार किया। ___ एक समय मेघनाद मुनि नन्दन गिरि गये । रातमें ध्यानस्थ बैठे हुए थे, उस समय प्रति वासुदेवका पुत्र-जो उस समय दैत्य योनिमें था-वहाँ आ पहुँचा । अपने पूर्वजन्मके वैरीको देखकर दैत्यको क्रोध हो आया। वह मुनिको उपसर्ग करने लगा। परन्तु मेघनाद मुनि तो पर्वतके समान स्थिर रहे । मुनिको शांत देखकर वह बड़ा लज्जित हुआ और वहाँसे चला गया।
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अन्तमें मेघनादमुनिभी कालान्तरमें, अनशन करके मृत्युको प्राप्त हुए और अच्युत देवलोकमें इन्द्रके सामानिक देव हुए। जबूंद्वीपके पूर्व विदेहमें सीता नदीके दक्षिण तीरपर मंगला
वती नामका प्रांत है। उसमें रत्न संचया नामकी आठवाँ भव नगरी थी । वहाँ क्षेमंकर नामका राजा राज्य ( वज्रायुद्ध- करता था। उसके रत्नमाला नामकी रानी थी। चक्रवर्ती) अपराजितका जीव अच्युत लोकसे च्यवकर
उसकी कोख से पुत्ररूपमें जन्मा । उसका नाम वज्रायुध रखा गया । बड़े होनेपर लक्ष्मीवती नामकी राजकन्यासे उसका ब्याह हुआ । अनंतवीर्यका जीव अच्युतदेवलोकसे चयकर लक्ष्मीदेवीकी कोखसे जन्मा । सहस्रायुद्ध उसका नाम रखा गया । जवान होनेपर उसका ब्याह कनकश्रीसे हुआ। उससे शतबल नामका एक पुत्र पैदा हुआ। ___ एक बार राजा क्षेमंकर अपने पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र, मंत्री
और सामंतोंके साथ सभामें बैठा हुआ था । उस समय ईशान कल्पके देवता भी चर्चा कर रहे थे। दौराने चर्चा में एक देवताने कहा कि, पृथ्वीपर वज्रायुद्धके समान कोई सम्यक्त्वी और ज्ञानवान नहीं है । यह बात चित्रचूल' नामक देवताको न रुची । वह बोला,-"मैं जाकर उसकी परीक्षा करूँगा।"
वह, मिथ्यात्वी देवता, राजा क्षेमंकरकी राजसभामें आया और बोला:--" इस जगतमें पुण्य, पाप, जीव और परलोक कुछ नहीं हैं। प्राणी आस्तिकताकी बुद्धिसे व्यर्थ ही कष्ट पाते हैं।"
यह सुनकर वज्रायुद्ध बोले:-" हे महानुभाव ! आप
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प्रत्यक्ष प्रमाणसे विपरीत ऐसे वचन क्या बोलते हैं ? आपको आपके पूर्व जन्मके सुकृतोंका फल स्वरूप जो वैभव मिला है उसका विचार, अपने अवधिज्ञानका उपयोग कर कीजिए तो आपको मालूम होगा कि, आपका कहना युक्तियुक्त नहीं है। गये भवमें आप मनुष्य थे और इस भवमें देवता हुए हैं। अगर परलोक और जीव न होते तो आप मनुष्यसे देव कैसे बन जाते ?"
देव बोला:-" तुम्हारा कहना सत्य है । आज तक मैंने कभी इस बातका विचार ही न किया और कुशंकामें पड़ा रहा । आज मैं तुम्हारी कृपासे सत्य जान सका हूँ। मैं तुमसे खुश हूँ । जो चाहो सो माँगो।"
वज्रायुद्ध बोला:-"मैं आपसे सिर्फ इतना चाहता हूँ कि आप हमेशा सम्यक्त्वका पालन करें।" देव बोला:--" यह तो तुमने मेरे ही स्वार्थकी बात कही है । तुम अपने लिए कुछ माँगो।" वज्रायुद्ध बोला:--" मेरे लिए बस इतना ही बहुत है।" वज्रायुद्धको निःस्वार्थ समझकर देव और भी अधिक खुश हुआ। वह वज्रायुद्धको दिव्य अलंकार भेटमें देकर ईशानदेवलोकमें गया और बोला:--"वज्रायुद्ध सचमुच ही सम्यक्त्वी है।" __एक बार वसंत ऋतुमें क्रीडा करने वनमें गया। वहाँ वह जब अपनी सात सौ राणियोंके साथ क्रीडा कर रहा था तब, विद्युदंष्ट्र नामका देवता-जो वज्रायुद्धका पूर्वजन्मका वैरी दमितारी था और जो अनेक भवोंमें भटककर देव हुआ थाउधरसे निकला । वज्रायुद्धको देखकर उसे अपने पूर्व भवका
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वैर याद आया। वह एक बहुत बड़ा पर्वत उठा लाया और उसे उसने बनायुद्धपर डाल दिया । वन्नायुद्धको भी उसने नागपाशसे बाँध लिया।
वनवृषभनाराच सहननके धारी वज्रायुद्धने उस पर्वतके टुकड़े कर डाले, नागपाशको छिन्नभिन्न कर दिया और आप सुखपूर्वक अपनी राणियों सहित बाहर आया। विद्युद्दष्ट्र अपनी शक्तिको तुच्छ समझ वहाँसे चला गया। उसी समय ईशानेन्द्र नंदीश्वरद्वीप जाते हुए उधरसे आ निकला और वज्रायुद्धके जीव भावी तीर्थंकरकी पूजा कर चला गया। वज्रायुद्ध अपने परिवार सहित नगरमें आया ।
राजा क्षेमंकरको लोकांतिक देवाने आकर दीक्षा लेनेकी मूचना की। उन्होंने वनायुद्धको राज्य देकर दीक्षा ली और तपसे घातिया कर्मोंका नाशकर वे जिन हुए।
वज्रायुद्धके अस्त्रागारमें चक्ररत्न उत्पन्न हुआ । फिर दूसरे तेरह रत्न भी क्रमशः उत्पन्न हुए। उसने छ: खंड पृथ्वीको जीता
और फिर अपने पुत्रको युवराजपदपर स्थापित कर वह मुखसे राज्य करने लगा।
एक बार वे राजसभामें बैठे थे तब एक विद्याधर 'बचाओ, बचाओ' पुकारता हुआ उनके चरणों में आगिरा । वजायुद्धने उसको अभय दिया। उसी समय वहाँ तलवार लिए हुए एक देवी और खाँडा हाथमें लिए हुए एक देव उसके पीछे आये। देव बोला:--" हे नृप ! इस दुष्टको हमें सोपिए ताके हम इसे. इसके पापोंका दंड दें । इसने विद्या साधती हुई मेरी इस पुत्रीको आकाशमें उठा लेजाकर घोर अपराध किया है । " वज्रायुद्धने
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उन्हें उनके पूर्वजन्मकी बातें बताईं । इससे उन्होंने वैर भावको छोड़ दिया और मुनिके पाससे दीक्षा ले ली ।
फिर वज्रायुद्ध चक्रीने भी कुछ कालके बाद अपने पुत्र सहस्रायुद्धको राज्य देकर क्षेमंकर केवलीके पाससे, दीक्षा ली । सहस्रायुद्धने भी कुछ काल बाद पिहिताश्रव मुनिके पाससे दीक्षा ली । अंत में दोनों राजमुनियोंने इषत्प्राग्भार नामके पर्वत पर जाकर पादोपगमन अनशन किया ।
आयुको पूर्णकर दोनों मुनि परम समृद्धिवाले तीसरे ग्रैवे९ वाँ भव कमें अहमिंद्र हुए और पचीस सागरोपमकी ( अहमिंद्र देव ) आयु वहाँ पूरी की ।
।
जंबूद्वीपके पूर्व विदेहके पुष्कलावती प्रांत में सीतानदीके किनारे पुंडरीकिणी नामकी नगरी थी । उसमें धनरथ १० दसवाँ भव नामका राजा राज्य करता था । उसके प्रियमती ( मेघरथ ) और मनोरमा नामकी दो पत्नियाँ थीं । वज्रायुद्धका जीव ग्रैवेयक विमानसे च्यवकर महादेवी प्रियमतीकी कोख से जन्मा और सहस्रायुद्धका जीव च्यवकर मनोरमा देवी के गर्भ से जन्मा । दोनोंके नाम क्रमशः मेघरथ और दृढरथ रखे गये ।
जब दोनों जवान हुए तब उनके व्याह सुमंदिरपुर के राजा निहतशत्रुकी तीन कन्याओं के साथ हुए । मेघरथके साथ जिनका ब्याह हुआ उनके नाम प्रियमित्रा और मनोरमा थे और दृढरथके साथ जिसका व्याह हुआ उसका नाम सुमति था ।
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जब मेघरथ और दृढरथ ब्याह करने गये थे तबकी बात है। पुंडरीकिणीसे सुमंदिरपुर जाते हुए रस्तेमे सुरेन्द्रदत्त राजाका राज्य आया। उसने मेघरथको कहलाया कि, तुम मेरी सीमामें होकर मत जाना । कुमार मेघरथने इस बातको अपना अपमान समझा और सुरेन्द्रदत्तपर आक्रमण कर दिया। घोर युद्ध हुआ
और सुरेन्द्रदत्तने हारकर आधीनता स्वीकार कर ली। वे उसको अपने साथ लेते गये। और वापिस लौटते समय सुरेन्द्रदत्तको उसकी राज्यगद्दी सौंपते आये । ___ एक बार राजा धनस्थ अपने अन्तःपुरमें आनंदविनोद कर रहा था । उस समय सुसीमा नामकी एक वेश्या आई। उसके पास एक मुर्गा भी था। वह बोली:-" महाराज ! मेरा यह मुर्गा अजित है। आजतक किसीके मुर्गेसे नहीं हारा । अगर किसीका मुर्गा मेरे मुर्गेको हरा दे तो मैं उसको एक हजार स्वर्ण मुद्राएँ हूँ।"
राणी मनोरमा बोली:-"स्वामिन् ! मैं इससे बाजी बदनेकी बात तो नहीं करती परन्तु इसका घमंड तोड़ना चाहती हूँ | इसलिये अगर आज्ञा हो तो मैं अपना मुर्गा इसके मुर्गेसे लड़ाऊँ ।"
राजाने आज्ञा दी । मनोरमाने अपना मुर्गा मँगवाया। दोनों मुर्गे लड़ने लगे । बहुत देरतक किसीका मुर्गा नहीं हारा । यद्यपि दोनों चौंचोंकी और ठोकरोंकी चोटोंसे लोहू लुहान हो गये थे तथापि एक दूसरेपर बराबर प्रहार कर रहे थे। कोई पीछे हटना नहीं चाहता था। राजाने कहा:-" इनमेंसे कोई किसीसे नहीं हारेगा । इसलिए इन्हें छुड़ा दो।"
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तब मेघरथने पूछा:-"इनकी हारजीत कैसे मालूम होगी?" त्रिकालज्ञ राजाने जवाब दियाः- "इनकी हारजीतका निर्णय नहीं हो सकेगा। इसका कारण तुम इनके पूर्वभवका हाल सुनकर भली प्रकारसे कर सकोगे । सुनो,
"रत्नपुर नगरमें धनवसु और दत्त नामके दो मित्र रहते थे। वे गरीब थे, इसलिए धन कमानेकी आशासे बैलोंपर माल लादकर दोनों चले । रस्तेमें बैलोंको अनेक तरहकी तकलीफें देते और लोगोंको ठगते वे एक शहरमें पहुँचे । वहाँ कुछ पैसा कमाया । महान लोभी वे दोनों किसी कारणसे लड़ पड़े और एक दूसरेके महान शत्रु हो गये । आखिर आर्तध्यानमें वैरभावसे मरकर वे हाथी हुए । फिर भैंसे हुए, मेंढे हुए और तब ये मुर्गे हुए हैं।" ___ अपने पूर्व जन्मका हाल सुनकर मुगाको जातिस्मरण ज्ञान हुआ । उन्होंने वैर त्यागकर अनशन व्रत लिया और मरकर अच्छी गति पाई।
राजा धनरथने पुत्र मेघरथको राज्य देकर दीक्षा ले ली और तपकर मोक्षलक्ष्मी पाई।
मेघरथके दो पुत्र हुए । प्रियमित्रासे नंदिषेण और मनोरमासे मेघसेन । दृढरथकी पत्नी सुमतिने भी रथसेन नामक पुत्रको जन्म दिया।
एक दिन मेघरथ पोसा लेकर बैठा था उसी समय एक कबतर आकर उसकी मोदमें बैठ गया और 'बचाओ! बचाओ!'का करुण नाद करने लगा। राजाने सस्नेह उसकी पीठपर हाथ फेरा और
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कहा - " कोई भय नहीं है । तू निर्भय रह । " उसी समय एक बाज आया और बोला :- " राजन् ! इस कबूतरको छोड़ दो। यह मेरा भक्ष्य है । मैं इसको खाऊँगा । "
राजाने उत्तर दिया:-- “ हे बाज ! यह कबूतर मेरी शरण में आया है । मैं इसको नहीं छोड़ सकता । शरणागतकी रक्षा करना क्षत्रियों का धर्म है । और तू इस बिचारेको मारकर कौनसा बुद्धिमानीका काम करेगा ? अगर तेरे शरीरपर से एक पंख उखाड़ लिया जाय तो क्या यह बात तुझे अच्छी लगेगी ? "
बाज बोला :- " पंख क्या पंखकी एक कली भी अगर कोई उखाड़ ले तो मैं सहन नहीं कर सकता । "
राजा बोला :- " हे बाज ! अगर तुझे इतनीसी तकलीफ भी सहन नहीं होती है तो यह विचारा प्राणांत पीडा कैसे सह सकेगा ? तुझे तो सिर्फ अपनी भूख ही मिटाना है । अतः तू. इसको खानेके बजाय किसी दूसरी चीजसे अपना पेट भर और इस बिचारे के प्राण बचा । "
बाज बोला :-- “ हे राजा ! जैसे यह कबूतर मेरे डरसे व्याकुल हो रहा है वैसे ही मैं भी भूख से व्याकुल हो रहा हूँ । यह आपकी शरण में आया है । कहिए मैं किसकी शरण में जाऊँ ? अगर आप यह कबूतर मुझे नहीं सौंपेंगे तो मैं भूख से मर जाऊँगा । एकको मारना और दूसरे को बचाना यह आपने कौनसा धर्म अंगीकार किया है ? एकपर दया करना और दूसरे पर निर्दय होना कौन से धर्मशास्त्रका सिद्धांत है ! हे राजा ! महरबानी करके
यह
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इस पक्षीको छोड़िए और मुझे बचाइए । मैं ताजा मांसके सिवा किसी तरहसे भी जिंदा नहीं रह सकता हूँ।" __ मेघरथने कहा:-" हे बाज ! अगर ऐसा ही है तो इस कबूतरके बराबर मैं अपने शरीरका मांस तुझे देता हूँ। तू खा
और इस कबूतरको छोड़कर अपनी जगह जा।" ___ बाजने यह बात कबूल की। राजाने छुरी और तराजू मँगवाये । एक पलड़ेमें कबूतरको रक्खा और दूसरेम अपने शरीरका मांस काटकर रक्खा । राजाने अपने शरीरका बहुतसा मांस काटकर रख दिया तो भी वह कबूतरके बराबर न हुआ। तब राजा खुद उसके बराबर तुलनेको तैयार हुआ। चारों तरफ हाहाकार मच गया । कुटुंबी लोग जार जार रोने लगे । मंत्री लोग आँखों में आँसू भरकर समझाने लगे,-"महाराज ! लाखोंके पालनेवाले आप, एक तुच्छ कबूतरको बचानके लिए प्राण त्यागनेको तैयार हुए हैं, यह क्या उचित है ? यह करोड़ों मनुष्योंकी बस्ती आपके आधारपर है; आपका कुटुंब परिवार आपके आधारपर है उनकी रक्षा न कर क्या आप एक कबूतरको बचानेके लिए जान गँवायँगे ? महारानियाँ,-आपकी पत्नियाँ, आपके शरीर छोड़ते ही प्राण दे देंगी, उनकी मौत अपने सिरपर लेकर भी, एक पक्षीको बचानेके लिए मनुष्यनाशका पाप सिरपर लेकर भी, क्या आप इस कबूतरको बचायँगे ? और राजधर्मके अनुसार दुष्ट बाजको दंड न देकर, उसकी भूख बुझानेके लिए अपना शरीर देंगे ? प्रभो ! आप इस न्याय-असंगत कामसे हाथ उठाइए
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और अपने शरीरकी रक्षा कीजिए। हमें तो यह पक्षी भी छलपूर्ण मालूम होता है । संभव है यह कोई देव या राक्षस हो।"
राजा मेघरथने गंभीर वाणीमें उत्तर दिया:-" मंत्रीजी आप जो कुछ कहते हैं सो ठीक कहते हैं। मेरे राज्यकी, मेरे कुटुंबकी और मेरे शरीरकी भलाईकी एवं राजधर्मकी या राजन्यायकी दृष्टिसे आपका कहना बिलकुल ठीक जान पड़ता है । मगर इस कथनमें धर्मन्यायका अभाव है । राजा प्रजाका रक्षक है । प्रजाकी रक्षा करना और दुर्बलको जो सताता हो उसे दंड देना यह राजधर्म है-राजन्याय है । उसके अनुसार मुझे बाजको दंड देना और कबूतरको बचाना चाहिए । मगर मैं इस समय राज्यगद्दीपर नहीं बैठा हूँ; इस समय मैं राजदंड धारण करनेवाला मेघरथ नहीं हूँ। इस वक्त तो मैं पौषधशालामें बैठा हूँ; इस समय मैं सर्वत्यागी श्रावक हूँ । जबतक मैं पौषधशालामें बैठा हूँ और जबतक मैंने सामायिक ले रक्खी है तबतक मैं किसीको दंड देनेका विचार नहीं कर सकता। दंड देनेका क्या किसीका जरासा दिल दुखे ऐसा विचार भी मैं नहीं कर सकता। ऐसा विचार करना, सामायिकसे गिरना है; धर्मसे पतित होना है। ऐसी हालतमें मंत्रीजी! तुम्हीं कहो, दोनों पक्षियोंकी रक्षा करनेके लिए मेरे पास अपना बलिदान देनेके सिवा दूसरा कौनसा उपाय है? मुझे मनुष्य समझकर, कर्तव्यपरायण मनुष्य समझकर, धर्म पालनेवाला मनुष्य समझकर, शरणागत प्रतिपालक मनुष्य समझकर, यह कबूतर मेरी शरणमें आया है; मैं कैसे इसको त्याग सकता हूँ ? और
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१९९ इसी तरह बाजको भूखसे तड़पनेके लिए भी कैसे छोड़ सकता हूँ? इस लिए मेरा शरीर देकर इन दोनों पक्षियोंकी रक्षा करना ही मेरा धर्म है। शरीर तो नाशमान है । आज नहीं तो कल यह जरूर नष्ट होगा। इस नाशवान शरीरको बचानेके लिए मैं अपने यशःशरीरको, अपने धर्मशरीरको नाश न होने दूंगा।" __ अन्तरिक्षसे आवाज आई,-"धन्य राजा ! धन्य !" सभी आश्चर्यसे इधर उधर देखने लगे। उसी समय वहाँ एक दिव्य रूपधारी देवता आखड़ा हुआ। उसने कहा:-" नृपाल ! तुम धन्य हो । तुम्हें पाकर आज पृथ्वी धन्य हो गई । बड़ेसे लेकर तुच्छ प्राणी तककी रक्षा करना ही तो सच्चा धर्म है। अपनी आहुति देकर जो दूसरेकी रक्षा करता है वही सच्चा धर्मात्मा है। __“हे राजा ! मैं ईशान देवलोकका एक देवता हूँ । एक बार ईशानेन्द्रने तुम्हारी, दृढ धर्मी होनेकी तारीफ की । मुझे उसपर विश्वास न हुआ और मैं तुम्हारी परीक्षा लेनेके लिए आया । अपना संशय मिटाने के लिए तुम्हें तकलीफ दी इसके लिए मुझे क्षमा करो।"
देव अपनी माया समेटकर अपने देवलोकमें गया। दोनों पक्षियोंने राजाके मुखसे अपना पूर्वभव सुना कि, पहले वे एक सेठके पुत्र थे। दोनों एक रत्नके लिए लड़े और लड़ते लड़ते आतभ्यानसे मरकर ये पक्षी हुए हैं । यह सुनकर दोनोंने अनशन धारण किया और मरकर देवयोनि पाई।
एक बार मेघरथने अष्टम तप करके कायोत्सर्ग धारण
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किया । रातके समय ईशानेन्द्र ने अपने अन्तःपुरमें बैठे हुए ' नमो भगवते तुभ्यं ' कहके नमस्कार किया । इन्द्राणियोंके पूछने पर कि आपने अभी किसको नमस्कार किया है ? इन्द्रने जवाब दिया :- " पुडरीकिणी नगरीके राजा मेघरथने अष्टम तप कर अभी कायोत्सर्ग धारण किया है । वह इतना दृढ मनवाला है कि, दुनियाका कोई भी प्राणी उसे अपने ध्यान से विचलित नहीं कर सकता है । "
हम
इन्द्राणियों को यह प्रशंसा असह्य हुई | वे बोलीं : -“ जाकर देखती हैं कि, वह कैसा दृढ मनवाला है । " इन्द्राणियोंने आकर और देवमाया फैलाकर मेघरथको ध्यान से चलित करनेकी, रातभर अनेक कोशिशें कीं, अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्ग किये; परन्तु राजा अपने ध्यानसे न डिगा । मूर्य उदित होनेवाला है यह देख इन्द्राणियोंने अपनी माया समेट ली और ध्यानस्थ राजाको नमस्कार कर उससे क्षमा माँगी, फिर वे चली गई ।
ध्यान समाप्तकर राजाने दीक्षा लेनेका दृढ संकल्प कर लिया । एक बार धनरथ जिन विहार करते हुए उधर से आये । मेघरथने अपने पुत्र मेघसेनको राज्य देकर दीक्षा ले ली । उनके भाई दृढरथने, उनके सात सौ पुत्रोंने और अन्य चार हजार राजाओं ने भी उनके साथ दीक्षा ली । मेघरथ मुनिने 1 बस स्थानकी आराधना कर तीर्थकर नामकर्मका बंध किया । अन्तमें, मेघरथ और दृढरथ मुनिने, अखंड चारित्र पाल, अंबर तिलक पर्वत पर जाकर अनशन धारण किया ।
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१६ श्री शांतिनाथ-चरित
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मरकर मेघरथ और दृढरथ मुनि सर्वार्थसिद्धि देवलोकमें या देवता हुए और वहाँपर तेतीस सागरोपमकी
- आयु सुखसे बिताई। इस जम्बूद्वीपके भरत क्षेत्रमें कुरुदेशके अन्दर हस्तिनापुर
___नामक एक बड़ा वैभवशाली नगर था । उसमें १३ तेरहवाँ इक्ष्वाकु वंशी विश्वसेन नामक राजा राज्य करता भव ( भगवान था । वह राजा धर्मात्मा, प्रजापालक, पराक्रमी शांतिनाथ )* और वीर था। उसकी धर्मपत्नीका नाम अचिरा
देवी था। महादेवी अचिरा बड़ी पति-परायणा और रूपगुण सम्पन्ना थी। नृपशिरोमणि विश्वसेन अपनी धर्मपत्नीके साथ साम्राज्य लक्ष्मी भोगते थे।
एक दिन अनुत्तर विमानमें मुख्य सर्वार्थसिद्धि नामके विमानसे च्यवकर पूर्वजन्मके राजा मेघरथका जीव महादेवीके कोखमें आया । उस समय रातको अचिराने चक्रवर्ती और तीर्थकरके जन्मकी सूचना देनेवाले चौदह महा स्वप्न देखे । प्रातःकाल ही महादेवीने पतिसे स्वप्नोंका सारा वृतान्त वर्णन किया। राजाने कहाः-" हे महादेवी ! तुम्हारे अलौकिक गुणोंवाला एक पुत्र होगा।"
राजाने स्वमके फलको जाननेवाले निमित्तियोंको बुलाकर स्वमका फल पूछा । उन्होंने उत्तर दिया:-" स्वामिन् ! इन
* ये ही पाँचवें चक्रवर्ती भी थे
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जैन-रत्न wwmmmmmmm स्वमोंसे आपके यहाँ एक ऐसा पुत्र पैदा होगा जो चक्रवर्ती भी होगा और तीर्थकर भी।" ___ इन्द्रादिदेवोंके आसन काँपे और उन्होंने आकर प्रभुका गर्भकल्याणक किया। ___ नौ मास पूरे होनेपर ज्येष्ठ मासकी वदि तेरसके दिन भरणी नक्षत्रमें अचिरादेवीके गर्भसे, स्वर्ण जैसी कान्तिवाले एक सुन्दर कुमारका जन्म हुआ । उसके जन्मसे नारकी जीवोंको भी क्षणभरके लिए सुख हुआ । इन्द्रादि देवोंने आकर प्रभुका जन्म कल्याणक किया । अचिरादेवीकी निद्रा भंग हुई। सब तरफ आनंदकी बधाइयाँ बँटने लगी। घर २ में मंगलाचार होने लगे। भगवानका नाम शांतिनाथ रखा गया । धीरे २ दूजके चन्द्रमाके समान कुमार बढ़ने लगे। शैशवकालकी मनोहर कृतियों द्वारा कुमार अपने मातापिताको आनन्द देने लगे । जब भगवान शान्तिनाथ युवावस्थाको प्राप्त हुए तब विश्वसेनने भगवान शांतिनाथका अनेकों राजकन्याओंके साथ विवाह कर दिया। फिर विश्वसेनने कुमार शान्तिनाथको राज्य देकर अपना जीवन सार्थक बनानेके लिए व्रत ग्रहण किया। ___ भगवान शान्तिनाथने अब राज्यकी बागडोर अपने हाथमें ली । और न्यायपूर्वक राज्य करने लगे । उनके यशोमति नामक एक पटरानी थी। उसकी कोखमें दृढरथका जीव सर्वार्थसिद्धि विमानसे च्यवकर आया। उसी रातको महादेवीने अपने स्वनमें मुंहमें चक्ररत्नको प्रवेश होते देखा ।
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१६ श्री शांतिनाथ-चरित
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यथा समय महादेवीके एक पुत्र उत्पन्न हुआ। उसका नाम चक्रायुध रक्खा गया। धीरे २ राजकुमार युवावस्थाको प्राप्त हो सब विद्याओंमें पारंगत हो गये । भगवान शान्तिनाथने राजकुमारका अनेक राजकुमारियोंके साथ विवाह कर दिया। __ कालान्तरमें शान्तिनाथके शस्त्रागारमें चक्ररत्नका प्रादुर्भाव हुआ। उन्होंने चक्ररत्नके प्रभावसे छः खंड पृथ्वीको जीत लिया।
इसके उपरान्त भगवानने वर्षीदान दिया। फिर उन्होंने सहसाम्र वनमें ज्येष्ठ कृष्णा, चतुर्दशीके दिन भरणी नक्षत्रमें एक हजार राजाओंके साथ दीक्षा ग्रहण की । इन्द्रादि देवोंने तप कल्याणकका उत्सव किया । दूसरे दिन भगवानने सुमित्र राजाके यहाँ पारणा किया । राजमन्दिरमें वसुधारादि पाँच दिव्य प्रकट हुए। ___ एक वर्ष तक अन्यत्र विहारकर भगवान फिर हस्तिनापुरके सहसाम्रवनमें आये । यहाँ पौष सुदि नवमीके दिन भरणी नक्षत्रमें उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ । इन्द्रादि देवताओंने मिलकर समवसरणकी रचना की और ज्ञानकल्याणक मनाया । भगवानके शासनमें शूकरके वाहनवाला शासन देवता और कमलके आसन पर स्थित, हाथमें कमण्डल, पुस्तकादि धारण करनेवाली 'निर्वाणी' नामकी शासन देवी प्रकट हुई। ___ एक समय विहार करते २ भगवानने फिर हस्तिनापुरमें पदार्पण किया । इस समाचारको सुनकर उनका पोता कुरुचंद्र भगवानके दर्शनार्थ आया। उसने हाथ जोड़कर पूछ:-"मैं पूर्व जन्मके किन कर्मोंसे इस जन्ममें राजा हुआ हूँ और मुझे
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जैन-रत्न
प्रति दिन पाँच अद्भुत वस्त्र और फलादि चीजें भेट स्वरूप क्यों मिलती हैं ? मैं इन वस्तुओंका भोग क्यों नहीं कर सकता हूँ? क्यों इन्हें इष्ट जनोंके लिए रख छोड़ता हूँ ?" भगवानने उत्तर दिया:-" तुम्हें साम्राज्य लक्ष्मी मिली है इसका कारण यह है कि तुमने पूर्व जन्ममें एक मुनिको दान दिया था। फिर भगवानने विस्तार पूर्वक उसके पूर्वजन्मका वृत्तान्त इस तरह कहना आरंभ कियाः-" भरतक्षेत्रके कौशल देशमें श्रीपुर नामक एक नगर था । उसमें सुधन, धनपति, धनद और धनेश्वर ये चार एकसी उम्रवाले वणिक पुत्र रहते थे। एक समय ये चारों मित्र परदेशमें द्रव्योपार्जन करनेके लिए अपने घरसे रवाना हुए । उनके साथमें भोजनका सामान लेनेवाला द्रोण नामक एक सेवक था । मार्गमें जाते २ उन्हें एक वनमें एक मुनिका समागम हुआ। उन्होंने अपने भोजनमेंसे थोड़ा मुनि महाराजको देनेके लिए द्रोणसे कहा । द्रोणने बड़ी श्रद्धासे मुनिजीको प्रतिलाभितकर आहार दिया। वहाँसे सब रत्नद्वीपमें पहुँचे और बहुतसा द्रव्योपार्जन कर अपने देशको लौटे ।
द्रोण धर्मकरणी करके मरा। हस्तिनापुरमें राजाके यहाँ जन्मा । वही द्रोण तुम कुरुचन्द्र हो । चारोंमेंसे सुधन और धनद भी मरकर वणिक पुत्र हुए हैं। उनमेंसे मुधन कंपिलपुरमें पैदा हुआ है और धनद कृत्तिकापुरमें । पहलेका नाम है वसंतदेव और दूसरेका नाम है कामपाल | धनपति और धनेश्वर मायाचारी थे इस लिए वे मरकर स्त्रीरूपमें वणिकके घर जन्मे हैं। उनका नाम मदिरा और केसरा हैं। पूर्व भवमें
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१६ श्री शांतिनाथ-चरित
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प्रीति थी इससे इन चारोंका समागम हुआ है। वसन्तदेवके साथ केसराका ब्याह हुआ है और कामपालके साथ मदिराका। दोनों दम्पति अभी विद्यमान हैं और यहीं मौजूद हैं। ___ इतनी कथा कहकर भगवानने फिर आगे कहना आरंभ कियाः" हे राजा ! पूर्व जन्मके स्नेहके कारण तुम्हें जो पाँच अद्भुत वस्तुओंकी भेट मिलती थी उनका उपयोग तुम नहीं कर सकते थे । अब अपने मित्रोंके साथ तुम उन वस्तुओंका उपभोग कर सकोगे । इतने दिनोंतक इष्ट मित्रोंको न जाननेसे तुम पदार्थों के उपभोगसे वंचित रहे थे।" ___ वसंत, केसरा, कामपाल और मदिराने भी ये बातें सुनीं। वे कुरुचंद्रसे मिले । कुरुचंद्र उनको अपने घर ले गया और बड़ा
आदर सत्कार किया। __ केवलज्ञानसे लगाकर निर्वाणके समय तक भगवान शान्तिनाथके परिवारमें, ६२ गणधर, बासठ हजार आत्म नैष्ठिक मुनि, इकसठ हजार छ: सौ सध्वियाँ, आठ सौ चौदह पूर्वधारी महात्मा, तीन हजार अवधिज्ञानी, चार हजार मनःपर्यवज्ञानी, चार हजार तीन सौ केवलज्ञानी, छः हजार वैक्रिय लब्धिवाले, दो हजार चार सौ वादलब्धिवाले, दो लाख नब्वे हजार श्रावक और तीन लाख तरानवे हजार श्राविकाएँ थीं।
भगवानने अपना निवार्णकाल समीप जान समेतशिखर. पर पदार्पण किया : यहाँ नौ सौ मुनियोंके साथ अनशन किया एक मासके अन्तमें ज्येष्ठ मासकी कृष्णा त्रयोदशीके दिन भरणी नक्षत्रमें भगवान शान्तिनाथ उन मुनियोंके साथ मोक्ष गये ।
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जैन - रत्न
इन्द्रादि देवोंने निर्वाण - कल्याणके किया । भगवानने पचीस हजार वर्ष कौमारावस्था में, पचीस हजार वर्ष युवराजावस्था में, पचीस हजार वर्ष राजपाटपर और पचीस हजार वर्ष मुनिवस्थामें, इस तरह एक लाख वर्षकी आयु भोगी । उनका शरीर चालीस धनुष ऊँचा था ।
धर्मनाथजीके निर्वाण बाद पौन पल्योपम कम तीन सागरो
A
पम बीते तव शान्तिनाथ भगवान मोक्षमें गये ।
१७ श्री कुन्थुनाथ - चरितं
श्री कुन्थुनाथो भगवान्, सनाथोऽतिशयार्द्धिभिः । सुरासुरनृनाथाना, - मेकनाथोस्तु वः श्रिये ।। भावार्थ - जिसको चौतीस अतिशयोंकी ऋद्धि प्राप्त हैं और जो इन्द्रों और राजाओंके नाथ हैं वे श्रीकुन्थुनाथ भगवान तुम्हारा कल्याण करें ।
1
जंबूद्वीप के पूर्व विदेह में आवर्त्त नामक देश है । उसमें खड्गी नामकी नगरी थी । उसका राजा १ प्रथम भव सिंहावह था । संसारसे वैराग्य होनेके कारण उसने संवराचार्य के पास से दीक्षा ले ली। बीस स्थानककी आराधनाकर उसने तीर्थकर गोत्र बाँधा
२ दूसरा भव
अन्तमें मरकर वह सर्वार्थसिद्धि विमानमें अहमिन्द्र देव हुआ ।
१ - - ये चक्रवर्ती भी हुए हैं ।
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१६ श्री कुन्थुनाथ-चरित
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भरतक्षेत्रके हस्तिनापुर नगरका राजा वसु था । उसके
श्री नामकी रानी थी। वहाँसे च्यवकर सिंहावहका ३ तीसरा भव जीव श्रीरानीके गर्भ में श्रावण वदि ९ के दिन
कृत्तिका नक्षत्रमें आया । इन्द्रादि देवोंने गर्भकल्याणक मनाया। ___ समय पूरा होनेपर वैशाख सुदि १४ के दिन कृत्तिका नक्षत्रमें बकरेके चिन्हयुक्त, स्वर्णवर्णवाले, पुत्रको रानीने जन्म दिया। बालकका नाम कुन्थुनाथ रखा गया । कारण-गम समयमें रानीने कुन्थु नामक रत्नसंचयको देखा था । इन्द्रादि देवोंने जन्मकल्याणक मनाया।
यौवनावस्था प्राप्त होने पर पिताकी आज्ञासे. अनेक राज कन्याओंसे कुंथुनाथने ब्याह किया । २३ हजार साढ़े सात सौ वर्ष तक युवराज रहे। ४५०० सौ वर्ष बाद उनकी आयुधशालामें चक्ररत्न उत्पन्न हुआ । उसीके बल छः सौ वर्षमें उन्होंने भरतखण्डके छः खण्ड जीते । २३ हजार साढ़े सात सौ वर्ष तक चक्रवर्ती रहे । पीछे लोकान्तिक देवोंने प्रार्थना की:-"हे प्रभु ! दीक्षा धारण कीजिये ।" तब प्रभुने वर्षादान दे वैशाख यदि ५ के दिन कृत्तिका नक्षत्रमें एक हजारः राजाओंके साथ सहसाम्र वनमें दीक्षा धारण की । इन्द्रादि देवोंने दीक्षाकल्याणक मनाया । दूसरे दिन भगवानने चक्रपुर नगरके राजा व्याघ्रसिंहके घर पारणा किया । __वहाँसे विहार कर सोलह वर्ष बाद प्रभु उसी वनमें पधारे। तिलक वृक्षके नीचे कायोत्सर्ग धारण कर, घातिया कर्मोको क्षय
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जैन-रत्न
कर चैत्र सुदि ३ के दिन कृत्तिका नक्षत्रमें प्रभुने केवलज्ञान प्राप्त किया । इन्द्रादि देवोंने ज्ञानकल्याणक मनाया और समोशरणकी रचना की। ___ उनके परिवारमें ३५ गणधर, ६० हजार साधु, ६० हजार । ६ सौ साध्धियाँ, ६७७ चौदह पूर्वधारी, ढाई हजार अवधिज्ञानी, ३ हजार ३ सौ ४४ मनः पर्ययज्ञानी, ३ हजार दौ सौ केवली, ५ हजार एक सौ वैक्रिय लब्धिवाले, २ हजार वादी, १ लाख ७९ हजार श्रावक, और ३ लाख ८१ हजार श्राविकाएँ थीं। तथा गंधर्व नामका यक्ष और जला नामकी शासन देवी थी।
क्रमसे विहार करते हुए मोक्षकाल समीप जान भगवान सम्मेदशिखरपर पधारे । वहाँ उन्होंने एक हजार मुनियोंके साथ एक मासका अनशन धारणकर वैशाख वदि १ के दिन कृत्तिका नक्षत्रमें कर्मनाश कर मोक्ष पाया । इन्द्रादि देवोंने निर्वाण कल्याणक मनाया । उनकी सम्पूर्ण आयु ९५ हजार वर्षकी थी। उनका शरीर ३५ धनुष ऊँचा था।
शान्तिनाथजीके निर्वाण जानेके बाद आधा पल्योपम बीतने पर कुंथुनाथजीने निर्वाण प्राप्त किया।
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१८ श्री अरनाथ-चरित
अरनाथस्तु भगवाँ,-श्चतुरारनभोरविः । चतुर्थ पुरुषार्थश्री,-विलासं वितनोतु वः ॥
भावार्थ-चौथा आरारूपी आकाशमें सूरजके समान ( तपनेवाले ) भगवान अरनाथ चतुर्थ पुरुषार्थ यानी मोक्षलक्ष्मी तुम्हें देवें। जबूद्वीपके पूर्व विदेहमें सुसीमा नामकी नगरी थी। उसका राजा
धनपति था । उसको संसारसे वैराग्य हुआ। १ प्रथम भव-उसने संवर नामक मुनिके पाससे दीक्षा ले ली।
बीस स्थानकका तप कर तीर्थकर गोत्र बाँधा। २ दसरा भव-आयु पूर्णकर वह नवें ग्रैवेयकमें देव हुआ। वहाँसे च्यवकर धनपतिका जीव हस्तिनापुर नगरके राजा
सुदर्शनकी रानी महादेवीकी कुक्षिमें फाल्गुन ३ तीसरा भव—सुदि ३ के दिन जब चन्द्र रेवती नक्षत्रमें था,
आया । इन्द्रादि देवोंने गर्भकल्याणक मनाया। गर्भकालके पूर्ण होनेपर मागशीर्ष सुदि १० के दिन रेवती नक्षत्रमें नंदवर्तना लक्षणवाले, स्वर्ण वर्णी पुत्रको महादेवीने जन्म दिया। गर्भकालमें मातान चक्र-आरा देखा था इससे पुत्रका नाम अरःनाथ रखा गया।
युवावस्था प्राप्त होनेपर प्रभुने ६४०० राजकन्याओंके साथ ब्याह किया।२१ हजार वर्ष तक युवराज रहे । फिर उनकी आयु
१--ये चक्रवर्ती भी हुए हैं।
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जैन - रत्न
धशालामें चक्ररत्न उत्पन्न हुआ । उस चक्रके साथ चार सौ वर्ष घूम कर भरतखण्ड के छः खण्ड़ों को विजय किया । प्रभु २१ हजार वर्ष तक चक्रवर्ती रहे ।
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फिर लोकान्तिक देवोंने विनती की, “हे प्रभु! भव्य जीवों के हितार्थ तीर्थ प्रवर्त्ताइए।" तब संवत्सरी दान दे, माघ सुदि ११ के दिन रेवती नक्षत्रमें छट्ट तप युक्त, सहसाम्रवनमें जाकर प्रभुने दीक्षा ली । दूसरे दिन राजनगरके राजा अपराजितके यहाँ पर पारणा किया । फिर वहाँसे बिहारकर तान बर्ष बाढ़ उसी उद्यानमें आये । आम्रवृक्षके नीचे कायोत्सर्ग ध्यान किया। कार्तिक सुदि १२ के दिन चन्द्र रेवती नक्षत्रमें था तब प्रभुको केवलज्ञान हुआ । इन्द्रादि देवोंने ज्ञानकल्याणक मनाया । प्रभुके संघमें पचास हजार साधु, साठ हजार साध्वियाँ ६९० चौदह पूर्वधारी, २६०० अवधिज्ञानी, २५५१ मन:पर्यय ज्ञानी, २८०० केवली, ७ हजार ३ सौ वैक्रियक लब्धिवाले, १ हजार छः सौ वादी, १ लाख ८४ हजार श्रावक, और ३ लाख ७२ हजार श्राविकाएँ तथा षडमुख नामक यक्ष, और धारणी नामकी शासन देवी थी ।
मोक्षकाल समीप जान प्रभु सम्मेद शिखरपर आये । और एक मासका अनशन धारण कर मार्गशीर्ष सुदि १० के दिन चन्द्र जब रेवती नक्षत्रमें था, १ हजार मुनियोंके साथ मोक्षमें गये । इन्द्रादि देवोंने मोक्षकल्याणक मनाया ।
इनकी सम्पूर्ण आयु ८४ हजार वर्षकी थी । शरीरकी ऊँचाई ३० धनुषकी थी । कुंथुनाथजी के बाद हजार करोड़ वर्ष कप पल्योपमका चौथा अंश बीतने पर अरःनाथजी मोक्षमें गये ।
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१९ श्री मल्लिनाथ - चरित
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जंबूद्वीप के अपर विदेहमें सविलावती देश है । उसमें वीत शोका नामक नगरी थी। उसका राजा बल था, १ प्रथम भव - उसकी भार्या धरणी थी । उसके महाबल नामका पुत्र हुआ । कमलश्री आदि पाँच सौ राजकन्याओंके साथ उसका विवाह हुआ । बलने दीक्षा ली। और महाबल राजा हुआ । उसके कमलश्रीसे बलभद्र नामका पुत्र हुआ | महाबल अचल, धरण, पूरण, वसु, वैश्रमण और अभिचन्द्र ये छः राजा बालमित्र थे । एक बार महाबलने अपने मित्रोंके सामने दीक्षा लेनेकी इच्छा प्रकट की । यह बात सबको रुचि और सातों मित्रोंने एक साथ दीक्षा धारण की और ऐसी प्रतिज्ञा की, कि हम सब एकसी तपस्या करेंगे । इसके अनुसार सब तप करने लगे । उनमेंसे महाबलको अधिक फल पाने की इच्छा थी, इससे पारणेके दिन वह, आज मेरे शिरमें दर्द है, आज मेरे पेटमें दर्द है, आदि कहकर बहाने बनाता था और पारणा नहीं करके अधिक तपस्या कर लेता था ।
इस प्रकार मायाचार करके तप करने से उसने स्त्रीवेद, तथा बीस स्थानकी आराधना करनेसे तीर्थकर गोत्र बाँधा । आयुके अन्त में मरकर महाबलका जीव वैजयंत अनुत्तरमे देव हुआ ।
२ दूसरा भव
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जैन-रत्न
जंबद्वीपके दक्षिण भरतमें मिथिला नगरी थी । उसका
राजा कुंभ था । उसकी स्त्रीका नाम प्रभावती ३ तीसरा भव-था स्वर्गसे महाबलका जीव च्यवकर फाल्गुन
सुदि १४ के दिन अश्विनी नक्षत्रमें प्रभावतीके गर्भ में आया । इन्द्रादि देवोंने गर्भकल्याणक मनाया।
समयके पूर्ण होने पर मार्गशीर्ष सुदि ११ के दिन अश्विनी नक्षत्रमें प्रभावती देवीके गर्भसे कुंभलक्षण युक्त, नील वर्णी पुत्रीका जन्म हुआ । जब पुत्री गर्भ में थी, तब माताको मोतियोंकी शय्यापर सोनेकी इच्छा हुई थी, इससे उनका माल्ल कुमारी नाम रखा गया । इन्द्रादि देवोंने जन्मकल्याणक मनाया । वे क्रमसे बढ़ती हुई युवा हुई।
मल्लिकुमारीके पूर्वभवके मित्रों से अचलका जीव साकेत नगरीम प्रतिशुद्ध नामक राजा हुआ । धरणका जीव चंपानगरीमें चन्द्रछाया नामक राजपुत्र हुआ । पूरणका जीव श्रीवत्सी नगरीमें रुक्मी नामक राजा हुआ । वसुका जीव बनारसी नगरीमें शंख नामक राजा हुआ । वैश्रवणका जीव हस्तिनापुरमें अदीनशत्रु नामक राजा हुआ और अभिचन्द्रका जीव कंपिलापुर नगरमें जितशत्रु नामका राजा हुआ । इन छहों राजाओंने पूर्व भवके स्नेहसे मल्लिकुमारीके साथ विवाह करनेकी इच्छासे अपने २ दूत भेजे ।
मल्लिकुमारीने अवधिज्ञानसे यह जानकर कि मेरे पूर्व भवके १ मल्लि-मोतियोंका फूल
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१९ श्री मल्लिनाथ-चरित
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छहों मित्रोंको अशोकवाटिकामें ज्ञान होनेवाला है, अशोक वाटिकाके अन्दर एक खण्डका महल तैयार कराया। उसमें एक मनोहर रत्नमयी सिंहासन बनवाया, और उसमें एक मनोज्ञ स्वर्ण-प्रतिमा रखवाई । वह पोली थी। उसके मस्तकमें छेद रखवाया, और उसपर स्वर्णकमलका ढक्कन लगवाया। फिर वह हमेशा ढक्कन उठाकर अपने आहारमेंसे एक-एक ग्रास उसमें डालने लगी।
जिस मकानमें प्रतिमा रखवाई थी, वह छोटा था। उसके छः दरवाजे बनवाये । हरेक दरवाजेपर ताला डलवा दिया । उन दर्वाजोंके आगे एक-एक कोठड़ी और बनवाई । प्रतिमाके पीछे की तरफ भी एक दर्वाजा बनवाया, वह प्रतिमासे बिलकुल सटा हुआ था।
दूत कुंभराजाके पास मल्लिकुमारीको माँगने पहुँचे। कुंभने अपमान कर उन्हें निकाल दिया । उन छहों राजाओंने सोचा, कुंभराजाने हमारा अपमान किया है । इसलिए उसको इसका दण्ड देना ही चाहिये । उन्होंने परस्पर सलाह कर बदला लेनेके लिये मिथिला नगरीपर चढ़ाई कर दी। ___कुंभ राजाने युद्धकी तैयारी की। मल्लिकुमारीने कहा:"पिताजी ! आप व्यर्थ ही नरहत्या न करिये, कराइए । राजाओंको मेरे पास मिलनेको भेज दीजिये । मैं सबको ठीक कर दूँगी। ___ अभिमानी राजाने सशंक नेत्रोंसे अपनी कन्याकी तरफ देखा । पुत्रीकी आँखों में वह पवित्र तेज था कि जिसे देखकर उसका संदेह मिट गया।
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जैन-रत्न mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm
सजा कुंभने छहों राजाओंको मल्लिकुमारीसे मिलनेका संदेशा भेजा। राजा लोग मिलने आये । दासियोंने छहों राजाओंको छहों छोटी कोठड़ियोंके अन्दर प्रतिमावाले कमरेके दजेके बाहर खड़ा कर दिया। किवाड़ सीखचेवाले थे । इसलिए उन्हें प्रतिमा स्पष्ट दिख रही थी। राजा लोम उस रूपको देखकर दंग रह गये । वे समझे यही मल्लिकुमारी है। ___ राजा कुछ बोलें इसके पहले ही मल्लिकुमारीने उस प्रविमाके सिरसे ढक्कन हटा दिया। ढक्कन हटते ही बदबू सब तरफ फैल गई। राजा अपनी नाक कपड़ेसे बंदकर लौटने लगे। तब मल्लिकुमारी बोली:-“हे राजाओ! इस मूर्तिमें प्रति दिन केवल एक-एक ग्रास डाला गया है। उसकी दुर्गधको भी आप लोग यदि सहन नहीं कर सकते हैं तो मेरे शरीरकी दुर्गंध को, जिसमें प्रति दिन न जाने कितने ग्रास डाले गये हैं और जो महादुर्गध वाला हो मया है, आप कैसे सहन कर सकेंगे ? ज्ञानी पुरुष इस शरीरमें मोह नहीं करते । और आप लोगोंने तो तीसरे भवमें मेरे साथ दीक्षा ली थी। आप उसे क्यों स्मरण नहीं करते हैं और क्यों नहीं संसारको मायासे छूटते हैं ? उन लोगोंने जब मल्लिकुमारीके ये वचन सुने तो उन्हें जातिस्मरण ज्ञान हो आया। उनने अपने पूर्व भव जाने और प्रभुको पहचाना । वे हाथ जोड़कर कहने लगे:- "हे भगवन् ! आपने हम लोगोंकी आँखें खोल दीं। हमें आज्ञा दीजिए हम क्या करें ?" प्रभु बोले,-" जब तुम्हारी
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१९ श्री मल्लिनाथ-चरित
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इच्छा हो, तभी संसारसे छूटनेका प्रयत्न करना"। फिर प्रभुने उनको विदा किया।
उसी समय लोकान्तिक देवोंने आकर विनती की:-“हे प्रभु! अब तीर्थ प्रवर्ताइए।" तब प्रभुने वर्षीदान दे, छट्ट तप कर मार्गशीर्ष सुदि ११ के दिन अश्विनी नक्षत्रमें सहसाम्र वनमें जा एक हजार पुरुषों और तीन सौ स्त्रियोंके साथ दीक्षा ग्रहण की । इन्द्रादि देवोंने दीक्षाकल्याणक मनाया ।
उसी दिन प्रभुको मनःपर्यय और केवलज्ञान प्राप्त हुए । दूसरे दिन विश्वसेन राजाके घरपर पारणा किया । इन्द्रादि देवाने ज्ञानकल्याणक मनाया ।
प्रभुके तीर्थमें कुबेर नामका यक्ष, और वैराट नामकी शासनदेवी थी । उनके परिवारमें-८ गणधर, ४० हजार साधु, ५५ हजार साध्वियाँ, ६६८ चौदह पूर्वधारी, २ हजार २ सौ अवधिज्ञानी, १७५० मनःपर्ययज्ञानी, २ हजार २ सौ केपली, २ हजार ९ सौ वैक्रियलब्धिवाले, एक हजार चार सौ वादी, १ लाख ८३ हजार श्रावक और ३ लाख ७० हजार श्राविकाएँ थीं।
मल्लिनाथ अपना निर्वाणकाल समीप जान सम्मेद शिखरपर आये । पाँच सौ साधुओं और पाँच सौ साध्विओंके साथ उन्होंने अनशन ग्रहण किया । एक मासके बाद फाल्गुन सुदि १२ के दिन चन्द्र मक्षत्रमें वे मोक्ष गये। इन्द्रादि देवोंने मोक्ष कल्याणक मनाया।
इनकी कुल आयु ५५ हजार वर्षकी थी, उसमेंसे १००
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जैन-रत्न वर्ष कुमारावस्थामें और शेष दीक्षा पर्यायमें बिताई । इनका - शरीर २५ धनुष ऊँचा था। ___ अरनाथके निवाण जानेके बाद कोटि हजार वर्ष पीछे मल्लिनाथजी मोक्षमें गये।
. २० श्री मुनिसुव्रत-चरित
जंबूद्वीपके अपर विदेहमें भरत देश है । उसमें चंपा
नामकी नगरी थी। उसमें सुरश्रेष्ठ नामक राजा १ प्रथम भव-राज्य करता था । उसने नंदन मुनिका उपदेश
सुनकर उनसे दीक्षा ले ली । अर्हत-भक्ति आदि बीस स्थानककी आराधना करनेसे तीर्थकर गोत्र बाँधा । २ दूसरा भव–मरकर वह प्राणत देवलोकमें गया । भरत क्षेत्रके मगधदेश में राजग्रही नामकी नगरी है । उसमें
हरिवंशका राजा सुमित्र राज्य करता था उसक ३ तीसरा भव-पद्मावती नामकी रानी थी । स्वर्गसे सुरश्रेष्ठका
जीव च्यवकर श्रावण सुदि १५ के दिन श्रवण नक्षत्रमें पद्मावती देवीके गभमें आया । इन्द्रादि देवोंने गर्भकल्याणक मनाया।
गर्भ-कालके समाप्त होने पर जेठ वीद ९ के दिन श्रवण नक्षत्रमें सुमित्र राजाके यहाँ पुत्ररत्नका जन्म हुआ । इन्द्रादि देवोंने जन्मकल्याणकका उत्सव धूमधामसे मनाया । इनके
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२० श्री मुनिसुव्रत-चरित
२१७
....... कछुएका चिन्ह था । गर्भकालमें माता मुनियोंकी तरह सुव्रता ( अच्छे व्रत पालनेवाली) हुई थी। इससे पुत्रका नाम मुनिसुव्रत रखा गया। पुत्रके युवा होनेपर पिताने उनका प्रभावती आदि अनेक राजकन्याओंके साथ ब्याह कराया। प्रभावतीसे सुव्रत नामक पुत्र हुआ।
राजा सुमित्रने दीक्षा ली । मुनिसुव्रत राजा हुए और १५ हजार वर्षतक राज्य किया । फिर लोकान्तिक देवोंने प्राथना की जिससे इन्होंने वर्षीदान दे, सुव्रत पुत्रको राज्य सौंप, फाल्गुन वदि ८ के दिन श्रवण नक्षत्रमें नीलगुहा नामक उद्यानमें एक हजार राजाओंके साथ दीक्षा धारण की । इन्द्रादि देवोंने दीक्षाकल्याणक मनाया। दूसरे दिन मुनिसुव्रत स्वामीने ब्रह्मदत्त राजाके यहाँ पारणा किया।
चिर काल तक अन्यत्र विहारकर वे वापिस उसी उद्यानमें आये । चंपा वृक्षके नीचे उन्होंने कायोत्सर्ग धारण किया और घातिया काँका नाशकर फाल्गुन वदि १२ के दिन श्रवण नक्षत्रमें केवलज्ञान प्राप्त किया । इन्द्रादि देवोंने ज्ञानकल्याणक मनाया। ___ एक समय विहार करते हुए प्रभु भ्रगुकच्छ (भडूच) नगरमें आये । वहाँ समोशरणकी रचना हुई, प्रभु उपदेश देने लगे । उस नगरका राजा जितशत्रु घोड़ेपर चढ़कर दर्शनाथ आया। राजा अन्दर गया । घोड़ा बाहर खड़ा रहा । घोड़ेने भी कान ऊँचे कर प्रभुका उपदेश सुना । उपदेश समाप्त होनेपर गणधरने पूछाः- "इस समोशरणमें किसने धर्म पाया ?" प्रभुने उत्तर
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जैव-रत्व
दिया:--" जितशत्रु राजाके घोड़ेके सिवा और किसीने भी धर्म धारण नहीं किया" । जितशत्रु राजाने पूछा:-" यह घोड़ा कौन है सो कृपा करके कहिए । " प्रभुने उत्तर दिया:__"पद्मनी खण्ड नगरमें जिनधर्म नामका एक सेठ था। उसका सागरदत्त नामका मित्र था । वह हमेशा जैनधर्म सुनने आया करता था । एक दिन उसने व्याख्यानमें सुना कि जो अस्तबिम्ब बनबाता है, वह जम्मान्तरमें संसारका मंथन करनेवाले धर्मको पाता है । यह जानकर सागरदत्तने एक जिन-प्रतिमा बमवाई और धूम धामसे साधुओंके पाससे उसकी प्रतिष्ठा
___ सागरदत्त निध्यात्वी होनेसे पहले उसने नगरके बाहर एक शिवका मंदिर बनवाया था। एक बार उत्तरायण पर्वके दिन सामरदत्त वहाँ गया । उस मन्दिरके पुजारी पूजाके लिए पहिलेके रक्खे हुए घीके घड़े जल्दी-जल्दी स्वींचकर उठा रहे थे । बहुत दिन तक एक जगह रखे रहनेसे घड़ोंके नीचे जीव पैदा हो गये थे इस लिए उन्हें खींचकर उठानेसे कीड़े पर जाते थे। और कई उनके पैरोंके नीचे कुचले जाते थे। यह देखकर सागरदत्त उन कीड़ोंको अपने कपड़ेसे एक तरफ इटाने लगा । उसे ऐसा करते देख एक पुजारी बोला:-" अरे तुझे इन सफेदपोश यतियोंने यह नई शिक्षा दी है क्या ?"
और तब उसने पैरोंसे और भी कई कीड़ोंको कुचल दिया। सागरदत्त दुखी होकर पुजारियोंके आचार्यके पास गया । आचार्यने उस पापकी उपेक्षा की। तब सागरदत्तने विचारा
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२० श्री मुनिसुव्रत-चरित
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यह भी निर्दयी है। ऐसे गुरुकी शिक्षासे दुर्गतीमें जाना पड़ेगा। ऐसा गुरु पत्थरकी नाव है। आप संसार-समुद्रमें डूबेगा, और दूसरोंको भी डुबायेगा । यद्यपि उसकी शिवपर अश्रद्धा हो गई थी तो भी वह लोकलाजसे शिव-पूजा करता रहा । इस तरह. श्रद्धा ढीली होनेसे उसे सम्यक्त्व न हुआ, और वह मरकर घोड़ा हुआ है । मैं उसको बोध करानेके लिये ही यहाँपर आया हूँ । पूर्व अवमें इसने दयामय धर्म पाला था इससे यह क्षणमात्रमें धर्म पाया है।" ___ यह सुनकर राजाने उस घोड़ेको छोड़ दिया। उसी समयसे भडूच शहरमें अश्वावबोध नामका तीर्थ हुआ।
मुनिसुव्रत स्वामीके तीर्थमें वरुण नामका यक्ष और वरदत्ता नामकी शासन देवी हुई । उनके संघमें १८ गणधर, ३०. हजार साधु, ५० हजार साध्वियाँ, ५०० चौदह पूर्वधारी, १८०० अवधिज्ञानी, १५०० मनःपर्यय ज्ञानी, १८०० केवली, २००० वैक्रियक लब्धिवाले, १२०० वादलब्धिवाले, १ लाख ७२ हजार श्रावक, और ३ लाख ५० हजार श्राविकाएँ थे।
निर्वाण काल समीप जानकर प्रभु सम्मेदशिखरपर पधारे । और एक हजार मुनियोंके साथ एक मासका अनशन धारण कर जेठ वदि ९ के दिन अश्विनी नक्षत्र में मोक्ष गये । इन्द्रादिः देवोंने मोक्षकल्याणक मनाया।
प्रधुने साढ़े सात हजार वर्ष कौमारावस्थामें साढ़े सात हजार वर्ष राज्य कार्य और १५ हजार वर्ष व्रत पालनेमें, इस
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जैन - रत्न
तरह ३० हजार वर्षकी आयु पूर्ण की। उनके शरीरकी ऊँचाई - २० धनुष थी ।
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मल्लिनाथजीके निर्वाण जानेके बाद चौवन लाख बर्ष बीतने पर मुनिसुव्रत स्वामी मोक्षमें गये ।
मुनिसुव्रत स्वामीके समय में महापद्म नामका चक्रवर्ती हो गया है ।
२१ श्री नमिनाथ - चरित
ि
जंबूद्वीप के पश्चिम महाविदेह में कौशांबी नामकी नगरी थी । उसमें सिद्धार्थ राजा राज्य करता था । किसी १ प्रथम भव — कारण से उसको संसारसे वैराग्य हुआ और उसने सुदर्शन मुनिके पाससे दीक्षा ली एवं बीस स्थानककी आराधना से तीर्थकर गोत्र बाँधा ।
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अन्तमें शुभध्यान पूर्वक मरकर वह अपराजित देवलोक गया ।
२ दूसरा भव
३ तीसरा भव—
वहाँसे च्यवकर सिद्धार्थका जीव मिथिला नगरीके राजा विजयकी रानी वाके गर्भमें, आश्विन सुदि १५ के दिन अश्विनी नक्षत्र में, आया । इन्द्रादि देवोंने गर्भकल्याणक मनाया ।
गर्भका समय पूरा होनेपर वमा देवीने, श्रावण वदि ८ के दिन अश्विनी नक्षत्रमें नील कमल लक्षणयुक्त, स्वर्णवर्णी पुत्र
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२१ श्री मनिनाथ-चरित
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को जन्म दिया । इन्द्रादि देवोंने जन्मकल्याणक मनाया। जिस समय प्रभु गर्भ में थे, उस समय मिथिलाका शत्रुओंने घेर लिया था, उन्हें देखनेके लिए वप्रा देवी महलकी छतपर गई। उन्हें देखकर गर्भके प्रभावसे शत्रु राजा विजय नृपके चरणोंमें आ नमे । इससे मातापिताने पुत्रका नाम नमिनाथ रखा। प्रभु अनुक्रमसे युवा हुए । अनेक राजकन्याओंके साथ उन्होंने ब्याह किया। ढाई हजार वर्षके बाद राजा हुए और पाँच हजार वर्ष तक राज्य किया। फिर लोकान्तिक देवोंकी विनतीसे प्रभुने वर्षीदान दिया, सुप्रभ पुत्रको राज्य सौंपा और सहसाम्र वनमें जाकर दीक्षा धारण की । इन्द्रादि देवोंने तपकल्याणक मनाया। दूसरे दिन प्रभुने वीरपुरके राजा दत्तके घर पारण किया। __ प्रभु वहाँसे विहारकर पुनः नौ मासके बाद उसी उद्यानमें
आये और बोरसली वृक्षके नीचे कायोत्सर्ग धारण कर मार्गशीर्ष वदि ११ के दिन अश्विनी नक्षत्रमें केवलज्ञान पाये ।
नमि प्रभुके तीर्थमें भ्रकुटि नामक यक्ष और गांधारी नामक शासन देवी थी। उनका संघ इस प्रकार था-१७ गणधर, २० हजार साधु, ४१ हजार साध्वियाँ, ४५० चौदह पूर्वधारी, १ हजार छ: सौ अवधिज्ञानी, १२ सौ ८ मनः पर्ययज्ञानी, १६०० केवली, ५ हजार वैक्रियक लब्धिवाले, १ हजार वादलब्धिवाले, ३ लाख ४८ हजार श्राविकाएँ और १ लाख ७७ हजार श्रावक।
विहार करते हुए अपना मोक्षकाल समीप जान प्रभु सम्मेद शिखरपर आये । वहाँ एक हजार मुनियोंके साथ एक मासका
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जैन-स्नि
अनशन धारणकर वैशाख वदि १० के दिन अश्विनी नक्षत्र में मोक्ष गये । इन्द्रादि देवाने निर्वाणकल्यणक मनाया । इनकी आयु कुल १० हजार वर्षकी थी और शरीर-ऊँचाई १५धनुष थी।
मुनिसुव्रत स्वामीके निर्वाण जामेके छ: लाख वर्ष बाद नमिमाथजी मोक्षमें गये।
इनके समयमें हरिषेण और जय नामक चक्रवर्ती हुए हैं।
२२ श्री नेमिनाथ-चरित
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जंबद्वीपके भरत क्षेत्रमें अचलपुर नामक नगर था। उसका
राजा विक्रमधन था। उसके घरणी नामकी १ प्रथम भव-- रानी थी। रानीने एक रात्रिमें स्वम देखा कि
एक पुरुषने फलोवाले आम्र वृक्षको हाथमें लेकर कहा कि, यह वृक्ष तुम्हारे आंगनमें रोषा जाता है । जैसे २ समय बीतेगा वैसे ही वैसे वह अधिक फलवाला होगा और भिन्न २ स्थानोंपर नौ जगह रुपेगा। सवेरे शय्या छोड़कर रानी उठी और नित्य कृत्योंसे निवृत्त हो उसने स्वमका फल राजासे पूछा । राजाने शीघ्र ही स्वमनिमित्तिकको बुलाकर स्वमका फल कहनेकी आज्ञा दी। उसमे कहा:-" हे राजन् तुम्हारे अधिक गुणवान पुत्र होगा । और नौ बार एक्ष रुपेगा इसका फल केवली गम्य है।"
यह सुनकर राजा और रामी हर्षित हुए । समयके पूर्ण
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२२ श्री नेमिनाथ-चरित
२२३
होने पर रानीने पुत्ररत्नको जन्म दिया । पुत्रका नाम ' धन , रखा गया । शिशु कालको त्यागकर उसने यौवनावस्थामें पदार्पण किया।
कुसुमपुर नगरमें सिंह मामक रामाकी विमला रानीके धनवती नामकी कन्या थी।
एक दिन वसंत ऋतुमें युवती धनवती सखियोंके साथ, उद्यानकी शोभा देखनेको गयी । उस उद्यानमें घूमते हुए राजकुमारीने, अशोक वृक्षके नीचे हाथमें चित्र लेकर खड़े हुए एक चित्रकारको देखा । धनवतीकी कमलिनी नामक दासीने उसके हाथसे चित्र ले लिया । वह एक अद्भुत रूपवान राजकुमारका चित्र था । सखीने वह चित्र राजकुमारीको दिया। उसको देखकर आश्चर्यके साथ राजकुमारीने पूछा:-" यह चित्र किसका है ? सुर-असुर मनुष्यों में ऐसा रूपवान कौन है ?"
यह सुन, चित्रकार हँसा और बोला:-" अचलपुरके राजा विक्रमधनके युवा पुत्र ( धनकुमार ) का यह चित्र है। राजकुमारी उस रूपपर मोहित हो गई। और उसने प्रतिज्ञा की कि मैं धन कमारको छोड अन्य किसीके साथ शादी नहीं करूँगी। कन्याके पिताको यह बात मालूम हुई। उसने अपना दूत ब्याहका संदेश लेकर अचलपुरके राजा विक्रमधनके यहाँ भेजा । वहाँ जाकर उसने राजाका संदेशा कह सुनाया। राजाने भी स्वीकारता दे दी । धनकुमार और धनवतीका ब्याह हो गया । दोनों पति-पत्नी आनंदसे समय व्यतीत करने लगे। एक बार वसुंधर नामक मुनिसे विक्रम
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जैन - रत्न
धनने राणिके स्वनका फल पूछा । मुनिने उत्तर दिया:- " नौ
भव कर तुम्हारा पुत्र मोक्षमें जायगा ।"
वसंत ऋतु धनकुमार धनवतीके साथ एक सरोवरपर गया । वहाँ उन्होंने एक स्थानपर एक मुनिराजको अचेत पड़े देखा | अनेक शीतोपचार कर उन्होंने उनकी मूर्च्छा दूर की। मुनि सचेत होने पर राजकुमारने प्रणाम कर उनके अचेत होनेका कारण पूछा । मुनिने सुमधुर स्वर में कहा :- " हे राजन् ! मैं अपने गुरु के साथ विहार कर रहा था, इस जंगलमें रस्ता भूल गया । भटकते हुए । भूख प्यास और थकानसे मुझे मूर्च्छा आ गई । " फिर मुनिराजने श्रावकधर्मका उपदेश दिया । जिससे धनकुमारने सम्यक्त्व सहित श्रावकधर्म स्वीकार कर लिया । राजकुमार महलोंमें गया और मुनि अन्यत्र विहार कर गये ।
२२४
राजकुमारने चिरकाल तक संसारका सुख भोग, जयन्त पुत्रको राज्य सौंप, वसुंधर नामक मुनिके पाससे दीक्षा ली और चिरकाल तक मुनित्रत पाला ।
२ दूसरा भव
अनशन सहित प्राण तजकर धनकुमारका जीव सौधर्म देवलोक में देव हुआ ।
धनकुमारका जीव वहाँसे च्यवकर वैताढ्य पर्वतकी उत्तर श्रेणी में सुरतेज नामक नगरके खेचर ३ तीसरा भव— राजा श्रीसूरकी रानी विद्युन्यमतिके गभसे जन्मा । उसका नाम चित्रगति रखा गया । धनवतीका जीव उसी पर्वतकी दक्षिण श्रेणीमें शिवमंदिर नगर
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२२ श्री नेमिनाथ-चरित
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के राजा अनंगसिंहकी रानी शशिप्रभाके गर्भसे पुत्री रूपमें जन्मा। उसका नाम रत्नवती रखा गया ।
चक्रपुर नगरके राजा सुग्रीवके दो रानियाँ थीं । एक यशस्वी और दूसरी भद्रा । यशस्वी रानीके सुमित्र नामक पुत्र था और भद्राके पद्मकुमार । सुमित्र कुमार धर्मात्मा और सदाचारी था और पद्मकुमार था मिथ्यात्वी, अहंकारी और व्यसनी। __एक दिन दुष्टा भद्रा रानीने, यह विचारकर कि यदि सुमित्र जीता रहेगा तो मेरे पुत्र पद्मको राज्य नहीं मिलेगा, सुमित्रको जहर दे दिया । विषके पीते ही सुमित्र पृथ्वीपर मूञ्छित होकर गिर पड़ा। जहर सारे शरीरमें व्याप्त हो गया। जब यह खबर सुग्रीव राजाको मिली तो वे मंत्री सहित वहाँ आये । अनेक तरहके उपचार किये पर विषका असर कम न हुआ । राजा बड़े दुखी हुए । सारे नगरमें भद्राकी अपकीर्ति फैल गई । वह कहीं चुपचाप भाग गई।
चित्रगति विद्याधर विमानमें बैठ आकाशमें फिरने निकला था । घूमते २ वह उसी नगरमें आ निकला । कोलाहल सुनकर उसने विमान नीचे उतारा । पूछने पर लोगोंने उसे विषकी बात सुनाई । उसने जल मंत्र कर सुमित्रपर छिड़का । राजकुमार सचेत हो गया और आश्चर्यसे इधर उधर देखने लगा । राजाने कहा:-" हे पुत्र! तेरी अपर माताने (सोतेली माँने ) तुझको विष दिया था। इन महापुरुषने तुझको जीक दान दिया है। "फिर सुमित्र और उसके पिताने अनेक प्रका
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जैन - रत्न
रके कातर वचनोंमें कृतज्ञता प्रकट की और कुछ दिन अपने यहाँ रहनेकी उससे विनती की । चित्रगति ठहरनेमें अपनेको असमर्थ बता सुमित्रको अपना मित्र बना चला गया ।
I
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एक दिन उद्यानमें सुयशा नामक केवली पधारे । राजा परिवार सहित उनको वंदना करने गये | वंदना करके राजा यथास्थान बैठ गये । फिर हाथ जोड़ उनने पूछा: – “हे भगवन् ! मेरी दूसरी स्त्री भद्रा कहाँ पर गई ९ " केवली बोलेः – “ वह यहाँसे भागकर वनमें गई पर चोरोंने उसके आभूषण लूट लिये और उसे एक भीलको सौंप दिया । भीलने उसे एक वणिकको बेच दिया। वह रास्तेमें जा रही थी कि जंगलमें आग से जल गई और मरकर प्रथम नरकमें गई है । यह उसके बुरे कर्मोंका फल हैं । "
-
राजा सुग्रीवको वैराग्य हो गया । उसने उसी समय सुमिको राज्य सौंपकर दीक्षा ले ली और केवली के साथ विहार किया । सुमित्र अपने स्थानको गया ।
सुमित्रकी बहिन कलिंग देशके राजाके साथ ब्याही गई थी । उसको अनंगसिंह राजाका पुत्र, रत्नावतीका भाई कमल, हरकर ले गया । इस समाचारसे सुमित्र बहुत क्रुद्ध हुआ और वह युद्धकी तैयारी करने लगा । यह खबर एक विद्याधरके मुखसे चित्रगतिने सुनी । तब चित्रगतिने उसीके साथ यह संदेशा सुमित्रके पास भेजा: - " हे मित्र ! आप कष्ट न करें । मैं थोड़े ही दिनों में आपकी बहिनको छुड़ा लाऊँगा ।" फिर
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२२ श्री नेमिनाथ-चरित
चित्रगति अपनी सेना लेकर शिवपुर गया । चित्रगति और कमलमें घोर युद्ध होने लगा ।
युद्धमें कमल हार गया, तब उसका पिता अनंगसिंह आया और उसने चित्रगतिको ललकारा, - " छोकरे ! भाग जा! नहीं तो मेरा यह खड्ड अभी तेरा सिर धड़ से जुदा कर देगा । " चित्रगतिने हँसकर विद्याबलसे चारों तरफ अंधेरा कर दिया; अनंगसिंहके पाससे खङ्ग छीन लिया और वह कुछ न कर सका । चित्रगति फिर सुमित्रकी बहनको लेकर वहाँसे चला गया । थोड़ी देर के बाद जब अंधेरा मिटा तब उसने चारों तरफ देखा तो मालूम हुआ कि चित्रगति तो चला गया है, वह पछताने लगा । फिर उसे मुनिके वचन याद आये कि, जो पुरुष तेरे हाथसे खड्ड छीनेगा वही तेरा जामाता होगा । मगर अब उसे वह कहाँ ढूंढता ? वह अपने घर गया ।
चित्रगतिने सुमित्रको इसकी बहिन लाकर सौंप दी । सुमित्रने उपकार माना । सुमित्र पहिले ही संसारसे उदास हो रहा था इस घटनाने उसके मनसे संसारकी मोहमाया सर्वथा निकाल दी और उसने सुयशा मुनिके पाससे दीक्षा ले ली । चित्रगति I । अपने देशको चला गया ।
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सुमित्र मुनि अनेक बरसों तक विहार करते हुए मगध देशमें आये और एक गाँव के बाहर एकान्त में कायोत्सर्ग करके - रहे । सुमित्रका सापत्न भाई पद्म- जो सुमित्रके गद्दी बैठनेपर देश छोड़कर चला गया था - भटकता हुआ वहाँ आ निकला । उसने सुमित्र मुनिको अकेले देखा । उसे विचार आया, - यही
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जैन-रत्न
पुरुष है जिसके कारणसे मेरी माता भागी और बुरी हालतमें दुःख झेलकर मरी, यही पुरुष है जिसके सबबसे मैं वन वन, और गाँव गाँव मारा मारा फिर रहा हूँ। आज मैं इससे बदला लूँगा। उसने धनुषपर बाण चढ़ाया और खींचकर मुनिकी छातीमें मारा । मुनिका ध्यान भंग हो गया । उन्होंने अपनी छातीमें बाण और सामने अपना भाई देखा । मुनिको खयाल आया,-आह ! मैंने इसको राज्य न देकर इसका बड़ा अपकार किया था। उन्होंने कहना चाहा,-भाई ! मुझे क्षमा करो! मगर बोला न गया । बाणके घावने असर किया । वह जमीनपर गिर पड़े । दुष्ट पद्म खुश हुआ। मुनिने भाईसे और जगतके सभी जीवोंसे क्षमा माँगी और संथारा कर लिया। अंहंत अहंत कहते हुए वे मरकर ब्रह्मलोकमें इन्द्रके सामानिक देव हुए।
पद्म वहाँसे भागा । अंधेरी रातमें कहीं सर्पपर पैर पड़ गया। सपने उसे काटा और वह मरकर सातवें नरकमें गया ।
सुमित्रकी मृत्युके समाचार सुनकर चित्रगतिको बड़ा खेद हुआ। वह यात्राके लिए अपने पिताके साथ सिद्धायतनपर गया। उस समय और भी अनेक विद्याधर वहाँ आये हुए थे । अनंगसिंह भी अपनी पुत्री रत्नावतीके साथ वहाँ आया था। चित्रगति जब प्रभुकी पूजा स्तुति कर चुका तब देवता बने हुए सुमित्रने उसपर फूलोंकी वृष्टि की। अनंगसिंहने चित्रगतिका वहाँ पूरा परिचय पाया।
अपने देश जाकर अनंगसिंहने चित्रगतिके पिता श्रीसूर
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२२ श्री नेमिनाथ - चरित
चक्रवर्त्तीको विवाहका संदेशा कहलाया । श्रीसूरने संदेशा स्वीकारा और चित्रगति के साथ रत्नावलीका विवाह कर दिया । वह सुखसे दिन बिताने लगा ।
श्रीसूर राजाने चित्रगतिको राज्य देकर दीक्षा ले ली। चित्रगति न्याय से राज्य करने लगा । एक बार उसके आधीन एक राजा मर गया । उसके दो पुत्र थे । वे दोनों राज्यके 1 लिए लड़ने लगे । चित्रगतिने उनको समझाकर शांत किया । कुछ दिनके बाद उसने सुना कि दोनों भाई एक दिन लड़कर मारे गये हैं । इस समाचार से उसे संसारसे वैराग्य हो गया और उसने, पुरंदर नामक पुत्रको राज्य देकर, पत्नी रत्नवती और अनुज मनोगति तथा चपलगतिके साथ दमधर निके पास से दीक्षा ले ली ।
चिर काल तक तपकर चित्रगति महेन्द्र देवलोकमें परमर्द्धिक ४ चौथा भवदेवता हुआ । उसके दोनों भाई और उसकी पत्नी भी उसी देवलोकमें देवता हुए ।
पूर्व विदेहके पद्म नामक प्रांतमें सिंहपुर नामका अपराजित शहर था । उसमें हरिनंदी नामका राजा राज्य ५ पाँचवाँ भव करता था । उसके प्रियदर्शना नामकी रानी थी । चित्रगतिका जीव देवलोक से चयकर प्रियदर्शनाके गर्भ से जन्मा । उसका नाम अपराजित रखा गया ।
जब वह बड़ा हुआ तब, विमलबोध नामक मंत्री -पुत्रके साथ उसकी मित्रता हो गई । एक दिन दोनों मित्र घोड़ों पर सवार होकर फिरनेको निकले । घोड़े बेकाबू हो गये और
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जैन-रत्न
..AAPMA
भागे हुए एक जंगलमें जाकर ठहरे । वे घोड़ोंसे उतरे और जंगलकी शोभा देखने लगे। उसी समय एक पुरुष 'बचाओ! बचाओ !' पुकारता हुआ आकर अपराजितके चरणों में गिर पड़ा । अपराजितने उसे अभय दिया। विमलवोध बोला:"कुमार ! बेजाने किसीको अभय देना ठीक नहीं है। कौन जाने यह पुरुष कुछ गुनाह करके आया हो।" . ___ अपराजित बोला:-"क्षत्रिय शरणमें आये हुएको अभय देते हैं । शरणागतके गुणदोष देखना क्षत्रियोंका काम नहीं है। उनका काम है केवल शरणमें आये हुएकी रक्षा करना ।" ___ इतनेहीमें 'मारो! मारो !' पुकारते हुए कुछ सिपाही
आये और बोले:-" मुसाफिर ! इसे छोड़ दो। यह लुटेरा है ।" अपराजित बोला:-" यह मेरी शरणमें आया है । मैं इसे नहीं छोड़ सकता।" तब हम इसे जबर्दस्ती पकड़कर ले जायँगे।" कहकर एक सिपाही आगे बढ़ा । अपराजितने, तलवार खींच ली और कहा:-"खबरदार !आगे बढ़ा तो प्राण जायँगे।" सब सिपाही आगे आये और अपराजितपर आक्रमण करने लगे। अपराजित अपनेको बचाता रहा । जब सिपाहियोंने देखा कि इसको हराना कठिन है तो वे भाग गये । कौशलेशके पास जाकर उन्होंने फर्याद की।
कौशलपतिने लुटेरेके रक्षकको पकड़ लाने या मार डालनेके लिए फौज भेजी । अपराजितने सैकड़ों सिपाहियोंको यमधाम पहुँचाया। उसके बलको देखकर सेना भाग गई । तब राजा खुद फौजके साथ आया । घुड़सवारों और हाथीसवारोंने
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२२ श्री नेमिनाथ-चरित
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अपराजितको चारों तरफ से घेर लिया । अपराजित भी घोड़ेपर सवार होकर अपना रणकौशल बताने लगा । अपराजितने खांडा और भाला चलाते हुए अनेकोंको धराशायी किया । कौशलपति एक हाथीपर बैठा हुआ था । अपराजितने हाथीपर भाला चलाया । महावत मारा गया। हाथी घूम गया । दूसरा हाथी सामने आया । अपराजित छलांग मारकर उस हाथीपर जा चढ़ा और उसके सवार व महाबत दोनोंको मार डाला । राजा शाबाश ! शाबाश !' पुकार उठा । वीर हमेशा वीरोंकी प्रशंसा करते हैं । चाहे वह शत्रु ही क्यों न हो ।
"
कौशलपतिको उसके मंत्रीने कहा :- " महाराज ! यह वीर तो अपने मित्र हरिनंदीका पुत्र है । अजानमें हम युद्ध कर रहे हैं । युद्ध रोकिए । "
राजाने युद्ध रोक दिया और कुमारको अपने पास बुलाया । स्नेहके साथ उसके सिरपर हाथ फेरा और कहा: - " तुम्हारी वीरता देखकर मैं बड़ा खुश हूँ । यह जानकर तो मुझे अधिक खुशी हुई है कि तुम मेरे मित्र हरिनंदीके पुत्र हो ।" उसे और विमलबोधको लेकर वह शहर में गया । राजाने डाकूको माफ कर दिया । और अपराजितके साथ अपनी कन्या कनकमालाका ब्याह कर दिया | अपने मित्र हरिनंदी को भी इसकी सूचना कर दी और यह भी कहला दिया कि अपराजित थोड़े दिन कौशलमें ही रहेगा ।
एक दिन रातमें अपराजित अपने मित्र विमलबोधको लेकर
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किसीको कहे बगैर चुप चाप चल पड़ा । रस्तेमें चलते हुए उसने सुना,-" हाय! पृथ्वी क्या आज पुरुषविहीन हो गई है ? अरे! कोई मुझे इस दुष्टसे बचाओ!" अपराजित चौंक पड़ा । उसने घोड़ेको आवाजकी तरफ घुमा दिया । जहाँसे आवाज आई थी वहाँ दोनों मित्र पहुँचे । उन्होंने देखा कि अमिकुंडके पास एक पुरुष एक स्त्रीकी चोटी एक हाथसे पकड़े और दूसरे हाथसे तलवार उठाये उसे मारनेकी तैयारीमें है।"
अपराजितने ललकारा:-" नामर्द ! औरतोंपर तलवार उठाता है ? अगर कुछ दम हो तो पुरुषोंके साथ दो दो हाथकर।" वह पुरुष स्त्रीको छोड़कर अपराजितपर झपटा । अपराजितने उसका वार खाली दिया। दोनों थोड़ी देर तक असियुद्ध करते रहे । उसकी तलवार टूट गई, तो अपराजितने भी अपनी तलवार डाल दी और दोनों बाहुयुद्ध करने लगे । अपराजितसे अपनेको हारता देख उस विद्याधरने मायासे अपराजितको नागपाशमें बाँध लिया । पूर्व पुण्यसे बली बने हुए अपराजितने पाशको तोड़ डाले और खङ्ग उठाकर उसपर आघात किया।वह जख्मी होकर गिरा और बेहोश हो गया। विमलबोध और अपराजितने उपचार करके उसको होश कराया। जब उसे होश आया तब अपराजित बोला:-" और भी लड़नेकी इच्छा हो तो, मैं तैयार हूँ।" वह बोला:-" मैं पूरी तरहसे हार गया हूँ। आप मेरी थैलीमें दवा है, वह घिसकर मेरे घावपर लगा दीजिए ताके मेरे घाव भर जायँ ।" अपरा. जितने औषध लगाई और वह अच्छा हो गया । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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२२ श्री नेमिनाथ-चरित
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अपराजितके पूछनेपर विद्याधर बोला:-"मेरा नाम मयकान्त है और इस युवतिका नाम अमृतमाला है। इसने ज्ञानीसे सुना कि, इसका व्याह हरिनंदी राजाके पुत्र अपराजितके साथ होना बदा है तबसे यह उसीके नामकी माला जपती है । मैंने इसे देखा और मेरे साथ ब्याह करनेके लिए इसको उड़ा लाया। मैंने बहुत विनती की; मगर यह न मानी । बोली:-" इस शरीरका मालिक या तो अपराजित ही होगा या फिर अग्निहीसे यह शरीर पवित्र बनेगा।" मेरी बात न मानी इसलिए मैंने इसको अग्निके समर्पण करना स्थिर किया। इसी समय तुम आये और इसकी रक्षा हो गई । "
विमलबोध बोला:-"ये ही हरिनंदीके पुत्र अपराजित हैं। भाग्यमें जो लिखा होता है वह कभी नहीं मिटता ।" उसी समय रत्नमालाके मातापिता भी ढूँढते हुए वहाँ आ गये । उन्होंने यह सारा हाल सुना और वहीं कन्याको अपराजितके साथ ब्याह दिया । अपराजित यह कहकर वहाँसे विदा हुआ कि जब मैं बुलाऊँ तब इसे मेरी राजधानीमें भेज देना ।
वहाँसे चलकर दोनों मित्र एक जंगलमें पहुँचे । धूप तेज थी। प्याससे अपराजितका हलक सूखने लगा। विमलबोध उसको एक झाड़के नीचे बिठाकर पानी लेने गया । वापिस आकर देखता क्या है कि वहाँ अपराजितका पता नहीं है । वह चारों तरफ ढूँढने लगा, परन्तु अपराजितका कहीं पता न चला। बिचारा विमलबोध आक्रंदन करता हुआ इधर उधर भटकने लगा। कई दिन ऐसे ही निकल गये । एक दिन एक गाँवमें
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जैन-रत्न
वह उदास बैठा था, उसी समय उसके सामने दो पुरुष आये और उसका नाम पूछा । उसने नाम बताया, तब वे बोले:"हम भुवनभानु नामक विद्याधरके नौकर हैं। हमारे राजाके कमलिनी और कुमुदिनी नामकी दो पुत्रियाँ हैं । उनके लिए अपराजित ही योग्य वर है । ऐसी बात निमित्तियाने कही थी। इसलिए अपराजितको लानेके लिए हमें हमारे मालिकने भेजा। हमने तुम्हें वनमें देखा और हम अपराजितको उठा ले गये; मगर अपराजित तुम्हारे बगैर मौन धारकर बैठा है । अब तुम चलो और हमारे स्वामीकी इच्छा पूरी करो।"
विमलबोध आनंदपूर्वक उनके साथ गया। दोनों मित्र मिलकर बहुत खुश हुए। फिर भुवनभानुकी कन्याओंके साथ अपराजितकी शादी हो गई । कुछ दिनके बाद अपराजित वहाँसे भी रवाना हो गया। ___ दोनों मित्र आगे चले। और श्रीमंदिरपुर पहुँचे । वहाँ
उन्होंने शहरम कोलाहल और उदासी देखे । पूछनेसे मालम हुआ कि यहाँके दयालु राजाके कोई छुरी मार गया है । उसका घाव प्राणहारी हो गया है । अनेक इलाज किये मगर अबतक कोई लाभ नहीं हआ। अब जान पडता है राजा न बचेगा। ___ अपराजितको दया आर्द । वह मित्र सहित राजमहलमें पहुँचा । उसने सूर्यकांतकी दी हुई ओषधि घिसकर लगाई और राजा अच्छा हो गया । राजाने उसका हाल जानकर अपनी कन्या रंभा उसके साथ ब्याह दी।
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२२ श्री नेमिनाथ-चरित
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कुछ दिनके बाद अपराजित वहाँसे मित्र सहित रवाना हुआ और कुंडिनपुर पहुँचा । वहाँ स्वर्णकमलपर बैठे देशना देते हुए एक मुनिको उसने देखा । उन्हें वंदनाकर वह बैठा और धर्मोपदेश सुनने लगा। देशना समाप्त होनेपर अपराजितने पूछा:" भगवन् मैं भव्य हूँ या अभव्य ? केवलीने जवाब दियाः"हे भद्र! तू भव्य है । इसी जंबूद्वीपके भरतक्षेत्रमें बाईसवाँ तीर्थकर होगा और तेरा मित्र मुख्य गणधर होगा ।" यह सुनकर दोनोंको आनंद हुआ। ___ जनानंद नामके नगरमें जितशत्रु नामका राजा था। उसके धारिणी नामकी रानी थी। रत्नवती स्वर्गसे च्यवकर धारिणीके गर्भसे जन्मी । उसका नाम प्रीतिमती रखा गया। वह सब कलाओंमें निपुण हुई । उसके आगे अच्छे अच्छे कलाकार भी हार मानते थे । इसलिए उसके पिता जितशत्रुने प्रीतिमतीकी इच्छा जानकर सब जगह यह प्रसिद्ध कर दिया कि जो पुरुष प्रीतिमतीको जीतेगा उसीके साथ उसका ब्याह होगा । और अमुक समयमें इसका स्वयंवर होगा। उसीमें कलाओंकी परीक्षा होगी। ___ स्वयंवरमंडप सजाया गया । अनेक राजा और राजकुमार वहाँ जमा हुए । प्रीतिमतीने उनसे प्रश्न किये; परन्तु कोई जवाब न दे सका । अपराजित भी भेस बदले हुए वहाँ आ पहुँचा था। जब उसने देखा कि सब राजा लोग निरुत्तर हो गये हैं, तब उससे न रहा गया। वह आगे आया और उसने प्रीतिमतीके प्रश्नोंका उत्तर दिया। प्रीतिमती हार गई और उसने अपराजितके गलेमें वरमाला डाल दी। जितशत्रु चिन्तामें पड़ा,-अफ्सोस!
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जैन- रत्न
मेरी भूलसे और अपनी हठसे आज यह सोनेकी प्रतिमा, इस अजान राहगीरकी पत्नी होगी । भाग्य !
दूसरे राजा लड़नेको तैयार हुए । अपराजितने उन सबको पराजित कर दिया । सोमप्रभ ने अपने भानजेको पहचाना और उसे गले लगाया | फिर उसने जितशत्रु वगैरासे अपराजितका परिचय करा दिया । उसका परिचय पाकर सबको बड़ा आनंद हुवा | धूमधाम के साथ अपराजित और प्रीति - मतीका ब्याह हो गया । जितशत्रुके मंत्री की कन्याके साथ विमलबोधकी भी शादी हो गई। दोनों सुखसे दिन बिताने लगे ।
कई दिन बाद हरिनंदीका एक आदमी वहाँ आया । उसे देखकर अपराजितको बड़ी खुशी हुई । वह उससे गले मिलकर माता पिताका हाल पूछने लगा । आदमीने कहा :- " आपके . वियोग में वे मरणासन्न हो रहे हैं । कभी कभी आपके समाचार सुनकर उनको नये जीवनका अनुभव होता है । अभी आपकी शादी के समाचार सुनकर वे बड़े खुश हुए हैं; आपको देखनेके लिए आतुर हैं । और इसलिए उन्होंने बुलानेके लिए मुझे यहाँ भेजा है । प्रभु अब चलिए मातापिताको अधिक दुःख न दीजिए ।
अपराजितको मातापिताका हाल सुनकर दुःख हुआ । वह अपनी पत्नियों को लेकर राजधानीमें गया । मातापिता पुत्रको और पुत्रवधुओं को देखकर आनंदित हुए ।
मनोगति और चपलगतिके जीव माहेन्द्र देवलोकसे चयकर अपराजितके अनुज बंधु हुए ।
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२२ श्री नेमिनाथ-चरित २३७ राजा हरिनंदीने अपराजितको राज्य देकर दीक्षा ली और तप करके वे मोक्ष गये।
एक बार अपराजित राजा फिरते हुए एक बगीचेके अंदर जा पहुँचा । वह बगीचा समुद्रपाल नामक सेठका था । सुखसामग्रियोंकी उसमें कोई कमी न थी। सेठका लड़का अनंगदेव वहाँ क्रीडामें निमग्न था । राजाके आनेकी बात जानकर उसने उनका स्वागत किया। राजाको यह जानकर परम संतोष हुआ कि मेरे राजमें ऐसे सुखी और समृद्ध पुरुष हैं । दूसरे दिन राजा जब फिरने निकला तब उसने देखा कि लोग एक मुर्देको लेजा रहे हैं । वह अनंगपालका मुर्दा था। राजाको बड़ा खेद हुआ । जीवनकी अस्थिरताने उसको संसारसे विरक्त कर दिया। कल शामको जो परम स्वस्थ और सुखमें निमग्न था आज शामको उसका मुर्दा जा रहा है । यह भी कोई जीवन है ?
राजाने प्रीतिमतीसे जन्मे हुए पद्मनाभके पुत्रको राज्य देकर दीक्षा ली। उसके साथ ही उसके भाइयोंने और पत्नी प्रीतिमतीने भी दीक्षा ले ली। ६ छठा भव___वे सभी तपकर कालधर्मको प्राप्त हुए और आरण
नामके ग्यारहवें देवलोकमें इन्द्रके सामानिक देव हुए। भरत क्षेत्रके हस्तिनापुरमें श्रीषेण नामका राजा था। उसकी
__ श्रीमती नामकी रानी थी। इसके गर्भसे अपरा ७ सातवाँ भव-जितका जीव चयकर उत्पन्न हुआ । उसका नाम (शंख राजा) शंख रखा गया। बड़ा होनेपर वह बड़ा विद्वान
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और वीर हुआ। विमलबोधका जीव भी चयकर श्रीषेण राजाके मंत्री गुणनिधिके घर उत्पन्न हुआ । उसका नाम मतिप्रभ रखा गया । शंख और मतिप्रभकी आपसमें बहुत मित्रता हो गई। __ एक बार राजा श्रीषेणके राजमें समरकेतु नामका डाकू लोगोंको लूटने और सताने लगा । प्रजा पुकार करने आई। राजा उसको दंड देनेके लिए जानेकी तैयारी करने लगा। कुमार शंखने पिताको आग्रहपूर्वक रोका और आप उसको दंड देने गया।
डाकूको परास्त किया। वह कुमारकी शरणमें आया। कुमारने उसका सारा धन उन प्रजाजनोंको दिला दिया जिनको उसने लूटा था। फिर डाकूको माफ कर उसे अपनी राजधानीमें ले चला। __ रस्तेमें शंखका पड़ाव था । वहाँ रात्रिमें उसने किसी स्त्रीका करुण रुदन सुना । वह खड्ग लेकर उधर चला । रोती हुई स्त्रीके पास पहुँचकर उससे रोनेका कारण पूछा । स्त्राने उत्तर दिया:-" अनंगदेशमें जितारी नामके राजाकी कन्या यशोमती है । उसे श्रीषेणके पुत्र शंखपर प्रेम हो गया। जितारीने कन्याकी इच्छाके अनुसार उसकी सगाई कर दी। विद्याधरपति मणिशेखरने जितारीसे यशोमतीको माँगा । राजाने इन्कार किया। तब विद्याधर अपने विद्याबलसे उसको हरकर ले चला। मैं भी कन्याके लिपट रही । इसलिए वह दुष्ट मुझको इस जंगल में डालकर चला गया। यही कारण है कि मैं रो रही हूँ।"
शंखकुमार उस धायको अपने पडावमें जानेकी आज्ञा कर यशोमतीको ढूँढने निकला। एक पर्वतपर उसने यशोमतीके साथ
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२२ श्री नेमिनाथ-चरित
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विद्याधरको देखा और ललकारा । विद्याधरके साथ शंखका युद्ध हुआ । अन्तमें विद्याधर हार गया और उसने यशोमती शंखको सौंप दी । शंखके समान पराक्रमी वीरको कई विद्याधरोंने भी अपनी कन्याएँ अर्पण की । शंख सबको लेकर हस्तिनापुर गया । मातापिताको अपने पुत्रके पराक्रमसे बहुत आनंद हुआ।
शंखके पूर्व जन्मके बंधु मूर और सोम भी आरण देवलोकसे चयकर श्रीषेणके घर यशोधर और गुणधर नामके पुत्र हुए। - राजा श्रीषेणने पुत्रको राज्य देकर दीक्षा ली । जब उन्हें केवलज्ञान हुआ तब राजा शंख अपने अनुजों और पत्नी सहित देशना सुनने गया । देशनाके अंतमें शंखने पूछा:" भगवन् यशोमतीपर इतना अधिक स्नेह मुझे क्यों हुआ ?"
केवलीने कहा:-" जब तू धनकुमार था तब यह तेरी धनवती पत्नी थी । सौधर्म देवलोकमें यह तेरा मित्र हुआ। चित्रगतिके भवमें यह तेरी रत्नवती नामकी प्रिया थी माहेंद्र देवलोकमें यह तेरा मित्र थी। अपराजितके भवमें यह तेरी प्रीतिमती नामकी प्रियतमा थी। आरण देवलोकमें तेरा मित्र थी। इस भवमें यह तेरी यशोमती नामकी पत्नी हुई है। इस तरह सात भवोंसे तुम्हारा संबंध चला आ रहा है। यही कारण है कि तुम्हारा आपसमें बहुत प्रेम है । भविष्यमें तुम दोनों अपराजित नामके अनुत्तर विमानमें जाओगे और वहाँसे चयकर इसी भरतखंडमें नेमिनाथ नामके चौवीसवें तीर्थकर होगे और
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यह राजीमती नामकी स्त्री होगी। तुमसे ही ब्याह करना स्थिरकर यह कुमारी ही तुमसे दीक्षा लेगी और मोक्षमें जायगी।" __ शंखको वैराग्य हुआ और उसने दीक्षा ले ली । उसके अनुजोंने, मित्रोंने और पत्नीने भी दीक्षा ली। बीस स्थानका आराधन कर उसने तीर्थकर गोत्र बाँधा ।
_अंतमें पादोपगमन अनशन कर शंख मुनि सबके(आठवाँ भव
साथ अपराजित नामके चौथे अनुत्तर विमानमें उत्पन्न हुए। भरत खंडके सौरिपुर नगरमें समुद्रविजय नामके राजा थे।
उनकी पत्नीका नाम शिवादेवी था। शिवा९ नवाँ भव । देवीको चौदह महा स्वम आये और शंखका ( अरिष्ट नेमि ) जीव अपराजित विमानसे चयकर कार्तिक वदि १२ के दिन चित्र नक्षत्रमें शिवादेवीकी कोखमें आया। इन्द्रादि देवोंने गर्भकल्याणक मनाया। क्रमसे नौ महीने और
आठ दिन पूरे होने पर श्रावण सुदि ५ के दिन चित्र नक्षत्र में शिवादेवीने पुत्ररत्नको जन्म दिया । इन्द्रादि देवोंने जन्म कल्याणक मनाया। उनका लक्षण शंखका और वर्ण श्याम था । स्पममें माताने अरिष्ट रत्नमयी चक्रधारा देखी थी इसलिए उनका नाम अरिष्टनेमि रक्खा। ___ समुद्रविजयके एक भाई वसुदेव थे। उनके श्रीकृष्ण और बलदेव नामके दो पुत्र थे। श्रीकृष्णकी वीरता तो जगप्रसीद्ध है । वे १-श्रीकृष्णका पूरा हाल जाननेके लिए आगे दिये हुए वसुदेव चरित्रको देखो।
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२२ श्री नेमिनाथ-चरित
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वसुदेव थे। श्रीकृष्ण और अरिष्टनेमि चचेरे भाई थे। श्रीकृष्ण बड़े थे और अरिष्टनेमि छोटे । श्रीकृष्णकी एक बहुत बड़ी व्यायामशाला थी। उसमें खास खास व्यक्तियाँ ही जा सकती थीं। उसमें रखे हुए आयुधोंका उपयोग करना हरेकके लिए सरल नहीं था । उसमें एक शंख रक्खा हुआ था। वह इतना भारी था कि अच्छे अच्छे योद्धा भी उसे उठा नहीं सकते थे, बजानेकी तो बात ही क्या थी ? ___ एक दिन अरिष्टनेमि फिरते हुए कृष्णकी आयुधशालामें पहुँच गये। उन्होंने इतना बड़ा शंख देखा और कुतूहलके साथ सवाल किया:-"यह क्या है ? और यहाँ क्यों रक्खा गया है ?"
नौकरने जवाब दिया:-"यह शंख है। पांचजन्य इसका नाम है । यह इतना भारी है कि श्रीकृष्णके सिवा कोई इसे उठा नहीं सकता है ।"अरिष्टनेमि हँसे और शंख उठाकर बजाने लगे। शंखध्वनि सुनकर शहर काँप उठा । श्रीकृष्ण विचारने लगे, ऐसी शंखध्वनि करनेवाला आज कौन आया है ? इन्द्र है या चक्रवर्तीने जन्म लिया है ? उसी समय उनको खबर मिली कि, यह काम अरिष्टनेमिका है। उन्हें विश्वास न हुआ। वे खुद गये । देखा कि अरिष्टनेमि इस तरह शंख बजा रहे हैं मानो कोई बच्चा खिलौनेसे खेल रहा है। ____ कृष्णको शंका हुई, कि क्या आज सबसे बलशाली होनेका मेरा दावा यह लड़का खारिज कर देगा ? उन्होंने इसका फैसला कर लेना ठीक समझकर अरिष्टनेमिसे कहा:-"भाई! आओ!
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आज हम कुश्ती करें । देखें कौन बली है ।" अरिष्टनेमिने विवेक किया:--" बंधु ! आप बड़े हैं, इसलिए हमेशा ही बली हैं" श्रीकृष्णने कहा:-"इसमें क्या हर्ज है ? थोड़ी देर खेल ही हो जायगा।" अरिष्टनेमि बोले:-" धूलमें लौटनेकी मेरी इच्छा नहीं है । मगर बलपरीक्षाका मैं दूसरा उपाय बताता हूँ। आप हाथ लंबा कीजिये । मैं उसे झुका हूँ। और मैं लंबा करूँ आप उसे झुकावें । जो हाथ न झुका सकेगा वही कम ताकतवाला समझा जायगा"
श्रीकृष्णको यह बात पसंद आई। उन्होंने हाथ लंबा किया । अरिष्टनेमिने उनका हाथ इस तरह झुका दिया जैसे कोई बैंतकी पतली लकड़ीको झुका देता है।" फिर अरिष्टनेमिने अपना हाथ लंबा किया; परंतु श्रीकृष्ण उसे न झुका सके । वे सारे बलसे उसको झुकाने लगे पर वे इस तरह झूल गये जैसे कोई लोहेके डंडेपर झूलता हो । श्रीकृष्णका सबसे अधिक बलशाली होनेका खयाल जाता रहा । उन्होंने सोचा,-दुनियामें एकसे एक अधिक बलवान हमेशा जन्मता ही रहता है । फिर बोले,-" भाई । तुम्हें वर्धाई है ! तुम पर कुटुंब योग्य अभिमान कर सकता है।" ___ अरिष्टनेमि युवा हुए; परंतु यौवनका मद उनमें न था । जवानी आई मगर जवानीकी ऐयाश तबीअत उनके पास न थी। वे उदास, दुनियाके कामोंमें निरुत्साह, सुखसामग्रियोंसे बेसरोकार और एकांत सेवी थे । उनको अनेक बार राजकारोबारमें लगानेकी कोशिश की गई, मगर सब बेकार हुई ।
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२२ श्री नेमिनाथ-चरित
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शादी करनेके लिए उन्हें कितना मनाया गया मगर वे राजी न हुए।
श्रीकृष्णके अनेक रानियाँ थीं। एक दिन वे सभी जमा हो गई और अरिष्टनेमिको छेड़ने लगीं । एक बोली:-"अगर तुम पुरुष न होते तो ज्यादा अच्छा होता।" दूसरीने कहाः" अजी इनके मन लायक मिले तब तो ये शादी करें न ?" तीसरी बोली:-" बिचारे यह सोचते होंगे कि, बहू लाकर उसे खिलायँगे क्या ? जो आदमी हाथपर हाथ धरे बैठा रहे वह दुनियामें किस कामका है ?" चौथीने उनकी पीठपर मुका मारा और कहा:-" अजब गूंगे आदमी हो जी ! कुछ तो बोलो। अगर तुम कुछ उद्योग न कर सकोगे तो भी कोई चिंताकी बात नहीं है। कृष्णके सैकड़ों रानियाँ हैं। वे खाती ‘पहनती हैं तुम्हारी स्त्रीको भी मिल जायगा। इसके लिए इतनी चिंता क्यों ?" पाँचवींने थनककर कहा:-" माँ बाप बेटेको ब्याहनेके लिए रात दिन रोते हैं। मगर ये हैं कि इनके दिल पर कोई असर ही नहीं होता । जान पड़ता है विधाताने इनमें कुछ कमी रख दी है।" छठीने चुटकी काटी और कहाः"ये तो मिट्टीके पुतले हैं।" ___ अरिष्टनेमि हँस पड़े। इस हँसीमें उल्लास था, उपेक्षा नहीं । सब चिल्ला उठी,-'मंजूर !' 'मंजूर!' एक बोली:-"अब साफ कह दो कि शादी करूँगा" दूसरीने कहा:-"नहीं तो पीछेसे मुकर जाओगे।" तीसरीने ताना माराः-"हाँजी बे पैंदेके आदमी हैं । इनका क्या भरोसा ?" चौथी बोली:-"माता
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पिताकी तो यह बात सुनकर बाँछे खिल जायँगी ।" पाँचवीं ने कहा:-" श्रीकृष्ण इस खुशीमें हजारों लुटा देंगे।" छठीने कहा:-"अब जल्दीसे हाँ कह दो वरना पढ़े मंत्र ?" अरिष्टनेमि बोले:-"जाओ, मुझे दिक न करो! तुम्हारी इच्छा हो सो करो" ___ सब दौड़ गई । कोई समुद्रविजयके पास गई, कोई माताजीके पास गई और कई श्रीकृष्णके पास गई । महलोंमें और शहरमें धूम मच गई। राजा समुद्रविजयने तत्काल श्रीकृष्णको कहीं सगाई और ब्याह साथ ही साथ नक्की कर आनेके लिए भेजा । श्रीकृष्ण मथुराके राजा उग्रसेनकी पुत्री राजीमतीके साथ सगाई कर आये और कह आये कि हम थोड़े ही दिनोंमें ब्याहका नकी कर लिखेंगे । तुम ब्याहकी तैयारी कर रखना ।
कृष्णके सौरीपुर आते ही समुद्रविजयने जोशी बुलाये और उन्हें कहा:-"इसी महीनेमें अधिकसे अधिक अगले महीनेमें ब्याहका मुहूर्त निकालो।" जोशीने उत्तर दिया:-"महाराज ! अभी तो चौमासा है। चौमासेमें ब्याह शादी वगैरा कार्य नहीं होते । समुद्रविजय अधीर होकर बोले:-" सब हो सकते हैं। वे क्या कहते हैं कि, हमें न करो । बड़ी कठिनतासे अरिष्टनेमि शादी करनेको राजी हुआ है । अगर वह फिर मुकर जायगा तो कोई उसे न मना सकेगा।" ___ जोशीने,-"जैसी महाराजकी इच्छा ।" कहकर सावन सुदि ६ का मुहूर्त निकाला। घर घर बांदनवार बँधे और राजमहलोंमें ब्याहके गीत गाये जाने लगे । ब्याहवाले दिन बड़ी धूमके साथ
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२२ श्री नेमिनाथ-चरित
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बरात रवाना हुई । अरिष्टनेमिका वह अलौकिक रूप देखकर सब मुग्ध हो गये । स्त्रियाँ ठगीसी खड़ी उस रूपमाधुरीका पान करने लगी।
बरात मथुराकी सीमामें पहुँची । राजीमतीको खबर लगी। वह शृंगार अधूरा छोड़ बरात देखनेके लिए छतपर दौड़ गई। गोधूलिका समय था । अस्त होते हुए सूर्यकी किरणें नेमिनाथजी के मुकुटपर गिरकर उनके मुखमंडलको सूर्यकासा तेजोमय बना रहा था। राजीमती उस रूपको देखने में तल्लीन हो गई। वह पासमें खड़ी सखि-सहेलियोंको भूल गई, पृथवी, आकाशको भूल गई, अपने आपको भी भूल गई । उसके सामने रह गई केवल अरिष्टनेमिकी त्रिभुवन-मन-मोहिनी मूर्ति । बरात महलके पास आती जा रही थी और राजीमतीका हृदय आनंदसे उछल रहा था। उसी समय उसकी दाहिनी आँख और भुजा फड़कीं। राजीमती चौक पड़ी मानो किसीने पीठमें मुक्का मारा है । सखियाँ पास खड़ी थीं। एकने पूछा :-"बहिन ! क्या हआ ?" राजीमतीने गद्गद कंठ होकर कहा:-" सखि ! दाहिनी आँख और भुजाका फड़कना किसी अशुभकी सूचना दे रहा है । मेरा शरीर भयके मारे पानी पानी हुआ जा रहा है ।" सखियोंने सान्त्वना दी:-"अभी थोड़ी ही देरमें शादी हो जायगी। बहिन घबराओ नहीं। आँख तो बादीसे फड़कने लगी है। चलो अब नीचे चलें। बारात बिल्कुल पास आ गई है।" राजीमती बोली:--"ठहरो, बरातको और पास आ जाने दो; तब नीचे चलेंगी।" राजीमती फिर बरातकी तरफ देखने लगी।
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नेमिनाथका रथ ज्योंही महलके पास पहुँचा त्योही उनके कानोंमें पशुओंका आक्रंदन पड़ा । वे चौंककर इधर उधर देखने लगे और बोले:-"सारथी! पशुओंकी यह कैसी आवाज आ रही है । " सारथीने जवाब दियाः-“यह पशुओंका आर्तनाद है । ये कह रहे हैं, हे दयालु ! हमें छुड़ाओ! हमने किसीका कोई अपराध नहीं किया। क्यों बेफायदा हमारे प्राण लिये जाते हैं ? " नेमिनाथजीने पूछा:- "इनके प्राण क्यों लिये जायँगे ? सारथीने जवाब दिया:-"आपके बरातियोंके लिए इनका भोजन होगा।" __ "क्या कहा ? मेरे ही कारण इनके प्राण लिये जायेंगे ? ऐसा नहीं हो सकता।" कहकर उन्होंने अपना रथ पशुशालाकी तरफ घुमानेका हुक्म दिया ।" सारथीने रथ पशुशालामें पहुँचा दिया । नेमिनाथजी रथसे उतर पड़े और उन्होंने पशुशालाका पीछेका फाटक खोल दिया। पशु अपने प्राण लेकर भागे । क्षण वारमें पशुशाला खाली हो गई। सभी स्तब्ध होकर यह घटना देखते रहे।
नेमिनाथनी पुनः स्थपर सवार हुए और हुक्म दिया:-"सौरी पुर चलो । शादी नहीं करूँगा ।" सारथी यह हुक्म सुनकर दिग्मूढसा हो रहा । फिर आवाज आई,-" रथ चलाओ ! क्या देखते हो ?" सारथीने लाचार होकर रथ हाँका । समुद्र विजयजी, माता शिवादेवी, बंधु श्रीकृष्ण और दूसरे सभी हितैषियोंने आकर रथको घेर लिया। मातापिता रोने लगे। हितैषी समझाने लगे; मगर अरिष्टनमि स्थिर थे । श्रीकृष्ण
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२२ श्री नेमिनाथ-चरित
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बोले:-" भाई ! तुम्हारी कैसी दया है ? पशुओंकी आर्त वाणी सुनकर तुमने उन्हें सुखी करनेके लिए उनको मुक्त कर दिया; मगर तुम्हारे मातापिता और स्वजनसंबंधी रो रहे हैं तो भी उनका दुःख मिटानेकी बात तुम्हें नहीं सूझती । यह दया है या दयाका उपहास ? पशुओंपर दया करना और मातापिताको रुलाना, यह दयाका सिद्धांत तुमने कहाँसे सीखा ? चलो शादी करो और सबको सुख पहुँचाओ।"
नेमिनाथ बोले:-"पशु चिल्लाते थे, किसीको बंधनमें डाले बिना अपने प्राणों की रक्षा करनेके लिए और मातापिता रो रहे हैं, मुझे संसारके बंधनोंमें बाँधनेके लिए । हजारों जन्म बीत गये । कई बार शादी की, मातापिताको सुख पहुँचाया, स्त्रजन संबंधियोंको खुश किया; परंतु सबका परिणाम क्या हुआ ? मेरे लिए संसार भ्रमण । जैसे जैसे मैं भोगकी लालसामें फँसता गया, वैसे ही वैसे मेरे बंधन दृढ होते गये ।
और माता पिता ? वे अपने कर्मोंका फल आप ही भोगेंगे। पुत्रोंको ब्याहने पर भी मातापिता दुखी होते हैं, बली और जवान पुत्रोंके रहते हुए भी मातापिता रोगी बनते है, एवं मौतका शिकार हो जाते हैं। प्राणियोंको संसारके पदार्थों में न कभी सुख मिला है और न भविष्यमें कभी मिलेहीगा । अगर पुत्रको देखकर ही सुख होता हो तो मेरे दूसरे भाई हैं। उन्हें देखकर और उनको ब्याहकर वे सुखी हो । बंधु ! मुझे क्षमा करो। मैं दुनियाके चक्करसे बिल्कुल बेजार हो गया हूँ। अब मैं हरगिज इस चक्करमें न
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रहूँगा। मैं इस चक्करमें घुमानेवाले कर्मोंका नाश करनेके लिए संयमशस्त्र ग्रहण करूँगा और उनसे निश्चित होकर शिवरमणीके साथ शादी करूँगा।"
मातापितादिने समझ लिया,-अब नेमिनाथ न रहेंगे। इनको रोक रखना व्यर्थ है । सबने रथको रस्ता दे दिया। नेमिनाथ सौरिपुर पहुँचे । उसी समय लोकांतिक देवोंने आकर प्रार्थना की,-" प्रभो! तीर्थ प्रवर्ताइए । " नेमिनाथ तो पहिले ही तैयार थे। उन्होंने वार्षिक दान देना आरंभ कर दिया। ___ इस तरफ जब राजीमतीको यह खबर मिली कि नेमिनाथजी शादी करनेसे मुखमोड़, संसारसे उदास हो, दीक्षा लेनेके इरादेसे सौरीपुर लौट गये हैं तो उसके हृदयपर बड़ा आघात लगा । वह मूच्छित होकर भूमिपर गिर पड़ी । जब शीतोपचार करके वह होशमें लाई गई तो करुण आक्रंदन करने लगी। सखियाँ उसे समझाने लगी,-" बहिन ! व्यर्थ क्यों रोती हो ? स्नेह-हीन और निदेय पुरुषके लिए रोना तो बहुत बड़ी भूल है। तुम्हारा उसका संबंध ही क्या है ? न उसने तुम्हारा हाथ पकड़ा है, न सप्तपदी पढ़ी है और न तुम्हारे घर
आकर उसने तोरण ही बाँधा है । वह तुम्हारा कौन है जिसके लिए ऐसा विलाप करती हो ? शांत हो । तुम्हारे लिए सैकड़ों राजकुमार मिल जायँगे!"
राजीमती बोली:--" सखियो! यह क्या कह रही हो कि वे मेरे कौन हैं ? वे मेरे देवता हैं, वे मेरे जीवनधन हैं, वे मेरे इस लोक और परलोकके साधक हैं।
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२२ श्री नेमिनाथ-चरित
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उन्होंने मुझको ग्रहण नहीं किया है, परन्तु मैंने उनके चरणोंमें अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया है । देवता भेट स्वीकार करें या न करें। भक्तका काम तो सिर्फ भेट अर्पण करना है। अर्पण की हुई वस्तु क्या वापिस ली जा सकती है ? नहीं बहिन ! नहीं ! उन्होंने जिस संसारको छोड़ना स्थिर किया है मैं भी उस संसारमें नहीं रहूँगी। उन्होंने आज मेरा कर ग्रहण करनेसे मुख मोड़ा है; परन्तु मेरे मस्तकपर वासक्षेप डालनेके लिए उनका हाथ जरूर बढ़ेगा । अब न रोऊँगी । उनका ध्यान कर अपने जीवनको धन्य बनाऊँगी।"
राजीमतीने हीरोंका हार तोड़ दिया, मस्तकका मुकुट उतार कर फैंक दिया, जेवर निकाल निकालकर डाल दिये, सुंदर वस्त्रोंके स्थानमें एक सफेद साड़ी पहन ली और फिर वह नेमिनाथके ध्यानमें लीन हो गई।
वार्षिक दान देना समाप्त हुआ । नेमिनाथजीने सहसाम्र वनमें जाकर सावन सुदि ६ के दिन चित्रा नक्षत्र में दीक्षा ली। इन्द्रादि देवोंने आकर दीक्षाकल्याणक किया। उनके साथ ही एक हजार राजाओंने भी दीक्षा ली । दूसरे दिन प्रभुने वरदत्त ब्राह्मणके घर क्षीरसे पारणा किया।
नेमिनाथजीके छोटे भाई रथनेमिने एक बार राजीमतीको देखा । वह उसपर आसक्त हो गया और उसको वशमें करनेके लिए उसके पास अनेक तरहकी भेटें भेजने लगा । राजीमती यद्यपि किन्हीं भेटोंका उपभोग नहीं करती थी तथापि उन्हें यह सोचकर रख लेती थी कि ये मेरे प्राणेश्वरके अनुजकी
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भेजी हुई भेटें हैं । कभी कभी वह समुद्रविजयजी और शिवादेवीके पास जाती । वहाँ स्थनेमि भी उससे मिलता और हँसी मजाक करता । वह निष्छल भावसे उसके परिहासका उत्तर देती और अपने घर लौट जाती । इससे रथनेमि समझता कि, यह भी मुझपर अनुरक्त है।
एक दिन एकांतमें रथनेमिने कहा:-" हे स्त्रियोंके गौरवरूप राजीमती ! तुम इस वैरागीके वेशमें रहकर क्यों अपना यौवन गुमाती हो ? मेरा भाई वज्रमूर्ख था । वह तुम्हारी कदर न कर सका । तुम्हारे इस रूपपर, इस हास्यपर और इस यौवनपर हजारों राज, हजारों ताज और वैराग्यके भाव न्योछावर किये जा सकते हैं । मैं तुम्हारे चरणोंमें अपना जीवन समर्पण करनेको तत्पर हूँ; मैं तुमसे शादी करूँगा । तुम मुझपर प्रसन्न होओ और यह बैरागियोंका भेस छोड़ दो !"
राजीमती इसके लिए तैयार न थी। उसके हृदयमें एक आघात लगा। वह मूच्छितसी बैठी रही । जब उसका जी कुछ ठिकाने आया तब वह बोली:-" रथनेमि ! मैं फिर किसी वक्त इसका जवाब दूंगी।"
राजीमती बड़ी चिन्तामें पड़ी । उसे एक उपाय सूझा । उसने मांडल पिसवाया और उसको पुड़ियामें बाँधकर स्थ नेमिके घरका रस्ता लिया। जब वह पहुँची दैवयोगसे रथनेमि अकेला ही उसे मिल गया। वह बोली:-" रथनेमि ! मुझे बड़ी भूख लगी है। मेरे लिए कुछ खानेको मँगवाओ।"
रथनेमिने तुरत कुछ दूध और मिठाई मँगवाये । राजीमतीने
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२२ श्री नेमिनाथ-चरित
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उन्हें खाया और साथ ही मींडलकी फाकी भी ले ली । फिर बोली :- " एक परात मँगवाओ । " परात आई । राजीमतीने जो कुछ खाया पिया था सब वमन कर दिया। फिर बोली:“ रथनेमि ! तुम इसे पी जाओ ।" वह क्रुद्ध होकर बोला :" तुमने क्या मुझे कुत्ता समझा है ?" राजीमती हँसी और बोली:- " तुम्हारी लालसा तो ऐसी ही मालूम होती है । मुझे नेमिनाथने वमन कर दिया है । तुम मेरी लालसा कर रहे हो । यह लालसा वमित पदार्थ खानेहीकी तो है । है रथनेमि ! तुमने मेरा जवाब सुन लिया | बोलो अब तुम्हारी क्या इच्छा हैं ? "
रथनेमिने लज्जित होकर सिर झुका लिया । राजीमती रथनेमिको अनेक तरहसे उपदेश दे अपने घर चली गई और फिर कभी वह रथनेमिके घर न गई । वह रात दिन धर्मध्यानमें अपना समय बिताने लगी ।
नेमिनाथ प्रभु चोपन दिन इधर उधर विहार कर पुनः - सहसाम्र वनमें आये । वहाँ उन्होंने अतस वृक्ष के नीचे तेला करके काउसग किया। उन्हें आसोज वदि ३० की रातको चित्रा नक्षत्रमें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । इन्द्रादि देवोंने आकर ज्ञान -- कल्याणक मनानेके लिए समवशरणकी रचना की ।
ये समाचार श्रीकृष्ण, समुद्रविजय वगैराको भी मिले । वे सभी धूम धामके साथ नेमिनाथ भगवानको वाँदने आये । और वंदनाकर समवशरणमें बैठे । भगवानने देशना दी । देशना सुनकर अनेकोंने यथायोग्य नियम लिये |
श्रीकृष्ण ने पूछा :- " प्रभो ! वैसे तो सभी तुमपर स्नेह
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जैन - रत्न
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रखते हैं; परन्तु राजीमती तुम्हें सबसे ज्यादा चाहती इसका क्या कारण है ? " प्रभुने धन और धनवतीके भवसें Harsh नवों भवकी कथा सुनाई । उसे सुनकर सबका संदेह जाता रहा । प्रभुसे वरदत्त आदि अनेक पुरुषोंने और स्त्रियोंने भी दीक्षा ली और अनेक पुरुष स्त्रियोंने श्रावक श्राविका व्रत लिए । इस तरह चतुर्विध संघकी स्थापना कर प्रभु वहाँ से विहार कर गये ।
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भगवान नेमिनाथ बिहार करते हुए भद्दिलपुर नगरमें पहुँचे । वहाँ देवकीजीके छः पुत्र-जो सुलसाके घर बड़े हुए थे-रहते थे । उन्होंने धर्मोपदेश सुनकर दीक्षा ली । एक बार वे सभी द्वारका गये । वहाँ गोचरीके लिए फिरते हुए दो साधु देवकीजीके घर पहुँचे । उन्हें देखकर देवकीजी बहुत प्रसन्न और प्रासुक आहार पानी दिये ।
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उनके जाने बाद दूसरे दो साधु आये । वैसा ही रूप रंग देखकर देवकीजीको आश्चर्य हुआ। फिर सोचा, शायद अधिक साधु होनेसे और आहारपानीकी जरूरत होगी इसलिए फिरसे ये आये हैं । देवकीजीने उन्हें आहारपानी दिया । थोड़ी देर के बाद और दो साधु आये। वही रूप, वही रंग, वही चाल, वही आवाज | देवकीजीसे न रहा गया । उनने पूछा:- " मुनिराज! आप क्या रस्ता भूल गये हैं कि बार बार यहीं आते हैं ?"
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उन्होंने कहा :- " हम तो पहली ही बार यहाँ आये हैं । देवकीजीको और भी आश्चर्य हुआ । वे बोलीं :- " तो क्या मुझे भ्रम हुआ है ? नहीं भ्रम नहीं हुआ । वे भी बिल्कुल तुम्हारे ही जैसे
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थे।” साधु बोलेः–“ हम छः भाई हैं। सभी एकसे रूप रंगवाले हैं और सभीने दीक्षा ले ली है । हमारे चार भाई पहले आये होंगे । इसलिए तुम्हें भ्रांति हो गई हैं । " देवकीजीने उनका हाल पूछा । उन्होंने अपना हाल सुनाया । सुनकर देवकीजीको दुःख हुआ । वे रोने लगीं, – “ हाय ! मेरे कैसे खोटे भाग हैं कि मैं अपने एक भी बच्चेका पलना न बाँध सकी । उनके बालखेलसे अपने मनको सुखी न बनासकी । इतना ही क्यों ? मैं सबको पीछे भी न पा सकी ।" साधुओंने समझायाः - " खेद करनेसे क्या फायदा है ? यह तो पूर्व भवकी करणीका फल है । पूर्व भवमें तुमने एक बाईके सात हीरे चुरा लिये थे । वह बिचारी कल्पांत करने लगी । जब वह बहुत रोई पीटी तब तुमने उसे एक हीरा वापिस दिया । इसी हेतुसे तुम्हारे सातों पुत्र तुमसे छूट गये । एक हीरा तुमने वापिस दिया था इसलिए तुम्हारा एक पुत्र तुमको पीछा मिला है। ” मुनिराज चले गये । देवकीजी अपने पूर्व भवके बुरे कर्मोंका विचार कर मन ही मन दुखी रहने लगी ।
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एक बार श्रीकृष्णने माताको उदासीका कारण पूछा । देवकीजीने उदासीका कारण बताया और कहा :- " जबतक मैं बच्चेको न खिलाऊँगी तबतक मेरा दुःख कम न होगा । " श्रीकृष्णने माताको संतोष देकर कहा :- " माता कुछ चिंता न करो । मैं तुम्हारी इच्छा पूरी करूँगा । " 1
फिर श्रीकृष्णने नैगमेषी देवताकी आराधना की । देवताने प्रत्यक्ष होकर कहा :- " हे भद्र ! तुम्हारी इच्छा पूरी होगी ।
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तुम्हारी माता के गर्भ से एक पुत्र जन्मेगा; परन्तु जवान होने ' पर वह दीक्षा ले लेगा । "
देवता चला गया । समयपर देवकीजीके गर्भ से एक पुत्र जन्मा । उसका नाम गजसुकुमाल रखा गया । मातापिताके हर्षका ठिकाना न था । दोनोंको कभी बालक खिलानेका सौभाग्य न मिला था । आज वह सौभाग्य पाकर उनके आनंदकी सीमा न रही । लाखोंका दान दिया, सारे कैदियोंको छोड़ दिया और जहाँ किसीको दुखी - दरिद्र पाया उसे निहाल कर दिया ।
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गजसुकुमाल युवा हुए । माता पिताने, उनकी इच्छा न होते हुए भी दो कन्याओं के साथ उनका ब्याह कर दिया । एक राजपुत्री थी। उसका नाम प्रभावती था। दूसरी सोमशर्मा ब्राह्मणकी पुत्री थी । उसका नाम सोमा था। कुछ दिनके बाद नेमिनाथ भगवानका समवशरण द्वारकामें हुआ। सभी यादवोंके साथ गजसुकुमाल भी प्रभुकी वंदना करने गये । देशना सुनकर गजसुकुमालको वैराग्य हो आया और उन्होंने मातापिताकी आज्ञा लेकर प्रभुसे दीक्षा ले ली । उनकी दोनों पत्नियोंने भी स्वामीका अनुसरण किया ।
जिस दिन दीक्षा ली थी उसी रातको गजसुकुमाल मुनि पासके श्मशानमें जाकर ध्यानमग्न हुए । सोमशर्मा किसी काम से बाहर गया हुआ था । उसने लौटते -समय गजसुकुमाल मुनिको देखा । उन्हें देखकर उसे बड़ा क्रोध आया, इस पाखंडीको दीक्षा लेनेकी इच्छा थी तो भी
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इसने शादी की और मेरी पुत्रीको दुःख दिया । इसको इसके पाखंडका दंड देना ही उचित है । वह मसानमें जलती हुई चितामेंसे मिट्टीके एक ठीकरेमें आग भर लाया और वह ठीकरा गजसुकुमाल मुनिके सिरपर रख दिया। गजसुकुमालका सिर जलने लगा; परन्तु वे शांतिसे ध्यानमें लगे रहे । इससे उनके कर्म कट गये । उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ। उसी समय उनका आयुकर्म भी समाप्त हो गया और वे मरकर मोक्ष गये।
दूसरे दिन श्रीकृष्णादि यादव प्रभुको वंदना करने आये। गजसुकुमालको वहाँ न देखकर श्रीकृष्णने उनके लिए पूछा । भगवानने सारा हाल कह सुनाया। सुनकर उन्हें बड़ा क्रोध आया। भगवानने उन्हें समझाया,-"क्रोध करनेसे कोई लाभ नहीं है ।" मगर उनका क्रोध शांत न हुआ । जब वे वापिस द्वारकामें जा रहे थे तब उन्होंने सामनेसे सोमशर्माको आते देखा। श्रीकृष्णका क्रोध द्विगुण हो उठा । वे उसे सजा देनेका विचार करते ही थे कि, सोमशर्माका सिर अचानक फट गया
और वह जमीनपर गिर पड़ा । उसको सजा देनेकी इच्छा पूरी न हुई । उन्होंने उसके पैरोंमें रस्सी बंधवाई, उसे सारे शहरमें घसीटवाया और तब उसको पशुपक्षियोंका भोजन बननेके लिए जंगलमें फिकवा दिया। ... गजसुकुमालकी दशासे दुखित होकर अनेक यादवोंने, वसुदेवके विना नौ दशाहोंने, प्रभुकी माता शिवादेवीने, प्रभुके सात सहोदर भाइयोंने, श्रीकृष्णके अनेक पुत्रोंने, राजीमतीने, नंदकी कन्या एकनाशाने और अनेक यादव स्त्रियोंने दीक्षा
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ली । उसी समय श्रीकृष्णने नियम लिया था कि, मैं अबसे किसी कन्याका ब्याह न करूँगा, इसलिए उनकी अनेक कन्या
ओंने भी दीक्षा ले ली । कनकवती, रोहिणी और देवकीके सिवा वसुदेवकी सभी पत्नियोंने दीक्षा ली। ___ कनकवती संसारमें रहते हुए भी वैराग्यमय जीवन बिताने लगी । इससे उनके घातिया काँका नाश हुआ और उन्हें केवलज्ञानकी प्राप्ति हुई। फिर वे अपने आप दीक्षा लेकर वनमें गई । एक महीनेका अनशन कर उन्होंने मोक्ष पाया। ___ एक बार श्रीकृष्णने प्रभुसे पूछा:--" भगवन् ! आप चौमासेमें विहार क्यों नहीं करते हैं ?" भगवानने उत्तर दिया:" चौमासेमें अनेक जीवजंतु उत्पन्न होते हैं । विहार करनेसे उनके नाशकी संभावना रहती है। इसीलिए साधुलोग चौमासेमें विहार नहीं करते हैं। श्रीकृष्णने भी नियम लिया कि म भी अबसे चौमासेमें कभी बाहर नहीं निकलूंगा।
एक बार नेमिनाथ प्रभुके साथ जितने साधु थे उन सबको श्रीकृष्ण द्वादशावर्त वंदना करने लगे। उनके साथ दूसरे राजा और वीरा नामका जुलाहा-जो श्रीकृष्णका बहुत भक्त था-भी वंदना करने लगे । और तो सब थककर बैठ गये। परन्तु वीरा जुलाहा तो श्रीकृष्णके साथ वंदना करता ही रहा । जब वंदना समाप्त हो चुकी तो श्रीकृष्णने प्रभुसे विनती की:-" आज मैं इतना थका हूँ कि जितना ३६० युद्ध किये उसमें भी नहीं थका था ।" प्रभुने कहा:-" आज तुमने बहुत पुण्य उपार्जन किया है। तुमको क्षायिक
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सम्यक्त्व हुआ है, तुमने तीर्थकर नामकर्म बाँधा है, सातवीं नारकी के योग्य कर्मोंको खपाकर तीसरी नारककेि योग्य आयुकर्म बाँधा है । उसे तुम इस भवके अंत में निकाचित करोगे । "
श्रीकृष्ण बोले: – “ मैं एक बार और वंदना करूँ कि जिससे नरकायुके योग्य जो कर्म हैं वे सर्वथा नष्ट हो जायँ । ” भगवान बोले:- “ अब तुम जो वंदना करोगे वह द्रव्यवंदना होगी । फल भाववंदनाका मिलता है द्रव्यवंदनाका नहीं । तुम्हारे साथ वीरा जुलाहेने भी वंदना की है मगर उसको कोई फल नहीं मिला । कारण उसने वंदना करने के इरादे से वंदना नहीं की है; केवल तुम्हें खुश करनेके इरादे से तुम्हारा अनुकरण किया है । " श्रीकृष्ण अपने घर गये ।
एक बार विहार करते हुए प्रभु गिरनारपर गये । वहाँसे रथनेमि आहारपानी लेने गये थे; मगर अचानक बारिश आ गई और रथनेमि एक गुफामें चले गये । राजीमती और अन्य साध्वियाँ भी आहारपानी लेकर लौट रही थीं; बरसात के कारण सभी इधर उधर हो गई । राजीमती उसी गुफा में चली गई जिसमें रथनेमि थे । उसे मालूम नहीं था कि रथनेमि भी इसी गुफामें हैं । वह अपने भीगे हुए कपड़े उतारकर सुखाने लगी। रथनेमि उसे देखकर कामातुर हो गये और आगे आये । राजीमतीने पैरोंकी आवाज सुनकर झटसे गीला कपड़ा ही वापिस ओढ लिया । रथनेमिने प्रार्थना की, “सुंदरी ! मेरे हृदयमें आगसी लग रही है । तुम तो सभी जीवोंको सुखी करनेका नियम ले चुकी हो। इसलिए मुझे भी सुखी करो। "
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तुम
राजीमती - संयमधारिणी राजीमती - बोली:- " रथनेमि ! मुनि हो, तुम तीर्थकरके भाई हो, तुम उच्च वंशकी सन्तान हो, तुम्हारे मुखमें ऐसे वचन नहीं शोभते । ये वचन तो पतित, नीच और असंयमी लोगों के योग्य हैं, ये तो संयमकी विराधना करनेवाले हैं; ऐसे वचन उच्चारण करना और ऐसी घृणित लालसा रखना मानो अपने पशु स्वभावका प्रदर्शन कराना है । मुनि ! प्रभुके पास जाओ और प्रायश्चित्त लो । "
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रथनेमि मोहमुग्ध हो गये थे । उन्हें होश आया । वे अपने पतनपर पश्चात्ताप कर राजीमतीसे क्षमा माँग प्रभुके पास गये । वहाँ जाकर उन्होंने प्रभुके सामने अपने पापोंकी आलोचना कर प्रायश्चित्त लिया। फिर वे चिर काल तक तपस्या कर, केवलज्ञान पा मोक्षमें गये ।
अन्यदा प्रभु विहारकर द्वारिका आये । तब विनयी कृष्णने देशना के अंतमें पूछा:- " हे करुणानिधि ! कृपा करके बताइए कि, मेरा और द्वारकाका नाश कैसे होगा" ? भगवान बोले:" भावी प्रबल है । वह होकर ही रहता है। सौरीपुरके बाहर पाराशर नामक एक तपस्वी रहता है । एक बार वह यमुना द्वीप गया था । वहाँ उसने किसी नीच कन्यासे संबंध किया । उससे द्वीपायन नामका एक पुत्र हुआ है। वह पूर्ण संयमी और तपस्वी है । यादवोंके स्नेहके कारण वह द्वारकाके पास ही वनमें रहता है । शांब आदि यादव कुमार एक बार वनमें जायँगे और मदिरामें मत्त होकर उसे मार डालेंगे । बह मरकर
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अग्निकुमार देव होगा और सारी द्वारकाको और यादवोंको जलाकर भस्म कर देगा । तुम जंगलमें अपने भाई जराकुमारके हायसे मारे जाआगे।"
बलदेवके सिद्धार्थ नामका सारथी था। उसने बलदेवसे कहा:--" स्वामिन् ! मुझसे द्वारकाका नाश न देखा जायगा। इसलिए कृपाकर मुझे दीक्षा लेनेकी अनुमति दीजिर ।" बलदेव बोले:-"सिद्धार्थ ! यद्यपि तेरा वियोग मेरे लिए दुःखदायी होगा; परन्तु मैं शुभ काममें विघ्न न डालूँगा। हाँ तपके प्रभावसे तू मरकर अगर देवता हो तो मेरी मदद करना।" उसने यह बात स्वीकार की और दीक्षा ले ली। __भगवानके इतना परिवार था वरदत्तादि ग्यारह गणधर, १८ इजार महात्मा साधु, चालीस हजार साध्वियाँ, ४ सौ चौदह पूर्वधारी, १५ सौ अवधिज्ञानी, १५ सौ वैक्रिय लब्धिवाले १५ सौ केवली, १ हजार मनःपर्ययज्ञानी, ८ सौ वादलब्धिवाले, १ लाख ६९ हजार श्रावक और ३ लाख ३९ हजार साध्वियाँ। इसी तरह गोमेध नामका यक्ष और अंबिका नामकी शासनदेवी थे।
विहार करते हुए अपना निवार्णकाल समीप जान प्रभु रैवतगिरि (गिरनार ) पर गये और वहाँ ५३६ साधुओंके साथ पादोपगमन अनशन कर आषाढ शुक्ला ८ के दिन चित्रा नक्षत्रमें मोक्ष गये । इन्द्रादि देवोंने निवार्णकल्याणक मनाया।
राजीमती आदि अनेक साध्वियाँ भी केवलज्ञान प्राप्तकर मोक्षमें गई । राजीमतीकी कुल आयु ९०१ वर्षकी थी। वे ४
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सौ वर्ष कौमारावस्थामें, एक वर्ष संयम लेकर छद्मस्थावस्थामें
और ५ सौ वर्ष केवली अवस्थामें रही थीं। ___ भगवान नेमिनाथ तीन सौ वर्ष कौमारावस्थामें और ७ सौ वर्ष साधुपर्यायमें रह, १ हजार वर्षकी आयु बिता, नमिनाथजीके मोक्ष जानेके बाद पाँच लाख वर्ष बीते तब, मोक्ष गये। उनका शरीरप्रमाण १० धनुष था।
भगवान नेमिनाथके तीर्थमें नवें वासुदेव कृष्ण, नवें बलदेव बलभद्र और नवें प्रति-वासुदेव जरासंध हुए हैं ।
२३ श्रीपार्श्वनाथ-चरित
कमठे धरणेन्द्रे च, स्वोचितं कर्म कुर्वति ।
प्रभुस्तुल्यमनोवृत्तिः, पार्श्वनाथः श्रियेऽस्तु वः॥ भावार्थ-अपने स्वभावके अनुसार कार्य करनेवाले कमठ और धरणेन्द्रपर समान भाव * रखनेवाले पार्श्वनाथ प्रभु तुम्हारा कल्याण करें। जंबूद्वीपके भरत क्षेत्रमें पोतनपुर नामका नगर था। उसमें
अरविंद नामका राजा राज्य करता था। १ प्रथम भव (मरुभूति) उसके परम श्रावक विश्वभूति नामक ब्राह्मण
* कमठने प्रभुको दुःख दिया था और धरणेन्द्रने प्रभुकी दुःखसे रक्षा की थी; परंतु भगवानने न कमठपर रोष किया था और न धरणेन्द्रपर प्रसन्नता . दिखाई थी। दोनोंपर उनके द्वेष और रागरहित समान भाव थे।
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२३ श्री पार्श्वनाथ-चरित २६१ पुरोहित था। उसकी अनुवा नामकी पत्नीके गर्भसे कमठ और मरुभूति नामके दो पुत्र उत्पन्न हुए।
वे जब जवान हुए तब मातापिताने उनका ब्याह करवा दिया। कमठकी स्त्रीका नाम वरुणा था और मरुभूतिकी स्त्रीका नाम वसुन्धरा । वसुन्धरा दोनोंमें अधिक रूपवती थी । भाइयोंमें कमठ लंपट था और मरुभूति सदाचारी।
समयपर विश्वभूति और अनुद्धरा दोनों स्वर्गवासी हुए । कमठ. संसाररत और क्रियाशील मनुष्य था । वह राजाकी नौकरी करने लगा । संसारविमुख मरुभूति धर्मध्यानमें लीन हुआ और ब्रह्मचर्य पालन करता हुआ प्रायः पौषधशालामें रहने लगा । युवती वसुंधरा अपने यौवनको भोगविहीन जाते देख, मन ही मन दुःखी होती; परन्तु अपने पतिके धर्ममय जीवनमें विघ्न डालनेका यत्न न करती । इतना ही क्यों ? वह भी यथासाध्य अपना समय धर्मकार्योंमें बिताती । लंपट कमठको अपने भाइकी वैराग्यदशाका हाल मालूम हुआ। उसने वसुन्धरापर डोरे डालने आरंभ किये । एक दिन उसने वसुन्धराको एकांतमें पकड़ लिया। भोगकी इच्छा रखनेवाली वसुंधरा भी थोड़ा विरोध करनेके बाद उसके आधीन हो गई ! उसने अपना शील भोगेच्छाके अर्पण कर दिया। अब तो वे प्रायः विषयभोगमें लीन रहने लगे।
कमठकी स्त्री वरुणाको यह हाल मालूम हुआ । उसने दोनोंको बहुत फटकारा, परन्तु उनपर इसका कोई असर न हुआ। तब उसने यह बात अपने देवर मरुभूतिसे कही । मरु
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भतिने यह बात न मानी और अपनी आँखसे यह बात देखनी चाही । वरुणाने एक दिन मरुभूतिको छुपा रक्खा और अपने पति और देवरानीकी भ्रष्ट लीला उसे दिखा दी । मरुभूतिको बड़ा क्रोध आया और उसने सवेरे ही जाकर राजासे फर्याद की । धर्म और न्यायके प्रेमी राजाको यह अनाचार असह्य हुआ, और उसने कमठका काला मुँह करवा, उसका सिर मुंडवा, उसे गधेपर बिठवा, सारे शहरमें फिरवा, शहर बाहर निकलवा दिया । वह मरुभूतिपर अत्यंत क्रुद्ध हो, वनमें जा, बालतप करने लगा। ___ सरल परिणामी मरुभूति जब उसका क्रोध कम हुआ तो सोचने लगा, मैंने यह क्या अनर्थ किया? जीवको अपने पापोंका फल आप ही मिल जाता है। मेरे भाईको भी अपने पापोका फल आप ही मिल जाता । मैंने क्यों राजासे फर्याद की ? न मैं फर्याद करता न मेरे भाईको दंड मिलता। चलूँ , जाकर भाईसे क्षमा माँगें। मरुभूतिनेजाकर राजासे अपने मनकी बात कही । राजाने उसको बहुत समझाया कि दुष्ट स्वभाववाले कभी क्षमाका गुण नहीं समझते हैं । अभी वह तुमपर बहुत गुस्से हो रहा है । सम्भव है वह तुमपर चोट करे; परन्तु वह यह कहकर चला गया कि, अगर वह अपने दुष्ट स्वभावको नहीं छोड़ता है तो मैं अपने सरल स्वभावको क्यों छोडूं ?
मरुभूति ज्योंही कमठके पास पहुँचा त्योंही कमठका कोष भभक उठा । और वह मरुभूतिका तिरस्कार करने लगा। मरुभूतिने नम्रतापूर्वक क्षमा माँगी और नमस्कार किया ।
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इसको कमठने अपना उपहास समझा । वह और भी अधिक खीझ गया। उसने पास पड़ा हुआ एक बड़ा पत्थर उठा लिया और मरुभूतिके सिरपर दे मारा । इसका सिर फट गया। बह पीडासे व्याकुल हो छटपटाने लगा और आर्त ध्यानमें मरा । ___ अंतमें आर्तध्यानमें मरा इससे वह पशु योनिमें जन्मा और २ दूसरा भव ( हाथी ) विध्यगिरिम यूथपति हाथी हुआ।
एक दिन पोतनपुरके राजा अरविंद अपनी छतपर बैठे हुए थे। आकाशमें घनघोर घटा छाई हुई थी। बिजली चमक रही थी । इन्द्रधनुष तना हुआ था । आकाश बड़ा सुहावना मालूम हो रहा था। उसी समय जोरकी हवा चली । मेघ छिन्न भिन्न हो गये । बिजलीकी चमक जाती रही और इन्द्रधनुषका कहीं नाम निशान भी न रहा । राजाने सोचा, जीवनकी सुख-घनघटा भी इसी तरह आयुसमाप्तिकी हवासे नष्ट हो जायगी । इसलिए जीवनसमाप्तिके पहले जितना हो सके उतना धर्म कर लेना चाहिये । राजा अरविंदने समंतभद्राचार्यके पाससे दीक्षा ले ली। ___ एक दिन अरविंद मुनि सागरदत्त सेठके साथ अष्टापदजी पर वंदना करने चले । रस्तमें उन्होंने एक सरोवरके किनारे पड़ाव डाला । सभी स्त्री पुरुष अपने अपने काममें लगे। अरविंद मुनि एक तरफ कायोत्सर्ग ध्यानमें लीन हो गये।
मरुभूति हाथी सरोवरपर आया । पानीमें खूब कल्लोलें कर वापिस चला । सरोवरके किनारे पड़ावको देखकर
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वह उसी तरफ झपटा । कइयोंको पैरों तले रौंदा और कइयोंको मूंडमें पकड़कर फेंक दिया। लोग इधर उधर अपने प्राण लेकर भागे । अरविंद मुनि ध्यानमें लीन खड़े रहे। हाथी उनपर झपटा; मगर उनके पास जाकर एकदम रुक गया। मुनिके तेजके सामने हाथीकी क्रूरता जाती रही । वह मुनिके चहरेकी तरफ चुपचाप देखने लगा।
मुनि काउसग्ग पारकर बोले:-" हे मरुभूति ! अपने पूर्व भवको याद कर । मुझ अरविंदको पहचान । अपने बुरे परिणामोंका फल हाथी होकर भोग रहा है । अब हत्याएँ करके क्या पापको और भी बढ़ाना चाहता है ?" मरुभूतिको मुनिके उपदेशसे जातिस्मरण ज्ञान हो गया । वह मुनिसे श्रावक व्रत अंगीकार कर रहने लगा । कमठकी स्त्री वरुणा भी हथिनी दुई थी। उसने भी सारी बातें सुनी और उसे भी जातिस्मरण ज्ञान हो आया । सेठके साथके अनेक मनुष्य तपका प्रभाव देखकर मुनि हो गये । संघ वहाँसे अष्टापदकी तरफ चला गया। ___ अब मरुभूति संयमसे रहने लगा । वह सूर्यके आतापसे तपा हुआ पानी पीता और पृथ्वीपर गिरे हुए सूखे पत्ते खाता । ब्रह्मचर्यसे रहता और कभी किसी प्राणीको नहीं सताता । रातदिन वह सोचता,- मैंने कैसी भूलकी कि, मनुष्यभव पाकर उसे व्यर्थ खो दिया। अगर मैंने पहले समझकर संयम धारणकर लिया होता तो यह पशुपर्याय मुझे नहीं मिलती।
संयमके कारण उसका शरीर सूख गया था। उसकी शक्ति क्षीण हो गई थी। वह ईयर्या समितिके साथ चलता था और
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एक कीडीको भी तकलीफ न हो इस बातका पूरा ध्यान रखता था। __एक दिन पानी पीने गया। वहाँ दलदलमें फँस गया । उससे निकला न गया । उधर कमठके उस हत्यारे कामसे सारे तापस उससे नाराज हुए और उसे अपने यहाँसे निकाल दिया। वह भटकता हुआ मरकर साँप हुआ । वह साँप फिरता हुआ वहाँ आ निकला जहाँ मरुभूति हाथी फँसा हुआ था। उसने मरुभूतिको देखा और काट खाया। मरुभूतिने अपना मृत्युकाल समीप जान सब माया ममता
दिका त्याग कर दिया । मरकर वह ३ तीसरा भव ( सह- सहस्रार देवलोकमें सत्रह सागरोपमकी स्रार देवलोकमें देव ) आयुवाला देव हुआ । हथिनी वरुणी भी
भावतप कर मरी और दूसरे देवलोकमें देवी हुई। फिर बह दूसरे देवलोकके देवोंको छोड़ सहस्रार देवलोकमें मरुभूतिके जीव देवकी देवांगना बनकर रही । कमठका जीव भी मरकर पाँचवें नरकमें सत्रह सागरोपमकी आयुवाला नारकी हुआ। प्राग्विदेहके सुकच्छ नामक प्रांतमें तिलका नामकी नगरी
थी। उसमें विद्युद्गति नामका खेचर ४ चौथा भव (किरणवेग) राजा था। उसकी रानी कनकतिलकाके
गभसे, मरुभूतिका जीव देवलोकसे चयकर, पैदा हुआ । मातापिताने उसका नाम किरणवेग रखा । युवा होनेपर पद्मावती आदि राजकन्याओंसे उसका
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व्याह किया गया । कुछ कालके बाद विद्युद्गतिने किरणवेगको राज्य देकर दीक्षा ले ली ।
किरणवेगकी पट्टरानी पद्मावती के गर्भ से किरणतेज नामका पुत्र पैदा हुआ। एक बार सुरगुरु नामक मुनि उस तरफ आये । उनकी देशना सुनकर किरणवेगको वैराग्य हो आया और उसने दीक्षा ले ली ।
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किरणवेग मुनि अंगधारी हुए । गुरुकी आज्ञा लेकर एकल विहार करने लगे । अपनी आकाशगमनकी शक्तिसे वे पुष्कर द्वीपमें गये । वहाँ शाश्वत अर्हतोंको नमन कर वैताढ्य गिरिके पास हेमगिरि पर्वतपर तीव्र तप करते हुए समतामें मग्न रहकर अपना काल बिताने लगे ।
कमठका जीव पाँचवें नरकसे निकलकर उसी हिमगिरिकी गुफामें एक भयंकर सर्पके रूपमें जन्मा था । वह यमराजकी तरह प्राणियोंका नाश करता हुआ वनमें फिरने लगा । एक वक्त वह फिरता हुआ उस गुफा में चला गया जहाँ किरणवेग मुनि ध्यानमें लीन थे । उन्हें देखकर उसे पूर्व जन्मका वैर याद आया । उसने उनको लिपट कर चार पाँच जगह शरीर में काटा । उनके सारे शरीर मे भयंकर जहर व्याप्त हो गया ।
मुनि सोचने लगे,—यह सर्प मेरा बड़ा उपकार करनेवाला है। मुझे जल्दी या देरमें अपने कर्म काटने ही थे । इस सर्पने मुझे मेरे कर्म काटने में बड़ी मदद दी है । उन्होंने चौरासी लाख जीवयोनिके जीवोंको खमाया और चारों तरहके आहारोंका
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त्याग कर दिया। कुछ देरके बाद वे ऐसे मूञ्छित हुए कि फिर न उठे। मरुभूतिका जीव किरणवेगके भवमें शुभ भावोंसे मरा और
बारहवें देवलोकमें जंबू द्रुमावर्त नामके ५ पाँचवाँ भव (बारहवें विमानमें बाईस सागरोपमकी आयुवाला
देवलोकमें देव ) देवता हुआ और सुख भोगने लगा। कमठका जीव महासर्पकी योनिमें जलकर मरा और तमःप्रभा नामके नरकमें, बाईस सागरोपमकी आयु और ढाई सौ धनुषकी कायावाला नारकी जीव हुआ। जंबूद्वीपके पश्चिम महाविदेहमें सुगंध नामका प्रति है। उसमें
शुभंकरा नामकी एक नगरी थी। उसमें छठा भव(वज्रनाभ राजा) वज्रवार्य नामका राजा राज्य करता
था। उसकी लक्ष्मीवती नामकी रानीके गर्भसे मरुभूतिका जीव देवलोकसे चयकर जन्मा । उसका नाम. वज्रनाभ रक्खा गया । युवा होनेपर ब्याह हुआ। कुछ कालके बाद वज्रवीर्य राजाने वज्रनाभको राज्य देकर दीक्षा लेली।
वज्रनाभके कुछ कालके बाद चक्रायुध नामका पुत्र हुआ। जब वह बड़ा हुआ तब राजा वज्रनाभने चक्रायुधको राज्य देकर क्षेमंकर मुनिके पाससे दीक्षा ले ली। अनेक तरहकी तपस्याएँ करनेते मुनिको आकाशगमनकी लब्धि मिली । एक बार वज्रनाभ मुनि आकाशमार्गसे सुकच्छ नामके प्रांतमें गये।
कमठका जीव भी नरकसे निकलकर सुकच्छ प्रतिके ज्वलन गिरिके भयंकर जंगलमें भीलके घर जन्मा । उसका नाम.
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जैन-रत्न ~~~rammer कुरंगक रखा गया । जब वह जवान हुआ तब महान शिकारी बना।
वज्रनाभ मुनि फिरते हुए ज्वलनगिरिकी गुफामें जाकर कायोत्सर्ग करके रहे । नाना भाँतिके भयावने पशुपक्षी रातभर बोलते और उनके आसपास फिरते रहे; परन्तु मुनि स्थिर रहे
और ध्यानसे चलित न हुए। सवेरे ही जिस समय वे कायोत्सर्ग छोड़कर गुफामेंसे निकले उसी समय कुरंगक नामका भील भी धनुषबाण लेकर घरसे रवाना हुआ। उसे सामने मुनि दिखे। उन्हें देखकर भीलको बड़ा गुस्सा आया। इस भिक्षुकने सवेरे ही सवेरे मेरा शकुन बिगाड़ दिया है, यह सोचकर उसने उन्हींको सबसे पहले अपने बाणका निशाना बनाया। बाण लगते ही वे अहंत पुकारकर पृथ्वीपर गिर पड़े। सब जीवोंसे उन्होंने क्षमत क्षामणा किये और मनको सब तरहके व्यापारोसे हटाकर आत्मध्यानमें लीन कर दिया। राजर्षि वज्रनाभ शुभ ध्यान पूर्वक मरकर मध्यप्रैवेयक देव
लोकमें ललितांग नामक देव हुए । कम७ सातवाँ भव ठका जीव कुरंगक भील भी उम्रभर ( ललितांग देव ) शिकारमें जीवन बिता अशुभ ध्यानसे
मरा और रौरव नामके सातवें नरकमें नारकी हुआ। जंबूद्वीपके पूर्व विदेहमें पुराणपुर नामका नगर है । उसमें
इन्द्रके समान प्रतापी कुलिशबाहु नामकी.
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२६९ः mmmmmmmrrrrrrrrrrrrr.m..................... ८ आठवाँ भव राजा राज्य करता था। उसकी सुदर्शना ( सुवर्णबाहु ) नामकी रानीके गर्भसे, वज्रनाभका जीव
देवलोकसे चयकर उत्पन्न हुआ । उसका नाम सुवर्णबाहु रक्खा गया। ___ जब सुवर्णबाहु जवान हुए तब उनके पिता कुलिशबाहुने
उन्हें राज्यगद्दीपर बिठाकर, दीक्षा ले ली। ___ एक दिन सुवर्णबाहु घोड़ेपर सवार होकर फिरने निकला। घोड़ा बेकाबू हो गया और राजाको एक वनमें ले गया । उसके साथी सब छूट गये । एक सरोवरके पास जाकर घोड़ा खड़ा हो गया । सुवर्णबाहु थक गया था । घोड़ेसे उतर पड़ा । उसने सरोवरसे निर्मल जल पिया, घोड़ेको पिलाया, और तब घोड़ेको एक वृक्षसे बाँधकर पासके बागकी शोभा देखने लगा।
उस बागमें एक तपस्वी रहते थे। उन्होंने हिरणों और खरगोशोंके बच्चे पाल रक्खे थे । वे इधर उधर किलोले कर रहे थे । राजाको देखकर झोंपड़ीकी तरफ दौड़ गये । आश्रमके अंदर सुंदर पुष्पोंके पौदे थे । उनमें यौवनोन्मुखी कुछ कन्याएँ जलसिंचन कर रही थीं। उन कन्याओंमें एक बहुत ही सुंदरी थी। फिरते हुए सुवर्णबाहुकी नजर उसपर अटक गई । वह एक वृक्षकी ओटमें छिपकर उस रूपसुधाका पान करने लगा और सोचने लगा,-यह अमृतका सरोत यहाँ कहाँसे आया? यह तापसकन्या तो नहीं हो सकती । यह कोई स्वर्गकी अप्सरा है या नागकन्या है ?
उसी समय एक भँवरा गूंजता हुआ आया और उस बालाके. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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मुखपर मँडराने और रूपरसका पान करनेकी कोशिश करने लगा। वह उसको हटाती; परन्तु वह बार बार लौट आता था। इससे घबराकर वह पुकारी,-"अरे कोई मेरी इस भ्रमर-राक्षससे रक्षा करो! रक्षा करो!" उसके साथकी एक कन्या बोली:." सखि ! सुवर्णबाहुके सिवा तुम्हारी रक्षा करे ऐसा कोई पुरुष दुनियामें नहीं है । इसलिए तुम उन्हींको पुकारो।" सुवर्णबाहु तो इनसे बातें करनेका मौका ढूँढ ही रहा था । वह तुरत यह कहता हुआ झाड़की आड़से निकल आया कि, "जबतक कुलिश बाहुका पुत्र सुवर्णबाहु मौजूद है, तबतक किसकी मजाल है कि, तुम्हें दुःख दे।" फिर उसने एक दुपट्टेके पल्लेसे भँवरेको मारा। भँवरा बेचारा चिल्लाता हुआ वहाँसे चला गया । ___ अचानक एक पुरुषको सामने देखकर सभी बालाएँ ऐसी घबरा गई जैसे शेरको सामने देखकर मनुष्य व्याकुल हो जाते हैं। वे भयविह्वळ खड़ी हुई पृथ्वीकी तरफ देखने लगीं । सुवर्णबाहुने उनको सान्त्वना देते हुए बड़े मधुर शब्दोंमें कहा:--" बालाओ! डरो मत । मैं तुम्हारा रक्षक हूँ। कहो, तुम यहाँ निर्विघ्न तप कर सकती हो न ? तुम्हें कोई क्लेश तो नहीं है ?" राजाके सुमधुर शब्दोंसे उनका भय कम हुआ । एक बोली:-" जबतक पृथ्वीपर सुवर्णबाह राजा राज्य करता है, तबतक किसे अपना जीवन भारी होगा कि वह हमारे तपमें विघ्न डालेगा ? अतिथि, आइए ! बैठिए! "
एक बालाने कदंब पेडके नीचे आसन बिछा दिया । सुवर्णबाहु उसपर बैठ गये । दूसरीने पूछा:-" महाशय, आप कौन
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हैं ? और इस वनमें आनेका आपने कैसे कष्ट किया है ?" सुवर्णबाहु बड़े संकोचमें पड़े । वे कैसे कहते कि, मैं ही सुवर्णबाहु हूँ और अपनेको दूसरा कोई बताकर मिथ्या बोलनेका दोष भी कैसे करते ? उन्हें चुप देखकर तीसरी बोली:-" बहिन ! ये तो खुद सुवर्णबाहु राजा हैं । क्या तुमने इनको यह कहते नहीं सुना कि,-" जब तक सुवर्णबाह मौजूद है तबतक किसकी मजाल है सो तुम्हें दुःख दे?" फिर राजासे पूछा:-" महाराज ! हमारी असभ्यता क्षमा कीजिए और कहिए आप ही महाराज सुवर्णबाहु हैं न ?" राजाने मुस्कुरा दिया। बालाओंको निश्चय हो गया कि ये ही महाराज सुवर्णबाहु हैं।
राजाने सबसे अधिक सुंदरी बालाकी तरफ संकेत करके पूछा:-" ये बाला कौन हैं ? ये तापसकन्या तो नहीं मालूम होतीं । इनका शरीर पौदोंको जलसिंचन करनेके कामका नहीं है । कहो ये कौन हैं ?" ____एक बाला दीर्घ निश्वास डालकर बोली:-"ये रत्नपुरके राजा खेचरेन्द्रकी कन्या हैं। इनका नाम पद्मा है और इनकी माताका नाम रत्नावली है । जब खेचरेंद्रका देहांत हो गया तब उनके पुत्र राज्यके लिए आपसमें लड़ने लगे । इससे सारे देशमें बलवा मच गया । रत्नावली अपनी कन्याको, लेकर अपने कुछ विश्वस्त मनुष्यों के साथ वहाँसे निकल भागी और यहाँ, तापसोंके कुलपति गालव मुनिके आश्रममें, आ रहीं। थाश्रममें रहनेवाले सभी स्त्रीपुरुषों को काम करना पड़ता है।
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जैन-रत्न wmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm....~~. इसलिए हमारी सखी राजकुमारी पद्माको भी काम करना पड़ता है। कल इधर कोई दिव्य ज्ञानी आये थे और उन्होंने कहा था:"रत्नावली! तुम चिन्ता न करो। तुम्हारी कन्या चक्रवर्ती सुवर्णबाहुकी रानी होगी । उसे उसका घोड़ा बेकाबू होकर यहाँ ले आयगा ।" महाराज! ज्ञानीकी बात आज सच हुई है।"
राजाने पूछा:-" श्रीमतीजी! आपका नाम क्या है ? और गालव मुनि अभी कहाँ गये हैं ?" उसने उत्तर दियाः"महाराज ! मेरा नाम नंदा है । गालव मुनि उन्हीं ज्ञानी मुनिको पहुँचाने गये हैं, जिनका मैंने अभी जिक्र किया है।"
इतनेहीमें दूर घोड़ोंकी टापें सुनाई दी और धूल उड़ती नजर आई । राजाने समझा,-संभवतः मेरे आदमी मुझे ढूँढते हुए आ पहुंचे हैं । चलूँ उनसे मिलकर उन्हें संतोष हूँ । सुवर्णबाहु चले । सुनंदा पद्माको लेकर झोंपड़ीमें गई । राजा अपने आदमियों को बाहर सरोवरके किनारे बैठनेकी सूचना कर वापिस बगीचेमें आ बैठा।
नंदाने जाकर गालव ऋषिको-जो उसी समय लौटकर आ गये थे—सुवर्णबाहुके आनेके समाचार सुनाये । गालव मुनि खुश हुए । वे रत्नावली, पद्मा और नंदाको लेकर राजाके पास आये । राजाने उठकर उन्हें नमस्कार किया और कहा:" ऋषिवर! आपने क्यों तकलीफ की ? मैं ही खुद आपके पास हाजिर हो जाता।"
गालव ऋषि बोले:-" एक तो आप अतिथि हैं, दूसरे प्रजाके रक्षक हैं और तीसरे मेरी भानजी पद्माके स्वामी होने
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वाले हैं। इस तरह आप हर तरहसे पूज्य हैं इसी लिए तथैव पद्माका हाथ आपको पकड़ा देनेके लिए आया हूँ। इसे ग्रहणकर हमें उपकृत कीजिए।" ___ सुवर्णबाहुने पद्माके साथ गांधर्व विवाह किया। रत्नावली और गालव ऋषिने दोनोंको आशीर्वाद दिया। उसी समय पद्मोत्तर नामक खेचरेंद्रका लड़का जो रत्नावलीका सोतेला पुत्र था वहाँ आ पहुँचा । रत्नावलीने उसे सुवर्णबाहुका हाल सुनाया। पद्मोत्तर सुनकर बड़ा प्रसन्न हुआ। वह सुवर्णबाहुके पास गया और बोला:-" हे देव ! मैं आपहीके पास जा रहा था। सद्भाग्यसे आपके यहीं दर्शन हो गये । कृपा करके आप वैताढ्य गिरिपर मेरी राजधानीमें चलिए और मुझे उपकृत कीजिए।" ___ सुवर्णबाहु अपनी सेनाके साथ वैताढ्य गिरिपर गये । पद्मा, रत्नावली आदि भी उनके साथ गई। कुछ समय वहाँ रह, दूसरी कई विद्याधर-कन्याओंसे ब्याहकर सुवर्णबाहु पीछे अपनी राजधानी पुराणपुरमें आये। ___ जब उन्हें राज्य करते कई बरस बीत गये, तब चक्र आदि चौदह रत्न प्राप्त हुए। उन्होंने छः खंड पृथ्वीको जीता और वे चक्रवर्ती बनकर राज्य करने लगे।
एक बार जगन्नाथ तीर्थकरका पुराणपुरके उद्यानमें समोसरण हुआ। देवता आकाशसे विमानोंमें बैठ बैठकर आ रहे थे। सुवर्णबाहुने अपनी छतपर बैठे हुए उन विमानोंको देखा। विमान कहाँ जा रहे हैं, यह जानकर उन्हें बड़ा हर्ष हुआ। वे भी परिवार सहित समवसरणमें गये । जब वे देशना सुनकर
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लौटे तो देवताओंके विमानोंका विचार करने लगे । सोचते सोचते उन्हें जातिस्मरण ज्ञान हो गया। उन्हें अपने पूर्व भवका हाल मालूम हुआ और नाशमान जगतका विचार कर वैराग्य हो आया । इससे उन्होंने पुत्रको राज्य देकर, जगन्नाथ तीर्थकरके पाससे दीक्षा ले ली ।
उग्र तपस्या कर, अहंतभक्ति आदि बीस स्थानकोंकी आराधना कर उन्होंने तीर्थकर नामकर्म बाँधा और वे पृथ्वी मंडलपर जीवोंको उपदेश देते हुए भ्रमण करने लगे। ___एक बार विहार करते हुए सुवर्णबाहु मुनि क्षीरगिरि नामक पर्वतके पासके क्षीरवणा नामक वनमें आये । वहाँ सूर्यके सामने दृष्टि रख, कायोत्सर्ग कर आतापना लेने लगे। कमठका जीव नरकसे निकलकर उसी वनमें सिंह रूपसे पैदा हुआ था । वह दो रोजसे भूखा फिर रहा था । उसने मुनिको देखकर घोर गर्जना की । मुनिने उसी समय कायोत्सर्ग पूरा किया था । शेरकी गर्जना सुन, अपने आयुकी समाप्ति समझ, उन्होंने संलेखना की, चतुर्विध आहारका त्याग किया और शरीरका मोह छोड़कर ध्यानमें मन लगा दिया। सिंहने छलांग मारी और मुनिको पकड़कर चीर दिया। सुवर्णबाहु मुनि शुभ ध्यानपूर्वक मरकर महाप्रभ नामके विमा
नमें बीस सागरोपमकी आयुवाले देवता ९ नवाँ भव ( महाप्रभ हुए । कमठका जीव सिंह मरकर चौथे विमानमें देव ) नरकमें दस सागरोपमकी आयुवाला
नारकी हुआ और वहाँकी आयु पूर्णकर, तिर्यच योनिमें भ्रमण करने लगा।
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___ जंबूद्वीपके भरतक्षेत्रमें वाराणसी (बनारस ) नामका शहर
है। उसमें अश्वसेन नामके राजा राज्य १० दसवाँ भव (पार्श्व- करते थे । उनकी रानी वामादेवी थीं। नाथ तीर्थकर एक रातमें वामादेवीको तीर्थकरके जन्मकी
सूचना देनेवाले चौदह महास्वप्न आये । मरुभूतिका जीव महापद्म नामके देवलोकसे चयकर, चैत्र कृष्णा चतुर्थीके दिन विशाखा नक्षत्रमें वामादेवीके गर्भमें आया । इन्द्रादि देवोंने गर्भकल्याणक मनाया।
गर्भकाल पूरा होनेपर पोस वदि १० के दिन अनुराधा नक्षत्रमें वामादेवीने सर्पलक्षणवाले पुत्रको जन्म दिया। इन्द्रादि देवोंने जन्मकल्याणक महोत्सव किया । ___ अश्वसेन राजाको पुत्रजन्मके समाचार मिले । उन्होंने लाखों लुटा दिये, कैदी छोड़ दिये और जिसने जो माँगा उसको वही दिया । एक बार जब बालक गर्भ में था तब वामादेवी सो रही थीं, और उनके पाससे एक भयंकर सर्प किसीको कष्ट पहुँचाये बिना फुत्कार करता हुआ निकल गया था, इसलिए मातापिताने पुत्रका नाम पाश्वे रक्खा ।
क्रमशः वे जवान हुए । सब तरहकी विद्याएँ सीखे और आनंदसे दिन बिताने लगे। __ एक दिन राजा अश्वसेन राजसभामें बैठे थे, उसी समय उन्हें किसी बाहरी राजदूतके आनेकी सूचना मिली । राजाने उसको अंदर बुलाया और उचित आसन देकर पूछा:-" तुम कौन हो और यहाँ किसलिए आये हो ?"
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राजदूतने उत्तर दिया:-." मैं कुशस्थल नगर से आया हूँ । वहाँ पहले नरवर्मा नामके राजा राज्य करते थे । उन्होंने संसारको असार जानकर अपने पुत्र प्रसेनजितको राज गद्दी दी और खुदने दीक्षा ले ली। राजा प्रसेनजितके एक कन्या है । उसका नाम प्रभावती है। प्रभावतीने एक बार बनारस के राजकुमार पार्श्वनाथके रूप लावण्यकी तारीफ सुनी और उसने अपना जीवन इनके चरणोंमें अर्पण करनेका संकल्प कर लिया । वह रात दिन उन्हींके ध्यानमें लीन हो आनंदोल्लास छोड़ एक त्यागिनीकी तरह जीवन बिताने लगी । राजा प्रसेनजितको जब ये समाचार मिले तो उसने प्रभावतीको स्वयंवराकी तरह बनारस भेजने का संकल्प कर लिया ।
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कलिंगदेशमें यवन नामका राजा राज्य करता है । वह बड़ा पराक्रमी है। उसने जब ये समाचार सुने तो वह बड़ा गुस्से हुआ और अपनी सभा में बोला :-- “ भेट ग्रहण करनेकी शक्ति मेरे सिवा इस भरतखंडमें दूसरे किस राजामें है ? पार्श्वकुमार कौन है जो प्रभावतीको ग्रहण करेगा और कुशस्थलपतिकी क्या मजाल है कि वह प्रभावतीको पार्श्वकुमारके पास भेजेगा ? सेनापति जाओ, और कुशस्थलको घेर लो । अगर प्रभावती बनारस भेजी जाय तो उसको पकड़कर मेरे पास भेज दो । " उसके सेनापतिने आकर कुशस्थलको घेर लिया। थोड़े दिनके बाद खुद राजा यवन भी आया और उसने कहलाया कि, "या तो तुम प्रभावती को मेरे हवाले करो या लड़ाईके लिए तैयार हो जाओ । "
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२३ श्री पार्श्वनाथ- चरित
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राजा प्रसेनजितने अपनेको यवनके सामने लड़ने में असमर्थ पा उत्तर दिया:- " मैं एक महीने के बाद आपको निश्चित जवाब दूँगा । " और मुझे आपके पास रवाना किया । राजा यवनने शहरको इस तरह घेर रक्खा है कि, एक परिंदा भी न अंदर जा सकता है और न बाहर निकल सकता है । मैं बड़ी कठिनतासे आपके पास आया हूँ । मेरा नाम पुरुषोत्तम है और राजाका मैं मित्र हूँ । अब आपको जो ठीक जान पड़े सो कीजिए । "
राजदूतकी बातें सुनकर अश्वसेन बड़े क्रुद्ध हुए और बोले:“ यवनकी यह मजाल कि, मेरी पुत्रवधूको रोक रक्खे | मैं उस दुष्टको दंड दूँगा | सेनापति जाओ ! मेरी फौज तैयार करो ! मैं आज ही रवाना होऊँगा ।"
पवनवेगसे सारे शहरमें यह बात फैल गई। लोग यवन राजाके कृत्यको अपना अपमान समझने लगे और शहर के कई ऐसे लोग भी जो सिपाही न थे सिपाही बनकर लड़ाईमें जानेको तैयार हो गये ।
जब पार्श्वकुमारको ये समाचार मिले तो वे अपने पिताके पास आये और बोले :- " पिताजी ! आपको एक मामूली राजापर चढ़ाई करनेकी कोई जरूरत नहीं है । ऐसों के लिए आपका पुत्र ही काफी है । आप यहीं आराम कीजिए और मुझे आज्ञा दीजिए कि, मैं जाकर उसे दंड दूँ | "
बहुत आग्रहके कारण पिताने पार्श्वकुमारको युद्धमें जाने की आज्ञा दी । पार्श्वकुमार हाथीपर सवार होकर रवाना हुए। पहले
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पड़ावपर इन्द्रका सारथी रथ लेकर आया और उसने हाथ जोड़कर विनती की :- " स्वामिन् ! यद्यपि आप सब तरहसे समर्थ हैं, किसीकी सहायताकी आपको जरूरत नहीं है, तथापि अपनी भक्ति बतानेका मौका देखकर महाराज इन्द्रने अपना संग्राम करनेका रथ आपकी सेवामें भेजा है और मुझे सारथी बननेकी आज्ञा दी है। आप यह सेवा स्वीकार कर हमें उपकृत कीजिए।"
पार्श्वकुमारने इन्द्रकी यह सेवा स्वीकार की । उसी रथमें बैठकर वे आकाशमार्ग से कुशस्थलको गये । उनकी सेना भी उनके साथ ही पहुँची। देवताओंने पार्श्वकुमारकी छावनी में इनके रहने के लिए एक सात मंजिलका महल तैयार कर दिया ।
पार्श्वकुमारने अपना एक दूत राजा यवनके पास भेजा । उसने जाकर कहा:-“ अश्वसेन के युवराज पार्श्वकुमारकी आज्ञा
कि, हे कलिंगाधिपति यवन ! तुम तत्काल ही अपने देशको लौट जाओ अगर ऐसा नहीं करोगे तो मेरी सेना तुम्हारा संहार करेगी इसका उत्तरदायित्व हमारे सिर न रहेगा । "
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राजा यवन क्रुद्ध होकर वोला :- "हे दूत ! अपने राजकुमार को जाकर कहना कि, अपनी सुकुमार वयमें अपनेको मौतके मुँहमें न डाले | कलिंगकी सेना के साथ लड़ाई करना अपनी मौतको बुलाना है । अगर अपनी जान प्यारी हो तो कल शाम के पहलेतक यहाँसे लौट जाय वरना परसों सवेरे ही कलिंगकी सेना तुम्हारा नाश कर देगी १ "
दूत बोला:-- “ महाराज कलिंग ! मुझे आपपर दया आती है । जिन पार्श्वकुमारकी इन्द्रादि देव सेवा करते हैं.
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२३ श्री पार्श्वनाथ-चरित
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उनके सामने आपका लड़ाईके लिए खड़े होना मानो शेरके सामने बकरीका खड़ा होना है। इसलिए आप अपनी जान बचाकर चले जाइए । वरना जिस मौतका आप बारबार नाम ले रहे हैं वह मौत आपको ही उठा ले जायगी।" ___ राजा यवनके दारियोंने तलवारें खींच ली और वे उस मुँहजोर दूतएर आक्रमण करनेको तैयार हुए । वृद्ध मंत्रीने उनको रोका और कहा:-" हे सुभटो ! दूत अवध्य होता है । फिर यह तो एक ऐसे महान् बलशालीका दूत है जिसकी इन्द्रादि देव पूजा करते हैं । सच मुच ही हम उनके सामने तुच्छ हैं।" फिर दूतको कहा:-"तुम जाकर पार्श्वकुमारसे हमारा प्रणाम कहना और निवेदन करना कि, हम आपकी सेवामें शीघ्र ही हाजिर होंगे।" दूत चला गया। फिर मंत्रीने राजा यवनको कहा:"महाराज ! अपने और दुश्मनके बलाबलका विचार करके ही युद्ध आरंभ करना चाहिए । मैंने पता लगाया है कि, पार्श्वकुमार
और उनकी सेनाके सामने हम और हमारी सेना बिल्कुल नाचीज हैं । इसलिए हमारी भलाई इसीमें है कि, हम पार्श्वकुमारके पास जाकर उनसे संधी कर लें"
राजा यवन बोलाः-"मंत्री! क्या मुझे और मेरी बहादुर सेनाको किसीके सामने सिर झुकाना पड़ेगा? मुझे यह बात पसंद नहीं है । इस अपमानसे लड़ाईमें मरना मैं अधिक पसंद करता हूँ।"
वृद्ध मंत्रीने अति नम्र शब्दोंमें विनती की:-" महाराज ! नीति यह है कि, अगर दुश्मन बलवान हो तो उससे मेल कर
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लेना चाहिए । फिर पार्यकुमार तो सामान्य शत्रु नहीं हैं, ये तो देवाधिदेव हैं । सारी दुनियाके पूज्य हैं । इनसे संधी कर. नेमें, इनकी सेवा करनेमें इस भव और पर भव दोनों भवोंमें कल्याण है ।"
राजा यवनने मंत्रीकी बात मानकर कुशस्थलका घेरा उठानेका हुक्म दिया। फिर मंत्रीसहित वह पार्श्वकुमारकी सेवामें हाजिर हुआ। दयालु कुमारने उसे अभय देकर विदा किया।
घेरा उठ जानेपर कुशस्थलीके निवासियोंने शांतिका श्वास लिया । शहरके हजारों नरनारी अपने रक्षकके दर्शनार्थ उलट पड़े। राजा प्रसेनजित भी अनेक तरहकी भेटें लेकर पार्यकुमारकी सेवामें हाजिर हआ और विनती की:-"आप मेरी कन्याको ग्रहण कर मुझे उपकृत कीजिए।" पार्श्वकुमार बोले-" मैं पिताजीकी आज्ञासे कुशस्थलीकी रक्षा करने आया था। ब्याह करने यहाँ नहीं आया। इसलिए महाराज प्रसेनजित मैं आपका अनुरोध स्वीकारनेमें असमर्थ हूँ।"
फिर पार्श्वकुमार अपनी फौजके साथ बनारस लौट गये । प्रसेनजित भी अपनी कन्या प्रभावतीको लेकर बनारस गया। महाराज अश्वसेनने पार्श्वकुमारका ब्याह प्रभावतीके साथ कर दिया । पतिपत्नी आनंदसे दिन बिताने लगे। ___ एक दिन पार्थकुमार अपने झरोखेमें बैठे हुए थे उस समय उन्होंने देखाकि, लोग फूलों भरी छाबें और मिठाई भरी थालियाँ अपने सिरोंपर रक्खे चले जा रहे हैं । पूछने पर उन्हें मालूम हुआ कि शहरके बाहर कोई कठ नामका तपस्वी
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२३ श्री पार्श्वनाथ-चरित
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आया है और वह पंचाग्नि तपकी घोर तपस्या कर रहा है । उसीके लिए लोग ये भेटं लेजा रहे हैं। पार्श्वकुमार भी उस तपस्वीको देखनेके लिए गये। ___ यह कठ तपस्वी कमठका जीव था। जो सिंहके भवसे मरकर अनेक योनियोंमें जन्मता और दुःख उठाता हुआ एक गाँवमें किसी गरीब ब्राह्मणके घर जन्मा । उसका जन्म होनेके थोड़े ही दिन बाद उसके मातापिताकी मृत्यु हो गई । वह निराधार, बड़ी तकलीफें उठाता इधर उधर ठुकराता बड़ा हुआ । जब वह अच्छी तरह भलाई बुराई समझने लगा तब उसने एक दिन किसीसे पूछा:-"इसका क्या कारण है कि मुझे तो पेटभर अन्न और बदन ढकनेको फटे पुराने कपड़े भी बड़ी मुश्किलसे मिलते हैं और कइयोंको मैं देखता हूँ कि उनके घरोंमें मेवे मिष्टान्न पड़े सड़ते हैं और कीमती कपड़ोंसे संदूकें भरी पड़ी हैं ?" उसने जवाब दिया:-"यह उनके पूर्व भवमें किये तपका फल है।" उसने सोचा,-मैं भी क्यों न तप करके सब तरहकी सुखसामग्रियाँ पानेका अधिकारी बनें । उसने घरबार छोड़ दिये
और वह खाकी बाबा बन वनमें रहने, कंदमूल खाने और पंचाग्नि तप करने लगा। __त्याग और संयम चाहे वे अज्ञानपूर्वक ही किये गये हों, कुछ न कुछ फल दिये बिना नहीं रहते । कठके इस अज्ञान तपने भी फल दिया । लोगोंमें उसकी प्रतिष्ठा बढ़ी और वह पुजने लगा। उस समय वह फिरता फिरता बनारस आया था और शहरके बाहर धूनी लगाकर पंचाग्नि तप कर रहा था।
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पार्श्वकुमार भी कठके पास पहुँचे । वहाँ जाकर उन्होंने देखा कि, उसके चारों तरफ बड़ी बड़ी धूनियाँ हैं । उनमें बड़े बड़ें लकड़ोंसे आग्निशिखा प्रज्वलित हो रही है । ऊपरसे सूरजकी तेज धूप झुलसा रही है, और कठ पाँचों तरफकी तेज आगको सहन कर रहा है । लोग उसकी उस सहन शक्तिके लिए धन्य धन्य कर रहे हैं और भेट पूजाएँ ला लाकर उसके आगे रख रहे हैं।
पार्थकुमारने अवधिज्ञानसे देखा कि, इन लकड़ों से एक लकड़ेमें सर्प झुलस रहा है। वे बोले:-" हे तपस्वी ! तुम्हारा यह कैसा धर्म है कि, जिसमें दयाका नाम भी नहीं है। जैसे जलहीन नदी निकम्मी है और चन्द्रहीन रात्रि निकम्मी है इसी तरह दयाहीन धर्म भी निकम्मा है । तुम तप करते हो
और इसमें जीवोंका संहार करते हो । यह तप किस कामका है ?" ___ कठ बोला:-"राजकुमार तुम घोड़े कुदाना और ऐयाशी करना जानते हो । धर्मके तत्वको क्या समझो ? और मुझपर जीवोंको मारनेका दोष लगाना तो तुम्हारी अक्षम्य धृष्टता है !"
पार्श्वकुमारने अपने आदमीको आज्ञा दी:-" इस धूनमिसे वह लकड़ निकालकर चीर डालो।" नौकरने आज्ञाका पालन किया। उसमेंसे एक तड़पता हुआ साँप निकला । कुमारने उसको नवकार मंत्र सुनवाया और पच्चखाण दिलाया । सर्प मरकर नवकार मंत्रके प्रभावसे भुवनपतिकी नागकुमार निकायमें, धरण नामका, इन्द्र हुआ।
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२३ श्री पार्श्वनाथ-चरित
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इस घटनासे कठकी प्रतिष्ठाको धक्का पहुँचा । इससे वह पाश्वर्कुमारपर मन ही मन नाराज हुआ और अधिक घोर तप करने लगा । मगर अज्ञान तपके कारण उसे सम्यक् ज्ञान न हुआ और अंतमें मरकर भुवनवासी देवोंकी मेघकुमार निकायमें मेघमाली नामका देव हुआ। ___ एक दिन लोकांतिक देवाने आकर विनती की:- "हे प्रभो! तीर्थ प्रवर्ताइये ।" प्रभुने अपने भोगावली कोंको पूरे हुए जान वर्षी दान दिया । वर्षीदान समाप्त हुआ तब इन्द्रादि देवोंने
और अश्वसेन आदि राजाओंने पार्श्वकुमारका दीक्षाभिषेक किया। फिर देव और मनुष्य सभी जिसे उठाकर ले जा सकें ऐसी विशाल नामकी पालकी ( शिबिका ) में बैठकर प्रभु आश्रमपद नामक उद्यानमें आये । वहाँ सारे वस्त्राभूषणोंको त्याग, पंचमुष्टी लोचकर, प्रभुने पोस वदि ग्यारसके दिन चन्द्र जब अनुराधा नक्षत्रमें था दीक्षा ली । तीन सौ राजाओंने भी उनके साथ दीक्षा ली। दीक्षा लेते ही उन्हें मनःपर्यय ज्ञान उत्पन्न हुआ। सभी तीर्थकरोंको दीक्षा लेते ही मनःप्रयेय ज्ञान उत्पन्न होता है । इन्द्रादि देवोंने दीक्षाकल्याणक मनाया । __दूसरे दिन कोपट गाँवमें धन्य नामक गृहस्थके घर पायसान्न ( खीर ) से पारणा किया। देवताओंने उसके यहाँ वसुधारादि पंच दिव्य प्रकट किये।
प्रभु अनेक गाँवों और शहरोंमें विचरण करते हुए किसी शहरकी तरफ आ रहे थे कि जंगलहीमें सूर्यास्त हो गया । वहाँ पासहीमें कुछ तापसोंके घर भी थे। प्रभु एक कूएके पास वट वृक्षके नीचे कायोत्सर्ग कर ध्यानमें मग्न हो गये।
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जैन - रत्न
कमठ के जीवने - जो मेघमाली देव हुआ था - अवधिज्ञान से पार्श्वनाथको, जंगलमें जान, अपने पूर्व भवका वैर यादकर, दुःख देना स्थिर किया । उसने शेर, चीते, हाथी, बिच्छू, साँप वगैरा अनेक भयंकर प्राणी, अपनी देवमायासे पैदा किये । वे सभी गर्जन, तर्जन, चीत्कार, फुत्कार आदिसे प्रभुको डराने लगे; परन्तु पर्वत के समान स्थिर प्रभु तनिक भी चलित न हुए । इससे सभी अदृश्य हो गये । जब इन प्राणियोंसे प्रभु न डरे तो मेघमालीने भयंकर मेघ पैदा किये । आकाशमें कालजिह्वा के समान भयानक बिजली चमकने लगी, यह ब्रह्मांडको फोड़ देगी ऐसी भीति उप्तन्न करनेवाली मेघोंकी गर्जना होने लगी और ऐसा घोर अंधकार हुआ कि आँखकी रोशनी कोई चीज देखनेमें असमर्थ थी । ऐसा मालूम होता था कि पृथ्वी और आकाश दोनों एक हो गये हैं ।
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अब मूसलधार पानी बरसने लगा । बड़े बड़े ओले गिरने लगे । जंगलके पशु पक्षी व्याकुल जलधारामें बह बहकर जाने लगे । पानी प्रभुके घुटने तक आया, कमरतक आया, छातीतक आया । और होते होते नासिकातक पहुँच गया । वह वक्त करीब था कि प्रमुका शरीर सारा पानीमें डूब जाता और श्वासोश्वास बंद हो जाता, उसी समय सर्पके जीवको - जो धरणेंद्र हुआ थायह बात मालूम हुई । वह तरत अपनी राणियों सहित दौड़ पड़ा । उसकी गति ऐसी मालूम होती थी मानो वह मनसे भी जल्दी दौड़ जायगा ।
उसने प्रभुके पास पहुँचते ही एक सोनेका कमल बनाया,
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२३ श्री पार्श्वनाथ - चरित
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प्रभुको उसपर चढ़ाया और अपने फन फैलाकर तीन तरफसे
प्रभुको ढक लिया । धरणेंद्रकी नाट्यादिसे भक्ति करने लगी ।
रानियाँ प्रभुके आगे नृत्य,
जब मेघमालीका उपद्रव बहुत देरतक शांत न हुआ तब धरणेंद्र क्रुद्ध होकर बोला :- " हे मेघमाली ! अपनी दुष्टता अब बंद कर । यद्यपि मैं प्रभुका सेवक हूँ, क्रोध करना मुझे शोभा नहीं देता, तो भी तेरी दुष्टता अब सहन न कर सकूँगा । प्रभुने तुझको पाप से बचाकर तुझपर उपकार किया था । तू उल्टा उपकार के बदले अपकार करता है । सावधान ! अब अगर तुरत तू अपना उपद्रव बंद न करेगा तो तुझे इसकी सजा दी जायगी । "
मेघमाली अबतक पानी बरसानेमें लीन था । अब उसने धरणेंद्रकी बात सुनकर नीचे देखा । प्रभुको निर्विघ्न ध्यान करते देख वह सोचने लगा, - धरणेंद्र जैसे जिनकी सेवा करते हैं उनको सतानेका खयाल करना सरासर मूर्खता है । इनकी शक्तिके आगे मेरी शक्ति तुच्छ है । इनके सामने मैं इसी तरह क्षुद्र हूँ जिस तरह हवा के सामने तिनका होता है । तो भी इन क्षमाशील प्रभुको धन्य है कि इन्होंने मेरे उपद्रवको सहन किया है । मेरा कल्याण इसीमें है कि, मैं जाकर प्रभुसे क्षमा माँगू ।
मेघमाली आकर प्रभुके चरणों में पड़ा; मगर समभावी प्रभु तो अपने ध्यानमें मग्न थे । उनके मनमें न तो वह उपद्रव कर रहा था तब रोष था न अब वह चरणोंमें आकर गिरा इससे तोष है। उनके मनमें उसकी दोनों कृतियाँ उपेक्षित हैं । मेघमाली
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पश्चात्ताप करता हुआ वहाँसे चला गया। प्रभुको उपसर्ग रहित हुए समझ धरणेंद्र भी प्रभुको नमस्कार कर अपने स्थानपर चला गया । सवेरा हुआ और प्रभु वहाँसे विहार कर गये। __ प्रभु विचरते हुए बनारसके पास आश्रमपद नामके उद्यानमें आये और धातकी वृक्षके नीचे कायोत्सर्ग करके रहे। वहाँ उनके घाति कर्मोंका नाश हुआ और चेत वदि चौथके दिन, चंद्र जब विशाखा नक्षत्रमें था, उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। दीक्षा लेनेके चौरासी दिन बाद प्रभुको केवलज्ञान हुआ । इन्द्रादि देवोंने प्रभुका केवलज्ञानकल्याणक किया।
राजा अश्वसेनको प्रभुके समवसरणके समाचार मिले । अश्वसेन वामादेवी और परिवार सहित समवशरणमें आये। प्रभुकी देशना सुनकर अश्वसेनने अपने छोटे पुत्र हस्तिसेनको राज्य देकर दीक्षा ली । माता वामादेवीने और पार्थप्रभुकी भार्या प्रभावती देवीने भी दीक्षा ली।
प्रभुके शासनमें पार्थ नामक शासनदेव और पद्मावती नामा शासन देवी थे। उनके परिवारमें आर्यदत्त वगैरा दस गणधर, १६ हजार साधु, ३८ हजार साध्वियाँ, ३५० चौदह पूर्वधारी, १ हजार ४ सौ अवधिज्ञानी, साढ़े सात सौ मनापर्ययज्ञानी, १ हजार केवली, ११ सौ वैक्रिय लब्धिवाले, १ लाख ६४ हजार श्रावक और ३ लाख ७७ हजार श्राविकाएँ थे।
अपना निर्वाण समय निकट जान भगवान सम्मेत शिखर ‘पर गये । वहाँ तेतीस मुनियोंके साथ अनशन ग्रहण कर,
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२३ श्री पार्श्वनाथ-चरित
२८५ श्रावण शुक्ला ८ मीके दिन विशाखा नशत्रमें वे मोक्ष गये। इन्द्रादि देवोंने निर्वाणकल्याणक किया।
उनकी कुल आयु १०० बरसकी थी । उसमेंसे वे ३० बरस गृहस्थ पर्यायमें और ७० बरस साधु पर्यायमें रहे । श्रीनेमीनाथके निर्वाण पानेके बाद ८६ हजार ७ सौ ५० बरस बीते तब श्रीपार्श्वनाथ मोक्षमें गये । इनका शरीर प्रमाण ९ हाथका था।
भगवान महावीर
- enco-- कृतापराधेऽपि जने, कृपामंथरतारयोः ।
ईषद्वाष्पाईयोर्भद्रं, श्रीवीरजिननेत्रयोः॥ भावार्थ-जिन आँखोंमें दया मूचित करनेवाली पुतलियाँ हैं और जो आँखें दयाके कारणसे आँसुओंसे भीग जाती हैं उन, भगवान महावीरकी, आँखोंका कल्याण हो । ___x इस श्लोकके संबंधमें एक ऐसी कथा प्रसिद्ध है कि 'संगम' नामके किसी देवताने महावीर स्वामीपर छः महीने तक उपसर्ग किये थे तो भी भगवान स्थिर रहे थे। उनकी दृढता देखकर वह बोला:-“हे देव ! हे आर्य! आप अब स्वेच्छा पूर्वक भिक्षाके लिए जाइए । मैं आपको तकलीफ न दूंगा।" भगवान बोले-"मैं तो स्वेच्छा पूर्वक ही भिक्षाके लिए जाता हूँ। किसीके कहनसे नहीं जाता।" 'संगम' देव अपने देवलोकको चला । उसे जाते देख, प्रभुकी आँखोंमें यह सोचकर आँसू आ गये कि बिचारे देवने मुझपर उपसर्ग कर बुरे कर्म बाँधे हैं और उनका फल दुःख इसे भोगना पड़ेगा। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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जैन-रत्न commmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm~~ जंबूद्वीपके पश्चिम विदेह क्षेत्रमें महावन नामका प्रांत था ।
उसकी जयंती नामकी नगरीमें शत्रुमर्दन १ प्रथम भव नामका राजा राज्य करता था । उसके
राज्यमें पृथ्वी प्रतिष्टान नामके गाँवमें नयसार नामका स्वामीभक्त पटेल (गामेती) था । यद्यपि उसको साधु संगतिका लाभ नहीं मिला था। तथापि वह सदाचारी और गुणग्राही था। एक बार वह राज्यके कारखानोंके लिए लक्कड़ भिजवानेका हुक्म पाकर जंगलमें गया । __ भयानक जंगलमें जाकर उसने लक्कड़ कटवाये। जब दुपहरका वक्त हुआ तब सभी मजदूर अपने अपने डिब्बे खोलकर खाने लगे । नयसारने सोचा,-गाँवमें मैं हमेशा अभ्यागतको खिलाकर खाता हूँ। आज मेरा मन्द भाग्य है कि कोई अभ्यागत नहीं । देखू अगर कोई इधरसे मुसाफिर जाता हो तो उसे ही खिलाकर फिर खाऊँ। वह इधर उधर किसी मुसाफिरकी तलाशमें फिरता रहा; परन्तु कोई मुसाफिर बहुत देर गुजर जानेपर भी उधरसे न निकला । वह दुर्भाग्यका विचार करता हुआ उस जगह लौटा जहाँ सब भोजन करने बैठे थे। ___ ज्याही वह भोजन परोसकर खाना चाहता था त्योंही उसे सामने कुछ मुनि आते हुए दिखाई दिये । समयसार, उठाया हुआ नवाला वापिस एक तरफ रखकर, उठा और मुनियोंके पास जाकर हाथ जोड़ बोला:-"मेरा सद्भाग्य है कि, आपके इस भयानक जंगलमें, दशर्न हो गये । कृपानाथ ! भोजन तैयार
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२४ श्री महावीर स्वामी - चरित
है आइये और कुछ खाकर मुझे उपकृत कीजिए । क्षुधापीडित मुनियोंने शुद्ध आहार जानकर ग्रहण किया । जब मुनि आहार कर चुके तब समयसारने पूछा:- “महाराज ! इस भयानक जंगलमें आप कैसे आ चढ़े ? भयानक पशुओं से भरे हुए इस जंगलमें शस्त्रधारी भी आते हिचकिचाते हैं । आपने यह साहस कैसे किया ? " मुनि बोले: - " हम बनजारे के साथ मुसाफिरी कर रहे थे । रस्तेमें एक गाँवमें हम आहारपानी लेने गये और बनजारेकी बालदसे छूट गये । चलते हुए रस्ता भूलकर इस जंगलमें आ चढ़े हैं। "
" चलिए मैं गाँवका रस्ता बता दूँ। " कह समयसार साधुओंको रस्ता बताने गया । जब वे रस्तेपर पहुँच गये तब एक वृक्षके नीचे बैठकर मुनियोंने समयसारको धर्म सुनाया और समयसार धर्म ग्रहण कर सम्यक्त्वी बना । फिर साधु अपने रस्ते गये और समयसार भी लक्कड़ राजधानीमें रवाना कर अपने घर गया ।
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बहुत समय तक धम पाल अंतमें मरकर समयसारका जीव सौधर्मदेवलोकमें पल्योपमकी आयुवाला देवता हुआ ।
इसी भरत क्षेत्रमें विनीता नामकी नगरीमें भगवान ऋषभदेवके पुत्र भरत चक्रवर्ती राज्य करते थे । समयमरीचिका भव सारका जीव देवलोक से उन्हीं के घर पुत्ररूपमें उत्पन्न हुआ । अपने सूर्यके समान तेजसे वह चारों तरफ मरीचि ( किरणें ) फैलाता था, इससे उसका नाम मरीचि रक्खा मया । क्रमशः मशीच जवान हुआ ।
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जैन-रत्न
भगवान ऋषभदेवका सबसे पहला समवसरण विनीताके बाहर हुआ । मरीचि भी अपने कुटुंबके साथ समवसरणमें गया और देशना सुन, धर्म ग्रह णकर साधु हो गया ।
जब गरमियोंके दिन आये तो समयपर आहारपानी न मिलनेसे, तेज धूपमें विहार करनेके दुःखसे और पसीनेके मारे कपड़ोंके गंदे हो जानेसे मरीचिका मन बहुत व्याकुल हो उठा। वह सोचने लगा,-पर्वतके समान दुर्वह दीक्षाभार मैंने कहाँ उठा लिया ? आखिरतक मुझसे इसका पालन न होगा। मगर गृहस्थ भी अब कैसे हुआ जाय ? इससे तो लोक हँसाई होगी। मगर इस भारको हल्का करनेका कोई रस्ता निकालना चाहिये। बहुत दिनतक विचार करनेके बाद उसने स्थिर किया,
मुनि लोग त्रिदंडसे विरक्त हैं और मैं तो त्रिदंडके आधीन हूँ इसलिए मैं त्रिदंडधारी बनूँगा । केशलोच करनेसे महान पीड़ा होती है, मैं उस पीडाको सहन करनेमें असमर्थ हूँ इसलिए बाल उस्तरेसे मुंडवाया करूँगा और शिरपर शिखा भी रक्खंगा। मुनि महाव्रतधारी होते हैं मैं अणुव्रतका पालन करूँगा। मुनि कपर्दकहीन होते हैं मैं अपनी जरूरतोंको पूरा करनेके लिए पैसा रक्खूगा । मुनि मोहहीन होनेसे धूप और पानीसे बचनेके लिए कोई साधन नहीं रखते, मैं अपनी रक्षाके लिए छत्रीका उपयोग करूँगा और जूते पहनूंगा । मुनि शीलसे सुगंधित होते हैं, मैं सुगंधके लिए चंदनका तिलक लगाऊँगा । मुनि कषायरहित होनेसे श्वेतवस्त्र धारण करते हैं, मगर मैं तो
१मन दंड, वचन दंड और कायदंड।
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२४ श्री महावीर स्वामी-चरित
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कषायवाला हूँ इसलिए काषाय (रंगीन ) वस्त्र पहनूँगा । सचित्त जलसे अनेक जीवोंकी विराधना होती है इसलिए संकट सहकर भी मुनि सचित्त जल नहीं लेते; मगर मैं तो संकट सहनेमें असमर्थ हूँ इसलिए हमेशा सचित्त जलका उपयोग करूँगा । इस तरह सुखसे रहनेके लिए मरीचिने गृहस्थ
और साधुके बीचका रस्ता निकाला और त्रिदंडी सन्यास ग्रहण किया।
ऐसा विचित्र वेष देखकर लोग उससे धर्म पूछते थे; मगर वह लोगोंको शुद्ध जैनधर्मका ही उपदेश देता था। जब कोई उसे पूछता कि, तुमने ऐसा विचित्र वेष क्यों बनाया है तो वह जवाब देता,-"मैं इतना कठिन तप नहीं कर सकता इसीलिए ऐसा वेष बनाया है।" _एक बार महाराज भरत चक्रवर्तीके प्रश्नपर भगवान ऋषभदेवने उनके बाद होनेवाले तीर्थंकरों और चक्रवर्तियों आदिके नाम बताये । भरतने पूछा:-"प्रभु इस समवशरणमें भी कोई ऐसा जीव है जो इस चौबीसीमें तीर्थकर होगा ?" भगवानने जवाब दिया:-" तुम्हारा पुत्र मरीचि भरतक्षेत्रमें महावीर नामका चौबीसवाँ तीर्थकर होगा, पोतनपुरमें त्रिपृष्ठ नामका पहला वासुदेव होगा और महाविदेह क्षेत्रकी मूकापुरीमें प्रियमित्र नामका चक्रवर्ती होगा।" फिर भरत उठकर मरीचिके पास गये और वंदना करके उन्होंने सारा हाल कहा । सुनकर मरीचि खुशीसे नाचने लगा और कहने लगा,-"दुनिया मेरे समान कौन कुलीन होगा कि जिसके पिता पहले चक्रवर्ती हैं,
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जिसके दादा पहले तीर्थकर हैं और जो खुद पहला वासुदेव, चोबीसवाँ तीर्थकर व विदेहक्षेत्रमें चक्रवर्ती होगा।" इस तरह कुलका गर्व करनेसे उसने नीच गोत्र बाँधा। ___ भगवान मोक्षमें गये उसके बाद भी वह त्रिदंडीके वेशमें रहता था और शुद्ध धमका ही उपदेश करता था। एक बार बीमार हुआ; परन्तु उसे संयमहीन समझकर साधुओंने उसकी सेवा शुश्रूषा न की । इससे मरीचिके मनमें क्षोभ हुआ
और सोचने लगा,-ये साधु लोग बड़े ही स्वार्थी, निर्दय और दाक्षिण्यहीन हैं कि बीमारीमें भी मेरी शुश्रूषा नहीं करते । यह सच है कि, मैंने संयम छोड़ा है, परन्तु धर्म तो नहीं छोड़ा ? मैंने विनयका तो त्याग नहीं किया ? इनको क्या लोकव्यवहारका भी ज्ञान नहीं है ? फिर सोचा,—मैं क्यों साधुओंको बुरा समझू ? ये लोग जब अपने शरीरकी भी परवाह नहीं करते तो मुझ असंयमीकी परवाह न की इसमें कौनसी बुराई हुई ? फिर सोचा,-मगर भविष्यके लिए तो मुझे इसका उपाय करना ही चाहिए। मैं अब रोगमुक्त होनेके बाद कुछ शिष्य बनाऊँगा। ___ मरीचि जब अच्छा हो गया तब उसके पास एक कपिल नामका पुरुष धर्मोपदेश सुनने आया । मरीचिने उसे अपना शिष्य बनाया और तभीसे त्रिदंडी धर्मकी हमेशाके लिए नींव पड़ गई । इस मिथ्याधर्मकी नींव डालनेसे मरीचिके जीवने कोटाकोटि सागरोपम प्रमाणका संसार उर्पाजन किया। - अपने मिथ्या धर्मोपदेशकी आलोचना किये बगैर मरकर मरीचिका जीव ब्रह्मलोकमें देवता हुआ। कपिलने. अपने मतका
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खूब उपदेश दिया और आसूर्य आदिको अपना शिष्य बनाया कपिल भी मरकर देवता हुआ। वहाँ अवधिज्ञानसे अपने पूर्व जन्मका हाल जानकर वह पृथ्वीपर आया और उसने आसूर्य आदिको अपने मतका नाम बताया । तभीसे 'सांख्य दर्शन प्रचलित हुआ । * ब्रह्मदेवलोकसे चयकर मरीचिका जीव कोल्लाक नामके
गाँवमें अस्सी लाख पूर्वकी आयुवाला कौशिक ब्राह्मणका भव कौशिक नामका ब्राह्मण हुआ । उस
भवमें भी उसने त्रिदंडी सन्यास धारण किया। उसके बाद मरीचिने अनेक भवोंमें भ्रमण किया। राजगृहमें विश्वनंदी नामका राजा राज्य करता था। उसके
प्रियंगु नामकी रानीसे विशाखनंदी नामका विश्वभूतिका भव एक पुत्र था । राजाके विशाखभूति
नामका छोटा भाई था । वह युवराज था। उसकी धारिणी नामा स्त्रीके गर्भसे, मरीचिका जीव, उत्पन्न हुआ। उसका नाम विश्वभूति रक्खा गया ।
विश्वभूति युवा हुआ तबकी बात है। एक बार वह अपने जनाने सहित पुष्पकरंडक नामके राजाके सुंदर बागमें क्रीडा __ * श्रीमद्भागवत हिन्दुधर्मका एक माननीय ग्रंथ है । उसम सांख्यमतकी उत्पत्ति इस तरह लिखी है,-"मनुजीकी कन्या देवहूती थी। उसके साथ कर्दम ऋषिका ब्याह हुआ । देवहूतीके गर्भसे नौ कन्याएँ और एक पुत्र हुआ । पुत्रका नाम कपिल था । कपिलजी चौबीस अवतारोंमेंसे पाँचवें अवतार हुए हैं। इन्होंने अपनी माता देवहूतीजीको ज्ञान करानेके लिए जो तत्त्वोपदेश दिया, वहीं तत्त्वोपदेश सांख्य दर्शनके नामसे प्रसिद्ध हुआ।".. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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करने गया था । पीछेसे राजाका पुत्र विशाखनंदी भी उसी. वनमें क्रीडा करनेके इरादेसे पहुँचा; परन्तु विश्वभूतिको वहाँ जान उसे फाटकहीसे लौट आना पड़ा। उसने अपनी मातासे यह बात कही । रानी नाराज हुई और उसने विश्वभूतिको किसी भी तरहसे, बागसे निकालनेके लिए राजाको, लाचार किया । राजाने फौज तैयार करनेका हुक्म दिया और सभामें कहा कि, पुरुषसिंह नामका सामंत बागी हो गया है। उसका दमन करनेके लिए मैं जाता हूँ | विश्वभूतिको भी यह खबर पहुंचाई गई। सरल स्वभावी विश्वभूति तुरत सभामें आया और राजाको रोक आप फौज लेकर गया। ___ जब वह पुरुषसिंहकी जागीरमें पहुंचा तो उसने पुरुसिंहको आज्ञाधारक पाया । उसे आश्चर्य हुआ । वह वापिस आया और पुष्पकरंडक नामके बागमें गया, तो मालूम हुआ कि वहाँ. राजपुत्र विशाखनंदी आ गया है । विश्वभूति बड़ा क्रुद्ध हुआ। उसने द्वारपालोंको बुलाया और कहा:-" देखो, मुझे धोखा दिया गया है । अगर मैं चाहूँ तो तुम्हारा और राजकुमारका क्षण भरमें नाश कर मुझे धोखा देकर इस बागसे निकालनेकी सजा दे सकता हूँ।" फिर उसने फलोंसे लदे हुए एक वृक्षपर मक्का मारा । वृक्षके फल सब जमीनपर आ गिरे । फिर उसने द्वारपालोंको कहाः-" देखी मेरी शक्ति ? इन फलोंकी तरह ही मैं तुम लोगोंके सिर धड़से जुदा कर सकता हूँ परन्तु मुझे यह कुछ नहीं करना है । जिस भोगके लिए ऐसा छल कपट और बंधुद्रोह करना पड़े उस भोगको धिकार है।"
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विश्वभूतिने उसी वक्त संभूति मुनिके पास जाकर दीक्षा ले ली। राजा विश्वनंदीको यह खबर मिली । उसे अपनी कृतिपर दुःख हुआ। उसने विश्वभूतिके पास जाकर क्षमा माँगी
और उससे राज लेनेका आग्रह किया, परन्तु त्यागी विश्वभूतिने यह बात स्वीकार न की। ___ एक बार एकाकी विहार करते हुए विश्वभूति मुनि मथुरा आये । विशाखनंदी भी उस समय मथुरा आया था और शहरके बाहर उसका पड़ाव था । विश्वभूति मुनि एक महीनेके उपवासके बाद गोचरी लेने शहरमें जा रहे थे । जब वे विशाखनंदीके डेरेके पास पहुंचे तो नौकरोंने और उसने विश्वभूतिको पहचाना । विशाखनंदी मुनिको देख यह सोच उनपर गुस्से हुआ कि, इसीके कारणसे पिताजीने मेरा तिरस्कार किया था। इतने हीमें एक गाय दौड़ती हुई आई और विश्वभूति मुनिसे टकराई। मुनि गिर पड़े । विशाखनंदी और उसके नौकर हँस पड़े। वह मुनिको उद्देशकर बोला:-" अरे ! आज तेरा झाड़के फल गिरानेका बल कहाँ गया ?" इस तिरस्कारसे मुनि गुस्से हुए। उन्होंने, उठकर, गायको सींग पकड़कर उठाया, घुमाया और आकाशमें उछाल दिया। इस पराक्रमको देख विशाखनंदी और उसके नौकर लज्जित हो गये । विश्वभूति मुनिने यह नियाणा किया कि, मेरे तपके प्रभावसे भवांतरमें मैं बहुत बल शाली होऊँ और मेरा अपमान करनेवाले विशाखनंदीको दंड हूँ।
मरीचिका जीव विश्वभूति मरकर महाशुक्र देवलोकमें उत्कृष्ट महाशुक्रका मव आयुवाला देवता हुआ।
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भरतक्षेत्रके पोतनपुर नामक नगरमें रिपुप्रतिशत्रु नामक राजा
राज्य करते थे । उनकी पटरानी भद्राके त्रिपृष्ठ वासुदेवका भव गर्भसे चार स्वप्नोंसे सूचित एक पुत्र
जन्मा । उसका नाम 'अचल' रक्खा गया । उसके बाद भद्राने एक सुन्दरी कन्याको जन्म दिया। उसका नाम मृगावती रक्खा गया। धीरे २ यौवनने वसन्त ऋतुकी भाँति, मृगावतीपर अपना साम्राज्य स्थापित किया महादेवी भद्राको, अपनी प्रिय पुत्रीको यौवनवती देख उसके विवाहक चिंता हुई । एक दिन मृगावती अपने पिताको प्रणाम करने गई थी। उसके रूप लावण्यको देखकर राजा कामान्ध बना । मृगावतीको अपनी गोदर्म बिठा वह उसके गालोपर हाथ फैरने लगा। उसने मन ही मन उसके साथ विवाह करनेका निश्चय किया।
दूसरे दिन वह जब अपनी सभामें गया तब उसने शहरके सभी प्रतिष्ठित पुरुषोंको बुलाया और पूछा:-" मेरे राज्यमें कोई रत्न उत्पन्न हो तो उसका स्वामी कौन है ?" सबने कहा:" आप हैं" __राजाने फिर पूछा:-"मैं उसका स्वामी हो सकता हूँ " सबने जवाब दियाः-"हाँ महाराज, आप हो सकते हैं। " राजाने फिर पूछा:-"सोचकर कहो, क्या मैं उस रत्नका उपभोग कर सकता हूँ ?" वे क्या जानते थे कि राजा छल करके उनसे बातें पूछ रहा है । सबने शुद्ध भावसे कहा:-"हा कृपानाथ, आप कर सकते हैं ।" तब राजा बोला:-" मेरे घर जन्मे हुए कन्या
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रत्नसे मैं ब्याह करना चाहता हूँ|" राजाकी बात सुनकर सभी सन्नाटेमें आ गये। उनके मुँह उतर गये । किसीकी जबानमें शब्द नहीं था। राजा बोला:-"तुम्हीने सम्मति दी है कि मेरे राज्यमें जो रत्न हो उसका मैं स्वामी हूँ। अब चुप क्यों हो ? मैं इस समय तुम्हारी मौजूदगीमें गांधर्व विवाह करूँगा।" राजाने मृगावतीको बुलाकर शहरके सभी प्रतिष्ठित पुरुषोंकी उपस्थितिमें उससे गांधर्व विवाह कर लिया।
महादेवी भद्रा पतिके इस घृणित कार्यसे बड़ी लज्जित हुई और अपने पुत्र बलदेव अचलको साथ ले दक्षिणमें चली गई। राजकुमार अचलने अपने बल एवं पराक्रमसे माहेश्वरी नामक एक नया नगर बसाया। कुछ दिन वहाँरह शहरको व्यवस्थित कर वह अपने पिताके पास चला गया । और पिताके दोषकी उपेक्षा कर कह भक्ति सहित उनकी सेवा करने लगा। शहरके लोग राजाको रिपु प्रतिशत्रुकी जगह प्रजापति कहकर पुकारने लगे, कारण वह अपनी प्रजा-सन्तानका पति हुआ था।
राजाने मृगावतीको पट्टरानी पदसे सुशोभित किया। कालान्तरमें मरीचिका (विश्वभूतिका) जीव महाशुक्र देवलोकसे चयकर उसके गर्भ में आया। उस रात महादेवीने वसुदेवके जन्मकी सूचना देनेवाले सात शुभ स्वप्न देखे । समयपर एक पुत्र रत्न उत्पन्न हुआ । उसके पृष्ठ भागमें तीन हड्डियाँ थीं, इसलिए उसका नाम त्रिपृष्ठ रक्खा गया । यही इस चौबीसीम प्रथम वासुदेव हुआ है । राजकुमार अचल अपने भाईको खेलाता और आनंदसे दिन बिताता । त्रिपृष्ठ बड़ा हुआ और दोनों
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भाइयोंमें गाढी प्रीति हो गई। बड़े सुखसे त्रिपृष्ठ बाल्यकालको व्यतीत कर युवावस्थाको प्राप्त हुआ। जब वह जवान हुआ तब उसका शरीर प्रमाण अस्सी धनुष था ।
उस तरफ रत्नपुर नगरके मयूरग्रीव नामक राजाकी नीलाजना नामक रानीके गर्भसे अश्वग्रीव नामक प्रति वासुदेवका भी जन्म हो चुका था। वह बड़ा पराक्रमी, एवं रणनिपुण था। धीरे २ उसकी वीरताकी धाक सब राजाओंपर बैठ गई। प्रायः सभी राजा उसके आधीन हो गये । समयपर प्रति वासुदेवका चक्र भी उसकी आयुधशालामें उत्पन्न हुआ । उसके प्रभावसे अश्वग्रीवने भरत क्षेत्रके तीन खंडोंपर विजय पताका फहरा दी । मागध वरदाम आदि तीर्थदेवोंसे भी उसने अपना
आधिपत्य स्वीकार कराया । ___ एक बार उसने अश्वबिन्दु नामक नैमेत्तिकको बुलाकर अपना भविष्य पूछा । अश्वबिन्दुने बड़ी आनाकानीके बाद कहाः-"गजन् आपके चंडवेग नामक दूतको जो पीटेगा और तुंगगिरिमें रहनेवाले केसरी सिंहको जो मार डालेगा उसीके हाथसे आपकी मौत होगी।" यह सुनकर अश्वग्रीव बड़ा चिन्तित हुआ । उसने शत्रुका पता लगानेके लिए तुंगगिरिके पासके शखपुर प्रदेशमें शालीके खेत तैयार कराये और उनकी रक्षा करनेके लिए वह अपने अधीनस्थ राजाओंको भेजने लगा ।
एक बार उसको पता लगा कि, पोतनपुरके दो राजकुमार बड़े बलवान हैं । उसे वहम हुआ किं, कहीं वे ही तो मेरे शत्रु नहीं हैं। उसने उनकी जाँच करनेके लिए अपने दूत चंडवेग
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को भेजा । चंडवेग बड़ा वीर पुरुष था । वह अपने दलबल सहित पोतनपुर पहुंचा और सीधा प्रजापतिकी राजसभामें चला गया। महाराज उस समय समस्त दारियों और दोनों राजकुमारोंके साथ संगीतकी मधुर ध्वनि सुननेमें मग्न थे । चण्डवेग के अचानक सभामें प्रवेश करनेसे राग रंग बंद हो गये, सभामें सन्नाटा छा गया और प्रजापतिने उसका यथायोग्य सत्कार किया । त्रिपृष्ठ इस नवागंतुकपर बड़ा नाराज हुआ । उसने अपने एक मंत्रीसे पूछा:-"यह कौन है ?" उसने जवाब दिया:-" यह अश्वग्रीव प्रति वासुदेवका पराक्रमी चण्डवेग दूत है ।" अभिमानी त्रिपृष्ठने कहा:-"इस दुष्टको मैं जरूर दंड दूंगा। यह चाहे कितने ही बड़े राजाका दूत हो, मगर इजाजत लिए बिना सभामें आनेका इसे कोई हक नहीं था।" मगर वहाँ वह कुछ नहीं बोला । उसने अपने आदमियोंसे कहा:-“यह जब यहाँसे विदा हो तब तुम मुझे खबर देना ।" ___ थोड़े दिनके बाद प्रजापतिने चंडवेगको विदा दी । राजकुमार त्रिपृष्ठको उसके जानेके समाचार दिये गये। दोनों भाइयोंने उसे मार्गमें जाते हुएको रोककर कहाः-" रे दुष्ट! रे मूर्ख ! तूने घमंडके मारे नियमोंका उल्लंघन कर राजसभामें प्रवेश किया है और हमारे राग-रंगमें विघ्न डाला है इसलिए आज तुझे इसकी सजा दी जायगी।" त्रिपृष्ठने तलवार निकाली । अचलने उसे ऐसा करनेसे रोका और अपने आदमियोंको इशारा किया। आदमियोंने चंडवेगसे हथियार छीन लिये और उसे. खब पीटा । चंडवेगके साथी सभी भाग गये।
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दूतकी ऐसी दुर्गति हुई सुनकर प्रजापतिको दुःख हुआ । उसने आदमी भेजकर दूतको वापिस बुलाया, लड़केकी कृतिके लिए दुःख प्रदर्शित किया और उसे अनेक तरह से इनाम इकराम देकर सन्तुष्ट किया । और इस घटना की खबर अश्वग्रीवको न देनेका उससे वादा कराया ।
अपमानित दूत अश्वग्रीव के पास पहुँचा । उसके पहले ही उसके साथियोंने जाकर पोतनपुरकी घटनाके समाचार सुना दिये थे | अपना वादा पूरा होनेका कोई उपाय न देख दूतने भी सारा वृत्तान्त सुना दिया । सुनकर अश्वग्रीवको क्रोध हो आया; परन्तु प्रजापतिकी क्षमायाचनाके समाचार सुनकर कुछ शान्ति भी हुई। उसने विचारा कि नैमेतिककी एक बात तो सच्ची हुई है । अब दूसरी बातकी सत्यता जानने के लिए भी उपाय करना चाहिए | उसने दूत भेजकर प्रजापतिको शालीके खेतकी रक्षा के लिए जानेका आदेश दिया ।
प्रजापतिने अश्वग्रीवकी आज्ञा दोनों कुमारोंको सुना दी । त्रिपृष्ठ यह सुनकर सिंहका वध करने जानेके लिए तैयार हो गया । दोनों भाइयोंने तुंगगिरिके खेतोंके पास जाकर डेरे डाले ।
लोगोंके द्वारा सिंहकी अतुल शक्तिका पता चला। बड़े बड़े बलवानोंको उसने पलक मारते मार गिराया था । अच्छे अच्छे बहादुर उसके ग्रास बन गये थे। ऐसे विक्राल सिंहको मारना बड़ा कठिन कार्य था । परन्तु त्रिपृष्ठ एवं अचलकुमारने उसको उसकी गुफामें जा ललकारा । सिंहने टेढी निगाह करके देखा और दो जवानों को अपनी गुफाके सामने खड़ा देखकर वापिस बेपरवा
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हीसे आँखें बंद कर ली । त्रिपृष्ठके नौकरोने चारों तरफसे चिल्लाना और पत्थर फैंकना आरंभ किया । यह बात शेरको असह्य हुई । उसने उठकर गर्जना की । उसकी गर्जना सुनकर त्रिपृष्ठके कई नौकर भयसे गिर पड़े, पक्षी पेड़ोंसे नीचे आ रहे और पशु खाना और चलना फिरना छोड़ ताकने लगे । यह सब हुआ; परंतु दो जवान तो उसकी गुफाके सामने कुछ दूर स्थिर खड़े ही रहे।
शेरने गुफासे बाहर निकलकर खड़े हुए जवानोंपर छलांग मारी । त्रिपृष्ठने लपककर शेरके जबड़े पकड़े और उसे चीर दिया। दो टुकड़े होने पर भी शेरका दम न निकला । वह तड़प रहा था और यह सोचकर दुःखी था कि आज इस छोकरेने मुझे मार डाला । हजारों बड़े बड़े शस्त्रधारियोंको मैंने पलक मारवे यमधाम पहुँचाया था उसी मुझको, इस छोकरेने क्षणभरमें चीरकर फेंक दिया । त्रिपृष्ठके सारथीने-जो महावीरके भवमें गौतम गणधर हुए थे-कहाः—" हे सिंह, जैसे तू पशुओंमें सिंह है वैसे ही ये त्रिपृष्ठ मनुष्योंमें सिंह हैं और वासुदेव हैं । तेरा सद्भाग्य है कि, तू इनके हाथसे मारा गया है।" सिंहको यह सुनकर संतोष हुआ और वह मरकर चौथे नरकमें गया।
त्रिपृष्ठने शेरका चमड़ा निकलवाया और उसे लेकर वह राजधानीको चला । अश्वग्रीवको यह खबर मिली । उसको निश्चय हो गया कि मेरी मौत आ गई है । उसने शंकामें जीवन बिताना ठीक न समझा और प्रजापतिको कहलाया कि.. तुम्हारे लड़कोंने जो बहादुरी की उससे मैं बहुत खुश हूँ । उन्हें शेरके चमड़ेके साथ मेरे पास भेज दो । मैं उनको इनाम दूंगा।"
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~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ त्रिपृष्ठ बोले:-"अश्वग्रीवको कहना कि, जो राजा एक शेरको नहीं मार सका उस राजासे इनाम लेनेको त्रिपृष्ठ तैयार नहीं है । वीर वीरोंसे इनाम लेते हैं, मामूली आदमियोंसे नहीं।" __ यह सुनकर अश्वग्रीवके दूतको क्रोध हो आया और वह बोला:-" उद्धत छोकरो ! तुम्हें मालूम नहीं है कि, तुम किसके.... " दूत अपनी बात पूरी भी न कर पाया था कि, त्रिपृष्ठके आदमियोंने उसे पीटपाटकर वहाँसे निकाल दिया। ___ अश्वग्रीवको जब ये समाचार मिले तो वह अपनी फौज लेकर आया । त्रिपृष्ठ भी फौज लेकर लड़ने निकला । थोड़ी देर तक फौजें लड़ती रहीं । फिर त्रिपृष्ठने कहलायाः-"कृया फौजका नाश किया जा रहा है। आओ तुम और मैं लड़कर लड़ाईका फैसला कर लें । अश्वग्रीवने यह बात मान ली । दोनोंने भयंकर युद्ध किया और अंतमें अश्वग्रीव मारा गया ।
अश्वग्रीवको मरा जान सभी राजाओंने आ आकर त्रिपृष्ठको अपना स्वामी स्वीकार किया और भेटें दे देकर उसकी कृपा चाही । त्रिपृष्ठने सबको अभय किया । वहाँसे त्रिपृष्ठने जाकर भरतार्द्धको जीता कोटिशिलाको क्षणमात्रमें अपने सिरसे भी ऊँचा उठाकर रख दिया और सारे भूचक्रको (१) अपने पराक्रमसे दबाकर पोतनपुरका रस्ता लिया । पोतनपुरमें देवताओंने और राजाओने उन्हें अर्द्धचक्रीके पदपर अभिषिक्त किया।
पृथ्वीपर जो जो अलभ्य रत्न थे । वे सभी त्रिपृष्ठको मिले । भरतार्दमें जितने उत्तम गवैये थे वे भी त्रिपृष्ठके राज्यमें आ गये।
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एक रातको गवैये गा रहे थे और त्रिपृष्ठ शय्यापर लेटा हुआ था । उसने अपने द्वारपालको हुक्म दिया, जब मुझे नींद आ जाय तब गवैयोंको छुट्टी दे देना ।
त्रिपृष्ठ सो गया मगर मधुर संगीतके रसिया द्वारपालने गवैयोंको छुट्टी न दी । सवेरा हुआ । त्रिपृष्ठ जागा और उसने क्रोधसे पूछा:--"अभी तक गवैये क्यों गा रहे हैं । " द्वारपालने डरते हुए जवाब दियाः-"प्रभो ! मधुर गायनके लोभसे मैंने इन्हें छुट्टी न दी।" त्रिपृष्ठको और भी अधिक गुस्सा चढ़ा
और उसने शीशा गरम करवाकर उसके कानमें डलवा दिया । बिचारा द्वारपाल त्रिपृष्ठके इस क्रूर कर्मसे तड़पकर मर गया ।
त्रिपृष्ठने और भी ऐसे अनेक क्रूर कर्म किये थे । जिनसे उसने भयंकर असाता वेदनी कर्म बाँधा और अंतमें मरकर वह सातवें नरकमें गया । त्रिपृष्ठके भाई अचल बलभद्र वैराग्य पा, दीक्षा ले मोक्षमें गये। मरीचिका जीव नरकसे निकलकर केशरीसिंह हुआ। फिर
मनुष्य तिर्यंचादिके कई भवोंमें भ्रमणकर चक्रवर्ती प्रियमित्रका भव अंतमें मनुष्य जन्म पाया। और शुभ
कर्मोंका उपार्जन कर अपर विदेहमें, धनंजयकी राणी धारिणीके गर्भसे जन्मा और प्रियमित्र नाम रक्खा गया । युवा होनेपर उसने छ: खंड पृथ्वीकी साधनाकी
और देवताओंने तथा राजाओंने बारह बरस तक उत्सव कर उसे चक्रवर्तीपदसे सुशोभित किया।
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अनेक वर्षों तक न्याय पूर्वक राज्यकर प्रियमित्रने पोट्टिल नामके आचार्यसे दीक्षा ली और तपकर वह शुक्रदेवलोकमें सर्वार्थ नामक विमानमें देवता हुआ। महाशुक्र देवलोकसे चयकर भरतखंडके छत्रा नामक नगरमें
जितशत्रु राजाकी भद्रा नामा राणीके राजा नंदनका भव गर्भसे मरीचिका जीव जन्मा । नाम
नंदन रक्खा गया। राजा जितशत्रुके दीक्षा लेनेपर नंदन राजसिंहा सनपर बैठा । कई बरसों तक राज्यकर जब चौबीस लाख बरसकी आयु हुई तब उसने पोट्टिलाचार्यसे दीक्षा ली और बीस स्थानककी आराधना कर तीर्थकर नाम कर्म बाँधा। अंतमें नंदन मुनि आयुष्यके अंतमें अनशन ग्रहणकर पाणत
ना नामक देवलोकमें पुष्पोत्तर विमानमें प्राणत नाम प्राणत नामक देवलोकमें
दे व हुए। .. जबूंद्वीपके भरतक्षेत्रके मगध प्रदेशमें ब्राह्मण कुंड नामका
एक ब्राह्मणोंका गाँव था। उसमें कुडाभगवान महावीरका भव लस कुलका ऋषभदत्त नामक ब्राह्मण
रहता था । उसके देवानंदा नामकी भार्या थी। वह जालंधर कुलमें जन्मी थी । उसको अषाढ सुदि ६ के दिन चंद्रमा जब हस्तोत्तर ( उत्तराषाढा ) नक्षत्रमें आया था तब चौदह महास्वम आये और मरीचिका जीव दसर्वे देवलोकसे चयकर देवानंदाकी कोखमें आया। सेवेरे ही देवानंदाने
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अपने पतिसे स्वप्नोंकी बात कही। ऋषभदत्तने कहा:-" तुम्हारे गर्भसे एक महान आत्मा जन्म लेगा । वह चारों वेदोंका पारगामी और परम निष्ठावान बनेगा।" यह सुनकर वह बहुत प्रसन्न हुई।
प्रभुके गर्भ में आनेके बाद ऋषभदत्तको बहुत मान और धन मिले।
जब देवानंदाके गर्भको बयासी दिन बीते तब सौधर्म देवलोकके इंद्रका आसन काँपा। सौधर्मेन्द्रने अवधिज्ञानसे प्रभुको देवानंदाके गर्भमें आया जान, सिंहासनसे उतरकर वंदना की । फिर वह सोचने लगा,-तीर्थकर कभी तुच्छ कुलमें, दरिद्र कुलमें या भिक्षुक कुलमें उत्पन्न नहीं होते । वे हमेशा इक्ष्वाकु आदि क्षत्रिय वंशमें ही जन्मते हैं । महावीर प्रभु भिक्षुक कुलकी स्त्रीके गर्भ में आये, यह उन्हें, मरीचिके भवमें किये हुए, कुलाभिमानका फल मिला है। अब मैं उनको किसी उच्च क्षत्रिय वंशमें पहुँचानेका प्रयत्न करूँ।
इन्द्रने अपनी प्यादा सेनाके सेनापति नैगमेषी देवको बुलाया और हुक्म दिया:-" मंगधमें क्षत्रियकुंडे नामका नगर है। उसमें
१-ऋग्वेदमें इस देशका कीकट नामसे उल्लेख है । अथर्ववेदमें इसको मगध देश ही लिखा है। हेमचंद्राचार्यने अपने कोशमें दोनों नाम दिये हैं। पन्नवणा सूत्रमें आर्य दश गिनाते समय मगध सबसे पहले गिनाया गया है । इस समयका विहार प्रांत मगध देश कहा जा सकता है। इसमें जैनों
और बौद्धोंके बहुतसे तीर्थ हैं। इससे वे उसे पवित्र मानते हैं। ___२-बिहार प्रांत के बसाड पट्टीके पास बसुकुंड नामका एक गाँव है। शोधक उसीको क्षत्रियकुंड बताते हैं।
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जैन-रत्न ~~rnwwwmmam इक्ष्वाकु वंशके सिद्धार्थ नामक गंजा राज्य करते हैं। उनकी राणी वसिष्ठ गोत्रकी त्रिशला गर्भवती हैं। उनके गर्भ में कन्या है। उसे ले जाकर ब्राह्मणकुंडकी देवानंदा नामा ब्राह्मणांके गर्भमें रखना और देवानंदाके गर्भको लाकर त्रिशला माताके गर्भमें रखना।"
नैगमेषी देवने इन्द्रकी आज्ञाका पालन किया । उसने जब देवानंदाका गर्भ हरण किया तब देवानंदाने चौदहों महा स्वप्न अपने मुखसे निकलते देखे । वह सहसा उठ बैठी तो उसे मालम हुआ कि, उसका गर्भस्थ बालक किसीने हर लिया है । वह
१-कल्पसूत्र और विशेषावश्यकमें सिद्धार्थको ज्ञातकुलका क्षत्रिय लिखा है, राजा नहीं । “क्षत्रियकुंड गाँवमें सिद्धार्थ नामका क्षत्रिय है। उसकी भार्या त्रिशलाकी कोखमें भगवानको ले जा ।" (आगमोदय समितिका विशेषावश्यक भा. १ ला पेज ५९१) “ऋषभदेवके वंशमें जन्मे हुए ज्ञात नामक क्षत्रिय विशेषोंके मध्यमें जन्मे हुए काश्यपगोत्रके सिद्धार्थ नामक क्षत्रियकी भार्या वसिष्ठ गोत्रकी त्रिशला नामक क्षत्राणीकी कोखमें रखनेका निश्चय किया ( कल्पसूत्र सुख बोधिका पेज ८३) इतिहासज्ञोंका मत है कि,-क्षत्रियकुंड वैशालीका एक परा (Subarban) था । वैशालीमें गणराज्य था । सिद्धार्थ क्षत्रियकुंडकी तरफसे प्रतिनिधि और क्षत्रियकुंडवासियोंके नेता थे । ये ज्ञात कुलके थे । आवश्यक चूर्णी में 'ऋषभदेवके अपने ही लोगोंको ज्ञात बताया है। ज्ञातोंका कुल ज्ञातकुल हुआ और उनका वंश ज्ञातवंश कहलाया था। इक्ष्वाकुवंश भी ऋषभदेवहीका है । इससे जान पड़ता है कि ज्ञातवंश और इक्ष्वाकुवंश एक ही वंशके दो नाम हैं।
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२४ श्री महावीर स्वामी-चरित
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बहुत रोई चिल्लाई, परन्तु सब बेकार था । गर्भस्थ बालक निकाल लिया गया था । उसका वापिस आना असंभव था।
आसोज वदि १३ के दिन चंद्रमा जब उत्तराषाढा नक्षत्रमें था तब नैगमेषी देवने मरीचिके जीवको त्रिशलादेवीके गर्भमें रक्खा । त्रिशलादेवीको चौदह महास्वप्न आये । इन्द्रादि देवोंने गर्भकल्याणक मनाया।
गर्भको जब सात महीने बीते उसके बाद एक दिन गर्भस्थ महावीर स्वामीने सोचा कि, मेरे हिलनेसे माताको कष्ट होता है इसलिए वे गर्भावासमें योगीकी तरह स्थिर हो रहे । गर्भका हिलना बंद होनेसे त्रिशलादेवीको बड़ा दुःख हुआ । उन्होंने समझा कि, मेरा गर्भ नष्ट हो गया है । वे रोने लगीं। सारे महलोंमें यह खबर फैल गई । सिद्धार्थ आदि सभी दुखी हुए । गर्भस्थ अवधिज्ञानी प्रभुने मातापिताका दुःख जानकर अपना अंग-स्फुरण किया । गर्भ कायम जानकर माता पिताको और सभी लोगोंको बड़ा आनंद हुआ । मातापिताने आनंदके अतिरेकमें लाखों लुटा दिये । प्रभुने गर्भवासहीमें मातापिताका अधिक स्नेह देखकर नियम किया कि जबतक मातापिता जीवित रहेंगे तबतक मैं दीक्षा नहीं लँगा । अगर मैं दीक्षा लूँगा तो इन्हें दुःख होगा और ये असाता वेदनी कर्म बाँधेगे।
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जैन-रत्न
जन्म
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विक्रम संवत ५४३ (शक सं०६७८ और ईस्वी सन् ६००)
___ पूर्व चैत्रसुदि १३ के दिन आधी रातके
समय, गर्भको जब ९ महीने और साढ़े सात
दिन बीत चुके थे और चंद्र जब हस्तोत्तरा ( उत्तराषाढ़ा) नक्षत्रमें आया था तब त्रिशलादेवीने, सिंह लक्षणवाले पुत्ररत्नको जन्म दिया । उस समय भोगंकरा आदि छप्पन दिक्कुमारियोंने आकर प्रभुका और माताका मृतिका कर्म किया।
सौधर्मेन्द्रका आसन काँपा। वह प्रभुका जन्म जानकर परिवार सहित मूतिका गृहमें आया। उन्होंने दूरहीसे प्रभुको
और माताको प्रणाम किया। फिर इन्द्रने देवीको अवस्वापनिका निद्रामें सुलाया, माताकी बगलमें प्रभुका प्रतिबिंब रक्खा और प्रभुको उठा लिया । ___ उसके बाद इन्द्रने अपने पाँच रूप बनाये । एक रूपने प्रभुको गोदमें लिया, दूसरे रूपने प्रभुपर छत्र रक्खा, तीसरे
और चौथे रूप दोनों तरफ चवर उड़ाने लगे और पाँचवाँ रूप वज्र उछालता और नाचता कूदता आगे चला । इस तरह सौधर्मेन्द्र प्रभुको लेकर सुमेरु पर्वतपर पहुँचा और वहाँपर अतिकंबला नामकी शिलाके शाश्वत सिंहासनपर बैठा। दूसरे तरसठ
१ इसमें समय हमने मुनि श्री कल्याणविजयजी महाराजके 'वीरनिर्वाण संवत और जैनकालगणना ' निबंधके आधार पर दिया है।
२ त्रिशलादेवी वैशाली के लिच्छवी राजा चेटककी बहिन थीं।
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२४ श्री महावीर स्वामी-चरित
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वास अभिषेक हुपके चौबीसव
ताईस तीर्थकरा
इन्द्र भी अपने आधीन देवताओं के साथ, स्नात्र करानेके लिए वहाँ आ पहुँचे। ___ आभियोगिक देव तीर्थजल ले आये और सब इन्द्रोंने, इन्द्राणियोंने और सामानिक देवोंने अभिषेक किया । सब दो सौ पचास अभिषेक हुए। एक अभिषेकमें चौसठ हजार कलश होते हैं। इस अवसर्पिणी कालके चौबीसवें तीर्थकर महावीर स्वामीका
शरीर-प्रमाण दूसरे तेईस तीर्थकरोंसे जन्मोत्सव और बहुत ही छोटा था, इसलिए अभिषेक बलप्रदर्शन करनेकी सम्मति देनेके पहले इन्द्रके
मनमें शंका हुई कि, भगवानका यह बाल-शरीर इतनी अभिषेक-जल-धाराको कैसे सह सकेगा? ___ अवधिज्ञानसे भगवानने यह बात जानी और उन्होंने अपने बाएँ पैरके अंगूठेसे मेरु पर्वतको दबाया । पर्वत काँप उठा । प्रभुजन्म-महोत्सवके समय यह उपद्रव कैसे हुआ? इन्द्रने सोचा। उसे प्रभुका बल* विदित हुआ और उसने तत्कालही क्षमा माँगी। ___ * तीर्थकरोंमें कितना बल होता है ? इसका उल्लेख शास्त्रोंमें इस तरह किया गया है ,___ बारह योद्धाओंका बल एक गोद्धा (बैल) में होता है; दस बैलोंका बल एक घोड़ेमें होता है; बारह घोड़ोंका बल एक भैंसेमें होता है; पन्द्रह भैंसोंका बल एक मत्त हाथीमें होता है; पाँच सौ मत्त हाथियोंका बल एक केसरी सिंहमें होता है; दो हजार केसरी सिंहाँका बल एक अष्टापद पक्षीमें होता है। दस लाख अष्टापदोंका बल एक बलदेवमें होता है; दो बलदेवोंका बल एक वासुदेवमें होता है; दो वासुदेवोंका बल एक चक्रवर्ती होता है; एक लाख चक्रवर्तियोंका बल एक नागेन्द्र में होता है; एक करोड़ नागेन्द्रोंका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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अभिषेक, भक्तिपूजनादिकी विधि समाप्त कर, इन्द्र प्रभुको वापिस त्रिशला देवीकी गोदमें सुला, प्रभु-प्रतिबिंब ले, माताकी अवस्वापनिका निद्रा हर, घरमें बत्तीस करोड़ मूल्यके रत्न, सुवर्ण, रजतादिकी दृष्टि करा, प्रभुको या प्रभुकी माताको कष्ट देनेका कोई उपद्रव न करे ऐसी घोषणा करा, अपने स्थानपर गया ।
सिद्धार्थ राजाने सवेरे ही प्रभुका जन्मोत्सव मनाया, कैदियोंको छोड़ दिया, प्रजाजनोंको-राज्यका ऋण छोड़कर अथवा खजानेसे कर्जा चुकवाकर-ऋणमुक्त किया, सब तरहके 'कर' छोड़ दिये और राज्यभरमें ऐसी व्यवस्था कर दी कि प्रजाजन दस दिनतक आनंदोत्सव करते रहें। ___ बारहवें दिन सिद्धार्थ राजाने प्रभुका नाम 'वर्द्धमान' रक्खा: कारण जबसे भगवान गर्भमें आये तबसे सिद्धार्थ राजाके राज्यमें धन-धान्यादिकी वृद्धि हुई, शत्रु परास्त हुए और सब तरफ सुख शांति बढ़ी थी। ___ जब वर्द्धमान स्वामी आठ वर्षके हुए तबकी बात है । वे
अपनी उम्रके लड़कोंके साथ एक उद्यानमें देवका गव हरण किया खेल रहे थे। उस समय प्रसंगवश इन्द्रने
वर्द्धमान स्वामीकी वीरता और धीरताके बखान किये । एक मिथ्यात्वी देवको मनुष्यकी वीरताके बल एक इन्द्रमें होता है ऐसे अनंतों इन्द्रोंका बल जिनेन्द्रोंकी चट्टी अंगुलीमें होता है । इसी लिए तीर्थकर 'अतुल बलधारी' कहाते हैं।
x पुत्र जन्मोत्सवके समय, युवराजके अभिषेकके समय, और विजयोत्सवके समय कैदियों को छोड़नेकी और कर बंद करनेकी प्राचीन पद्धति थी । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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बखान अच्छे न लगे । इसलिए वह तुरत वहाँ आया जहाँ सभी बालक खेल रहे थे। ___ जब देव पहुँचा तब वे आमलकी क्रीडा करते थे । वर्द्धमान स्वामी और कई लड़के झाड़पर चढ़े हुए थे। देव भयंकर सर्पका रूप धरकर झाड़के लिपट गया । उसे देखकर लड़के बहुत डरे । वर्द्धमान स्वामीने लड़कोंको धीरज बँधाई । फिर प्रभु नीचे उतरे । उन्होंने सर्पको पूँछ पकड़कर एक झटका मारा। वह ढीला पड़ गया और झाड़से उसके बंधन निकल गये । प्रभुने उसे तिनकेकी तरह एक तरफ फेंक दिया। ___ लड़के फिर दूसरा खेल खेलने लगे। उसमें जीतनेवाला दूसरे लड़कोपर सवारी करता था। वर्द्धमान स्वामी जीते । वे सब राजकुमारोंपर चढ़ चढ़ कर दाँव लेने लगे। लड़केका रूप धारण किये हुए देव भी उनके अंदर था। उसकी घोड़ा बननेकी पारी आई । वह प्रभुको लेकर भागा और इतना ऊँचा हो गया कि उसके कंधेपर बैठे हुए वर्द्धमान स्वामी ऐसे मालूम होने लगे मानों वे आकाश में पहुँच गये हैं। लड़के भयसे चिल्लाये । वर्द्धमान स्वामीने अपने ज्ञानबलसे उसकी दुष्टता
१. लड़के झाडपर चढ़ते हैं, एक लड़का उनको पकड़ता है। जब पकड़नेवाला झाड़पर चढ़ता है तब दूसरे कुछ लड़के नीचे कूदकर या उतरकर, पकड़नेवालेकी एक लकड़ी-जो अमुक गोल कुँडालेमें रहती हैदूर फैंक देते हैं । इससे पकड़नेवाले लड़के को वह लकड़ी लेने जाना पड़ता है । जब तक वह लकड़ी कुंडालेमें नहीं होती तबतक वह किसीको नहीं पकड़ सकता । 'यही आमलकी क्रीड़ा' है।
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जानी और उसके कंधेपर जोरसे एक घुसा मारा। वह दुःखसे चिल्लाकर छोटे लड़कोंसा हो गया। उसने प्रभुको कंधेसे उतारा और अपने देवरूपसे प्रभुको नमस्कार किया । फिर वह अपने स्थानपर चला गया। जब वे आठ बरसके हुए तब पाठशालामें भेजे गये । उस
समय इन्द्रका आसन काँपा। उसने अध्ययन अवधिज्ञानसे प्रभुको पाठशाला भेजनेकी
बात जानी । वह एक ब्राह्मणका रूप धरकर आया और उसने उपाध्यायसे कुछ प्रश्न पूछे । उपाध्याय जवाब न दे सका तब प्रभने उसके प्रश्नोंके उत्तर दिये । यह देखकर सभी लोगोंको अचरज हुआ । फिर ब्राह्मणके रूपमें आये हुए इन्द्रने कहाः-" हे उपाध्याय ! महावीर सामान्य बालक नहीं हैं। ये तो पूर्वोपार्जित पुण्यके कारण महान ज्ञानवान हैं।"
उपाध्यायने भी महावीर स्वामीसे शब्द-व्युत्पत्ति आदि व्याकरण संबंधी अनेक प्रश्न पूछे । उसे उन सबका योग्य उत्तर मिला । इससे उसको बहुत संतोष हुआ और उसने प्रभुके उत्तरोंको-जो उन्होंने इन्द्रको और उसको दिये थे-संग्रहकर, जगतमें जिनेन्द्र-व्याकरणके रूपमें प्रसिद्ध किया। युवा होनेपर वर्धमान स्वामीका व्याह राजा समरवीरकी
पुत्री यशोदादेवीके साथ हुआ। वर्द्धमान ब्याह और संतान स्वामीकी इच्छा शादी करनेकी न थी,
परंतु माता पिताकी प्रसन्नताके लिए और १ दिगंबर सम्प्रदायमें मान्यता है कि महावीर स्वामीका ब्याह नहीं हुआ था।
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अपने भोगावली कर्मोंका उपभोग किये बिना छुटकारान था इसलिए उन्होंने ब्याह किया था ।
यशोदादेवीकी कोखसे प्रियदर्शना नामकी एक कन्या हुई थी । उसका ब्याह जमाली नामक राजपुत्रके साथ हुआ था। जमाली महावीर स्वामीकी बहिन सुदर्शनाका पुत्र था। जब वर्द्धमान स्वामीकी आयु २८ बरसकी हुई तब उनके
मातापिताके जीव मरकर अच्युत देवलोदीक्षा कमें गये । - महावीर स्वामीके बड़े भाई
नांदवर्द्धन राज्य-गद्दी पर बैठे। कुछ दिनोंके बाद महावीर स्वामीने अपने बड़े भाई नंदिवर्द्धनसे दीक्षा लेनेकी आज्ञा माँगी । भाईने दुःखसे कहाः"बंध ! अभी मातापिताके वियोगका दःख भी नहीं मिटा है, फिर तुम वियोग-दुःख देनेकी बात क्यों करते हो ?"
प्रभुने ज्येष्ठ बंधुकी बात मानकर और थोड़े दिन घरपर ही रहना स्थिर किया । घरपर वे भावयति होकर संयमसे समय बिताने लगे। __ एक बरसके बाद लोकांतिक देवोंकी प्रार्थनासे वर्षी दान देकर महावीर स्वामीने दीक्षा लेनेकी तैयारी की । नंदिवर्द्धनने ५० धनुष लंबी, ३६ धनुष ऊँची आरै २५ धनुष चौड़ी चंद्रप्रभा नामकी एक पालखी तैयार कराई । प्रभु उसमें ___x सिद्धार्थकी आयु ८७ और त्रिशलादेवीकी ८५, नंदीवर्द्धनकी ९८, यशोदा देवीकी ९०, सुदर्शनाकी ८५ प्रियदर्शनाकी ८५, वर्षकी थी। (म० च० पृ० २०८.)
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विराजमान हुए और इन्द्रादि देव उसे उठाकर ' ज्ञातखंड। नामके उपवनमें ले गये। ___ प्रभुने पालखीसे उतरकर वस्त्राभूषणोंका त्याग किया । इंद्रने उनके कंधेपर देवदूष्य वस्त्र डाला । प्रभुने पंच मुष्टि लोचकर सिद्धोंको नमस्कार किया और विक्रम संवत ५१३ (शक सं०६४८ ई. स. ५७० ) पूर्व मार्गशीर्ष कृष्णा दशमीके दिन चंद्र जब हस्तोत्तरा नक्षत्रमें आया था तब चारित्र ग्रहण किया । उसी समय प्रभुको मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न हुआ।
जिस समय महावीर स्वामीन दीक्षा ग्रहण की उस समय उनकी उम्र ३० बरसकी हो चुकी थी। जब प्रभु विहार करनेके लिए चले तब रस्तेमें 'सोम'
नामका एक ब्राह्मण मिला । वह आधे देवदष्य वस्त्रका बोला:-" हे प्रभु ! आपके दानसे सारा दान जगत (मगधदेश ?) दरिद्रतासे मुक्त हो
गया है। मैं ही भाग्यहीन हूँ कि मेरी दरिद्रता अब तक न गई । प्रभो ! मेरी निर्धनता भी दूर कीजिए।
प्रभु बोले:-" हे विप्र ! मेरे पास इस समय कुछ नहीं है । देवदूष्य वस्त्र है। इसका आधा तू ले जा।" सोम ब्राह्मण! आधा देवदृष्य वस्त्र फाड़कर ले गया। ब्राह्मण जब वह कपड़ा तूननेवालेके पास ले गया तब उसने कहा:-" हे ब्राम्हण ! अगर तू इसका आधा भाग और ले आवेगा तो इसकी कीमत एक लाख दीनार ( सोनेका सिका) मिलेगी।"
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२४ श्री महावीर स्वामी-चरित
ब्राह्मण वापिस महावीर स्वामीके पास गया। उनके साथ साथ वह तेरह महीने तक फिरा । बादमें एक दिन प्रभु जब मोराक गाँवसे उत्तर चाँवाल नामके गाँवको जाते थे तब रस्तेमें 'सुर्वणवालुका ' नामकी नदीके किनारे झाड़ोंमें उनका आधा देवदूष्य वस्त्र फँस गया । ब्राह्मणने तुरत दौड़कर वह वस्त्र उठा लिया । प्रभुने पीछे फिरकर देखा और ब्राह्मणको वस्त्र उठाते देख आगेका रस्ता लिया । ब्राह्मण वह वस्त्रार्द्ध लेकर तूननेवालेके पास गया । तूननेवालेने दोनों टुकड़ोंको बेमालूम तूना और तब एक लाख दीनारमें उस वस्त्रको बेच दिया । ब्राह्मण और तूननेवाला दोनोंने पचास पचास हजार दीनार ले लिये । प्रभु दीक्षा लेकर पहले दिन कुमार गाँवमें पहुँचे । वहाँ
गाँवके बाहर कायोत्सर्ग गवाल-कृत उपसर्ग एक गवाला शामको वहाँ आया और
अपने बेलोंको वहीं छोड़कर गाँवमें गायें दुहने चला गया। बैल फिरते हुए कहीं जंगलमें चले गये । जब गवाला वापिस आया तब वहाँ बैल नहीं थे। उसने महावीर स्वामीसे बैलोंके लिए पूछा; परंतु ध्यानस्थ वीरसे उसे कोई जवाब न मिला। वह बैलोंको ढूँढने जंगलमें गया । सारी रात ढूँढता रहा; मगर उसे कहीं बैल न मिले । बिचारा हारकर वापिस आया तो क्या देखता है कि बैल महावीर स्वामीके
१ क्षत्रियकुंड अथवा वैशालीसे नालंदा जाते समय रस्तमें लगभग १७-१८ माइल पर एक कुस्मर नामका गाँव है । संभवतः यही गाँव पहले 'कुर्मार' नामसे प्रसिद्ध हो । ( दश उपासको पेज ३६)
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सामने बैठे हुए जुगाली कर रहे हैं । गवालको बड़ा क्रोध आया । उसने सोचा, - ध्यानका ढोंग करनेवाले इसी वावेने मेरे बैल छिपाये थे । इसका विचार बैल चुराकर भाग जानेका था । उसने प्रभुको अनेक भली बुरी बातें कहीं; परंतु प्रभु तो मौन ही रहे । वे बोलते भी कैसे ? उन्होंने तो रातभरके लिए कायोत्सर्ग कर दिया था । वह महावीर स्वामीको मारने दौड़ा ।
इन्द्र बड़े तड़के उठकर सोचने लगा, - भगवानने किस तरह यह रात बिताई । उसी समय उसने अवधिज्ञान से गवालेको प्रभुपर झपटते देखा । तत्कल ही गवालेको अपने दैवबलसे वहीं स्तंभित कर इन्द्र प्रभुके पास पहुँचा और गवालेका तिरस्कार कर बोला :- " मूर्ख ! क्या तू नहीं जानता कि ये सिद्धार्थ राजाके पुत्र वर्द्धमान स्वामी हैं ? " वर्द्धमान स्वामीका नाम सुनते ही बिचारा गवाल भयभीत हुआ और वहाँ से चला गया ।
जब प्रभुने कायोत्सर्गका त्याग किया तब इन्द्रने प्रदक्षिणा देकर वंदना की और कहा :- " प्रभो ! स्वावलंबनका इन्द्रको बारह बरस तक आपपर निरंतर उपसर्ग उपदेश होंगे इसलिए यदि आप आज्ञा दें तो मैं आपकी सेवामें रहूँ । ”
प्रभुने जलद गंभीर वाणीमें उत्तर दिया :- " हे इन्द्र | अत कभी दूसरोंकी सहायता नहीं चाहते । अन्तरंग शत्रु काम क्रोधादिको जीतनेके लिए दूसरोंकी सहायता निकम्मी है ।
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कर्मोंका नाश कर केवलज्ञान प्राप्त करनेके लिए किन्हीं तीर्थकरने आज तक न किसीकी सहायता ली है और न भविष्यमें लेहींगे। वे हमेशा निजात्म-बलहीसे कर्मशत्रुओंका नाश कर मोक्षलक्ष्मीको प्राप्त करते हैं।"
इन्द्र मौन हो गया । वह क्या बोलता ? प्रभुका कथन स्वावलंबनका और उन्नत बननेका राजमार्ग है । इसके विपरीत वह क्या कहता ? वह प्रभुको नमस्कार कर वहाँसे चला । जाते. वक्त सिद्धार्थ नामके व्यंतर देवको उसने आज्ञा की:-"तू प्रभुके साथ रहना और ध्यान रखना कि कोई इनपर प्राणांत उपसर्ग न करे।"
प्राणांत उपसर्ग होनेपर भी तीर्थकर कभी नहीं मरते । कारण (१) उनके शरीर 'वज्रऋषभ नाराच । संहननवाले होते हैं (२) वे निरुपक्रम* आयुष्यवाले होते हैं। दूसरे दिन छहका पारणा करनेके लिए कोल्लांक गाँवमें
गये । बहाँ बहुल नामक ब्राह्मणके छह (बेला ) का पारण घर प्रभुने परमानसे ( खीरसे) पारणा
किया। देवताओंने उसके घर वसुधारादि पाँच दिव्य प्रकट किये ।।
* आयु दो तरहकी होती है । एक सोपक्रम और दूसरी निरुपक्रम । सात तरहके उपक्रमोंमेंसे-घातोमेसे किसी भी एक उपक्रमसे किसीकी आयु जल्दी समाप्त हो जाती है उसे सोपक्रम आयुवाला कहते हैं । व्यवहारकी भाषामें हम कहते हैं इसकी आयु टूट गई है । निरुपक्रम आयु कभी किसी भी आघातसे नहीं टूटती।
१-क्षत्रिय कुंडसे राजगृह जाते समय रस्तेमें कहीं यह गाँव होगा और अब इसका कोई निशान नहीं रहा है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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दीक्षाके समय प्रभुके शरीररप देवताओंने गोशीर्ष चंदन
आदि सुगंधित पदार्थोंका विलेपन किया भक्तिनात उपसर्ग था । इससे अनेक भँवरे और अन्य
जीवजंतु प्रभुके शरीरपर आ आकर डंख मारते थे और सुगंधका रसपान करनेकी कोशिश करते थे। अनेक जवान प्रभुके पास आ आकर पूछते थे:-" आपका शरीर ऐसा सुगंधपूर्ण कैसे रहता है ? हमें भी वह तरकीब बताइए; वह ओषधि दीजिए जिससे हमारा शरीर भी सुगंधमय रहे ।" परंतु मौनावलंबी प्रभुसे उन्हें कोई जबाब नहीं मिलता। इससे वे बहुत क्रुद्ध होते और प्रभुको अनेक तरहसे पीड़ा पहुँचाते । ___अनेक स्वेच्छा-विहारिणी स्त्रियाँ प्रभुके त्रिभुवन-मन-मोहन रूपको देखकर काम पीड़ित होती और दवाकी तरह प्रभु-अंगसंग चाहती; परंतु वह न मिलता । वे अनेक तरहसे प्रभुको उपसर्ग करती और अंतमें हार कर चली जातीं। महावीर स्वामी विहार करते हुए मोराक नामक गाँवके पास
आये। वहाँ दुइज्जंतक जातिके तापस रहते दुइजंतक तापसोंके थे। उन तापसोका कुलपति सिद्धार्थ आश्रममें राजाका मित्र था। उसने प्रभुसे मिलकर
वहीं रहनेकी प्रार्थना की। प्रभु रात्रिकी प्रतिमा धारण कर वहीं रहे । दूसरे दिन सवेरे ही जब वे विहार करने लगे तब कुलपतिने आगामी चातुर्मास वहीं न्यतीत
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२४ श्री महावीर स्वामी-चरित
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करनेकी प्रार्थना की । प्रभुने वह प्रार्थना स्वीकारी। अनेक स्थलोंमें विहारकर चातुर्मासके आरंभमें प्रभु मोराक गाँवमें आये । कुलपतिने प्रभुको घासफूसकी एक झोंपड़ीमें ठहराया। ___ जंगलोंमें घासका अभाव हो गया था और वर्षासे नवीन घास अभी उगी न थी। इसलिए जंगलमें चरने जानेवाले ढोर जहाँ घास देखते वहीं दौड़ जाते । कई ढोर तापसोंके आश्रमकी ओर दौड़ पड़े और उनकी झोंपड़ियोंका घास खाने लगे । तापस अपनी झोंपड़ियोंकी रक्षा करनेके लिए डंडे ले लेकर पिल पड़े । ढोर सब भाग गये।
जिस झौंपड़ीमें महावीर स्वामी रहते थे, उस तरफ कुछ ढोर गये और घास खाने लगे। प्रभु तो निःस्वार्थ, परहित परा यण थे । भला वे ढोरोंके हितमें क्यों बाधा डालने लगे १ वे अपने आत्मध्यानमें लीन रहे और ढोरोंने उनकी झौंषडीकी घास खाकर आत्मतोष किया । तापस महावीर स्वामीकी इस कृतिको आलस्य और दंभपूर्ण समझने लगे और मन ही मन क्रुद्ध भी हुए । कुछ तापसोंने जाकर कुलपतिको कहाः" आप कैसे अतिथिको लाये हैं ? वह तो अकृतज्ञ, उदासीन, दाक्षिण्यहीन और आलसी है । झोंपड़ीकी घास ढोर खा गये हैं और वह चुपचाप बैठा देखता रहा है। क्या वह अपनेको निर्मोही मुनि समझ चुप बैठा है ? और क्या हम गुरुकी सेवा करनेवाले मुनि नहीं हैं ? "
तापसोंकी शिकायत सुन कुलपति महाबीर स्वामीके पास
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आया। उसने प्रभुको उपालंभकी तरह कहा:-" तुमने इस झोंपड़ीकी रक्षा क्यों न की ? तुम्हारे पिता सबकी रक्षा करते रहे, तुम एक झोंपड़ीकी भी रक्षा न कर सके ? पक्षी भी अपने घौंसलेको बचाते हैं पर तुम अपनी झोंपड़ीकी घास भी न बचा सके ? आगेसे खयाल रखना।"
कुलपति चला गया। उस बेचारेको क्या पता था कि देह तकसे जिनको मोह नहीं है वे महावीर इस झोपड़ीकी रक्षामें कब कालक्षेप करनेवाले थे ? अहिंसाके परम उपासक, ढोरोंको पेट भरनेसे वंचित कर कब उनका मन दुखानेवाले थे ?
प्रभुने सोचा, मेरे यहाँ रहनेसे तापसोंका मन दुखता है इस लिए यहाँ रहना उचित नहीं है । उसी समय प्रभुने निम्न लिखित पाँच नियम लिये
१-जहाँ अप्रीति हो वहाँ नहीं रहना । २-जहाँ रहना वहाँ खड़े हुए कायोत्सर्ग करके रहना। ३-प्रायः मौन धारण करके रहना । ४-कर-पात्रसे भोजन करना । ५-गृहस्थोंका विनय न करना । भगवान मोराक गाँवसे विहार करके अस्थिक नामक १-बर्द्धमान नामका एक गाँव था । उसके पास वेगवती नामकी नदी थी। धनदेव नामक एक सार्थवाह कहींसे माल भरके लाया। उस समय वेगवती नदीमें पूर था। सामान्य बैल मालसे भरी गाड़ी खींच कर नदी पार होनेमें असमर्थ थे । इसलिए उसने अपने एक बहुत बड़े हृष्ट पुष्ट बैलको हरेक गाड़ीके आगे जोता। इस तरह उस बैलने पाँच सौ
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mmmmm गाँवमें आये । और विक्रम संवत ५१३ शूलपाणि यक्षको प्रति- पूर्वका पहला चौमासा यहीं किया। बोध (पहिला चौमास) पन्द्रह दिन इस चौमासेके मोराक
गाँवमें बिताये थे । और शेष साढ़े तीन महीने अस्थिक गाँवमें बिताये थे । गाँवमें आकर गाड़ियाँ नदी पार की मगर बैलको इतनी अधिक महनत पड़ी कि वह खून उगलने लगा । धनदेवने गाँवके लोगोंको इकट्ठा कर उन्हें, प्रार्थना . की:-"आप मेरे इस बैलका इलाज करानेकी कृपा करें । मैं इसके खर्चेके लिए आपको यह धन भेट करता हूँ।" लोगोंने उसकी प्रार्थना स्वीकार की और धन ले लिया । धनदेव चला गया। गाँवके लोग धन हजम कर गये। बैलकी कुछ परवाह नहीं की। बैल आर्त ध्यानमें मरकर व्यंतर देव हुआ। उसने देव होकर लोगोंकी क्रूरता, अपने विभंग ज्ञानसे देखी और क्रुद्ध होकर गाँवमें महामारीका रोग फैलाया। लोग इलाज करके थक गये; मगर कुछ फायदा नहीं हुआ। फिर देवताओंकी प्रार्थना करने लगे। तक व्यंतर देव बोला:-“ मैं वही बैल हूँ जिसके लिए मिला हुआ धन तुम खा गये हो और जिसे तुमने भूखसे तड़पाकर मार डाला है । मेरा नाम शूलपाणि है । अब मैं तुम सबको मार डा. लूँगा।" लोगोंके बहुत प्रार्थना करनेपर उसने कहा:-" मरे हुए मनुष्योंकी हड्डियाँ इकट्ठी करो । उसपर मेरा एक मंदिर बनवाओ। उसमें बैलके रूपमें मेरी मूर्ति स्थापन करो और नियमित मेरी पूजा होती रहे इसका प्रबंध कर दो।" गाँववालोंने शूलपाणिका मंदिर बनवा दिया और उसकी सेवा पूजाके लिए इन्द्रशर्मा नामके एक ब्राह्मणको रख दिया । तभीसे इस गाँवका नाम वर्द्धमानकी जगह अस्थिक गाँव हो गया ।
[त्रिषष्ठिशलाका पुरुष चरित्रके गुजराती भाषांतरके फुट नोटमें लिखा है कि-" काठियावाड़का वढ़वाण शहर ही पुराना वर्द्धमान गाँव है । वहीं
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शूलपाणि यक्षके मंदिरमें ठहरनेकी गाँवके लोगोंसे महावीर स्वामीने आज्ञा चाही । लोगोंने यक्षका भय बताकर कहा:" इस जगह जो कोई मनुष्य रातको ठहरता है उसे यक्ष मार डालता है, इसलिए आप अमुक दूसरे स्थानपर ठहरिए ।"
निर्भय हृदयी महावीरने वहीं रहनेकी इच्छा प्रकट की और लाचार होकर गाँवके लोगोंने अनुमति दी ।
भगवानको अपने मंदिरमें देख यक्ष बड़ा नाराज हुआ और उसने उनको अनेक तरहसे कष्ट पहुँचाया । श्रीमद् हेमचंद्राचार्यने उसका वर्णन इस तरह किया है
“प्रभु जहाँ कायोत्सर्ग करके रहे थे वहाँ व्यंतरने अट्ट हास्य किया । उस भयंकर अट्ट हास्यसे चारों तरफ ऐसा मालूम होने लगा मानों आकाश फट गया है और नक्षत्र मंडल टूट पड़ा है । xxx मगर प्रभुके हृदयमें इसका कोई असर नहीं हुआ, तब उसने भयंकर हाथीका रूप धारण किया; परंतु महावीर स्वामीने उसकी भी परवाह न की । तब उसने भूमि और आकाशके मानदंड जैसे शरीरवाले पिशाचका रूप धरा; मगर शूलपाणि यक्षका मंदिर भी है और उसकी प्रतिमा भी ।" परंतु हमें यह अनुमान ठीक नहीं जान पड़ता । कारण (१) मोराक मगधमें था। मगधसे चौमासेके १५ दिन बिताकर, बाकी साढ़े तीन महीने बितानेके लिए कठियावाड़में आ नहीं सकते थे। आते तो आधेसे ज्यादा चौमासा रस्तेहीमें बीत जाता । (२) चौमासा समाप्त होनेपर फिर भगवान मोराक गाँवमें जाते हैं । इससे साफ है कि अस्थि गाँव या वर्द्धमान गाँव कहीं मगधमें या इसके आसपास ही होना चाहिए ।
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२४ श्री महावीर स्वामी-चरित
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प्रभु उससे भी न डरे । तब उस दुष्टने यमराजके पाशके समान भयंकर सर्पका रूप धारण किया । अमोघ विष-सरके समान उस सर्पने प्रभुके शरीरको दृढताके साथ कस लिया
और डसने लगा । जब सर्पका भी कोई असर न हुआ तब उसने प्रभुके सिर, आँखें, मूत्राशय, नासिका, दाँत, पीठ और नाक इन सात स्थानोंपर पीड़ा उत्पन्न की । वेदना इतनी तीव्र थी कि, सातकी जगह एककी पीड़ा ही किसी सामान्य मनुष्यके होती तो उसका प्राणांत हो जाता; मगर महावीर स्वामीपर उसका कुछ भी असर न हुआ।"
जब शूलपाणि प्रभुको कोई हानि न पहुँचा सका तब उसे अचरज हुआ और उसने प्रभुसे क्षमा माँगी । इन्द्रका नियत किया हुआ सिद्धार्थ नामका देव भी पीछेसे आया और उसने शूलपाणि यक्षको धमकायाँ । यक्ष शांत रहा । तब सिद्धार्थने उसे धर्मोपदेश दिया । यक्ष सम्यक्त्व धारण कर प्रभुकी भक्ति करने लगा।
रातभर महावीर स्वामीका शरीर उपसर्ग सहते सहते शिथिल हो गया था इसलिए उन्हें सवेरा होते होते कुछ नींद आ गई । उसमें उन्होंने दस स्वम देखे ।
१-भगवानपर रातभर उपसर्ग हुए मगर सिद्धार्थ न मालूम कहाँ लापता रहा । जब कष्ट सहकर महावीरने कष्टदाताके हृदयको बदल दिया तब सिद्धार्थ देवता यक्षको धमकाने आया । इससे मालूम होता है कि कर्मके भोग भोगने ही पड़ते हैं किसीकी मदद कोई काम नहीं देती। मनुष्य आप ही शांतिसे कष्ट सहकर दुःखोंसे मुक्त हो सकता है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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जैन-रत्न
गाँवके लोग सवेरेही मंदिरमें आये । उन्होंने महावीर स्वामीको सुरक्षित और पूजित देखकर हर्षनाद किया । गाँवके लोगोंमें उत्पल नामका निमित्त ज्ञानी भी था । उसने महावीर स्वामीको, जो स्वम आये थे उनका फल, बगैर ही पूछे कहाँ। फिर सभी महावीर स्वामीके धैर्य व तपकी तारीफ करते हुए अपने अपने घर गये ।
१-स्वप्न और उनके फल इस प्रकार हैं(१) पहले स्वप्नमें ताइवृक्षके समान पिशाचको मारा; इसका यह अभिप्राय है कि आप मोहका नाश करेंगे । (२) दूसरे स्वममें सफेद पक्षी देखा; इससे आप शुक्ल ध्यानमें लीन होंगे । (३) तीसरे स्वप्नमें आपने आपकी सेवा करता हुआ कोकिल देखा; इससे आप द्वादशांगीका उपदेश देंगे । (४) चौथे स्वमनें आपने गायोंका समूह देखा; जिससे आपके साधु, साध्वी और श्रावक, श्राविका रूप चतुर्विध संघ होगा । (५) पाँचवें स्वममें आप समुद्र तैर गये; इसका मतलब यह है कि आप संसार-सागरको तैरेंगे । (६) छठे स्वममें उगता सूर्य देखा; इससे थोड़े ही समयमें आपको केवलज्ञान प्राप्त होगा। (७) सातवें स्वपमें मानुषोत्तर पर्वतको आंतोंसे लिपटा हुआ देखा; इससे आपकी कीर्ति दिग्दिगांतमें फैलेगी। (८) आठवें स्वममें मेरु पर्वतके शिखरपर चढ़े, इससे आप समवशरणके अंदर सिंहासनपर बैठकर धर्मोपदेश देंगे। (९) नवे स्वप्नमें पद्म सरोवर देखा; इससे सारे देवता आपकी सेवा करेंग। (१०) दसवें स्वनमें फूलोंकी दो मालाएँ देखी; इसका मतलब निमित्तज्ञानी न समझ सका इसलिए महावीर स्वामीने खुद बताया कि,मैं साधु और गृहस्थका-ऐसे दो तरहका-धर्म बताऊँगा।
[नोट-स्वप्नोंका क्रम कल्पसूत्रके अनुसार दिया है। त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्रमें दसवाँ स्वम चौथा है और नवाँ स्वम छठा है । ] Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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महावीर स्वामीने अर्द्ध अर्द्ध मासक्षमण करके चातुर्मास व्यतीत किया। चौमासा समाप्त होनेपर वे अन्यत्र विहार कर गये।
जब प्रभ विहार करने लगे तब यक्षने महावीर स्वामीके चरणोंमें नमस्कार किया और कहा:-" हे नाथ ! आपके समान कौन उपकारी होगा कि जिनने अपने सुखकी ही नहीं बल्के जीवनकी भी परवाह न करके मुझे सन्मार्गमें लगानेके लिए, मेरे स्थानमें रह कर मुझ पापीने जो कष्ट दिये वे सब शांतिसे सहे । प्रभो ! मेरे अपराधोंको क्षमा कीजिए।" निर्वैर महावीर स्वामी उसे आश्वासन देकर अन्यत्र विहार कर गये ।
दीक्षा लियेको एक बरस हो जानेके बाद महावीर स्वामी सरक दुःख का खयाल आये और गाँवके बाहर उद्यानमें प्रतिमा र
विहार करते हुए फिर मोराक गाँव धारण कर रहे। __उस गाँवमें अच्छंदक नामका एक ज्योतिषी बसता था और यंत्र मंत्रादिसे अपनी आजीविका चलाता था । उसका प्रभाव सारे गाँवमें था। ( उसके प्रभावके कारण किसीने प्रभुकी पूजा प्रतिष्ठा नहीं की इसलिए ) उसके प्रभावको सिद्धार्थ न सह सका इससे, और लोगोंसे प्रभुकी पूजा कराने के इरादेसे, उसने गाँवके लोगोंको चमत्कार दिखाया । इससे लोग अच्छंदक की
१--आधा महीना यानी पन्द्रह दिन उपवास करके पारणा करना; फिर पन्द्रह दिन उपवास करके पारणा करना । इस तरह चौमासके साढ़े तीन महीनेमें प्रभुने केवल छः बार आहारपानी लिया था।
२-अच्छदकका पूरा हाल त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्रसे यहाँ अनुदित किया जाता है,-" उस समय उस (मोराक) गाँवमें अच्छंदक नामका एक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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जैन - रत्न
उपेक्षा करने लगे । उसका मान घट गया और उसे रोटी मिलना भी कठिन हो गया । यह देखकर अच्छेदकको बड़ा दुःख हुआ । वह प्रभुके पास आया और दीन वाणीमें बोला:- “ हे दयालु ! आपकी तो जहाँ जायँगे वहीं पूजा होगी; परंतु मेरे लिए तो इस गाँवको छोड़कर अन्यत्र कहीं स्थान नहीं है । इसलिए आप दया कर कहीं दूसरी जगह चले जाइए । "
प्रभुने यह अभिग्रह ले ही रक्खा था कि, जहाँ अप्रीति उत्पन्न होगी- मेरे कारण किसीको दुःख होगा- वहाँ मैं नहीं रहूँगा । इसलिए वे तुरत वहाँसे उत्तर चावाल नामक गाँवकी तरफ विहार कर गये ।
चंडकौशिकका उद्धार
महावीर स्वामी विहार करते हुए श्वेतांबी नगरीकी तरफ चले | रस्तेमें गवालोंके लड़के मिले । उन्होंने कहा: - " हे देवार्य ! यह रस्ता सीधा श्वेतांबी जाता है; परंतु रस्तेमें ' कनकखल' नामका तापसोंका आश्रम है । उसमें एक दृष्टिविष सर्प रहता है | उसके विषकी प्रबलता के कारण पशु पक्षी तक इस रस्तेसे नहीं जा सकते, मनुष्योंकी तो बात ही
पाखंडी रहता था । वह मंत्र, तंत्रादिसे अपनी आजीविका चलाता था। उसके माहात्म्यको सिद्धार्थ व्यंतर सहन न कर सका इससे और वीर प्रभुकी पूजाकी अभिलाषा से सिद्धार्थने प्रभुके शरीर में प्रवेश किया । फिर एक जाते हुए गवालको बुलाया और कहा :- " आज तूने सौवीर ( एक तरह की कांजी) के साथ कंकूर ( एक तरहका धान्य ) का भोजन किया है ।
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क्या है ? इसलिए आप इस रस्तेको छोड़कर उस दूसरे रस्तेसे जाइए।"
अभी तू बैलोंकी रक्षा करने जा रहा है। यहाँ आते हुए तने एक सर्पको देखा था और आज रातको सपनमें तू खूब रोया था। गवाल ! सच कह । मैंने जो कुछ कहा है वह यथार्थ है या नहीं ?" गवाला बोला:"बिलकुल सही है। " उसके बाद सिद्धार्थने और भी कई ऐसी बातें कहीं जिन्हें सुनकर गवालको बड़ा अचरज हुआ। उसने गाँवमें जाकर कहा:"अपने गाँव के बाहर एक त्रिकालकी बात जाननेवाले महात्मा आये हैं। उन्होंने मुझे सब सच्ची सच्ची बातें बताई हैं।" लोग कौतुकसे फूल, अक्षत आदि पूजाका सामान लेकर महावीर स्वामीके पास आये। उन्हें देखकर सिद्धार्थ बोला:“क्या तुम मेरा चमत्कार देखने आये हो ?" लोगोंने कहा.-" हाँ।' तब सिद्धार्थने उन्हें कई ऐसी बातें बताई जिन्हें उन्होंने पहले देखीं, सनी या अनुभवी थीं। सिद्धार्थने कई भविष्यकी बातें भी बताई । इससे लोगोंने बड़े आदरके साथ प्रभुकी पूजा वंदना की । लोग चले गये । लोग इसी तरह कई दिन तक आते रहे और सिद्धार्थ उन्हें नई नई बातें बताता रहा । ___ एक बार गाँव के लोगोंने आकर कहा:-" महाराज ! हमारे गाँवमें एक
अच्छंदक नामका ज्योतिषी रहता है । वह भी आपकी तरह जानकार है।" सिद्धार्थ बोला:-“वह तो पाखंडी है । कुछ नहीं जानता । तुम्हारे जैसे भोले लोगोंको ठगकर पेट भरा करता है।" लोगोंने आकर अच्छंदकको कहाः-" अरे ! तू तो कुछ नहीं जानता। भूत, भविष्य और वर्तमानकी सारी बातें जाननेवाले महात्मा तो गाँवके बाहर ठहरे हुए हैं ।" यह सुन अपनी प्रतिष्ठाके नाशका खयालकर वह बोला:-“हे लोगो ! वास्तविक परमार्थको नहीं जाननेवाले तुम लोगोंके सामने ही वह बातें बनाता है। अगर वह मेरे सामने कुछ जानकारी जाहिर करे तो मैं समझू कि, वह सचमुच ही ज्ञाता है । मेरे साथ चलो । मैं तुम्हारे सामने ही आज उसका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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जैन-रत्न
अज्ञान प्रकट कर दूंगा ।" यह कहकर कुद्ध अच्छंदक महावीर स्वामीके पास आया । गाँवके कौतुकी लोग भी उसके साथ आये ।
अच्छंदकने एक तिनका अपनी उँगलियोंके बीचमें पकड़कर कहा:“बोलो, यह तिनका मुझसे टूटेगा या नहीं ?" उसन सोचा था,अगर ये कहेंगे कि टूटेगा तो मैं उसे नहीं तोडूंगा, अगर कहेंगे नहीं टूटेगा तो मैं उसे तोड़ दूंगा। और इस तरह उनकी बातको झूठ ठहराऊँगा । सिद्धार्थ बोला:-" यह नहीं टूटेगा।" वह ज्योंही उस तिनकेको तोड़नेके लिए तैयार हुआ कि उसकी पाँचों उँगलियाँ कट गई । यह देखकर गाँवके लोग हँसने लगे। इस तरह अपनी बेइजती होते देख अच्छंदक पागलकी तरह वहाँसे चला गया।
जिस समय अच्छंदक और सिद्धार्थकी बातें हो रही थीं उस समय इन्द्रने प्रभुका स्मरण किया था। उसने अवधिज्ञान द्वारा सिद्धार्थ और अच्छंदककी बातें जानी और प्रभुके मुखसे निकली हुई बात मिथ्या न होने देने के लिए उसने अच्छंदककी उँगलियाँ काट डाली। ____ अच्छंदकके चले जानेपर सिद्धार्थ बोला:-" वह चोर है।" लोगोंने पूछा:-" उसने किसका क्या चोरा है ? " सिद्धार्थ बोला:-" इस गाँवमें एक वीर घोष नामका सेवक है।" यह सुनते ही वीर घोष खड़ा हुआ और बोला:-“ क्या आज्ञा है ?" सिद्धार्थ बोला:-" पहले दस पल प्रमाणका एक पात्र तेरे घरसे चोरी गया है ? " वीरघोषने कहा:-"हाँ ।" सिद्धार्थ बोला:-“ अच्छंदकने उसे चुराया है। तेरे घरके पीछे पूर्व दिशा में सरगवा (खजूर ) का एक पेड़ है। उसके नीचे एक हाथका खड्डा खोदकर उसमें वह पात्र अच्छंदकने गाड़ा है । जा ले आ ।" वीरघोष गया और खोदकर पात्र ले आया । यह देखकर गाँवके लोग अच्छंदकको बुरा भला कहने लगे। सिद्धार्थ फिर बोला:-“ यहाँ कोई इन्द्रशर्मा नामका गृहस्थ है १" इन्द्रशर्मा हाथ जोड़कर खड़ा हुआ
और बोला:-"क्या आज्ञा है !" सिद्धार्थ बोला:-" पहले तुम्हारा एक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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मांढा खो गया था ?" इन्द्रशर्माने जवाब दिया:-" हाँ।" सिद्धार्थने कहाः-" उस मांढेको अच्छंदक मारकर खा गया है और उसकी हड्डियाँ बोरड़ीके झाड़से दक्षिणमें थोड़ी दूरपर गाड़ दी हैं। जाओ देख लो।" कई लोग दौड़े गये । उन्होंने खड्डा खोदकर देखा और वापिस आकर कहा:-" वहाँ हड्डियाँ हैं।" सिद्धार्थ बोला:-" उस पाखंडीके दुश्चरित्रकी एक बात और है; मगर मैं वह बात न कहूँगा।" लोगोंके बहुत आग्रह करने पर सिद्धार्थ बोला:-"अपने मुँहसे वह बात मैं न कहूँगा; परंतु अगर तुम जानना ही चाहते हो तो उसकी औरतसे पूछो।"
कुतूहली लोग अच्छंदकके घर गये। अच्छंदक अपनी स्त्रीको दुःख दिया करता था। इससे वह नाराज थी और उस दिन तो अच्छंदक उसे पीट कर गया था, इससे और भी अधिक नाराज हो रही थी । इसलिए लोगोंके, पूछने पर उसने कहा:-" उस कर्म-चांडालका नाम ही कौन लेता है ! वह पापी अपनी बहिनके साथ भोग करता है। मेरी तरफ तो कभी वह देखता भी नहीं है। " लोग अच्छंदकको बुरा भला कहते हुए अपने घर गये । सारे गाँवमें अच्छंदक पापीके नामसे प्रसिद्ध हुआ । गाँवमेंसे उसे भिक्षा मिलना भी बंद हो गया।
फिर अच्छंदक एकांतमें वीर प्रभुके पास गया और दीन होकर बोला:" हे भगवन् ! आप यहाँसे कहीं दूसरी जगह जाइए । क्योंकि जो पूज्य होते हैं वे तो सभी जगह पुजते हैं, और मैं तो यही प्रसिद्ध हूँ। और जगह तो कोई मेरा नाम भी नहीं जानता । सियारका जोर उसकी गुफाहीमें होता है । हे नाथ ! मैंने अजानमें भी जो कुछ अविनय किया था उसका फल मुझे यहीं मिल गया है । इसलिए अब आप मुझपर कृपा कीजिए।" उसके ऐसे दीन वचन सुनकर अप्रीतिवाले स्थानका त्याग करनेका आभग्रहवाले प्रभु वहाँसे उत्तर चावाल नामके गाँवकी तरफ विहार कर गये।"
[नोट-इस घटनाको पढ़कर खयाल होता है कि अंध भक्तिके वश होकर भक्त लोग ऐसी बातें भी कर बैठते हैं जिनसे अपने आराध्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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जैन-रत्न
प्रभुने अवधिज्ञानसे सर्प को पहचाना और उसका उद्धार
देवके नाममें बट्टा लगता है । सिद्धार्थ देवने, भगवानके अजानमें, उनके मुखसे ऐसी बातें कहलाई हैं जिनके कारण एक मनुष्यका अपमान हुआ, एक मनुष्य पापीके नामसे प्रसिद्ध हुआ इतना ही क्यों ? सिद्धार्थकी भूलसे, भगवानके मुँहसे निकली हुई बातको सत्य प्रमाणित करने के लिए, इन्द्र महाराजको, अच्छंदककी उँगलियाँ काटकर उसे अत्यंत पीड़ा पहुँचानी पड़ी। और इस तरह महावीर स्वामी के परम अहिंसा व्रतके पालनमें, न्यूनता बतानेवाली, महावीर स्वामीकी इच्छाके विरुद्ध, उनकी अजानमें, एक अंध भक्तद्वारा एक घटना उपस्थित की गइ ।-लेखक.]
१-यह सर्प पूर्व भवमें एक साधु था। एक बार पारणे के दिन गोचरीके लिए क्षुल्लक के साथ गया। रस्तेमें अजयणासे एक मेंढक मर गया । क्षुल्लकने कहा:-" महाराज आपके पैरोंतले एक मेंढक मर गया है !" साधु नाराज होकर बाला:-" यहाँ बहुतसे मेंढक मरे पड़े हैं । क्या सभी मेरे पैरोंतले दबकर मरे हैं ?" क्षुल्लक यह सोचकर मौन हो रहा कि शामको प्रतिक्रमणके समय महाराज इसकी आलोचना कर लेंगे।" मगर प्रतिक्रमणके सयम भी साधुने आलोचना नहीं की । तब क्षुल्लकने मेंढककी बात याद दिलाई । इसको साधुने अपना अपमान समझा और वह क्षुल्लकको मारने दौड़ा । अंधेरा था । मकानके बीचका थंभा साधु को न दिखा । थंभेसे टकरा कर साधुका सिर फूट गया और वह साधुताकी विराधनासे मरा। पूर्व तपस्याके कारण ज्योतिष्क देव हुआ । वहाँसे चवकर कनकखल नामक स्थानमें पाँच सौ तपस्वियोंके कुलपतिके घर जन्मा । नाम कौशिक रक्खा गया । वहाँके तापसोंका गोत्र भी कौशिक था । इसलिए सामान्यतया सभी कौशिक कहलाते थे। यह बहुत क्रोधी था, इससे इसका नाम 'चंडकौशक' हुआ।चंडकौशिकका पिता मर गया तब वह खुद कुलपति हुआ। चंडकौशिकको अपने वन खंडपर बहुत मोह होनेसे वह किसीको वहाँसे, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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करनेके लिए उसी तरफसे जाना स्थिर किया । प्रभु जाकर चंडकौशिकके आश्रममें रहे । आश्रमके आसपासका सारा भूमिभाग भयंकर हो गया था । कहीं न पशुओंका संचार था न पक्षियोंकी उड्डान । वृक्ष और लताएँ सूख गये थे। जलस्रोत बहते बंद हो गये थे और भूमि कंटकाकीर्ण हो गई थी। ऐसी भयावनी जगहमें महावीर ध्यानस्थ हो कर रहे ।
सर्पको महावीरका आना मालूम हुआ। उसने प्रभुके सामने जाकर बिजलीके समान तेजवाली दृष्टि डाली, मगर जैसे मिट्टीमें पड़कर बिजली निकम्मी हो जाती है वैसे ही उसकी विष-दृष्टि निकम्मी हो गई । सर्पके हृदयमें आघात लगा । वह सोचने लगा, आज ऐसा यह कौन आया है कि जिसने मेरे प्राणहारी दृष्टि विषके प्रभावको निरर्थक कर दिया है । अच्छा, देखता हूँ कि मेरे काटनेपर यह कैसे बचता है ! सर्पने जोरसे महावीरके पैरोंमें काटा, फिर यह सोचकर वह दर हट गया कि यह हृष्ट पुष्ट देह, जहरका असर होनेपर कहीं मुझीपर न आ पड़े ! महावीर स्वामीके पैरसे बूदें निकलीं। आश्चर्य था फल, पत्र, पुष्प आदि लेने नहीं देता था। इससे सभी तापस नाराज होकर वहाँसे चल गये । एक दिन वह कहीं गया हुआ था तब कुछ राजकुमार श्वेतांबी नगरीसे आकर वनके फल, पुष्पादि तोड़ने लगे । वापिस आकर उसने इन लोगोंको देखा और वह कुल्हाड़ी लेकर उन्हें मारने दौड़ा । रस्ते, पैर फिसलकर एक खड्डेमें गिग, उसके हाथकी कुल्हाड़ी उसके सिरपर पड़ी । सिर फूट गया और मरकर वहीं दृष्टि विष सर्प हुआ। उधरसे जो कोई जाता वह उसकी दृष्टिके विषसे मर जाता। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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कि वे रक्तकी बूंदे दुग्धके समान सफेद थीं। चंडकौशिकने
और भी जोरसे, अपनी पूरी ताकत लगाकर, महावीर स्वामीके पैरोंमें दाँत गाड़े, जितना जहर था, सारा उगल दिया, और तब दूर हट गया । दाँत लगे हुए स्थानसे दो पतली धाराएँ वहीं । एक थी सफेद रक्तकी और दूसरी थी नीली जहरकी सर्प हैरान था, क्रुद्ध था, बेबस था। उसने महावीर स्वामीके मुखकी तरफ देखा । वह शांत था, निर्विकार था। उसने नासिकाके अग्रभाग पर जमी हुई आँखोंको देखा, उनमें विश्वप्रेमका अमृत भरा हुआ था। सर्पने वह अमृत पान किया । उसके हृदयकी कलुषता जाती रही । महावीर कायोत्सर्ग पार कर बोले:-" हे चंडकौशिक ! समझ, विचार कर, मोहमुग्ध न हो।" ___ कलुषताहीन हृदयमें महावीर स्वामीके इस उपदेशने मानों बंजर भूमिको उर्वरा बना दिया । विचार करते करते उसे जातिस्मरण ज्ञान हो आया । उसको, अपने पूर्वभवोंकी भूलोंका दुःख हुआ। उसने शेष जीवन आत्मध्यानमें, अनशन करके बिताना स्थिर किया । महावीर स्वामीके प्रदक्षिणा देकर उसने अपना मुँह, इस खयालसे एक बिलमें डाल दिया कि कहीं मेरी नजरसे प्राणी मर न जायँ । झाड़ोंपर चढ़कर गवालोंके लड़कोंने देखा कि, महावीर स्वामी अभी जिंदा हैं और सर्प सिर नीचा किये उनके सामने पड़ा है । लड़कोंने समझा यह कोई भारी महात्मा मालूम होता है । उन्होंने दूसरे गवालोंको यह अत
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कही । उन्हें भी कुतूहल हुआ। वे डरते डरते उस तरफ गय
और दूर झाड़की आड़में खड़े होकर पत्थर फैंकने लगे । मगर पत्थर खाकर भी सर्प जब न हिला तब उन लोगोंको विश्वास हो गया कि सर्प निकम्मा हो गया है । यह बात सब तरफ फैल गई । वह रस्ता चालू हो गया । आते जाते लोग महावीर स्वामीको और सर्पको नमस्कार कर कर जाते । कई गवालोंकी स्त्रियाँ सर्पको स्थिर देख उसके शरीरपर घृत लगा गई। अनेक कीड़ियाँ आकर घृत खाने लगी। घीके साथ ही साथ उन्होंने सर्पके शरीरको भी खाना आरंभ कर दिया । मगर सर्प यह सोच कर हिला तक नहीं कि, कहीं मेरे शरीरके नीचे दबकर कोई कीड़ी मर न जाय । वह इस पीडाको अपने पापोदयका कारण समझ चुपचाप सहता रहा । कीड़ियोंने उसके शरीरको छलनी बना दिया। एक कीड़ी अगर हमें काट खाती है तो कितनी पीड़ा होती है ? मगर सर्पने पन्द्रह दिनतक वह दुःख शांतिसे सहा और अंतमें मरकर सहस्रार देवलोक देवता हुआ ।
चंडकौशिकका उद्धार कर महावीर स्वामी उत्तर वाचाल नामक गाँवमें आये और एक पखवाड़ेका पारणा करनेके लिए गोचरी लेने निकले । फिरते हुए नागसेन नामा गृहस्थके घर पहुँचे । उस दिन नागसेन बड़ा प्रसन्न था, क्योंकि उसी दिन उसका कई बरसोंसे खोया हुआ लड़का वापिस आया था। उसने इसको धर्मका प्रभाव समझा और महावीर स्वामीको दूधसे प्रतिलाभित किया । देवताओंने उसके घर वसुधारादि पाँच दिव्य प्रकट किये।
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उत्तर वाचालसे विहारकर प्रभु श्वेतांबी नगर पहुँचे । प्रभुनगरके बाहर रहे । श्वेतांबीका ‘प्रदेशी' नामक राजा जिनभक्त था । वह सपरिवार वंदना करने आया था। महावीर स्वामी विहार करते हुए सुरभिपुरकी तरफ चले।
रस्तमें गंगा नदी आती थी । उसको सुदंष्ट्र नागकुमारका उपद्रव पार करनेके लिए सिद्धदंत नामके
नाविककी नौका तैयार थी। दूसरे मुसाफिरोंके साथ महावीर स्वामी भी नौकापर बैठे । नौका चली, उससमय किनारेपर उल्लू बोला । मुसाफिरोंमें क्षेमिल नामका शकुनशास्त्री भी था । उसने कहा:-" आज हमको रस्तेमें मरणांत कष्ट होगा; परंतु इन महात्माकी कृपासे हम बच जायँगे ।"
नौका बहते हुए पानीपर नाचती हुई चली जा रही थी। रस्तेमें सुदंष्ट्र नामक नागकुमार रहता था। उसने अवधिज्ञानसे जाना कि, ये जब त्रिपृष्ठ वासुदेव थे तब मैं सिंह था । इन्होंने उस समय मुझे बेमतलब मार डाला था। फिर उसने प्रभुको डुबाकर मार डालना स्थिर किया । उसने संवर्तक नामका महावायु चलाया। इससे तटोंके झाड़ उखड़ गये, कइ मकान गिर पड़े। नौका ऊँची उछल उछलकर पड़ने लगी । मारे भयके मुसाफिरोंके प्राण मूखने लगे और वे अपने इष्ट देवको याद करने लगे । महावीर शांत बैठे थे । उनके चहरेपर भयका कोई चिन्ह नहीं था। उन्हें देखकर दूसरे मुसाफिरोंके हृदयमें भी कुछ धीरज
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थी। नौका डू डूबूं हो रही थी, उस समय कंबल और संबळे नामके दो देवोंने अरिहंत पर होते उपसर्गको देखकर नौकाको सुरक्षित नदोके तीरपर पहुँचा दिया और धर्मका पालन कर प्रसन्नता अनुभव की।
१-मथुरामें जिनदास नामका एक सेठ रहता था। उसके साधुदासी नामकी स्त्री थी। उन्होंने परिग्रह-परिमाणका व्रत लिया था। उसमें ढोर पालनेका भी पच्चखाण था। इसलिए वे गाय भैंस नहीं पाल सकते थे। दूध एक अहरिणके यहाँसे मोल लेना पड़ता था। अहीरण नियमित अच्छा दूध देती थी । सेठानी उससे बहुत स्नेह रखती थी । और अक्सर उसको वस्त्रादि दिया करती थी। एक बार अहीरनके यहाँ विवाहका अवसर आया । नियमोंके कारण जिनदत्त और साधुदासी न जा सके; परंतु विवाहके लिए सामान जो चाहिए सो दिया । इस उपकारका बदला
चुकानके लिए अहीर अहीरन उनके यहाँ बैलोंकी एक सुंदर जोड़ी, सेठ सेठानीकी इच्छा न होते हुए भी, बाँध गये । बैलोंका नाम कंबल और शंबल था । सेठने उन्हें अपने बालकोंकी तरह रक्खा । उनसे कभी कोई काम न लिया।
एक बार शहरमें भंडरिवण नामके किसी यक्षका मेला था । उसमें लोग अक्सर पशुओंको दौड़ानेकी क्रीडा किया करते थे । जिनदासका एक मित्र उस दिन चुपचाप बल और शंबलको खोल ले गया । बेचारे बैल कभी जुते नहीं थे, दौड़े नहीं थे। उस दिन खूब जुते और दौड़े इससे उनकी हड्डयाँ ढीली हो गई । मित्र बैलाको चुप चाप वापिस बाँध गया वे घर आकर पड़ रहे । जिनदास घर आया । उसने बैलोंकी खराब हालत देखी । उसने बैलोंको खिलाना पिलाना चाहा । मगर उनने कुछ न खाया पिया। पीछेसे उसे असली हाल मालूम हुआ । उसे बड़ा रंज हुआ। उसने बैलोंको पञ्चखाण कराया और उनके जीवनकी अंतिम घड़ीतक सेठ उनको, पास बैठकर, नवकार मंत्र सुनाता रहा। इसके प्रभावसे वे मरकर नागकुमार नामके देव हुए। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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जैन - रत्न
नदीके तीरपर उतर कर प्रभु विहार कर गये । उनके पैरोंके चिन्हों को पीछेसे पुष्प नामके सामुद्रिकने देखा । उसने सोचा, - इधर चक्रवतीं गये हैं । चलूँ उनकी सेवा करूँ और कुछ लाभ उठाऊँ । प्रभु स्थूणक नामक गाँव के पास जा, कायोत्सर्ग कर रहे । पुष्प पदचिन्हों पर गया । मगर चिन्हवालोंको साधु देख दुखी हुआ । इन्द्रको यह बात मालूम हुई। उसने आकर सामुद्रिकको मनवांछित धन दिया और उसे प्रभुदर्शनका फल दिया ।
३३६
पुष्प नामक सामुद्रिकको
दर्शनसे लाभ ।
प्रभु विहार करते हुए राजगृहमें आये और शहर के बाहर थोड़ी दूरपर नालंदा नामक स्थान में एक जुलाहेके, कपड़े बुनने के बड़े स्थानमें, उसकी इजाजत लेकर रहे । और विक्रम
नालंदा में दूसरा चौमासा
संवत् ५१२ ( ई. स. ५६९ ) पूर्वका दूसरा चौमासा प्रभुने वहीं किया । प्रभुने मासक्षमण ( एक महीनेका उपवास) कर कायोत्सर्ग किया । वहाँ गोशालक नामका
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१ मंखली नामका एक मंख [ पाटियों पर चित्र बना, लोगों को बता भीख माँगकर खानेवाली जाति विशेष ।] था उसके भद्रा नामकी स्त्री थी । वे दोनों चित्र बेचते हुए एक बार शरवण गाँव में गये । एक ब्राह्मणकी गोशाला में ठहरे । वहीं भद्राने पुत्र प्रसव किया । उसका नाम ' गोशालक ' रक्खा । वह जवान हुआ तब अपने मातापितासे लड़कर निकल गया और घूमता हुआ, नालंदा में- जहाँ महावीर स्वामी ठहरे थे वहाँ पहुँचा । दूसरे दिन मासक्षमणका पारणा करने प्रभु विजय सेठ के घर करपात्र द्वारा,
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२४ श्री महावीर स्वामी-चरित
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मंख प्रभुके पास आकर ठहरा । महावीर स्वामीने मासक्षमणका पारणा विजय गृहपतिके घर कियाँ । देवताओंने पाँच दिव्य प्रकट किये । इससे गोशालक बड़ा प्रभावित हुआ। उसने प्रभुसे प्रार्थना की,-" आप मेरे धर्माचार्य हैं और मैं आपका धर्मशिष्य हूँ।" महावीर कुछ न बोले । तब वह खुद ही अपनेको उनका शिष्य बताने लगा। महावीर स्वामीने दूसरे मासक्षमणका पारणा आनंदके यहाँ और तीसरे मासक्षमणका पारणा सुनंदके यहाँ किया था। चौमासा समाप्त होनेपर महावीर वहाँसे विहार कर गये और चौथे मासक्षमणका पारणा कोल्लाक नामके गाँवमें बहुल नामक ब्राह्मणके घर किया । __ एक बार कार्तिकी पूर्णिमाके दिन गोशालकने सोचा,-ये बड़े ज्ञानी हैं तो आज मैं इनके ज्ञानकी परीक्षा लूँ। उसने पूछा:- हे स्वामी ! आज मुझे भिक्षामें क्या मिलेगा ?" सिद्धार्थने प्रभुके शरीरमें प्रवेश कर उत्तर दिया:-"बिगड़कर गोचरी लेने गये । सेठने भक्तिपूर्वक विधि सहित प्रभुको प्रतिलाभित किया
और उसके घर रत्नवृष्टि आदि पंच दिव्य प्रकट हुए । गोशालक यह सब देख सुनकर प्रभुका, अपने मनहींसे, शिष्य हो गया।
१-भगवान महावीर नीच कुलवालके घर भी आहार लेने जाया करते थे। इससे ऐसा जान पड़ता है कि उस समय नीच कुलवालेके यहाँसे शुद्ध आहार पानी लेने में कोई संकोच नहीं था । भगवती सूत्रमें लिखा है:-" हे गोतम xxxx राजगृह नगरमें उच्च, नीच और मध्य कुलमें यावत्-आहारके लिए फिरते मैंने विजयनामक गाथापतिके ( गृहपतिके ) घरमें प्रवेश किया ।" [श्रीरायचंद्र जिनागम संग्रहका भगवती सूत्र, १५ वां शतक, पेज ३७०]
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जैन-रत्न
खट्टा बना हुआ कोद्रव और कूरका धान्य तथा दक्षिणामें खोटा रुपया तुझे मिलेंगे। " गोशालकको दिनभर भटकनेपर भी शामको वही मिला । इसलिए गोशालकने स्थिर किया कि जो भविष्य होता है वही होता है।+
गोशालक रातको आया; मगर महावीर वहाँ न मिले । इस लिये वह अपनी चीजें ब्राह्मणोंको दे, सिर मुंडा कोल्लाक गाँवमें गया ।वहाँ भगवानने गोशालकको शिष्यकी तरह स्वीकार किया।
महावीर स्वामीने कोल्लाकसे स्वर्णखलको विहार किया। रस्तेमें कई गवाल एक हाँडीमें खीर बना रहे थे । गोशालकने कहा:-"प्रभो ! आइए हम भी खीरका भोजन करें ।" सिद्धार्थ बोला:-" हाँडी फूट जायगी और खीर नहीं बनेगी।" ऐसा ही हुआ । गोशालक विशेष नियतिवादी बना । ___ स्वर्णखलसे विहारकर प्रभु ब्राह्मण गाँव गये । वहाँ नंद
और उपनंद नामके दो भाइयोंके मुहल्ले थे। प्रभु नंदके यहाँ छट्टका पारणा करने गये। नंदने दही और भातसे प्रभुको प्रतिलाभित किया । गोशालक उपनंदके घर गया । उपनंदके कहनेसे दासी उसको बासी भात देने लगी । गोशालकने लेनेसे इन्कार किया । इसलिए उपनंदके कहनेसे दासीने वह भात गोशालकके सिर पर डाल दिया। गोशालकने शाप दिया:___ + विशेषावश्यक, भगवती सूत्र और कल्पसूत्रमें इस घटनाका उल्लेख नहीं है । केवल त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्रमें ही है।
१ कल्पसूत्रमें लिखा है कि, भगवान कुछ न बोले; परन्तु भगवती सूत्र और त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्रमें गोशालकको शिष्य स्वीकारना लिखा है।
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२४ श्री महावीर स्वामी-चरित
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"अगर मेरे गुरुका तपतेज हो तो उपनंदका घर जल जाय।" एक व्यंतर देवने उपनंदका घर जला दिया ।
ब्राह्मण गाँवसे विहार कर महावीर चंपा नगरी गये । और १
विक्रम संवत ५११ (ई० सन्५६८) नगरातारा चामता पूर्वका चौमासा वहीं किया । वहाँ दो मासक्षमण करके चौमासा समाप्त किया।
चंपासे विहार कर प्रभु कोल्लाक गाँवमें आये और एक शून्य गृहमें कायोत्सर्ग करके रहे । गोशालक दाजेके पास बैठा।
कोल्लाकसे विहार कर महावीर पत्रकाल नामक गाँवमें आये
१-यह अंगदेशकी राजधानी थी। भागवतकी कथाके अनुसार हरिश्चंद्रके प्रपौत्र चंपने इसको बसाया था । जैनकथाके अनुसार पिताकी मृत्यु के शोकसे राजगृहमें अच्छा न लगनेसे कोणिक (अजातशत्रु) राजाने चंपेके एक सुंदर झाड़वाले स्थानमें नई राजधानी बसाई और उसका नाम चंपा रक्खा । वैदिक, जैन और बौद्ध तीनों सम्प्रदायवाले उसे तीर्थस्थान मानते हैं । उसके दूसरे नाम अंगपुर, मालिनी, लोमपादपुरी और कर्णपुरी आदि हैं । पुराने जैनयात्री लिखते हैं कि चंपा पटणासे १०० कोस पूर्व में है। उससे दक्षिणमें करीब १६ कोस पर मंदारगिरि नामका जैनतीर्थ है। यह अभी मंदारहिल नामक स्टेशनके पास है । चंपाका वर्तमान नाम चंपानाला है । वह भागलपुरसे तीन माइल है । उसके पास ही नाथनगर भी है । ( महावारनी धर्मकथाओ, पेज १७५)
२-गांवके ठाकुरका लड़का अपनी दासीको लेकर उस शून्य घरमें आया। अंधकारमें वहाँ किसीको न देख उसने अनाचारका सेवन किया। जाते समय गोशालकने दासीके हाथ लगाया । इससे युवकने उसे पीटा। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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जैन-रत्न
और एक शून्य गृहमे प्रतिमा धारण कर रहे । गोशालक दर्वाजेके पास बैठा। ___ पत्रकालसे विहारकर महावीर कुमार गाँवमें आये । वहाँ 'चंपकरमणीय ' नामक उद्यानमें काउसग्ग करके रहे । *
१-ऊपर जैसी ही घटना पात्रकालमें भी हुई । यहाँ गोशाला हँसा, इससे पिटा । ___* यहाँ कुपनय नामका एक कुम्हार रहता था । वह बड़ा शराबी था। पार्श्वनाथजीकी परंपराके मुनिचंद्राचार्य अपने शिष्यों सहित उसके मकानमें ठहरे हुए थे। वे अपने शिष्य वर्द्धनको आचार्यपद सौंप जिनकल्पका अति दुष्कर प्रतिकर्म करते थे। गोशालक फिरता हुआ वहाँ जा पहुंचा। उसने चित्रविचित्र वस्त्रोंको धारण करनेवाले और पात्रादिक रखनेवाले श्रीपार्श्वनाथकी परंपराके उपर्युक्त साधुओंको देखा । उसने पूछा:-" तुम कौन हो ?" उन्होंने जवाब दिया:-" हम पार्श्वनाथके निग्रंथ शिष्य हैं।" गोशालक हँसा और बोला:-"मिथ्या भाषण करनेवालो, तुम्हें धिक्कार है ! वस्त्रादि ग्रंथीको धारण करनेवाले तुम निर्यथ कैसे हो ? जान पड़ता है कि तुमने आजीविकाके लिए यह पाखंड रचा है । वस्त्रादिके संगसे रहित और शरीरमें भी ममता नहीं रखनेवाले, जैसे मेरे धर्माचार्य हैं वैसे निग्रंथ होने चाहिए।" वे जिनेन्द्रको जानते नहीं थे, इससे बोले:-" जैसा तू है वैसे ही तेरे धर्माचार्य भी होंगे। कारण, वे अपने आप ही लिंग-साधुपन ग्रहण करनेवाले मालूम होते हैं । " इससे गोशाला नाराज हुआ और उसने शाप दिया:- "मेरे गुरुका तपतेज हो तो तुम्हारा उपाश्रय जल जाय ।" मगर उपाश्रय न जला । वह अफसोस करता चला गया । रातको मुनिचंद्र प्रतिमा धारण कर खड़े थे । कुपनय शराबमें मत्त आया। उसने मुनिको चोर समझकर इतना पीटा कि, उनकी मृत्यु हो गई। वे शुभ ध्यानके कारण मरकर देवलोक गये । देवोंने आकर उनके तपकी महिमा की । प्रकाश देखकर गोशालक बोला:-" आखिर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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२४ श्री महावीर स्वामी- चरित
कुमार गाँवसे विहारकर महावीर चोराक गाँवमें आये । वहाँ कायोत्सर्ग करके रहे । सिपाही फिरते हुए आये और उन्हें किसी राजाके जासूस समझकर पकड़ा और पूछा:- “ तुम कौन हो ? " मौनधारी महावीर कुछ न बोले । गोशालक भी चुप रहा। इससे दोनोंको बाँधकर सिपाहियोंने उन्हें कूएमें डाला । फिर निकाला फिर डाला । इस तरह बहुतसी डुबकियाँ खिलाई । फिर सोमा व जयंतिका नामकी साध्वियोंने-जो पार्श्वनाथके शासनकी थीं- उन्हें पहचाना और छुड़ाया ।
चोरा गाँवसे विहार कर प्रभु पृष्ठचंपा नगरीमें आये और वि० सं० ५१० ( ई. सन् ५६७ ) पृष्ठचंपा में चौथा चौमासा पूर्वका चौमासा वहीं किया वहाँ चार मासक्षमण ( चार महीनेका उपवास ) प्रतिमा - आसन - से वह चौमासा
करके विविध प्रकारकी समाप्त किया।
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वहाँसे विहार कर फिरते हुए महावीर कृतमंगळ नामके शहरमें गये और वहाँ दरिद्र स्थविरोंके मुहल्लेमें, एक मंदिरके अंदर, एक कोने में कायोत्सर्ग करके रहे ।
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मेरा शाप फला ।” सिद्धार्थ बोला:- तेरा शाप नहीं फला, मुनि शुभ ध्यानसे मरे इससे देवता आये हैं । उसीका यह प्रकाश है । " कुतूहली गोशालक गया और सोते हुए शिष्योंको जगाकर उनका तिरस्कार कर आया ।
१ - आरंभी, परिग्रहधारी और स्त्रीपुत्रादिवाले पाखंडी रहते थे । वे दरिद्र स्थावर नामसे पहिचाने जाते थे। उनके मुहल्ले में किसी देवता की मूर्ति थी । उस मंदिर में प्रभु गये उस दिन उत्सव था । इसलिए सभी सपरिवार वहाँ इकट्ठे हुए और गीत-नृत्यमें रात बिताने लगे । यह देख गोशालक
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जैन-रत्न
सूर्योदय होनेपर प्रभु वहाँसे विहार कर श्रावस्ती नगरीमें आये और कायोत्सर्ग करके नगरके बाहर रहे। बोला:-"ये पाखंडी कौन हैं कि जिनकी औरतें भी शराब पीती हैं और इस तरह मत्त होकर नाचती हैं।" यह सुनकर दरिद्र स्थविर गुस्से हुए
और उन्होंने गोशालकको गर्दनिया देकर बाहर निकाल दिया । माघका महीना था और सर्दी जोरकी पड़ रही थी। गोशालक सर्दीमें सिकुड़ रहा था और उसके दाँत बोल रहे थे । स्थविरोंने उसे माफ किया और अंदर बुला लिया। जब उसकी सर्दी मिटी तब उसने फिर वही बात कही। उन्होंने फिर निकाला, फिर बुलाया । उसने पुनः वही बात कही । फिर उसे निकाला, फिर बुलाया । तब वह बोला:-" अल्प बुद्धि पाखंडियो ! सच्ची बात कहनेसे क्यों नाराज होते हो ? तुम्हें अपने इस दुष्ट चरित्रपर तो क्रोध नहीं आता और मुझ सत्य भाषीपर क्यों क्रोध आता है ?" जवान उसे मारने दौड़े; परंतु वृद्धोंने उन्हें यह कहकर मना किया कि यह इन महात्माका सेवक मालूम होता है। इसकी बातोंपर कुछ ध्यान न दो:
१ गोशालकने प्रभुसे कहा:-" चलिए गोचरी लेने ।" सिद्धार्थ बोला:-" आज हमारे उपवास है।" गोशालकने पूछा:-" आज मुझे कैसा भोजन मिलेगा ?" सिद्धार्थ बोला:-" आज तुझे नरमांसवाला भोजन मिलेगा।" गोशालक यह निश्चय करके चला कि मांसकी गंध भी न होगी ऐसी जगह भोजन करूँगा।"
श्रावस्तीमें पितृदत्त नामका एक गृहस्थ रहता था। उसके श्रीभद्रा नामकी स्त्री थी। उसके हमेशा मरी हुई संतान पैदा होती थी। उसे शिवदत्त निमित्तियाने कहा कि मरे हुए बच्चेका मांस रुधिर सहित घी और शहद व दुग्धमें डालना और उसे पकाकर किसी भिक्षुकको खिला देना : भद्राने उस दिन वैसी ही खीर तैयार कर रक्खी थी। गोशालक फिरता हुआ वहीं पहुँचा
और भद्राने उसे वह खीर खिला दी। सुभद्राने पाहिलेहीसे घरके नया दर्वाजा बना रक्खा था। गोशालकके जाते ही नया दर्वाजा खोल दिया और पुराना दर्वाजा बंद Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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२४ श्री महावीर स्वामी- चरित
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वहाँसे विहार कर प्रभु हरि नामक गाँव में गये और वहाँ हरि वृक्षके नीचे प्रतिमा धारण कर रहे । वहाँ कोई संव आया था और रातको आग जलाकर रहा था । बड़े सवेरे आग बुझाये बिना लोग चले गये । आग सुलगती हुइ भगवानके पास पहुँची । गोशालक भाग गया; परंतु प्रतिमाधारी भगवान वहाँसे न हटे और उनके पैर झुलस गये ।
हरिसे विहार कर प्रभु लांगल गाँवमें गये और वहाँ प्रतिमा धारण कर वासुदेव के मंदिर में रहे ।
हरिसे बिहारकर प्रभु आवर्त्त नामक गाँवमें आये और वहाँ बलदेवके मंदिर में प्रतिमा धारण कर रहे ।
आवर्त गाँव से विहार कर प्रभु चोराक गाँव में आये और वहाँ एकांत स्थानमें प्रतिमा धर कर रहे ।
करवा दिया। गोशालक स्थानपर पहुँचा । सिद्धार्थने उसे खीरकी सारी बात कही। उसने उल्टी की तो उसमेंसे नखोंके छोटे टुकड़े आदि निकले । गोशालक बड़ा नाराज हुआ और पितृदत्त के घर गया, परंतु घरका रूप बदल गया था इसलिए उसे घर न मिला । तब उसने शाप दिया: – “ यदि मेरे गुरुका तप हो तो यह सारा मुहल्ला जल जाय ।" किसी व्यंतर देवने महावीर स्वामीकी महिमा कायम रखनेके लिए सारा मुहल्ला जला दिया ।
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१ – यहाँ गोशालक ने लड़कोंको डराया, इसलिए उनके मातापिताने गोशालकको पीटा । वृद्धोंने प्रभुका भक्त जान छुड़ाया ।
२ – यहाँ भी बालकों को डरानेसे गोशालक पीटा गया । कुछने सोचा इसके गुरुको मारना चाहिए । वे महावीरको मारने दौड़े। तब किसी अर्हतभक्त व्यंतरने बलदेवकं शरीरमें प्रवेशकर महावीरकी रक्षा की ।
।
३ – गोशालक यहाँ भिक्षार्थ गया । एक जगह गोठके लिए रसोई हो रही थी । गोशालक छिपकर देखने लगा कि, रसोई हुई या नहीं ? इसको छिपा देख लोगोंने चोर समझा और पीटा। गोशालकने शाप दिया:
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वहाँसे विहार कर प्रभु कलंबुक नामक गाँवमें गये । वहाँ मेघ और कालहस्ति नामके दो भाई रहते थे । उस समय चोरोंको पकड़नेके लिए कालहस्ती जारहा था । महावीर स्वामी
और गोशालकको उसने चोर समझा और पकड़कर भाईके सामने खडा किया। मेघ महावीरको पहचानता था, इसलिए उसने उन्हें छोड़ दिया। __महावीर स्वामीने अवधिज्ञानसे जाना कि, अब तक मेरे बहुतसे कर्म बाकी हैं । वे किसी सहायकके बिना नाश न होंगे । आर्य देशमें सहायक मिलना कठिन जान उन्होंने अनार्य देशमें विहार करना स्थिर किया।
कलंबक गाँवसे विहार कर प्रभु क्रमशः अनार्य लाट देशमें पहुँचे । लाट देशके निवासी क्रूरकर्मी थे । उन्होंने महावीरके ऊपर घोर उपसर्ग किये। उपसगोंको शांतिसे सहकर महावीरने अनेक अशुभ कर्मोंकी निर्जरा की । गोशालकने भी प्रभुके साथ अनेक कष्ट सहे।
पूर्णकलश नामक गाँवमें जाते समय चोर मिले। चोरोंने अपशकुन हुए जान दोनोंको मारनेके लिए तलवार निकाली। इन्द्रने चोरोंको मार डाला। __पूर्ण कलशसे विहार कर प्रभु भदिलपुर आये। और विक्रम “अगर मेरे गुरुके तपका प्रभाव हो तो इन लोगोंका स्थान जल जाय।" महावीरके भक्त व्यंतरने स्थान जला दिया ।
१-सहायकका अर्थ उपसर्ग-कर्ता है । जितने अधिक उपसर्ग होते हैं उतने ही अधिक जल्दी कर्मोंका नाश होता है । शर्त यह है कि उपसर्ग शांतिसे सहे जायें। २-कल्पसूत्रमें 'भाद्रिकापुरी' और विशेषावश्यकमें 'भद्रिका नगरी' लिखा है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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२४ श्री महावीर स्वामी-चरित ३४५ wmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm
संवत ५०९ ( ई. स. ५६६ ) भदिलपुरमें पाँचवाँ चौमासा पूर्वका पाँचवाँ चौमासा वहीं
चौमासी तप (चार महीनेका उपवास) करके बिताया।
चौमासा समाप्त होनेपर तपका पारणा कर वहाँसे प्रभु कदली समागम गाँवमें आये और कायोत्सर्ग करके रहे । गोशालकने वहाँ सदाव्रतमें भोजन किया।
कदली समागमसे विहार कर प्रभु जंबूखंड गाँवमें गये । और वहाँसे तुंबांक गाँवमें गये । वहाँ नंदीषेणाचार्य भी अपने शिष्यों सहित ठहरे हुए थे। ___ जंबूखंडसे विहार कर महावीर कूपिका गाँव गये । वहाँ सिपाही दोनोंको गुप्तचर जानकर, हैरान करने लगे। प्रगल्भा और विजया नामकी दो साध्वियोंने-जो साधुपना न पाल सकनेके कारण परिव्राजिकाएँ हो गई थीं-उन्हें छुड़ाया। __कूपिका गाँवसे प्रभु विशालपुरकी तरफ चले । आगे दो रस्ते फटते थे । वहाँ गोशालक महावीर स्वामीसे अलग होकर राजगृहकी तरफ चला । वे विशाली पहुँचे । वहाँ एक लुहारका
१- कल्पसूत्र और विशेषावश्यकमें इसका नाम क्रमशः 'तंबाल' और 'तंबाक' लिखा है। ___ २ नंदीषणाचार्य पार्श्वनाथकी शिष्य परंपरामेंसे थे । गोशालकने इनके शिष्योंका भी मुनिचंद्राचार्यके शिष्योंकी तरह अपमान किया था । नंदी. षेणाचार्य जिनकल्पकी तुलना करने किसी चौकमें कायोत्सर्ग कर रहे थे। चौकीदारोंने उन्हें चोर समझकर मार डाला।
३ गोशालक एक जंगलमें पहुँचा । वहाँ चोरोंने उसे देखा । एक बोला "कोई द्रव्यहीन नग्न पुरुष आ रहा है ।" दूसरे बोले:-"वह द्रव्यहीन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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जैन-रत्न wmmmmmmm मकान सूना पड़ा था । लुहार बीमार होनेसे, छः महीने हुए कहीं गया हुआ था। महावीर स्वामी लोगोंकी आज्ञा लेकर लुहारके मकानमें कायोत्सर्ग करके रहे । लुहार भी उसी दिन अच्छा होकर वापिस आया। अपने मकानमें साधुको देखकर उसने अपशकुन समझा । वह घन लेकर उन्हें मारने दौड़ा। इन्द्रने अपनी शक्तिसे वह धन उसीके सिरपर डाला और वह वहीं मर गया।
विशालीसे विहार कर प्रभु ग्रामक गाँव आये और गाँवके बाहर उद्यानमें बिभेलिक नामक यक्षके मंदिरमें कायोत्सर्ग करके रहे । यक्षको पूर्व भवमें सम्यक्त्वका स्पर्श हुआ था इसलिए उसने प्रभुकी पूजा की ।
ग्रामक गाँवसे विहार कर प्रभु शालिशीर्ष नामक गाँवमें आये। वहाँ उद्यानमें प्रतिमा धरकर रहे । कटपूतना नामकी वाण व्यंतरी ने रातभर प्रभपर उपसर्ग किये । शांतिसे उपसर्ग सहन कर प्रभुने लोकावधि नामका अवधिज्ञान प्राप्त किया। और नग्न है तो भी उसे छोड़ना नहीं चाहिए । संभव है, वह कोई जासूस हो ।" फिर वे झाड़से उतरकर आये और एक एक कर उसपर सवारी करने लगे। आखिर वह थककर गिर पड़ा तब चोर उसे छोड़कर चले गये । गोशालक महावीरको छोड़नेके लिए पश्चात्ताप करता हुआ छः महीनेके बाद पुनः उनसे जाकर भद्रिकापुरीमें मिला।
१-कटपूतनाका जीव महावीरका जीव जब त्रिपृष्ठ वासुदेव था तब उनकी विजयवती नामकी रानी था । त्रिपृष्ठसे उसे उचित आदर नहीं मिलता था। इससे वह क्रोध करके मरी थी । अनेक भव भटकनेके बाद मनुष्य भवमें आई और वहाँ बालतप कर वाणव्यंतरी हुई। महावीरको देख, पूर्वभवका
वैर याद कर उसने महावीरपर उपसर्ग किये। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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२४ श्री महावीर स्वामी-चरित
३४७
शालिशीर्षसे विहारकर प्रभु भद्रिकापुरीमें आये । वहाँ चार
___ मासक्षमण कर वि० सं० ५०८ भद्रिकापुरीमें छठा चौमासा (ई. स. ५६५) पूर्वका छठा
चौमासा वहीं किया। वहींपर गोशालक भी छ: महीनेके बाद पुनः महावीरके पास आ गया। वर्षाकाल बीतनेपर महावीरने नगरके बाहर पारणा किया। ___ आठ महीनेतक अगवानने मगध देशमें विविध स्थानोंमें निर्विघ्न विहार किया । चौमासेके आरंभसे पहले महावीर आलभिका नगरीमें आये।
और वि० स०५०७ (ई. स. ५६४) आलभिका नगरीमें पूर्वका सातवाँ चौमासा वहीं व्यतीत सातवाँ चौमासा किया । चौमासा पूर्ण होनेपर गाँवके
बाहर चौमासीतपका पारणा किया। आलभिकासे विहारकर प्रभु गोशालक सहित कुंडक गाँवमें आये। वहाँ वासुदेव मंदिरमें एक कोने में प्रतिमा धारण कर रह।
कुंडकसे विहार कर प्रभु मर्दन नामक गाँवर्षे आये और वहाँ बलदेवके मंदिरमें प्रतिमा धारण कर रहे ।
मदन गाँवसे बिहार कर प्रभु बहुशाल नामक गाँवमें गये । वहाँ शालवन नामक उद्यानमें प्रतिमा धारण कर रहे । वहाँ एक व्यंतरीने अनेक तरहके उपसर्ग किये।
१-गोशालकने वहाँ वासुदेवकी मूर्तिकी कुचेष्टा की। उसी समय वहाँ पुजारी आया । उसन इसे नग्न जैन साधु समझ इसकी बुराई लोगोंको बतानेके लिये गाँवके लोगोंको बुलाया। लड़के और जवान उसे चपतियाने लगे। बूढ़ोंने उसे पागल समझ छड़वा दिया ।
२-यहाँ भी गोशालक कुचेष्टा करनेसे पिटा । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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जैन-रत्न
बहुशालसे विहारकर महावीर स्वामी लोहार्गल नामक गाँवमें गये । वहाँके जितशत्रु राजाका किसी अन्य राजाके साथ युद्ध हो रहा था। इसलिए राजकर्मचारियोंने इन दोनोंको गुप्तचर समझकर पकड़ा और राजाके सामने उपस्थित किया । उस समय अस्थिक गाँवका उत्पल निमित्तिया आया हुआ था । उसने प्रभुको पहचाना और राजाको उनका परिचय दिया ।
लोहार्गलसे विहारकर प्रभु पुरिमताल नगर गये और शहरके बाहर शकट नामक उद्यानमें कायोत्सर्ग करके रहे।
पुरिमतालसे विहारकर प्रभ उष्णक नामक गाँवकी तरफ चले । रस्तेमें किन्हीं वरवधकी दिलगी करनेसे लोगोंने गोशालकको बाँध कर डाल दिया; परंतु पीछेसे प्रभुका सेवक समझ कर छोड़ दिया।
१-पुरिमतालमें एक वागुर नामका धनाढ्य सेठ रहता था। उसके कोई संतान नहीं थी । वह अपनी सेठानी भद्रा सहित एक बार शकटोद्यानमें गया। वहाँ एक जीर्ण मंदिरमें मल्लिनाथजीकी मूर्तिके सामने उसनेवाधाली कि अगर तुम्हारे प्रभावसे मेरे संतान होगी तो मैं तुम्हारा मंदिर अच्छा बनवाऊँगा
और हमेशाके लिए तुम्हारा भक्त हो जाऊँगा । किसी अर्हतभक्त व्यंतरीके प्रभावसे उसके संतान हुई और उसने अपनी प्रतिज्ञा पाली । भगवान महावीर आये उस दिन इन्द्रने उन्हें नमस्कार करने के लिए कहा । सेठ सेठानीने वैसा किया । ___२-रस्तेमें बदसूरत वरवधू मिले। उन्हें देखकर गोशालक उनके सामने गया और बोला:-" वाह ! कैसी विधाताकी लीला है ? दोनों तोंदवाले, दोनों कुबड़े और दोनों दाँतले । हरेक बातमें एकसे । तिल घटे न राई बढ़े।" इस तरहका गोशालककी बातें सुनकर बराती नाराज हुए और उन्होंने उसे पकड़कर बाँध दिया। पीछेसे प्रभुका सेवक समझकर छोड़ दिया। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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२४ श्री महावीर स्वामी-चरित
३४९
विहार करते हुए प्रभु राजगृहमें पहुँचे और वि० सं० ५०६
(ई. स. ५६३ ) पूर्वका आठवाँ राजगृहमें आठवाँ चौमासा चौमासा चौमासी तप कर
__वहीं बिताया। विहार करते हुए प्रभु म्लेच्छ देशोंमें आये और वि० सं०
__५०५ (इ. स. ५६२) पूर्वका म्लेच्छ देशोंमे नवाँ चौमासा नवाँ चौमासा वज्रभूमि, शुद्धभूमि
और लाट वगैरा देशोंमें बिताया । यहाँ प्रभुको रहने के लिए स्थान भी न मिला, इसलिए कहीं खंडहरमें और कहीं झाड़ तले रहकर वह चौमासा पूरा किया । इस चौमासेमें दुष्ट प्रकृति म्लेच्छ लोगोंने महीवीरको बहुत तकलीफ दी। म्लेच्छ देशसे विहारकर महावीर सिद्धार्थपुर आये और
सिद्धार्थपुरसे कूर्मग्रामको चले । गोशालकका परिवर्तवाद गाँवसे थोड़ी दूर रस्तेमें एक तिलका
पौदा था । गोशालकने पूछा:"स्वामी! यह तिलका पौदा फलेगा या नहीं?" प्रभुने उत्तर आगे चलते हुए गवाले मिले। उनसे पूछा:-“हे म्लेच्छो ! हे बद शकलो! बताओ यह रस्ता कहाँ जाता है ?" उन्होंने कहाः-" मुसाफिर बे फायदा गालियाँ क्यों देता है ?" गोशालक बोला:-" मैंने तो सच्ची बात कही है। क्या तुम म्लेच्छ और बद शकल नहीं हो ?" इससे गवाल नाराज हुए और उन्होंने उसे बाँधकर एक झाड़ीमें डाल दिया। दूसरे मुसाफिरोंने दयाकर उसके बंधन खोले ।
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३५०
जैन-रत्न
दिया:--" हे भद्र! यह पौदा फलेगा और दूसरे सात फूलोंके जीव हैं वे इस पौदेकी फलीमें सात तिलरूपमें जन्मेंगे।" गोशालकने महावीर स्वामीकी वाणीको मिथ्या करनेके लिए उस पौदेको उखाड़कर दूसरी जगह रख दिया । उसी समय किसी देवताने महावीरकी वाणी सत्य करनेके लिए पानी बरसायो । महावीरस्वामी और गोशालक कूर्मग्राम चले गये । तिलका पौदा किसी गायके पैरसे जमीनमें घुस गया और धीरे धीरे वह पुनः पौदेके रूपमें आया और उसकी फलीमें सातों पुष्पोंके जीव तिल रूपमें उत्पन्न हुए । कूर्मग्रामसे विहारकर प्रभु जब वापिस सिद्धार्थपुर चले तब रस्तेमें तिलके पौदेवाली जगह
आई । वहाँ गोशालकने कहा:-"प्रभु, आपने कहा था कि तिलका पौदा फिर उगेगा और फूलोंके सात तिळ होंगे; मगर ऐसा तो नहीं हुआ।" महावीर बोले:-" हुआ है।" तब गोशालकने पौदा जाकर देखा और उसकी फली तोड़ी तो उसमेंसे सात तिल निकले । तब गोशालकने परिवर्तवादके सिद्धांतको स्थिर किया।
१-अबतकके सब प्रश्नोंका जवाब सिद्धार्थ देवने दिया था । इस प्रश्नका उत्तर स्वयं महावीरने दिया।
२ भगवती सूत्रमें और आवश्यक सूत्रमें “किसी देवताने पानी बरसाया " ऐसा उल्लेख नहीं है । उनमें उसी समय पानी बरसना लिखा है ।
३-जिस शरीरसे जीव मरता हैं पुनः उसीमें उत्पन्न होता है। इस तरहके सिद्धांतको परिवर्तवाद कहते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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२४ श्री महावीर स्वामी-चरित
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प्रभु जब कूर्मग्राम पहुंचे तब वहाँ एक वैशिकायन नामका
तपस्वी आया हुआ था और मध्यान्ह गोशालकको तेजोलेश्या कालमें, दोनों हाथ ऊँचे कर सूर्यमंडप्राप्तिकी विधि बताई लके सामने दृष्टि स्थिर कर आतापना
ले रहा था। वह दयालु और समता १-चंपा और राजगृहके बीचमें एक गोबर नामका गाँव था । उसमेंगोशंखी नामक कुन्बी रहता था। वह संतानहीन था । गोबर गाँवके पास ही एक खेटक गाँव था। लुटेरोंने उसे लूट लिया। गाँवके कई लोगोंको मार डाला । वेशका नामकी एक थोड़े ही दिनकी प्रसूता सुंदर स्त्रीको भी वे पकड़कर ले चले । बच्चेको लेकर वह जल्दी नहीं चल सकती थी, इस लिए लुटेरोंने बच्चेको रस्तेमें एक झाड़के नीचे रखवा दिया और वेशकाको चंपानगरीमें एक वेश्याके घर बेच दिया। थोड़े दिनोंमें वह एक प्रसिद्ध वेश्या हो गई।
लड़केको गोशंखीने ले जाकर बच्चेकी तरह पाला। जब वह जवान हुआ तब पीकी गाड़ी भरकर चंपामें बेचनेके लिए आया । शहरमें वेश्याके घर जानेकी इच्छा हुई। उसने वेशकाके यहाँ जाना स्थिर किया। रातको जब वह चला तब रास्तेमें उसके वैर पाखानेसे भर गये, तो भी वह वापिस न फिरा। आगे उसने एक गाय व बछड़ेको खड़ा देखा । ये उसके कुल देवता थे जो उसे अधर्मसे बचानेके लिए आये थे । जवानने पैरका पाखाना बछड़ेके पौंछा । बछड़ा बोला:-" माता! यह अधर्मी मेरे शरीरपर विष्टा पौंछ रहा है।" गायने जवाब दियाः-“ यह महान अधर्मी अपनी माँके साथ भोग करने जा रहा है।" युवकको अचरज हुआ। उसने वेश्याको जाकर उसका असली हाल पूछा । वेश्याने बताया। फिर उसने आकर कुन्बीको पूछा । कुन्बीने भी उसे सही सही बातें बताई। इससे उसका मन उदास हो गया और वह तप करने निकल गया। फिरता फिरता वह उस दिन कूर्मग्राममें आया था। उसकी माताका नाम वेशिका था इसीसे वह वैशिकायनके नामसे प्रसिद्ध हुआ। भगवतीसूत्र, विशेषावश्यक और कल्प सूत्र में इसका नाम वेश्यायन लिखा है।
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भाववाला भी था । धूपकी तेजीके कारण बीच बीचमें उसके सिरसे जूएँ खिर पड़ती थीं, उन्हें उठाकर वह वापिस अपने सिरमें रख लेता था । कौतुकी गोशालकने जाकर उसे कहा:-" हे तापस ! तू मुनि है, या मुनीक (पागल ) है या जूओंका पलंग है ? " तापस कुछ न बोला । इससे दूसरी, तीसरी और चौथी बार गोशालकने यही बात तापसको कही। अंतमें तापसको क्रोध आया और उसने गोशालकपर तेजोलेश्या रक्खी । महावीरने दया करके उसको शीत लेश्यासे बचा लिया।
गोशालकने पूछा:-" भगवन् ! तेजो लेश्या कैसे प्राप्त होती है ?" महावीर स्वामीने उत्तर दियाः-" हे गोशालक ! जो मनुष्य नियम करके छट्टका तप करता है और एक मुट्ठी उड़दके बाकले और एक चुल्लू जलसे पारणा करता है। इस तरह जो छः महीने तक लगातार छटुका तप करता है, उसे तेजो लेश्याकी लब्धि प्राप्त होती है।" __ कूर्मग्रामसे विहारकर प्रभु सिद्धार्थपुर आये । गोशालक यहाँसे तेजोलेश्या प्राप्त करनेको तप करनेके लिए श्रावस्ती नगरी चला गया। ___ महावीर स्वामी सिद्धार्थपुरसे विहार कर वैशाली आये । यहाँ सिद्धार्थ क्षत्रियके मित्र शंख गणराजने सपरिवार आकर प्रभुकी वंदना की। __ वैशालीसे विहारकर महावीर स्वामी वाणीजक गाँवको चले। रस्तेमें मंडिकीका नामकी एक नदी आती है । उसे एक
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२४ श्री महावीर स्वामी-चरित
३५३
नौकामें बैठकर पार किया । उतरते समय उसने आपसे किराया माँगा। प्रभुके पास किराया कहाँ था? इसलिए नाविकने उन्हें रोक रक्खा । शंख गणराजके भानजे चित्रने आपको छुड़ाया । आप वाणीजक गाँवमें पहुँचे ।।
वहाँ आनंद नामक एक श्रावक रहता था। वह नियमित छह तप करता था और उत्कृष्ट श्रावकधर्म पालता था। इससे उसको अवधिज्ञान हो गया था। उसने आकर प्रभुकी वंदनास्तुति की। ___ वाणिजक गाँवसे विहार कर प्रभु श्रावस्ती नगरीमें आये श्रावस्ती नगरी में दसवाँ चौमासा और वि० सं० ५०४ ( ई. म.
" ५६१ ) पूर्वका चातुर्मास वहीं बिताया।
चातुर्मास पूरा होनेपर प्रभु सा यष्टिक गाँव आये। वहाँ भद्रा, महाभद्रा और सर्वतोभद्रा नामक प्रतिमाएँ अंगीकार की। और
१-विशेषावश्यकमें इस गाँवका नाम सानुलष्ठ लिखा है। २-इन प्रतिमाओंको अंगीकार करनेकी विधि यह है-(१)भद्रा-छट्टका तप करे, एक पुद्गलपर दृष्टि स्थिर करे। पहले दिन दिनभर पूर्वकी तरफ मुँह रक्खे, पहली रात रातभर दक्षिणकी तरफ मुँह रक्खे दूसरे दिन दिनभर पश्चिमकी तरफ मुख रक्खे और दूसरी रात रातभर उत्तरकी तरफ मुख रक्खे । (२) महा भद्रा-इसमें दशम तप (चार उपवास) करे । एक पुद्गलपर नजर रक्खे । पहले दिन दिनरात पूर्वकी तरफ मुँह रक्खे, दूसरे दिन दिनरात दक्षिणकी तरफ मुँह रक्खे, तीसरे दिन दिनरात पश्चिमकी तरफ मुँह रक्खे और चौथे दिन दिनरात उत्तरकी तरफ मुंह रक्खे । (३) सर्वतो भद्रा-इसमें बावीशम (दस उपवास) का तप करे। इसमें दस
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जैन-रत्न
पारणा किये बिना तीनों प्रतिमाएँ की। फिर पारणा करने आनंद नामक गृहस्थके घर गये । वहाँ उसकी बहुला नामकी दासी बासी अन्न फेंकने वाली थी। प्रभुको देखकर उसने कहा-" हे साधो ! तुम्हें यह अन्न कल्पता है ? " महावीरने हाथ लंबे किये । दासाने वह अन्न हाथमें रख दिया । प्रभुने उसे खाया। देवताओंने पाँच दिव्य प्रकट किये । वहाँके राजाने बहुलाको दासीपनसे मुक्त किया । सानुयष्टिक गाँवसे विहारकर महावीर म्लेच्छोंसे भरी हुई
दृढ भामिमें आये । वहाँ पेढाला नामक संगम देवकृत २० उपसर्ग गाँवके पास पेढाला नामक उद्यानके
पोलास नामक चैत्यमें एक शिलापर, अठम तप सहित एक रात्रिकी प्रतिमासे रहे । उस समय सौधर्मेन्द्रने महावीर स्वामीको नमस्कार कर उनके धैर्यकी प्रशंसा की । संगम नामका एक देव उसको न सह सका । उसने महावीर स्वामीको ध्यानसे च्युत करना स्थिर किया। उसने १८ प्रतिकूल और २ अनुकूल उपसर्ग किये। प्रतिकूल उपसर्ग ये हैं। दिन रात तक प्रति दिन एक एक दिशाकी तरफ मुँह रक्खे । आठ दिशाओंमें एक पुद्गलपर दृष्टि रक्खे । उर्द्ध और अधो दिशावाले दिन उर्द्ध और अधो पुद्गलपर दृष्टि रक्खे ।
१-(क) इससे मालूम होता है कि ढाई हजार बरस पहले, उस सभ्यताके समयमें भी गुलामीकी अन्यायी प्रथा भारतमें थी । (ख) कल्पसूत्रमें इस तपका उल्लेख नहीं है ।
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२४ श्री महावीर स्वामी - चरित
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१ धूळकी बारिश बरसाकर उनको उसमें डुबो दिया । २ सूईके समान तीक्ष्ण मुखवाली कीड़ियाँ महावीरके शरीर पर लगा दीं। उन्होंने शरीरको छलनी बना दिया ।
३ प्रचंड डाँस पैदा किये । उनके काटने से महावीर स्वामीके शरीर में से गायके दूध जैसा रक्त निकलने लगा ।
४ ' उन्होंला ' पैदा कीं । वे प्रभुके शरीरपर ऐसी चिपक गई कि सारा शरीर उण्होलामय हो गया । ५ बिच्छू पैदा किये । उन्होंने तीक्ष्ण डंख मारे |
६ नकुल (न्योले ) पैदा किये। उन्होंने मांस काटा। ७ भयंकर सर्प पैदा किये । उन्होंने चारों तरफसे लिपटकर शरीरको कस लिया और फिर फन मारना आरंभ किया । ८ चूहे पैदा किये । वे प्रभुके शरीरको काटकर उसपर पेशाब करने लगे ।
९ मदोन्मत्त हाथी पैदा किया । उसने मुँडमें पकड़ पकड़कर महावीरको उछाला ।
१० हथिनी पैदा की । उसने भी बहुत प्रहार किये ।
११ फिर उसने एक भयंकर पिशाचका रूप धारण किया । १२ फिर उसने वाघका रूप धरा ।
१३ प्रभुके माता पिता पैदा कर, उनसे करुण त्रिलाप कराया । १४ फिर एक छावनी बनाई । उसमेंके लोगोंने महावीर स्वामीके पैरोंके बीचमें आग जलाई और दोनों पैरोंपर बर्तन रखकर रसोई बनाई ।
१ - एक प्रकारकी कीड़ी। गुजरातीमें इसको घीमेल कहते हैं ।
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१५ फिर एक चांडाल बनाया । उसने प्रभुके शरीरपर नोचकर खानेवाले पक्षी छोड़े। उन्होंने प्रभुके शरीरको नौचा।
१६ प्रचंड पवन चलाया । उससे प्रभु मंदिरमें हवाके भयंकर झपाटोंसे इधरसे उधर उड़ उड़ कर टकराने लागे ।
१७ वटोलियां पवन चलाया। इससे चाकपर जैसे मिट्टीका पिंड फिरता है वैसे महावीर घूमे ।
१८ हजार भारका एक कालचक्र बनाया और उसे महावीरके सरपर डाला इससे महावीर। घुटनोंतक जमीनमें फंस गये। ___ जब इन प्रतिकूल उपसगोंसे महावीर स्वामी विचलित नहीं हुए तो उसने दो अनुकूल उपसर्ग किये।
१९ उसने सुंदर प्रातःकाल किया। देवताकी ऋद्धि बताई और विमानमें बैठकर कहाः "हे महर्षि ! मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। जो माँगो सो + । स्वर्ग, मोक्ष या चक्रवर्तीका राज्य । जो चाहिए सो माँग लो।" ___ २० एक ही समयमें छहों ऋतुएँ प्रगट की; फिर जगमनमोहक देवांगनाएँ बनाई, जिन्होंने हाव, भाव, कटाक्षसे उनको विचलित करनेका यत्न किया।
१ चक्रकी तरह फिरानेवाला वायु, भूतिया पवन
x विशेषावश्यकमें यह परिसह नहीं है । इसकी जगह उन्नीसवाँ और उन्नीसवेंकी जगह संवर्तक वायुका चलाना लिखा है । कल्पसूत्रमें उन्नीसवाँ और बीसवाँ बीसवेंमें हैं और उन्नीसवेंमें लिखा है:-" प्रभात करके संगमने महावीरको कहा कि सवेरा हो जानेपर भी, इस तरह ध्यानमें कहाँतक रहोगे!"
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२४ श्री महावीर स्वामी चरित
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इस तरह रातभर उपसर्ग सहन करनेके बाद प्रभु बालुक गाँवकी तरफ चले । रस्तेमें संगमने पाँच सौ चोर पैदा किये
और बहुतसा रेता बरसाया । चलते समय प्रभुके पैर पिंडलियों तक रेतामें घुसते जाते थे और चोर प्रभुको 'मामा' 'मामा' करके इतने जोरसे सीनेसे चिमटाते थे कि अगर सामान्य शरीर होता तो चूर चूर हो जाता ।
इसी तरह उसने छः महीने तक अनेक तरहके उपसर्ग किये । विशेष आवश्यकके अंदर संगमने छः महीने तक क्या क्या उपसर्ग किये और महावीर स्वामीने कहाँ कहाँ विहार किया उसका उल्लेख है । हम उसका अनुवाद यहाँ देते हैं। ____“भगवान वालुका गाँवमें पहुंचे और गोचरी गये । वहाँ उसने प्रभुको काणाक्षी रूप-काना-बना दिया, वहाँसे सुभोम गाँव गये, वहाँ हाथ पसारके माँगनेवाले वनाये, वहाँसे सुक्षेत्र गाँव गये । वहाँ विटका ( नटका ) रूप बना दिया । मलय गाँव गये । वहाँ पिशाचका रूप बताया। हस्तिशीष गाँव गये वहाँ उनका शिवरूप (१) बनाया फिर प्रभु मसाणमें जाकर रहे। वहाँ संगमने हंसीकी और इन्द्रने आकर सुखसाता पूछी । प्रभु तोसलिया गाँव गये । वहाँ कुशिष्यका रूप धरकर संगमने एक सेंध लगाई। लोगोंने इन्हें पकड़कर पीटना आरंभ किया। घरमें महाभूति नामके इन्द्रजालिएने प्रभुको पहचानकर छुड़ाया। मोसली गाँव गये। वहाँ भी संगमने शिष्य बन सेंध लगाई। सिद्धार्थके मित्र सुमागधने उन्हें छुड़ाया। पुनः तोसली गांवमें गये । वहाँ चोर समझकर पकड़े गये। लोग रस्सीसे बांधकर
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झाड़पर लटकाने लगे । सात बार रस्सी टूट गई । इससे निर्दोष समझकर छोड़ दिया । वहाँ से सिद्धार्थपुर गये । वहाँ भी चोर समझकर पकड़े गये । वहाँ कौशिक नामक घोड़ेके व्यापारीने प्रभुको छुड़ाया । "
इस तरह छः महीने तक अनेक उपसर्ग करके भी जब संगम प्रभुके मनको क्षुब्ध न कर सका तब उसने लाचार हो कर प्रभुसे कहा :- " हे क्षमानिधि ! आप मेरे अपराध क्षमा कीजिए और जहाँ इच्छा हो वहाँ निःशंक होकर विहार करिए । गाँवमें जाकर निर्दोष आहारपानी लीजिए । " महावीर स्वामी बोले :- " हम निःशंक होकर ही इच्छानुसार विहार करते हैं । किसीके कहने से नहीं । "
1
फिर संगम देवलोक में चला गया । प्रभु गोकुल गाँवमें गये । वत्सपालिका नामकी गवालिनने प्रभुको परमान्नसे प्रतिलाभित किया ।
वहाँसे विहारकर प्रभु आलभिका नगर गये । वहाँ हरि नामका विद्युत्कुमारोंका इन्द्र प्रभुको नमस्कार करने आया और नमस्कार कर बोला :- " हे नाथ ! आपने जो उपसर्ग सहे हैं उन्हें सुनकर ही हम काँप उठते हैं । सहन करना तो बहुत दूरकी बात है । अब आपको, थोड़े उपसर्ग और सहन करनेके बाद केवलज्ञान प्राप्त होगा । "
आलभिकासे विहारकर महावीर श्वेतांबी नगरीमें आये । वहाँ हरिसह नामक विद्युत्कुमारेन्द्र वंदना करने आया ।
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२४ श्री महावीर स्वामी-चरित
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__ श्वेतांबीसे विहार कर प्रभु श्रावस्ती नगरीमें आये । वहाँ प्रतिमा धारणकर रहे। उस दिन लोग स्वामी कार्तिकेयकी मूर्तिकी बड़ी धूमधामके साथ पूजा-अर्चा और रथयात्रा करनेवाले थे। यह बात शक्रेन्द्रको अच्छी न लगी । इसलिए उसने मूर्तिमें प्रवेश किया और चलकर प्रभुको वंदना की। भक्त लोगोंने भी महावीर स्वामीको, स्वामी कार्तिकेयका आराध्य समझकर उनकी महिमा की।
श्रावस्तीसे विहारकर प्रभु कौशांबी नगरीमें आये । वहाँ सूर्य और चंद्रमाने अपने विमानों सहित आकर प्रभुको वंदना की।
कौशांबीसे विहारकर अनेक स्थलोंमें विचरण करते हुए प्रभु वाराणसी (बनारस) पहुँचे । वहाँ शक्रेन्द्रने आकर प्रभुको वंदना की।
वहाँसे राजगृही पधारे । वहाँ ईशानेन्द्रने आकर वंदना की।
राजगृहीसे विहारकर प्रभु मिथिलापुरी पहुँचे। वहाँ राजा जनकने और धरणेंद्रने आकर प्रभुको वंदना की। मिथिलापुरीसे विहारकर महावीर स्वामी वैशाली आये और
वि० सं० ५०३ (ई. स. ५६०) वैशालीमें ग्यारहवाँ पूर्वका ग्यारहवाँ चौमासा वहीं बिताया। चौमासा वहाँ उन्होंने समर नामके उद्यानमें,
बलदेवके मंदिरके अंदर चार मास क्षमणकर प्रतिमा धारण की । भूतानंद नामक नागकुमारेन्द्रने आकर प्रभुको वंदना की।
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वैशालीमें जिनदत्त नामका एक सेठ था। उसकी सम्पत्ति चली जानेसे वह 'जीर्णसेठ । के नामसे प्रसिद्ध हो गया था। वह हमेशा महावीर स्वामीके दर्शन करने आता था। उसके मनमें यह अभिलाषा थी कि प्रभुको मैं अपने घरपर पारणा कराऊँगा और धन्यजीवन होऊँगा। ___चौमासा समाप्त हुआ। प्रभुने ध्यान तजा। जीर्णसेठने प्रभुको भक्ति सहित वंदनाकर विनती की:-" प्रभो! आज मेरे घर पारणा करने पधारिए । " फिर उसने घर जाकर निर्दोष आहारपानी तैयार करा प्रभुके आनेकी, दर्वाजेपर खड़े होकर प्रतीक्षा आरंभ की।
साधु तो किसीका निमंत्रण ग्रहण नहीं करते । कारण, निमंत्रण ग्रहण करना मानो उद्दिष्ट-अपने लिए बनाया हुआआहार ग्रहण करना है । साधु कभी अपने लिए बनाया हुआ आहारपानी नहीं लेते । साधु-आचारके कठोर नियमपर चलनेवाले महावीर स्वामी भला कब जीर्ण सेठके घर जानेवाले थे !
समयपर प्रभु आहारके लिए निकले और फिरते हुए नवीन सेठके घर पहुँचे । सेठ धनांध था । वह किसीकी परवाह नहीं करता था। मगर उस समय किसी साधुको घरसे लौटा देना बहुत बुरा समझा जाता था इसलिए उसने अपनी दासीको कहा:-" इसको भीख देकर तत्काल ही यहाँसे विदा कर । " वह लकड़ेके बर्तनमें उड़दके उबाले हुए
बाकळे ले आई। ऐषणीय-निर्दोष आहार समझकर प्रभुने उसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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२४ श्री महावीर स्वामी-चरित
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ग्रहण किया। देवताओंने उसके घर पंच दिव्य प्रकट किये। लोग उसकी प्रशंसा करने लगे । वह मिथ्याभिमानी कहने लगा कि, मैंने खुद प्रभुको परमानसे पारणा कराया है। __जीर्णसेठ प्रभुको आहार करानेकी भावनासे बहुत देरतक
खड़ा रहा । उसके अन्तःकरणमें शुभ भावनाएँ उठ रही थीं। उसी समय उसने आकाशमें होता हुआ दुंदुभि नाद सुना । 'अहोदान ! अहोदान !' की ध्वनिसे उसकी भावना भंग हुई। उसे मालूम हुआ कि, प्रभुने नवीन सेठके यहाँ पारणा कर लिया है । उसका जी बैठ गया और वह अपने दुर्भाग्यका विचार करने लगा। *
वैशालीसे विहार कर प्रभु अनेक स्थानों में भ्रमण करते हुए सुसुमारपुरमें आये और अष्टम तप सहित एक रात्रिकी
* महावीर स्वामी विहार कर जानेके बाद पार्श्वनाथ भगवानके एक केवली शिष्य आये। उनसे राजाने और नगरजनोंने आकर वंदना की और पूछा:-" हे भगवन ! इस शहरमें सबसे आधक पुण्य उपार्जन करनेवाला कौन है ? " केवलीने उत्तर दिया:-" जीर्ण सेठ सबसे अधिक पुण्य पैदा करनेवाला है । " राजाने पूछा:-" प्रभुको पारणा तो नवीन सेठने कराया है और अधिक पुण्य जीर्णसेठने कैसे पैदा किया ?" केवलीने जवाब दियाः- " भावसे तो जीर्ण सेठने ही पारणा कराया है और इसीसे उसने अच्युत देवलोकका आयु बाँधा है । नवीन सेठने भावहीन, दासीके द्वारा आहार दिया है; परंतु तीर्थकरको आहार दिया है इसलिए इस भवके लिए सुखदायक वसुधारादि पंच दिव्य इसके यहाँ 'प्रकट हुए हैं।" यह है शुम भावोंसे और शुभ भावरहित अरहंतको 'पारणा करानेका फल ।
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जैन-रत्न wwwwwwwwwwwwwww. प्रतिमा धार अशोक खंड नामक उद्यानमें अशोक वृक्षके नीचे स्थित हुए। यहाँ चमरेन्द्रने प्रभुकी शरणमें आकर अपना जीवन बचाया।
दूसरे दिन प्रतिमा त्यागकर क्रमशः विहार करते हुए प्रभु भोगपुर नामके नगरमें आये । उसी गाँवमें माहेन्द्र नामका कोई क्षत्रिय रहता था। उसे प्रभुको देखकर ईर्ष्या हुई । बह उन्हें लकड़ी लेकर मारने चला । उसी समय वहाँ सनत्कुमारेन्द्र आया था। उसने माहेन्द्रको धमकाया। फिर वह प्रभुको बांदकर चला गया । ___ भोगपुरसे विहारकर प्रभु नंदी गाँव, और मेढक गाँव होकर कोशांबी नगरीमें आये। उस दिन पोस वदि एकमका दिन था। प्रभुने भीषण नियम लिया-कठोर अभिग्रह किया,-कोई सती राजकुमारी हो, किसीका दासीपन उसे मिला हो, उसके पैरोंमें बेड़ी हो, सिर मुंडा हुआ हो, सूपमें उड़दके बाकले लेकर, रोती
१--विभेल नामक गाँवमें एक धनिक रहता था। उसने लक्ष्मीका त्याग कर बालतप किया । उसके प्रभावसे, मरकर वह चमरचंचा नगरीमें एक सागरोपमकी आयुवाला इन्द्र हुआ । उसने अवधि ज्ञानसे अपनेसे अधिक वैभवशाली और सत्ताधारी शकेन्द्रको देखा । इसपर चमरेन्द्रको ईर्ष्या हुई। वह शकेन्द्रसे लड़ने सौधर्म देवलोक गया । शकेन्द्रने उसपर वज्र चलाया । वज्रको आते देख चमरेन्द्र भागा । वज्रने उसका पीछा किया । शकेन्द्र भी उसके पीछे चला । चमरेन्द्र लघु रूप धारकर प्रभुके पैरोंके बीचमें छिप गया । शकेन्द्रने अपने वज्रको पकड़ लिया और चमरेन्द्रको प्रभु-शरणागत समझकर क्षमा कर दिया।
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२४ श्री महावीर स्वामी-चरित
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हुई एक पैर दहेलीजके अंदर और एक बाहर रखे हुए मुझे आहार देनेको तैयार हो उसीसे मैं आहार लूँगा। आहारके लिए फिरते हुए करीब छः महीने गुजर गये तब प्रभुके अन्तराय कर्मके बंधन टूटे और धनावाह सेठके घर प्रभुका अभिग्रह पूरा हुआ। उन्होंने बिना आहार छः महीनेमें पाँच दिन रहे तब ज्येष्ठ सुदि ११ के दिन, उड़दके बाकलोंसे पारणा किया । देवताओंने वसुधारादि पंच दिव्य प्रकट किये ।
१-यह मिति पोस वदि १ से छः महीनेमें पाँच दिन कम यानी पाँच महीने और दस दिनकी गिन्ती कर लिखी गई है। ___२-चंपा नगरीमें दधिवाहन राजा था। उसकी राणी धारिणीकी कोखसे एक रूपवान और गुणवती कन्या जन्मी । उसका नाम वसुमति रक्खा गया । कोशांबीका राजा शतानीक था । उसकी रानी मृगावती पूर्ण धर्मात्मा थी। एक बार किसी कारणसे शतानीकने चंपा नगरीपर चढ़ाई की। दधिवाहन हार गया । शहर लूटा गया । राणी धारिणी और उसकी कन्या वसुमतीको एक सैनिक पकड़ ले गया। रास्तेमें सैनिककी कुदृष्टि धारिणीपर पड़ी। धारिणीने प्राण देकर अपनी आबरू बचाई । वसुमती कोशांबीमें बेची गई । धनावाह सेठ उसको खरीदकर अपने घर ले गया । उसे पुत्रीकी तरह पालनेकी अपनी सेठानीको हिदायत की । वसुमतीकी वाणी चंदनके समान शीतलता उत्पन्न करनेवाली थी। इससे सेठने उसका नाम चंदनबाला रक्खा । इसी नामसे वह संसार में प्रसिद्ध हुई । जब चंदनबाला बड़ी हुई, यौवनका विकास हुआ, सौन्दर्यसे उसकी देह कुंदनी चमकने लगी तब मूलाको ईर्ष्या हुई । सेठका चंदनबालापर विशेष हेत देखकर उसे वहम भी हुआ । उसने एक दिन, जब धनावाह कहीं चला गया था,, चंदनबालाको पकड़कर उसका सिर मुंडवा दिया और उसके पैरोंमें बेडी डालकर उसे गुप्त स्थानमें कैद कर दिया । धनावाहने वापिस आया तक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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जैन-रत्न
कोशांबीसे विहार कर प्रभु सुमंगल नामके गाँवमें आये । वहाँ सनत्कुमारेन्द्रने आकर प्रभुको वंदना की। __सुमंगल गाँवसे प्रभु सत्क्षेत्र गाँव आये । वहाँ माहेन्द्र कल्पके इन्द्रने आकर प्रभुको वंदना की। ___ सत्क्षेत्रसे प्रभु पालक गाँव गये । वहाँ भायल नामका कोई बनिया यात्रा करने जाता था । उसने प्रभुको आते देखा और अपशकुन समझ क्रुद्ध हो तलवार निकाली । सिद्धार्थ देवने उसकी तलवारसे उसीको मार डाला। पालक गाँवसे विहारकर प्रभु चंपानगरीमें आये और वि०
सं० ५०२ (ई. सन ५५९) पूर्वका चंपानगरीमें बारहवाँ बारहवाँ चौमासा वहीं किया। वहाँ चौमासा । स्वातिदत्त नामक किसी ब्राह्मणकी
हवनशालामें चार मास क्षमण कर रहे। वहाँ पूर्णभद्र और माणिभद्र नामके दो महर्द्धिक यक्ष आकर प्रभुकी पूजा किया करते थे। स्वातिदत्तने सोचा, जिनकी देवता चंदनबालाकी तलाश की। मूला मकान बंदकर कहीं चली गई थी। नौकरोंने सेठेके धमकानेपर चंदनबालाका पता बताया । सेठने उसे बाहर निकाला। खानेको उस समय उबले हुए उड़दके बाकले रक्खे थे, वे एक सूपमें डालकर उसे दिये और धनावाह लुहारको बुलाने गया । चंदनबाला दहलीजम खड़ी हो किसी अतिथिकी प्रतीक्षा करने लगी। उसी समय महावीर स्वामी आ गये और अपना अभिग्रह पूरा हुआ समझ बाकलोंसे पारणा किया। [ नोट-इसकी विस्तृत और सुंदर कथा ग्रंथभंडार माटुंगा द्वारा प्रकाशित “स्त्रीरत्न" नामक पुस्तकमें पढ़िए।]
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२४ श्री महावीर स्वामी-चरित
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आकर पूजा करते हैं, वे कुछ ज्ञान जरूर रखते होंगे । इसलिए उसने आकर प्रभुसे जीवके संबंध प्रश्न किये और संतोषप्रद उत्तर पाकर स्वातिदत्त प्रभुका भक्त बन गया। चंपानगरीसे विहारकर प्रभु जुंभक, मेढक गाँव होते हुए
षण्मानि गाँव आये । वहाँ गाँवके कानोंमें कीलें ठोकनेका बाहर कायोत्सर्ग करके रहे । उस उपसर्ग। समय, वासुदेवके भवमें शय्यापालक
के कानमें तपाया हुआ शीशा डालकर जो असाता वेदनीय कर्म उपार्जन किया था वह उदयमें आया । शय्यापालकका वह जीव इसी गाँवमें गवाल हुआ था। वह उस दिन प्रभुके पास बैलोको छोड़कर गायें दोहने गया । महावीर तो ध्यानमें लीन थे। वे कहाँ बैलोंकी रखवाली करते ? बैल जंगलमें निकल गये । गवालने वापिस आकर पूछा:-" मेरे बैल कहाँ हैं ?" कोई जवाब नहीं । " अरे क्या बहरा हैं ? " कोई जवाब नहीं । " अरे अधम ! कान हैं या फूट गये हैं ? " कोई जवाब नहीं । " ठहर मैं तुझे बराबर बहरा बना देता हूँ।" कहकर वह गया और 'शरकट' की मूखी लकड़ी काटकर लाया । उसको छीलकर बारीक कीलें बनाई और फिर उन्हें महावीर स्वामीके दोनों कानोंमें ठोक दीं । परंतु क्षमाके धारक महावीरने उसपर जरासा भी क्रोध न किया । वे इस तरह आत्मध्यानमें लीन रहे मानों कुछ हुआ ही नहीं है । कानोंसे बाहर निकला हुआ जो भाग था
१ इससे तीर बनते है !
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उसे भी उसने काट डाला, जिससे कीलें आसानी से न निकल सकेँ । गवाल चला गया ।
षण्मानि से विहार कर प्रभु मध्यम अपापा नगरीमें आये । और सिद्धार्थ नामक वणिकके घर गोचरीके लिए गये । बहाँ उसने प्रभुको आहारपानीसे, भक्तिसहित प्रतिलाभित किया । उस समय सिद्धार्थका खरक नामका एक वैद्य मित्र मौजूद था । उसने प्रभुके उतरे चहरेको देखकर रोगका अनुमान किया और जाँच करनेपर कानोंकी कीलं मालूम हुई । उसने सिद्धार्थको यह बात कही । उसने प्रभुका इलाज करनेकी ताकीद की।
प्रभु तो आहारपानी कर चले गये और उद्यानमें जाकर ध्यानरत हुए । खरक वैद्य और सिद्धार्थ सेठ दो संडासियाँ और दूसरी जरूरी दवाएँ लेकर प्रभुके पास गये । उन्होंने दोनों तरफ कानों में दवा लगाई और तब दोनोंने दोनों तरफ - से संडासियों से पकड़कर कीलें खींच लीं । प्रभुके मुखसे सहसा एक चीख निकल गई । वैद्यने कानोंके घावोंमें संरोहिणी नामक औषध लगा दी । फिर वे प्रभुसे क्षमा माँगकर चले गये । अपने शुभाशयोंसे और शुभ कामोंसे उन्होंने देवायुका बंध किया ।
महावीर स्वामीपर यह आखिरी परिसह था । परिसहोंका आरंभ भी गवाळसे हुआ और अंत भी गवालेहीसे हुआ ।
प्रभुके कानों में से जिस जंगलमें कीलें निकाली गई थीं उसका नाम महाभैरव हुआ । कारण कीलें निकालते समय प्रभुके मुखसे भैरवनाद ( भयानक आवाज ) हुआ था । लोगोंने उस जगह एक मंदिर भी बनवाया था ।
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२४ श्री महावीर स्वामी-चरित
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वहाँसे विहार कर प्रभु जुंभक नामक गाँवके पास आये ।
और वहाँ ऋजुपालिका नदीके उत्तर केवलज्ञानकी प्राप्ति तटपर शामाक नामक किसी गृहस्थके
खेतमें, एक जीर्ण चैत्यके पास शालतरुके नीचे छह तप करके रहे और उत्कटिकोसनसे आतापना करने लगे। वहाँ विजय मुहूर्तमें, शुक्ल ध्यानमें लीन महावीर स्वामी क्षपक श्रेणीमें आरूढ हुए और उनके चार घाति काँका नाश हो गया। वि० सं०५०१ (ई. सन ५०८) पूर्व वैशाख सुदि १० के दिन चंद्र जब हस्तोत्तरा नक्षत्रमें आया था दिनके चौथे पहरमें महावीर स्वामीको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । इन्द्रादि देवोंने आकर केवल-ज्ञान-कल्याणक मनाया । यहाँ समवशरणमें बैठकर प्रभुने देशना दी; परंतु वहाँ कोई विरति परिणामवाला न हुआ। यानी किसीने भी व्रत अंगीकार नहीं किया । देशना निष्फल गई । तीर्थकरोंकी देशना कभी निष्फल नहीं जाती परंतु महावीर स्वामीकी यह पहली देशना निष्फल गई । शास्त्रकारोंने इसे एक आश्चर्य माना है।
१ बंगालमें पारसनाथ हिलके पास इस नामकी एक नदी है ।
२ मनुष्य जैसे गाय दुहने बैठता है वैसे बैठकर ध्यान करनेको उत्कटिकासन कहते हैं।
१ शास्त्रों में ऐसे दस आश्चर्य माने गये हैं । वे इस प्रकार हैं।
(१) तीर्थकर केवलीका पीडा-एक बार विहार करते हुए वीर प्रभु श्रावस्ती नगरी में समोसरे । उसी समय गोशालक भी वहाँ आया। वह कहता था-"मैं जिन हूँ।" महावीर स्वामीको गौतम गणधरने पूछा:
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“क्या यह जिन है ?" महावीरने कहा:-“ नहीं। वह मंखका पुत्र है। मेरेपास छः बरसतक मेरे शिष्यकी तरह रहकर बहुश्रुत हुआ है।" गोशालकको यह बात मालूम हुई । इससे नाराज होकर उसने महावीर पर तेजोलेश्या रक्खी। इससे महावीरको छः महीने तक कष्ट उठाना पड़ा। तीर्थकरोंको केवली होनेके बाद कभी कोई कष्ट नहीं उठाना पड़ता परंतु महावीरको उठाना पड़ा यह एक आश्चर्य हुआ।
(२) गर्भ हरण-पहले किन्हीं जिनेश्वरका गर्भ संक्रमण नहीं हुआ; परंतु महावीरका हुआ । यह दूसरा आश्चर्य है।
(३) स्त्री तीर्थकर तीर्थकर हमेशा पुरुष ही होते है; परंतु मल्लि. नाथजी स्त्री तीर्थकर हुए । यह तीसरा आश्चर्य है।।
(४) निष्फल देशना-तीर्थकरोंका उपदेश कभी निष्फल नहीं जाता । मगर महावीर स्वामीका गया । यह चौथा आश्चर्य है।
(५) दो वासुदेवोंका मिलना-एक बार नारद पांडवोंकी भावी पत्नी द्रौपदीके पास मिलने चले गये । नारदका द्रौपदीने सम्मान नहीं किया। इससे नाराज होकर धातकी खंडके अपर कंकाके राजा पद्मोत्तरको द्रौपदीके रूपका वर्णन सुनाया । पद्मोत्तर देवकी सहायतासे सोती हुई द्रौपदीको उठा ले गया । कृष्णको यह बात मालूम हुई । वे पांडवों सहित गये और पद्मोत्तरको हराकर द्रौपदीको ले आये। लौटते समय उन्होंने शंखनाद किया । वहाँ कपिल वासुदेव था। उसने भी समुद्र किनारे आकर शंखनाद किया । इस तरह दो वासुदेव एक स्थानपर एकत्र हुए। यह पाँचवाँ आश्चर्य है।
(६) सूर्य और चंद्रका आना-श्रावस्ती नगरी में सूरज और चाँद अपने मूल विमानों सहित महावीरके दर्शन करने आये थे । यह छठा आश्चर्य है।
(७) युगलियोंका इस क्षेत्रमें आना-कौशांबीका राजा वीरक नामके जुलाहेकी वनमाला नामकी सुंदर स्त्रीको उठा ले गया। जुलाहा दुःख Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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२४ श्री महावीर स्वामी-चरित
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wmmmmmmmmmmmmm महावीर स्वामीपर तीन कारणोंसे उपसर्ग किये गये । (१)
उनकी महत्ताका नाश करनेके लिए। उपसगोंके कारण और कर्ता इनमें शूलपाणी और संगम इन
दोनों देवोंके और चंडकौशिकके उपसर्ग हैं । (२) पूर्वभवका वैर लेनेके लिए । इनमें सुदंष्ट्रका,
और क्रोधसे पागलसा वनमाला वनमाला, पुकारता हुआ इधर उधर फिरने लगा। एक दिन वह राजमहलोंमें इसी तरह पुकारता हुआ गया । दैवयोगसे उसी समय राजा और वनमाला बिजली पड़नेसे मर गये । उनका मरना जान, वीरकका चित्त स्थिर हुआ । वह वैराग्यमय जीवन बिताने लगा।
राजा और वनमाला मरकर हरिवर्ष क्षेत्रमें युगलिया जन्मे । वीरक भी मरकर वहीं व्यंतरदेव हुआ । उसने विभंगाज्ञानसे इस युगल जोड़ीको पहचाना और उनको, नरक गतिमें डालनेके इरादेसे, इस क्षेत्रमें ले आया
और उनके शरीर व आयु कम कर दिये। उनके नाम हरि और हरिणी रक्खे । उन्हें सप्त व्यसनोंमें लीन किया । और तब वह अपने स्थानपर चला गया। हरि और हरिणी व्यसनोंमें तल्लीन मरे और नरकमें गये । इस तरह वीरकने उनसे वैर लिया। उनके वंशमें जो जन्मे वे हरिवंशके कहलाये।
युगालिये न कभी इस क्षेत्रमें आते हैं और न उनकी आयु या देह ही कम होते हैं; परंतु ये दोनों बातें हुई। यह सातवाँ आश्चर्य है।
(८)चमरेंद्रका सुधर्म देवलोकमें जाना—पातालमें रहनेवाले असुर कुमारोंका इन्द्र कभी ऊपर नहीं जा सकता परंतु चमरेंद्र गया। यह आठवाँ आश्चर्य है।
(९) उत्कृष्ट अवगाहनावालोंका एक समय मोक्षमें जानाउत्कृष्ट अवगाहनावाले १०८ एक समयमें मोक्ष नहीं जाते; परंतु इस
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वाणव्यंतरीका और कानों में कीलें ठोकनेवाले गवालके उपसर्ग हैं । (३) वहमके कारण । लोगोंने, यह समझकर कि इन्होंने हमारी अमुक वस्तु दबा ली है, ये किसीके गुप्तचर हैं, अथवा इनका शकुन अशुभ हुआ है, इनको पानीमें डाला, पकड़ा या पीटनेको तैयार हुए या पीटा । इनमें गवालका लुहारका और म्लेच्छोंके उपसर्ग हैं। __उपसग करनेवालोंमें देव, मनुष्य और तिर्यंच सभी हैं। इन उपसर्गोंमें अनेक उपसर्ग ऐसे हैं जिन्हें यदि महावीर चाहते तो टाल सकते थे । जैसे म्लेच्छोंके उपसर्ग और चंडकौशिकके उपसर्ग । उपसर्ग, यदि शांतिसे सहन किये जायें तो, कर्मोको नाश करनेका रामबाण इलाज हैं । इस बातको महावीर जानते थे, और इसीलिए उन्होंने उनका आह्वाहन किया, शांतिसे उन्हें सहा, अपने कर्मोको क्षय किया, वे जगत्वंद्य बने और अनंत शांति एवं सुखके अधिकारी बने । अवसर्पिणीमें ऋषभदेव, भरत सिवाय उनके ९९ पुत्र और भरतके आठ पुत्र ऐसे १०८ उत्कृष्ट अवगाहनावाले एक समयमें मोक्ष गये । यह नवाँ आश्चर्य है।
(१०) असंयमियोंकी पूजा-आरंभ और परिग्रहमें आसक्त रहनेवालोंकी कभी पूजा नहीं होती; परंतु नवें और दसवें जिनेश्वरके बीचके कालमें हुई । यह दसवाँ आश्चर्य है।
इनमेंसे ९ वाँ ऋषभदेवके समयमें, ७ वाँ शीतलनाथजीके समयमें, ५वाँ श्रीनेमिनाथजीके तीर्थमें, ३ रा मल्लिनाथजीके तीर्थमें १० वाँ सुविधिनायजीके तीथमें और शेष महावीरके समयमें ये सब आश्चर्य हुए। (कल्प सूत्रसे)
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२४ श्री महावीर स्वामी-चरित
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महावीर स्वामीने हमेशा शुभ मनोयोग, शुभ वचनयोग और शुभ काययोगसे प्रवृत्ति की । अशुभ मन, वचन और कायके योगोंको हमेशा रोका । कभी ऐसा विचार न किया जो दूस. रेको हानि पहुँचानेका कारण हो, कभी ऐसा शब्द न बोले जिससे किसीका अन्तःकरण दुखी हो और कभी शरीरके किसी भी अंगको इस तरह काममें न लाये जिससे कि छोटेसे छोटे प्राणीको भी कोई तकलीफ पहुँचे । न कभी भयंकरसे भयंकर आघात और प्राणांत संकटके सामने ही उन्होंने सिर झुकाया और न कभी स्वर्गीय प्रलोभनमें ही वे मुग्ध हुए। वे सदा काँको खपानेमें लीन रहे । बारह बरस तक उन्होंने बिना शस्त्र, बिना कषाय और बिना किसी इच्छाके भयंकर युद्धं किया । सारी दुनियाको अपनी अंगुलियोंपर नचानेवाले कर्मोंसे युद्ध किया, उन्हें हराया और विजेता बन महावीर कहलाये । केवलश्रीने-जो घातिकर्मोकी आडमें खड़ी थी-आगे बढ़कर उन्हें वरमाला पहनाई । वे आत्मलक्ष्मीको प्राप्तकर जगत्का उपकार करनेके लिए समवसरणके सिंहासन पर जा बिराजे । महावीर स्वामीके गुणोंका उपमाएँ देकर, बहुत ही सुंदर उपमाएँ। वर्णन कल्पसूत्र में किया गया है।
उस का अनुवाद हम यहाँ देते हैं। १-जैसे काँसेका पात्र जलसे नहीं लींपा जाता उसी तरह वे भी स्नेह-जलसे न लौंपे गये । निर्लेप रहे ।
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जैन-रत्न
२-जैसे शंख रंगसे नहीं रँगा जाता वैसे ही प्रभु भी किसी दुनियवी रंगसे न रँगे गये । वे निरंजन रहे ।
३-वे सभी स्थानोंमें उचित रूपसे अस्खलित विहार करते थे और संयममें अस्खलित वर्तते थे इसलिए वे जीवकी तरह अस्खलित गतिवाले थे।
४-वे देश, गाँव, कुल आदि किसीके भी आधारकी इच्छा नहीं रखते थे इसलिए वे आकाशकी तरह आधारहीन निरालंबी थे।
५-किसी भी एक जगहपर नहीं रहनेसे वे वायुकी तरह बंधन-हीन थे।
६-कलुषता- मनमें किसी तरहकी मलिनता-न रखनेवाले होनेसे वे शरद् ऋतुके-जलकी तरह निर्मल हृदयी थे। __७-सगे संबंधियोंका या कर्मका मोहजल उनपर नहीं ठहर सकता था इसलिए वे संसार-सरोवरमें कमलके समान थे।
८-कछुआ जैसे अपने अंगोंको छिपाकर रखता है, वैसे ही उन्होंने इन्द्रियोंको छुपाकर रखा था, इसलिए वे इन्द्रियगोप्ता थे। ___९-गेंडेके जैसे एक ही सींग होता है वैसे ही रागद्वेषहीन होनेसे वे गेंडेके सींगकी तरह एकाकी थे ।
१०-परिग्रह रहित और अनियत निवास होनेसे वे पक्षीकी तरह स्वतंत्र थे। . ११- थोड़ासा भी प्रमाद नहीं करनेवाले भारंड पक्षीकी तरह वे अप्रमादी ये
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२४ श्री महावीर स्वामी-चरित ३७३ ११-कर्मरूपी शत्रुओंके लिए वे गजराज थे ।
१२-स्वीकृत महाव्रतके भारको वहन करनेके लिए वे वृषभकी तरह पराक्रमी थे।
१३-परिसहादि पशुओंके लिए वे दुर्धर्ष सिंह थे । १४-अंगीकार किये हुए तप और संयममें दृढ रहनेसे और उपसर्गरूपी झंझावातसे भी चलित न होनेसे वे निश्चल सुमेरु थे।
१५-हर्ष और विषादके कारण प्राप्त होते हुए भी विकारहीन होनेसे वे गंभीर सागर थे ।
१६-हरेकके अन्तःकरणको शांतिप्रदान करनेवाली भावनावाले होनेसे वे सौम्य चंद्रमा थे।
१७-द्रव्यसे शरीरकी कांतिद्वारा और भावसे उज्ज्वल भावनाद्वारा देदीप्यमान होनेसे वे प्रखर सूर्य थे ।
१८-कर्ममलके नष्ट हो जानेसे वे निर्मल स्वर्ण थे ।
१९-शीत उष्णादि सभी प्रतिकूल और अनुकूल परिसहोंको सहन करनेसे वे क्षमाशील पृथ्वी थे ।
२०-ज्ञान और तपरूपी ज्वालासे प्रदीप्त वे जाज्वल्यमान अग्नि थे। ___ महावीर स्वामीने दीक्षा ली उसके बाद वे बारह वर्ष छः महीने और एक पक्ष तक यानी ४५१५ दिन तक छद्मस्थ रहे। इतने समयमें उन्होंने ३५१ तप किये, ४१६५ दिन निराहार रहे और ३५० दिन अन्न जल ग्रहण किया । उनका ब्योरा इम नीचे देते हैं।
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३७४.
जैन-रत्न
तपोंके नाम
संख्या
| सब मिलाकर | पारणोंकी दिनोंकी संख्या संख्या
१८० १७५ १०८०
पूर्ण छः मासी पाँच दिन कम छ: मासी चौमासी त्रिमासी ढाई मासी द्विमासी डेढ मासी मासिक पाक्षिक
or oron o wa
ora orr pure
१५०
१०८०
अहम
४५८
भद्र प्रतिमा महाभद्र प्रतिमा · सर्वतोमद्र प्रतिमा
| ३५१ । १६५ G | ३५०x F तप २२९ हैं परंतु पारणे २२८ ही हुए हैं। इसका कारण यह है कि आखिरी छ? तपका पारणा केवलज्ञान होनेबाद किया था।
x प्रतिमाओंमे दो पारणे अधिक माने गये हैं। परंतु ऐसा किये बिना दिनोंका हिसाब नहीं बैठता । गुजराती महावीर स्वामि चरित्रके लेखक श्री नंदलाल लल्लूभाईने भी ३५० पारणे ही माने हैं। यह गिन्ती तीस दिनका महीना मानकर दी गई है।
G आजकल यह शंका स्वाभाविक उत्पन्न होती है कि, मनुष्य अन्नजलके बिना जी कैसे सकता है ? बेशक निर्बल मनवालोंके लिए यह बहुत कठिन बात है। जहाँ एक बार भूखा रहना भी बहुत कठिन मालूम होता है वहाँ इतने उपवासोंकी कल्पना भी कैसे की जा सकती
है; परंतु अन्य धर्मोंके ग्रंथ और वर्तमानके उपवासचिकित्सा शास्त्री Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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२४ श्री महावीर स्वामी-चरित
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कहते हैं कि यह कोई कठिन बात नहीं है। कुछ प्रमाण हमारे इस कथनकी पुष्टिके लिए हम यहाँ देते हैं।
(१) स्वायंभू मनु नामके राजा हुए हैं । उन्हींसे मनुष्य सृष्टि चली है । उनको राज्य करते बहुत बरस बीत गये और जब उनका चौथापन आया तब उन्होंने वनमें जाकर घोर तप करना आरंभ किया । छः हजार बरस तक वे केवल जलपर रहे । फिर वे केवल वायुके आधारपर सात हजार बरस तक रहे।
(तुलसीकृत रामायण बालकांड ) (२) पं० रामेश्वरानंदजी बंबईमें एक प्रसिद्ध वैद्य हैं । उन्होंने दस बरसमें ३८५ उपवास किये हैं। उनका ब्योरा ईस प्रकार है
(१) सन १९२२ में ता. ११ से ३१ अक्टोबर तक २१ (२) सन १९२३ म ता. १२ जनवरी से ता. १४ फरवरी तक ३४ (३) सन १९२३ म ता. २७ अगस्तसे ता, २५ सितंबर तक ३० (४) सन १९२४ में ता.११ जनवरीसे ता. १३ फरवरी तक ३४ (५) सन १९२५ म ता. १ जनवरीसे ३१ जनवरी तक ३१ (६) सन १९२६ में ता. २५ जूनसे ता. २५ जुलाई तक ३० (७) सन १९२७ म ता. १५ जुलाईसे ता. २३ अगस्त तक ४० (८) सन १९२८ म ता. २८ जुलाईसे ता. १० सितंबर तक ४० (९) सन १९२९ म ता. १८ जनवरीसे ता. २६ फरवरी तक ४० (१०) सन १९३० म ता. २६ जुलाईसे ता. ८ सितंबर तक ४४ (११) सन १९३१ में ता. ३० जूनसे ता. १४ अगस्ततक ४५
कुल उपवास
३८९ इनकी उम्र सत्तर और अस्सीके बीचमें है।
३-श्रीयुत नाथूरामजी प्रेमीनें खाँसी और श्वासकी बीमारी किसी तरह अच्छी न होते देख २५ उपवास किये। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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इस कोष्ठकसे महावार स्वामीका भोजन करनेका वार्षिक औसत ( सरासरी) २८ दिन आता है ।
४-श्रीनाथूरामजीके पुत्र हेमचंद्रसे सन १९२४ में २६ उपवास कराये गये । उस समय उसकी उम्र केवल १४ बरसकी थी।
(४) अलबर्ट बीट नामक सज्जन २८ बरसतक बीमारीके कारण बिस्तरपर पड़े रहे। किसी तरह अच्छे न हुए। उन्होंने ४६ दिनतक उपवास किया आर वे बिल्कुल अच्छे हो गये।
(५) एक ईसाई महात्माके मित्रकी स्त्री मर गई थी। वह बहुत दुखी हुआ । उसने मरनेका इरादा कर अन्नजल छोड़ दिया । ७० दिन. तक उपवास करनेपर भी वह न मरा। (उपवास चिकित्सा )
(६) आचार्य श्री वल्लभविजयजीके शिष्य तपस्वी गुणविजयजीने एक सालतक तेले तेलेके पारणेसे भोजन किया और इस तरह साल भरके ३६० दिनमेंसे केवल ९० दिन आहारपानी लिये और २७० दिन निराहार रहे।
(७) आयरलैंडके प्रसिद्ध देशभक्त टेरेन्स मेक्खिनी ७२ दिन तक अन्नजलके बगैर जीता रह सका।
(८) जतीन्द्रनाथ लाहोरकी जेलमें ४२ दिनतक बगैर अन्न जलके रह सका था । पीछे मरा।
(९) सन १९३१ में पूज जवाहरलालीके शिष्य देवीलालजीने (2) उदयपुरमें ७२ दिनके और पूज चौथमलजीके २ शिष्योंने बंबईमें ५४ और ४२ दिनके उपवास किये थे।
इस तरह हम देखते हैं कि आज भी उपवास करना कोई असंभव बात नहीं है । मनकी दृढतावाला मनुष्य सरलतासे उपवास कर सकता है और उनसे वह मानसिक और शारीरिक रोगोंसे मुक्त हो सकता है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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महावीर स्वामीको केवलज्ञान होनेके बाद पहले दिन उन्होंने
जो देशना दी वह निष्फल गई । महावीर स्वामीको विद्वान वहाँसे विहारकर प्रभु अपापा नामक शिष्योंकी प्राप्ति नगरमें आये। वहाँ शहरके बाहर
महासेन वनमें देवताओंने समवसरणकी रचना की । बत्तीस धनुष ऊँचे चैत्यक्षके तीन प्रदक्षिणा दे, 'तीर्थायनमः' कह आहती मर्यादाके अनुसार प्रभु सिंहासनपर बिराजे । नर, देव, पशु सभी अपने अपने स्थानोंपर बैठे । फिर महावीर स्वामीने संसारसागरसे तैरनेका मार्ग बताया । अनेक भव्य लोगोंने उस मार्गपर चलना स्थिर किया ।
उन्हीं दिनों सोमिल नामके एक धनिक ब्राह्मणने अपापामें यज्ञ आरंभ किया था । यज्ञकर्म करानेके लिए इन्द्रभूति, अग्निभूति आदि११ विद्वान ब्राह्मण आये थे। जिस समय यज्ञ चल रहा था उसी समय देवता महावीर स्वामीका दर्शन करने आ रहे थे । देवताओंको देख इन्द्रभूतिने ब्राह्मणोंको कहा:-" अपने यज्ञका प्रभाव तो देखो कि, मंत्रबलसे खिचे हुए देवता अपने विमानों में बैठ बैठकर चले आ रहे हैं।"
मगर देवता तो यज्ञभूमिको छोड़कर आगे चले गये । तब बाहरसे आये हुए एक मनुष्यने कहा:-"शहरके बाहर एक सर्वज्ञ आये हुए हैं । देव उन्हींकी वंदना करने और उनका उपदेश सुनने जा रहे हैं । सर्वज्ञका नाम सुनते ही इन्द्रभूति क्रोधसे जल उठा । वह बोला:--"कोई पाखंडी
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जैन-रत्न wwwmammm लोगोंको ठगता होगा । मैं अभी जाकर उसकी सर्वज्ञताकी पोल खोलता हूँ।"
क्रोधसे भरा हुआ । इन्द्रभूति समवसरणमें पहुँचा । मगर महावीरकी सौम्य मूर्ति देखकर उसका क्रोध ठंडा हो गया । उसके हृदयने पूछा:--"क्या सचमुच ही ये सर्वज्ञ हैं ?" उसी समय सुधासी वाणीमें महावीर बोले:--"हे वसुभूतिसुत इन्द्रभूति ! आओ ।" इन्द्रभूतिको आश्चय हुआ,- ये मेरा नाम कैसे जानते हैं ? उसके मनने कहा,-तुझे कौन नहीं जानता है ? तू तो जगत्मसिद्ध है। ___ इतनेहीमें जलद गंभीर वाणी सुनाई दी:-“हे गौतम ! तुम्हारे मनमें शंका है कि, जीव है या नहीं?" अपने हृदयकी शंका बतानेवालेके सामने इन्द्रभूतिका मस्तक झुक गया । मगर जब महावीरने शंकाका समाधान कर दिया तब तो इन्द्रभूति एक दम महावीरके चरणोंमें जा गिरे और उन्होंने अपने ५०० शिष्योंके साथ दीक्षा ले ली।
१-इन्द्रभूतिके पिताका नाम वसुभूति और माताका नाम पृथ्वी था। उनका गोत्र ‘गौतम' था और जन्म मगध देशके गोबर गाँवमें हुआ था। इनकी कुल आयु ९२ वर्षकी थी। ये ५० बरस गृहस्थ, ३० बरस छद्मस्थ साधु और १२ बरस केवली रहे थे । इन्द्रभूतिके दूसरे दो भाई और थे । उनके नाम अग्निभूति और वायुभूति थे । वे भी पीछेसे महावीरके शिष्य हुए थे। अग्निभूतिकी आयु ७४ बरसकी थी । वे ४६ बरस गृहस्थ १२ छद्मस्थ साधु और १६ बरस केवली रहे थे। वायुभूतिकी आयु ७० बरसकी थी। वे ४२ बरसतक गृहस्थ, १० बरस तक छद्मस्थ साधु और १८ बरस तक केवली थे । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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इन्द्रभूतिके छोटे अग्निभूतिने सुना कि इन्द्रभूति महावीरका शिष्य हो गया है तो उसे बड़ा क्रोध आया। वह भी अपने पाँच सौ शिष्योंको साथ ले महावीरको परास्त करने गया। मगर समवसरणमें पहुँचनेपर उसका दिमाग भी ठंडा हो गया । महावीर बोले:-“हे अग्निभूति ! तुम्हारे मनमें शंका है कि कर्म है या नहीं ?" अगर कर्म हो तो वह प्रत्यक्षादि प्रमाणसे अगम्य और मूर्तिमान है । जीव अमूर्त है । अमूर्त जीव मूर्तिमान कर्मको कैसे बाँध सकता है ?"
तुम्हारी यह शंका निर्मूल है । कारण,-अतिशय ज्ञानी पुरुष तो कर्मकी सत्ता प्रत्यक्ष जान सकते हैं, परंतु तुम्हारे समान छद्मस्थ भी अनुमानसे इसे जान सकते हैं । कर्मकी विचित्रतासे ही संसारमें असमानता है। कोई धनी है और कोई गरीब; कोई राजा है और कोई रैयत; कोई मालिक है
और कोई नौकर; कोई नीरोग है और कोई नौकर । इस असमानताका कारण एक कर्म ही है । ___ अग्निभूतिके हृदयकी शंका मिट गई और वे भी अपने ५०० शिष्यों के साथ महावीरके शिष्य हो गये ।
'मेरे दोनों भाइयोंको हरानेवाला अवश्य सर्वज्ञ होगा' यह सोच, वायुभूति शांत मनके साथ अपने शिष्योंके साथ समवसरणमें गया और प्रभुको नमस्कार कर बैठा । महावीर बोले:- "हे वायुभूति ! तुम्हें जीव और शरीरके संबंध भ्रम है । प्रत्यक्षादि प्रमाण जिसे ग्रहण नहीं कर सकते वह
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जीव शरीरसे भिन्न कैसे हो सकता है ? जैसे पानीसे बुद्धदा उठता है और वह पानीहीमें लीन हो जाता है वैसे ही जीव भी शरीरहीसे पैदा होता है और उसीमें लीन हो जाता है । मगर तुम्हारी धारणा मिथ्या है । कारण,__ यह जीव देशसे प्रत्यक्ष है । इच्छा वगैरा गुण प्रत्यक्ष होनेसे जीव स्वसंविद् है; यानी उसका खुदको अनुभव होता है । जीव देह और इन्द्रियसे भिन्न है । जब इन्द्रियाँ नष्ट हो जाती हैं तब वह इन्द्रियोंको स्मरण करता है और शरीरको छोड़ देता है।
वायुभूतिका संदेह जाता रहा और उसने भी अपने ५०० शिष्यों के साथ दीक्षा लेली। __ व्यक्तने जब ये समाचार सुने तो वे भी महावीरके पास गये । महावीर बोले:--" हे व्यक्त, तुम्हारे दिलमें यह शंका है कि, पृथ्वी आदि पंचभूत हैं ही नहीं । वे हैं ऐसा जो भास होता है वह जलमें चंद्रमा होनेका भास होनेके समान है । यह जगत शून्य है । वेदवाक्य है कि 'इत्येश ब्रह्मविधिरञ्जसाविज्ञेयः' अर्थात यह सारा जगत स्वपके समान है । और इस वाक्यका तुमने यह अर्थ कर
१-ये कोल्लाक गाँवके रहनेवाले थे। इनके पिताका नाम धनुर्मित्र और माताका नाम वारुणी था । इनका गोत्र भारद्वाज था । इनकी आयु ८० बरसकी थी । ये ५० वरस तक गृहस्थ, १२ बरस तक छद्मस्थ साधु और १८ बरस तक केवली रहे ।
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लिया है कि सब शून्य है-कुछ नहीं है । यह तुम्हारी भ्रांति है । असलमें इसका अभिप्राय यह है कि, जैसे सपनेके अंदर की बातें व्यर्थ होती हैं । इसी तरह इस दुनियाका सुख भी व्यर्थ होता है। यह सोचकर मनुष्यको आत्मध्यानमें लीन होना चाहिए।" .
व्यक्तका संशय मिट गया और उनने भी अपने ५०० शिष्यों सहित महावीर स्वामीके पास दीक्षा ले ली। .
व्यक्तके समाचार सुनकर उपाध्याय सुधर्मा भी महावीर स्वापीके पास गये । प्रभुने उनको कहा:- "हे सुधर्मा ! तुम्हारे मनमें परलोकके विषयमें शंका है । तुम्हारी धारण है कि जैसे गेहूँ खादमें मिलकर गेहूँरूपमें और चावल खादमें मिलकर चावल रूपमे पैदा होता है वैसे ही मनुष्य भी मरकर मनुष्यरूपहीमें जन्मता है; परंतु यह तुम्हारी धारणा भूलभरी है। मनुष्य योग और कषायके कारण विविधरूप धारण करता है । वह जिस तरहकी भावनाओंसे प्रेरित होकर आचरण करता है वैसा ही जन्म उसे मिलता है । यदि वह सरलता और मृदुताका जीवन बिताता है तो वह फिरसे मनुष्य होता है, यदि वह कटुता और वक्रताका जीवन बिताता है तो वह पशुरूपमें जन्मता है और यदि उसका जीवन परोपकार परायण होता है तो वह देव बनता है।"
१ इनके पिताका नाम धम्मिल और माताका नाम भद्रिला था। अग्निवैश्यायन गोत्रके ये ब्राह्मण थे और कोल्लाक गाँवके रहनेवाले थे। इनकी उम्र १०० बरसकी थी। ये ५० बरस तक गृहस्थ ४२ बरस तक छद्मस्थ साधु और ८ बरस तक केवली रहे ।
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सुधर्माकी शंका मिट गई और उन्होंने भी अपने ५०० शिष्योंके साथ महावीर स्वामीके पाससे दीक्षा ले ली।
उनके बाद मंडिक महावीरके पास आये । प्रभुने कहा:" हे मंडिक, तुमको बंध और मोक्षके विषयमें संशय है। यह संशय वृथा है । कारण, यह बात बहुत ही प्रसिद्ध है कि बंध
और मोक्ष आत्माको होता है। मिथ्यात्व और कषायोंके द्वारा कर्मोंका आत्माके साथ जो संबंध होता है उसे बंध कहते हैं
और इसी वंधके कारण जीव चार गतिमें परिभ्रमण करता है व दुःख उठाता है । सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यग्चारि
के द्वारा आत्माका कमोंसे जो संबंध छूट जाता है उसे मोक्ष कहते हैं। मोक्षसे प्राणीको अनंत सुख मिलता है । जीव और कर्मका संयोग अनादि सिद्ध है। आगसे जैसे सोना और मिट्टी अलग हो जाते हैं वैसे ही ज्ञान दर्शन और चारित्ररूप अग्निसे आत्मा और कर्म अलग हो जाते हैं।
मंडिकका संशय जाता रहा और उन्होंने अपने ३५० शिष्यों के साथ दीक्षा ले ली।
१ मंडिकके पिताका नाम धनदेव और माताका नाम विजयदेवा था । ये मौर्य गाँवके रहनेवाले वशिष्ट गोत्रीय ब्राह्मण थे । इनका जन्म होते ही धनदेवकी मृत्यु हो गई थी । इसलिए विधवा विजयदेवासे धनदेवके मासियात भाई मौर्यने ब्याह कर लिया था। मंडिककी उम्र ८३ । बरसकी थी। ये ५३ बरस गृहस्थ, १४ बरस छद्मस्थ साधु और १६ बरस केवली रहे ।
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mmmmmmmm उनके बाद मौर्यपुत्र अपने शिष्यों के साथ महावीरके पास आये । प्रभु बोले:-" हे मौर्यपुत्र ! तुमको देवताओंके विषयमें संदेह है । मगर वह संदेह मिथ्या है । इस समवसरणमें आये हुए इन्द्रादि देव प्रत्यक्ष हैं । इनके विषयमें शंका कैसी ?" मौर्यपुत्रका भी संदेह मिट गया और उन्होंने भी अपने ३५० शिष्योंके साथ दीक्षा ले ली। ___ उनके बाद अकंपिते शिष्यों सहित प्रभुके पास आये । प्रभु बोले:-" हे अकंपित ! तुमको नारकी जीवोंके संबंध शंका है । परंतु नारकी जीव हैं। वे बहुत परवश हैं । इसलिए यहाँ नहीं आ सकते हैं और मनुष्य वहाँ जा नहीं सकते । इसलिए सामान्य मनुष्यको उनका ज्ञान नहीं हो सकता। सामान्य मनुष्य युक्तियोंसे उन्हें जान सकता है । क्षायिक ज्ञानवाला उन्हें प्रत्यक्ष देख सकता है। कोई क्षायिक ज्ञानवाला है ही नहीं
१ इनके पिताका नाम मौर्य और इनकी माताका नाम विजयदेवा था। ये मौर्य गाँवके रहनेवाले काश्यप गोत्रके ब्राह्मण थे। इनकी उम्र ८३ बरसकी थी। ये ६५ बरस गृहस्थ, २ वरस छद्मस्थ
और १६ बरस केवली रहे थे। विजयदेवा मंडिकके पिता धनदेवकी पत्नी थी; मगर विधवा हो जानेके बाद उसने मौर्य के साथ शादी कर ली थी। इससे जान पड़ता है कि उस समय ब्राह्मणोंमें भी विधवाका पुनर्लग्न करना अनुचित नहीं समझा जाता था। .. २ अकंपितके पिताका नाम देव और इनकी माताका नाम जयंती था । ये विमलपुरीके रहनेवाले गौतम गोत्रीय ब्राह्मण थे। इनकी उम्र ७८ बरसकी थी। ये ४५ बरस गृहस्थ, ९ बरस छद्मस्थ और २१ बरस केवली रहे।
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यह शंका भी बिल्कुल व्यर्थ है। क्योंकि मैं क्षायिक ज्ञानी प्रत्यक्ष यहाँ मौजूद हूँ।" ___ अकंपितकी शंका मिट गई और उन्होंने अपने २०० शिष्यों के साथ दीक्षा ले ली। ___ उनके बाद अचलभ्रांता अपने शिष्यों सहित महावीरके पास आये । प्रभु बोले:-“हे अचलभ्राता! तुम्हें पाप पुण्यमें संदेह है। मगर यह शंका मिथ्या है । कारण, इस दुनियामें पाप पुण्यके फल प्रत्यक्ष हैं। संपत्ति, रूप, उच्च कुल, लोकमें सन्मान अधिकार
आदि बातें पुण्यका फल हैं। इनके विपरीत दरिद्रता, कुरूप, नीच कुल, लोकमें अपमान इत्यादि बातें पापका फल हैं।"
अचल भ्राताकी शंका मिट गइ और उन्होंने अपने ३०० शिष्योंके साथ दीक्षा ले ली।
उनके बाद मेतार्य प्रभुके पास आये। प्रभु बोले:-"हे मेतायें ! तुमको परलोकके विषयमें शंका है। तुम्हारा खयाल है कि, आत्मा पंच भूतोंका समूह है । उनका अभाव होनेसे
१ अचलभ्राताके पिताका नाम वसु और उनकी माताका नाम नंदा था। वे कोशल नगरीके रहनेवाले हारीत गोत्रीय ब्राह्मण थे। उनकी उम्र ६२ बरसकी थी। वे ४६ बरस गृहस्थ, १२ बरस छद्मस्थ
और २४ बरस केवली रहे थे। __२ मेतार्यके पिताका नाम दत्त और इनकी माताका नाम करुणा था। ये वत्स देशके तुंगिक नामक गाँवमें रहनेवाले कौडिन्य गोत्रीय ब्राह्मण थे । इनकी उग्र ६२ बरसकी थी। ये ३६ बरस गृहस्थ, १० बरस छद्मस्थ और १६ बरस केवली रहे थे।
३ हिन्दुशास्त्रोंमे पृथ्वी, जल, वायु, अभि और आकाशको पंच भूत माना है।
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यानी समूहके बिखर जानेसे आत्मा भी नष्ट हो जाता है । जब आत्मा ही नहीं रहता तो फिर परलोक किसको मिलेगा ? मगर तुम्हारी यह शंका आधारहीन है । कारण,-जीव पंच भूतोंसे जुदा हैं । पाँच भतोंके एकत्र होनेसे कभी चेतना नहीं उपजती। चेतना जीवका धर्म है और वह पंच भूतोंसे भिन्न है । इसीलिए पंच भूतोंके नष्ट होनेपर भी जीव कायम रहता है और वह परलोकमें, एक देहको छोड़कर दूसरी देहमें जाता है। किसी किसीको जातिस्मरणज्ञान होनेसे पूर्व भवकी बातें भी याद आती हैं।" . मेतार्यकी शंका मिट गई और उन्होंने अपने ३०० शिष्योंके साथ प्रभुके पाससे दीक्षा ले ली। उनके बाद प्रभास प्रभुके पास आये । प्रभु बोले:-" हे प्रभास ! तुम्हें मोक्षके संबंध संदेह है । मगर यह ठहर सके ऐसी शंका नहीं है। कारण,-जीव और कर्मके संबंधका विच्छेद ही मोक्ष है। मोक्ष और कोई दूसरी चीज नहीं है । वेदसे और जीवकी अवस्थाकी विचित्रतासे कर्म सिद्ध हो चुका है । शुद्ध ज्ञान, दर्शन और चारित्रसे कर्मोंका नाश होता है । इससे ज्ञानी पुरुषोंको मोक्ष प्रत्यक्ष भी होता है।"
प्रभासकीभी शंका मिट गई और उन्होंने भी अपने ३०० शिष्योंके साथ प्रभुके पाससे दीक्षा ग्रहण कर ली।
१-प्रभासके पिताका नाम बल और उनकी माताका नाम अतिभद्रा था । ये राजगृह नगरके रहनेवाले कौंडिन्य गोत्रीय ब्राम्हण थे । इनकी उम्र ४० बरसकी थी। ये १६ बरस गृहस्थ ८ बरस छद्मस्थ और १६ बरस केवली रहे थे।
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इस तरह ग्यारह प्रसिद्ध विद्वान ब्राह्मण महावीरके शिष्य हो गये । इससे महावीर के ज्ञानकी चारों तरफ धाक बैठ गई । ये ही ग्यारह महावीरके मुख्य शिष्य हुए और गणधर कहलाये । चंदनबाला शतानिक राजके यहाँ थीं । वे भी महावीर स्वामी के पास आकर दीक्षित हो गई। उनके साथ ही अनेक स्त्री पुरुषोंने दीक्षा ले ली। हजारों नरनारी जो दीक्षित न हुए उन्होंने पंच अणुव्रत धारण कर श्रावकत्रत अंगीकार किया ।
|
इस तरह महावीर स्वामीका, साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविकाका, चतुर्विध संघ स्थापित हुआ ।
फिर प्रभुने गौतमादि गणधरोंको उत्पाद, व्यय और धौव्यात्मक त्रिपदीका उपदेश दिया और उससे गणधरोंने बारह अंगों और चौदह पूँवोंकी रचना की । ग्यारह गणधरोंने इनकी रचना की । इनमें से अकंपित और अचल भ्राताकी वाचना एकसी, मेतार्य और प्रभासकी वाचना एकसी
१ बारह अंग ये हैं, - आचारांग (आयार ), सूत्रकृतांग (सूयगड ), ठाणांग, समवायांग, भगवती अंग, ज्ञातधर्मकथा, ( नायधम्मकहा ) उपासक, (उवासगदसा ) अंतकृत, अनुत्तरोपपातिकदशा ( अणुत्तरोववाइय ), प्रश्न व्याकरण ( पण्हावागरण ), विपाकश्रुत ( विवाग ) और दृष्टिवाद ( दिठिवाय ) |
२ - चौदह पूर्वोके नाम ये हैं, – उत्पाद, अग्रायणीय, वीर प्रवाद, अस्तिनास्ति प्रवाद, ज्ञान प्रवाद, सत्य प्रवाद, आत्म प्रवाद, कर्म प्रवाद, प्रत्याख्यान प्रवाद, विद्या प्रवाद, कल्याणक, प्राणावाय, क्रियाविशाल, और लोकबिन्दुसार । [ ये दृष्टिवाद अंगके अंदर रचे गये हैं । इनकी रचना बारह अंगोंके पहले हुई इसलिये ये पूर्वीग कहलाये । ]
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और दूसरे सात गणधरोंकी प्रत्येककी-भिन्न भिन्न वाचनाएँ हई। प्रभुने त्रिपदीका एकसा उपदेश दिया; परंतु हरेक गणधरने अपने ज्ञान-विकासके अनुसार उसे समझा और तदनुसार सूत्रोंकी रचना की । इससे भिन्न भिन्न वाचनाओंके अनुसार महावीर स्वामीके नौ गणे हुए । ग्यारह गणधरोंके और उनकी वाचनाओंके नाम एक साथ यहाँ लिखे जाते हैं ।
(१) इन्द्रभूति-प्रसिद्ध नाम गौतम स्वामी। इनकी एक वाचना। (२) अग्नि भूति । इनकी दूसरी वाचना । (३) वायु भूति । इनकी तीसरी वाचना । (४) व्यक्त । इनकी चौथी वाचना । (५) सुधर्मा । इनकी पाँचवीं वाचना । (६) मंडिक । इनकी छठी वाचना । (७) मौर्यपुत्र । इनकी सातवीं वाचना । (८) अकंपित । । इन दोनों गणधरोंकी समान वाचना (९)अचल भ्राता। होनेसे इनकी आठवीं वाचना। (१०) तैतर्य। । इन दोनोंकी भी समान वाचना होनेसे (११) प्रभास। इनकी नवीं वाचना। फिर समयको जाननेवाला इन्द्र उठा और सुगंधित रत्नचूर्ण ( वासक्षेप ) से पूर्ण पात्र लेकर प्रभुके पास खड़ा रहा । इन्द्रभूति आदि गणधर भी मस्तक झुकाकर खड़े रहे । तब प्रभुने यह कहकर कि 'द्रव्य, गुण और पर्यायसे तुमको तीर्थकी
१-मुनियोंके समुदायको गण कहते हैं।
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जैन-रन्न
अनुज्ञा है । ' पहले इन्द्रभूतिके मस्तकपर वासक्षेप डाला । फिर क्रमशः दूसरे गणधरोंके मस्तकोंपर डाला । बादमें देवोंने भी प्रसन्न होकर ग्यारहों गणधरोंपर वासक्षेप और पुष्पोंकी दृष्टि की। ___ इसके पश्चात प्रभु सुधर्मा स्वामीकी तरफ संकेतकर बोले,"ये दीर्घजीवी होकर चिरकाल तक धर्मका उद्योत करेंगे।" फिर सुधर्मास्वामीको सब मुनियोंमें मुख्य नियतकर गणकी अनुज्ञा दी।
इसके बाद साध्वियोंमें संयमके उद्योगकी व्यवस्था करनेके लिए प्रभुने प्रथम साध्वी श्री चंदनवालाको प्रवर्तिनी पदपर स्थापित किया। ___ इस तरह प्रथम पौरुषी (पहर) पूर्ण हुई। तब राजाने जो बलि तैयार कराई थी उसे नौकर पूर्व द्वारसे ले आया । वह आकाशमें फैंकी गई । आधी देवताओंने ऊपरहीसे ले ली। आधी भूमिपर पड़ी। उसमेंसे आधी राजा और शेष दूसरे लोग ले गये।
प्रभु वहाँसे उठे और देवच्छंदमें जाकर बैठे । गौतमस्वामीने उनके चरणोंमें बैठकर देशना दी।
उसके बाद कुछ दिन वहीं निवासकर प्रभु अपने शिष्यों सहित अन्यत्र विहार कर गये। कुशाग्रपुरमें राजा प्रसेनजित था । इसके अनेक पुत्र थे ।
उनमेंसे एकका नाम श्रेणिक था। राजा श्रेणिकको प्रतिबोध श्रेणिकको भंभासार या बिंबसार भी
कहते थे। श्रेणिकको बुद्धिमान और
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२४ श्री महावीर स्वामी चरित
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वीर जानकर प्रसेनजितने राज्यगद्दी दी । प्रसेनजितने राजगृह
नगर बसाया था ।
श्रेणिक बौद्ध धर्मावलंबी शिशुनाग वंशका था । उसकी पहिली शादी वेणातटपुरके भद्र नामक श्रेष्ठीकी कन्या से हुई थी । उससे उसके अभयकुमार नामका एक पुत्र था ।
अनेक वरसोंके बाद, जब अभयकुमार श्रेणिकका मंत्री था तब, श्रेणिकने वैशालीके अधिनायक चेटककी एक कन्या माँगी । चेटकने यह कहकर कन्या देनेसे इन्कार किया कि, " हैहय वंशकी कन्या वाहीकुल ( विदेहवंश ) वालेको नहीं दी जासकती । " अभयकुमार युक्ति करके चेटककी सबसे छोटी कन्या चेल्लाको हर लाया था । चेल्लणासे श्रेणिकके एक पुत्र हुआ । उसका नाम कोर्णिक था !
१. कुशाग्रपुरमें बहुत आगलगनेसे प्रजा बहुत दुखी होती थी । इससे राजाने हुक्म निकाला कि जिसके घरसे आग लगेगी वह शहर बाहर निकाल दिया जायगा । दैवयोगसे राजाहीके यहाँसे इस बार आग लगी। अपने हुक्मके अनुसार व्यवहार करनेवाले न्यायी राजाने शहर छोड़ दिया और एक माइल दूर डेरे डाले । धीरे धीरे वहाँ महल बनवाये और लोग भी जा जाकर बसने लगे । आते जाते लोगोंसे कोई पूछता, - " कहाँ जाते हो ? " वे जवाब देते, -“ राजगृह ( राजाके घर ) जाते हैं ।" इससे उस शहरका नाम राजगृह पड़ गया ।
२ - जैनशास्त्रोंमें इसका दूसरा नाम अशोकचंद्र और बौद्धग्रंथों में इसका नाम अजातशत्रु लिखा है । इसने अपने पिता राजा श्रेणिकको कैद करके मार डाला था । श्रेणिकका और इसका विस्तृत वृत्तान्त जैनरत्नके अगले भाग में दिया जायगा ।
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जैन - रत्न
राणी चेल्लणा जैन थी और श्रेणिक बौद्ध | चेल्लणाके अनेक यत्न करनेपर भी श्रेणिक जैन नहीं हुआ । एक बार श्रेणिक बगीचे में फिरने गया था । वहाँ एक युवक जैन मुनिको घोर तप करते देखा । उसके तप और त्यागको देखकर श्रेणिकका मन जैनधर्म की ओर झुका । भगवान महावीर विहार करते हुए राजगृह में आये । श्रेणिक महावीर के दर्शन करने गया और उपदेश सुन परम श्रद्धावान श्रावक हो गया । मेघकुमार, नंदीषेण आदिने, अपने माता
श्रेणिक के पुत्र, पिताकी आज्ञा लेकर दीक्षा ले ली ।
प्रभु विहार करते हुए, एक बार ब्राह्मणकुंड गाँव में आये । देवताओं ने समवशरण रचा । समवशरणमें देवानंदा और ऋषभदत्त भी आये । महावीरको देखकर देवानंदाके स्तनोंसे दूध झरने लगा | वह एक टक महावीर स्वामीकी तरफ देखने लगी । गौतम गणधरने I इसका कारण पूछा। महावीर ने कहाः “ मैं बयासी दिन तक इसकी कोख में रहा हूँ । इसी लिए वात्सल्य भावसे इसकी ऐसी हालत हुई है । "
-
फिर महावीर स्वामीने धर्मोपदेश दिया । देवानंदा और ऋषभदत्तने दुनियाको असार जानकर दीक्षा ले ली ।
प्रभु विहार करते हुए एक बार क्षत्रियकुंड आये । वहाँ राजा नंदिवर्द्धन और प्रभुका जमाई
' जमाली ' अपने परिवारों सहित
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ऋषभदत्त और देवानंदाको दीक्षा
जमालीको दीक्षा
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२४ श्री महावीर स्वामी-चरित
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समवशरणमें आये। प्रभुकी देशनासे वैराग्यवान होकर जमालीने पाँच सौ अन्य क्षत्रियों सहित दीक्षा ले ली। ___ + जमाली महावीरके भानजे थे । इन्हीं के साथ महावीरकी पुत्री प्रियदर्शना ब्याही गई थी। जमालीने दीक्षा लेनेके बाद ग्यारह अंगोंका अध्ययन किया । तब प्रभुने उन्हें हजार क्षत्रिय मुनियोंका आचार्य बना दिया । वे छ? अट्टम आदिका तप करने लगे।
एक बार जमालीने अपने मुनिमंडल सहित, स्वतंत्ररूपसे विहार करनेकी आज्ञा माँगी । प्रभुने अनिष्टकी संभावनासे मौन धारण किया । जमाली मौनको सम्मति समझकर विहार कर गये । विहार करते हुए वे श्रावस्ती नगरी पहुँचे । नगरके बाहर 'तेंदुक' नामक उद्यानके 'कोष्ठक' नामक चैत्यमें रहे । विरस, शीतल, रुक्ष और असमय आहार करनेसे उन्हें पित्तज्वर आने लगा । एक दिन ज्वरकी अधिकताके कारण उन्होंने सो रहनेके लिए संथारा करनेकी अपने शिष्योंको आज्ञा दी । थोड़े क्षण नहीं बीते थे कि, जमालीने पूछाः-" संथारा बिछा दिया ?" शिष्य बोले:-" बिछा दिया।" ज्वरात जमाली तुरत जहाँ संथारा होता था वहाँ आये । मगर संथारा होते देखकर वे बैठ गये
और बोले:-" साधुओ ! आज तक हम भूले हुए थे। इस लिए असमाप्त कार्यको भी समाप्त हो गया कहते थे। यह भूल थी । जो काम समाप्त हो गया हो उसके लिए कहना चाहिए कि, हो गया । जिसको तुम कर रहे हो उसके लिए कभी मत कहो कि, वह हो गया है । तुमने कहा कि 'संथारा बिछ गया है।' वस्तुतः यह बिछ नहीं चुका था । इस लिए तुम्हारा यह कहना असत्य है । उत्पन्न होता हो उसे उत्पन्न हुआ कहना, और जो अभी किया जाता हो उसके लिए हो चुका कहना, ऐसा महावीर कहते हैं वह, अयोग्य है। कारण इसमें प्रत्यक्ष विरोघ मालूम होता है। वर्तमान और भविष्य क्षणोंके समूहके योगसे
जो कार्य हो रहा है उसके लिए 'हो चुका' कैसे कहा जा सकता है ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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जैन-रत्न
महावीर स्वामीकी पुत्री प्रियदर्शनाने भी एक हजार स्त्रियोंके जो बच्चा गर्भ में होता है उसके लिए कोई नहीं कहता कि, बच्चा पैदा हो गया । इसलिए हे मुनियो ! जो कुछ मैं कहता हूँ उसे स्वीकार करो। कारण, मेरा कहना युक्ति-संगत है । सर्वज्ञकी तरह विख्यात महावीर मिथ्या कह ही नहीं सकते ऐसा कभी मत सोचो। क्योंकि 'कभी कभी महापुरुषों में भी स्खलना-भ्रांति होती है। __ जमालीकी यह बात जिन साधुओंको युक्ति-युक्त न जान पड़ी वे जमालीको छोड़कर महावीरके पास चले गये । बाकी उन्हींके पास रहे । जमालीकी पूर्वावस्थाकी पत्नी प्रियदर्शनाने भी मोहवश जमालीके पक्षको ही स्वीकार किया।
एक बार महावीर स्वामी जब चंपानगरीके पूर्णभद्र वनमें समोसरे थे तब जमाली उनके पास गये और बोले:-" हे भगवान ! आपके अनेक शिष्य छद्मस्थ ही कालधर्मको प्राप्त हो गये हैं; परंतु मैं ऐसा नहीं हूँ। मुझे भी केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त हुए हैं । इसलिए मैं भी सर्वज्ञ हूँ।"
जमालीका यह कथन सुनकर गौतम स्वामीने पूछा:-"जमाली ! अगर तुम सर्वज्ञ हो तो बताओ कि यह जीव और लोक शाश्वत (अपरि वर्तनशील ) हैं या अशाश्वत ( परिवर्तनशील )"
जमाली इसका कोई जवाब न दे सके । तब महावीर बोले:" तत्त्वकी दृष्टिसे जीव और लोक दोनों शाश्वत हैं । द्रव्यकी दृष्टिसे लोक शाश्वत है, मगर प्रति क्षण बदलती रहनेवाली पर्यायोंकी अपेक्षा अशाश्वत है । इसी तरह जीव द्रव्यकी दृष्टिसे शाश्वत है; परंतु देव, तिर्यंच, नरक और मनुष्य पर्यायकी दृष्टिसे अशाश्वत है।"
जिस समय यह घटना हुई थी उस समय महावीरको केवलज्ञान हुए चौदह बरस हुए थे। ____ महावीरके उपदेशसे भी जमालीने जब अपने मतको न छोड़ा तब वे संघ बाहर कर दिये गये ।
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२४ श्री महावीर स्वामी-चरित ३९३ साथ दीक्षा ले ली । ( भगवती सूत्रमें और विशेषावश्यक सूत्रमें इनका नाम प्रियदर्शना, ज्येष्ठा और अनवद्योगी भी लिखा है । ) एक बार विहार करते हुए महावीर स्वामी कोशांबी आये ।
उस समय कोशांबीको घेरकर महावीरके प्रभावसे शत्रुओंमें मेल उज्जयनीका राजा चंडप्रद्योत
__ पड़ा हुआ था । महावीरके कोशांबीमें आनेके समाचार सुन कोशांबीकी महारानी
एक बार जमाली फिरते हुए श्रावस्तीमें गये । प्रियदर्शना भी वहीं 'ढंक' नामक कुम्हारकी जगहमें अपनी एक हजार साध्वियोंके साथ उतरी थीं । ढंक श्रद्धावान श्रावक था। उसने प्रियदर्शनाको जैनमतमें लानेका निश्चय किया । एक दिन उसने प्रियदर्शनाके वस्त्रपर अंगारा डाल दिया । प्रियदर्शना बोली:-" ढंक ! तुमने मेरा वस्त्र जला दिया।"
ढंक बोला:-“मैं आपकी मान्यताके अनुसार कहता हूँ कि आप मिथ्या बोलती हैं । कपड़ाका जरासा भाग जला है । इसे आप कपड़ा जला दिया कहती हैं । यह आपके सिद्धांतके विरुद्ध है। आप जलते हुएको जल गया नहीं कहतीं । ऐसा तो महावीर स्वामी कहते हैं।"
प्रियदर्शना बुद्धिमान थीं। उन्हें अपनी भूल मालूम हुई। उन्होंने महावीरस्वामीके पास जाकर प्रायश्चित्त कर पुनः शुद्ध सम्यक्त्व धारण किया ।
जमाली अंत तक अपने नवीन मतकी प्ररूपणा करते रहे । इनके मतका नाम 'बहुरत वाद , था। इसका अभिप्राय यह है कि होते हुए कामको हुआ ऐसा न कहकर संपूर्ण हो चुकनेपर ही हुआ कहना। [ इस संबंधमें विशेष जाननेके लिए विशेषावश्यक सूत्रमें गाथा २३०६ से २३३३ तक और भगवती सूत्रके नवें शतकके
३३ वें उद्देशकमें देखना चाहिए । ] Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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३९४
जैन-रत्न
मृगावतीने निर्भय होकर किलेके फाटक खोल दिये और वह अपने परिवार सहित समवशरणमें गई । राजा चंडप्रद्योत भी प्रभुकी देशना सुनने गया । देशनाके अंतमें राणी मृगावतीने उठकर अपना पुत्र उदयन चंडप्रद्योतको सौंपा और कहा:“इसकी आप अपने पुत्रके समान रक्षा करें और मुझे दीक्षा लेनेकी आज्ञा दें । मैं इस संसारसे उदास हूँ।*
* मृगावती कोशांबीके राजा शतानीककी पत्नी थी । जैनधर्ममें उसकी पूर्ण श्रद्धा थी । एक बार राजा शतानीकने सुंदर चित्रशाला बनवाई । एक चित्रकार चित्रकारोंमें किसी यक्षकी कृपासे ऐसा होशियार था कि किसी भी व्यक्निके शरीरका कोई अंग देखकर उसका सारा चित्र बना देता था । चित्रशालामें चित्र बनाते समय उसे अचानक मृगावती रानीके पैरका अंगूठा दिख गया। इससे उसने रानीका पूरा चित्र बना डाला। चित्र बनाते वक्त चित्रकी जाँघपर पीछीसे काले रंगकी बूंद, गिर पड़ी। चित्रकारने उसे मिटा दी। दूसरी बार और गिरी जब तीसरी बार भी गिरी तब उसने सोचा, इसकी यहाँ आवश्यकता होगी। उसने वह काला दाग न मिटाया । दाग जाँघपर काला तिल हो गया।
राजा शतानीक, चित्रशाला, तैयार होनेपर, देखने आया । वहाँ उसने मृगावतीका चित्र जाँघके तिल सहित हू बहू देखा । इससे उसे चित्रकार और रानीके चरित्रपर वहम हुआ। उसने नाराज होकर चित्रकारको कतल करनेकी आज्ञा दी । दूसरे चित्रकारोंने राजासे प्रार्थना की:-" महाराज! एक यक्षकी महरबानीसे यह किसी भी मनुष्यका, एक भाग देखकर, हू बहू चित्र बना सकता है । यह निरपराधी है।" राजाने इसकी परीक्षा करनेके लिए किसी कुबड़ीका मुँह बताया । चित्रकारने उसका हू बहू चित्र बना दिया। इससे राजाकी शंका
जाती रही । मगर राजाने यह विचार कर उसके दाहिने हाथका अंगूठा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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२४ श्री महावीर स्वामी-चरित
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चंडप्रद्योतके हृदयमेंसे प्रभुके प्रभावके कारण कुवासना और देष दोनों नष्ट हो गये । उसने उदयनको कोशांबीका राजा बनानेकी प्रतिज्ञा कर मृगावतीको दीक्षा लेनेकी आज्ञा दी। कटवा दिया कि, यह फिर कभी ऐसे सुंदर चित्र दूसरी जगह न बना सके।
चित्रकार बड़ा दुखी हुआ; नाराज हुआ । उसने यक्षकी. फिर आराधना की। यक्षने प्रसन्न होकर वर दिया,-"जा तू बायें हाथसे भी ऐसे ही सुंदर चित्र बना सकेगा । " चित्रकारने शतानीकसे वैर लेना स्थिर किया और मृगावतीका एक सुन्दर चित्र बनाया। फिर वह चित्र लेकर उज्जैन गया।
उस समय उज्जैनमें चंडप्रद्योत नामका राजा राज्य करता था । वह बड़ा ही लंपट था। चित्रकारके पास मृगावतीका चित्र देखकर वह पागलसा हो गया । उसने तुरत शतानीकके पास दूत भेजा
और कहलाया कि, तुम्हारी रानी मृगावती मुझे सौंप दो, नहीं तो लड़नेको तैयार हो जाओ। ___ स्त्रीको सौंपनेकी बात कौन सह सकता है १ शतानीकने चंडप्रद्योतके दूतको, अपमानित करके निकाल दिया । चंडप्रद्योत फौज लेकर कोशांची पहुंचा; मगर शतानीक तो इसके पहले ही अतिसारकी बीमारी होनेसे मर गया था। __ चंडप्रद्योतको आया जान मृगावती बड़ी चिन्तामें पड़ी। उसे अपना सतीधर्म पालनेकी चिंता थी, अपने छोटी उम्रके पुत्र उदयनकी रक्षा कर नेकी चिन्ता थी। बहुत विचारके बाद उसने चंडप्रद्योतको छलना स्थिरकिया और उसके पास एक दूत भेजा । दूतने राजाको जाकर कहाः" महारानीने कहलाया है कि, मैं निश्चिंत होकर उज्जैन आ सकूँ इसके पहले मेरे पुत्र उदयनको सुरक्षित कर जाना जरूरी समझती हूँ । इस लिए अगर आप कोशांबीके चारों तरफ पक्की दीवार बनवा दें तो मैं निश्चिंत होकर आपके साथ उज्जैन चल सकूँ।" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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जैन-रत्न ~wwwwwwwmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm मृगावतीने प्रभुसे दीक्षा ली। उसके साथ ही चंडप्रद्योतकी आठ स्त्रियोंने भी दीक्षा ली । वे सब महासती चंदनाके पास रहीं । पाँच सौ चोर एक जंगलमें किला बनाकर रहते थे और
चोरी व लूटका धंधा करते थे । ५०० चोरोंके सर्दारको एक बार उन चोरोंका सर्दार कोदीक्षा देना शांबीमें भगवान महावीरके समवश
रणमें गया । वहाँ भगवानकी देशना सुनकर उसे वैराग्य हुआ और उसने दीक्षा ले ली। फिर वह वहाँसे चोरोंके पास गया और उन चोरोंको भी, उपदेश देकर, दीक्षा दे दी।
विषयांध चंडप्रद्योत इस जालमें फँस गया और उसने कोशांबीके चारों तरफ पक्का कोट बनवा दिया। जब कोट बनकर तैयार हो गया तब मृगावतीने चारों तरफके दर्वाजे बंद करवा दिये और दीवारोंपर अपने सुभट चढ़वा दिये।
अब चंडप्रद्योतकी आँखें खुली; परंतु कोई उपाय नहीं था । वह शहरको घेरकर पड़ा रहा । कई महीने बीत गये।
भगवान महावीर विहार करते हुए कोशांबीमें समोसरे । प्रभुका आगमन सुनकर मृगावती अपने परिवार सहित समवशरणमें गई । चंडप्रद्योत भी समवशरणमें गया। प्रभुके दर्शनकरके और उनकी देशना सुनकर उसके वैर और काम शांत हो गये।
मृगावतीने अवसर देख अपना पुत्र उदयन चंडप्रद्योतको सौंपा । और भगवान महावीरसे दीक्षा ली । कोशांबीका नाश करने पर तुला हुआ चंडप्रद्योत, मृगावतीकी युक्तिसे असफल हुआ और महावीरके प्रभावसे वैर भूलकर कौशांबीका रक्षक बन गया। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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२४ श्री महावीर स्वामी-चरित
महावीर स्वामीके श्रावकों से बारह श्रावक मुख्य थे । वे
महान समृद्धि शाली थे । भगवानके दस श्रावक x उपदेशसे उन्होंने श्रावक व्रत अंगी
कार किया था। उनके नाम और संक्षिप्त परिचय यहाँ दिये जाते हैं--
१-आनंद-यह वणिजक ग्रामका रहनेवाला था। इसके पास बारह करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ थीं। गायोंके ४ गोकुल थे।
२-कामदेव-यह चंपा नगरीका रहनेवाला था । इसके पास १८ करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ थीं और ६० हजार गायोंके ६ गोकुल थे।
३-चुलनी पिता-यह काशीका रहनेवाला था। इसके पास २४ करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ थीं और ८० हजार गायोंके ८ गोकुल थे।
४-सुरादेव-यह काशीका रहनेवाला था। इसके पास १८ करोड़ स्वर्णमुद्राएँ थीं और ६० हजार गायोंके ६ गोकुल थे ।
५-चुल्लशतिक-यह आलभिका नगरीका रहनेवाला था। इसके पास १८ करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ थीं और ६० हजार गायोंके ६ गोकुल थे।
६-कुंडगोलिक-यह कांपिल्यपुरका रहनेवाला था। इसके पास १८ करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ और ६० हजार गायोंके ६ गोकुल थे।
७-शब्दालपुत्र-यह पौलाशपुरका रहनेवाला और x इनका पूरा चरित्र जैनरनके अगले भागों में दिया जायगा १-एक गोकुलमें १० हजार गायें रहती थीं।
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जैन-रत्न
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जातिका कुम्हार था । इसके पास ३ करोड़ स्वर्णमुद्राएँ और १० हजार गायोंका एक गोकुल था । शहरके बाहर उसकी पाँच सौ दुकानें थीं।
८-महाशतक-यह राजगृहका रहनेवालाथा। इसके पास २४ करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ और ८० हजार गायोंके आठ गोकुल थे ।
९-नंदिनीपिता-यह श्रावस्तीका रहनेवाला था । इसके पास १२ करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ और ४० गायोंके ४ गोकुल थे ।
१०-लांतकापिता-यह श्रावस्तीका रहनेवाला था। इसके पास १२ करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ और ४० गायोंके ४ गोकुल थे। महावीर विहार करते हुए श्रावस्ती नगरीमें आये और वहाँ
कोष्टक नामक उद्यानमें समोसरे । महावीर स्वामीपर गोशालकका वहीं अपने आपको जिन कहनेवाला तेजोलेश्या रखना गोशालक भी आया हुआ था।
और वह हालाहला नामक कुम्हारिनकी दुकानमें ठहरा हुआ था।
गौतमस्वामीने यह बात सुनी और महावीरस्वामीसे पूछाः"प्रभो ! इस नगरीमें गोशालकको जिन कहते हैं । यह योग्य है या अयोग्य ?"
महावीर स्वामीने उत्तर दिया:-" यह बात अयोग्य है; क्योंकि वह जिन नहीं है ।"
गौतम स्वामीने पूछा:-"वह कौन है ?"
महावीर स्वामी बोले:-" वह मेरा एक पुराना शिष्य है। मंखका पुत्र है । अष्टांग निमित्तका ज्ञान प्राप्तकर उससे
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२४ श्री महावीर स्वामी-चरित
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लोगोंके दिलकी बात कहता है । मुझसे तेजोलेश्याकी साधना सीख, उसे साधा है और अव मिथ्यात्वी हो तेजोलेश्यासे अपने विरोधियोंका दमन करता है।"
समवशरणमें ये प्रश्नोत्तर हुए थे । इससे शहरके लोगोंने भी ये बातें सुनी थीं । लोग चर्चा करने लगे, महावीरस्वामी कहते हैं कि गोशालक जिन नहीं है । वह तो मंखका बेटा है।
गोशालकने ये बातें सुनी । वह बड़ा गुस्से हुआ । वह जब अपने स्थानमें बैठा हुआ था तब उसने महावीर स्वामीके शिष्य आनंद मुनिको, जाते देख, बुलाया और तिरस्कार पूर्वक कहा:-" हे आनंद ! तू जाकर अपने धर्मगुरुसे कहना कि वे मेरी निंदा करते हैं इस लिए मैं उनको परिवार सहित जलाकर राख कर दूंगा।" ___ आनंद बहुत डरे । उन्होंने जाकर महावीरसे सारी बातें कहीं और पूछा:--" हे भगवन् ! गोशालक क्या ऐसा करनेकी शक्ति रखता है ?" ... ___ महावीर स्वामी बोले:-" हे आनंद ! गोशालकने तप करके तेजोलेश्या प्राप्त की है । इसलिए वह ऐसा कर सकता है । तीर्थकरको वह नहीं जला सकता। हाँ तकलीफ उनको भी पहुँचा सकता है।"
थोड़ी ही देरमें आजीविक संघके साथ गोशालक वहाँ आ गया। और क्रोधके साथ बोला:-" हे आयुष्यमान काश्यप! तुम मुझे मंखलीपुत्र गोशालक और अपना शिष्य बताते हो यह ठीक नहीं है । मंखलीपुत्र गोशालक तो मरकर स्वर्गमें गया है।
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उसका शरीर परिसह सहन करनेके योग्य था, इसलिए मैंने उसके शरीरमें प्रवेश किया है । एक सौ तेतीस बरसोंमें मैंने सात शरीर बदले हैं । यह मेरा सातवाँ शरीर है।" ___ महावीर बोले:-" हे गोशालक ! चोर जैसे कोई आश्रयस्थान न मिलनेसे कुछ ऊन, सन या रूईके तंतुओंसे शरीरको ढककर अपनेको छिपा हुआ मानता है, इसी तरह हे गोशालक ! तुम भी खुदको बहानोंके अंदर छिपा हुआ मानते हो; मगर असलमें तुम हो गोशालक ही ।"
गोशालक अधिक नाराज हुआ। उसने अनेक तरहसे महावीरका तिरस्कार किया और कहा:-" हे काश्यप ! मैं आज तुझे नष्ट भ्रष्ट कर दूंगा।"
गुरुकी निंदा देख प्रभुके शिष्य सर्वानुभूति मुनि और सुनक्षत्र मुनिने उसे गुरुका अपमान नहीं करनेकी सलाह दी। परंतु उसने क्रोध करके उन दोनोंको जला दिया । फिर उसने महावीरपर सोलह देशोंको भस्म करनेकी ताकत रखनेवाली तेजोलेश्या रखी; परंतु वह प्रभुपर कुछ असर न कर सकी । उनका शरीर कुछ गरम हो गया। फिर तेजोलेश्या लौटकर गोशालकके शरीरमें प्रवेश कर गई । तब गोशालक बोला:-" हे काश्यप! अभी तू बच गया है पर मेरे तपसे जन्मी हुई तेजोलेश्या तुझे पित्तज्वरसे पीडित करेगी और दाहके दुःखसे छ:महीनेके अंदर तू छमस्थ ही मर जायगा!" ___ महावीर बोले:--" हे गोशालक ! मैं छः महानके अंदर न मरूँगा । मैं तो सोलह बरस तक और भी तर्थिकर पर्यायमें
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२४ श्री महावीर स्वामी - चरित
विचरण करूँगा । मगर तुम खुद ही सात दिन के अंदर पित्तज्वर से पीडित होकर कालधर्मको प्राप्त करोगे ! "
गोशालकको तेजोलेश्याका प्रतिघात हुआ । वह स्तब्ध हो रहा । महावीर स्वामीने अपने शिष्यों से कहा:-- “ हे आर्यो ! गोशालक जलकर राख बने हुए काष्ठकी तरह निस्तेज हो गया है । अब इससे धार्मिक प्रश्न करके इसको निरुत्तर करो । अब क्रोध करके यह तुम्हें कुछ नुकसान न पहुँचा सकेगा ।"
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श्रमण निर्ग्रथोंने धार्मिक प्रतिचोदना ( गोशालकके मतसे प्रतिकूल प्रश्न ) करके गोशालकको निरुत्तर किया । संतोषकारक उत्तर देनेमें असमर्थ होकर गोशालक बहुत खीझा । उसने निर्ग्रथों को हानि पहुँचानेका बहुत प्रयत्न किया; परंतु न पहुँचा सका । इसलिए अपने बालोंको खींचता और पैर पछाड़ता हुआ हालाहला कुम्हारिनके घर चला गया ।
श्रावस्ती नगरीमें यह बात चारों तरफ फैल गई । लोग बातें करने लगे, – “ नगरके बाहर कोष्ठक चैत्यमें दो जिन परस्पर विवाद कर रहे हैं । एक कहते हैं ' तुम पहले मरोगे !' दूसरे कहते हैं - ' तुम पहले मरोगे !' इनमें सत्यवादी कौन है और मिथ्यावादी कौन है ? कई महावीरको सत्यवादी बताते थे और कई गोशालकको सत्यवादी कहते थे; परंतु सात दिनके बाद जब गोशालकका देहांत हुआ तब सबको विश्वास हो गया कि महावीर ही सत्यवादी हैं ।
* गोशालक महावीर स्वामी के पाससे निकलकर हालाहला कुम्हारिनके यहाँ आया । मद्य पीने लगा । बर्तनोंके लिए तैयार की हुई मिट्टी उठा
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जैन-रत्न
सात दिनके बाद जब गोशालक कालधर्म पाया तब गौतम स्वामीने पूछा:-" भगवन् , गोशालक मरकर किस उठा कर अपने शरीरपर चुपड़ने लगा । जमीनपर लोट लोटकर आक्रंदन करने लगा। उसकी हालत पागलकीसी हो गई ।
पुत्राल नामका एक पुरुष गोशालकका भक्त था । वह रातके पहले और पिछले पहरमें धर्म-जागरण किया करता था । एक दिन उसको शंका हुई कि हल्ला ( कीट विशेष ) का संस्थान कैसा होगा ? चलूं अपने सर्वज्ञ गुरुसे पूछू । पुत्राल जब हालाहलाके यहाँ पहुँचा तब उसने गोशालकको नाचते, कूदते, गाते, रोते देखा । पुत्रालको गोशालककी ये क्रियाएँ अच्छी न लगीं । वह लौट गया। ___ गोशालकके शिष्य पानी लेकर आर हे थे । उन्होंने पुत्रालको जल्दी २ घरकी तरफ जाते देखा । निमित्तज्ञानसे उसके मनकी बात जानकर वे बोले:--" महानुभाव ! तुमको तृण गोपालिकाका संस्थान जाननेकी इच्छा है । आओ सर्वज्ञ गुरुसे पूछ लो। गुरुका निर्वाणसमय नजदीक है । इसलिए वे नृत्य, गान इत्यादि कर रहे हैं।" पुत्राल बोला:-" महाराज ! मैं घर जाकर आता हूँ।"
गोशालकके शिष्योंने पुत्रालके आनेके पहले ही गोशालकको ठीक तरहसे बिठा दिया और पुत्रालका प्रश्न भी बता दिया । पुत्राल आया । गोशालकको नमस्कार करके बैठा। गोशालक बोलाः-“तुम्हें तृण गोपालिकाका संस्थान जाननेकी इच्छा है । वह संस्थान (आकृति) बाँसकी जड़के जैसा होता है।" पुत्राल संतुष्ट होकर अपने घर गया।
गोशालकने एक दिन अपना देहावसान निकट जान अपने शिष्योंको बुलाया और कहा:-“देखो, मैं सर्वज्ञ नहीं हूँ सर्वज्ञताका मैंने ढौंग किया था । मैं सचमुच ही महावीर स्वामीका शिष्य मोशालाक हूँ। मैंने घोर पाप किया है । अपने गुरुपर तेजोलेश्या रखकर उन्हें बहुत कष्ट पहुँचाया है । और अपने दो गुरु भाइयोंको-जिन्होंने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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२४ श्री महावीर स्वामी- चरित
४०३
गतिमें गया ? " महावीर स्वामीने उत्तर दिवा: - " गोशालक
अनेक भवभ्रमण
मरकर अच्युत देवलोक में गया है । और करनेके बाद वह मोक्षमें जायगा । "
श्रावस्ती से विहारकर प्रभु मेंटिक ग्राममें
आये और साण
कोष्टक नामके चैत्यमें उतरे । वहाँ सिंह अनगारकी शंका गोशालककी तेजोलेश्याका प्रभाव हुआ | उन्हें रक्त अतिसार और पित्तज्वरकी बीमारी हो गई । वह दिन दिन बढ़ती ही गई । प्रभुने उसका कोई इलाज नहीं किया । लोगों में ऐसी चर्चा आरंभ हो गई कि गोशालकके कथनानुसार महावीर बीमार हुए हैं और छः महीने में वे कालधर्मको प्राप्त करेंगे ।
•
महावीरके शिष्य सिंह साणकोष्ठक से थोड़ी ही दूरपर मालुका वनके पास छट्ठ तपकर, ऊँचा हाथ करके ध्यान करते थे । ध्यानान्तरिकामें ' उन्होंने लोगोंकी ये बातें सुनीं । उन्हें यह शंका हो गई कि, महावीर स्वामी सचमुच ही छः महीने में मुझे गुरुद्रोह नहीं करनेकी सलाह दी थी- मारकर मैं हत्यारा बना हूँ । इसलिए मरने के बाद मेरे पैरोंमें रस्सी बाँधना; मुझे सारे शहरमें घसीटना और मेरे पापोंका शहरके लोगोंको ज्ञान कराना । "
महावीर स्वामीपर तेजोलेश्या रक्खी उसके ठीक सातवें दिन गोशालक मरा और उसके शिष्योंने अपने गुरुकी आज्ञाका पालन करनेके लिए, हालाहलाके घरहीमें, उसको पैरसे डोरी बाँधकर घसीटा।
१ - एक ध्यान पूरा होने के बाद जब तक दूसरा ध्यान आरंभ नहीं किया जाता है तब तकका काल ध्यानान्तरिका कहलाता है ।
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जैन-रन्न
कालधर्म पायेंगे । इस शंकासे वे बहुत दुःखी हुए और तफ करनेके स्थानसे मालुका वनमें जाकर जार जार रोने लगे। :
अन्तर्यामी श्रमण भगवान महावीरने अपने साधुओं द्वारा सिंह मुनिको बुलाया और पूछा:-" हे सिंह ! तुम्हें ध्यानान्तरिकामें मेरे मरनेकी शंका हुई और तुम मालुकावनमें जाकर खुब रोये थे न?" सिंहने उत्तर दिया:-" भगवन् यह बात सत्य है।"
महावीर स्वामी बोले:-" हे सिंह! तुम निश्चिंत रहो । मैं गोशालकके कथनानुसार छः महीनेके अंदर कालधर्मको प्राप्त नहीं होऊँगा । मैं अबसे सोलह बरस तक और गंध हस्तिकी तरह जिनरूपसे, विचरण करूँगा।" सिंहने बड़ी ही नम्रताके साथ निवेदन किया:--" हे
भगवन ! आप और सोलह बरस प्रभुका सिंहके आग्रहसे तक विचरण करेंगे यह सत्य है। औषध लेना परंतु हम लोग आपके इस दुःखको
नहीं देख सकते, इस लिए आप कृपा करके औषधका सेवनकर हमें अनुग्रहीत कीजिए।" __ महावीर स्वामीने कहा:-" हे सिंह ! मेंढिक गाँवमें जाओ। वहाँ रेवती नामकी श्राविका है । उसने मेरे निमित्तसे दो कोहलोंका पाक बनाया है, उसे मत लाना; परंतु अपने लिए मार्जारकृत ( मार्जार नामक वायुको शान्त करनेवाला) बीजोरा पाक बनाया है। उसे ले आना।"
सिंहमुनि रेवतीके मकानपर गये । धर्मलाभ दिया । रेवतीने
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२४ श्री महावीर स्वामी-चरित
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वंदनाकर सुखसात पूछनेके बाद प्रश्न किया:-" पूज्यवर आपका आना कैसे हुआ ?" सिंह मुनि बोले:-" मैं भगवानके लिए औषध लेने आया हूँ।" __ रेवती प्रसन्न हुई । उसने भगवान के लिए जो कुष्मांड पाक तैयार किया था वह बहोराने लगी। सिंह मुनि बोले:-"महाभाग! प्रभुके निमित्तसे बनाये हुए इस पाककी आवश्यकता नहीं है । तुमने अपने लिए बीजोरा पाक बनाया है वह लाओ।" ___ भाग्यमती रेवतीने इसको अपना अहोभाग्य जाना और बीजोरा पाक बड़े भक्ति-भावके साथ सिंह मुनिको बोहरा दिया । इस शुद्ध दानसे रेवतीने देवायुका बंध किया ।
सिंह मुनि बीजोरा पाक लेकर महावीर स्वामीके पास गये और यथाविधि उन्होंने वह प्रभुके सामने रक्खा । प्रभुने उसका उपयोग किया और वे रोगमुक्त हुए। उस दिन गोशालकने तेजोलेश्या रक्खी उसे छः महीने बीते थे । प्रभुके आरोग्य हानक समाचार सुनकर सभी प्रसन्न हुए। अनुक्रमसे विहार करते हुए महावीर स्वामी पोतनपुरमें पधारे
और मनोरम नामके उद्यानमें समोराजर्षि प्रसन्नचंद्रको दीक्षा सरे । पोतनपुरका राजा प्रसन्नचंद्र
प्रभुको वंदना करने आया और प्रभुका उपदेश सुन, संसारको असार जान, दीक्षित हो गया । प्रभुके साथ रहकर राजर्षि प्रसन्नचंद्र सूत्रार्थके पारगामी हुए। __ एक बार विहार करते हुए प्रभु राजगृह नगरके बाहर समोसरे । प्रसन्नचंद्र मुनि थोड़ी दूरपर ध्यान करने लगे । राजा
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जैन-रत्न
श्रेणिक अपने परिवार और सैन्य सहित प्रभुके दर्शनको चला। रस्तेमें उसने राजर्षि प्रसन्नचंद्रको, एक पैरपर खड़े हो ऊँचा हाथ किये आतापना करते देखा । श्रेणिक भक्ति सहित उनको वंदना करके महावीर स्वामीके पास पहुँचा । और प्रदक्षिणा दे, वंदना कर, हाथ जोड़, बैठा व बोला:-"भगवन् मैंने इस समय आते हुए राजर्षि प्रसन्नचंद्रको उग्र तप करते देखा है। अगर वे इस समय कालधर्मको पावे तो कौनसी गति जायँगे ?"
महावीर स्वामीने उत्तर दिया:-" सातवें नरकमें ।"
श्रेणिकको आश्चर्य हुआ। वह सोचने लगा,-क्या यह भी संभव है कि ऐसा महान तपस्वी भी नरकमें जायँ ? संभव है मेरे सुननेमें भूल हुई हो । उसने फिर पूछा:--"प्रभो ! राजर्षि प्रसन्नचंद्र यदि अभी कालधर्मको प्राप्त करें तो कौनसी गतिमें जायँगे ?" महावीर स्वामी बोले:--" सर्वार्थसिद्धि विमानमें।"
श्रेणिकको और भी आश्चर्य हुआ । उसने पुनः पूछा:-- "स्वामिन् ! आपने दोनों बार दो जुदा जुदा बातें कैसे कहीं?" ___ महावीर स्वामी बोले:--" मैंने ध्यानके भेदोंसे जुदा जुदा बातें कही थीं । तुमने पहले प्रश्न किया तब प्रसन्नचंद्र मुनि ध्यानमें अपने मंत्रियों और सामंतोंके साथ युद्ध कर रहे थे और दूसरी बार पूछा तब वे अपनी भूलकी आलोचना कर रहे थे।"
श्रेणिकने पूछा:--" ऐसी भूलका कारण क्या है ? "
प्रभु बोले:--" रस्तेमें आते हुए तुम्हारे सुमुख और दुर्मुख नामके दो सेनापतियोंने राजर्षिको देखा। सुमुख बोला:-"ऐसा
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२४ श्री महावीर स्वामी-चरित
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घोर तप करनेवाले मुनिके लिए स्वर्ग या मोक्ष कोई स्थान दुर्लभ नहीं है।" यह सुनकर दुर्मुख बोला:-" क्या तुम नहीं जानते कि यह पोतनपुरका राजा प्रसन्नचंद्र है । इसने अपने बालकुमारपर राज्यका भारी बोझा रखकर बहुत बड़ा अपराध किया है । इसके मंत्री चंपानगरीके राजासे मिलकर राजकुमारको राज्यच्युत करनेवाले हैं। इसकी स्त्रियाँ भी न जाने कहाँ चली गई हैं ? जिसके कारण यह अनर्थ हुआ या होनेवाला है उसका तो मुँह देखना भी पाप है।
" दुर्मुखकी बातें सुनकर राजर्षिको क्रोध हो आया और वे अपने मंत्रियों और उनके साथियोंके साथ मन ही मन युद्ध करने लगा। उस समय उनके परिणाम भयंकर थे। उसी समय तुमने पूछा कि वे कौनसी गतिमें जायँगे और मैंने जवाब दिया कि वे सातवें नरकमें जायगे। ____" मगर मनमें युद्ध करते हुए जब उनके सभी हथियार बेकार हुए तब उन्होंने अपने मुकुटसे शत्रुओंपर आघात करना चाहा । जब उन्होंने अपने सिरपर हाथ रक्खा तो उनका सिर उन्हें साफ मालूम हुआ। तुरत उन्हें खयाल आया कि, मैं तो मुनि हूँ। मुझे राज और कुटुंबसे क्या मतलब ? धिक्कार है मेरी ऐसी इच्छाको ! मैं त्याग करके भी पूरा त्यागी न हो सका ! भगवन् ! मैं किस विटंबनामें पड़ा ?" इस तरह अपनी भूलकी आलोचना करने लगे । उसी समय तुमने दूसरी बार पूछा था कि, वे कौनसी गतिमें जायँगे और मैंने
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जैन-रत्न mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm~~~~~~~~~ जवाब दिया था कि सर्वार्थसिद्धि विमानमें जायँगे । कारण, उस समय उनके भाव अति निर्मल थे।"
इस तरह अभी भगवानका कथन चल ही रहा था कि आकाशमें दुंदुभिनाद सुनाई दिया । श्रेणिकने पूछा:-" प्रभो ! यह दुंदुभिनाद कैसा है ?"
प्रभु बोले:-" राजन् ! प्रसन्नचंद्र मुनिको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है । उनका ध्यान निर्मलतम हुआ । वे शुक्ल ध्यानपर आरूढ हुए । उनके मोहिनी कर्मका और उसके साथ ही ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी और अन्तराय कर्मका भी क्षय हो गया । इनके क्षय होते ही उनको केवलज्ञानकी प्राप्ति हुई है।"
शुभ या अशुभ ध्यान ही प्राणियोंको सुखमें या दुःखमें डालते हैं। राजा श्रेणिकने पूछा:-"भगवन् ! केवलज्ञानका उच्छेद कब
होगा? उस समय विद्युन्माली नामक केवलज्ञानका उच्छेद ब्रह्मलोकके इन्द्रका सामानिक देवता
अपनी चार देवियोंके साथ प्रभुको वंदना करने आया हुआ था। उसे बताकर प्रभुने कहा:-"इस पुरुषसे केवलज्ञानका उच्छेद होगा । यानी इस भरतक्षेत्रमें इस अवसर्पिणी कालमें यह पुरुष अन्तिम केवली होगा।"
श्रेणिकने पृच्छा:-"क्या देवताओंको भी केवलज्ञान होता है ?" __ प्रभुने उत्तर दिया:-"नहीं यह देव सात दिनके बाद च्यवकर
राजगृहीके श्रेष्ठी ऋषभदत्तका पुत्र होगा । वैराग्य पाकर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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२४ श्री महावीर स्वामी-चरित
सुधर्माका शिष्य होगा। जंबू नाम रक्खा जायगा । उसे केवलज्ञान होगा। उसके बाद कोई भी केवली नहीं होगा।"
श्रेणिकन पूछा:-"देवताओंका जब अंतकाल नजदीक आता है तब उनका तेज घट जाता है । इनका तेज क्यों कम . नहीं हुआ ?"
प्रभुने उत्तर दिया:-" इनका तेज पहले बहुत था; इस समय कम है । इनके पुण्यकी अधिकताके कारण इनका तेज एक दम चला नहीं गया है।" उसी समय एक कोढ़ी पुरुष आकर वहाँ बैठा और अपने
शरीरसे झरते हुए कोढ़को पोंछ पोंछमेंडकसे देव कर प्रभुके चरणोंमें लगाने लगा।
यह देखकर श्रेणिकको बहुत क्रोध आया । प्रभुका इस तरह अपमान करनेवाला उन्हें वध्य मालूम हुआ; परंतु प्रभुके सामने वे चुप रहे । उन्होंने सोचा,-जब यह यहाँसे उठकर जायगा तब इसका वध करवा दूँगा।
प्रभुको छींक आई । कोढ़ी बोला:-" मरो।" कुछ क्षणोंके बाद राजा श्रेणिकको छींक आई । कोढ़ी बोला:" चिर काल तक जाते रहो।" कुछ देरके बाद अभयकुमारको छींक आई । कोढ़ी बोला:--"मरो या जीओ।" उसके बाद कालसौकरिकको छींक आई । कोढ़ी बोला:-" न जी न मर ।" ___ कोढ़ीने जब महावीर स्वामीको कहा कि मरो तब तो श्रेणिकके क्रोधका कोई ठिकाना ही न रहा । उसने अपने सुभ
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जैन-रत्न
टोको हुक्म दिया कि यह कोढ़ी जब बाहर निकले तब इसे कैद कर लेना। __ थोड़ी देरके बाद कोढ़ी बाहर निकला। सुभटोंने उसे घेर लिया; मगर सुभटोंको अचरजमें डाल, दिव्यरूप धारणकर वह कोढ़ी आकाशमें उड़ गया।
सुभटोंने आकर श्रेणिकको यह हाल सुनाया।श्रेणिक अचरजमें पड़े। उन्होंने प्रभुसे पूछा:-"प्रभो ! वह कोढ़ी कौन था ?"
महावीर बोले:-" वह देव था।" श्रेणिकने पूछा:-" तो वह कोढ़ी कैसे हुआ?"
" अपनी देवी-मायासे।" कहकर प्रभने उसकी जीवन कथा सुनाई और कहा:-" देवसे पहलेकी इसकी योनी मेंडककी थी। इसी शहरके बाहरकी बावड़ीमें यह रहता था। जब हम यहाँ आये तो लोग हमें वंदना करने आने लगे। पानी भरनेवाली स्त्रियोंको हमारे आनेकी बातें करते इसने सुना । इसके मनमें भी हमें वंदना करनेकी इच्छा हुई । वह बावड़ीसे निकलकर हमें वंदना करने चला । रस्तेमें आते तुम्हारे घोड़ेके पैरों तले कुचलकर मर गया । शुभ भावनाके कारण मरकर वह दर्दुरांक नामका देवता हुआ। अनुष्ठानके बिना भी प्राणीको उसकी भावनाका फल मिलता है । उसने मेरे पैरोंमें गोशीर्ष चंदन लगाया था; परंतु तुम्हें वह कोढ़-रस दिखाई दिया था।"
श्रेणिकने पूछा:-" जब आपको छींक आई तब वह अागलिक शब्द बोला, और दूसरोंको छींकें आई तब मांगलिक शब्द बोला, इसका क्या कारण है ?"
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२४ श्री महावीर स्वामी-चरित
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महावीर स्वामीने उत्तर दिया:-" मुझे उसने कहा कि 'मरो" इससे उसका यह अभिप्राय था कि तुम अब तक इस दुनियामें कैसे हो ? मोक्षमें जाओ। तुम्हें कहा कि जीते रहो' इससे उसका यह अभिप्राय था कि तुम इस शरीरमें रहोगे इसीमें सुख है; क्योंकि मरकर तुम नरकमें जाओगे । अभयकुमारको कहा कि 'जीओ या मरो' इसका यह मतलब था कि अगर तुम जीते रहोगे तो धर्म करोगे और मरोगे तो अनुत्तर विमानमें जाओगे । इससे जीवन, मरण दोनों समान हैं। कालसौकरिकको कहा था कि 'न जी न मर' इससे यह अभिप्राय था कि अगर जीएगा तो पाप करेगा और मरेगा तो. सातव नरकमें जायगा।" राजगृहीसे विहारकर प्रभु पृष्ठचंपा नामक नगरीमें आये।
वहाँका राजा साल और युवसाल राजाको दीक्षा राज महासाल-जो सालका छोटा
भाई था और जिसे राजाने युवराजपद दिया था-दोनों प्रभुको वंदना करने आये और उपदेश पा, वैराग्यवान हो प्रभुके शिष्य हो गये। उन्होंने अपना राज्य अपने भानजे 'गागली' को दिया । गागलीके पिताका नाम पिठर । और माताका नाम 'यशोमती' था ।
पृष्ठचंपासे विहारकर प्रभु चंपानगरी पधारे । वहाँ प्रभुके मुख्य शिष्य गौतम स्वामीने जिन लोगोंको दीक्षा दी थी उन्हें केवलज्ञान हो गया; परंतु गौतम स्वामीको नहीं हुआ। इससे वे दुखी हुए। उन्हें दुखी देख महावीर स्वामीने उन्हें कहा:
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जैन-रत्न mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm "हे गौतम ! तुम्हें केवलज्ञान होगा; मगर कुछ समयके बाद। तुमको मुझपर बहुत मोह है । इस लिए जबतक तुम्हारा मोह नहीं छूटेगा तबतक तुम्हें केवलज्ञानकी प्राप्ति भी नहीं होगी।" अंबड़ नामका परिव्राजक प्रभुको वंदना करने आया। उसके
हाथमें छत्री और त्रिदंड थे। उसने अंबड सन्यासीका आगमन बड़े ही भक्तिभावसे प्रभुको वंदना
की और कहा:-" हे वीतराग! आपकी सेवा करनेकी अपेक्षा आपकी आज्ञा पालना विशेष लाभकारी है । जो आपकी आज्ञाके अनुसार चलते हैं, उन्हें मोक्ष मिलता है। आपकी आज्ञा है कि हेय (छोड़ने योग्य ) का त्याग किया जाय और उपादेय (ग्रहण करने योग्य ) को स्वीकारा जाय । आपकी आज्ञा है कि आस्रव हेय है और संवर उपादेय है । आस्रव संसार-भ्रमणका हेतु है और संवरसे मोक्षकी प्राप्ति होती है । दीनता छोड़ प्रसन्न मनसे जो आपकी इस आज्ञाको मानते हैं वे मोक्षमें जाते हैं।"
प्रभुका उपदेश सुननेके बाद अंबड़ जब राजगृही जानेको तैयार हुआ तब प्रभुने अंबड़को कहा:-"तुम राजगृहीमें नाग नामक सारथीकी स्त्री सुलसासे सुखसाता पूछना ।"
१-सुलसा परम श्राविका थी । महावीर स्वामीने सुलसाहीकी सुखसाता क्यों पुछाई ? उसके परम श्राविकापनकी जाँच करना चाहिए । यह सोचकर अंबड़ने अनेक युक्तियोंद्वारा उसे श्राविकापनसे च्युत करनेकी कोशिश की; परंतु वह निष्फल हुआ । तब उसको विश्वास हुआ कि, महावीर स्वामीने सुलसाके प्रति इतना भाव दिखाया वह योग्य ही था। यह देवी सोलह सतियोंमें से एक हैं । इनका विस्तृत
चरित्र अगले भागोंमें दिया जायगा । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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२४ श्री महावीर स्वामी-चरित
स्वामा-चारत
४१३
चंपा नगरीसे विहार कर, प्रभु दशार्ण देशमें आये । वहाँकी
राजधानी दशार्ण नामकी नगरी राजा दशार्णमद्र थी । वहाँ दशार्णभद्र नामका राजा
राज्य करता था । दशार्ण नगरीके बाहर प्रभुका समवसरण हुआ । राजाको यह खबर मिली । वह अपने पूर्ण वैभवके साथ प्रभुके दर्शन करने गया और प्रभुको वंदना कर उचित स्थान पर बैठा । उसको गर्व हुआ कि, मेरे समान वैभववाला दूसरा कौन है। ___ इन्द्रको राजा दशार्णभंद्रके इस अभिमानकी खबर पड़ी। उसने राजाको, उपदेश देना स्थिर कर एक अद्भुत रथ बनाया । वह विमान जलमय था । उसके किनारोंपर कमल खिले हुए थे। हंस और सारस पक्षी मधुर बोल रहे थे। देव वृक्षों और देवलताओंसे सुंदर पुष्प उसमें गिरकर बैर रहे थे । नील कमलोंसे वह विमान इन्द्रनील मणिमयसा लगता था । मरकत मणिमय कमलिनीमें सुवर्णमय विकसित कमलोंके प्रकाशका प्रवेश होनेसे वह अधिक चमकदार मालूम हो रहा था। और जलकी चपल तरंगोंकी मालाओंसे वह ध्वजा-पताका
ओंकी शोभाको धारण कर रहा था। __ ऐसे जलकांत विमानमें बैठकर इन्द्र अपने देव-देवांगना
ओं सहित समवशरणमें आया, इन्द्रका वैभव देखकर दशार्णभद्र राजाके गर्वमें धक्का लगा। उसे खयाल आया कि, मेरा वैभव तो इस वैभवके सामने तुच्छ है । छिः मै इसीपर इतना फूल रहा हूँ। क्यों न मैं भी उस अनंत वैभवको पानेका
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४१४ mmmmmmmmmmmmm
जैन-रत्न
प्रयत्न करूँ जिसको प्राप्त करनेका उपदेश महावीर स्वामी
राजाने वहीं अपने वस्त्राभूषण निकाल डाले और अपने हाथोंहीसे लोच भी कर डाला । देवता और मनुष्य सभी विस्मित थे । फिर दशार्णभद्रने गौतम स्वामीके पास आकर यतिलिंग धारण किया और देवाधिदेवके चरणोंमें उत्साहपूर्वक वंदना की।
दशार्णभद्रका गर्वहरण करनेकी इच्छा रखनेवाला इन्द्र आकर मुनिके चरणोंमें झुका और बोला:-" महात्मन् ! मैंने आपके वैभव-गर्वको अपने वैभवसे नष्ट कर देना चाहा । वह गर्व नष्ट हुआ भी; परंतु वैभवको एकदम छोड़ देनेके आपके महान त्यागने मुझे गर्वहीन कर दिया । त्यागी महात्मन् ! मेरी भक्ति-वंदना स्वीकार कीजिए।"
वैभवभोगीसे वैभवत्यागी महान होता है । दुनिया उसकी कोई समता नहीं। धन्ना और शालिभद्र दोनों महान समृद्धिवान थे । राजगृही
नगरीमें रहते थे। एक बार राजा धन्ना और शालिभद्रको दीक्षा श्रेणिकको शालिभद्रकी माताने अपने
यहाँ आमंत्रण दिया । राजा श्रेणिक उसके घर आये । शालिभद्र सातवें खंडमें रहते थे। उन्हें माताने जाकर कहा:- " पुत्र ! नीचे चलो । तुम्हारे स्वामी राजा आये हैं।"
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२४ श्री महावीर स्वामी-चरित
आपका
'मेरे सिरपर भी स्वामी है। यह बात शालिभद्रको बहुत बरी लगी और वे सब वैभवका त्याग करने लगे । शालिभद्रके बहनोई 'धन्ना' थे । उनको भी यह बात मालूम हुई । उन्हें भी वैराग्य हो आया । फिर जब भगवान महावीर विहार करते हुए वैभारगिरिपर आये। तब शालिभद्र और धन्नाने भगवानके पास जाकर दीक्षा ले ली ।* प्रभु राजगृहीके अंदर समवसरणमें विराजमान थे । उस
___समय एक पुरुष प्रभुके पास आया, रोहिणेय चोरको दीक्षा चरणों में गिरा और बोला:-" नाथ !
आपका उपदेश संमार-सागरमें गोता खाते हुए मनुष्यको पार करनेमें जहाजका काम देता है । धन्य हैं वे पुरुष जो आपकी वाणी श्रद्धापूर्वक मुनते हैं और उसके अनुसार आचरण करते हैं । भगवन् ! मैंने तो एक बार कुछ ही शब्द सुने थे; परंतु उन्होंने भी मुझे बचा लिया है।"
फिर उसने प्रभुसे उपदेश सुना । सुनकर उसे वैराग्य हुआ। उसने पूछा:--" प्रभो ! मैं यतिधर्म पानेके योग्य हूँ या नहीं ? क्योंकि मैंने जीवनभर चोरीका धंधा किया है और अनेक तरहके अनाचार सेवे हैं!"
प्रभु बोले:--" रोहिणेय ! तूम यतिधर्मके योग्य हो ।" फिर रोहिणेय चोर मुनि हो गये। प्रभु महावीरके उपदेशने और धर्मके आचरणने चोरको एक पूज्य पुरुष बना दिया। *इनके विस्तृत चरित्र अगले भागोंमें दिये जायेंगे।
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जैन-रत्न
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भगवान विहार करते हुए मरुमंडलके वीतभय नगरमें पधारे।
वहाँके राजा उदायनने प्रभुसे उपराजा उदायन को दीक्षा देश सुन, संसारसे विमुख हो
दीक्षा ग्रहण की। *
प्रभु विहार करते हुए राजगृहीमें पधारे । श्रेणिक अभय
कुमार वगैरा-प्रभुके दर्शनोंको गये । अंतिम राजर्षि कौन होगा? अभयकुमारने-प्रभुसे प्रश्न किया--
___"हे भगवन् ! अंतिम राजर्षि कौन होंगे ?" प्रभुने उत्तर दिया:--" उदायन राजा ।" अभयकुमारको जब यह मालूम हुआ कि, अंतिम राजर्षि
उदायन होगा तब उनके मनमें खलअभयकुमारको दीक्षा * बली मच गई । त्याग और भोमका
द्वंद्व शुरू हुआ। भोग कहता था," राज्य-सम्पत्ति-सुख भोगनेमें पड़ोगे तो तुम्हें फिर कभी त्यागका सुख न मिलेगा राजा बनकर फिर दीक्षा न ले सकोगे।"
धर्मपरायण अभयकुमार राज्यसम्पत्तिसुखके लोभमें न पड़े। उन्होंने अपने पिता श्रेणिकसे आज्ञा लेकर प्रभुके पाससे दीक्षा ले ली।
* इनके विस्तृत चरित्र जैनरत्नके अगले भागोंमें दिये जायेंगे। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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२४ श्री महावीर स्वामी-चरित
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राजा श्रेणिकके हल्ल और विहल्ल नामक दो लड़के भी
थे । श्रेणिकने उन्हें महामूल्यवान हल्ल विहल्लको दीक्षा कुंडल और सेचनक नामका हाथी
दिये थे । श्रेणिकका लड़का कूणिक श्रेणिकको कैदकर राज्यपर बैठा । फिर उसने हल्ल विहल्लसे कुंडल और हाथी लेना चाहा । इससे हल्ल व विहल्ल अपने मामाके पास विशाला नगरी चले गये । मामा चेटकने उनको आश्रय दिया । कूणिकने विशालापर चढ़ाई की महान युद्धके बाद कूणिक जीता और हल्ल विहल्ल संसारसे उदास हो भगवान महावीर स्वामीके पास गये । और उपदेश सुन, वैराग्य पा प्रभुके पाससे उन्होंने दीक्षा ग्रहण की। * प्रभु विहार करते हुए चंपानगरीमें पधारे । वहाँ श्रेणिक
राजाकी अनेक राणियोंने पति और श्रेणिककी पत्नियोंको दीक्षा पुत्रोंके वियोगसे उदास हो प्रभुके
पाससे दीक्षा ली। राजा कूणिक * भी प्रभके पास वंदना करने आया और उसने नम्रता पूर्वक हाथ जोड़ कर पूछा:-" भगवन् ! जो चक्रवर्ती उम्रभर भोगको नहीं छोड़ते वे मरकर कहाँ जाते हैं ? प्रभुने उत्तर दिया:--" व मरकर सातवें नरकमें जाते हैं।" कुणिकने फिर पूछा:-" मैं मरकर कहाँ जाऊँगा ?" प्रभु बोले:--" तुम मरकर छठे नरकमें जाओगे।" कूणिकने पूछा:--सातवेंमें क्यों नहीं ?" *इनके विस्तृत चरित्र अगले भागोंमें दिये जायेंगे ।
२७
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जैन-रत्न
प्रभु बोले:--" इस लिए कि तुम चक्रवर्ती नहीं हो।" कूणिकने पूछा:--" मैं चक्रवर्ती क्यों नहीं हूँ ?" प्रभु बोले:-"इसलिए कि तुम्हारे पास चक्रादि रत्न नहीं हैं।"
कूणिक इससे बहुत दुखी हुआ और वह चक्रवर्ती बननेका इरादा कर अपने महलोंमें चला गया। प्रभु विहार करते हुए अपापा पुरीमें समोसरे ।
वहाकाँ राजा हस्तिपाल प्रभुको वंदना राजा हस्तिपालके स्वप्नोंका फल करने आया। वंदना कर, अपने
आसनपर बैठा। प्रभुने उपदेश दिया:--" इस जगतमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष नामके चार पुरुषार्थ हैं । इनमेंसे अर्थ और काम तो नाम मात्रके पुरुषार्थ हैं । क्योंकि इनका परिणाम अनर्थरूप होता है। वास्तवमें पुरुषार्थ तो मोक्ष है । और उसका कारण धर्म है । धर्म संयम आदि दस तरहका है । वह संसारसागरसे जीवोंको तारता है । संसार अनंत दुःखरूप है और मोक्ष अनंत सुखरूप है । इसलिए संसारको छोड़ने और मोक्षको पानेका कारण एक मात्र धर्म ही है । जैसे लँगड़ा मनुष्य भी सवारीके सहारे दूरकी मुसाफिरी कर सकता है वैसे ही घोर कमी मनुष्य भी धमके सहारे मोक्षमें जा सकता है!"
राजाने नम्रतापूर्वक पूछा:-" भगवन् ! मैंने रातको स्वममें क्रमशः, हाथी, बंदर, क्षीरवाला वृक्ष, कौआ, सिंह, कमल, बीज और कुंभ ये आठ चीजें देखी थीं । कृपा करके कहिए कि इनका फल क्या होगा ?"
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प्रभु बोले:--
१-हाथी-अबसे श्रावक समृद्धिके-दौलतके-क्षणिक सुखमें लुब्ध होंगे । हाथीके समान शरीर रखते हुए भी आलसी होकर घरमें पड़े रहेंगे । महासंकटमें आ पड़नेपर भी और परचक्रका भय होनेपर भी वे संयम नहीं लेंगे । यदि कुछ ले लेंगे तो कुसंग दोषसे उसे छोड़ देंगे । कुसंग दोषमें भी संयम पालनेवाले विरले ही होंगे।
२-बंदर-दूसरे स्वमका फल यह है कि गच्छके स्वामी आचार्य लोग बंदरके समान चपल (अस्थिर) स्वभाववाले, थोड़ी शक्तिवाले और व्रत-पालनमें प्रमाद करनेवाले होंगे । इतना ही नहीं जो धर्ममें स्थिर होंगे उनके भावोंको भी विपरीत बनायँगे । धर्मके उद्योगमें तत्पर तो विरले ही निकलेंगे। जो खुद धर्माचरणमें शिथिल होते हुए भी दूसरोंको धर्मोपदेश देंगे उनकी लोग ऐसे ही दिल्लगी करेंगे जैसे गावोंके लोग शहरमें रहनेवाले (श्रमसे डरनेवाले) लोंगोंकी किया करते हैं । हे राजन् , भविष्यमें इस तरहके प्रवचनसे अज्ञात पुरुष (आचार्य ?) होंगे।
३-क्षीरवृक्ष-तीसरे स्वमका फल यह है कि, सातों क्षेत्रों में द्रव्यका उपयोग करनेवाले, क्षीरवृक्षके जैसे दातार श्रावक होंगे । उन्हें लिंगधारी ( वेषधारी) ठग रोक लेंगे, ( अपने रागी बना लेंगे ) ऐसे पाखंडियोंकी संगतिसे सिंहके समान सत्त्वशील आचार्य भी उन्हें श्वानके जैसे सारहीन मालूम होंगे। सुविहित मुनियोंकी विहारभूमिमें ऐसे लिंगधारी शूलकासा त्रास
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देंगे । क्षीरवृक्षके समान श्रावकोंको अच्छे मुनियोंकी संगति नहीं करने देंगे।
४-काकपक्षी-इस स्वमका यह फल है कि, जैसे काकपक्षी विहार वापिकामें नहीं जाते वैसे ही उद्धत स्वभावके मुनि धर्मार्थी होते हुए भी अपने गच्छोंमें नहीं रहेंगे । वे दूसरे गच्छोंके सूरियोंके साथ, जो कि मिथ्याभाव दिखलानेवाले होंगे, मूर्खाशयसे चलेंगे । हितैषी अगर उनको उपदेश करेंगे कि इनके साथ रहना अनुचित है तो वे हितैषियोंका सामना करेंगे। ___५-सिंह-इस स्वामका यह फल है कि, जैन मजहब जो सिंहके समान है-जातिस्मरणादि ज्ञानरहित और उसकोधर्मके रहस्यको-समझनेवालोंसे शून्य होकर इस भरतक्षेत्ररूपी वनमें विचरण करेगा-रहेगा । उसे अन्य तीर्थी तो किसी तरहकी वाधा न पहुँचा सकेंगे; परंतु स्वलिंगी ही-जो सिंहके शरीरमें पैदा होनेवाले कीड़ोंकी तरह होंगे-इसको कष्ट देंगे, जनशासनकी निंदा करायँगे।
६-कमल-इस स्वमका यह फल है कि,-जैसे स्वच्छ सरोवरमें होनेवाले कमल सभी सुगंधवाले होते हैं, वैसे ही उत्तम कुलमें पैदा होनेवाले भी सभी धर्मात्मा होते हैं; परंतु भविष्यमें ऐसा न होगा । वे धर्मपरायण होकर भी कुसंगतिसे भ्रष्ट होंगे। मगर जैसे गंदे पानीके गड्डेमें भी कभी कभी कमल उग आते हैं वैसे ही कुकुल और कुदेशमें जन्मे हुए भी कोई कोई मनुष्य धर्मात्मा होंगे; परंतु वे हीनजातिके होनेसे अनुपादेय होंगे।
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७-बीज-इसका यह फल है कि, जैसे ऊसर भूमिमें बीज डालनेसे फल नहीं मिलता वैसे ही कुपात्रको धर्मोपदेश दिया जायगा; परंतु उसका कोई परिणाम नहीं होगा । हाँ कभी कभी ऐसा होगा कि जैसे किसी आशयके बगैर किसान, घुणाक्षर न्यायसे अच्छे खेतमें बुरे बीजके साथ उत्तम बीज भी डाल देता है वैसे ही श्रावकोंसे सुपात्रदान भी कर दिया जायगा ।
८-कुंभ-इसका यह फल होगा कि क्षमादि गुणरूपी कमलोंसे अंकित और सुचरित्ररूपी जलसे पूरित एकांतमें रक्खे हुए कुंभके समान महर्षि विरले ही होंगे । मगर मलिन कलशके समान शिथिलाचारी लिंगी ( साधु ) जहाँ तहाँ दिखाई देंगे। वे ईर्ष्यावश महर्षियोंसे झगड़ा करेंगे और लोग ( अज्ञानताके कारण ) दोनोंको समान समझेंगे । गीतार्थ मुनि अंतरंगमें उत्तम स्थितिकी प्रतीक्षा करते हुए और संयमको पालते हुए बाहरसे दूसरोंके समान बनकर रहेंगे।" राजाको वैराग्य हुआ और राजपाट सुखसंपत्तिको छोड़
. उसने दीक्षा ली और घोर तप कर राजा हस्तिपालको दीक्षा र
" मोक्षपदको प्राप्त किया। गौतम स्वामीने पूछा:-" भगवन् ! तीसरे आरेके अंवमें
भगवान ऋषभ देव हुए । चौथे कल्की राजा आरेमें अजितनाथादि तेईस तीर्थकर
हुए जिनमेंके अंतिम तीर्थकर आप हैं। अब दुःखमा नामके पाँचवें आरेमें क्या होगा सो कृपा करके फर्माइए !"
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जैन - रत्न
महावीर स्वामीने जवाब दिया: - " हे गौतम : हमारे मोक्ष जानेके बाद तीन बरस और साढ़े आठ महीने बीतने पर पाँचवाँ आरा आरंभ होगा । हमारे निर्वाण जानेके उन्नीस सौ और चौदह बरस बाद पाटलीपुत्रमें म्लेच्छ कुलमें एक लड़का पैदा होगा। बड़ा होनेपर वह राजा बनेगा और कल्कि, रुद्र और चतुर्मुख नाम से प्रसिद्ध होगा । उस समय मथुराके रामकृष्णका मंदिर अकस्मात - पुराना वृक्ष जैसे पवनसे गिर जाता है वैसे ही गिर पड़ेगा। क्रोध, मान, माया और लोभ उसमें इसी तरहसे जन्मेंगे जैसे लक्कड़में घुणा जातिका कीड़ा पैदा होता है । उस समय प्रजाको राजाका और चोरोंका दोनों हीका भय बना रहेगा । गंध और रसका क्षय होगा । दुर्भिक्ष और अतिवृष्टिका प्रकोप रहेगा । कल्कि अठारह बरसका होगा तब तक महामारीका रोग रहा करेगा । फिर कल्कि राजा बनेगा। " एक बार कल्कि राजा फिरनेको निकलेगा । रस्तेमें पाँच स्तूपों को देखकर वह पूछेगा कि, – “ ये स्तूप किसने बनवाये हैं ? " उसे जवाब मिलेगा कि, " पहले नंद नामका एक राजा हो गया है । वह कुबेरके भंडारी जैसा धनिक था । उसने इन स्तूपों के नीचे बहुतसा धन गाड़ा है । आज तक उस । धनको किसी राजाने नहीं निकलवाया । " धनका लोभी राजा उन स्तूपोंको खुदवाकर धन निकाल लेगा ।
"
फिर वह यह सोचकर कि शहरमें और स्थानों में भी धन गड़ा हुआ होगा, सारे शहरको खुदवा डालेगा । उसमेंसे एक लवणदेवी नामकी शिलामयी गाय निकलेगी । वह चौराहे में.
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खड़ी कर दी जायगी । वह अपना प्रभाव दिखलानेके लिए मुनियोंके-जो गोचरी जाते हुए उसके पाससे निकलेंगे-अपना सींग अड़ा देगी। इसको साधु भविष्यमें अति वृष्टिकी सूचना समझेंगे और वहाँसे चले जायँगे । कुछ भोजनवस्त्रके लोलुप यह कहकर वहीं रहेंगे कि कालयोगसे जो कुछ होनहार है वह जरूर होगा । होनहारको जिनेश्वर भी नहीं रोक सकते हैं ।
"फिर राजा कल्कि सभी धर्मोंके साधुओंसे कर लेगा। इसके बाद वह जैनसाधुओंसे भी कर माँगेगा । तब जैन साधु कहेंगे:-" हे राजन् ! हम अकिंचन हैं और गोचरी करके खाते हैं । हमारे पास क्या है सो हम तुम्हें दें ? हमारे पास केवल धर्मलाभ है । वही हम तुमको देते हैं। पुराणोंमें लिखा है कि, जो राजा ब्रह्मनिष्ठ तपस्वियोंकी रक्षा करता है उसे उनके पुण्यका छठा भाग मिलता है । इसलिए हे राजन् ! आप इस दुष्कमसे हाथ उठाइए । आपका यह दुष्कर्म देश और शहरका अकल्याण करेगा।" __" इससे कल्कि बड़ा गुस्से होगा । उसको नगरके देवता समझायँगे कि हे राजन् ! निष्परिग्रही मुनियोंको मत सताओ। ऐसे मुनियोंको 'कर' के लिए सताकर तुम अपनी मौतको पास बुलाओगे। __" इसको सुनकर कल्कि डरेगा और मुनियोंको नमस्कार कर उनसे क्षमा माँगेगा। __ " फिर शहरमें, उसके ( शहरके ) नाशकी सूचना देनेवाले बड़े बड़े भयंकर उपद्रव होंगे । सत्रह रात दिन तक बहुत मेंह
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बरसेगा । इससे गंगामें ( ? ) बाढ़ आयगी और पाटलीपुत्रको डुबा देगी । शहरमें केवल प्रातिपद नामके आचार्य, कुछ श्रावक, थोड़े शहरके लोग और कल्कि राजा किसी ऊँचे स्थानमें चढ़ जानेसे बच जायँगे । शेष सभी नगरजन मर जायँगे। __“पानीके शांत होनेपर कल्कि नंदके पाये हुए धनसे पुनः शहर बसायगा। लोग आयेंगे । शहरमें और देशमें सुख शांति होगी। एक पैसेका मटका भरके धान्य बिकेगा; तो भी खरीदार नहीं मिलेंगे। साधुसंत सुखसे विचरण करेंगे । पचास बरस तक सुकाल रहेगा। ___“जब राजा कल्किकी मौत निकट आयगी तब वह पुनः धर्मात्माओंको दुःख देने लगेगा । संघके लोगों सहित प्रतिपद आचार्यको वह गोशालामें बंद कर देगा और उनसे कहेगा-अगर तुम्हारे पास पैसा देनेको नहीं है तो जो कुछ माँगकर लाते हो उसी का छठा भाग दो । इससे कायोत्सर्ग पूर्वक संघ शक्रेन्द्रकी आराधना करेगा । शासनदेवी जाकर कल्किको कहेगी,"हे राजन् ! साधुओंने इन्द्रकी आराधनाके लिए कायोत्सर्ग किया है । इससे तेरा अहित होगा।" मगर कल्कि कुछ भी ध्यान नहीं देगा। __“संघकी तपस्यासे इन्द्रका आसन काँपेगा । वह अपने अवधिज्ञानसे संघका संकट जान कर कल्किके शहरमें आयगा और ब्राह्मणका रूप धरकर राजाके पास जाकर पूछेगा:"हे राजन! तुमने साधुओंको क्यों कैद किया है ?" ___ "तब कल्कि राजा कहेगा:-" हे वृद्ध ! ये लोग मेरे
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शहरमें रहते हैं। परंतु मुझे कर नहीं देते । इनके पास पैसे नहीं है, इस लिए मैंने इनको कहा कि, तुम अपनी भिक्षाका छठा भाग मुझे दो; मगर वह भी देनेको ये राजी नहीं हुए। इसी लिए मैंने इनको गायोंके बाड़ेमें बंद कर दिया है।" __तब शक्रेन्द्र उनको कहेगा,-" उन साधुओंके पास तुझे देनेके लिए कुछ भी नहीं है । भिक्षा वे इतनी ही लाते हैं जितनी उनको जरूरत होती है। अपनी भिक्षामेंसे वे किसीको एक दाना भी नहीं दे सकते । ऐसे साधुओंसे भिक्षांश माँगते तुम्हें लाज क्यों नहीं आती ? अगर अब भी अपना भला चाहते हो तो साधुओंको छोड़ दो वरना तुम्हारा अपकार होगा।" __" ये बातें सुनकर कल्कि नाराज होगा और अपने सुभटोंको हुक्म देगा:-" इस ब्राह्मणको गर्दनिया देकर निकाल दो।"
" इन्द्र कुपित होकर तत्काल ही कल्किको भस्म कर देगा; उसके पुत्र दत्तको जैनधर्मका उपदेश देकर राज्यगद्दीपर बिठायगा, संघको मुक्त कर नमस्कार करेगा और फिर देवलोकर्म चला जायगा । कल्कि छियासी वर्षकी आयु पूर्णकर दुरंत नरक भूमिमें जायगा। __" राजा दत्त अपने पिताको मिले हुए अधर्मके फलको याद करके और इन्द्रके दिये हुए उपदेशका खयाल करके सारी पृथ्वीको अरिहंतके चैत्योंसे विभूषित कर देंगे । पाँचवें आरेके अंत तक जैनधर्म चला करेगा।
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" तीर्थकर जब विचरण करते हैं तब यह भरतक्षेत्र सब
तरह समृद्ध और सुखी होता है: । ऐसा तीर्थकर विचरण करते जान पड़ता है मानों यह दूसरा स्वर्ग है। हैं तब कैसी हालत इसके गाँव शहरों जैसे, शहर अलकापुरी रहती हैं ? जैसे, कुटुंबीजन राजाके जैसे, राजा
कुबेरके भंडारी जैसा, आचार्य चंद्रके जैसे, पिता देवके जैसे, सासु माताके समान और ससुर पिताके समान होते हैं । लोग सत्य और शौचमें तत्पर, धर्माधर्मके जाननेवाले, विनीत, देवगुरुके भक्त और स्वदारासंतोषी ( अपनी स्वीके सिवा सभी स्त्रियोंको अपनी माँ बहन समझनेवाले ) होते हैं । उन लोगोंमें, विज्ञान विद्या
और कुलीनता होते हैं । परचक्र, ईति और चोरोंका भय नहीं होता है, न कोई नया कर ही डाला जाता है । ऐसे समयमें भी अरिहंतकी भक्तिको नहीं जाननेवाले और विपरीत वृत्तिवाले कुतीर्थियोंसे मुनियोंको उपसर्ग होते ही रहते हैं और दस आश्चर्य भी होते हैं। __" इसके बाद दुःखमा नामक पाँचवें आरे मनुष्य कषायोंसे
लुप्त धर्मबुद्धिवाले और वाड़ बिनाके पाँचवाँ आरा खेतकी तरह मर्यादा रहित होंगे ।
जैसे जैसे पाँचवाँ काल आगे बढ़ेगा वैसे ही वैसे लोग विशेष रूपसे कुतीर्थियों द्वारा की गई, भ्रमित बुद्धिवाले अहिंसाके त्यागी होंगे। गाँव स्मशानके जैसे, शहर प्रेतलोक जैसे, कुटुंबी दासोंके जैसे और राजा यमदंडके जैसे
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होंगे। राजा अपने सेवकोंपर सख्ती करेंगे और सेवक लोगोंको सतायँगे, अपने संबंधियोंको लूटेंगे । इस तरह मात्स्यन्यायकी प्रवृत्ति होगी। जो अंतमें होगा वह मध्यमें आयगा
और जो मध्यमें होगा वह अंतमें जायगा । यानी जो हल्का है वह ऊँचा हो जायगा और जो ऊँचा है वह हल्का हो जायगा। इस तरह श्वेत ध्वजावाले (?) जहाजोंकी तरह सभी चलित हो जायँगे ( अपने कर्तव्यको भूल जायँगे ।) चोर चोरीसे, अधिकारी भूतकी बाधावाले मनुष्यकी तरह उदंडता एवं रिश्वतसे और राजा करके बोझेसे प्रजाको सतायँगे । लोग स्वार्थ-परायण, परोपकारसे दूर, सत्य, लज्जा या दाक्षिण्य ( मर्यादा ) हीन और अपनोंहीके वैरी होंगे । न गुरु शिष्यको शिष्यकी तरह समझेगा न शिष्य ही गुरुभक्ति करेगा । गुरु शिष्योंको उपदेशादि ( और आचरण द्वारा ) श्रुतज्ञान नहीं देंगे । क्रमशः गुरुकुलका निवास बंद होगा, धर्ममें अरुचि होगी और पृथ्वी बहुतसे प्राणियोंसे आकुल व्याकुल ह्ये जायगी। देवता प्रत्यक्ष नहीं होंगे, पिताकी पुत्र अवज्ञा करेंगे, बहुएँ सर्पिणीसी आचरण करेंगी । और सासुएँ कालरात्रिके जैसी प्रचंड होंगी । कुलीन स्त्रियाँ भी लज्जा छोड़कर भ्रूभंगीसे, हास्यसे, आलापसे अथवा दूसरी तरहके हावभावों और विलासोंसे वेश्या जैसी लगेंगी। श्रावक और श्राविकापनका हास होगा,
१-तालाब या समुद्र के अंदरकी बड़ी मछली छोटी मछलियोंको खाती हैं । मझली और छोटियोंको खाती हैं । छोटी उनसे और छोटियोंको खाती हैं। बड़ा छोटेको खाय, इसीका नाम मात्स्य न्याय है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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चतुर्विध धर्मका क्षय होगा और साधु साध्वियोंको पोंके दिन भी या स्वनमें भी निमंत्रण नहीं मिलेगा। खोटे माप तोल चलेंगे। धर्ममें भी शठता होगी । सत्पुरुष दुःखी और दुष्ट पुरुष सुखी रहेंगे । माण, मंत्र, औषध, तंत्र, विज्ञान, धन, आयु, फल, पुष्प, रस, रूप, शरीरकी ऊँचाई और धर्म एवं दूसरे शुभ भावोंकी पाँचवें आरेमें दिन प्रति दिन हानि होगी । और उसके बाद छठे आरेमें तो और भी अधिक हानि होगी।
" इस तरह पुण्यक्षय वाले कालके फैलनेपर जिस मनुष्यकी बुद्धि धर्ममें होगी वह धन्य होगा । इस भरतक्षेत्रमें दुःखमा कालके अंतिम भागमें दुःसह नामके आचार्य, फल्गुश्री नामा साध्वी, नायल नामक श्रावक और सत्यश्री नामा श्राविका, विमलवाहन नामक राजा और सुमुख नामक मंत्री होंगे । उस समय शरीर दो हाथका, उम्र ज्यादासे ज्यादा बीस बरसकी होगी । तप उत्कृष्ट छट्टका होगा । दशवैकालिकका ज्ञान रखनेवाले चौदह पूर्वधारी समझे जायँगे । और ऐसे मुनि दुःमसह मूरि तक संघरूप तीर्थको प्रतिबोध करेंगे । इस लिए उस समय तक अगर कोई यह कहे कि धर्म नहीं है
तो वह संघ बाहिर किया जाय । ___ " दुःसहाचार्य बारह वर्षतक घरमें रहेंगे और आठ बरस तक साधुधर्म पाल अंतमें अहम तप करेंगे और मरकर सौधर्म देवलोकमें जायँगे। उस दिन सवेरे चारित्रका, मध्यान्हमें राजधर्मका और संध्याको अनिका उच्छेद होगा । इस तरह इक्कीस हजार बरस प्रमाणका दुःखमा काल पूरा होगा।
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" फिर इक्कीस हजार बरस वाला एकांत दुःखमा नामका
छठा आरा शुरू होगा। वह भी छठा आरा इक्कीस हजार बरस तक रहेगा।
उसमें धर्म-तत्त्व नष्ट होनेसे चारों तरफ हाहाकार मच जायगा । पशुओंकी तरह मनुष्योंमें भी माता
और पुत्रकी व्यवस्था नहीं रहेगी । रात दित सख्त हवा चलती रहेगी । बहुत धूल उड़ती रहेगी। दिशाएँ धूएँके जैसी होनेसे भयानक लगेंगी। चंद्रमामें अत्यंत शीतलता और सूरजमें अत्यंत तेज धूप होगी। इससे बहुत ज्यादा सर्दी और बहुत ज्यादा गरमीके कारण लोग अत्यंत दुःखी होंगे। __ " उस समय विरस बने हुए मेघ खारे, खट्टे विषेले विषाग्निवाले और वज्रमय होकर, उसी रूपमें वृष्टि करेंगे। इससे लोगोंमें खाँसी, श्वास, शूल, कोढ़, जलोदर, बुखार, सिरदर्द और ऐसे ही दूसरे अनेक रोग फैल जायेंगे। जलचर, स्थलचर, और खेचर तिर्यंच भी महान दुःखमें रहेंगे। खेत, बन, बाग, बेल, वृक्ष और घासका नाश हो जायगा । वैताढ्य और ऋषभकूट पर्वत एवं गंगा और सिंधु नदियाँ रहेंगे दूसरे सभी पहाड़, खड्डे और नदियाँ समतल हो जायेंगे। भूमि कहीं अंगारोंके समान दहकती, कहीं बहुत घूलवाली और कहीं बहुत कीचडवाली होगी। मनुष्योंके शरीर एक हाथ प्रमाण वाले और खराब रंगवाले होंगे । स्त्रीपुरुष कटु भाषी, रोगी, क्रोधी, चपटी नाकवाले, निर्लज्ज और वस्त्रहीन होंगे । उत्कृष्ट आयु पुरुषोंकी बीस बरसकी और औरतोंकी सोलह
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बरसकी होगी । उस समय स्त्री छः बरसकी उम्र में गर्भधारण करेगी और प्रसव के समय अत्यंत दुःखी होगी । सोलह बरसकी उम्र में तो वह बहुत से बाल बच्चों वाली होगी और वृद्धा गिनी जायगी ।
वैताढ्य गिरिके नीचे उसके पास बिलों में लोग रहेंगे । गंगा और सिंधु दोनों नदियों के तीरपर वैताढ्य के दोनों तरफ नौ नौ बिल हैं कुल बहत्तर बिल हैं, उनमें रहेंगे । तिर्यच जाति मात्र बीज रूपसे रहेगी । उस विषम कालमें मनुष्य और पशु सभी मांसाहारी, क्रूर और अविवेकी होंगे । गंगा और सिंधु नदी प्रवाहमें बहुत मछलियाँ और कछुए होंगे । उनका पाट बहुत छोटा हो जायगा । लोग मछलियाँ पकड़कर धूपमें रक्खेंगे । धूपकी गरमी से वे पक जायँगी । उन्हींको लोग खायँगे । इस तरह उनका जीवन निर्वाह होगा । कारण उस समय अन्न, फल, दूध, दही वगैरा कोई भी खानेकी चीज नहीं मिलेगी । शैया, आसन वगैरा सोने बैठनेके पदार्थ भी न रहेंगे ।
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भरत और ऐरावत नामके दसों ' क्षेत्रों में इसी तरह पाँचवाँ और छठा आरा इक्कीस, इक्कीस हजार बरस तक रहेंगे । अवसर्पिणीमें जैसे अंत्य (छठा ) और उपांत्या ( पाँचवाँ ) आरा होते हैं, वैसे ही उत्सर्पिणीमें अंत्य ( पहळा ) और उपांत्य ( दूसरा ) आरा होते हैं ।
“ उत्सर्पिणीमें दुःखमा दुःखमा नामका ( अवसर्पिणी कालके छठे आरे जैसा) पहला आरा होगा ।
उत्सर्पिणी कालके आरे इस आरेके अंतमें पाँच जातिके मेघ बरसेंगे । हरेक जातिका मेघ सात
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सात दिन तक बरसेगा । पहला पुष्कर मेघ बरसकर पृथ्वीको तृप्त करेगा । दूसरा क्षीर मेघ बरसकर अनाज पैदा करेगा। तीसरा घृत मेघ स्नेह ( चिकनापन ) पैदा करेगा । चौथा अमृत मेघ ओषधियाँ उत्पन्न करेगा । पाँचवाँ रस मेघ पृथ्वी वगैराको रसमय बनायगा। ___ " इस तरह पैंतीस दिन तक दुर्दिन नाशक दृष्टि होगी। बादमें वृक्ष, औषध, लता इत्यादि हरियाली देखकर बिलमें रहनेवाले मनुष्य खुश होकर बाहर निकलेंगे । उसके बाद भारतभूमि फलवती होगी । मनुष्य मांस खाना छोड़ देंगे । फिर जैसे जैसे समय बीतता जायगा वैसे ही वैसे मनुष्योंके रूपमें, शरीरके संगठनमें, आयुष्यमें और धान्यादिमें वृद्धि होती जायगी । क्रमशः सुखकारी पवन बहेगा, अनुकूल ऋतुएँ होंगी और नदियोंमें जल बढ़ेगा । इससे मनुष्य
और तिर्यंच सभी नीरोग हो जायेंगे। ___ " दुःखमा कालके ( उत्सर्पिणीके दूसरे ) आरेके अंतमें इस भारतवर्षमें सात कुलकर होंगे । (१) विमलवाहन (२) सुदाम ( ३ ) संगम (४) सुपार्श्व (५) दत्त ( ६ ) सुमुख (७) संमुची।
" उनमेंके पहले विमलवाहनको जातिस्मरणज्ञान होगा। इससे वे गाँव और शहर बसायँगे, राज्य कायम करेंगे, हाथी, घोड़े, गाय, बैल वगैरे पशुओंका संग्रह करेंगे और शिल्प, लिपि और गणितादिका व्यवहार लोगोंमें चलायँगे । बादमें
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जब दूध, दही अग्नि आदि पैदा होंगे तब वह राजा अन्न पकाकर, लोगोंको, उसे खानेका उपदेश देगा।
" इस तरह जब दुःखमा काल बीत जायगा तब शतद्वार नामक नगरमें सातवें कुलकर राजाकी रानी भद्रादेवीके कोखसे श्रेणिकका जीव पुत्ररूपमें उत्पन्न होगा। उनके आयुष्य और शरीरादि मेरे समान होंगे । उनका नाम पद्मनाभ होगा । वे ही उत्सर्पिणी कालमें पहले तीर्थकर होंगे । ___ उसके बाद अवसर्पिणी कालकी तरह उल्टी तरहके हिसाबसे तेईस तीर्थकरोंके शरीर आयुष्य और अंतरमें अभिवृद्धि होगी । उनके नाम क्रमशः इस तरह होंगे___“ श्रेणिकका जीव पद्मनाभ नामक पहले तीर्थकर होंगे। सुपार्थका जीव सूरदेव नामक दूसरे तीर्थकर होंगे। पोट्टिलका जीव सुपार्श्व नामक तीसरे तीर्थकर होंगे । दृढायुका जीव स्वयंप्रभु नामके चौथे तीर्थकर होंगे । कार्तिक सेठका जीव सर्वानुभूति नामक पाँचवें तीर्थकर होंगे । शंख श्रावकका जीव देवश्रुत नामक छठे तीर्थकर होंगे । नंदका जीव उदय नामक सातवें तीर्थकर होंगे । सुनंदका जीव पेढाल नामक आठवें तीर्थकर होंगे। केकसीका जीव पोट्टिल नामक नवें तीर्थकर होंगे । रेयलीका जीव शतकीर्ति नामक दसवें तीर्थकर होंगे । सत्यकीका जीव सुव्रत नामक ग्यारहवें तीर्थकर होंगे। कृष्ण वासुदेवका जीव अमम नामक बारहवें तीर्थकर होंगे । बलदेवका जीव अकषाय नामक तेरहवें तीर्थकर होंगे । रोहिणीका जीव निष्पुलाक नामक चौदहवें तीर्थकर
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होंगे । सुलसाका जीव निर्मम नामक पन्द्रहवें तीर्थकर होंगे। रेवतीका जीव चित्रगुप्त नामक सोलहवें तीर्थकर होंगे। गवालीका जीव समाधि नामक सत्रहवें तीर्थकर होंगे । गागुलका जीव संवर नामक अठारहवें तीर्थकर होंगे। द्वीपायनका जीव यशोधर नामक उन्नीसवें तीर्थकर होंगे । कर्णका जीव विजय नामक बीसवें तीर्थकर होंगे । नारदका जीव मल्ल नामक इक्कीसवें तीर्थकर होंगे । अंबड़का जीव देव नामक बाईसवें तीर्थकर होंगे । बारहवें चक्रवर्तीका जीव अनंतवीर्य नामक तेईसवें तीर्थकर होंगे । और स्वातिका जीव भद्र नामक चौबीसवें तीर्थकर होंगे ।* ___ यह चौबीसी जितने समयमें होगी उतने समयमें दीर्घदंत, गूढदंत, शुद्धदंत, श्रीचंद्र, श्रीभूति, श्रीसोम, पद्म, दशम, विमल, विमलवाहन और अरिष्ठ नामके बारह चक्रवर्ती; नंदी, नंदीमित्र सुंदर बाहु, महाबाहु, इतिबल, महाबल, बल, द्विपृष्ट और त्रिपृष्ट नामके नौ वासुदेव ( अर्द्धचक्री ) जरांत, अजितधर्म, सुप्रभ, सुदर्शन, आनंद, नंदन, पद्म
और संकर्षण नामके नौ प्रतिवासुदेव; और तिलक, लोहजंघ, वज्रजंघ, केशरी, बली, प्रल्लाद, अपराजित, भीम
और सुग्रीव नामके नौ प्रतिवासुदेव होंगे। __इस तरह उत्सर्पिणी कालमें तिरसठ शलाका पुरुष होंगे।"
* ये नाम त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्रसे लिये गये है । पूर्वभवों में पाठांतर भी हैं।
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केवलज्ञानका उच्छेद
इसके बाद श्रीसुधर्मास्वामी गणधरने पूछा:-" भगवन् ! केवलज्ञान कब उच्छेद होगा और अंतिम केवली कौन होगा?"
प्रभुने उत्तर दिया:-" मेरे मोक्ष जानेके कुछ काल बाद तुम्हारे, जंबू नामक, शिष्य अंतिम केवली होंगे । उनके बाद केवलज्ञानका उच्छेद हो जायगा । केवलज्ञानके साथ ही, मन:पर्यय ज्ञान, पुलाकलब्धि, परमावधि ज्ञान, क्षपक श्रेणी व उपशम श्रेणी, आहारक शरीर, जिनकल्प, और त्रिविध (परिहार विशुद्धि, सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यात चारित्र ये तीन ) संयम भी विच्छेद हो जायेंगे।
" तुम्हारे शिष्य जंबू चौदह पूर्वधारी होकर मोक्षमें जायेंगे उनके शिष्य शय्यभव भी द्वादशांगीके पारगामी होंग । वे पूर्वमेंसे दशवकालिक सूत्रकी रचना करेंगे । उनके शिष्य यशोभद्र सर्व पूर्वधारी होंगे और उनके शिष्य संभूतिविजय
और भद्रबाहू, भी चौदह पूर्वधारी होंगे । संभूतिविजयके शिष्य स्थूलभद्र चौदह पूर्वधर होंगे । उनके बाद आतेम चार पूर्वोका उच्छेद हो जायगा । उसके बाद महागिरि और सुह स्तिसे वज्रस्वामी तक इस तीर्थके प्रवर्तक दस पूर्वधर होंगे।"
इस तरह भविष्य कहकर महावीर स्वामी समवसरणसे बाहर निकले और हस्तिपाल राजाकी शुल्क-शालामें (करलेनेकी जगहमें ) गये ।
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मोक्ष (निर्वाण)
उसी दिन प्रभुने सोचा, आज मैं मुक्त होनेवाला हूँ और गौतमका मुझपर बहुत ज्यादा स्नेह है । वह स्नेह ही उनको केव लज्ञान नहीं होने देता है । इसलिए वह काम करना चाहिए जिससे उनका स्नेह नष्ट हो जाय । फिर उन्होंने गौतम स्वामीको कहा:-" गौतम, पासके गाँवमें देवशर्मा नामका ब्राह्मण है। वह तुम्हारे उपदेशसे प्रतिबोध पायगा इसलिए तुम उसको उपदेश देने जाओ।"
गौतमस्वामी जैसी आपकी आज्ञा कह, नमस्कार कर देवशर्माके यहाँ गये । उन्होंने उसे उपदेश दिया और वह प्रतिबोध पाया ।
उस दिन कार्तिक मासकी अमावस, और पिछली रात थी। भगवानके छट्ठका तप था । जब चंद्र स्वाति नक्षत्रमें आया तब प्रभुने पचपन अध्ययन पुण्यफलविपाक संबंधी और पचपन अध्ययन पापफलविपाक संबंधी कहे। फिर उनने छत्तीस अध्ययनवाला अप्रश्न (यानी किसीक पूछ बिना) व्याकरण कहा । जब प्रभु प्रधान नामक अध्ययन कहने लगे तब इन्द्रोंके आसन काँपे । वे भगवानका मोक्ष निकट जान अपने परिवार सहित प्रभुके पास आये । फिर शकेन्द्रने, साश्रु नयन, हाथ जोड़ प्रभुसे विनती की:-" हे नाथ, आपके गर्भ, जन्म, दीक्षा और केवलज्ञानके समय हस्तोत्तरा नक्षत्र था । १ गुजरातमें और महाराष्ट्रमें इसको आसोजवदि अमावस कहते हैं।
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जैन-रन्न
इस ससय उसमें भस्मक ग्रह संक्रांत होने वाला है-आनेवाला है । आपके जन्म नक्षत्रमें आया हुआ यह ग्रह दो हजार बरस तक आपकी संतितको (साधु, साध्वी और श्रावक, श्राविकाको) तकलीफ देगा इसलिए जबतक भस्मक ग्रह आपके जन्म नक्षत्रमें न आ जाय तबतक आप प्रतीक्षा कीजीए। अगर वह आपके सामने आ जायगा तो आपके प्रभावसे प्रभावहीन हो जायगा-अपना फल न दिखा सकेगा । जब आपके स्मरण मात्रसे ही कुस्वप्न, बुरे शकुन और बुरे ग्रह श्रेष्ट फल देनेवाले हो जाते हैं, तब जहाँ साक्षात आप विराजते हों वहाँका तो कहना ही क्या है ? इसलिए हे प्रभो, एक क्षणके लिए अपना जीवन टिकाकर रखिए कि जिससे इस दुष्ट ग्रहका उपशम हो जाय ।"
प्रभु बोले:-" हे इन्द्र, तुम जानते हो कि आयु बढ़ानेकी शक्ति किसीमें भी नहीं है फिर तुम शासन-प्रेममें मुग्ध होकर ऐसी अनहोनी बात कैसे कहते हो ? आगामी दुषमा कालकी प्रवृत्तिसे तीर्थको हानि पहुँचनेवाली है । उसमें भावीके अनुसार यह भस्मक ग्रह भी अपना फल दिखायगा।"
उस दिन प्रभुको केवलज्ञान हुए उन्तीस बरस पाँच महीने और बीस दिन हए थे। उस समय पर्यकासनपर बैठे हुए प्रभुने बादर काययोगमें रहकर बादर मनोयोग और वचनयोगको रोका। फिर सूक्ष्म काययोगमें स्थित होकर योगविचक्षण प्रभुने बादर काय योगको रोका । तब उन्होंने वाणी और मनके सूक्ष्म योगको रोका । इस तरह सूक्ष्म क्रियावाला तीसरा शुक्ल ध्यान प्राप्त
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२४ श्री महावीर स्वामी - चरित
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किया । फिर सूक्ष्म काययोगको - जिसमें सारी क्रियाएँ बंद हो जाती हैं-रोककर समुच्छिन्न-क्रिया नामक चौथा शुक्ल ध्यान प्राप्त किया । फिर पाँच हस्व अक्षरोंका उच्चारण किया जा सके इतने काल मानवाले, अव्यभिचारी ऐसे शुक्लध्यानके चौथे पाये द्वारा - पपीते के बीजकी तरह - कर्मबंध से रहित होकर, यथा स्वभाव रजुगति द्वारा उर्द्ध गमन कर मोक्षमें गये । उस वक्त जिनको लव मात्रके लिए भी सुख नहीं होता है ऐसे नारकी जीवोंको भी एक क्षणके लिए सुख हुआ ।
वह चंद्र नामका संवत्सर था, प्रीतिवर्द्धन नामका महीना था, नंदिवर्द्धन नामका पक्ष था और अग्निवेस नामका दिन था । उस रातका नाम देवानंदी था । उस समय अर्च नामका वै, शुल्क नामका प्राण, सिद्ध नामका स्तोक, सर्वार्थसिद्ध नामका मुहूर्त और नाग नामका करण था । उस समय बहुत ही सूक्ष्म कुंधू कीट उत्पन्न हुए थे । वे जब स्थिर होते थे तब दिखते भी न थे । अनेक साधुओंने और साध्वियों ने उन्हें देखा और यह सोचकर कि अब संयम पालना कठिन है, अनशन कर लिया ।
विक्रम सं. ४७१ ( ई. स. ५२८ ) पूर्व कार्तिक वदि अमावस के दिन महावीरस्वामी मोक्षमें गये ।
१ इसका नाम उपशम भी है । २ इसका दूसरा नाम निरति है । ३ सात स्तोक या ४९ श्वासोश्वास प्रमाणक । एक कालविभाग ।
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४३८
जैन-रत्न
दीवाली पर्व
उस समय राजाओंने देखा कि, अब ज्ञानदीपक-भावदीपक बुझ गया है इसलिए उन्होंने द्रव्यदीपक जलाये । दीपकप्रकाशने बाह्य जगतको प्रकाशित कर दिया । उस दिनकी स्मृतिमें आज भी हिन्दुस्थानमें कार्तिक वदि अमावस्याके दिन दीपक जलाते हैं और उस दिनको दीवाली पर्वके नामसे पहचानते हैं। __ इन्द्रादि देवोंने 'निर्वाणकल्याणक' मनाया और तब सभी अपने अपने स्थानोंको चले गये। ___ महावीर स्वामी विक्रम सं० ५४३ ( ईस्वी सन ६००) पूर्व चैत्र सुदि १३ को जन्मे । ३० बरस ७ महिने और १३ दिए गहस्थ रहकर विक्रम सं० ५१३ (ई. स. ५७० ) पूर्व मार्गशीर्ष वदि १० के दिन उन्होंने दीक्षा ली । वि० सं० ५०१ ( ई. स. ५०८) पूर्व वैशाख सुदि १० के दिन १२
१ हिन्दूधर्मके अनुसार दीवाली पर्व आरंभ होनेके दो कारण बताये जाते हैं । (क) उस दिन विष्णु (भगवान )ने बलिराजाकी कैदसे देवोंको और लक्ष्मीजीको छुड़ाया था। इसलिए उसकी स्मृतिमें दीवाली पर्व मनाया जाता है । (ख) उस दिन श्रीरामचंद्रजीने रावणको मारकर पृथ्वीका भार कम किया था । और सारे देशमें आनंद मनाया गया था। उसीकी स्मृतिमें कार्तिकवदि अमावस्या के दिन आज भी आनंदोत्सव मनाया जाता है।
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२४ श्री महावीर स्वामी-चरित
४३९
बरस छः महीने और १५ दिन* घोर तप करनेके बाद उनको केवलज्ञान हुआ । २९ बरस ५ महीने और २० दिन तक केवली अवस्थामें जीवोंको कल्याणका उपदेश दे विक्रम सं. ४७१ ( ई. स. ५२८ ) पूर्व कार्तिक वदि ३० को ७२ बरस ७ महीने और १८ दिनकी आयु पूर्णकर मोक्ष गये । # श्री पार्श्वनाथ तीर्थकरको मोक्ष गये जब २५० बरस बीत गये थे तब श्रीमहावीर स्वामीका निर्वाण हुआ ।
गौतमगणधरको ज्ञान और मोक्षलाभ
निकालनेसे १२या ४५१५ दिन हैं। इन
होते हैं और
जब देवशर्माको उपदेश देकर गौतमस्वामी लौटे तो मार्गमें उन्होंने भगवानके निर्वाण होनेके समाचार सुने । सुनकर वे
* उपवासों और पारणोंके दिनोंकी संख्या ४५१५ दिन हैं । इन दिनोंके बरस महीने निकालनेसे १२ बरस ६ महीने और १५ दिन होते हैं और दीक्षाकी मिति मार्गशीर्ष वदि १० से केवलज्ञान प्राप्तिकी तिथि वैशाख सुदि १० तक साढ़े पांच महीने ही आते हैं । इससे मालूम होता है कि उस बरस चैत्र अथवा वैशाखका महीना अधिक मास रहा होगा। अधिकमास हमेशा चेत, वेसाख, जेठ, असाढ़ या सावनहीं में आते है।
11 सासान्यता महावीरस्वामीकी उम्र ७२ बरसकी मानी जाती है। इसका कारण मोटे रूपसे उम्र बताना है। जन्म, दीक्षा, ज्ञान और निर्वाणकी तिथियोंके साथ हिसाब लगानेसे भगवानकी उम्र ७२ बरस ७ महीने और १८ दिन आती है । यदि इसमें कोई भूल हो तो विद्वान सुधारकर सूचना देनेकी कृपा करें। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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४४०
जैन - रत्न
शोक-मग्न हो गये और सोचने लगे, -रातहीमें प्रभु निर्वाण प्राप्त करनेवाले थे, तो भी मुझे उन्होनें दूर भेज दिया । हाय दुर्भाग्य ! जीवनभर सेवा करके भी अंत में उनकी सेवासे वंचित रह गया । वे धन्य हैं जो अंत समयमें उनकी सेवामें थे; वे भाग्यशाली हैं जो अंतिम क्षणतक प्रभुके मुखारविंद से उपदेशामृत सुनते रहे । हे हृदय ! प्रभुके वियोग- समाचार सुनकर भी तू ट्रक ट्रक क्यों नहीं हो जाता ? तू कैसा कठोर है कि इस वज्रपातके होनेपर भी अटल है ?
1
I
वे फिर सोचने लगे, - प्रभुने कितनी बार उपदेश दिया कि मोह-माया जगत्के बंधन हैं; परंतु मैंने उस उपदेशका पालन नहीं किया । वे वीतराग थे, मोह-ममता से मुक्त थे | उनके साथ स्नेह कैसा ? मैं कैसा भ्रांत हो रहा था । उपकारी प्रभुने मेरी भ्रांति मिटानेही के लिए मुझे दूर भेज दिया था । धन्य प्रभो ! आप धन्य हैं ! जो आपके सरल उपदेशसे निर्मोही न बना उसे आपने त्यागकर निर्मोही बनाया | सत्य है, आत्मा-नित आत्मा- किससे मोहमाया रखेगा ? गौतम सावधान हो, प्रभुके पद चिन्होंपर चल, अपने स्वरूपको पहचान | अगर प्रभुके पास सदा रहना हो तो निर्मोही बन और आत्मस्वरूपमें लीन हो ।
गौतमस्वामी को इसी तरह विचार करते हुए केवलज्ञान प्राप्त हुआ । फिर उन्होंने बारह बरसतक धर्मोपदेश दिया । अंतमें वे राजगृह नगर में आये और भवोपग्राही कमको नाश कर मोक्षमें गये ।
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तीर्थंकरोंके संबंधकी जानने योग्य जरूरी बातें
४४१
तीर्थंकरोंके संबंधकी जानने योग्य जरूरी बातें १ तीर्थकरका नाम
२९ साधुओंकी संख्या २ च्यवन तिथि
३० साध्वियोंकी संख्या ३ किस देवलोकसे आये
३१ उनके साधुओंमें वैक्रियलब्धिवाले ४ जन्म स्थान
३२ उ० सा० अवधिज्ञानी ५ जन्म तिथि
३३ उ० सा० केवली ६ पिताका नाम
३४ उ० सा० मनः पर्ययज्ञानी ७ माताका नाम
३५ उ. सा. चौदह पूर्वधारी ८ जन्म नक्षत्र
३६ वादियोंकी संख्या ९ जन्म राशि
३७ श्रावकोंकी संख्या १० लक्षण
३८ श्राविकाओं की संख्या ११ शरीर प्रमाण
३९ शासनके यक्षका नाम १२ आयु प्रमाण
४० शासनकी यक्षिणीका नाम १३ शरीरका रंग
४१ प्रथम गणधरका नाम १४ पद
४२ प्रथम आर्याका नाम १५ विवाहित या अविवाहित
४३ माक्ष-स्थान १६ कितने मनुष्योंके साथ दीक्षा ली ? | ४४ मोक्ष-तिथि १७ दीक्षाकी जगह
|४५ मोक्षके दिन तप १८ दीक्षाके दिन कौनसा तप था । | ४६ किस आसनसे मोक्ष गये १९ दी० बाद प्रथम पारणेमें क्या मिला? | ४७ पूर्वके तीर्थकर मोक्ष गये उनके २० प्रथम पारणा किसके घर किया ? कितने बरस बाद मोक्ष गये ? २१ कितने दिनका पारणा किया ४८ गण-नाम २२ दीक्षा तिथि
४९ योनि-नाम २३ कितने समय तक छद्मस्थ रहे ? ५० मोक्ष गये तब उनके साथ कितने २४ केवलज्ञान होनेका स्थान । साधु मोक्ष गये थे २५ ज्ञानोत्पत्तिके दिन कौनसा तप था ? | ५१ सम्यक्त्व पानेके बाद उनके जीवने २६ किस वृक्षके नीचे केवलज्ञान हुआ? | कितने भव किये २७ केवलज्ञानकी तिथि
| ५२ किस कुलमें जन्म २८ गणधरोंकी संख्या
५३ गर्भवासमें कितने महीने रहे सूचना:-आगेके कोष्ठकोंमें यहाँ ऊपर संख्याओंके सामने जो सवाल दिये हैं उन्हीं सवालोंके जवाब क्रमशः प्रत्येक तीर्थकरके लिए संख्याओंके सामने दिये गये हैं। ऊपर तीर्थंकरोंके नाम देखकर उन्हीके संबंधकी नीचेकी ५२ बातें समझ लेना । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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४४२
जैन-रत्न
१ श्री ऋषभदेवजी १ श्री अजितनाथजी २ श्री संभवनाथजी ३ श्री अभिनंदनजी ४
जितशत्रु
२ आषाढ़ वदि४ वैशाख सुदि १३ फाल्गुन सुदि ८ वैशाख सुदि । ३ सर्वार्थ सिद्धि विजय विमान ऊपरके ग्रैवेयक जयंत विमान ४विनीता नगरी अयोध्या श्रावस्ती
अयोध्या ५ चैत्र वदि ८ महा सुदि ८ महा सुदि १४ माघ सुदि २ ६ नाभिकुलकर
जितारि
संबर राजा ७/मरुदेवी विजया
सेना
सिद्धार्था ८ उत्तराषाढा रोहिणी
मृगशिर
पुनर्वसु ९धन
वृष
मिथुन मिथुन १० वृषभ (बैल) हस्ति ( हाथी) अश्व ( घोड़ा) बंदर ११५०० धनुष ४५० धनुष ४ सौ धनुष ३५० धनुष १२/८४ लाख पूर्व ५२ लाख पूर्व |६० लाख पूर्व ५० लाख पूर्व १३ स्वर्णसा स्वर्णसा स्वर्णसा स्वर्णसा १४ राजा
राजा राजा
राजा १५/विवाहित विवाहित विवाहित विवाहित १६/४००० के साथ १ हजारके साथ १ हजारके साथ १ हजारके साथ १७विनीता नगरी अयोध्या श्रावस्ती अयोध्या १८दो उपवास २ उपवास २ उपवास २ उपवास १९ गन्ने का रस परमान (क्षीर ) परमान (क्षीर) क्षीर २० श्रेयांस राजाके घर ब्रह्मदत्तके घर सुरेन्द्रदत्तके घर इन्द्रदत्तके घर २१एक वर्ष बाद २ दिन बाद दो दिनके बाद २ दिन २२ चैत्र वदि ८ महा वदि ९ मगसर मुदि १५ माघ मदि ११ २३/१ हजार बरस १२ वर्ष |१४ वर्ष
१८ वर्ष २४ पुरिमताल अयोध्या श्रावस्ती अयोध्या २५/तीन उपवास २ उपवास २ उपवास २ उपवास २६ वट वृक्ष सालवृक्ष प्रियाल वृक्ष प्रियंगुवृक्ष २७/फाल्गुन वदि ११ पोस पदि ११ कार्तिक बदि ५ पोस यदि १४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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तीर्थंकराके संबंधकी जानने योग्य जरूरी बातें
४४३
श्री ऋषभदेवजी १ श्री अजितनाथजी २ श्री संभवनाथजी ३ श्री अभिनंदनजी ४
or
mor
३७२०
२८८४
१०२
११६ २९८४ हजार १ लाख
२ लाख
३ लाख ३०३ लाख ३ लाख ३० हजार ३ लाख ३६ हजार ६ लाख ३० हजार ३१/२० हजार ६ सौ २० हजार ४ सौ १९ हजार ८ सौ | १९ हजार ३२/१२६५० १२ हजार ४ सौ १२ हजार ११ हजार ३३९ हजार ९ हजार ४ सौ ९ हजार ६ सौ ९ हजार ८ सौ । ३४/२० हजार २२ हजार १५ हजार १४ हजार ३५१२७५० १२५५० |१२१५० ११६५० ३६४७५०
२१५० १५ सौ ३७३ लाख ५० हजार,२ लाख ९८ हजार २ लाख ९३ हजार २ लाख ८८ हजार ३८५ लाख ५४ हजार ५ लाख ४५ हजार ६ लाख ३६ हजार ५ लाख २७ हजार ३९ गोमुख यक्ष महा यक्ष त्रिमुख यक्ष नायक यक्ष ४. चक्रेश्वरी अजिबला दुरितारि कालिका ४१ पुंडरीक सिंहसेन चारु
वज्रनाभ ४२ ब्राह्मी फाल्गु
श्यामा
अजिता ४३ अष्टापद समेतशिखर समेतशिखर समेत शिखर ४४ माघ वदि १३ चैत्र मुदि ५ चैत्र सुदि ५ वैशाख मुदि ८ ४५/६ उपवास एक मास |एक मास एक मास ४६ पद्मासन कायोत्सर्ग कायोत्सर्ग कायोत्सर्ग
५० लाख कोटिसागर ३० लाख कोटिसागर १० लाख कोटिसागर. ४८/मानव गण मनुष्य गण देव गण देवगण ४९ नकुल योनि सर्प योनि सर्प योनि छाग (बकरा) योनि. ५०१० हजार १ हजार |१ हजार १ हजार ५१/१३ भव
३मन
३ भव ५२ इक्ष्वाकुवंश इष्वाकुवंश इक्ष्वाकुवंश इक्ष्वाकुवंश ५३९ महीने ४ दिन ८ महीने २५ दिना९ महीने ६ दिन |८ मास २८ दिन. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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४४४
१ श्री सुमतिनाथजी ५ श्री पद्मप्रभजी ६ श्री सुपार्श्वनाथजी ७ श्री चंद्रप्रभुजी ८
२ श्रावण सुदि २
३ वैजयंत विमान
४ अयोध्या
वैशाख सुदि ८ ६ मेघराजा
७) मंगला
८ मघा
९) सिंह
१० क्रोंच पक्षी
-११ ३ सौ धनुष
१२ ४० लाख पूर्व १ ३ | सुवर्णसा
१४ राजा
१५ विवाहित
१६१ हजार
१७ अयोध्या
१८ नित्यभुक्त
१९ क्षीर
२० पद्मके घर
२१ दो दिन
२२ वैशाख सुदि ९
२३ २० बरस २४ अयोध्या
२५ दो उपवास
: २६ साल वृक्ष
२७ चैत्र सुदि ११
जैन - रत्न
माघ वदि ६
नव ग्रैवेयक
कोसांबी
कार्तिक वदि १२
श्रीधर राजा
सुसीमा
चित्रा
कन्या
पद्म (कमल) ढाई सौ
धनुष
| ३० • लाख पूर्व
लाल
राजा
विवाहित
११ हजार
कोसांबी
भाद्रवा वदि ८
छठा ग्रैवेयक
बनारस
जेठ सुदि १२
प्रतिष्ठ राजा
पृथ्वी
विशाखा
तुला साथिया
२ सौ धनुष
२० लाख पूर्व
सुवर्णसा
राजा
विवाहित
१ हजार
बनारस
एक उपवास
२ उपवास
क्षीर
क्षीर
सोमसेन के घर
माहेन्द्र के घर दो दिन
दो दिन कार्तिक वदि १३ ज्येष्ठ सुदि १३
६ महीने
९ महीने
कोसांबी
चौथ भुक्त
बनारस
दो उपवास
| सरीस वृक्ष
फाल्गुन वदि ६
छत्र वृक्ष
चैत्र सुदि १५
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चेत वदि ५
वैजयंत
चंद्रपुरी
पोस वदि १२
| महासेन राजा
लक्ष्मणा
| अनुराधा
वॄश्चिक
चंद्रमा
१५० धनुष
१० लाख पूर्व
| श्वेत
राजा
विवाहित
१ हजार
चन्द्रपुरी
२ उपवास
क्षीर
सोमदत्तके घर
दो दिन
पोस वदि १३
३ महीने
चन्द्रपुरी
२ उपवास
नाग वृक्ष
फाल्गुन वदि ७ www.umaragyanbhandar.com
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तीर्थंकरोंके संबंधकी जानने योग्य जरूरी बातें
४४५
श्री सुमतिनाथजी ५ श्री पद्मप्रभुजी ६ श्रीसुपार्श्वनाथजी ७ श्री चंद्रप्रभुजी ८
२८१ सौ १०७ २९३ लाख २० हजार ३ लाख ३० हजार ३ लाख २ लाख ५० हजार ३०५ लाख ३० हजार ४ लाख २० हजार ४ लाख ३० हजार ३ लाख ८० हजार ३११८ हजार ४ सौ १६१०८ |१५ हजार ३ सौ १४ हजार ३२१० हजार ४ सौ ९ हजार ६ सौ ८ हजार ४ सौ ७ हजार ६ सौ ३३११ हजार १० हजार ९ हजार ८ हजार ३४/१३ हजार १२ हजार ११ हजार १० हजार ३५/१०४५० १ ० हजार ३ सौ ९१५० ८ हजार ३६२ हजार ४ सौ २ हजार ३ सौ २०३० २ हजार ३७२ लाख ८१ हजार २ लाख ७६ हजार २ लाख ५७ हजार २ लाख ५० हजार ३८५ लाख १६ हजार ५ लाख ५ हजार ४ लाख ९३ हजार ४ लाख ७९ हजार ३९ तुंबरु
कुसमय
मातंग विजय ४० महाकाली श्यामा
शांता
भृकुटी ४१ चरम
प्रद्योतन
विदर्भ ४२ काश्यपि रति
सोमा
सुमना ४३ समेत शिखर समेतशिखर समेत शिखर समेत शिखर ४४ चैत्र सुदि ९ मगसर वदि ११ फागण वदि ७ भाद्रवा वदि ७ ४५१ महीना १ महीना एक महीना एक महीना ४६ कायोत्सर्ग
कायोत्सर्ग कायोत्सर्ग कायोत्सर्ग ४७९ लाख कोटिसागर ९०हजार कोटि सागर ९ हजार कोटिसागर ९ सौ कोटि सागर ४८ राक्षस राक्षस
राक्षस
देव ४९ मूषक
महिष मृग
मृग ५०१ हजार
५ सौ [१ हजार ५१/३ भव ३ भव तीन भव ३ भव ५२ इक्ष्वाकुवंश इक्ष्वाकुवंश इक्ष्वाकुवंश इक्ष्वाकुवंश ५३।९ महीने ६ दिन ९ महीने ६ दिन ९ महीने १९ दिन ९ महीने ७ दिन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
दिन्न
३०८
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४४६
जैन-रत्न
१ श्री सुविधिनाथजी ९श्रीशीतलनाथजी १० श्री श्रेयांसनाथजी११ श्री वासुपूज्यजी १२
विष्णु
नंदा
धन
कुंभ
लाल
राजा
२|फाल्गुन वदि ९ वैशाख वदि ६ ज्येष्ठ वदि ६ ज्येष्ठ सुदि ९ ३|आनत देवलोक अच्युत देवलोक अच्युत देवलोक प्राणत देवलोक ४ काकंदी नगरी भद्दिलपुर सिंहपुरी चंपापुरी ५/मगसर वदि ५ महा वदि १२ । फाल्गुन वदि १२ फाल्गुन वदि १४ ६ सुग्रीव दृढरथ
वसुपूज्य रामाराणी
विष्णुदेवी जया ८मूल पूर्वाषाढा श्रवण
शतभिषाखा ९/धन
मकर १०मत्स्य साथिया (श्रीवत्स ) गैंडा
भसा ११एक सौ धनुष |९० धनुष ८० धनुष ७० धनुष १२२ लाख पूर्व
८४ लाख वर्ष |७२ लाख वर्ष १३ श्वेत
सुवर्णसा
सुवर्णसा १४ राजा
राजा
राजकुमार १५ विवाहित विवाहित विवाहित विवाहित १६एक हजार |१ हजार |१ हजार |१ हजार १७काकंदी भहिलपुर सिंहपुरी चंपापुरी १८२ उपवास दो उपवास दो उपवास दो उपवास १९क्षीर
क्षीर क्षीर
क्षीर २० पुष्पके घर पुनर्वसुके घर नंदके घर सुनंदके घर २१दो दिन दो दिन दो दिन दो दिन २२)मगसर वदि ६ महा वदि १२ फाल्गुन वदि १३ फाल्गुन सुदि १५ २३ चार महीने तीन महीने दो महीने एक महीना २४ काकंदी भद्दिलपुर
सिंहपुरी
चंपापुरी २५/२ उपवास दो उपवास दो उपवास । दो उपवास २६ साली वृक्ष प्रियंगु वृक्ष तंदुक वक्ष पाडल पक्ष २७ कार्तिक सुदि ३ पोस वदि १४ महा वदि ३ महा सदि २ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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तीर्थकरो के संबंधकी जानने योग्य जरूरी बातें
श्री सुविधिनाथजी ९ श्री शीतलनाथजी १० श्री श्रेयांसनाथजी ११ श्री वासुपूज्यजी १२
२८ | ८८ गणधर
८१
२९ २ लाख
१ लाख
३० १ लाख २० हजार १ लाख ६
३१ १३ हजार
१२ हजार
५ हजार ८ सौ
७ हजार २ सौ
३२ ६ हजार ३३ ८ हजार ४ सौ
३४ ७ हजार ५ सौ
३५ ७ हजार ५ सौ ३६/१५ सौ
४१ वहिक
४२ वारुणी
४३ समेत शिखर
१ लाख ३ हजार
११ हजार
५ हजार
६ हजार
७ हजार
६ हजार ५ सौ
६ हजार
७ हजार ५ सौ १४ सौ
१३ सौ
३७ २ लाख २९ हजार २ लाख ८९ हजार २ लाख ७९ हजार २ लाख १५ हजार ३८ ४ लाख ७१ हजार ४ लाख ५८ हजार ४ लाख ४८ हजार ४ लाख ३६ हजार
जक्षेट
अजित ३९ ४० सुतारिका
मानवी
४४ भादवा सुदि ९ ४५ एक महीना
४६ का उसग्ग ४७ ९० कोटि सागर
४८ राक्षस
४९ वानर
५० एक हजार
५१/३ भव
ब्रह्मा अशोका
नंद
सुयशा
समेत शिखर
वैशाख वदि २
एक महीना
काउसग्ग
९ कोटि सागर
७६
८४ हजार
मानव
नकुल
एक हजार
तीन भव
कच्छप
धारणी
|समेत शिखर
श्रावण वदि ३ एक महीना
काउसग्ग
| ६६ला. ३६ ह. १०० सागर न्यू. १ को. सागर
देव
वानर
| एक हजार
तीन भव
६६
७२ हजार
इक्ष्वाकुवंश
५२ इक्ष्वाकु वंश - ५३/८ महीने २६ दिन ९ महीने ६ दिन
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१ लाख
१० हजार
४ हजार ७ सौ
५ हजार ४ सौ
६ हजार
६ हजार ५ सौ
१२ सौ
४४७
कुमार
चंडा
सुभूम
धरणी
चंपापुरी
आष ढ सुदि १४
एक महीना
काउसग्ग
५४ सागर
| राक्षस
अश्व
६ सौ
तीन भव इक्ष्वाकुवंश
| इक्ष्वाकुवंश
९ महीने ६ दिन /८ महीने २० दिन
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४४८
जैन-रत्न
१ विमलनाथजी १३ अनंतनाथजी १४ | धर्मनाथजी १५ | शांतिनाथजी १६.
पुष्य
हरिण
१४ राजा
२ वैशाख सुदि १२ श्रावण वदि ७ वैशाख सुदि ७ भादवा वदि ७ ३ सहस्रार देवलोक प्राणत देवलोक विजय विमान सर्वार्थ सिद्धि ४ कंपिलपुरी अयोध्या रत्नपुरी गजपुर५/महासुदि ३ वैशाख वदि १३ महा सुदि ३ जेठ वदि १३ ६ कृतवर्म सिंहसेन भानु
विश्वसेन ७श्यामा सुयशा सुव्रता
अचिरा ८ उत्तराभाद्रपद रेवती
भरणी ९मीन मीन
मेष १० वराह ( सूअर) सिचाणा (बाज) वज्र ११६० धनुष
५० धनुष ४५ धनुष ४० धनुष १२/६० लाख बरस तीस लाख बरस |१० लाख बरस १ लाख वर्ष १३ स्वर्णसा
स्वर्णसा स्वर्णसा स्वर्णसा राजा राजा
चक्रवर्ती १५विवाहित विवाहित विवाहित विवाहित(६४ह.स्त्रि.) १६१ हजार १ हजार १ हजार १ हजार १७कंपिलपुर अयोध्या रत्नपुरी १८ दो उपवास दो उपवास दो उपवास दो उपवास १९क्षीर
क्षीर २० जयराजाके घर विजय राजाके घर धनसिंहके घर सुमित्रके घर २१दो दिन दो दिन दो दिन २ दिन २२ महासुदि ४ वैशाख वदि १४ महासुदि १३ जेठ वदि १४ २३२ मास ३ वर्ष २ वर्ष एक बरस २४ कंपिलपुरी अयोध्या
रत्नपुरी
गजपुर २५/दो उपवास दो उपवास दो उपवास दो उपवास २६ जंबू वृक्ष अशोक वृक्ष दधिपर्ण वृक्ष नंदी वृक्ष २७पोस सुदि ६ वैशाख वदि १४ पोस मुदि १५ पोस सुदि १ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
गजपुर
क्षीर
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तीर्थंकरोंके संबंधी जानने योग्य जरूरी बातें
४४९
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waan
विमलनाथजी १३ अनंतनाथजी १४ धर्मनाथजी १५
| शांतिनाथजी १६
३२/३६ सौ
س
س
سا
२८५७ २९/६८ हजार ६६ हजार ६४ हजार .६२ हजार ३०१ लाख ८ सौ |६२ हजार ६२ हजार ४ सौ ६१ हजार ६ सौ ३१९ हजार ८ हजार
७ हजार
६ हजार ३२ सौ २८ सौ
२४ सौ ३३४८ सौ ४३ सौ ३६ सौ १३ हजार ३४५५ सौ ५ हजार ४५ सौ ३५५५ सौ ५ हजार
४५ सौ
४ हजार ३६११ सौ १ हजार
८ सौ ३७२ लाख ८ हजार २ लाख ६ हजार २ लाख ४ हजार १ लाख ९० हजार ३८४ लाख २४ हजार ४ लाख १४ हजार ४ लाख १३ हजार ३ लाख ९३ हजार ३९षण्मुख
पाताल किन्नर
गरुड ४० विदिता
अंकुशा
कंदर्पा निर्वाणी ४१ मंदर
जस अरिष्ट
चक्रयुध ४२ धरा
पद्मा
आर्यशिवा सुची ४३ समेतशिखर समेतशिखर समेतशिखर समेत शिखर ४४ आषाढ वदि ७ चैत्र, सुदि ५ जेठ सुदि ५ जेठ वदि १३ ४५ एक मास एक मास एक मास १ मास ४६ कायोत्सर्ग कायोत्सर्ग कायोत्सर्ग काउसग्ग ४७३० सागरोपम ९ सागसेपम ४ सागरोपम पोनपल्योपम कम
तीन सागरोपम ४८ मनुष्य
मनुष्य ४९ छाग (बकरा) हस्ति (हाथी) (बिल्ली) हस्ति ५०६ सौ
७ सौ |१०८
९ सौ ५१ तीन भव ३ भव |३ भव |१२ भव ५२ इश्वाकुवंश इक्ष्वाकुवंश इक्ष्वाकुवंश इक्ष्वाकुवंश ५३८ महीने २१ दिन ९ महीने ६ दिन ८ महीने २६ दिन ९ महीने ६ दिन
देव
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४५०
जैन-रत्न
| कुंथुनाथजी १५ | अरनाथजी १८ | मल्लिनाथजी १९ | मुनिसुव्रतजी २०
मथुरा
श्रवण
मेष
राजा
२ श्रावण वदि ९ फाल्गुन सुदि २ फाल्गुन सुदि ४ श्रावण सुदि १ ३ सर्वार्थसिद्धि सर्वार्थसिद्धि जयंत विमान अपराजित विमान ४/गजपुर गजपुर
राजगृही ५ वैशाख वदि १४ मार्गशीर्ष सुदि १० मगसर सुदि ११ जेठ वदि ८ ६सूरराजा सुदर्शन कुंभ राजा सुमित्र ७श्रीराणी देवीराणी
प्रभावती
पद्मावती ८ कृत्तिका नक्षत्र रेवती नक्षत्र अश्विनी ९वृष मीन
मकर १०बकरा नंदावर्त कलश
कछुआ ११३५ धनुष ३० धनुष २५ धनुष २. धनुष १२९५ हजार वर्ष ८४ हजार वर्ष ५५ हजार बरस ३० हजार बरस १३ स्वर्णसा स्वर्णसा नीला
श्याम १४ चक्रवर्ती चक्रवर्ती
राजकुमार १५विवाहित(६४ह.स्त्रि.) विवाहित(६४६.नि.) अविवाहित विवाहित १६१ हजारके साथ |१ हजारके साथ ३ सौ |१ हजार १७गजपुर गजपुर
मिथिला
राजगृही १८दो उपवास दो उपवास तीन उपवास दो उपवास १९क्षीर क्षीर
क्षीर २०व्याघ्र सिंहके घर अपराजितके घर विश्वसेनके घर ब्रह्मदत्तके घर २१दो दिन दो दिन दो दिन
दो दिन २२ चेत वदि ५ मगसर सुदि ११ मगसर सुदि ११ फाल्गुन सुदि १२ २३/१६ बरस ३ बरस एक दिन रात ११ महीने २४ गजपुर गजपुर मथुरा
राजगृही २५/दो उपवास दो उपवास दो उपवास दो उपवास २६/भीलक वृक्ष (९) आमका पेड अशोक वृक्ष चंपक वृक्ष २७/चेत मुदि ३ कार्तिक सुदि १२ मगसर सुदि ११ फाल्गुन वदि १२ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
क्षीर
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तीर्थंकरोंके संबंधकी जानने योग्य जरूरी बातें
४५१
कुंथुनाथजी १७ अरनाथजी १८ | मल्लिनाथजी १९ मुनिसुव्रतजी २०
३३
६१०
६६८
२८३५ २९६० हजार ५० हजार ४० हजार ३० हजार ३०६० हजार ६ सौ ६० हजार ५५ हजार
५० हजार ३१५१ सौ ७३ सौ २९ सौ २ हजार ३२२ हजार
|१४ सौ
१२ सौ ३३२५ सौ २६ सौ
२२ सौ
|१८ सौ ३४३२ सौ २८ सौ २२ सौ।
१८ सौ ३५३३४० २५५१ |१७५०
१५ सौ ३६६७०
५ सौ ३७१ लाख ७९ हजार १ लाख ८४ हजार १ लाख ८३ हजार १ लाख ७२ हजार ३०/३ लाख ८१ हजार ३ लाख ७२ हजार ३ लाख ७० हजार ३ लाख ५० हजार ३९ गंधर्व
यक्षेद कुबेर
वरुण ४० बला
धणा
धरणप्रिया नरदत्ता ४१ सांब
कुंभ
अभीक्षक ४२ दामिनी रक्षिता वधुमती
पुष्पमती ४३ समेत शिखर समेत शिखर समत शिखर समेत शिखर ४४ वैशाख वदि १ मगसर सुदि १० फाल्गुन सुदि १२ जेठ वदि ९ ४५/एक महीना एक महीना एक महीना एक महीना ४६ काउसग्ग काउसग्ग काउसग्ग काउसम्ग ४७आधा पल्योपम पाव, पल्यापम एक हजार कोटि वर्ष ५४ लाख वर्ष
एक ह.को. वर्ष कम ४८ राक्षस
देव देव
देव ४९ बकरा
हाथी
अश्व (घोड़ा) वानर ५०/१ हजार साधु १ हजार साधु ५ सौ साधु १ हजार साधु ५१३ भव |३ भव तीन भव तीन भव ५२ इक्ष्वाकुवंश इक्ष्वाकुवंश इक्ष्वाकुवंशहरि वंश
५३९ महीने ५ दिन ९ महीने ८ दिन ९ महीने ७ दिन |९ महीने ८ दिन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
मल्ली
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४५२
जैन-रत्न
१ नमिनाथजी २१ नेमिनाथजी २२ पार्श्वनाथजी २३ महावीर स्वामी २४
လွင့်
|९ हाथ
२ आसोज सुदि १५ कार्तिक वदि १२ चेत वदि ४ आषाढ सुदि ६ ३ प्राणत देवलोक अपराजित प्राणत
प्राणत ४ मथुरा सौरीपुर
बनारस
क्षत्रीकुंड ५ श्रावण वदि ८ श्रावण सुदि ५। पोस वदि १० चेत वदि १३ ६ विजय समुद्रविजय अश्वसेन सिद्धार्थ ७विप्रा शिवादेवी वामादेवी त्रिशलादेवी ८ अश्विनी चित्रा
विशाखा
उत्तरा फाल्गुनी ९मेष
कन्या तुला
कन्या १० कमल शंख
केशरीसिंह १११५ धनुष दस धनुष
७ हाथ १२/१० हजार बरस १ हजार बरस ।
१ सौ बरस ७२ बरस १३/पीला रंग श्याम वर्णा नीला वर्ण पीला वर्ण १४ राजा
कुमार
कुमार कुमार १५ विवाहित अविवाहित विवाहित
विवाहित १६ एक हजार
१ हजारके साथ ३ सौके साथ १७/मथुरा सौरीपुर बनारस
क्षत्रीकुंड १८ दो उपवास दो उपवास दो उपवास दो उपचास १९क्षीर
क्षीर क्षीर
क्षीर २० दिनकुमारके घर वरदिनके घर धन्यके घर बहुल ब्राह्मणके घर २१ दो दिन
दो दिन दो दिन दो दिन २२ आषाढ वदि ९ श्रावण सुदि ६ । पोस वाद ११ मागसर वदि ११ २३९ महीने
चौपन दिन चौरासी दिन बारहबरस ६॥ मा. २४ मथुरा
गिरनार बनारस
ऋजुबालुका नदी २५/दो महीने
तीन उपवास तीन उपवास दो उपवास २६ बकुल वृक्ष वेडस वृक्ष धातकी वृक्ष साल वृक्ष
२७मगसर सुदि ११ आसोज वदि ३० चैत्र वदि ४ वैशाख मुदि १० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
अकेले
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तीर्थंकरोके संबंधकी जानने योग्य जरूरी बातें
४५३
नमिनाथजी २१ नेमिनाथजी २२ | पार्श्वनाथजी २३ महावीर स्वामी २४
१३ सौ
७५०
३५०
३००
पार्श्व
२८१७ २९२० हजार १८ हजार १६ हजार १४ हजार ३०४१ हजार ४० हजार ३८ हजार ३६ हजार ३१५ हजार १५ सौ ११ सौ ७ सौ ३२१ हजार ८ सौ १६ सौ ३३/१६ सौ
१ हजार ३४१६ सौ १५ सौ
१ हजार ३५/१२५० ११ हजार ३६/४५०
४०० ३७१ लाख ७० हजार १ लाख ६९ हजार १ लाख ६४ हजार १ लाख ५९ हजार ३८३ लाख ४८ हजार ३ लाख ३६ हजार ३ लाख ३९ हजार ३ लाख १८ हजार ३९भृकुटी गोमध
मातंग ४० गंधारी
अम्बिका पद्मावती
सिद्धायिका ४१ शुभ
वरदत्त आर्यदिन इन्द्रभूति ४२ अनिला यक्षदिन्ना पुष्पचूडा चंदनबाला ४३ समेत शिखर गिरनार समेत शिखर पावापुरी ४४ वैशाख वदि १० आषाढ सुदि ८ श्रावण सुदि ८ कार्तिक वदि ३० ४५/१ मास एक मास एक मास
दो दिन ४६ काउसग्ग
झासन
काउसग्ग पद्मासन ४७/६ लाख वर्ष ५ लाख बरस ८३७५० बरस २५० बरस ४८ देवगण राक्षस
राक्षस
मनुष्य ४९ अश्व
महिष मृग
महिष ५०१ हजार साधु ५३६ साधु ३३ साधु अकेले ५१ तीन भव ९ भव
१० भव २७ भव ५२३क्ष्वाकुवंश
इक्ष्वाकुवंश इक्ष्वाकुवंश ५३१ महीने ८ दिन ९ महीने ८ दिन |९ महीने ६ दिन ९ महीने ७॥ दिन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
हरिवंश
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जैनदर्शने
eGoon पहले चौबीस तीर्थकरोंके चरित्रदिये जाचुके हैं। उन तीर्थकरोंने धर्मका सिद्धान्तोंका उपदेश दिया है वे सिद्धान्त 'जैनदर्शन ' या 'जैनधर्म के नामसे प्रसिद्ध है । हही 'जैनदर्शन । यहाँ संक्षेपमें समझा या जाता है। अवतरण । ___ जब हम सोचते हैं कि, संसार क्या चीज है ! तो यह हमें जड़ और चेतन ऐसे दो पदार्थोंका-तत्त्वोंका विस्तार मालूम होता है । इन दोके सिवा संसारमें कोई तीसरा तत्त्व नहीं है । सारे ब्रह्माण्डकी चीजें इन्हीं दो तत्त्वोंमें समा जाती हैं।
जिसमें, चेतना नहीं है, लागणी नहीं है वह जड़ है। जो इससे विपरीत है, चैतन्य-ज्ञानमय है वह आत्मा है-चेतन है । आत्मा, जीव, चेतन आदि सबका अर्थ एक है। इन्हीं दो तत्त्वोकोजड और चेतनको-विशदरूपसे समझानेके लिए जैनशास्त्रकारोंने इनको कई भागोंमें विभक्त कर डाला है । मुख्य भाग नौ किये गये हैं। इन नौमें भी, अच्छी तरहसे समझानेके लिए, प्रत्येकको कई भागों में विभक्त किया है; और उनको अच्छी तरह खोल खोलकर समझाया है । मगर जैनसिद्धान्तविकासके मूलाधार नौ ही तत्त्व हैं।
१-यह निबंध न्यायतीर्थ और न्यायविशारद मुनिश्री न्यायविजयजी महाराजका लिखा हुआ है ।
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जैन-दर्शन
'जिन' शब्दसे 'जैन' शब्द बना है । 'जिन' राग, द्वेष, आदि दोषरहित परमात्माका साधारणतया नाम है । 'जिन' शब्द 'जी' - जीतना धातुसे बना है । राग, द्वेषादि समग्र दोषों को जीतनेवालों के लिए यह नाम सर्वथा उपयुक्त है । अर्हन्, वतिराग, परमेष्ठी, आदि 'जिन' के पर्यायवाचक शब्द हैं । 'जिन' के भक्त 'जैन' कहलाते हैं । जिन - प्रतिपादित धर्म, जैनधर्म, आर्हतदर्शन, स्याद्वाददृष्टि, अनेकान्तवाद और वीतरागमार्ग आदि नामों से भी पहिचाना जाता है ।
४५५
1
आत्मस्वरूपके विकासका अनेक भवोंसे प्रयत्न करते हुए जिस भवमें, जीवका पूर्ण आत्मविकास हो जाता है; जिस भवमें जीवके समस्त कर्म नष्ट हो जाते हैं, उस भवमें वह परमात्मा कहलाता इन परमात्माओंको जैनशास्त्र दो भागों में विभक्त करके समझाते हैं । एक भागमें 'तीर्थकर ' आते हैं और दूसरे भाग में सामान्य - केवली । तीर्थकर जन्मसे ही विशिष्टज्ञानवान् और अलौकिक सौभाग्यसंपन्न होते हैं । शास्त्रकारोंने तीर्थंकरोंके संबंध अनेक विशेषताएँ बताई हैं । ये जन्मसे ही तीर्थंकर कहे जाते हैं । कारण यह है कि भविष्य में वे अवश्यमेव तीर्थंकर होंगे । राजाका ज्येष्ठ पुत्र जैसे भविष्यका राजा होनेसे राजा कहलाता है, वैसे ही जन्म से ही उनमें सर्वज्ञतागुण नहीं होता है, तीर्थंकरोंके गुण नहीं होते हैं, तो भी भावीकी अपेक्षासे-उसी भवमें तीर्थंकर होंगे इससे वे तीर्थंकर कहलाते हैं । जब इनके घाती कर्म क्षीण हो जाते हैं, तब इनको केवलज्ञान होता है । केवलज्ञान प्राप्त कर ये ' तीर्थ' की स्थापना करते हैं । साधु, साध्वी और श्रावक, श्राविका ऐसे चतुर्विध संघका नाम 'तीर्थ' है ।
1
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४५६
जैन - रत्न
उनके मुख्य शिष्य, जो करते हैं । यह रचना
' गणधर '
तीर्थंकरों के उपदेशों का आधार लेकर कहलाते है, शास्त्र - रचना बारह भागों में विभाजित होती है, इसलिए इसका नाम 'द्वादशांगी ' रक्खा गया है । द्वादशांगी का अर्थ है - बारह अंगों का समूह | ' अंग ' प्रत्येक विभागका - प्रत्येक सूत्रका पारिभाषिक नाम है । ' तीर्थ' शब्दसे यह द्वादशांगी भी समझी जाती है । इस तरके वे तीर्थ कर्ता होनेसे तीर्थंकर कहलाते हैं ।
जिन केवलज्ञानियोंमें - वीतराग परमात्माओं में उक्त विशेषताएँ नहीं होती हैं, वे दूसरे विभागवाले सामान्य- केवली होते हैं ।
हिन्दू धर्मशास्त्रोंम कालके कृतयुगादि चार विभाग किये गये हैं । इसी तरह जैनशास्त्रकारोंने भी कालके विभागकी भाँति छः आरे बताये हैं । तीर्थकर, तीसरे और चौथे आरेमें हुआ करते हैं । जो तीर्थकर या परमात्मा मोक्षमें जाते हैं, वे फिर कभी संसारमें नहीं आते इससे यह स्पष्ट है कि जितने परमात्मा, या तीर्थकर बनते हैं वे किसी
१—जैनधर्मशास्त्रों में कालकी व्यवस्था इस तरह है । कालके मोटे मोटे दो विभाग हैं-उत्सर्पिणी और अत्रसर्पिणी । इस उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में इतने बरस बीत जाते है कि जिनकी संख्या करना कठिन होता है । उत्सर्पिणी काल रूप, रस, गंध, शरीर, आयुष्य, बल आदि बातों में उन्नत होता है और अवसर्पिणीकाल इन बातों में अवनत । प्रत्येक उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के छः विभाग होते हैं । प्रत्येक विभागको मारा ( संस्कृत शब्द है 'अर' ) कहते हैं । उत्सर्पिणी के छः आरे जब पूर्ण हो जाते हैं, तब अवसर्पिणीके आरे प्रारंभ होते हैं। वर्तमानमें, भारतवर्षादि क्षेत्रों में अवसपिंणीका पाँचपाँ आरा चल रहा है हिन्दुधर्मशास्त्रानुसार अभी कलियुग है । पाँचवाँ आरा कहो या कलियुग, दोनोंका अभिप्राय एक ही है । ( विशेष जाननेके लिए देखो जैनरत्न पूर्वार्द्ध पेज ३ ९ )
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जैन-दर्शन
४५७
एक परमात्माके अवतार नहीं हैं। वे सब भिन्न भिन्न आत्माएँ हैं। जैनसिद्धान्त यह नहीं मानता कि, आत्मा मुक्त होनेके बाद संसारमें आ जाता है।
प्रारंभमें ऊपर हम यह बता चुके हैं कि जैनशास्त्रोंके विकासकी नींव नवतत्त्व हैं । इसलिए हम नव तत्त्वोंका विवेचन करेंगे। उनके नाम ये हैं-जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निरा, बंध और मोक्ष ।
जीवतत्त्व ।
जैसे हम दूसरी चीजोंको देख सकते हैं, वैसे जीवको नहीं देख सकते । न किसी इन्द्रियकी सहायता ही इसको हमें बता सकती है। इसका ज्ञान हम स्वानुभव प्रमाणसे कर सकते हैं। “ मैं सुखी हूँ दुःखी हूँ" आदि अनुभव जड़ शरीरको नहीं होता। जीवहीको होता है। जीव शरीरसे भिन्न पदार्थ है । यदि शरीर ही जीव माना जाय तो फिर मृत शरीरमें भी ज्ञान होना चाहिए । उसको अग्निमें भी नहीं जलना चाहिए । परन्तु वस्तुस्थिति इसके विपरीत है। ज्ञान, सख, दुःख, इच्छा आदि शरीरमें नहीं होते; इससे सिद्ध होता है कि, इन गुणोंका आधार शरीर नहीं है, बल्के कोई अन्य ही पदार्थ है , उस पदार्थ का नाम आत्मा है । शरीर भौतिक है, जड़ है। क्योंकि यह भूत-समूहका (जैसे, पृथ्वी, जल, तेज और वायुका) बना हुआ पुतला है। जैसे,—घट, पट आदि जड पदार्थोंमें ज्ञान, सुख
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४५८
जैन-रत्न maravanmmmmmmmmmmmmm...mmmmmmmmmm आदिकी सत्ता नहीं होती है, वैसे ही जड़ शरीरभी ज्ञान, सुख आदि धर्मोकी सत्ता नहीं हो सकती है।
शरीरमें पाँच इन्द्रियाँ हैं । मगर उनको साधन बनानेवाला उनसे कार्य लेनेवाला आत्मा है । कारण यह है कि आत्मा इन्द्रियोंके द्वारा रूप, रसादिका ज्ञान करता है । वह चक्षुसे रूपको देखता है, जिव्हासे रसको चखता है, नाकसे गंध लेता है, कानसे शब्द सुनता है और त्वचासे (चमड़ीसे) स्पर्श करता है । इस बातको सरलतासे समझनेके लिए एक दो, उदाहरण उपयोगी होंगे। चाकूसे कलम बनाई जाती है; मगर चाकू और कलम बनानेवाला भिन्न २ होते हैं; दीपकके प्रकाशसे मनुष्य देख सकता है। परन्तु दीपक और देखनेवाला भिन्न २ होते हैं। इसी तरह इन्द्रियोंसे रूप, रस, गंधादि विषय ग्रहण किये जाते हैं; परन्तु ग्रहण करनेवाला और इन्द्रियाँ दोनों भिन्न भिन्न हैं। यह ठीक है कि, साधकको साधनकी आवश्यकता रहती है। परन्तु इससे साधक और साधन एक ही चीज नहीं हो सकते । इसी तरह आत्मा साधक है और इन्द्रियाँ साधन हैं, इसलिए आत्मा
और इन्द्रियाँ एक नहीं हो सकते । यह बात भी ध्यानमें रखनेकी है कि इन्द्रियाँ एक ही नहीं है । वे पाँच हैं । इस लिए यदि इन्द्रियोंको आत्मा मानने जाते हैं तो एक शरीरमें पाँच आत्माएँ हो जाती हैं, जिनका होना सर्वथा असंभव है। ___ अब हम इसका दूसरे दृष्टिबिन्दुसे विचार करेंगे। समझो कि एक आदमीकी आँखें फूट गई हैं, मगर वह आदमी उन सक पदार्थोंका, जिनको उसने आँखोंकी स्थितिमें देखा था, स्वरूप वैसा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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जैन-दर्शन
४५९
ही बता सकता है जैसा कि वह आँखोंकी स्थितिमें बता सकता था । यह बात प्रत्यक्ष है । अब अगर हम इन्द्रियोंको आत्मा मानने लगेंगे तो इस प्रत्यक्ष वातको भी, जिसका हरेकको अनुभव है, मिथ्या माननी पड़गी। क्योंकि चक्षुसे देखी हुई चीज, चक्षु ही बता सकता है, दूसरी इन्द्रियाँ उसको नहीं बता सकतीं । जैसे एक मनुष्यकी देखी हुई बात दूसरा मनुष्य नहीं बता सकता है, इसी तरह यह भी बात है। हरेक जानता है कि अमुक बातका एक आदमीको जो अनुभव हुआ है, उसको दूसरा नहीं बता सकता। इन्द्रियाँ भी सब भिन्न २ हैं। इसलिए एक इन्द्रियकी जानी हुई बात दूसरी इन्द्रिय नहीं बता सकती। मगर हम देखते हैं कि मनुष्य एक इन्द्रियसे किसी पदार्थको जानकर, उस इन्द्रियके अमावमें भी उस पदार्थके स्वरूपको जैसाका तैसा बता सकता है। इससे सिद्ध होता है कि, इन्द्रियोंसे परे कोई पदार्थ है, जो इन सबका ज्ञान रखता है । वह पदार्थ है आत्मा । आत्मा पूर्व अनुभूत की हुई बातको कालान्तरमें भी स्मरणद्वारा बता सकता है । इससे सिद्ध होता है कि, आत्मा इन्द्रियोंसे सर्वथा भिन्न है; चैतन्यस्वरूप है। ___प्रायः मनुष्योंको हमने कहते सुना है कि,-मैंने अमुक पदार्थको देखकर उठा लिया-छू लिया । यह, देखना और छूना कहनेवालोंका अनुभव है। इनका विचार करनेसे मालूम होता है कि देखनेवाला और छूनेवाला दोनों एक ही है; भिन्न २ नहीं। यह एक कौन है ! चक्षु ? नहीं, क्यों कि वह स्पर्श नहीं कर सकता है। त्वचा ? नहीं, क्योंकि वह देख नहीं सकती है । इससे यह
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जैन - रत्न
बात संशयरहित सिद्ध हो जाती है कि, एक पदार्थको देखने और स्पर्श करनेवाला जो एक है वह इद्रियोंसे भिन्न है और उसीका नाम आत्मा है। आत्मामें काला, सफेद आदि कोई वर्ण नहीं है । इसलिए वह दूसरी चीजोंकी तरह प्रत्यक्ष नहीं हो सकता है । प्रत्यक्ष नहीं होनसे यह नहीं माना जा सकता कि आत्मा कोई चीज ही नहीं है । प्रत्यक्ष प्रमाणके अलावा अनुमान -प्रमाण आदिले भी वस्तुकी सत्ता स्वीकारनी पड़ती है । जैसे परमाणु चर्म. चक्षुसे दिखाई नहीं देते । परमाणुके अस्तित्वका निश्चय कराने के लिए कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है । तो भी अनुमान प्रमाणसे हरेक विद्वान् उसको स्वीकार करता है । अनुमान प्रमाणसे ही यह बात मानी जाती है किं, स्थूल कार्यकी उत्पत्ति सूक्ष्म, अतिसूक्ष्म परमाणुओं से होती है ।
I
आत्माओं में से हम देखते हैं कि, कई दुःखी हैं और कई सुखी; कई विद्वान हैं और कई मूर्ख; कई राजा हैं और कई रंक; कई सेठ हैं और कई नौकर; आत्माओं में इस तरहकी विचित्रता भी किसी कारण वश हुई है । हरेक यह जान सकता है कि, ऐसी विचित्रताएँ किसी खास कारण के बिना नहीं हो सकती हैं । हम देखते हैं कि, एक बुद्धिमान मनुष्यको हजार प्रयत्न करनेपर भी उसकी इष्ट वस्तु नहीं मिलती है; और दूसरे एक मूर्खको विना ही प्रयास या अल्प प्रयाससे उसके साध्य सिद्ध हो जाते हैं । एक स्त्रीकी कूखसे एक ही साथ दो लड़के उत्पन्न होते हैं । उनमें से एक विद्वान हो जाता है और दूसरा मूर्ख रह जाता है । इस विचित्रताका कारण क्या है ? यह तो माना नहीं जा सकता कि, ये घटनाएँ यों ही हो जाया करती हैं । इनका कोई नियामक - योजक जरूर होना चाहिए ।
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जैन-दर्शन
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तत्त्वज्ञ महात्मा इसका नियामक कर्मको बताते हैं; वे इससे कर्म की सत्ता साबित करते हैं । कर्मकी सत्ता साबित होनेपर आत्मा स्वयं ही सिद्ध हो जाता है। कारण यह है कि, आत्माको सुखदुःख देनेवाला कर्मसमूह है । यह समूह अनादिकालसे आत्मा के साथ लगा हुआ है | इसीसे आत्माको संसारमें परिभ्रमण करना पड़ता है । जब कर्म और आत्माका निश्चय हो जाता है तो फिर परलोक के निश्चय होने में कोई रुकावट नहीं रहती । जीव जैसा शुभ या अशुभ कर्म करता है वैसा ही फल उसको परलोकमें मिलता है । जैसी भली या बुरी क्रिया की जाती है, वैसी हो वासना आत्मामें स्थापित होती है । यह वासना क्या है ? विचित्र परमाणुओंका एक जत्था मात्र । यही जत्था ' कर्म ' के नाम से पुकारा जाता है। यानी एक प्रकार के परमाणुसमूहका नाम ' कर्म ' है । ये कर्म नवीन आते हैं और पुराने चले जाते हैं
I
भली या बुरी क्रियासे जिन कर्मोंका बंध होता है, वे कर्म परलोक तक प्राणी के साथ जाते हैं । इतना ही नहीं, कई तो अनेक जन्मों तक अपने उदयमें आनेका समय नहीं मिलनेसे वे वैसे ही आत्मा के साथमें रहते हैं और समय आनेपर विपाक - समयमें आत्माको भले या बुरे फलोंका अनुभव करवाते हैं । जबतक फलविपाकको भोगानेकी उनमें शक्ति रहती है तबतक वे आत्माको फल भोगाते रहते हैं । उसके बाद वे आत्मा से अलग हो जाते हैं ।
उक्त युक्तियों से यह बात सिद्ध हो जाती है कि, आत्मसत्ता, इन्द्रियों से और शरीर से भिन्न है; स्वतंत्र है ।
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जैन-रत्न संसारमें जीव अनन्त हैं।
यहाँ प्रश्न हो सकता है कि,-संसारवर्ती जीवराशिमेंसे जीव, कर्मोंको क्षय करके मुक्तिमें गये हैं, जाते हैं और जावेंगे । ऐसे जीव हमेशा संसारमेंसे घटते जाते हैं, इससे एक दिन संसार क्या जीवविहीन नहीं हो जायगा ? इस बातका सूक्ष्स दृष्टिसे विचार करनेके पहिले हम यह कह देना चाहते हैं कि, इस बातको न कोई दर्शनशास्त्र ही मानता है और न हृदय तथा अनुभव ही स्वीकार करता है कि, किसी दिन संसार जीवोंसे खाली हो जायगा । साथ ही यह भी नहीं माना जा सकता है कि, मुक्तिमेंसे जीव वापिस आते हैं। क्योंकि मोक्ष, जीवको उसी समय मिलता है जब कि वह सब काँका नाश कर देता है; इस बातको प्रायः सभी मानते हैं और संसार-भ्रमणके कारण कर्म जब निर्लेप, परब्रह्मस्वरूप, मुक्त, जीवोंको नहीं होते हैं, तब यह कैसे माना जा सकता है कि जीव मोक्षसे वापिस संसारमें आते हैं। यदि यह मान लिया जाय कि मोक्षमेंसे जीव वापिस आते हैं, तो मोक्षकी महत्ता ही उड़ जाती है। जिस स्थानसे पतनकी संभावना है वह स्थान मोक्ष कैसे माना जा सकता है ?
उक्त बातोंको अर्थात मोक्षमेंसे जीव वापिस नहीं आते हैं और संसार कभी जीवशन्य नहीं होता है, इन दोनों सिद्धान्तोंको ध्यानमें रखकर उक्त शंकाका समाधान करना आवश्यक है। ___ परमार्थ दृष्टिद्वारा देखनेसे विदित होता है कि, जितने जीव मोक्षमें जाते हैं, उतने संसारमेंसे अवश्य ही कम होते हैं। मगर जीवराशि अनंत है, इसलिए संसार जीवोंसे खाली नहीं हो सकता है। संसारमेंसे सदा जीवोंके निकलते रहने, और जीवोंके नहीं बढ़ने पर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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जैन-दर्शन
४६३
भी भविष्यमें कभी जीवोंका अन्त न आवे इतने 'अनन्त' जीव समझने चाहिए। यह 'अनन्त' शब्दकी व्याख्या है । इसको देखनसे प्रस्तुत शंकाका समाधान हो जाता है। ___ सूक्ष्मातिसूक्ष्म कालको जैनशास्त्रोंमें 'समय' बताया है। यह इतना सूक्ष्म है कि, एक समयमें कितने सेकंड निकल जाते हैं, इसकी हमें कुछ भी खबर नहीं होती है । ऐसे, भूतकालके अनन्त समय, वर्तमानका एक समय और भविष्यके अनन्त समय, इन सबको जोड़ने पर जितनी जोड़ आती है, उससे भी अनन्त गुने अनन्त जीव हैं । इससे यह ज्ञात होता है कि, अनन्त भविष्यकालमें मी जीवराशिकी समाप्ति होनेवाली नहीं है । जितने दिन, महीने और बरस बीतते जाते हैं, उतने ही भविष्यकालमेंसे कम होते जाते हैं। यानी भविष्यकाल प्रतिक्षण कम होता रहता है तो भी भविष्यकालका कभी अंत नहीं होता है। कोई यह कल्पना भी नहीं कर मकता है कि, कभी भविष्यकालके दिन बीत जायँगे, कभी भविष्यकालके बरस परे हो जायँगे; कभी भविष्यकाल बाकी नहीं रहेगा। जब भविष्यकालहीका अन्त नहीं होता है, तब जीवोंका-जो भविष्यकालसे भी अनन्तानन्त है-कैसे अन्त हो सकता है ? कैसे संसार जीव-शून्य हो सकता है ? कैसे ऐसी कल्पना भी की जा सकती है ? कहनेका अभिप्राय यह है कि, जीव अनन्त हैं इसलिए, संसार कमी इनसे शून्य नहीं होगा।
जीवोंके विभाग।
सामान्यतया जीवोंके दो भेद किये जाते हैं-'संसारी' और 'सिद्ध'। जो जीव ससारमें भ्रमण कर रहे हैं, वे संसारी कहलाते हैं। 'संसार'
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जैन-रत्न
शब्द 'सम' उपसर्गपूर्वक 'स' धातुसे बनता है । 'स' का अर्थ 'भ्रमण करना होता है । ' सम् ' उसी अर्थका पोषक है। चौरासी लाख जीवयोनिमें भ्रमण करना संसार है और उसमें फिरनेवाले जीव 'संसारी' कहलाते हैं। दूसरी तरहसे चौरासी लाख जीवयोनियोंको भी 'संसार' कह सकते हैं । आत्माकी कर्मबद्ध-अवस्थाका नाम भी संसार है । इस तरह संसारसे संबंध रखनेवाले जीव 'संसारी' कहलाते हैं । इससे संसारी जीवोंकी सरल व्याख्या यह है कि, जो जीव कर्मबद्ध हैं, वे ही संसारी हैं। ___ संसारी जीवोंके अनेक भेद हो सकते हैं, परन्तु उनके त्रस और स्थावर दो ही भेद मुख्यतया किये गये हैं। पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय, ये पाँचों 'स्थावर' कहलाते हैं। ' स्थावर' शब्दका अर्थ स्थिर रहना होता है; परन्तु यह अर्थ 'वायु' और 'अग्नि में घटित नहीं हो सकता है, इसलिए स्थावरका अर्थ शब्दार्थकी अपेक्षासे ग्रहण नहीं किया जाता है । यह रूढिसे 'एकेन्द्रिय' जीवोंके लिए उपयोगमें आता है । ये पृथ्वीकायादि एकेन्द्रिय कहलाते हैं; क्योंकि इनके एक स्पर्शन इन्द्रिय ( चमडी ) ही होती है। इनके दो भेद होते हैं,-सूक्ष्म और बादर । सूक्ष्म पृथ्वीकाय, सूक्ष्म जलकाय, सूक्ष्म आनकाय, सूक्ष्म वायुकाय, और सूक्ष्म वनस्पतिकाय जीव सारे संसारमें व्याप्त हैं। ये अत्यन्त
१–आधुनिक वैज्ञानिक भी यह मानते हैं कि सारी पोली जगह-सारा आकाश सक्ष्म जीवोंसे भरा हुआ है । वैज्ञानिकोंने शोध करके यह भी बताया है कि, 'थेकसस' नामके जीव सबसे सूक्ष्म हैं। ये सूईके अग्रभाग पर, अच्छी तरहसे, एक लाख बैठ सकते हैं।
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जैन-दर्शन
सूक्ष्म होते हैं, इसलिए चर्मचक्षु इन्हें नहीं देख सकते । बादर पृथ्वीकाय, बादर जलकाय, बादर अग्निकाय, बादर वायुकाय और बादर वनस्पतिकायको चर्मचक्षु देख सकते हैं। घर्षण, छेदन आदि प्रहारविहीन मिट्टी, पत्थर आदि पृथ्वी, जिन जीवोंके शरीरोंका पिंड है, वे बादर पृथ्वीकाय कहलाते हैं । अग्नि आदिके आघातसे रहित- कूवा, बावडी आदिका जल जिन जीवोंके शरीरोंका पिंड है वे बादर जलकायके जीव हैं । इसी तरह दीपक, अग्नि, बिजली आदि जिन जीवोंके शरीरोंका पिंड है वे बादर अग्निकाय जीव हैं । जिस वायुका हम अनुभव करते हैं वह जिन जीवोंके शरीरोंका पिंड है वे बादर वायुकाय हैं । और वृक्ष, शाखा, प्रशाखा, फूल, फल, पत्र आदि बादर वनस्पतिकाय हैं। ___ उक्त सचेतन पृथ्वी, सचेतन जल आदि अचेतन भी हो सकते हैं। सचेतन पृथ्वीमें छेदन, भेदन आदि आघात लगनेसे उसके अंदरके जीव उसमेंसे च्युत हो जाते हैं और इससे वह पृथ्वी अचेतन हो जाती है । इसी तरह जलको गरम करनेसे अथवा उसमें शक्कर आदि पदार्थोंका मिश्रण होनेसे वह भी अचेतन हो जाता है। वनस्पति भी इसी प्रकारसे अचेतन हो जाया करती है। _जिनके, त्वचा और जीभ ऐसे दो इन्द्रियाँ होती हैं, वे द्वीन्द्रिय जीव कहलाते हैं । कीडे, लट, अलसिये आदि जीवोंका द्वीन्द्रिय जीवोंमे समावेश होता है । नँ, कीड़ी आदि जीव, स्पर्शन, रसना १ चादर यानी स्थूल । 'बादर' जैनशास्त्रोंका पारिभाषिक शब्द है।
२-धुरंधर वैज्ञानिक डॉ. जगदीशचंद्र महाशयने अपने विज्ञान-प्रयोगसे भी वनस्पति आदिमें जीवोंका होना सिद्ध करके बता दिया है।
३०
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जैन-रत्न
और घ्राण इन्द्रियके होनेसे त्रीन्द्रिय कहलाते हैं । जिनके त्वचा, जीभ, नासिका और नेत्र होते हैं वे चतुरिन्द्रिय जीव कहलाते हैं। मक्खी, डाँस, भँवरे, बिच्छू आदि चतुरेन्द्रिय जीव हैं। और जिनके त्वचा, जीभ, नाक, आँख और कान होते हैं वे पंचेन्द्रिय जीव कहलाते हैं । पंचेन्द्रियके चार भेद हैं-मनुष्य, तिर्यचे, स्वोंमें रहनेवाले देव और नरकॉमें रहनेवाले नारकी । __ त्रप्स जीवोंमें, द्वीन्द्रिय, तीन-इन्द्रिय, चार-इन्द्रिय और पाँच-इन्द्रिय जीवोंका समावेश होता है। ये हिलने चलनेकी क्रिया करते हैं, इसलिए ' त्रस' कहलाते हैं।
इस भाँति स्थावर और त्रस जीवोंमें सब संसारी जीवोंका समावेश हो जाता है । अब मुक्त जीव रहे, उनका वर्णन हम मोक्षतत्वके अंदर करेंगे।
अजीव
जो पदार्थ चैतन्य-रहित होते हैं, वे जड-अनीव कहलाते हैं। जैनशास्त्रोंमें अनीवके पाँच भेद बताये गये हैं। उनके नाम हैं-धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और काल ।
यहाँ धर्म और अधर्म जो नाम आये हैं, इनसे यह नहीं समझना चाहिए कि, ये पुण्य और पापके पर्यायवाची शब्द हैं । बल्के इस नामके दो पदार्थ हैं जो सारे लोकमें आकाशकी भाँति व्याप्त और
१-तिर्यंच तीन तरहके होते हैं:-जलचर ( पानीमें रहनेवाले) स्थलचर ( पशु-चार पैरवाले ) और खेचर ( पक्षी-उड़नेवाले)
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जैन-दर्शन
४६७.
अरूपी हैं । अन्यदर्शनी विद्वानोंको, संभव है कि ये दोनों पदार्थ नवीन मालूम हों; मगर जैनशास्त्रकारोंने तो इनके विषयमें बहुत कुछ लिखा है। आकाशको अवकाश देनेके लिए अन्य दर्शनवाले भी उपयोगी समझते हैं; मगर आकाशके साथ धर्म और अधर्मको भी जैनशास्त्रकार उपयोगी समझते हैं।
गमन करते हुए प्राणियोंको और गति करती हुई जड़ वस्तुओंको सहायता करनेवाला जो पदार्थ है, वह 'धर्म' है । जैसे जलमें फिरनेवाली मछलीको चलनेमें जल सहायता देनेवाला निमित्त माना जाता है इसी भाँति जड़ और जीवोंकी गतिमें भी किसीको निमित्त मानना आवश्यक है-न्यायसंगत है। यह निमित्तकारण 'धर्म' है । अवकाश-प्राप्तिमें जैसे आकाश सहायक समझा जाता है, वैसे ही गति करनेमें 'धर्म' सहायक समझा जाता है।
अधर्म
जड और जीवोंकी स्थितिमें 'अधर्म' पदार्थका उपयोग होता है । गति करनेमें जैसे 'धर्म' सहायक है उसी तरह स्थितिमें भी कोई सहायक पदार्थ जरूर होना चाहिए । इस न्यायसे 'अधर्म, पदार्थ सिद्ध होता है । वृक्षकी छाया जैसे स्थिति करनेमें निमित्त होती है, वैसे ही नड और जीवोंकी स्थितिमें ' अधर्म' पदार्थ निमित्त होता है।
हिलना, चलना या स्थित होना, इसमें स्वतंत्र कर्ता तो जड और जीव स्वयं ही हैं; अपने ही व्यापारसे वे चलते फिरते और स्थिर होते हैं, परन्तु इसमें सहायककी भाँति किसी अन्य पदार्थकी अपेक्षा अवश्य होनी चाहिए;-वर्तमान वैज्ञानिक भी ऐसा ही मानते हैं;
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जैन-रत्न -~~~~~~~~~mmmmmm~~~~~~~ मगर अभीतक वे किसी खास पदार्थको स्थिर नहीं कर सके हैं;-इसलिए जैनशास्त्रोंने वे पदार्थ 'धर्म' और ' अधर्म' बताये हैं।
आकाश
यह प्रसिद्ध पदार्थ है । दिशाओंका भी इसीमें समावेश होता है। लोकसंबंधी आकाश लोकाकाश और अलोकसंबंधी आकाश अलोकाकाशके नामसे पहिचाना जाता है । इस लोक और अलोकका विभाग करनेमें खाप्स कारण यदि कोई है तो वह, धर्म और अधर्म ही है। ऊपर नीचे और इधर उधर जहाँतक धर्म और अधर्म द्रव्य हैं, वहाँतकका स्थान — लोक ' माना जाता है और जहाँ ये दोनों पदार्थ नहीं हैं वहाँका प्रदेश ' अलोक' माना जाता है। इन दो पदार्थों को लेकर ही लोकमें जड और चेतनकी क्रिया हो रही है, अलोकमें ये दोनों पदार्थ नहीं हैं । इसलिए वहाँ न एक भी जीव है और न एक भी परमाणु । लोकमसे कोई भी जीव या परमाणु अलोकमें नहीं जा सकता है, इसका कारण, वहाँ धर्म और अधर्मका अभाव है; दूसरा नहीं । तब अलोकमें है क्या ? कुछ नहीं । यह केवल आकाशरूप है। जिस आकाशके किसी भी प्रदेशमें, परमाणु, जीव या कोई दूसरा पदार्थ नहीं है, ऐसे शुद्ध आकाशका नाम 'अलोक ' है। ___ उपर्युक्त प्रकारसे धर्म और अधर्म पदार्थोद्वारा लोक और अलोकका जो विभाग बताया गया है वह अगले कथनसे भी प्रमाणित होता है । जैनशास्त्र मानते हैं कि, सब कर्मोंका क्षय होनेसे जीक ऊपरकी ओर गति करता है। इस विषयमें तूंबीका उदाहरण दिया जाता है। जैसे पानीके अंदर रही हुई तूंबी मैलके हट जानेसे एक. दम जलके ऊपर आ जाती, है वैसे आत्मा भी कर्मरूपी मलके हटते Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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जैन-दर्शन
ही स्वभावतः ऊर्ध्वगति करता है । मगर यहाँ यह विचारणीय है कि, आत्मा कहाँतक ऊर्ध्वगति कर सकता है, कहाँ जाकर वह ठहर सकता है । इसका निबटेरा धर्म-अधर्मद्वारा विभानित लोक
और अलोक माने विना नहीं होता । धर्म द्रव्य गतिमें सहायक है, इसलिए कर्ममलरहित जीव, जहाँतक धर्म द्रव्य है, वहींतक जाता है और लोकके अग्रभागमें जाकर स्थित हो जाता है। वह आगे नहीं जा सकता । कारण आगे सहायक पदार्थ धर्मका अभाव है। यदि धर्म और अधर्म पदार्थ न हों और उनसे होनेवाला लोक व अलोकका विभाग न हो तो कमरहित बना हुआ आत्मा ऊपर कहाँतक जायगा, कहाँ स्थित होगा ? इन प्रश्नोंका बिलकुल उत्तर नहीं मिलता है।
पुगल
परमाणुसे लेकर घट, पट आदि सारे स्थूल-अतिस्थूल रूपी पदार्थोंको ‘पुद्गल ' संज्ञा दी गई है । 'पूर ' और 'गल् ' इन दो धातुओंके संयोगसे 'पुद्गल' शब्द बना है। 'पूर' का अर्थ पूर्ण होना, मिलना और ‘गल्' का अर्थ गलना, खिर पड़ना, जुदा होना होता है। इसका अनुभव हमें अपने शरीरसे और दूसरे पदार्थोंसे होता है। परमाणुवाले छोटे मोटे सब पदार्थों में परमाणुओंका घटना, बढ़ना होता ही रहता है । अकेला परमाणु मी, स्थूल पदार्थ से मिलता और अलग होता है, इसलिए 'पुद्गल' कहला सकता है।
काल इसको हरेक जानता है । नई चीन पुरानी होती है और पुरानी चीन नई होती है । बालक युवा होता है, युवा वृद्ध होता है।
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जैन - रत्न
I
भविष्य में होनेवाली वस्तु वर्तमान होती है, और वर्तमान में होनेवाली वस्तु भूतकाल के प्रवाह में प्रवाहित हो जाती है । यह सब कालकी गति है । प्रदेश ऊपर बताये हुए धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल ये चारों जड़ पदार्थ और आत्मा अनेक - प्रदेशवाले हैं । ' प्रदेश' यानी सूक्ष्म - सूक्ष्मातिसूक्ष्म-अंश । इस बात को सब जानते हैं कि घट, पटादि पदार्थोंके सूक्ष्म अंश परमाणु हैं । ये परमाणु जबतक एक दूसरेके साथ जुड़े हुए होते हैं, तबतक ' प्रदेश' नामसे पहिचाने जाते हैं । मगर जब ये अवयवी से भिन्न हो जाते हैं; एक दूसरे से सर्वथा जुदा हो जाते हैं तब परमाणुके नामसे पुकारे जाते हैं । यह तो हुई पुगलकी बात । मगर धर्म, अधर्म, आकाश और आत्माक प्रदेश तो एक विलक्षण घनीभूत - सर्वथा एकीभूत हैं । भिन्न हो जाते हैं, वैसे धर्म, अधर्म, कभी एक दूसरे से भिन्न नहीं होते हैं ।
ही
घड़ेके
अस्तिकाय
४७०
I
प्रकार के हैं । ये प्रदेश परस्पर प्रदेश - सूक्ष्म अंश जैसे घड़ेसे आकाश और आत्मा के प्रदेश
आकाश
आत्मा, धर्म और अधर्म इन तीनोंके असंख्याते प्रदेश हैं । अनन्त प्रदेशवाला है । लोकाकाश असंख्य प्रदेशी है और अलोकाकाश अनंतप्रदेशी । पुद्गल के संख्यात, असंख्यात और अनंत प्रदेश होते हैं । इस तरह ये पाँच, प्रदेशयुक्त होनेसे ' अस्तिकाय ' कहलाते हैं । ' अस्तिकाय ' शब्दका अर्थ होता है
१ - जिसकी संख्या नहीं हो सकती है उसको असंख्यात कहते हैं । यह सामान्य अर्थ है | मगर जैनशास्त्रोंमें इसका जो विशेष अर्थ किया गया हैं ।
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४७१
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जैन-दर्शन 'अस्ति ' यानी प्रदेश, और ' काय' यानी समूह; यानी प्रदेशोंके समूहसे युक्त । धर्म, आकाश, पुद्गल और जीव इनके साथ ' अस्तिकाय' शब्दको जोडकर इनका नाम 'धर्मास्तिकाय ।' अधर्मास्तिकाय ' 'आकाशास्तिकाय' 'पुद्गलास्तिकाय ' और 'जीवास्तिकाय ' रख दिया गया है । और ये ही नाम प्रायः व्यवहारमें आते हैं।
कालके प्रदेश नहीं होते । इसलिए वह अस्तिकाय नहीं कहलाता है । बीता हुआ काल नष्ट हो गया और भविष्य समय इस समय असत् है । इसलिए चलता हुआ, वर्तमान क्षण ही सद्भूतकाल है । घड़ी, दिन, रात, महीने वर्ष आदि जो कालके भेद किये गये हैं वे सब असद्भूत क्षणोंको बुद्धिमें एकत्रित करके किये गये हैं। इससे स्पष्ट है कि, एक क्षणमात्र कालमें प्रदेशकी कल्पना नहीं की जा सकती है।
उक्त पाँच अस्तिकाय और कालको जैनदर्शन 'षड्द्रव्य' के नामसे पहिचानता है।
पुण्य और पाप
___ भले कर्मोंको पुण्य कहते हैं और खराबको पाप । सम्पत्ति, आरोग्य, रूप, कीर्ति, पुत्र, स्त्री, दीर्घायु आदि सुखसाधन जिन कौके कारण मिलते हैं, वे शुभ कर्म ‘पुण्य ' कहलाते हैं; और जो कर्म इनसे विपरीत दुःखकी सामग्री एकत्रित कर देते हैं, वे अशभ कर्म 'पाप' कहलाते हैं।
कर्म आठ होते हैं-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । ( इनका सविस्तर वर्णन बंधतत्त्वमें
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जैन-रत्न
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किया जायगा ।) इन आठोंसे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय
और अन्तराय ये चार कर्म अशुभ हैं । इसलिए ये पापकर्म कहलाते हैं । ज्ञानावरण ज्ञानको ढकता है, दर्शनावरण दर्शनको ढकता है, मोहनीय कर्म मोह पैदा करता है, यानी यह कर्म जीवको संयम नहीं पालने देता है और तत्त्वश्रद्धानमें बाधा डालता है; और अन्तराय कर्म इष्टप्राप्तिमें विघ्न डालता है । इनके सिवा शेष कर्म शभ और अशम दोनों प्रकारके होते हैं। अशभ जैसे-नामकर्मकी प्रकृतियों से तियंच गति और नरक गति वगैरह, गोत्रमेंसे नीच गोत्र, वेदनीयमेंसे असातावेदनीय और आयुमेंसे नरकायु ये अशुम होनेसे पापकर्म हैं। शुभ जैसे,—नामकर्मकी प्रकृतियों से मनुष्यगति, देवगति आदि, गोत्रमेंसे उच्च गोत्र, वेदनीयमेंसे साता वेदनीय और आयुमेंसे देवादि आयु ये पुण्य कर्म कहलाते हैं।
आस्रव
आत्माके साथ कर्मबंध होनेके जो कारण हैं उन कारणोंका नाम ' आस्रव ' रक्खा गया है । जिन प्रवृत्तियोंसे, जिन कार्योंसे कर्म आते हैं यानी आत्माके साथ कर्मका संबंध होता है, वे प्रवृत्तियाँ
और वे कार्य आस्रव कहलाते हैं। आश्रूयते कर्म अनेन इत्याश्रवः ' ( जिनसे कर्म आते हैं वे आश्रव हैं । ) आश्रवको • आस्रव ' भी कहते हैं । ' आस्रवति कर्म अनेन इत्यास्रवः' ऐसी व्युत्पत्तिसे ' आस्रव ' शब्द बनता है। अर्थ उक्त प्रकार ही
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जैन-दर्शन
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तो
होता है । मन, वचन और कायकी प्रवृत्तियाँ यदि शुभ होती हैं, शुभ कर्म बँधते हैं और यदि अशुभ होती हैं तो अशुभ । अतः मुख्यतया मन, वचन और कायकी प्रवृत्तियाँ ही आस्रव होती हैं । मनकी प्रवृत्तियाँ, जैसे, - शुभ विचार और वास्तविक श्रद्धा या अशुभ विचार और अयथार्थ श्रद्धा । वचनकी प्रवृत्तियाँ जैसे, - दुष्ट भाषण या सम्यक् भाषण । शरीरका व्यापार, जैसे, हिंसा, चोरी, व्यभिचार आदि दुष्ट आचरण या जीवदया, परोपकार, ईश्वरपूजन आदि पवित्रा - चरण । श्रीमद् हरिभद्रसूरिमहाराज ' शास्त्रवार्तासमुच्चय' नामक ग्रंथ में लिखते है कि:
" हिंसाऽनृतादयः पंच तत्त्वाश्रद्धानमेव च । क्रोधादयश्च चत्वार इति पापस्य हेतवः ॥ विपरीतास्तु धर्मस्य एत एवोदिता बुधैः । "
भावार्थ–हिंसा, असत्य, (चोरी, मैथुन और परिग्रह) ये पाँच; तथा तत्त्वों (जीव, कर्म, परलोक, मोक्ष आदि पदार्थों ) पर अश्रद्धा और कषाय (क्रोध, मान, माया, और लोभ) ये पापके हेतु हैं । इनसे विपरीत ( जीवदया, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पाँच; तथा तत्त्वश्रद्धान और क्षमा, मृदुता, सरलता और संतोष ये चार) धर्मके यानी पुण्यके हेतु हैं । ऐसा ज्ञानियोंने कहा है । इन पुण्यके हेतुओं में या पापके हेतुओंमें मनकी भली या बुरी प्रवृत्तियाँ ही मुख्यतासे कार्य करती हैं, और वचनप्रवृत्तियाँ एवं शारीरिक क्रियाएँ मनोयोगको पुष्ट करने का काम करती हैं, गौणरूप से कर्मबंधका हेतु होती हैं ।
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जैन - रत्न
संवर
जो शुभ आत्मपरिणाम भनोयोग, वचनयोग और शरीरयोगरूप आश्रवसे बँधनेवाले कर्मोंको रोकता है वह ' संवर ' कहलाता है । " संवर " शब्द 'सम' उपसर्ग लगकर 'वृ' धातुसे बना ।' सम् ' पूर्वक 'वृ' धातुका अर्थ ' रोकना ' होता है । जितने अंशों में कर्म नहीं बँधते हैं, उतने ही अंशों में 'संवर' समझना चाहिए । आत्मा के जिन उज्ज्वल परिणामोंसे कर्म बँधते रुकता है, वे परिणाम 'संवर' कहलाते हैं । एक समय ऐसा भी आता है, जब कर्ममात्रका बँधना बंद हो जाता है । ऐसी स्थिति केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद आती है । ऐसी स्थिति प्राप्त होने के पहिले, जैसे जैसे आत्मोन्नति होती जाती है, वैसे ही वैसे बंधन में भी कमी होती जाती है ।
४७४
बंध
कर्मका आत्मा के साथ दूध और पानीकी तरह मेल हो जानेका नाम 'बंध' है । कर्म कहीं से नये नहीं लाने पड़ते । इस प्रकार के परमाणु सारे लोक में हँस हँसकर भरे हुए हैं । उनका नाम जैनशास्त्रकारोंने 'कर्मवर्गणा' रखा है । ये परमाणु राग-द्वेष रूपी चिकनाईके कारण आत्मा के साथ बँधते हैं ।
यहाँ शंका हो सकती है कि, - शुद्धात्माको राग-द्वेषरूपी चिकनाई कैसे लग सकती है ? इसका समाधान करने के लिए जरा सूक्ष्म दृष्टिसे विचार करना पड़ेगा । यह तो कहा नहीं जा सकता है कि, आत्मा के साथ रागद्वेषरूपी चिकनापन अमुक समयमें लग गया है I
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जैन- दर्शन
क्योंकि ऐसा कहनेसे तो यह प्रमाणित हो जाता है कि चिकनापन लगने के पहिले आत्मा शुद्धस्वरूपवाला था । मगर शुद्धस्वरूपी आत्माके राग-द्वेषके परिणाम नहीं होते । अगर शुद्धस्वरूपी आत्माके राग-द्वेष के परिणामोंका उत्पन्न होना मानेंगे तो फिर मुक्त आत्माओंके भी राग-द्वेषके परिणामोंका उत्पन्न होना मानना पड़ेगा । भूतकालमें आत्मा शुद्ध था, पीछेसे उसके रागद्वेषरूपी चिकनापन लगा, ऐसा यदि मान लेंगे तो इस आक्षेपको कैसे टाल सकेंगे कि. मुक्त होने पर भी; और शुद्ध होने पर भी जीव फिरसे राग-द्वेष युक्त हो जाता है । इससे यह सिद्ध होता है कि राग-द्वेष के परिणाम आत्मा के साथ पीछेसे नहीं लगे हैं । वे अनादि हैं ।
४७५
स्वर्णके साथ मिट्टी जैसे अनादिकालसे लगी हुई है, वैसे ही कर्म भी आत्मा के साथ अनादिकाल से लगे हुए हैं; और जैसे मिट्टीने स्वर्णकी चमकको ढक रखा है, वैसे ही अनादि कर्म - प्रवाहने भी आत्मा के शुद्ध ब्रह्मस्वरूपको ढक रखा है ।
ऊपर कहा जा चुका है कि, जैसे 'पहिले आत्मा और पीछे कर्मसंबंध' यह बात नहीं मानी जा सकती है वैसे ही यह भी नहीं कहा जा सकता है कि पहिले कर्म और फिर आत्मा; क्योंकि ऐसा कहने से आत्मा उत्पन्न होनेवाला और विनाशी प्रमाणित होता है । इस तरह जब ये दोनों पक्ष सिद्ध नहीं होते हैं; तब यह बात स्वतः सिद्ध हो जाती है कि आत्मा और कर्म अनादि-संगी हैं ।
जैनशास्त्रकारों ने कर्म के मुख्यतया आठ भेद बताये हैं - ज्ञाना-वरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । यह बात नये सिरे से नहीं कहनी पड़ेगी कि आत्माका
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४७६
जैन-रत्न
वास्तविक स्वरूप अतन्तज्ञान-सच्चिदानंदमय है; मगर उक्त कोंके कारण उसका असली स्वरूप ढक गया है।
ज्ञानावरणीय कर्म आत्माकी ज्ञानशक्तिको दबानेवाला है। जैसे जैसे यह कर्म विशेषरूपसे प्रगाढ होता जाता है, वैसे ही वैसे वह ज्ञानशक्तिको विशेषरूपसे आच्छादित करता जाता है। जैसे जैसे इस कर्ममें शिथिलता आती जाती है, वैसे ही वैसे बुद्धिका विकास होता जाता है। इस कर्मके पूर्णतया नष्ट हो जाने पर केवलज्ञान-हो जाता है। ___ दर्शनावरणीय कर्म दर्शन-शक्तिको दबाता है । ज्ञान और दर्शनमें विशेष अन्तर नहीं है। सामान्य आकारके ज्ञानका नाम 'दर्शन' रखा गया है। जैसे-हमने किसीको दूरसे देखा, हम उसको पहिचान नहीं सके, केवल इतना ही जान सके कि यह मनुष्य है । इसका नाम है दर्शन । उसी मनुष्यको विशेष रूपसे जान लेना है ज्ञान । ___ वेदनीय कर्मका कार्य सुख-दुःखका अनुभव कराना है । जो सुखका अनुभव कराता है उसे 'सातावेदनीय' और जो दुःखका अनुभव कराता है उसको 'असातावेदनीय' कहते हैं। ___ मोहनीय कर्म मोह पैदा करता है । स्त्री पर मोह, पुत्र पर मोह, मित्र पर मोह, और अन्यान्य पदार्थों पर मोह होना मोहनीय कर्मका परिणाम है। जो लोग मोहसे अंधे हो जाते हैं उन्हें कर्तव्याकर्तव्यका भान नहीं रहता। शराबमें मस्त मनुष्य जैसे वस्तुको वस्तुस्थितिसे नहीं देख सकता है, वैसे ही जो मनुष्य मोहकी गाढ अवस्थामें होता है, वह भी तत्त्वको तस्वदृष्टि से नहीं
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जैन-दर्शन
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समझ सकता है; और विपरीत स्थितिमें गौते खाया करता है। मोहकी लीलाके हजारों उदाहरण हम रातदिन देखते हैं। आठों कर्मोमेंसे यह कर्म आत्म-स्वरूपकी खराबी करनेमें नेताका कार्य करता है । इस कर्मके दो भेद हैं, तत्त्वदृष्टिको रोकनेवाला 'दर्शनमोहनीय ' और चारित्रको रोकनेवाला 'चारित्रमोहनीय'।
आयुष्य कर्मके चार भेद हैं,-देवायु, मनुष्यायु, तिर्यंचायु और नरकायु । यह कर्म बेड़ीका कार्य करता है । जब तक पैमें बेड़ी होती है, तब तक मनुष्य स्वतंत्रतासे भाग दौड़ नहीं कर सकता है, वैसे ही जब तक आयु कर्म होता है तब तक जीव देवगति, मनुष्यगति, तिर्यचगति या नरकगतिसे-जिसमें वह होता है-निकल. नहीं सकता है। __ नाम कर्मके अनेक भेद-प्रभेद हैं। अच्छा या बुरा शरीरका संगठन, सुरूप या कुरूपकी प्राप्ति, यश या अपयशका मिलना सौभाग्य या दुर्भाग्य और सुस्वर या दुःस्वरका होना आदि कई बातोंका आधार इसी नाम कर्म पर है। जैसे चित्रकार भले या बरे चित्र बनाता है, वैसे ही यह कर्म भी जीवको विचित्र स्थितियोंमें रखता है।
गोत्र कर्मके दो भेद हैं, उच्च और नीच । ऊँचे कलमें या नीचे कुलमें उत्पन्न होना इस कर्मका प्रभाव है। ज्ञातिबंधनकी परवाह नहीं करनेवाले देशोंमें भी ऊँच, नीचका व्यवहार होता है। इसका कारण यही कम है। __ अन्तराय कर्म विघ्न डालनेका कार्य करता. है । धनी और धर्मका जाननेवाला होकर भी कोई दान नहीं कर सकता, इसका कारण यह कर्म है। वैराग्यवृत्ति या त्यागवृत्तिके न होने
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जैन-रत्न
पर भी कोई धनका भोग नहीं कर सकता है, इसका कारण यह कर्म है । किसीको बद्धिपूर्वक अनेक प्रयत्न करने पर भी लाभ नहीं होता, उल्टे हानि उठानी पड़ती है, इसका कारण यह कर्म है।
और शरीरके पुष्ट होने पर भी उद्यम करनेमें प्रवृत्ति नहीं होती, इसका कारण भी यही अन्तराय कर्म है। ___ संक्षेपमें कर्मसे संबंध रखनेवाली सब बातें कही गई । जिस तरहकी प्रवृत्तियाँ होती हैं उसी तरहके सचिक्कन कर्म बंधते हैं;
और फल भी वैसा ही सचिकन भोगना पड़ता है । कर्मबंधनके समय कर्मकी स्थितिका भी बंध हो जाता है । अर्थात् यह भी निश्चित हो जाता है कि यह कर्म अमुक समय तक रहेगा। कर्म बद्ध होते (बँधते) ही उदयमें नहीं आते । जैसे बीज बोनेके कुछ काल बाद उसका फल मिलता है, वैसे ही कर्म भी बंध होनेके कुछ काल बाद उदयमें आते हैं । इसका कोई नियम नहीं है, कि उदयमें आनेके बाद कितने समय तक कर्मका फल भोगना पड़ता है । कारण यह है कि बद्धस्थिति भी शुभ भावनाओंसे कम हो जाती है।
कर्मका बंध एक ही तरहका नहीं होता । किसी कर्मका बंध बहुत दृढ होता है, किसीका शिथिल होता है और किसीका शिथिलतम होता है। जो बंध अतिगाढ-दृढ होता है, उसको जैनशास्त्र 'निकाचित' के नामसे पहिचानते हैं। इस बंधवाला कर्म प्रायः सबको भोगना ही पड़ता है । अन्य बंधवाले कर्म शुभ भावनाओंके प्रबल वेगसे भोगे विना भी छूट जाते हैं।
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निर्जरा
बँधे हुए कर्मोंका खिर जाना 'निर्जरा के नामसे पहिचाना जाता है। यह निर्जरा दो तरहसे होती है। 'मरे जो कर्मोंका बंध है वह छट जाय' इस प्रकार बुद्धिपूर्वक तपस्या या अनुष्ठानसे जो निर्जरा होती है, वह पहिले प्रकारकी निर्जरा कहलाती है। दूसरी निर्जरा है, कर्मोंका, स्थितिके पूर्ण होने पर,-स्वतः खिर पड़ना । पहिली निर्जराका नाम,
जैनशास्त्रोंकी परिभाषामें, सकाम निर्जरा' है और दूसरीका नाम 'अकाम निर्जरा'। वृक्षोंके फल जैसे डाल पर भी पक जाते हैं और प्रयत्नोंसे भी पकाये जाते हैं, इसी तरह कर्म भी स्थिति पूर्ण होने पर स्वतः भी खिर जाते हैं और तपश्चर्यादि क्रियाओंद्वारा भी ये खिरा दिये जाते हैं।
ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय ये चारों कर्म 'घाति कर्म' कहलाते हैं। क्योंकि ये आत्माके केवलज्ञानादि मुख्य गुणोंको हानि पहुँचानेवाले हैं । इन चार घातिकर्मोंका नाश होने पर केवलज्ञानकी प्राप्ति होती है। यह केवलज्ञान लोक और अलोकके भूत, भविष्यत और वर्तमान, सब पदार्थोंको प्रकाशित करनेवाला है। इस ज्ञानके प्रकाशसे जीव सर्वज्ञ कहलाता है । ये सर्वज्ञ आयुष्य पूर्ण होने पर; यानी आयु कर्म पूर्ण होने पर शेष तीन कर्मोंको, जो आयुकर्मसहित 'अघाति ' या 'भवोपग्रोही' के नामसे पहिचाने जाते हैं, भी नष्ट कर देते हैं। इनके नष्ट होते ही, उनका
१–भव अर्थात् संसार या शरीर; और उपग्राही याने टिका रखनेवाला । शरीरको टिका रखनेवाला।
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जैन-रत्न
आत्मा, तत्काल ही ऊर्ध्व गमन कर एक समयमात्रमें लोकके अग्रभागमें जा स्थित होता है । आत्माकी इसी अवस्थाका नाम मोक्ष है।
माक्ष
नौ तत्त्वों से नवाँ तत्त्व मोक्ष है । इसका लक्षण है" कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः" अथवा " परमानन्दो मुक्तिः" अर्थात् सारे कर्मोंका क्षय, या कर्मोंके क्षय होनेसे उत्पन्न होनेवाला आनंद । आत्माका स्वभाव है कि, वह सारे कर्मोंका क्षय हो जाने पर ऊर्ध्व गमन करता है । इसके लिए पहिले तँबीका उदाहरण दिया जा चुका है । आत्मा, ऊर्ध्वगमन करता हुआ लोकके अग्रभागमें जाकर रुक जाता है। फिर वह वहाँसे आगे नहीं जा सकता है। क्यों नहीं जा सकता है ? इसका कारण भी पहिले कहा जा चुका है, कि गमन करनेमें सहायता देनेवाला धर्मद्रव्य लोकके अग्रभागके आगे नहीं है। __ उक्त मुक्तावस्थामें सारे कर्मोंकी उपाधियाँ छूट जानेके कारण शरीर, इन्द्रिय और मनका सर्वथा अभाव हो जाता है और उससे जो अनिर्वचनीय सुख मुक्त आत्माओंको मिलता है, उस सुखके सामने तीन लोकका सुख भी बिन्दुमात्र है। बहुतसे यह शंका किया करते हैं कि मोक्षमें-जहाँ शरीर नहीं, स्त्री, मकान और बाग नहीं-सुख क्या हो सकता है ? मगर ऐसी शंका करनेवाले यह भूल जाते हैं कि शारीरिक सुखके साथ, दुःख भी लगा हुआ है मिष्टान्न खानेमें आनंद मिलता है, इसका कारण भखकी वेदना है । इस बातको हरेक जानता है कि पेट भर जाने पर अमृतके समान भोजन भी अच्छा
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जैन- दर्शन
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नहीं लगता है । सरदीकी पीड़ाको दूर करनेके लिए जो वस्त्र पहने जाते हैं, वे ही वस्त्र गरमी के संताप में बुरे लगते हैं । बहुत देर तक बैठे रहनेवालेको चलने की इच्छा होती है, और बहुत चलनेवाला बैठ जाना चाहता है | कामभोग प्रारंभ में जितने अच्छे जान पड़ते हैं, वे अन्तमें उतने ही बुरे ज्ञात होते हैं । यह संसार की स्थिति क्या सुखमय है ? कदापि नहीं । जो सुख के साधन समझे जाते हैं, वे दुःखको कुछ देर के लिए शमन करते हैं; किन्तु नवीन सुख तो इनसे लेशमात्र भी उत्पन्न नहीं होता है । फोड़ा फूट जानेपर 'हा - य ' करके जिस सुखका अनुभव किया जाता है, वह क्या वास्तविक सुख है ? नहीं | वह क्षणमात्र के लिए वेदनाकी शान्ति है । यदि वह सुख सच्चा होता तो उसका अनुभव बेफोड़ेवाला मनुष्य भी करता ।
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ऊपर विषयसेवनमें क्षणिक सुख बताया गया है, उसके लिए इतनी बात और याद रखनी चाहिए कि इस क्षणिक सुखलाभका परिणाम अत्यंत भयंकर होता है ।
जिस स्वास्थ्य की प्राप्ति के लिए संसारी जीव खाना, पीना, चलना, फिरना आदि कार्य करते हैं वह स्वास्थ्य कर्मोके नष्ट हो जाने से संसारी जीवोंको स्वतः मिल जाता है। इससे यह स्वीकार करना पड़ता है कि, मुक्त आत्माओंको अनन्त सुख है ।
जिसके खुजली होती है, उसीको खुजाना अच्छा लगता है दूसरेको नहीं; इसी तरह जिनके पीछे मोहकी वासनाएँ लगी रहती हैं उन्हीं को चेष्टाएँ अच्छी लगती हैं औरोंको - मुक्तात्माओं को नहीं । संसारका मोहमय-विलास प्रारंभमें, खुजली के समान आनंद देनेवाला होता है ; परन्तु अन्तमें वह दुःखों को पैदा करता है । मुक्त आत्माओंको
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जैन-रत्न
परमात्माओंको, जिनके मोहरूपी खुजलीका अभाव है, जो निर्मलचैतन्यज्योतिःस्फुरित और स्वाभाविक आनंद मिलता है, वही वास्तविक परमार्थ आनंद है-सुख है । ऐसे परमसुखी परमात्माओंको, शास्त्रकारोंने शुद्ध, बुद्ध, सिद्ध, निरंजन, परमज्योति और परब्रह्म आदि नामोंसे संबोधित किया है। ___ मोक्ष मनुष्य-शरीरसे ही मिलता है । देवता भी देवशरीरसे मोक्षमें नहीं जा सकते हैं। ___ जैनशास्त्रकार 'भव्य' और 'अभव्य' ऐसे दो प्रकारके जीव मानते हैं । अन्तमें मोक्षको-चाहे वह कितने ही भवोंमें क्यों न हो-प्राप्त कर लेनेवाने जीव भव्य' कहलाते हैं और जो जीव 'अभव्य' होते हैं उन्हें कभी मुक्ति नहीं मिलती है । 'भव्य' या 'अभव्य' जवि किसीके बनानेसे नहीं बनते । यह भन्यत्व-अमव्यत्व जीवका स्वाभाविक परिणाम है। मूंगोंमें जैसे घोरडू मूंग होता है, इसी तरह जीवोंमें अभव्य जीव भी होते हैं। मँगोंके पक जाने पर भी जैसे घोरड़ मूंग नहीं पकता है, वैसे ही ' अभव्य ' जीवकी भी संसारस्थिति पूर्ण नहीं होती है। ___ जैनशास्त्रोंके ईश्वरसंबंधी सिद्धान्त खास तौरसे ध्यान आकर्षित करनेवाले हैं । " परिक्षीणसकलकर्मा ईश्वरः " ( अर्थात्जिसके सारे कर्म निर्मूल हो गये हैं वही ईश्वर है ) मुक्त- अवस्थाप्राप्त परमात्माओंसे ईश्वर कोई भिन्न प्रकारका नहीं है । ईश्वरत्व और मुक्ति दोनोंका लक्षण एक है। __जैनशास्त्रकार कहते हैं कि, मोक्षप्राप्तिके कारण सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रका अभ्यास करते करते एक समय ऐसा आता है कि
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जैन-दर्शन
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जब जीव उसका पूर्ण अभ्यासी हो जाता है। पूरा अभ्यास होने पर सारे कर्मबंध छूट जाते हैं और आत्माके अनन्तज्ञानादि सकल गुण प्रकाशित हो जाते हैं। ऐसा सकल गुणप्रकाशित आत्मा ही परमात्मा-ईश्वर है। जो जीव अपनी आत्म-शक्तिको विकसित करनेका प्रयत्न करते हैं; परमात्मस्थितिको प्राप्त करनेकी यथावत् कोशिश करते हैं व ईश्वर हो सकते है । जैनसिद्धान्त यह नहीं मानते कि ईश्वर एक ही व्यक्ति है। तो भी एक बात है। परमात्मस्थितिप्राप्त सारे सिद्ध एक दूसरेमें मिले हुए हैं, इसलिए हम उनका समुच्चय रूपसे-समष्टि रूपसे 'एक' शब्दसे भी किसी अंशमें व्यवहार कर सकते हैं । भिन्न भिन्न नदियोंका पानी जैसे समुद्रमें जाकर मिलने पर एक हो जाता है, फिर उन भिन्न २ नदियों से आया हुआ जल एक कहलाने लग जाता है, इसी तरह भिन्न भिन्न जीव भी मोक्षमें जाकर ऐसे सम्मिलित हो जाते हैं, जिससे उनको-सिद्ध जीवोंको समुच्चय दृष्टिसे 'एक ईश्वर' या 'एक परमात्मा मानना अनुचित या असंभव नहीं है।
मोक्षका शाश्वतत्व ।
यहाँ एक आशंका होती है कि यह एक अटल नियम है कि, जिस पदार्थकी उत्पत्ति होती है उसका विनाश भी होता है । मोक्ष भी उत्पन्न होता है, इसलिए उसका अंत होना जरूरी है। जब मोक्षका अन्त हो जायगा तब वह शाश्वत कैसे रहेगा ? मगर मोक्ष उत्पन्न होनेवाला पदार्थ नहीं है । कर्मोसे मुक्त होना यही आत्माका मोक्ष है । आत्मामें जब कोई नवीन पदार्थ उत्पन्न नहीं होता तब उनके नाश होनेकी कल्पना तो सर्वथा व्यर्थ ही है। जैसे बादलोंके हट जानेसे देदीप्यमान सूर्य प्रकाशित होता है, वैसे ही कर्मावरणके
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जैन-रन्न
हट जानेसे आत्माके सारे गुण प्रकाशित हो जाते हैं। इसीको मोक्ष कहते हैं । इसमें क्या कोई नवीन पदार्थ उत्पन्न होता है ? ___ यह बात खूब ध्यानमें रखनी चाहिए कि सर्वथा निर्मल वने हुए आत्माको फिर कर्मबंध नहीं होता है। कहा है कि:___“ दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं प्रादुर्भवति नाङ्करः ।
कर्मबीने तथा दग्धे न रोहति भवाङ्करः ॥" भावार्थ-बीजके अत्यंत जल जानेके बाद उसमें अङ्कर नहीं आता; इसी तरह कर्मरूपी बीजके जल जाने पर फिर भवरूपी अङ्कुर उत्पन्न नहीं होते हैं।
संसारका संबंध कर्म-संबंधके आधीन है; और कर्मसंबंध रागद्वेषकी चिकनाईके आधीन है। इसलिए जो अत्यंत निर्मल हुए हैं-सर्वथा निर्लेप हो गये हैं, उनके रागद्वेषरूपी चिकनापन कैसे हो सकता है ? उनके कर्मसंबंधकी कल्पना कैसे की जा सकती है ? और इसीलिए यह बात कैसे मानी जा सकती है कि, वे फिरसे संसारमें आयगे।
सारे कर्म क्षीण हो सकते हैं।
यहाँ आशंका हो सकती है कि, आत्माके साथ कर्मका संयोग जब अनादि है तब उसका नाश कैसे हो सकता है ! क्योंकि अनादि वस्तुका कभी नाश नहीं होता है। तर्कशास्त्रियोंका यही कथन है; संसारका यही अनुभव है। मगर इसके समाधानके लिए यह ध्यानमें रखना चाहिए कि, आत्माके नवीन कर्म बँधते जाते हैं और पुराने खिरते जाते हैं । इससे स्पष्टतया समझमें आ जाता है, कि अमुक कर्म-व्यक्तिका-अमुक आत्मगतपरमाणुसमूहका आत्माके साथ अनादि संबंध नहीं है । प्रत्युत भिन्न २
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जैन-दर्शन
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कर्मोंके संयोगका प्रवाह अनादिकालसे बहता आ रहा है । जो संयोग आत्मा और आकाशकी तरह अनादि होता है, वही कभी नष्ट नहीं होता है, बाकीके अनादि संयोग नष्ट हो जाते हैं। आत्माके साथ प्रत्येक कर्मव्यक्तिका संयोग सादि है। इसलिए किसी कर्मव्यक्तिका आत्माके साथ स्थायी होना नहीं बनता है, तब इस बातके माननेमें कौनसी आपत्ति हो सकती है कि, सारे कर्म आत्मासे भिन्न हो जाते हैं ?
इसके अतिरिक्त संसारके मनुष्योंकी ओर दृष्टिपात करनेसे विदित होता है कि, किसी मनुष्यमें राग-द्वेष ज्यादह होता है और किसीमें कम । इस तरहकी राग-द्वेषकी कमी ज्यादती, विना हेतुके नहीं है । इससे माना जा सकता है कि कम-ज्यादा होनेवाली चीज जिस हेतुसे कम होती है, उस हेतुकी पूर्ण सामग्री मिलने पर वह चीन नष्ट भी हो जाती है। जैसे पोस महीनेकी प्रबल शीत बाल सूर्यके मंद तापसे कम होने लगती है और जब ताप प्रखर हो जाता है तब वह शीत सर्वथैव नष्ट हो जाती है। अतःइस कथनमें क्या बाधा हो सकती है कि, कम-ज्यादा होनेवाले रागद्वेष दोष जिस कारणसे कम होते हैं, उस कारणके पूर्णतया सिद्ध होने पर वे सर्वथा नष्ट हो जाते हैं। शुभ भावनाओंके सतत प्रवाहसे राग-द्वेषकी कमी होती है। इन्हींका प्रवाह जब प्रबल हो जाता है; जब आत्मा ध्यानके स्वरूपमें निश्चल हो जाता है, तब राग-द्वेष सम्पूर्णरूपसे नष्ट हो जाते हैं; केवलज्ञानका प्रादुर्भाव होता
१-जहाँ कर्म अनादि बताया गया है, वहाँ भिन्न २ कोंके संयोगका प्रवाह अनादिकालसे समझना चाहिए।
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जैन-रत्न
है। क्योंकि रागद्वेषके क्षय होनेसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय ये तीनों ही कर्म नष्ट हो जाते हैं। यह संसाररूपी महल केवल दो ही स्तंभोंपर टिका हुआ है। वे हैं राग और द्वेष । मोहनीय कर्मके सर्वस्व ये ही राग और द्वेष हैं। तालवृक्षके सिरमें सूई भौंक देनेसे जैसे सारा तालवृक्ष सूख जाता है, वैसे ही सर्व कर्मोंके मूल राग-द्वेष पर आघात करनेसे-उसका उच्छेद करनेसे-सारा कर्मवृक्ष सूख जाता है-नष्ट हो जाता है ।
केवल ज्ञानकी सिद्धि।
राग-द्वेषके क्षय होनेसे जो केवलज्ञान उत्पन्न होता है, उसके संबंधमें बहुतोंको अनेक शंकाएँ रहती हैं। शंकाकार कहते हैं कि," ऐसा भी कोई ज्ञान होता होगा, जो अखंड ब्रह्मांडके-सकल लोकालोकके-त्रिकालवर्ती तमाम पदार्थों पर प्रकाश डाल सके ?" मगर वास्तवमें तो इसमें शंकाके लिए कोई अवकाश नहीं है। हम देखते हैं, मनुष्योंमें ज्ञानकी मात्रा, न्यूनाधिक प्रमाणमें होती है। यह क्या सूचित करता है? यही कि, जब आवरण थोड़ा हटता है तब ज्ञान थोड़ा प्रकाशमें आता है, और अधिक हटता है तब अधिक;
और वही आवरण जब पूरा हट जाता है तब ज्ञान भी पूर्णतया प्रकाशमें आ जाता है। इस बातको हम एक दृष्टान्त देकर स्पष्ट करेंगे । छोटी मोटी चीजों में जो परिमाण देखा जाता है वह बढ़ता हुआ अन्तमें आकाशमें जाकर विश्रान्ति लेता है। आकशसे आगे परिमाणका प्रकर्ष नहीं है। संपूर्ण परिमाण आकाशमें आ गया है। इस दृष्टांतसे न्यायद्वारा सिद्ध होता है कि ज्ञानकी मात्राको भी, इसी तरह, किसी पुरुषविशेषमें विश्रान्ति लेनी चाहिए । बढ़ते हुए ज्ञानके प्रकर्षका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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जैन-दर्शन
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जहाँ अन्त होता है, ज्ञानकी मात्रा जिसके आगे बढ़नेसे रुक गई है, जिसके अन्दर संपूर्ण ज्ञानने विश्रान्ति ली है वही पुरुष सर्वज्ञ है, सर्वदर्शी है और उसीका ज्ञान केवलज्ञानके नामसे पहिचाना जाता है ।
ईश्वर जगत्का कर्ता नहीं है। जैनधर्मका एक सिद्धान्त विचारशील पाठकोंका ध्यान अपनी ओर विशेषरूपसे आकर्षित करता है । वह यह है कि,-ईश्वर जगत्का पैदा करनेवाला नहीं है । जैनशास्त्र कहते हैं कि कर्मसत्तासे फिरनेवाले संसारचक्रमें निलेप, परमवीतराग और परमकृतार्थ, ईश्वरके कर्तृत्वकी कैसे संभावना हो सकती है ? प्रत्येक प्राणीके सुख-दुःखका आधार उसकी कर्मसत्ता है । वीतराग न किसी पर प्रसन्न होता है और न रुष्ट ही । प्रसन्न या नाराज होना वीतराग-स्थितिको नहीं पहुँचे हुए नीची स्थितिवालोंका काम है।
ईश्वरपूजाकी आवश्यकता । 'ईश्वर जगत्कर्ता नहीं है। इस सिद्धान्तके साथ इस प्रश्नका उत्पन्न होना भी स्वाभाविक है कि-ईश्वरको पूजनेसे क्या लाभ है ? जब ईश्वर वीतराग है-वह प्रसन्न या नाराज नहीं होता है, तब उसकी पूजा-भक्ति क्यों की जाय ? जैनशास्त्रकार इसका उत्तर इस तरह देते हैं कि,-ईश्वर की उपासना उसको प्रसन्न करनेके लिए नहीं की जाती है; बल्के अपने हृदयको शुद्ध बनानेके लीए की जाती है। सब दुःखोंकी जड राग-द्वेषको दूर करनेके लिए राग-द्वेषरहित परमात्माका अवलम्बन करना अत्यन्त आवश्यक है। मोहवासनाओंसे पूर्ण आत्मा स्फटिकके समान है। जैसे स्फटिक अपने पासवाले रंग के समान ही रंग धारण कर लेता है, वैसे ही राग-द्वेषके जैसे संयोग
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जैन-रत्न mernmmm...wwwx.nrmmmmmmmmmmmmmm आत्माको मिलते हैं, वैसा ही असर आत्मा पर शीघ्रताके साथ हो जाता है । इसलिए हरेक विचारशील उत्तम संयोगप्राप्तिकी आवश्यकताको स्वीकार करता है । वीतराग देवका स्वरूप परम शान्तिमय है। उसमें राग-द्वेषको लेशमात्र भी स्थान नहीं है। इसलिए उसका सहारा लेनेसे--उसका ध्यान करनेसे आत्मामें वीतरागधर्मका संचार होता है, और क्रमशः ध्याता आत्मा भी वीतराग बन जाता है । संसारमें देखा जाता है कि रूपवती स्त्रीको देखनेसे कामकी उत्पत्ति होती है, पुत्र या मित्रके दर्शन करनेसे स्नेहकी जागृति होती है और एक प्रसन्नात्मा मुनिके दर्शन करनेसे हृदयमें शान्तिका संचार होता है। इन बातोंसे 'सोहबत असर' वाक्यपर विशेष रूपसे ध्यान आकर्षित होता है । वीतरागकी सोहबत है-उनका दर्शन, स्तवन, पूजन या स्मरण करना। इससे आत्मा पर ऐसा प्रभाव पड़ता है कि, उसकी रागद्वेषवृत्ति स्वतः कम हो जाती है। यह ईश्वरपूजनका मुख्य फल है । - पूज्य परमात्माको पूजकसे कुछ प्राप्त करनेकी आकांक्षा नहीं होती; पूज्य परमात्माका पूजकसे कोई उपकार नहीं होता। हाँ, पूजकका उपकार पूज्य परमात्माकी पूजासे अवश्य होता है। पूजा भी वह अपनी भलाईके लिए ही करता है। परमात्माके अवलंबनसे,-परमात्माका एकाग्रचित्त होकर ध्यान करनेसे,-उस एकाग्रभावनाके बलसे, पूजक अपना फल प्राप्त कर सकता है।
जैस अग्निके पास जानेसे मनुष्यकी सरदी उड़ जाती है। परन्तु अग्नि किसीको सरदी उड़ानेके लिए नहीं बुलाती और न वह प्रसन्न होकर किसीकी सरदी उड़ाती ही है। इसी प्रकार वीतराग प्रभुकी
भी बात है। प्रभुकी उपासना करनेसे राग-द्वेषरूपी सरदी स्वतः उड़ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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जैन-दर्शन
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जाती है, और चैतन्य-विकासरूपी महान् फलकी प्राप्ति होती है। इस प्रकारकी फलप्राप्तिमें ईश्वरका प्रसन्न होना, मानना, जैनशास्त्रोंको अस्वीकार है।
वेश्याकी संगति करनेवाला मनुष्य दुर्गतिका भाजन बनता है; यह बात अक्षरशः सत्य है। मगर विचारना यह है कि इस दुर्गतिका देनेवाला है कौन ? वेश्याको दुर्गतिदाता मानना भ्रान्तिपूर्ण है। क्यों कि प्रथम तो वेश्या यह जानती ही नहीं है कि दुर्गति क्या चीज है ? दूसरे यह है कि कोई किसीको दुर्गतिमें ले जानेका सामर्थ्य नहीं रखता है। इससे निर्भीकताके साथ यह कहा जा सकता है कि मनुष्यको दुर्गतिमें ले जानेवाली उसके हृदयकी मलिनता है। इससे यह सिद्धान्त स्थिर किया जा सकता है कि सुखदुःखके कारणभूत जो कर्म हैं उन काँका कारण हृदयकी शुभाशुभ वृत्तियाँ हैं; और इन वृत्तियोंको शुभ बनाने और उनके द्वारा सुख प्राप्त करनेका सर्वोत्कृष्ट साधन भगवद्-उपासना है। उसकी उपासनासे वृत्तियाँ शुभ बनती हैं और अन्तमें सारी वृत्तियोंका निरोध होकर अतीन्द्रिय परमानंद मिलता है।
मोक्षमार्ग
नव तत्त्वोंका संक्षिप्त वर्णन समाप्त हुआ । इससे पाठक भली प्रकार समझ गये होंगे कि जैन लोग आत्मा, पुण्य, पाप, परलोक, मोक्ष
और ईश्वर इन सबको यथावत् मानते हैं । आस्तिकोंके आस्तिकत्वका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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जैन-रत्न
आधार, इन्हीं पुण्य, पाप, परलोक आदि परोक्ष तत्त्वोंका मानना है । केवल प्रत्यक्ष प्रमाण ही माननेसे तत्त्वज्ञानका मार्ग नहीं मिलता । ऐसा करनेसे आत्मजीवनकी भी स्थिति ठीक नहीं रहती। जो सिर्फ प्रत्यक्ष प्रमाणको मानते हैं उन्हें भी धुएँको देखकर अग्नि होनेका अनुमान करना ही पड़ता है । नहीं देखनेसे वस्तुका अभाव मानना न्यायसंगत नहीं । बहुतसी वस्तुएँ ऐसी हैं, कि जो अपने दृष्टिगत नहीं होती; परन्त उनका अस्तित्व है। तो क्या न दिखनेसे अस्तित्वका अभाव हो जायगा ? आकाशमें उड़ता हुआ पक्षी इतना ऊँचा चला गया कि वह दिखनेसे बंद हो गया; इससे क्या यह मान लिया जाय कि वह पक्षी है ही नहीं ? अपना ही अनुभव मानना
और दूसरेके अनुभवको नहीं मानना अनुचित है। एक मनुष्य लंदन, पेरिस, न्यूयार्क, बर्लिन आदि नगर देखकर आया है, और वह उनकी शोभाका, वहाँके लोगोंके वैभवका यथावत् वर्णन कर रहा है, मगर सुननेवाला, प्रत्यक्ष प्रमाणके अभाव; स्वयंने उसका अनुभव नहीं किया इसलिए; यदि उस बातको नहीं मानेगा तो हँसीका पात्र होगा। इसी तरह यह बात भी है। यानी साधारण मनुष्योंकी अपेक्षा अपने महापुरुष, अनुभवज्ञानमें बहुत बड़े चढ़े थे। उनके सिद्धान्तोको, हम अनुभव नहीं कर सकते इसीलिए नहीं मानना अनुचित है। ____ मनुष्यको चाहिए कि वह पुण्य-पापकी जो लीलाएँ संसारमें हो रही हैं उनको भली प्रकार समझे, संसाररूपी महाविषधरसे सावधान बने और आत्माके ऊपर लगे हुए कर्मरूपी मलको दूर करनेके लिएचैतन्यको पूर्ण प्रकाशमें लानेके लिए कल्याणसंपन्न मार्गमें लगे । मनुष्य वास्तविक मार्ग पर चलता हुआ, चाहे चाल धीमी ही क्यों न
अपने महापुरुष कर सकते इसापकी जो
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जैन-दर्शन
हो, कभी नहीं घबराता है; वह क्रमशः आगेकी ओर बढ़ता ही जाता है; और अन्तमें वह अपने अभीष्ट स्थान पर पहुँच जाता है। साध्यको लक्ष्यमें न रखकर बाण चलानेवाले धनुर्धरकी चेष्टा जैसे निष्फल जाती है, वैसे ही साध्यको स्थिर किये बिना जो क्रिया की जाती है वह भी निष्फल जाती है । मोक्ष मनुष्यमात्रका-चाहे वह साधु हो या गृहस्थ-वास्तविक साध्य है । इसलिए इसको लक्ष्यमें रख इसको सिद्ध करानेवाले मार्गकी खोज करना प्रत्येकका कर्तव्य है। जो दुराग्रहको छोड़, गुणानुरागी बन, जिज्ञासु बुद्धिसे आत्मकल्याणकी खोज करता है। शास्त्रोंका मनन करता है; उसको वास्तविक निष्कलंक मार्ग मिल ही जाता है। मार्ग जान कर उसपर चलना आवश्यक है। इस बातको हरेक समझ सकता है कि, पानीमें तैरनेकी क्रियाको जानता हुआ भी अगर कोई पानीमें नहीं उतरता है; क्रियाको कार्यमें नहीं लाता है; तैरनेका प्रयत्न नहीं करता है, तो वह समय पर तैर नहीं सकता है । इसलिए शास्त्रकार कहते हैं कि-"सम्यग्ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः"-यथार्थ ज्ञान और तदनुकूल की गई क्रियासे ही मोक्ष मिलता है।
सम्यग्ज्ञान ।
आत्मतत्त्वकी पहिचान करनेका नाम सम्यग्ज्ञान है । आत्माके साथ जिन जड़ तत्त्वोंका-कर्मोंका संबंध है, उनका जब तक वास्तविक स्वरूप समझमें नहीं आता है तब तक मनुष्योंको आत्मतत्त्वका यथार्थ बोध नहीं होता है और आत्मतत्त्वके बोध विना संसारकी सारी विद्वत्ता निरर्थक है । संसारकी क्लेशनालका आधार अज्ञानता है। अतः क्लेशजालको हटानेके लिए अज्ञानको हटाना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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जैन-रत्न
चाहिए । अज्ञानको हटानेका सबसे अच्छा उपाय है-आत्मस्वरूपको जानना । इसलिए मनुष्यका सबसे पहिला कर्तव्य, यथाबुद्धि, यथाशक्ति आत्मस्वरूपका परिचय करना है।
सम्यक् चारित्र।
तत्त्वस्वरूपको जाननेकां फल पापकर्मसे हटना है। इसीको सम्यक चारित्र कहते हैं । 'सम्यक् चारित्र' शब्दका वास्तविक अर्थ है अपने जीवनको पापके संयोगसे दूर रखकर निर्मल बनाना । मनुष्य पापके संयोगसे कैसे बच सकता है ! इसके लिए शास्त्रोंमें नियम बनाये गये हैं । उनको आचरणमें लाना पापसंयोगसे बचनेका बहुत ही सीधा उपाय है। सामान्यतः चारित्र दो भागोंमें विभक्त किया गया है । एक है, गृहस्थोंका चारित्र और दूसरा है, माधुओंका चारित्र । पहिला — गृहस्थधर्म' और दूसरा · साधुधर्म' के नामसे पहिचाना जाता है।
जैनशास्त्रकारोंने साधुधर्म और गृहस्थधर्मके लिए बहुत कुछ लिखा है।
साधुधर्म। ___“सानोति स्वपरहितकार्याणि इति साधुः" अर्थात् जो निजको और दूसरों को लाभ पहुँचानेवाले कार्य करता है, वह साधु है । संसारके भोगोंको-कंचन, कामिनी आदिको छोड़, कुटुम्बपरिवारके नातेको तोड़, घरबारको जलांजलि दे, आत्मकल्याणकी उच्च कोटि पर आरूढ होनेकी पवित्र आकांक्षा रख, असंगवत ग्रहण करनेका नाम साधुधर्म है । साधुके व्यवसायका मुख्य विषय होता है-राग-द्वेषकी वृत्तियोंको दबाना । किसी जीवको मारने या सतानेमे
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जैन-दर्शन
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दूर रहना, झूठ नहीं बोलना, किसी चीजको, मालिककी आज्ञा विना न उठाना, मैथुनसे दूर रहना और परिग्रह नहीं रखना, 'ये साधुओंके पाँच महाव्रत हैं। अपने मनकी, अपने वचनकी और अपने शरीरकी चंचलता पर अंकुश रखना साधुनीवनका अटल लक्षण है। साधुधर्म यह विश्वबन्धुताका व्रत है । इसका फल है,-जन्म, जरा,. मृत्यु, आधि, व्याधि, उपाधि आदि सब दुःखोंसे रहित स्थानकोमोक्षको पाना । यह साधुधर्म जितना उज्ज्वल और पवित्र है, उतना ही विकट भी है । साधुधर्मको वही आचरणमें लाता है, जिसको संसारके स्वरूपका वास्तविक ज्ञान होता है, जिसके हृदयमें तात्त्विक वैराग्यका प्रादुर्भाव होता है और जिसको मोक्ष प्राप्त करनेकी प्रबल आकांक्षा होती है। ___ जो साधुधर्मको नहीं पाल सकते हैं, उनको चाहिए कि, वे गृहस्थधर्मका पालन करें। इससे भी वे अपने जीवनको कृतार्थ बना सकते हैं। शास्त्रकार कहते हैं कि गृहस्थधर्ममें चलनेके पहिले मनुष्यको अमुक गुण प्राप्त कर लेने चाहिएँ। अमुक बातोंका अभ्याप्त कर लेना चाहिए । सबसे पहिले न्यायपूर्वक धन कमाने; कठोरसे कठोर स्थितिमें भी अन्याय नहीं करनेका गुण प्राप्त करना चाहिए । इसके सिवा महात्माओंकी संगति, तत्वश्रवणकी उत्कंठा और इन्द्रियोंकी उच्छंखलतापर अधिकार करना आदि गुण प्राप्त कर लेना भी गृहस्थधर्मके. मार्ग पर चलनेवाले मनुष्यके लिए आवश्यक है।
१ प्राणातिपातविरमण, मृषावादविरमण, अदत्तादानविरमण, भैथुनविरमण और परिग्रहविरमण, ये पाँच व्रतोंके क्रमशः जैनशास्त्रानुसार पारिभाषिक (technical) शब्द हैं।
२-जैनशास्त्रोंकी परिभाषामें इसको मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति कहते हैं।
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जैन-रत्न
गृहस्थधर्म ।
शास्त्रकारोंने — गृहस्थधर्म' का दूसरा नाम 'श्रावकधर्म' बताय, है । गृहस्थधर्म पालनेवाले पुरुष · श्रावक' और स्त्रियाँ ' श्राविकाएँ, कहलाती हैं । गृहस्थधर्म पालनेमें बारह व्रत बताये गये हैं। स्थूल प्राणातिपातविरमण, स्थूल मृषावादविरमण, स्थूल अदत्तादानविरमण, स्थूल मैथुनविरमण, परिग्रहपरिमाण, दिखत, भोगोपभोगपरिमाण, अनर्थदंडविरति, सामायिक, देशावकाशिक, पोषध और अतिथिसंविमाग ये उन बारह व्रतोंके नाम हैं ।
स्थूल प्राणातिपातविरमण--इस विकट व्रतका पालन करना कि कोई भी जीव मेरे द्वारा नहीं मरेगा या हानि नहीं उठायगा, गृहस्थोंके लिए कठिन ही नहीं बल्के असंभव भी है। इसीलिए, गृहस्थोंके लिये योग्यतानुसार स्थूल यानी बड़ी हिंसा नहीं करनेका व्रत बताया गया है । त्रस और स्थावर दो प्रकारके जीव होते हैं। इनके विषयमें पहिले लिखा जा चुका है। स्थावर ( पृथ्वी, जलादि ) जीवोंकी हिंसासे गृहस्थ सर्वथा नहीं बच सकते, इस लिए उनको त्रस ( चलने फिरनेवाले बेइन्द्रिय आदि ) जीवोंकी हिंसा न करनेका व्रत स्वीकारनेका आदेश दिया गया है । इसमें दो बातोंका अपवाद भी है; यानी दो प्रकारकी परिस्थितियोंमें गृहस्थों द्वारा यदि हिंसा हो जाय तो उनमें उनका व्रत-भंग नहीं हो ऐसा कहा गया है। प्रथम, अपराधीका अपराध अक्षम्य हो तो; और दूसरे, घर बनवाना हो, कूआ खुदवाना हो, धर्मशाला बनवाना हो, खेती करवाना हो;-इस प्रकारके आरंभ समारंभ करने हों तो।
१-खोदना, गिराना, जलाना आदि ।
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__इस व्रतका निष्कर्ष यह है कि, जान बूझकर-संकल्पपूर्वक किसी निरपराधी त्रस जीवको नहीं मारना चाहिए; नहीं सताना चाहिए। ___इस व्रतमें यद्यपि स्थावर जीवोंकी हिंसाका कोई प्रतिबंध नहीं है, तो भी इस बातका ध्यान रखना चाहिए कि, जहाँतक हो सके स्थावर जीवोंकी व्यर्थ हिंसा न हो । इसके अतिरिक्त अपराधीक संबंधमें भी बहुत गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए। साँप, विच्छू आदिको, उनके काट खाने पर, अपराधी समझना और उनको मारनेकी चेष्टा करना अनुचित है । हृदयमें पूर्णतया दयादृष्टि रखनी चाहिए और सर्वत्र विवेकपूर्वक, लाभालाभको सोचकर, प्रवृत्ति करनी चाहिए । यही गृहस्थजीवनका शृंगार है।'
स्थूल मृषावादविरमण-जो सूक्ष्म असत्यसे भी बचनेका व्रत नहीं निभा सकते हैं उनके लिए स्थूल ( मोटे) असत्योंका त्याग करना बताया गया है। इसमें कहा गया है कि, कन्याके संबंधमें, 'पशुओंके संबंधमें, खेत-कूओंके संबंधों और इसी तरहकी और बातोंके संबंध झूठ नहीं बोलना चाहिए। यह भी आदेश किया गया है कि, दूसरोंकी धरोहर नहीं पचा जाना चाहिए, झूठी गवाही नहीं देनी चाहिए और खोटे लेख-दस्तावेज नहीं बनाने चाहिए।'
१--" पड्मु कुष्टिकुणित्वादि दृष्ट्वा हिंसाफलं सुधीः । निरागस्त्रसजन्तूनां हिंसां सङ्कल्पतस्त्यजेत् ॥
--हेमचंद्राचार्यकृत योगशास्त्र । २--"कन्यागोभूम्यलीकानि न्यासापहरणं तथा। कूटसाक्ष्यं च पञ्चेति स्थूलासत्यान्य कीर्तयन् " ॥
(योगशास्त्र)
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जैन-रत्न
स्थूल अदत्तादानविरमण – जो सूक्ष्म चोरीको त्यागनेका नियम नहीं पाल सकते उनके लिए स्थूल चोरी छोड़नेका नियम किया गया है। स्थूल चोरीमें इन बातों का समावेश होता है - खात डालना, ताला तोड़ना, जेबकटी करना, खोटे बाट-तोले रखना, कम देना ज्यादा लेना आदि; और ऐसी चोरी नहीं करना जो राजनियमों में अपराध बताई गई हो । किसी की रास्ते में पड़ी हुई चीजको उठा लेना किसीके जमीन में गड़े हुए धनको निकाल लेना और किसीकी धरोहर को पचा जाना-इन बातोंका इस व्रतमें पूर्णतया त्याग करना चाहिए ।'
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स्थूल मैथुनविरमण - इस व्रतका अभिप्राय है, परस्त्रीका त्याग करना । वेश्या, विधवा और कुमारीकी संगतिका त्याग करना भी इसी व्रतमें आ जाता है ।
परिग्रहपरिमाण — इच्छा अपरिमित है । इस व्रतका अभिप्राय है - इच्छाको नियममें रखना । धन, धान्य, सोना, चाँदी, घर, खेत, पशु आदि तमाम जायदाद के लिए अपनी इच्छानुकूल नियम ले लेना चाहिए । नियमसे विशेष कमाई हो, तो उसको धर्मकार्य में खर्च देना चाहिए | इच्छाका परिमाण नहीं होनेसे लोभका विशेष रूप से बोझा पड़ता है; और उसके कारण आत्मा अधोगतिमें चला जाता है । इसलिए इस व्रतकी आवश्यकता है ।
3
"
१-. 'पतितं विस्मृतं नष्टं स्थितं स्थापितमाहितम् । अदत्तं नाददीत स्वं परकीयं क्वचित् सुधीः ॥ २ - - " षंढत्वमिन्द्रियच्छेदं वीक्ष्याऽब्रह्मफलं सुधी ।
भवेत् स्वदारसन्तुष्टोऽन्यदारान् वा विवर्जयेत् ॥ " ३--" असन्तोषमविश्वासमारम्भं दुःखकारणम् !
""
मत्वा मूर्च्छाफलं कुर्यात् परिग्रहनियन्त्रणम् ॥
"""
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( योगशास्त्र )
( योगशास्त्र )
( योगशास्त्र )
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दिग्वत-उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम इन चारों दिशाओं और ऐशान, आग्नेय, नैऋत्य, और वायव्य इन विदिशाओंमें जाने आनेका नियम करना, यह इस व्रतका अभिप्राय है । बढ़ती हुई लोभवृत्तिको रोकनेके लिये यह नियम बनाया गया है। __ भोगोपभोगपरिमाण-जो पदार्थ एक ही वार उपयोगमें आते हैं वे भोग कहलाते हैं । जैसे-अन्न, पानी आदि । और जो पदार्थ बार बार काममें आ सकते हैं वे उपभोग कहलाते हैं। जैसे-वस्त्र, जेवर आदि । इस व्रतका अभिप्राय है कि, इनका नियम करना-इच्छानुसार निरंतर परिमाण करना । तृष्णा-लोलुपता पर इस व्रतका कितना प्रभाव पड़ता है, इससे तृष्णा कितनी नियमित हो जाती है सो अनुभव करनेहीसे मनुष्य भली प्रकार जान सकता है । मद्य, मांस, कंदमूल आदि अभक्ष्य पदार्थों का त्याग भी इसी व्रतमें आ जाता है । शान्तिमार्गमें आगे बढ़नेकी मनुष्य को जब इच्छा होती है, तब ही वह इस व्रतको पालन करता है। इसलिए जिसमें अनेक जीवोंका संहार होता हो, ऐसा पापमय व्यापार नहीं करना भी इसी व्रतमें आ जाता है। ___ अनर्थदंडविरमण- इसका अर्थ है-विना मतलब दंडित होनसे-पापद्वारा बँधनसे बचना । व्यर्थ खराब ध्यान न करना, व्यर्थ पापोपदेश न देना और व्यर्थ दूसरोंको हिंसक उपकरण न देना इस व्रतका पालन है । इनके अतिरिक्त, खेल तमाशे देखना, गप्पें लड़ाना, हँसी दिल्लगी करना आदि प्रमादाचरण करनेसे यथाशक्ति बचते रहना भी इस व्रतमें आ जाता है।
१--जहाँ दाक्षिण्यका विषय हो, वहाँ गृहस्थको खेत, कूए आदि कार्योंके लिए उपदेश या उपकरण देनेका इस व्रतमें प्रतिबंध नहीं है।
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सामायिक व्रत-राग-द्वेषरहित शान्तिके साथ दो घड़ी यानी ४ ८ मिनिट तक आसन पर बैठनेका नाम 'सामायिक ' है। इस समय, आत्मतत्त्वकी विचारणा, वैराग्यमय शास्त्रोंका परिशीलन अथवा परमामाका ध्यान करना चाहिए ।
देशावकाशिक व्रत-इसका अभिप्राय है-छठे व्रतमें ग्रहण किये हुए दिखतके दीर्घकालिक नियमको एक दिन या अमुक समयतकके लिए परिमित करना; इसी तरह दूसरे व्रतोंमें जो छूट हो उसको भी संक्षेप करना।।
पोषधव्रत-यह, धर्मका पोषक होता है इसलिए · पोषध' कहलाता है । इस व्रतका अभिप्राय है-उपवासादि तप करके चार या आठ प्रहर तक साधुकी तरह धर्मकार्यमें आरूढ रहना । इस पोषधमें अंगकी, तैल-मर्दन आदि द्वारा, शुश्रूषाका त्याग, पापव्यापारका त्याग तथा ब्रह्मचर्यपूर्वक धर्मक्रिया करनेका और शुभ ध्यानका अथवा शास्त्रमननका स्वीकार किया जाता है।
अतिथिसंविभाग–अपनी आत्मोन्नति करने के लिए गृहस्थाश्रमका त्याग करनेवाले मुमुक्षु ' अतिथि' कहलाते हैं। उन अतिथियोंको-मुनि महात्माओंको अन्न, वस्त्र आदि चीजोंका, जो उनके मार्गमें बाधा न डालें मगर उनके संयमपालनमें उपकारी हों, दान देना
और रहने के लिए स्थान देना इस व्रतका अभिप्राय है । साधु संतोंके अतिरिक्त उत्तम गुण-पात्र गृहस्थोंकी प्रतिपत्ति करना भी इस व्रतमें सम्मिलित होता है।
इन बारह व्रतों से प्रारंभके पाँच व्रत · अणुव्रत ' कहलाते हैं । इसका अभिप्राय यह है कि वे साधुके महावतोंके सामने 'अणु'
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मात्र हैं-बहुत छोटे हैं। उनके बादके तीन · गुणवत' कहलाते हैं । कारण यह है कि ये तीन व्रत अणुव्रतोंका गुण यानी उपकार करनेवाले हैं; उनको पुष्ट करनेवाले हैं । अन्तिम चार “ शिक्षाव्रत ' कहलाते हैं । शिक्षाव्रत शब्दका अर्थ है-विशेष धार्मिक कार्य करनेका अभ्यास डालना।
बारहों व्रत ग्रहण करनेका सामर्थ्य न होने पर शक्तिके अनुसार भी व्रत ग्रहण किये जा सकते हैं । इन व्रतोंका मूल सम्यक्त्व है। सम्यक्त्वप्राप्तिके विना गृहस्थधर्मका संपादन नहीं हो सकता है ।
सम्यक्त्व।
'सम्यक्त्व ' शब्दका सामान्य अर्थ होता है-अच्छापन, या निर्मलता । मगर जैनशास्त्रकारोंने इसका अर्थ विशेष रूपसे किया है। " तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ।।
(तत्त्वार्थाधिगम २ रा सूत्र) भावार्थ-जीवाजीवादि तत्त्वोंको यथार्थ स्वरूपमें बुद्धिपूर्वक अटल विश्वास करना सम्यग्दर्शन है । सम्यग्दर्शन, सम्यक्त्वका नामान्तर है। गृहस्थोके लिए सम्यक्त्वका विशेष लक्षण भी बताया गया है। जैसे
" या देवे देवताबुद्धिगुरौ च गुरुतामतिः । धर्मे च धर्मधीः शुद्धा सम्यक्त्वमिदमुच्यते" ॥ ( यागशास्त्र )
भावार्थ-देव पर देवबुद्धि, गुरु पर गुरुबुद्धि और धर्म पर धर्मबुद्धि-शुद्ध प्रकारकी बुद्धि रखनेका नाम सम्यक्त्व है । यहाँ हम थोडासा देव, गुरु और धर्म तत्त्वका भी पाठकोंको परिचय करा देना चाहते हैं।
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देवतत्त्व।
देव कहो या ईश्वर कहो, बात एक ही है। ईश्वरका लक्षण पहिले बताया जा चुका है। फिर मी थोडासा यहाँ बता देते हैं
" सर्वज्ञो जितरागादिदोषस्त्रैलोक्यपूजितः । यथास्थितार्थवादी च देवोऽर्हन् परमेश्वरः ॥ ( योगशास्त्र)
भावार्थ-जो सर्वज्ञ है, रागद्वेष आदि समस्त दोषोंसे मुक्त है, तीन लोक जिसकी पूजा करता हैं और जो यथार्थ उपदेश देता है वही परमेश्वर' अथवा ' देव ' कहलाता है।
गुरुतत्त्व। " महाव्रतधरा धीरा भैक्षमात्रोपजीविनः । सामायिकस्था धर्मोपदेशका गुरवो मताः " ( योगशास्त्र )
भावार्थ-जो अहिंसा आदि पाँच महाव्रतोंको धारण करते हैं, जो धैर्य गुणसे विभूषित होते हैं, जो भिक्षा-माधुकरीवृत्तिद्वारा अपना जीवननिर्वाह करते हैं, जो समभावमें रहते हैं ओर धर्मका यथार्थ उपदेश करते हैं वे ही — गुरु ' कहलाते हैं। धर्मकी व्याख्या ।
" पंचैतानि पवित्राणि सर्वेषां धर्मचारिणां । अहिंसा सत्यमस्तेयं त्यागो मैथुनवर्जनम् " ॥
. (हरिभद्रसूरिकृत अष्टक ) भावार्थ-सब धर्मोवाले अहिंसा, सत्य, चोरीका त्याग, सन्तोषवृत्ति और ब्रह्मचर्य इन पाँच बातोंको पवित्र मानते हैं; ये बातें सर्वमान्य हैं । धर्मशब्दका अर्थ है:
१ अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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जैब-दर्शन
'दुर्गतिप्रपतत्प्राणिधारणाद् धर्म उच्यते " ।
भावार्थ - जो दुर्गतिमें पड़ते हुए प्राणियोंको धारण करता प्राणियों को दुर्गतिमें पड़ने से बचाता है, वह धर्म है ।
वास्तवमें तो धर्म, आत्माकी स्वानुभवगम्य - अनुभवसे ही समझमें आनेवाली वस्तु है । क्लिष्ट कर्मोंके संस्कार दूर होने पर, राग-द्वेष की वृत्तियाँ घटने पर, अन्तःकरणकी जो शुद्धि होती है, वही वास्तविक धर्म है । इस वास्तविक धर्मको संपादन करने के लिए दान-पुण्य आदि जो क्रियाएँ की जाती हैं, वे भी धर्म ही कहलाती हैं; क्योंकि वे भी धर्म राजाकी ही परिवार होती हैं।
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जो गृहस्थ उक्त बारह व्रतोंको सम्यक्त्वसहित पालते हैं उनकी आत्मिकशक्तिका क्रमशः विकास होता है; और अन्तमें उनकी आत्मा के सारे गुण प्रकट हो जाते हैं । अब यह विचार किया जायगा कि, आत्मशक्तिका विकास कैसे होता है ।
गुणश्रेणी अथवा गुणस्थान
जैनशास्त्रों में चौदह श्रेणियाँ बताई गई हैं । ये गुणस्थान की श्रेणियाँ हैं । गुणस्थानका अर्थ है गुणोंका विकास । आत्मिक गुणका विकास यथायोग्य क्रमशः चौदह श्रेणियों में होता है ।
1
प्रथम श्रेणी-पंक्तिके जीवोंकी अपेक्षा दूसरी और तीसरी श्रेणीके जीवोंके आत्मिक गुण कुछ विशेष रूपसे विकसित होते हैं। चौथी श्रेणी के आत्मिक गुण इन तीनों से अधिक होते हैं । इसी प्रकार उत्तरोत्तर श्रेणियोंके जीव यथासम्भव पूर्व पूर्व श्रेणियों के जीवों की
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अपेक्षा विशेष उन्नति पर पहुँचे हुए होते हैं । चौदहवीं श्रेणीके जीव अतिनिर्मल और परम कृतार्थ होते हैं। जीव चौदहवीं श्रेणीमें पहुँचते ही मुक्त हो जाते हैं। सारे जीव प्रारंभमें तो प्रथम श्रेणीमें ही होते हैं, पीछेसे जो अपने आत्मगुणोंको विकसित करनेका प्रयत्न करते हैं वे उत्तरोत्तर श्रेणियों से गुजरते हुए अन्तमें चौदहवीं श्रेणीमं । पहुँच जाते हैं । जिनके प्रयत्नका वेग अतिप्रबल होता है, वे बीचकी श्रेणियोंमें बहुत ही थोडे समयतक रुकते हैं। जिनके प्रयत्नका वेग मंद होता है, वे बहुत समयतक बीचकी श्रेणियोंमें रुकते हैं; फिर तेरहवीं और चौदहवीं श्रेणीमें पहुँचते हैं। ___ यद्यपि यह विषय बहुत ही सूक्ष्म है, तथापि यदि इसको समझनेकी ओर ध्यान दिया जाता है तो यह बहुत ही अच्छा लगता है । यह आत्मिक उत्क्रांतिकी विवेचना है-मोक्षमंदिरमें पहुँचने के लिए निसेनी है। पहिले सोपानसे-जीनेसे सब जीव चढना प्रारंभ करते हैं और कोई धीरे चलनेसे देरमें और कोई तेज चलनेसे जल्दी चौदहवें जीने पर पहुंचते ही मोक्षमंदिरमें दाखिल हो जाते हैं। कई चढते हुए ध्यान नहीं रखनेसे फिसल जाते हैं और प्रथम सोपान पर आ जाते हैं । ग्यारहवें सोपानपर चढे हुए भी मोहकी फटकारके कारण गिरकर, प्रथम जीने पर आ जाते हैं। इसलिए शास्त्रकार बार बार कहते हैं कि, चलते हुए लेश मात्र भी गफलत न करो । बारहवें जीने पर पहुँचनेके बाद गिरनेका कोई भय नहीं
१-जैन 'उत्तराध्ययन' सूत्रके दसवें अध्ययनमें भगवान् महावीरने गौतम गणधरको इस भावार्थका उपदेश दिया है कि--" गोयम ! मकर प्रमाद "। इसी प्रकारसे और भी बहुत कुछ उपदेश दिया गया है।
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रहता है । आठवें और नवमें जीनेमें भी यदि मोह-क्षय होना प्रारंभ हो जाता है, तो गिरनेका भय मिट जाता है। ___ जैनशास्त्रानुकूल इन चौदह श्रेणियोंका हम संक्षेपमें विवेचन करेंगे इनके नाम हैं-मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरति, प्रमत्त, अप्रमत्त, अपूर्वकरण, अनिवृत्ति, सूक्ष्मसंपराय, उपशांतमोह, क्षीणमोह, सयोगकेवली और अयोगीकेवली ।
मिथ्याष्टिगुणस्थान—इस बातको सब लोग समझते हैं कि प्रारंममें सब जीव अधोगतिहीमें होते हैं । इसलिए जो जीव प्रथम श्रेणीमें होते हैं वे मिथ्यादृष्टि होते हैं । मिथ्यादृष्टिका अर्थ है-वस्तुतत्वके यथार्थ ज्ञानका अभाव । इसी प्रथम श्रेणीसे जीव आगे बढ़ते हैं । यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि, इस दोषयुक्त प्रथम श्रेणीमें भी ऐसा कौनसा गुण है, जिससे इसकी गिनती भी 'गुणश्रेणी' में की गई है ! इसको गुणस्थान कहना कैसे उचित हो सकता है ? इसका समाधान यह है कि सूक्ष्मातिसूक्ष्म और नीची हदके जीवोंमें भी चेतनाकी कुछ मात्रा तो अवश्यमेव उज्ज्वल रहती है। इसी उज्ज्वलताके कारण मिथ्यादृष्टिको गणना भी 'गुणश्रेणी' में की गई है।
सासादन-सम्यग्दर्शनसे गिरती हुई दशाका यह नाम है। सम्यग्दर्शन प्राप्त होनेके बाद, क्रोधादि अतितीव्र कषायोंका उदय होनेसे जीवके गिरनेका समय आता है। यह गुणस्थान पतनावस्थाका है। मगर इसके पहिले जीवको सम्यग्दर्शन हो गया होता है इसलिए, उसके लिए यह भी निश्चित हो जाता है कि वह कितने समयतक संसारमें भ्रमण केरगा।
१- आसादन' का अर्थ है अतितीव्र क्रोधादि कषाय । जो इन कषायोंसे युक्त होता है उसीको ‘सासादन' कहते हैं।
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मिश्रगुणस्थान-इस गणस्थानकी अवस्थामें आत्माके भाव बड़े ही विचित्र होते हैं । इस गुणस्थानवाला सत्य मार्ग और असत्य मार्ग दोनों पर श्रद्धा रखता है । जैसे जिस देशमें नारियल के फलोंका भोजन होता है उस देशके लोग अन्न पर न श्रद्धा रखते हैं और न अश्रद्धा ही। इसी तरह इस गुणस्थानवालेकी भी सत्यमार्ग पर न रुचि होती है और न अरुचि ही । खल और गुड़ दोनोंको समान समझनेवाली मोहमिश्रित वृत्ति इसमें रहती है । इतना होने पर भी इस गुणस्थानमें आनेके पहिले जीवको सम्यक्त्व हो गया होता है इसलिए, सासादन गुणस्थानकी तरह उसके भवभ्रमणका भी काल निश्चित हो जाता है। __ अविरतसम्यग्दृष्टि-विरत का अर्थ है 'व्रत' । व्रत बिना जो सम्यक्त्व होता है उसको ‘अविरतसम्यग्दृष्टि' कहते हैं। यदि सम्यक्त्वका थोडासा भी स्पर्श हो जाता है , तो जीवके भवभ्रमणकी अवधि निश्चित हो जाती है। इसीके प्रभावसे सासादन
और मिश्र गुणस्थानवाले जीवोंका भवभ्रमण-काल निश्चित हो गया होता है । आत्माके एक प्रकारके शुद्ध विकासको सम्यग्दर्शन या सम्यग्दृष्टि कहते हैं । इस स्थितिमें तत्त्व-विषयक संशय या भ्रमको स्थान नहीं मिलता है। इस सम्यक्त्वहीसे मनुष्य मोक्षप्राप्तिके योग्य होता है । इसके अतिरिक्त चाहे कितना ही कष्टानुष्ठान किया जाय, उससे मनुष्यको मुक्ति नहीं मिलती । मनुस्मृतिमें भी लिखा है कि:
१--जीवाजीवादि तत्त्वोंके यथार्थ स्वरूपमें बुद्धिपूर्वक अटल विश्वास होना 'सम्यक्त्व' है। यह बात पहिले बताई जा चुकी है । इसके अंदर कई सूक्ष्म बातें हैं, परन्तु उनके लिए यहाँ अवकाश नहीं है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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~~~~mmmmmmmmmmm~ " सम्यग्दर्शनसम्पन्नः कर्मणा नहि बध्यते । दर्शनेन विहीनस्तु संसारं प्रतिपद्यते " ॥ ( छठा अध्याय )
भावार्थ-सम्यग्दर्शनवाला जीव कोंसे नहीं बंधता है और सम्यग्दर्शनविहीन प्राणी संसारमें भटकता फिरता है।
देशविरति-सम्यक्त्वसहित, गृहस्थके व्रतोंको परिपालन करनेका नाम देशविरति है। 'देशविरति ' शब्दका अर्थ है-सर्वथा नहीं मगर अमुक अंशमें पापकर्मसे विरत होना ।
प्रमत्तगुणस्थान-यह गुणस्थान उन मुनिमहात्माओंका है कि जो पंचमहाव्रतोंके धारक होने पर भी प्रमादके बंधनसे सर्वथा मुक्त नहीं होते हैं। ___ अप्रमत्तगुणस्थान-प्रमादबंधनसे मुक्त बने हुए महामुनियोंका यह सातवाँ गुणस्थान है। ___ अपूर्वकरण-मोहनीय कर्मको उपशम या क्षय करनेका अपूर्व (जो पहिले प्राप्त नहीं हुआ) अध्यवसाय इस गुणस्थानमें प्राप्त होता है । ___ अनिवृत्तिगुणस्थान-इसमें पूर्व गुणस्थानकी अपेक्षा ऐसा अधिक उज्ज्वल आत्म-परिणाम होता, है, कि जिससे मोहका उपशम या क्षय होने लगता है।
सूक्ष्मसंपराय-उक्त गुणस्थानों में जब मोहनीयकर्मका क्षय --'करण' यानी अध्यवसाय-आत्मपरिणाम । २- संपराय ' शब्दका अर्थ 'कषाय' होता है; परन्तु यहाँ ' लोभ' समझना चाहिए।
३–यहाँ और ऊपर नीचेके गुणस्थानोंमें 'मोह' 'मोहनीय ' ऐसे सामान्य शब्द रक्खे हैं। मगर इससे मोहनीय कर्मके जो विशेष प्रकार घटित होते हैं उन्हींको यथायोग्य ग्रहण करना चाहिए । अवकाशाभाव यहाँ उनका उल्लेख नहीं किया गया है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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या उपशम होते हुए, सूक्ष्म लोभांश ही शेष रह जाता है, तब यह गुणस्थान प्राप्त होता है।
उपशान्तमोह-पूर्वगुणस्थानों में जिसने मोहका उपशम करना प्रारंभ किया होता है, वह जब पूर्णतया मोहको दाब देता है-मोहका उपशम कर देता है तब उसको यह गुणस्थान प्राप्त होता है ।
क्षीणमोह-पूर्व गुणस्थानोंमें जिसने मोहनीय कर्मका क्षय करना प्रारंभ किया होता है, वह जब पूर्णतया मोहको क्षीण कर देता है, तब उसको यह गुणस्थान प्राप्त होता है। ___ यहाँ उपशम और क्षयके भेदको भी समझा देना आवश्यक है । मोहका सर्वथा उपशम हो गया होता है तो भी वह पुनः प्रादुर्भूत हुए विना नहीं रहता है । जैसे किसी पानीके बर्तनमें मिट्टी होती है, मगर वह नीचे जम जाती है, तो उसका पानी स्वच्छ दिखाई देता है; परन्तु उस पानीमें किसी प्रकारकी हलन चलन होते ही, मिट्टी ऊपर उठ आती है और पानी गॅदला हो जाता है । इसी तरह जब मोहके रजकण-मोहका पुंज-आत्मप्रदेशोंमें स्थिर हो जाते हैं, तब आत्मप्रदेश स्वच्छसे दिखाई देते हैं। परन्तु वे उपशान्त मोहके रनकण किसी कारणको पाकर फिरसे उदयमें आ जाते हैं; और उनके उदयमें आनेसे जिस तरह आत्मा गुणश्रेणियोंमें चढ़ा होता है उसी तरह वापिस गिरता है। इससे स्पष्ट है कि केवलज्ञान मोहके सर्वथा क्षय होनेहीसे प्राप्त होता है; क्योंकि मोहके क्षय हो जाने पर पुनः वह प्रादुर्भूत नहीं होता है।
'सयोगकेवली-केवलज्ञानके होते ही यह गुणस्थान प्रारंभ होता है । इस गुणस्थानके नाममें जो · सयोग ' शब्द रक्खा गया
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है उसका अर्थ · योगवाला' होता है । योगका अर्थ है, शरीरादिके व्यापार । केवलज्ञान होनेके बाद भी शरीरधारीके गमनागमनका व्यापार, बोलनेका व्यापार आदि व्यापार होते हैं, इसलिए वे शरीरधारी केवली · सयोग' कहलाते हैं। __उन केवली परमात्माओंके, आयुष्यके अन्तमें, प्रबल शुक्लध्यानके प्रभावसे, जब सारे व्यापार रुक जाते है, तब उनको जो अवस्था प्राप्त होती है उसका नाम___ अयोगीकेवली गुणस्थान है । अयोगीका अर्थ है सर्वव्यापाररहित-सर्वक्रियारहित । ___ ऊपर यह विचार किया जा चुका है, कि आत्मा गुणश्रेणियोंमें
आगे बढ़ता हुआ, केवलज्ञान प्राप्त कर, आयुप्यके अन्तमें अयोगी वन तत्काल ही मुक्ति प्राप्त कर लेता है । यह आध्यात्मिक विषय है। इसलिए यहाँ थोडीसी आध्यात्मिक बातोंका दिग्दर्शन कराना उचित होगा।
अध्यात्म
संसारकी गति गहन है । जगत्में सुखी जीवोंकी अपेक्षा दुःखी जीवोंका क्षेत्र बहुत बड़ा है । लोक आधि-न्याधि और शोक-संतापसे परिपूर्ण है। हजारों तरहके सखसाधनोंकी उपस्थितिमें भी, सांसारिक वासनाओमेसे दुःखकी सत्ता भिन्न नहीं होती । आरोग्य, लक्ष्मी, सुवनिता और सत्पुत्रादिके मिलने पर भी दुःखका संयोग कम नहीं होता । इससे यह समझमें आ जाता है कि दुःखसे सुखको भिन्न करना-केवल सुखभोगी बनना बहुत ही दुःसाध्य है।
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सुख-दुःखका सारा आधार मनोवृत्तियों पर है । महान् धनी मनुष्य भी लोभके चक्करमें फँसकर दुःख उठता है, और महान् निर्धन मनुष्य भी सन्तोषवृत्तिके प्रभावसे, मनके उद्वेगोंको रोककर सुखी रह सकता है । महात्मा भर्तृहरि कहते हैं:
___“ मनसि च परितुष्टे कोऽर्थवान् को दरिद्रः !" ___ इस वाक्यसे स्पष्ट हो जाता है कि मनोवृत्तियोंका विलक्षण प्रवाह
ही सुख-दुःखके प्रवाहका मूल है । ___एक ही वस्तु एकको सुखकर होती है और दूसरेको दुःखकर । जो चीन एक बार किसीको रुचिकर होती है वही दूसरी बार उसको अरुचिकर हो जाती है। इससे हम जान सकते हैं कि बाह्य पदार्थ सुखदुःखके साधक नहीं हैं। इनका आधार मनोवृत्तियोंका विचित्र प्रवाह ही है। ___ राग, द्वेष और मोह ये मनोवृत्तियोंके परिणाम हैं । इन्हीं तीनों पर सारा संचारचक्र फिर रहा है । इस त्रिदोषको दूर करनेका उपाय अध्यात्मशास्त्र के विना अन्य (वैद्यक ) ग्रंथोंमें नहीं है । मगर 'मैं रोगी हूँ' ऐसा अनुभव मनुष्यको बड़ी कठिनतासे होता है। जहाँ संसारकी सुख-तरंगें मनसे टकराती हों; विषयरूपी बिजलीकी चमक हृदयको अंनित बना देती हो और तृष्णारूपी पानीकी प्रबल धारामें गिरकर आत्मा बेमान रहता हो वहाँ अपना गुप्त रोग समझना अत्यंत कष्टसाध्य है। अपनी आन्तरिक स्थितिको नहीं समझनेवाले जीव एकदम नीचे दर्जे पर हैं। मगर जो जीव इनसे ऊँचे दर्जेके हैं; जो अपनेको त्रिदोषाक्रान्त समझते हैं; जो अपनेको त्रिदोषजन्य उग्रता. पसे पीडित समझते हैं और जो उस रोगके प्रतिकारकी शोधमें हैं उनके लिए आध्यात्मिक उपदेशकी आवश्यकता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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जैन-दर्शन
'अध्यात्म शब्द ' अधि' और 'आत्मा' इन दो शब्दोंके समाससे मेलसे बना है। इसका अर्थ है आत्माके शुद्धस्वरूपको लक्ष्य करके, उसके अनुसार वर्ताव करना । संसारके मुख्य दो तत्त्व, जड़ और चेतन-जिनमेमे एकको जाने विना दूसरा नहीं जाना जा सकता हैइस आध्यात्मिक विषयमें पूर्णतयां अपना स्थान रखते हैं।
"आत्मा क्या चीज है ? आत्माको सुखदुःखका अनुभव कैसे होता है ? सखदुःखके अनुभवका कारण स्वयं आत्मा ही है, या किसी अन्यके संसर्गसे आत्माको सुख-दुःखका अनुभव होता है ? आत्माके साथ कर्मका संबंध कैसे हो सकता है ? वह संबंध आदिमान् है या अनादि ! यदि अनादि है तो उसका उच्छेद कैसे हो सकता है ? कर्मके भेद-प्रभेदोंका क्या हिसाब है ? कार्मिक बंध, उदय और सत्ता कैसे नियमबद्ध हैं ?" अध्यात्ममें इन सब बातोंका भली प्रकारसे विवेचन है।
इसके सिवा अध्यात्म विषयमें मुख्यतया संसारकी असारताका हूबहू चित्र खींचा गया है । अध्यात्म-शास्त्रका प्रधान उपदेश, भिन्न मिन्न भावनाओंको स्पष्टतया समझाकर मोहममताके ऊपर दाब रखना है। ___ दुराग्रहका त्याग, तत्त्वश्रवणको इच्छा, संतोंका समागम, साधु पुरुषोंको प्रतिपत्ति, तत्त्वोंका श्रवण, मनन और निदिध्यासन, मिथ्यादृष्टिका नाश, सम्यग्दृष्टिका प्रकाश, क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायोंका संहार, इन्द्रियोंका संयम, ममताका परिहार, समताका प्रादुर्भाव, मनोवृत्तियोंका निग्रह, चित्तकी निश्चलता, आत्मस्वरूपकी रमणता, ध्यानका प्रवाह, समाधिका आविर्भाव, मोहादि कोका क्षय
और अन्तमें केवलज्ञान तथा मोक्षकी प्राप्ति; इस तरह आत्मोन्नतिका क्रम अध्यात्मशास्त्रोंमें बताया गया है।
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जैन-रत्न
'अध्यात्म' कहो या 'योग' कहो, दोनों बातें एक ही हैं। योग शब्द 'युज्' धातुसे बना है, जिसका अर्थ है 'जोड़ना' । जा साधन मुक्तिके साथ जोड़ता है उसको योग कहते हैं । __ अनन्तज्ञानस्वरूप सच्चिदानंदमय आत्मा कर्मों के ससर्गसे शरीररूपी अँधेरी कोठडीमें बंद हो गया है। कर्मके संसर्गका मूल कारण अज्ञानता है । सारे शास्त्रों और सारी विद्याओंके सीखने पर भी निसको आत्माका ज्ञान न हुआ हो उसके लिए समझना चाहिए कि वह अज्ञानी है । मनुष्यका ऊँचेसे ऊँचा ज्ञान भी
आत्मिक ज्ञानके विना निरर्थक होता है। ___ अज्ञानतासे जो दुःख होता है, वह आत्मिक ज्ञानसे ही क्षीण किया जा सकता है । ज्ञान और अज्ञानमें प्रकाश और अंधकारके समान विरोध है । अंधकारको दूर करनेके लिए जैसे प्रकाशकी आवश्यकता होती है, वैसे ही अज्ञानको दूर करनेके लिए ज्ञानकी जरूरत पड़ती है । आत्मा जब तक कषायों, इन्द्रियों और मनके आधीन रहता है तब तक वह संसारी कहलाता है। मगर वहीं जब इनसे भिन्न हो जाता है; निर्मोह बन अपनी शक्तियोंको पूर्ण विकसित करता है तब मुक्त कहलाता है।
क्रोधका निग्रह क्षमासे होता है, मानका पराजय मृदुतासे होता है, मायाका संहार सरलतासे होता है और लोभका निकंदन संतोषसे होता है । इन कषायोंको जीतनेके लिए इन्द्रियोंको अपने अधिकारों करना चाहिए, इन्द्रियों पर सत्ता जमानेके लिए मनःशुद्धिकी आवश्यकता होती है। मनोवृत्तियों को रोकनेकी आवश्यकता होती है। वैराग्य और सक्रियाके अभ्याससे मनका रोध होता है। मनोवृत्तियाँ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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जैन-दर्शन
अधिकृत होती हैं । मनको रोकनेके लिए राग-द्वेषको अपने काबूमें करना बहुत जरूरी है। राग-द्वेषरूपी मैलको धोनेका कार्य समतारूपी जल करता है । ममताके मिटे विना समताका प्रादुर्भाव नहीं होता। ममता मिटानेके लिए कहा गया है कि:
'अनित्यं संसारे भवति सकलं यन्नयनगम् ।' अर्थात्- आँखोंसे इस संसारमें जो कुछ दिखता है वह सब आनत्य है'-ऐसी अनित्य भावना, और ' अशरण' आदि भावनाएँ करनी चाहिएँ । इन भावनाओंका वेग जैसे जैसे प्रबल होता जाता है वैसे ही वैसे ममत्वरूपी अंधकार क्षीण होता जाता है; और समताकी देदीप्यमान ज्योति झगमगाने लगती है। ध्यानको मुख्य जड़ समता है । समताको पराकाष्ठाहीसे चित्त किसी एक पदार्थ पर स्थिर हो सकता है । ध्यानश्रेणीमें आने बाद लब्धियाँ-सिद्धियाँ प्राप्त होने पर यदि फिरसे मनुष्य मोहमें फँस जाता है तो उसका अधःपात हो जाता है। इस लिए ध्यानी मनुष्यको भी प्रतिक्षण इस बातके लिए सचेत रहना चाहिए कि वह कहीं मोहमें न फंस जाय ।
ध्यानकी उच्च अवस्थाको 'समाधि' का नाम दिया गया है। समाधिस कर्मसमूहका क्षय होता है; केवलज्ञान प्रकटता है। केवल. ज्ञानी जबतक शरीरी रहता है तबतक वह जीवनमुक्त कहलाता है; पश्चात्-शरीरका संबंध छूट जाने पर-वह परब्रह्मस्वरूपी हो जाता है। ___आत्मा मुददृष्टि होता है तब 'बहिरात्मा,' तत्त्वाष्ट होता है तब · अन्तरात्मा । और सम्पूर्णज्ञानवान् होने पर परमात्मा कहा १--" असंशयं महाबाहो ! मनो दुर्निग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन च कौन्तेय ! वैराग्येण च गृह्यते ॥" ( भगवद्गीता)
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जैन-रत्न
लाता है। दूसरी तरहसे कहें तो शरीर ‘बहिरात्मा' है, शरीरस्थ चैतन्यस्वरूप जीव · अन्तरात्मा' है और अविद्यामुक्त परमशुद्धसच्चिदानंदरूप बना हुआ वही जीव 'परमात्मा है। ___ जैनशास्त्रकारोंने आत्माकी आठ दृष्टियोंका वर्णन किया है । उनके नाम हैं-मित्रा, तारा, बला, दीपा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा, और परा । इन दृष्टियोंमें आत्माकी उन्नतिका क्रम है । प्रथम दृष्टि से जो बोध होता है, उसके प्रकाशको तृणाग्निके उद्योतकी उपमा दी गई है । उस बोधके अनुसार उस दृष्टिमें सामान्यतया सद्वर्तन होता है। इस स्थितिमेंसे जीव जैसे जैसे ज्ञान और वर्तनमें आगे बढ़ता जाता है, वैसे ही वैसे उसके लिए कहा जाता है, कि वह पूर्वकी दृष्टियोंको पार कर चुका है। ___ ज्ञान और क्रियाकी ये आठ भूमियाँ हैं । पूर्व भूमिकी अपेक्षा उत्तर भूमिमें ज्ञान और क्रियाका प्रकर्ष होता है । इन आठ दृष्टियोंमें योगके आठ अंग जैसे-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि क्रमशः सिद्ध किये जाते हैं । इस तरह आत्मोन्नतिका व्यापार करते हुए जीव जब अन्तिम दृष्टिमें पहुँचता है तब उसका आवरण क्षीण होता है, और उसे केवलज्ञान मिलता है।
१--आठ दृष्टियोंका विषय हरिभद्रसूरिकृत 'योगदृष्टिसमुच्चय ' में और यशोविजयजीकृत " द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका' आदि ग्रंथोमें है । योगका वर्णन हेमचंद्राचार्य कृतं ' योगशास्त्र' में और शुभचंद्राचार्यकृत 'ज्ञानार्णव ' आदि ग्रंथों में है । पातंजल योगके साथ जैनयोगकी विवेचना यशोविजयजीउपाध्यायकृत ' द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिकामें है । ये सब ग्रंथ छपकर प्रकाशित हो चुके हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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जैन-दर्शन
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___ महात्मा पतंजलिने योगके लिए लिखा है-" योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः " अर्थात्-चित्तकी वृत्तियों पर दाब रखना-इधर उधर भटकती हुई वृत्तियोंको आत्म-स्वरूपमें जोड़ कर रखना, इसका नाम है योग । इसके सिवाय इस हदपर पहुँचनेके लिए जो जो शुभ व्यापार हैं वे भी योगके कारण होनेसे योग कहलाते हैं।
दुनियामें मुक्ति विषयके साथ सीधा संबंध रखनेवाला, एक अध्यात्मशास्त्र है । अध्यात्मशास्त्रका प्रतिपाद्य विषय है-मुक्तिसाधनका मार्ग दिखाना और उसमें आनेवाली बाधाओंको दूर करनेका उपाय बताना । मोक्षसाधनके केवल दो उपाय हैं । प्रथम, पूर्वसंचित कर्मोंका क्षय करना और द्वितीय, नवीन आनेवाले कर्मोंका रोकना । इनमें प्रथम उपायको 'निर्जरा' और द्वितीय उपायको 'संवर' कहते हैं । इनका वर्णन पहिले किया जा चुका है। इन उपायोंको सिद्ध करनेके लिए शुद्ध विचार करना, हार्दिक भावनाएँ दृढ रखना, अध्यामिक तत्त्वोंका पुनः पुनः परिशीलन करना और खराब संयोगोंसे दूर रहना यही अध्यात्मशास्त्रके उपदेशका रहस्य है। ____ आत्मामें अनन्त शक्तियाँ हैं। अध्यात्ममार्गसे वे शक्तियाँ विकसित की जा सकती हैं। आवरणों के हटनेसे आत्माकी जो शक्तियाँ प्रकाशमें आती हैं उनका वर्णन करना कठिन है। आत्माकी शक्तिके सामने वैज्ञानिक चमत्कार तुच्छ हैं। जडवाद विनाशी है, आत्मवाद उससे विरुद्ध है-अविनाशी है। जड़वादसे प्राप्त उन्नतावस्था और जड पदार्थों के
आविष्कार सब नश्वर हैं, परन्तु आत्मस्वरूपका प्रकाश और उससे होनेवाला अपूर्व आनंद सदा स्थायी हैं । इन बातोंसे बुद्धिमान् मनुष्य समझ सकता है कि आध्यात्मिक तत्व कितने मूल्यवान् और सर्वोत्कृष्ट हैं।
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जैन-रत्न
जैन और जैनेतरदृष्टिसे आत्मा । ___ आध्यात्मिकविषयमें आत्माका स्वरूप जानना जरूरी है । भिन्न भिन्न दृष्टि-बिन्दुद्वारा आत्मस्वरूपका विचार करनेसे उसके संबंधमें होनेवाली शंकाएँ मिट जाती हैं और आत्माकी सच्ची पहिचान होती है । आत्माकी जानकारी होने पर उसपर अध्यात्मकी नींव डाली जा सकती है । यद्यपि यह विषय बहुत ही विस्तृत है, तथापि कुछ बातोंका यहाँ परिचय कराना आवश्यक समझते हैं।
प्रथम यह है कि कई दर्शनकार-नैयायिक, वैशेषिक और सांख्यआत्माको शरीरमात्रहीमें स्थित न मानकर व्यापक मानते हैं । अर्थात् वे कहते हैं कि प्रत्येक शरीरका प्रत्येक आत्मा संपूर्ण जगत्में व्याप्त है। वे यह भी कहते हैं कि ज्ञान आत्माका असली स्वरूप नहीं है, यह शरीर, मन और इन्द्रियोंके संबंधसे उत्पन्न होनेवाला आत्माका अवास्तविक धर्म है। ___ जैनदर्शनकार इन दोनों सिद्धान्तोंके प्रतिकूल हैं। वे एक आत्माको एक ही शरीरमें व्याप्त मानते हैं । वे कहते हैं, कि ज्ञान, इच्छा आदि गुणोंका अनुमव सिर्फ शरीरहीमें होता है, इसलिए इन गुणोंका मालिक आत्मा भी मात्र उस शरीरमें ही होना, मानना घटित होता है।
१-जिस वस्तु के गुण जहाँ दिखते हों वह वस्तु वहीं होनी चाहिए । जहाँ घटका स्वरूप दिखाई देता हो, वहीं घटका होना भी घटित हो सकता है । जिस भूमिभागपर घटका स्वरूप दिखता हो उस भागके सिवा अन्यत्र उस रूपवाला घट होना कैसे संभवित हो सकता है ? इसी बातको हेमचंद्राचार्य निम्न प्रकारसे प्रकट करते है:___" यत्रैव यो दृष्टगुणः स तत्र कुम्भादिवसिषतिपक्षमेतत् ।" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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जैन-दर्शन
दूसरी बातके लिए जैनदर्शनकी मान्यता है कि, ज्ञान आत्माका चास्तविक धर्म है; आत्माका असली स्वरूप है, या यह कहो कि आत्मा ज्ञानमय ही है । इसीलिए जैनदर्शन यह भी मानता है कि इन्द्रियों और मनका संबंध छूटने पर भी; मुक्तावस्थामें भी; आत्मा अनन्तज्ञानशाली रहता है । ज्ञानको आत्माका असली धर्म नहीं माननेवाले, आत्माको मुक्तावस्थामें भी ज्ञानप्रकाशमय नहीं मान सकते हैं।
आत्माके संबंधमें अन्य दर्शनकारोंकी अपेक्षा जैनदर्शनकारोंके मन्तव्य भिन्न हैं। वे इस प्रकार हैं।
"चैतन्यस्वरूपः, परिणामी, कर्ता, साक्षाभोक्ता, देहपरिमाणः, प्रतिक्षेत्रं भिन्नः, पौद्गलिकादृष्टवांश्चायम्"। __इस न्यायसे सिद्ध होता है कि आत्माके जज्बे-लागणीयाँ, ( Feeling ) इच्छा आदि गुणोंका अनुभव शरीरहीमें होता है इसलिए उन गुणोंका स्वामी आत्मा भी शरीरहीमें होना चाहिए।
x ज्ञानकी भाँति सुख भी वास्तविक धर्म है । हम जानते हैं कि सूर्य बहुत प्रकाशमान् है; परन्तु जब वह बादलोंमें छिपता है तब उसका प्रकाश फीका दिखाई देता है । और वही फीका प्रकाश अनेक पर्देवाले मकानमें और भी विशेष फीका मालूम होता है। मगर इससे क्या कोई यह कह सकता है कि सूर्य प्रखर प्रकाशबाला नहीं है । इसी प्रकार आत्माके ज्ञान-प्रकाशका या वास्तविक आनंदका भी, यदि शरीर, इन्द्रिय और मनके बंधनसे या कर्मावरणसे पूर्णतया अनुभव न हो, मलिन अनुभव हो; विकारयुक्त अनुभव हो तो इससे यह नहीं कहा जा सकता है कि ज्ञान और आनंद आत्माके असली स्वरूप नहीं हैं।
१--वादि देवसूरिकृत 'प्रमाणनयतत्त्वलोकालंकार' नामक न्यायसूत्रके सातवें परिच्छेदका यह ५६ वा सूत्र है। यह मूलसूत्र ग्रंथ कलकत्ता युनिवरसिटीके एम्. ए. के. कोर्समें है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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जैन-रत्न rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr ~~~
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इस सूत्रमें आत्माको पहिला विशेषण । चैतन्यस्वरूपवाला दिया गया है । अर्थात् ज्ञान यह आत्माका असली स्वरूप है। इससे उक्त कथनानुसार, नैयायिक आदि भिन्न मन्तव्यवाले हैं। ' परिणामी ' ( आत्मा नवीन नवीन योनियोंमें; भिन्न भिन्न योनियों में भ्रमण करता है इसलिए परिणाम-स्वभाववाला कहलाता है। ) ' कर्ता'
और साक्षाद् । भोक्ता ' इन तीन विशेषणोंसे, आत्माको कमलपत्रकी तरह सर्वथा निर्लेप, परिणामरहित और क्रियारहित माननेवाला सांख्यमत भिन्न पड़ता है । नैयायिक आदि भी आत्माको परिणामी नहीं मानते हैं । ' मात्र शरीरहीमें व्याप्त' यह, ' देहपरिमाण ' विशेषणका अर्थ होता है । इस विशेषणको वैशेषिक, नैयायिक और सांख्य नहीं मानते हैं, क्योंकि वे आत्माको सर्वत्र व्यापक मानते हैं। 'प्रत्येक शरीरमें आत्मा जुदा होता है। यह प्रतिक्षेत्रं भिन्न ' विशेषणका अर्थ है । इस विशेषणको अद्वैतवादी-ब्रह्मवादी नहीं मानते हैं; क्योंकि वे सर्वत्र एक ही आत्मा मानते हैं । और अन्तिम विशेषणसे पौगलिकरूप अदृष्टवाला आत्मा बताते हुए, कर्मको अर्थात् धर्म-अधर्मको आत्माका विशेष गुण माननेवाले नैयायिक-वैशेषिक, और कर्मको एक प्रकारके परमाणुओंका समूहरूप नहीं माननेवाले वेदान्ती वगैरह वादी जुदा पड़ते हैं।
'ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या । इस सूत्रकी उद्घोषणा करनेवाले इस सूत्रका अर्थ चाहे कैसा ही करें; परन्तु इसका वास्तविक अर्थ तो यह होता है कि:-" संसारमें जितने भी दृश्य पदार्थ हैं, वे सत्र विनाशी हैं, इसलिए उनको मिथ्या समझना चाहिए । आराधन करने
१-क्षेत्र-शरीर ।
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जैन-दर्शन
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योग्य मात्र शुद्ध चैतन्य आत्मा ही है।" यह उपदेश बहुत महत्त्वका है । प्राचीन आचार्य, ऐसे उपदेशोंको अनादि मोहवासना
ओंके भीषण संतापको नष्ट करनेकी रामबाण औषध समझते थे । __ यदि उक्त सूत्रका अर्थ यह किया जाय कि-" जगत्के सारे पदार्थ गधेके सींगकी तरह असत् हैं " तो बहुतसी कठिनाइयाँ उपस्थित होती हैं । इस अर्थकी अपेक्षा ऊपर जो अर्थ बताया गया है वही उचित और सबके अनुभवमें आने योग्य है । दृश्यमान बाह्य पदार्थोकी असारताका वर्णन करते हुए जैन महात्मा भी उनको • मिथ्या ' बता देते हैं । इससे यह कैसे माना जा सकता है कि वस्तुतः दुनियामें कोई पदार्थ ही नहीं है ? यह ठीक है कि संसारका सारा प्रपंच असार है, विनाशी है, अनित्य है। इस मतका कोई विरोधी नहीं है। जैनाचार्यों ने इसी मतको प्रतिपादन करते हुए संसारको मिथ्या बताया है। परन्तु इससे सर्वानुभव सिद्ध जगतका अत्यंत अभाव सिद्ध नहीं हो सकता है। कर्भकी विशेषता ।
अध्यात्मका विषय आत्मा और कर्मसे संबंध रखनेवाले विस्तृत विवेचनसे पूर्ण है । हम आत्मस्वरूपके संबंधका कुछ विचार कर चुके हैं, अब कर्मकी विशेषताके संबंधमें कुछ विवेचन करेंगे।
संसारके दूसरे जीवोंकी अपेक्षा मनुष्योंकी ओर अपनी दृष्टि जल्दी जाती है। कारण यह है कि मनुष्य-जातिका हम लोगोंको विशेष परिचय है , इसलिए उनकी प्रकृतिका मनन करनेसे, कई आध्यात्मिक बातें विशेषरूपसे स्पष्ट हो जाती हैं।
संसारमें मनुष्य दो प्रकारके दिखाई देते हैं। प्रथम पवित्र जीवन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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जैन-रत्न
बितानेवाले और दूसरे मलिन जीवन बितानेवाले । ये दोनों प्रकारके मनुष्य भी दो भागोंमें विभक्त किये जा सकते हैं-धनी और दरिद्र । सब मिला कर मनुष्य चार प्रकारके कहे जा सकते हैं-( १) पवित्र जीवन बितानेवाले-धर्मात्मा-धनी (२) पवित्र जीवन बितानेवाले धर्मात्मा-गरीब (३) मलिन जीवन बितानेवाले-पापी-धनी और (४) अपवित्र जीवन बितानेवाले पापी-गरीब । इस तरह चार प्रकारके मनुष्योंको हम संसारमें देखते हैं। सामान्यतया सारा संसार जानता है कि, इस विचित्रताका कारण पाप-पुण्यकी विचित्रता है। यद्यपि इस विचित्रताको समझनेका क्षेत्र बहुत विस्तीर्ण है, तथापि मोटे रूपसे इतना तो हम भली प्रकारसे समझ सकते हैं, कि चार प्रकारके मनुष्योंकी अपेक्षा पुण्य-पाप भी चार प्रकारके होने चाहिए।
जैनशास्त्रकार पुण्य पापके चार भेदोंका वर्णन इस तरह करते हैं । (१) पुण्यानुबंधी पुण्य (२) पुण्यानुवंधी पाप (३) पापानुबंधी पुण्य और ( ४ ) पापानुबंधी पाप ।
पुण्यानुबंधी पुण्य ।
जन्मान्तरके निस पुण्यसे सुख भोगते हुए भी धर्मकी लालसा रहती है, जिससे पुण्यके कार्य हुआ करते हैं और जिससे पवित्रतासे जीवन बीतता रहता है, ऐसे पुण्यको ‘पुण्यानुबंधी पुण्य ' कहते हैं। इसको पुण्यानुबंधी पुण्य कहनेका कारण यह है कि यह इस जीवनको सुखी और पवित्र बनाता है और साथ ही जन्मान्तरके लिए भी पुण्यका संचय कर देता है । 'पुण्यानुबंधी पुण्य' का अर्थ हैपुण्यका साधन पुण्य । यानी जन्मान्तरके लिए भी जो पुण्यका संपादन कर देता है उसको पुण्यानुबंधी पुण्य कहते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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जैन-दर्शन
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पुण्यानुबंधी पाप ।
जन्मान्तरका जो पाप नीवको दुःख भोगाता है; मगर जीवनको मलिन नहीं बनाता; धर्मसाधनके व्यवसायमें बाधा नहीं डालता, वही पाप पुण्यानुबंधी पाप कहलाता है । यह पाप यद्यपि वर्तमान जीवनमें गरीबी आदि दुःख देता है। तथापि जीवको पापके कार्य नहीं डालता, इसलिए जन्मान्तरके लिए पुण्य उत्पन्न करनेका कारण बनता है। पुण्यानुबंधी पापका शब्दार्थ है-पुण्यके साथ संबंध जोड़नेवाला पाप । अर्थात् जन्मान्तरके लिए पुण्यसाधनमें बाधा नहीं डालनेवाला पाप ।
पापानुबंधी पुण्य ।
जन्मान्तरका जो पुण्य, सुख भोगाता हुआ पापवासनाओंको बढ़ाता रहता है; अधर्मके कार्य कराता रहता है, वह पुण्य पापानुबंधी पुण्य कहलाता है । यह पुण्य यद्यपि इस जीवनमें सुख देता है; तथापि आगामी जीवनके लिए वर्तमान जीवनको मलिन बना कर पापको संचित कर देता है । पापानुबंधी पुण्यका शब्दार्थ होता है-पापका साधन पुण्य । अर्थात् जो पुण्य जन्मान्तरके लिए पापसम्पादन कर देता है उसे पापानुबंधी पुण्य कहते हैं।
पापानुबंधी पाप।
जन्मान्तरका जो पाप गरीबी आदि दुःख भोगाता है, पाप करनेकी बुद्धि देता है और अधर्मके कार्य करवाता है, वह पापानुबंधी पाप कहलाता है । यह पाप इस जीवनमें तो दुःख देता ही है; परन्तु वर्तमान जीवनको भी मलिन बना कर भावी जीवनके लिए भी पापका संचय कर देता है । पापनुबंधी पापका शब्दार्थ होता है-पापका साधन पाप । अर्थात् जन्मान्तरके लिए पापका संपादन कर देनेवाला पाप । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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जैन - रत्न
संसारमें जो मनुष्य सुखी हैं और धर्मयुक्त जीवन बिता रहे हैं, उनके लिए समझना चाहिए कि वे पुण्यानुबंधी पुण्यवाले हैं । जो मनुष्य दरिद्रता के दुःखसे दुःखी होनेपर भी अपना जीवन धर्मयुक्त बिता रहे हैं उनके लिए समझना चाहिए कि वे पुण्यानुबंधी पापवाले हैं। जो सांसारिक सुखों का आनंद लेते हुए पापपूर्ण जीवन बिता रहे हैं, उन्हें पापनुबंधी पुण्यवाले समझना चाहिए और जो दरिद्रताके दुःख से संतप्त होते हुए भी अपने जीवन को मलिनतासे बिता रहे हैं; उनके लिए समझना चाहिए कि वे पापानुबंधी पापवाले हैं ।
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दगा, छल, कपट, प्राणी-वध आदि प्रचंड पापके कार्योंसे धन एकत्रित कर, बँगले, बँधा मौज उड़ाते हुए मनुष्योंको देख कई अदूरदर्शी मनुष्य कहने लगते हैं कि, – “ देखा ! धर्मात्मा तो बड़ी कठिनता से दिन निकालते हैं; मगर पापात्मा कैसी मौज उड़ाते हैं ? अब कहाँ रहा धर्म ? और कहाँ रहा शुभ कर्म ? किसीने ठीक ही कहा है कि:
“ करेगा धरम, फोड़ेगा करम; करेगा पाप, खाएगा धाप । "
मगर यह कथन अज्ञानतापूर्ण है । कारण उक्त कर्म संबंधिनी बातोंसे पाठक भली प्रकार समझ गये होंगे । इस जीवनमें पूर्वपुण्य के बलसे चाहे कोई पाप करता हुआ भी, सुख भोगता रहे, मगर अगले जन्ममें उसको अवश्यमेव इसका फल भोगना पड़ेगा । प्रकृतिका साम्राज्य विचित्र है । उसके सूक्ष्मतत्त्व अगम्य हैं । मोहके अंधकारमें कोई चाहे जितने गौते मारे; चाहे जितनी कल्पनाएँ कर निर्भीक होकर फिरे, मगर यह सदा ध्यान में रखना चाहिए कि आज तक
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जैन-दर्शन
५२१
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प्रकृतिके शासनमें न कोई अपराधी दंड भोगे विना रहा है और न आगे रहेहीगा। ___ आध्यात्मिक जीवन प्राप्त करना सरल नहीं है । इसके लिए
आचार-व्यवहार शुद्ध रखनेकी बहुत जरूरत है । यह बात खास विचारणीय है कि, कौनसे आचरणोंसे जीवन स्वच्छ और उन्नत बनता है । जैनशास्त्रोंमें इस पर बहुत विचार किया गया है और बताया गया है कि, कैसे आचार रखने चाहिएँ । वसिष्ठ स्मृतिके छठे अध्यायके तीसरे श्लोकमें लिखा है कि:-" आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः" यानी आचारविहीनको वेद भी पवित्र नहीं बना सकते हैं-वेदोंके जाननेवाले भी यदि आचारहीन होते हैं तो वे अपवित्र ही रहते हैं। जैनशास्त्रोंमें बताया गया है कि आचार कैसे रखने चाहिएँ, उसका यहाँ कुछ उल्लेख कर देना आवश्यक है।
जैन-आचार
साधुधर्म और गृहस्थधर्मका यद्यपि पहिले सामान्यतया विवेचन हो चुका है, तथापि आचारसे संबंध रखनेवाली बातोंका विवेचन रह गया था । अतः यहाँ उन्हीं बातोंका कुछ विवेचन किया जायगा ।
साधुओंका आचार ।
जैन- आचारशास्त्रोंमें साधुओंके लिए कहा गया है कि वे इक्का, गाडी, घोड़े आदि किसी भी सवारीपर न चढ़े । वे सब जगह पैदल
१-यदि मार्गमें नदी आ जाय और, स्थलद्वारा जानेका आसपासमें कोई मार्ग न हो, तो साधु नावमें बैठकर परले पार जा सकते है; मगर यह ध्यान रखना चाहिए कि, सामने किनारा दिखाई देता हो तब ही नाव पर चढ़नेकी आज्ञा है, अन्यथा नहीं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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५२२ xmommmmmmm
जेन-रत्न
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जायँ । जैनसाधुओंको खूब गरम किया हुआ ( गरम करनेके बाद यदि ठंडा हो जाय तो कोई हानि नहीं है ) जल पीनेकी आज्ञा है।
१-महाभारतमें लिखा है कि:
"यानारुढं यतिं दृष्ट्वा सचेल स्नानमाचरेत् ” [ अर्थ-संन्यासी यदि सवारी पर चड़ा हुआ दिखाई दे तो स्नान करना चाहिए; पहिने हुए वस्त्र भी धो लेने चाहिएँ] __ इसके अतिरिक्त मनुस्मृति, अत्रिस्मृति, विष्णुस्मृति आदि स्मृतियों और उपनिषदोंमें भी संन्यासियोंको 'विचरेत् । 'पर्यटेत् । 'चरेत् । आदि शब्दोंद्वारा उपदेश दिया गया है कि,-" वे इस प्रकार से विचरण-भ्रमण करें जिससे किसी प्राणीको कष्ट न हो । इससे संन्यासियों के लिए भी पादचारी-पैदल चलनेवाले होना सिद्ध होता है।
२–पाश्चात्यविद्या-विभूषित विद्वान्-डॉक्टर गरम किये हुए पानीमें स्वास्थ्यसंबंधी बहुतसा गुण बताते हैं । वे कहत हैं कि प्लेग, कॉलेरा आदिमें तो खासकरके बहुत ज्यादा उबाला हुआ पानी पीना चाहिए । पाश्चात्य विद्वानोंने शोध की है कि, पानीमें ऐसे अनेक सूक्ष्म जीव होते हैं, जिनको हम आँखोसे देख नहीं सकते हैं; परन्तु वे सूक्ष्मदर्शक ( Microscope ) यंत्रसे दिखाई दे जाते हैं । पानीमें उत्पन्न होनेवाले पोरा आदि जीव, पानी पीते समय शरीरमें प्रविष्ट होकर अनेक व्याधियाँ उत्पन्न करते हैं । पानी, किसी देशका और कैसा ही खराब होने पर भी, यदि उबाल कर पिया जाता है तो वह शरीरको हानि नहीं पहुंचाता है। __ गृहस्थ यदि पानी उबालकर नहीं पी सकते हों, तो भी उनको चाहिए कि, वे छाने बिना पानी न पियें । इस विषयमें सब विद्वानोंका एक ही मत है । मनुजीका यह वाक्य प्रसिद्ध है कि- “वस्त्रपूतं जलं पिबेत्" । उत्तरमीमांसामें लिखा है कि
" षट्त्रिंशदंगुलायामं विंशत्यंगुलविस्तृतम् ।
दृढं गलनकं कुर्याद् भूयो जीवान् विशोधयेत् " ॥ भावार्थ-- छत्तीस अंगुल लंबा और बीस अंगुल चौड़ा छलना ( पानी छाननेका कपड़ा) रखना चाहिए और उससे छना हुआ पानी पीना चाहिए।
इस श्लोकमें “भूयो जीवान् विशोधयेत् " ( फिर जीवोंका परिशोधन करना ) यह वाक्य खास तौरसे ध्यान देने योग्य है। कपड़ेसे पानी छाना; जलके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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जैन-दर्शन
५२३
जैनसाधुओंको अग्नि-स्पर्श करनेका या अग्निसे रसोई बनानेका अधिकार नहीं है। साधुओंके लिए आज्ञा है कि, वे भिक्षासेमाधुकरी वृत्तिसे अपना जीवन-निर्वाह करें । भिक्षा एक घरसे न जन्तु कपड़ेमें आ गये; परन्तु यदि वे कपड़ेमें ही रह जाते हैं, तो मर जाते हैं । यह बात हरेक समझ सकता है । इसलिए उस कपड़ेका संखारा ( जलमेंसे आये हुए जन्तु ) वापिस जलहीमें पहुँचा देने चाहिएँ । अर्थात् वह संखारा थोड़े पानी में डालकर उस पानीको वहीं ( उसी कूए या तालाबमें ) पहुँचा देना चाहिए, जहाँसे कि वह पानी आया है। यह बात जैनशास्त्र ही नहीं कहते हैं, बरके हिन्दू-शास्त्र भी कहते हैं । इसी उत्तरमीमांसामें लिखा है किः--
___“म्रियन्ते मिष्टतोयेन पतराः क्षारसंभवाः ।
क्षारतोयेन तु परे न कुर्यात् संकरं ततः" ॥ भावार्थ-मोठे जलके पोरे खारे पानीमें जानेसे और खारे पानीके पोरे मीठे जलमें जानेसे मर जाते हैं, इसलिए भिन्न भिन्न जलाशयोंका जल-जो भिन्न स्वभाववाला हो, छाने विना शामिल नहीं करना चाहिए।" महाभारतमें भी लिखा है किः--
" विंशत्यंगुलमानं तु त्रिंशदंगुलमायतम् । तद्वस्त्रं द्विगुणीकृत्य गालयित्वा पिबेज्जलम्" ॥ " तस्मिन् वस्त्रे स्थितान् जीवान् स्थापयेत् जलमध्यतः ।
एवं कृत्वा पिबेत् तोयं स याति परमां गतिम् ॥ भावार्थ-बीस अंगुल चौड़ा और तीस अंगुल लंबा वस्त्र ले, उसको दुगना करना, फिर उससे पानीको छानकर पीना चाहिये और उस वस्त्रमें आये हुए जीवाको जलमें कूए आदिमें डाल देना चाहिए । जो इस तरह छानकर पानी पीता है, वह छाने विना पानी पीनेवालेकी अपेक्षा उत्तम गति पाता है। __इसके अतिरिक्त 'विष्णुपुराण' आदि ग्रंथोंमें भी पानी छानकर पीनेका आदेश. दिया गया है। १-" अनग्निरनिकेतः स्याद्............. ......................
(मनुस्मृति छठा अध्याय ४३ वा श्लोक) भावार्थ-साधु अग्निस्पर्शसे रहित और गृहवाससे मुक्त होते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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जैन- रत्न
लेकर भिन्न २ घरोंसे लेनी चाहिये । जिससे घरवालों को देनेमें किसी प्रकारका संकोच न हो' । शास्त्रों में यह आज्ञा है, कि कोई साधुके निमित्तसे भोजन न बनावे | यदि कोई बना ले तो साधुओं को वह भोजन नहीं लेना चाहिए ।
५२४
अर्थात् साधु द्रव्यके
साधुओं का धर्म सर्वथा अकिंचन रहनेका है । संबंध से सर्वथा मुक्त होते हैं । यहाँ तक कि वे भोजनके पात्र भी धातुके नहीं रखते; वे काष्ठ, मिट्टी या बड़ीके पात्र उपयोग में लाते हैं ।
चरेद् माधुकरीं वृत्तिमपि म्लेच्छकुलादपि । एकान्नं नैव भुञ्जीत बृहस्पतिसमादपि " ॥
॥ ( अत्रिस्मृति )
भावार्थ - - जैसे भंवरा अनेक फूलों पर बैठकर उनमेंसे थोड़ा थोड़ा रस पी लेता है, और उनको हानि पहुँचाये बिना ही अपनी तृप्ति कर लेता है इसी तरह अर्थात् मधुकर - भँवरे - की वृत्तिसे साधुओं को भी भिन्न भिन्न घरोंसे भोजन लेना चाहिए; ताकि घरवालों को किसी तरहका संकोच न हो। इस विषय में अत्रिस्मृतिकर्ता जोर देकर कहते हैं कि यदि म्लेच्छों के घरसे भी ऐसी शुद्ध भिक्षा लेनी पड़े तो ले लेना चाहिए मगर एकही के घरसे - चाहे वह घर बृहस्पति के समान दाताका ही क्यों न हो - संपूर्ण भिक्षा नहीं लेनी चाहिए ।
२ – “ अतैजसानि पात्राणि तस्य स्युर्निर्व्रणानि च ।
........
.........
अलाबु दारुपात्रं च मृन्मयं वैदलं तथा ।
""
एतानि यतिपात्राणि मनुः स्वायम्भुवोऽब्रवीत् ॥
( मनुस्मृति, ६ ठा अध्याय, ५३, ५४ श्लोक ) भावार्थ - मनुजी कहते हैं कि साधुओं को संन्यासियों को बिना धातुके और छिद्ररहित पात्र यानी तूमड़ी, काष्ठ, मिट्टी और बाँसके पात्र रखने चाहिए । यतिने काञ्चनं दत्वा तांबूलं ब्रह्मचारिणे । चौरेभ्योऽप्यभयं दत्वा दातापि नरकं व्रजेत् ॥
८८
""
( पाराशरस्मृति १ अध्याय, ६० वाँ श्लोक ) भावार्थ -- यतिको साधु संन्यासीको द्रव्य, ब्रह्मचारीको ताम्बूल, और कठोर अपराधीको - चोरको अभय देनेवाला दाता भी नरकमें जाता हैं ।
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जैन-दर्शन
५२५
साधुको वर्षा ऋतुमें एक ही जगह रहना चाहिए । साधुको कभी स्त्रीसे स्पर्श नहीं करना चाहिए। ___ संक्षेपमें यह है कि साधुओंको सारे सांसारिक प्रपंचोंसे मुक्त और सदा अध्यात्मरति-परायण रहना चाहिएँ । निःस्वार्थ भावसे जगत् क. कल्याण करना इनके जीवनका मल मंत्र होना चाहिए। १--" पर्यटेत् कीटवद् भूमि वर्षास्वेकत्र संविशेत् ।”
(विष्णुस्मृति ४ था अध्याय, ६ ठा श्लोक ) भावार्थ-कीड़ा जैसे फिरता रहता है, वैसे ही साधुको भी फिरते रहना चाहिए। एक ही स्थानपर स्थिरतासे नहीं रहना चाहिए । दूसरी तरह कहें तो-कीड़ा जैसे आहिस्ता चलता है-सूक्ष्मतासे देखे विना कोई उसकी चालको नहीं जान सकता है, इसी तरह साधुओंको भा घोड़ेकी तरह न चलकर, आहिस्ता आहिस्ता, भूमिकी तरफ देखते हुए जीवदयाकी भावनासहित चलना चाहिए । साधुको वर्षाऋतुमें (चौमासमें ) एक ही जगह रहना चाहिए। २-विष्णुस्मति, ४ थे अध्यायके ८ वें श्लोकमें लिखा है:
“संभाषणं सह स्त्रीभिरालम्भप्रेक्षणे तथा '" भावार्थ--साधुको स्त्रीके साथ न वार्तालाप करना चाहिए और न स्त्रीका निरी... क्षण तथा स्पर्श ही करना चाहिए । ३ साधुओंकी विरक्त दशाके संबंधमें मनुस्मृतिमें लिखा है किः--
" अतिवादांस्तितिक्षेत नावमन्येत कंचन ।”
"क्रुध्यन्तं न प्रतिक्रुध्येदाक्रुष्टः कुशलं वदेत् ।”
"भक्षे प्रसक्तो हि यतिर्विषयेष्वपि सज्जति ।" " अलाभे न विषादी स्याद् लाभे चैव न हर्षयेत् । प्राणयात्रिकमात्रः स्याद् मात्रासंगाद् विनिर्गतः ॥" " इन्द्रियाणां निरोधेन रागद्वेषक्षयेण च । अहिंसया च भूतानाममृतत्वाय कल्पते ॥"
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'५२६
जैन-रत्न ommmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm
गृहस्थोंका आचार ।
अब संक्षेपमें गृहस्थाचारका वर्णन किया जायगा । गृहस्थोंके लिए जैनशास्त्रोंमें षट्कर्म बताये गये हैं।
" देवपूजा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः।
दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने ॥" भावार्थ-परमात्माकी पूजा, गुरु महात्माकी सेवा, शास्त्रवाचन, संयम अर्थात् गहस्थावस्थाकी योग्यताके अनुसार विषयोंकी तरफ दौड़ती हुई इन्द्रियों पर काबू रखना, तप और दान ये छः कर्म गृहस्थोंका कर्तव्य है।' __इस प्रसंग पर जैनियोंकी एक बातका उल्लेख करना अस्थानमें न होगा।
जैनके आचार-ग्रंथोंमें भक्ष्या-भक्ष्यका बहुत विचार किया गया है। कंदमूल खानेका जैनशास्त्रोंमें निषेध है । रातको भोजन करना आदि भी अकर्तव्य बताया गया है । बाह्य दृष्टिसे देखनेवालोंको यह बात, जितनी चाहिए उतनी अच्छी नहीं लगेगी । और ऐसा होना स्वाभा. विक भी है । परन्तु धर्मशास्त्रोंका यही आदेश है । हिन्दु-धर्माचार्य
भी इस बातको मानते हैं। ___ भावार्थ--स्वयं अपमान सहे मगर किसीका अपमान न करे । क्रोध करनेवाले पर क्रोध न कर उसके साथ नम्रताका व्यवहार करे । भिक्षाके लोभमें फंसा हुआ यति विषयमें डूब जाता है । लाभ होनेपर प्रसन्न न हो और हानि होने पर दुःख न करे । केवल प्राणरक्षाके हेतु भोजन करे; आसक्तियोंसे दूर रहे । इन्द्रिय-निरोध, राग-द्वेषपराजय और प्राणीमात्रपर दया करे । ऐसा करनेहीसे जीव मोक्षमें जाने योग्य होता है।
१--ये षट्कर्म सर्वसाधारणसम्मत-सार्वजनिक (Universal) हैं। इनके अनुसार संसारका हरेक गृहस्थ प्रवृत्ति कर सकता है; और उससे अपनी आत्माको उन्नत बना सकता है।
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जैन- दर्शन
मनुस्मृतिके पाँचवें अध्याय के पाँचवें, उन्नीसवें आदि श्लोकोंमें
आदि शब्दों द्वारा,
........ ....
लशुनं गृञ्जनं चैव पलाण्डुं " लहसन, गाजर, प्याज आदि अभक्ष्य चीजें खाने की मनाई की गई है । बैंगन, प्याज, लहसन आदि पदार्थ तामस स्वभावको पुष्ट करने वाले होते हैं । शिवपुराण ' ' इतिहासपुराण' आदि ग्रंथोंमें भी ऐसे अभक्ष्य पदार्थ खानेका पूर्णतया निषेध किया गया है ।
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जैन सिद्धान्तानुसार कठोळ ( उड़द, मूँग, चने आदि ) के साथ कच्चा गोरस (दूध, दही, छास ) खाना मना है । पद्मपुराणका निम्नलिखित श्लोक भी इस बातको पुष्ट करता है:
" गोरसं माषमध्ये तु मुनादिके तथैव च ।
भक्षयेत् तद् भवन्नूनं मांसतुल्यं युधिष्ठिर, ॥ " भावार्थ हे युधिष्ठिर, उड़द और मूँग भादिके साथ कच्चा गोरस खाना मांस खाने के बराबर है ।
इसके अतिरिक्त शहद खाना भी जैन - आचारशास्त्रों और हिन्दु धर्मशास्त्रों द्वारा वर्ज्य है । महाभारत आदि ग्रंथोंमें इसके लिए विशेष रूप से उल्लेख है ।
रात्रिभोजनका निषेध |
रात्रि में भोजन करना भी अनुचित है । इस विषयका पहिले अनुभवसिद्ध विचार करना ठीक होगा । संध्या होते ही अनेक सूक्ष्म जीवोंके समूह उड़ने लगते हैं । दीपकके पास, रातमें बेशुमार जीव फिरते हुए नजर आते हैं। खुले रखे हुए दीपकपात्रमें, सैकडों जीव पड़े हुए दिखाई देते हैं । इसके सिवा रात होते ही अपने शरीर पर भी अनेक जीव बैठते हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता
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जैन - रत्न
कि, रात्रिमें जीव- समूह भोजन पर भी अवश्यमेव बैठते होंगे । अतः रातमें खाते समय, उन जीवोंमेंसे जो भोजनपर बैठते हैं- कई जीवोंको, लोग खाते हैं; और इस तरह उनकी हत्याका पाप अपने सिर लेते हैं । कितने ही जहरी जीव रात्रिभोजन के साथ पेटमें चले जाते हैं, और अनेक प्रकारके रोग उपजाते हैं । कई ऐसे जहरी जन्तु भी होते हैं, जिनका असर पेटमें जाते ही नहीं होता, दीर्घ कालके बाद होता है । जैसे जलोदर, करोलिया से कोट और कीडी से बुद्धिका नाश होता है । यदि कोई तिनका खानेमें आ जाता है, तो वह गलेमें अटक कर कष्ट पहुँचाता है; मक्खी आ जाने से वमन हो जाती है और अगर कोई जहरी जन्तु खानेमें आ जाता है तो मनुष्य मर जाता हैं; अकालही में कालका भोजन बन जाता है ।
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शामको ( सूर्यास्त के पहिले ) किया हुआ भोजन, बहुतसा जठरानिकी ज्वालापर चढ़ जाता है- पच जाता है, इसलिए निद्रापर उसका असर नहीं होता है । मगर इससे विपरीत करनेसे - रातको खाकर थोड़ी ही देर में सो जानेसे, चलना फिरना नहीं होता इसलिए, पेटमें, तत्कालका भरा हुआ अन्न, कई बार गंभीर रोग उत्पन्न कर देता है | डॉक्टरी नियम है कि, भोजन करनेके बाद थोड़ा थोड़ा जल पीना चाहिए । यह नियम रातमें भोजन करने से नहीं पाला जा सकता है; क्योंकि इसके लिए अवकाश ही नहीं मिलता है । इसका परिणाम 'अजीर्ण' होता है। अजीर्ण सत्र रोगों का घर है, यह बात हरेक जानता है । प्राचीन लोग भी पुकार पुकार कर कहते हैं, " अजीर्णप्रभवा रोगाः ।
""
-
इस प्रकार, हिंसा की बातको छोड़ कर आरोग्यका विचार करने पर भी सिद्ध होता है कि, रातमें भोजन करना अनुचित है |
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जैन-दर्शन
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यहाँ हम थोडासा, यह भी बता देना चाहते हैं, कि इस विषयमें धर्मशास्त्र क्या कहते हैं ? हिन्दु-धर्मशास्त्रकारोंमें 'माकंड' मुनि प्रख्यात हैं। वे कहतेहैं किः
" अस्तं गते दिवानाथे आपो रुधिरमुच्यते । __ अन्नं मांससमं प्रोक्तं मार्कण्डेन महर्षिणा ॥" भावार्थ-मार्कण्ड ऋषि कहते हैं कि सूर्यके अस्त हो जाने पर जल पीना मानो रुधिर पीना है और अन्न खाना मानो मांस खाना है। कूर्मपुराणमें भी लिखा है कि:" न द्रुह्येत् सर्वभूतानि निर्द्वन्द्वो निर्भयो भवेत् । न नक्तं चैवमश्नीयाद् रात्रौ ध्यानपरो भवेत् ॥"
(२७ वा अध्याय ६४५ वा पृष्ठ) भावार्थ-मनुष्य सब प्राणियों पर द्रोहरहित रहे, निर्द्वन्द्व और निर्भय रहे; तथा रातको भोजन न करे और ध्यानमें तत्पर रहे।
और भी ६५३ वें पृष्ठपर लिखा है कि:" आदित्ये दर्शयित्वाऽन्नं भुञ्जीत प्राङ्मुखो नरः ।" भावार्थ-सूर्य हो उस समय तक-दिनमें गुरु या बड़ेको दिखा, पूर्व दिशामें मुख करके भोजन करना चाहिए। ___ अन्य पुराणों और अन्य ग्रंथोंमें भी रात्रिभोजनका निषेध करने. वाले अनेक वाक्य मिलते. हैं । युधिष्ठिरको संबोधन करके यहाँतक कहा गया है कि, किसीको भी, चाहे वह गृहस्थ हो या साधु, रात्रिमें जल तक नहीं पीना चाहिए । जैसे:___“नोदकमपि पातव्यं रात्रावत्र युधिष्ठिर,।
तपस्विनां विशेषेण गृहिणां च विवेकिनाम् ॥"
३४
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जैन-रत्न
भावार्थ-तपस्वियोंको, मुख्यतया रातमें पानी भी नहीं पीना चाहिए और विवेकी गृहस्थोंको भी नहीं पीना चाहिए। . पुराणोंमें 'प्रदोषव्रत' 'नक्तव्रत' बताये गये हैं । इनसे कई रात्रिभोजन करना सिद्ध करते हैं। मगर इससे रात्रिभोजननिषेधक जो वाक्य हैं, वे अयथार्थ ठहरते हैं । शास्त्रोंमें पूर्वापर विरोधरहित कथन होता है । इसलिए उनका विचार भी इसी तरह करना चाहिए।
'प्रदोषो रजनीमुखम् । इसका अभिप्राय होता है, रजनीमुख-रात होनेके दो घड़ी पहिलेके समय-को प्रदोष समझना । अर्थात् रात होनेमें दो घड़ी बाकी रहती है, उस समयको प्रदोष कहते हैं। ऐसा ही अर्थ व्रतोंके सम्बन्धमें करनेसे रात्रि-भोजननिषेधक वाक्योंके साथ विरोध नहीं होगा । यद्यपि ' नक्त' शब्दका मख्य अर्थ रात्रि होता है, तथापि शास्त्रकार और व्याख्याकार बताते हैं कि ' नक्त' शब्दका अर्थ रात होनेके दो घड़ी पहिलेका समय लेना चाहिए; क्योंकि ऐसा करनेसे रात्रि भोजननिषेधक प्रमाणभत वाक्योंमें बाधा न होगी।
१-शब्दका मुख्य अर्थ लेनेमें यदि विरोध मालूम हो तो गौणशक्तिसे ( लक्षणासे) उचित अर्थ ग्रहण करना चाहिये । जैसे--' अहमदाबाद' शहरमें रहनेवाला कहता है कि 'मैं अहमदाबाद' रहता हूँ '। इसी प्रकार अहमदाबादके पास गाँवमें रहनेवाला भी कहता है कि, 'मैं अहमदाबाद रहता हूँ।। यद्यपि शब्दार्थ दोनों वाक्योंका समान होता है; तथापि भाव भिन्न है । यदि दोनोंका भाव समान समझा जायगा तो वास्तविक बात जाती रहेगी। इसलिए इसका एक जगह अर्थ होगा 'खास अहमदाबाद शहर' और दूसरी जगह अर्थ होगा 'अहमदाबादका समीपवर्ती कोई गाँव।' इस प्रकार मुख्य और गौण दो तरहके अर्थ हरेक जगह प्रसंगानुसार, उपयोगमें लाये जाते हैं । इससे सिद्ध होता है कि, मुख्य
अर्थको कहनेवाले शब्दसे मुख्य अर्थके समीपकी वस्तु भी, प्रकरणानुसार समझ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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कहा है कि—
जैन- दर्शन
66
“ दिवसस्याष्टमे भागे मन्दीभूते दिवाकरे ।
एतद् नक्तं विजानीयाद् न नक्तं निशि भोजनम् ॥ "
मुहूर्त्तेनं दिनं नक्तं प्रवदन्ति मनीषिणः । नक्षत्रदर्शनान्नक्तं नाहं मन्ये गणाधिप !" ॥
५३१
भावार्थ — दिनके आठवें भागको जब कि दिवाकर मंद हो जाता है - ( रात होने के दो घड़ी पहिलेके समयको ) ' नक्त' कहते हैं । ' नक्त '-' नक्तत्रत ' का अर्थ रात्रिभोजन नहीं है । हे गणाधिप ! । बुद्धिमान् लोग उस समयको 'नक्त' बताते हैं, जिस समय एकमुहूर्त-दो घड़ी - दिन अवशेष रह जाता है । मैं नक्षत्रदर्शन के समयको नक्त नहीं मानता हूँ ।
I
और भी कहा है कि:--
66
अम्भोदपटलच्छन्ने नाश्नन्ति रविमण्डले ।
अस्तंगते तु भुञ्जाना अहो ! भानोः सुसेवकाः ! " ॥
" ये रात्रौ सर्वदाऽऽहारं वर्जयन्ति सुमेधसः । तेषां पक्षोपवासस्य फलं मासेन जायते "
46
मृते स्वजनमात्रेऽपि सूतकं जायते किल । अस्तंगते दिवानाथे भोजनं क्रियते कथम् ?
""
C
ली जाती है। इसी नीतिके अनुसार 'नक्त ' शब्दका मुख्य अर्थ ' रात्रि ' जहाँ घटित नहीं होता हो, वहाँ रात्रिका समीपवर्ती भाग दो घड़ी पहिलेका समय ग्रहण कर लेने में किसी प्रकारको बाधा नहीं आती है । नक्त' शब्दका मुख्य अर्थ रात्रि लेनेसे रात्रिभोजननिषेधक अनेक वाक्य मिथ्या ठहरते हैं, जो हो नहीं सकते । इसलिये ' नक्त ' शब्दका गौण अर्थ ग्रहण कर लेना चाहिये । जहाँ गौण अर्थ लिया जाता है वहाँ यही समझना चाहिये कि मुख्य अर्थ लेनेमें वास्तविक बातको बाधा पहुँचती है ।
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५३२
जैन-रत्न
......
.
भावार्थ- यह बात कैसे आश्चर्यकी है कि, सूर्य-भक्त जब सूर्य, मेघोंसे ढक जाता है, तब तो वे भोजनका त्याग कर देते हैं; परन्तु वही सूर्य जब अस्तदशाको प्राप्त होता है, तब वे एक भोजन करते हैं ! जो रातमें भोजन नहीं करते हैं, वे एक महीनेमें एक पक्षके उपवासोंका फल पाते हैं क्योंकि रात्रिके चार प्रहर वे सदैव अनाहार रहते हैं । स्वजनमात्रके ( अपने कुटुम्बमेंसे किसीके ) मर जाने पर भी जब लोग सूतक पालते हैं, यानी उस दशामें अनाहार रहते हैं, तब दिवस-नाथ सूर्यके अस्त होने बाद तो भोजन किया ही कैसे जा सकता है ? और भी कहा है:
" देवस्त भुक्तं पूर्वाह्ने मध्याह्न ऋषिभिस्तथा । ____ अपराह्ने च पितृभिः सायाह्ने दैत्यदानवैः" ॥ " सन्ध्यायां यक्षरक्षोभिः सदा भुक्तं कुलोद्वह !।
सर्ववेलामतिक्रम्य रात्रौ भुक्तमभोजनम् " | इन श्लोकोंमें युधिष्ठिरसे कहा गया है कि:-हे युधिष्ठिर ! दिनके पूर्वभागमें देवता, मध्याह्नकालमें ऋषि, तीसरे प्रहरमें पितृगण साययंकालमें दैत्य दानव और संध्या समयमें यक्ष-राक्षस भोजन करते हैं। इन समयोंको छोड़कर जो भोजन किया जाता है वह अभोजन-दुष्ट भोजन होता है।
रातमें छः कार्य करना मना किया गया है उनमें रात्रिभोजन भी है । वह भी रात्रि भोजननिषेधके कथनको पुष्ट करता है जैसे
“ नैवाहुतिर्न च स्नानं न श्राद्धं देवतार्चनम् ।
दानं वा विहितं रात्रौ भोजनं तु विशेषतः" ॥
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जैन-दर्शन
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भावार्थ-आहुति, स्नान, श्राद्ध, देवपूजन, दान और खास करके भोजन रातमें नहीं करना चाहिए। इस विषयमें आयुर्वेदका मुद्रालेख भी यही है कि:" हृन्नाभिपद्मसंकोचश्चण्डरोचिरपायतः ।
अतो नक्तं न भोक्तव्यं सूक्ष्मजीवादनादपि " ॥ भावार्थ-सूर्य छिप जानेके बाद हृदयकमल और नाभिकमल दोनों संकुचित हो जाते हैं, इसलिए, और सूक्ष्म जीवोंका भी भोजनके साथ भक्षण हो जाता है, इसलिए रातमें भोजन नहीं करना चाहिए । ____ एक दूसरेकी झूठन खाना भी जैनधर्ममें मना है । शुद्धता और समुचित शौचकी तरफ गृहस्थों को खास तरहसे ध्यान देना चाहिए । जैनशास्त्रकारोंने इस बातका खास तरहसे उपदेश दिया है । रसायन शास्त्र कहते हैं, कि बहुत समय तक मलमूत्र रहनेसे नाना भाँतिके विलक्षण जन्तु उत्पन्न होते हैं और जब वे उड़ते हैं तब उनके संक्रमणसे अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं। जैनशास्त्र भी इस बात को मानते हैं और इसलिए उन्होंने, खुली जगहमें मल मूत्र-त्यागनेके लिए कहा है।
संक्षेपमें इतना कहना काफी होगा कि जैनशास्त्रोंमें जिन आचार व्यवहारोंका प्रतिपादन किया है, वे सब विज्ञानके शुद्ध तत्वोंके साथ मिलते जुलते हैं। शास्त्रनियमानुसार यदि वर्ताव रक्खा जाता है तो, आरोग्यका लाभ उठानेके साथ ही लोकप्रियता, राज्य मान्यता, सुखी जीवन और आत्मोन्नतिका उद्देश बराबर सिद्ध होता है।
जब तक वस्तुज्ञानमें संदेह या भ्रान्ति होती है, तब तक मनुष्यकी प्रवृत्ति यथार्थ नहीं होती है । वस्तुतत्त्वकी परीक्षा प्रमाणद्वारा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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जैन-रत्न
........
.marrrrrrrrrrrnwww.rammar
होती है। इस विषयमें किसीका मत विरुद्ध नहीं है । अब हम यहाँ जैनशास्त्रोंकी शैलीके अनुसार इस विषयकी प्रतिपादक न्यायपरिभाषाका संक्षिप्त विवेचन करेंगे।
न्याय-परिभाषा
"प्रमीयतेऽऽनेनेति प्रमाणम्" अर्थात्-जिससे वस्तुतत्त्वका यथार्थ निश्चय होता है उसको प्रमाण' कहते हैं। इससे संदेह, भ्रम और मूढता दूर होते हैं और वस्तु-स्वरूपका वास्तविक प्रकाश होता है । इसीलिए यथार्थ ज्ञानको प्रमाण' कहते हैं। __ प्रमाणके दो भेद हैं, प्रत्यक्ष और परोक्ष । मनसहित चक्षु आदि इन्द्रियोंसे जो रूप, रस आदिका ग्रहण होता है अर्थात् चक्षुसे रूपका जीभसे रसका, नासिकासे गंधका त्वचासे स्पर्शका और कानसे शब्दका जो ज्ञान होता है, वह 'प्रत्यक्ष प्रमाण ' कहलाता है।
व्यवहारमें आनेवाले उक्त प्रत्यक्षोंकी अपेक्षा योगीश्वरोंका प्रत्यक्ष सर्वथा भिन्न होता है । उसको मन या इन्द्रियकी बिलकुल अपेक्षा नहीं रहती है; वह आत्मशक्तिसे ही होता है। ___ अब यहाँ यह विचारना चाहिए कि इन्द्रियों से प्रत्यक्ष होनेमें, वस्तुके साथ इन्द्रियोंका संयोग होना आवश्यक है या नहीं।
जीभसे रसका आस्वाद लिया जाता है, उसमें जीभ और रसका बराबर संयोग होता है। त्वचासे स्पर्श किया जाता है, उसमें त्वचा और स्पर्य वस्तुका संयोग स्पष्टतया मालूम होता है । नाकसे गंध ली जाती है, उस समय नाकके साथ गंधवाले पदार्थोका अवश्य
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संयोग होता है। जिन पदार्थोंकी गंध दूरसे आती है उन गंधवाले सूक्ष्म द्रव्योंका भी नाकके साथ अवश्य संबंध होता है । कानसे सुना भी उसी समय जाता है, जब कि दूरसे आनेवाले शब्दोंका कानके साथ संबंध होता है। ___ इस तरह जीभ, त्वचा, नाक और कान ये चार इन्द्रियाँ, वस्तुके साथ संयुक्त होकर अपने विषयको ग्रहण करती हैं । परन्तु ' चक्षु' इससे प्रतिकूल है । यह स्पष्ट है कि दूरसे जो पदार्थ, जैसे वृक्ष, मनुष्य, पशु आदि दिखाई देते हैं वे आँखोंके पास नहीं आते हैं। इसी प्रकार आँखें भी निकलकर उनके पास नहीं जाती हैं । इससे यह सिद्ध होता है कि, आँखोंसे देखनेमें वस्तुओंके साथ चक्षुका संयोग नहीं होता है । अतएव चक्षु 'अप्राप्यकारी' कहा जाता है । अर्थात् 'अप्राप्य '-प्राप्ति किये विना; संयोग किये विना; ' कारी'-विषयको ग्रहण करनेवाला । विपरीत इसके चार इन्द्रियाँ प्राप्यकारी' कहलाती हैं। चक्षुकी भाँति मन भी अप्राप्यकारी है।
परोक्षप्रमाण प्रत्यक्षसे विपरीत है । परोक्ष विषयोंका ज्ञान परोक्ष प्रमाणसे होता है। परोक्षप्रमाणके पाँच भेद किये गये हैं। स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनमान और आगम।
पूर्व-अनुभूत वस्तुको याद करना 'स्मरण' है। स्मरण' अनुभूत पदार्थ पर बराबर प्रकाश डालता है, इसलिए वह 'प्रमाण' कहलाता है। खोई हुई वस्तु जब फिरसे मिल जाती है उस समय-"यह वही पदार्थ है" ऐसा जो ज्ञान होता है, उसे 'प्रत्यभिज्ञान' कहते हैं । पहिले जिस मनुष्यको हमने देखा था, वही फिरसे मिलता है। उस समय यह ज्ञान होता है कि 'यह वही मनुष्य है। यही ज्ञान प्रत्यभिज्ञान है।
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___ स्मरणमें पूर्व अनुभव ही कारण होता है; मगर प्रत्यभिज्ञानमें
अनुभव और स्मरण दोनोंकी आवश्यकता पड़ती है । स्मरणमें ऐसा स्फुरण होता है कि 'यह घड़ा है। मगर प्रत्यभिज्ञानमें मालूम होता है कि यह वही घड़ा है'। इससे इन दोनोंकी भिन्नता स्पष्टतया समझमें आ जाती है । खोई हुई वस्तुको देखनेसे, या पहिले देखे हुए मनुष्यको फिर देखनेसे ज्ञान होता है कि 'यह वही है। इसमें 'वही है' स्मरणरूप है और — यह ' उपस्थित वस्तु या मनुष्यका दर्शनस्वरूप अनुभव है। इस अनुभव और स्मरणके संमिश्रणरूप 'यह वही है ' ज्ञानको 'प्रत्यभिज्ञान' कहते हैं।
किसी मनुष्यने, कभी रोझ नहीं देखा था। एक बार किसी गवाल के कहनेसे उसे मालूम हुआ कि रोझ गऊके समान होता है। अन्यदा वह जंगलमें चक्कर लगानेके लिए गया । वहाँ उसने रोझ देखा । उस समय उसको याद आया कि 'रोझ गऊके समान होता है।' यह स्मृति और 'यह' ऐसा प्रत्यक्ष, इस तरह इन दोनोंके मिलनेसे ' यह वही है' ऐसा जो विशिष्ट ज्ञान होता है, वह 'प्रत्यभिज्ञान' है। इस तरह प्रत्यभिज्ञानके
और भी उदाहरण दिये जा सकते हैं। ___ तर्क-जो वस्तु जिससे जुदा नहीं होती, जो वस्तु जिसके विना नहीं रहती, उस वस्तुका उसके साथ जो सहभावरूप ( साथमें रहना रूप ) संबंध है, उस संबंधको निश्चय करनेवाला 'तर्क' है। जैसे-धूआँ अग्निके विना नहीं होता है; अग्निके विना नहीं रहता है। जहाँ धूम्र है वहाँ अग्नि है । धूएँवाला ऐसा कोई प्रदेश नहीं है जहाँ अग्नि न हो । ऐसा धूम्र और अग्निका संबंध, दूसरे
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सकता है ।
शब्दों में कहो तो धूम्रस्थ अग्निके साथ रहनेका निश्चल नियम तर्क' हीसे साबित हो इस नियमको तर्कशास्त्री लोग ' व्याप्ति ' कहते हैं । यह बात तो स्पष्ट ही है कि, धूम्र में जब तक व्याप्तिका निश्चय नहीं होता है, तब तक धूम्र को देखने पर भी अग्निका अनुमान नहीं हो सकता है । जिस मनुष्यने धूम्र में अग्निकी व्याप्तिका निश्चय किया है, वही धूम्रको देखकर, वहाँ अग्नि होनेका ठीक ठीक अनुमान कर सकता है । इससे सिद्ध होता है कि अनुमान के लिए व्याप्तिनिश्चय करनेकी आवश्यकता है और व्याप्तिनिश्चय करनेके लिए ' तके ' की जरूरत है ।
दो पदार्थ, अनेक स्थानोंमें एक ही जगह देखनेसे इनका व्याप्तिनियम सिद्ध नहीं होता है । परंतु इन दोनों के भिन्न रहने में क्या बाधा है, इसकी जाँच करने पर जब बाधा सिद्ध होती है, तभी इन दोनोंका व्याप्तिनियम सिद्ध होता है । इस तरह दो पदार्थोंके साहचर्यकी परीक्षा करनेका जो अध्यवसाय है उसे 'तर्क' कहते हैं । धूम्र और अग्निके संबंध में भी - " यदि अग्नि विना धूम्र होगा, तो वह अग्निका कार्य नहीं होगा; और ऐसा होनेसे, धूम्रकी अपेक्षावाले जो अग्निकी शोध करते हैं, नहीं करेंगे । ऐसा होनेपर अग्नि और धूम्रकी, परस्परकी कारणकार्यता- जो लोकप्रसिद्ध है - नहीं टिकेगी । " इस प्रकार के तर्कही से उन दोनोंकी व्याप्ति साबित होती है और व्याप्ति- निश्चय के बलसे अनुमान किया जाता है । अतएव 'तर्क' प्रमाण है ।
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अनुमान - जिस वस्तुका अनुमान करना हो, उस वस्तुसे अलग नहीं रहनेवाले पदार्थका हेतुका जब दर्शन होता है, और उस
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जैन-रत्न .........maravammarnew.www.www.www.ww~~ हेतुमें अनुमेय वस्तुकी व्याप्ति रहनेका स्मरण होता है तब ही किसी वस्तुका अनुमान हो सकता है। __ जैसे-किसी मनुष्यको किसी स्थानमें धूम-रेखा देखनेसे और उस धूममें अग्निकी व्याप्ति होनेका स्मरण आनेसे, उसके हृदयमें तत्काल ही उस स्थानमें अग्नि होनेका अनुमान स्फुरित होता है । इस अनुमान-स्फूर्तिमें, जैसा कि हम ऊपर कह आये हैं, हेतुका दर्शन और हेतुमें साध्यको व्याप्ति होनेका स्मरण दोनों मौजद हैं। इन दोनोंमेंसे यदि एकका भी अभाव होता है तो अनुमान नहीं होता है। ___ हेतु ' ' साध्य ' ' अनुमेय' आदि सब संस्कृत शब्द हैं। " हेतु "का अर्थ है-साध्यको सिद्ध करनेवाली वस्तु । जैसे, ऊपर उदाहरणमें बताया गया है 'धूम्र '-साध्यसे कभी कहीं अलग न रहना। यह हेतुका लक्षण है। ' हेतु को 'साधन' भी कहते हैं। लिंग' भी साधनका ही नामान्तर है। जिप्त वस्तुका अनुमान करना होता है उसको 'साध्य' कहते हैं । जैसे पूर्वोक्त उदाहरणमें 'अग्नि' बताया गया है । ' अनुमेय ' साध्यका नामांतर है। __ दूसरोंके समझाये विना अपनी ही बुद्धिसे · हेतु' द्वारा जो अनुमान किया जाता है उसे ' स्वार्थानुमान' कहते हैं। दूसरेको समझानेमें अनुमानका प्रयोग करना ‘परार्थानुमान' है। जैसे–यहाँ अग्नि है; क्योंकि यहाँ धूम्र दिखाई देता है। जहाँ धूम्र होता है वहाँ अग्नि अवश्यमेव होती है । हम देखते हैं कि रसोई-घरमें अग्नि होनेसे धूआँ जरूर होता है। यहाँ धूम्र दिखाई दे रहा है इसलिए यहाँ अग्नि भी अवश्यमेव होगी। प्रतिज्ञा, हेतु, उदा
१--" साधनात् साध्यविज्ञानमनुमानं विदुर्बुधाः।" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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हरण, उपनय और निगमन ये पाँच प्रकारके वाक्य प्रायः परार्थअनुमानमें जोड़े जाते हैं। "यह प्रदेश अग्निवाला होना चाहिए" यह ' प्रतिज्ञा' वाक्य है । " क्योंकि यहाँ धूम्र दिखाई देता है । " यह ' हेतु' वाक्य है। रसोईघरका उदाहरण देना यह ' उदाहरण ' वाक्य है । " यहाँ भी रसोई घरकी भाँति धूम्र दिखाई देता है " यह 'उपनय ' वाक्य है । " अतः यहाँ अग्नि जरूर है " यह 'निगमन ' वाक्य । इस तरह सारे अनुमानों में यथासंभव अनुमान कर लेना चाहिए । जो हेतु झूठा होता है वह ' हेत्वाभास ' कहलाता है । हेत्वाभाससे सच्चा अनुमान नहीं किया जा सकता है ।
आगम – जिसमें प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणोंसे विरुद्ध कथन न हो, जिसमें आत्मोन्नति से संबंध रखनेवाला भूरि भूरि उपदेश हो, जो तत्त्वज्ञानके गंभीर स्वरूपपर प्रकाश डालनेवाला हो, जो रागद्वेष के ऊपर दाब रख सकता हो, ऐसा परमपवित्र शास्त्र 'आगम' कहलाता है । सद्बुद्धिपूर्वक जो यथार्थ कथन करता है वह ' आप्त ' कहलाता है । आप्तके कथनको ' आगम' कहते हैं । सबसे प्रथम श्रेणीका आप्त वह है कि जिसके रागादि समस्त दोष क्षीण हो गये हैं और जिसने अपने निर्मल ज्ञानसे बहुत उच्च प्रकारका उपदेश दिया है ।
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आगम-वर्णित तत्त्वज्ञान अत्यंत गंभीर होता है । इसलिए यदि तटस्थ भाव से उस पर विचार नहीं किया जाता है तो, अर्थका अनर्थ हो जानेकी संभावना रहती है । आगम- वर्णित तत्त्वों के गहन भागमें भी वही मनुष्य निर्भीक होकर विचरण कर सकता है जिसको दुराग्रहका त्याग, जिज्ञासा - गुणकी प्रबलता और स्थिर तथा सूक्ष्म दृष्टि, इतने साधन प्राप्त हो जाते हैं ।
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कई बार जब बाह्यदृष्टिसे विचार किया जाता है तब महर्षियोंके कितने ही विचार एक दूसरेके प्रतिकूल ज्ञात होते हैं । मगर वे ही विचार, जब उनके मूलमें प्रवेश करके देखे जाते हैं, उनके पूर्वापरका खूब अनुसंधान किया जाता है और सूक्ष्मतासे देखे जाते हैं कि वे परस्परमें सुसंगत कैसे होते हैं ? तब समान जान पड़ते हैं।
प्रमाणकी व्याख्याका विवेचन किया गया । प्रमाणसे जैनशास्त्रोंमें एक ऐसा सिद्धान्त स्थापित किया गया है कि जिसपर विद्वानोंको आश्चर्य उत्पन्न हुए विना नहीं रहता है । मगर उनका वह आश्चर्य उस समय, उड़ ही नहीं जाता है बल्के उस सिद्धान्तकी · तरफ उनकी अभिमुखवृत्ति भी हो जाती है, जब वे उस पर गंभीरतासे विचार करते हैं। उस सिद्धान्तका नाम है- स्याद्वाद ।
स्याद्वाद
स्याद्वादका अर्थ है-वस्तुका भिन्न भिन्न दृष्टि-बिंदुओंसे विचार करना, देखना या कहना । एक ही वस्तुमें अमुक अमुक अपेक्षासे भिन्न भिन्न धर्मोंको स्वीकार करनेका नाम ' स्याद्वाद' है। जैसे एक ही पुरुषमें पिता, पुत्र, चचा, भतीजा, मामा, भानजा आदि व्यवहार माना जाता है, वैसे ही एक ही वस्तुम अनेक धर्म माने जाते हैं । एक ही घटमें नित्यत्व और अनित्यत्व आदि विरुद्ध रूपसे दिखाई देते हुए धर्मोको अपेक्षादृष्टिसे स्वीकार करने का नाम 'स्याद्वाद दर्शन' है। ___एक ही पुरुष अपने पिताकी अपेक्षा पुत्र, अपने पुत्रकी अपेक्षा
पिता, अपने भतीजे और भानकी अपेक्षा चचा और मामा एवं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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अपने चचा और मामाकी अपेक्षा भतीजा और भानना होता है । प्रत्येक मनुष्य जानता है कि इस प्रकार परस्पर विरुद्ध दिखाई देनेवाली बातें भी भिन्न भिन्न अपेक्षाओंसे, एक ही मनुष्यमें स्थित रहती हैं । इसी तरह नित्यत्व आदि परस्पर विरोधी धर्म मी एक ही घट भिन्न भिन्न अपेक्षाओंसे क्यों नहीं माने जा सकते हैं ? ___पहिले इस बातका विचार करना चाहिए कि 'घट' क्या पदार्थ है ? हम देखते हैं कि एक ही मिट्टीमेंसे घड़ा, फँडा, सिकोरा आदि पदार्थ बनते हैं। घडा फोड़ दो और उसी मिट्टीसे बने हुए कँडेको दिखाओ । कोई उसको घड़ा नहीं कहेगा । क्यों ? मिट्टी तो वही है ? कारण यह है कि उसकी सूरत बदल गई । अब वह घड़ा नहीं कहा जा सकता है । इससे सिद्ध होता है कि 'घडा' मिट्टीका एक आकार विशेष है। मगर यह बात ध्यानमें रखनी चाहिए कि, आकार विशेष मिट्टीसे सर्वथा भिन्न नहीं होता है । आकारमें परिवर्तित मिट्टी ही जब 'घड़ा' 'फँडा' आदि नामोंसे व्यवहृत होती है, तब यह कैसे माना जा सकता है कि घडेका आकार और मिट्टी सर्वथा भिन्न हैं ! इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि घड़ेका आकार और मिट्टी ये दोनों घड़ेके स्वरूप हैं । अब यह विचारना चाहिए कि उभय स्वरूपोंमें विनाशी स्वरूप कौनसा है और ध्रुव कौनसा ! यह प्रत्यक्ष दिखाई देता है कि घड़ेका आकार-स्वरूप विनाशी है । क्योंकि घड़ा फूट जाता है । घड़ेका दूसरा स्वरूप जो मिट्टी है, वह अविनाशी है । क्योंकि मिट्टीके कई पदार्थ बनते हैं,
और टूट जाते हैं, परन्तु मिट्टी तो वही रहती है । ये बातें अनुभव सिद्ध हैं।
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हम देख गये हैं कि घड़ेका एक स्वरूप विनाशी है और दूसरा ध्रुव । इससे सहजहीम यह समझा जा सकता है कि विनाशी रूपसे घडा अनित्य है और ध्रुव रूपसे घड़ा नित्य है । इस तरह एक ही वस्तमें नित्यता और अनित्यताकी मान्यताको रखनेवाले सिद्धान्तको ' स्याद्वाद' कहा गया है।
स्याद्वादका क्षेत्र उक्त नित्य और अनित्य इन दो ही बातों में पर्याप्त नहीं होता है । सत् और असत् आदि दूसरी, विरुद्धरूपमें दिखाई देनेवाली, बातें भी स्याद्वादमें आ जाती हैं । घडा
आँखोंसे प्रत्यक्ष दिखाई देता है, इससे यह तो अनायास ही सिद्ध हो जाता है कि वह · सत् ' है । मगर न्याय कहता है कि अमुक दृष्टि से वह 'असत् ' भी है।
यह बात खास विचारणीय है कि, प्रत्येक पदार्थ जो 'सत्' कहलाता है किस लिए ? रूप, रस, आकार आदि अपने ही गुणोंसे अपने ही धर्मोसे-प्रत्येक पदार्थ · सत् । होता है । दूसरेके गुणोंसे कोई पदार्थ 'सत्' नहीं हो सकता है। जो बाप कहाता है, वह अपने पुत्रसे, किसी दूसरेके पुत्रसे नहीं । यानी खास पुत्र ही पुरुषको बाप कहता है; दूसरेका पुत्र उसको बाप नहीं कह सकता । इस तरह जैसे, स्वपुत्रकी अपेक्षा जो पिता होता है वही पर-पुत्रकी अपेक्षा अपिता होता है; वैसे ही अपने गुणोंसे-अपने धर्मोसे अपने स्वरूपसे जो पदार्थ 'सत्' है, वही पदार्थ दूसरेके धर्मोसे-दूसरोंमें रहे हुए गुणोसें-दूसरोंके स्वरूपसे · सत् ' नहीं हो सकता है । जब 'सत्' नहीं हो सकता है, तब यह बात स्वतः सिद्ध हो जाती है कि वह 'असत्' होता है। __ १--अस्तित्व और नास्तित्व ।
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इस तरह भिन्न भिन्न अपेक्षाओं से 'सत्' को 'असत् ' कहने में विचारशील विद्वानोंको कोई बाधा दिखाई नहीं देगी । 'सत्' को भी ' सत् 'वनेका जो निषेध किया जाता है, वह ऊपर कहे अनुसार अपने में नहीं रही हुई विशेष धर्मकी सत्ता की अपेक्षासे । जिसमें लेखनशक्ति या वक्तृत्वशक्ति नहीं है, वह कहता है कि - " मैं लेखक नहीं हूँ।” या “मैं वक्ता नहीं हूँ ।" इन शब्दप्रयोगों में 'मैं' और साथ ही 'नहीं' का उच्चारण किया गया है वह ठीक है । कारण, हरेक समझ सकता है कि यद्यपि 'मैं' स्वयं 'सत्' हूँ, तथापि मुझमें लेखन या वक्तृत्वशक्ति नहीं है । इसलिए उस शक्तिरूपसे “मैं नहीं हूँ" । इस तरह अनुसंधान करनेसे सर्वत्र एक ही व्यक्तिमें ' सत्' और 'असत् ' का स्याद्वाद बराबर समझमें आ जाता है।
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स्याद्वाद के सिद्धान्तको हम और भी थोड़ा स्पष्ट करेंगे
सारे पैदार्थ उत्पत्ति, स्थिति और विनाश, ऐसे तीन धर्मवाले हैं । उदाहरणार्थ - एक स्वर्णकी कंठी लो । उसको तोड़कर हार बना डाला । इस बातको हरेक समझ सकता है कि कंठी नष्ट हुई और हार उत्पन्न हुआ । मगर यह नहीं कहा जा सकता है कि, कंठी सर्वथा नष्ट ही हो गई है और हार बिलकुल ही नवीन उत्पन्न हुआ है । हारका बिलकुल ही नवीन उत्पन्न होना तो उस समय माना जा सकता है, जब कि उसमें कंठीकी कोई चीज आई ही न हो । मगर जब कि कंठीका सारा स्वर्ण हारमें आ गया है; कंठीका आकार - मात्र ही बदला है; तब यह नहीं कहा जा सकता है कि हार बिलकुल नया उत्पन्न हुआ है । इसी तरह यह मानना होगा कि कंठी भी
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उत्पाद-व्यय- ध्रौव्ययुक्तं सत् । " तत्त्वार्थसूत्र, 'उमास्वाति' वाचक |
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सर्वथा नष्ट नहीं हुई है । कंठीका सर्वथा नष्ट होना तभी माना जा सकता है जब कि कंठीकी कोई चीज बाकी न बची हो । परन्तु जब कंठीका सारा स्वर्ण ही हारमें आ गया है तब यह कैसे कहा जा सकता है कि कंठी सर्वथा नष्ट हो गई है। इससे यह स्पष्ट हो गया कि,-कंठीका नाश उसके आकारका नाश मात्र है और हारकी उत्पत्ति उसके आकारकी उत्पत्ति मात्र है । कंठी और हारका स्वर्ण एक ही है । कंठी और हार एक ही स्वर्णके आकार-भेदके सिवा दूसरा कुछ नहीं है। __इस उदाहरणसे यह भली प्रकार समझमें आ गया कि कंठीको तोड़ कर हार बनानेमें-कंठीके आकारका नाश, हारके आकारकी उत्पत्ति और स्वर्णकी स्थिति इस प्रकार उत्पाद, नाश और ध्रौव्य, (स्थिति) तीनों धर्म बराबर हैं। इसी तरह घड़ेको फोड़कर कँडा बनाये हुए उदाहरणको भी समझ लेना चाहिए । घर जब गिर जाता है तब जिन पदार्थोंसे घर बना होता है वे चीजें कभी सर्वथा विलीन नहीं होती हैं। वे सब चीजें स्थूल रूपसे अथवा अन्ततः परमाणु रूपसे तो अवश्यमेव जगत्में रहती ही हैं। अतः तत्त्वदृष्टि से यह कहना अघटित है कि घट सर्वथा नष्ट हो गया है । जब कोई स्थूल वस्तु नष्ट हो जाती है तब उसके परमाणु दूसरी वस्तुके साथ मिलकर नवीन परिवर्तन खड़ा करते हैं । संसारके पदार्थ संसारहीमें, इधर उधर, विचरण करते हैं; जिससे नवीन नवीन रूपोंका प्रादुर्भाव होता है। दीपक बुझ गया, इससे यह नहीं समझना चाहिए कि वह सवथा नष्ट हो गया है । दीपकका परमाणु-समूह वैसाका वैसा ही मौजूद है । जिस परमाणु-संघातसे दीपक उत्पन्न हुआ था, वही
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परमाणु-संघात, दूसरा रूप पा जानेसे, दीपक-रूपमें न दीखकर, अंधकार-रूपमें दीखता है; अन्धकार रूपमें उसका अनुभव होता हैं । सूर्यको किरणोंसे पानीको सूखा हुआ देखकर, यह नहीं समझ लेना चाहिए कि पानीका अत्यंत अभाव हो गया है । पानी, चाहे किसी रूपमें क्यों न हो, बराबर स्थित है । यह हो सकता है कि, किसी वस्तुका स्थूलरूप नष्ट हो जाने पर उसका सूक्ष्मरूप दिखाई न दे, मगर यह नहीं हो सकता कि उसका सर्वथा अभाव ही हो जाय । यह सिद्धान्त अटल है कि न कोई मूल वस्तु नवीन उत्पन्न होती है और न किसी मूल वस्तुका सर्वथा नाश ही होता है । दूधसे बना हुआ दही, नवीन उत्पन्न नहीं हुआ। यह दूधहीका परिणाम है । इस बातको सब जानते हैं कि दुग्धरूपसे नष्ट होकर दही रूपमें आनेवाला पदार्थ भी दुग्धहीकी तरह · गोरस' कहलाता है। अत-एव गोरसका त्यागी दुग्ध और दही दोनों चीजें नहीं खा सकता है । इससे दूध और दहीमें जो साम्य है वह अच्छी तरह अनुभवमें आ सकता है। इसी प्रकार सब जगह समझना चाहिए कि, मूलतत्त्व सदा स्थिर रहते हैं, और इसमें जो अनेक परिवर्तन होते रहते हैं। यानी पूर्वपरिणामका नाश और नवीन परिणामका प्रादुर्भाव होता रहता है, वह विनाश और उत्पाद है । इससे, सारे १--" पयोत्रतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिव्रतः। अगोरसवतो नोभे तस्माद् वस्तु त्रयात्मकम् " ॥
--शास्त्रवार्तासमुच्चय, हरिभद्रसूरि । “ उत्पन्नं दधिभावेन नष्टं दुग्धतया पयः। गोरसत्वात् स्थिरं जानन् स्याद्वादविट् जनोऽपि कः ? ॥"
--अध्यात्मोपनिषद् , यशोविजयजी।
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जैन रत्न
पदार्थ उत्पत्ति, विनाश और स्थिति (प्रौव्य ) स्वभाववाले प्रमाणित होते हैं । जिसका उत्पाद, विनाश होता है उसको जैनशास्त्र ‘पर्याय' कहते हैं । जो मूल वस्तु सदा स्थायी है, वह 'द्रव्य' के नामसे पुकारी जाती है । द्रव्यसे ( मूल वस्तुरूपसे ) प्रत्येक पदार्थ नित्य है, और पर्यायसे अनित्य है। इस तरह प्रत्येक पदार्थको न एकान्त नित्य और न एकान्त अनित्य, बल्के नित्यानित्यरूपसे मानना ही 'म्याद्वाद' है।
इसके सिवा एक वस्तुके प्रति · अस्ति' 'नास्ति' का संबंध भी-जैसा कि ऊपर कहा गया है-ध्यान रखना चाहिए । घट ( प्रत्येक पदार्थ ) अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावसे 'सत् ' है
और दूसरेके द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावसे ' असत् ' है । जैसेवर्षाऋतमें, काशीमें जो मिट्टीका काला घडा बना है वह द्रव्यसे मिट्टीका है-मृत्तिकारूप है,: जलरूप नहीं है; क्षेत्रसे बनारसका है, दूसरे क्षेत्रोंका नहीं है; कालसे वर्षा ऋतुका है दूसरी ऋतुओंका नहीं है और भावसे काले वर्णवाला है अन्य वर्णका नहीं है । संक्षेपमें यह है, कि प्रत्येक वस्तु अपने स्वरूपहीसे · अस्ति' कही जा सकती है दूमरेके स्वरूपसे नहीं । जब वस्तु दूसरेके स्वरूपसे । अस्ति ' नहीं कहलाती है तब उसके विपरीत कहलायगी । यानी · नास्ति'।
स्याद्वादका एक उदाहरण और देंगे। वस्तुमात्रमें सामान्य और विशेष ऐसे दो धर्म होते हैं । सौ ‘घड़े होते हैं उनमें 'घड़ा' 'घड़ा' ऐसी एक प्रकारकी जो बुद्धि उत्पन्न होती है, वह यह बताती है कि तमाम
१--विज्ञानशास्त्र भी कहता है कि, मूलप्रकृति ध्रुव-स्थिर है और उससे उत्पन्न होनेवाले पदार्थ उसके रूपान्तर-परिणामान्तर हैं। इस तरह उत्पादविनाश और प्रौव्यके जैनसिद्धान्तका, विज्ञान ( Science ) भी पूर्णतया समर्थन करता है ।
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~~~~~~~~~~~ घडोंमें सामान्यधर्म–एकरूपता है। मगर लोग उनमें से अपने भिन्न भिन्न घड़े जब पहिचान कर उठा लेते हैं, तब यह मालूम होता है कि प्रत्येक घड़ेमें कुछ न कुछ पहिचानका चिन्ह है, यानी भिन्नता है। यह भिन्नता ही उनका विशेष-धर्म है। इस तरह सारे पदार्थोंमें सामान्य और विशेष धर्म हैं। ये दोनों धर्म सापेक्ष हैं; वस्तुसे अभिन्न हैं । अतः प्रत्येक वस्तुको सामान्य और विशेष धर्मवाली समझना ही स्याद्वाददर्शन है। ___ स्याद्वादके संबंधमें कुछ लोग कहते हैं कि, यह संशयवाद है निश्चयवाद नहीं । एक पदार्थको नित्य भी समझना और अनित्य भी, अथवा एक ही वस्तुको ‘सत् ' भी मानना और ' असत् ' भी मानना संशयवाद नहीं है तो और क्या है ! मगर विचारक लोगोंको यह कथन-यह प्रश्न अयुक्त जान पड़ता है।
--स्याद्वादके विषयमें तार्किकोंकी तर्कणाएँ अतिप्रबल हैं । हरिभद्रसूरिने 'अनेकान्तजयपताका' में इस विषयका प्रौढताके साथ विवेचन किया है। ___ २-गुजरातके प्रसिद्ध विद्वान् प्रो० आनंदशंकर ध्रुवने अपने एक व्याख्यानमें स्याद्वादके संबंधमें कहा था:--" स्याद्वादका सिद्धान्त अनेक सिद्धान्तोंको देखकर उनका समन्वय करनेके लिए प्रकट किया गया है । स्याद्वाद हमारे सामने एकीभावका दृष्टिबिन्दु उपस्थित करता है । शंकराचार्यने स्याद्वादके ऊपर जो आक्षेप किया है, उसका, मूल रहस्यके साथ कोई संबंध नहीं है । यह निश्चय है कि विविधदृष्टिबिन्दुओं द्वारा निरीक्षण किये विना किसी वस्तुका सपूर्ण स्वरूप समझमें नहीं आ सकता है । इसलिए स्याद्वाद उपयोगी और सार्थक है । महावीरके सिद्धान्तोंमें बताये गये स्याद्वादको कई संशयवाद बताते हैं। मगर मैं यह बात नहीं मानता । स्याद्वाद संशयवाद नहीं है। यह हमको एक मार्ग बताता है-यह हमें सिखाता है कि विश्वका अवलोकन किस तरह करना चाहिए। ___ काशीके स्वर्गीय महामहोपाध्याय राममिश्रशास्त्रीने स्याद्वादके लिए अपना
जो उत्तम अभिप्राय दिया था उसके लिए उनका 'सुजन-सम्मेलन' शीर्षक व्याख्यान देखना चाहिए।
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जैन - रत्न
जो संशय के स्वरूपको अच्छी तरह समझते हैं, वे स्याद्वादको संशयवाद कहने का कभी साहस नहीं करते। कई बार रातमें, काली रस्सी को देखकर संदेह होता है कि-" यह सर्प है या रस्सी ? " दूरसे वृक्षके ढूँठको देखकर संदेह होता है कि - " यह मनुष्य या वृक्ष ? " ऐसी संशयकी अनेक बातें हैं, जिनका हम कई बार अनुभव करते हैं । इस संशय में सर्प और रस्सी अथवा वृक्ष और मनुष्य दोनोंसे एक भी वस्तु निश्चित नहीं होती है । पदार्थका ठीक तरह से समझमें न आना ही संशय है । क्या कोई स्याद्वाद में इस तरहका संशय बता सकता है ? स्याद्वाद कहता है कि, एक ही वस्तुको भिन्न भिन्न अपेक्षासे; अनेक तरहसे देखो । एक ही वस्तु अमुक अपेक्षासे ' अस्ति' है यह निश्चित बात है; और अमुक अपेक्षासे ' नास्ति है, यह भी बात निश्चित है । इसी तरह, एक वस्तु अमुक दृष्टि से नित्यस्वरूप भी निश्चित है और अमुक दृष्टिसे अनित्यस्वरूप भी निश्चित है । इस तरह एक ही पदार्थको, परस्पर में विरुद्ध मालूम होनेवाले दो धर्मोंसहित होने का जो निश्चय करना है, वही स्याद्वाद है । इस स्याद्वादको 'संशयवाद' कहना मानो प्रकाशको अंधकार बताना है । अस्त्येव घटः स्यादू स्यादू नास्त्येव घटः । "
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नित्य स्याद् एव घट: स्याद्वाद के ' एव 'कार युक्त
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स्याद् अनित्य एव घटः । इन वाक्योंमें- अमुके अपेक्षासे घट
१ - - वास्तव में विरुद्ध नहीं ।
२--— स्यात् ' शब्दका अर्थ होता है-अमुक अपेक्षासे । ( सप्तभङ्कीमें, आगे इसका विशेष विवेचन है ) विशाल दृष्टिसे दर्शनशास्त्रोंका अवलोकन करनेवाले भली प्रकार से समझ सकते हैं कि, प्रत्येक दर्शनकारको 'स्याद्वाद सिद्धान्त ' स्वीकारना पड़ा है । सत्त्व, रज और तम इन तीन परस्पर विरुद्ध गुणवाली प्रकृतिको माननेवाला
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जैन- दर्शन
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सत्' ही है और अमुक अपेक्षासे घट ' असत् ' ही है । अमुक अपेक्षा से घट ' नित्य' ही है और अमुक अपेक्षासे घट ' अनित्य ' ही है - इस प्रकार निश्चयात्मक अर्थ समझना चाहिए । ' स्यात् ' शब्दका अर्थ - ' कदाचित् ' ' शायद ' या इसी प्रकारके दूसरे संशयात्मक शब्दों से नहीं करना चाहिए । निश्चयवादमें संशयात्मक शब्दका क्या काम ? घटको घटरूप से समझना जितना यथार्थ है - निश्चयरूप है, उतना ही यथार्थ - निश्चयरूप, घटको अमुक अमुक दृष्टिसे अनित्य और नित्य दोनोंरूपसे, समझना । इससे स्याद्वाद अव्यवस्थित या अस्थिर सिद्धान्त भी नहीं कहा जा सकता है |
५४९
अत्र वस्तुके प्रत्येक धर्ममें स्याद्वाद की विवेचना, जिसको 'सप्तभङ्गी' कहते हैं, की जाती है ।
सांख्यदर्शन; पृथ्वीको परमाणुरूपसे नित्य और स्थूलरूप से अनित्य माननेवाला तथा द्रव्यत्व, पृथ्वीत्व आदि धर्मोका सामान्य और विशेषरूपसे स्वीकार करनेवाली नैयायिक, वैशेषिक दर्शन; अनेक वर्णयुक्त वस्तु के अनेकवर्णाकारवाले एक चित्र - ज्ञानको–जिसमें अनेक विरूद्ध वर्ण प्रतिभासित होते हैं -- माननेवाला बौद्ध दर्शन; प्रमाता, प्रमिति और प्रमेय आकारवाले एक ज्ञानको, जो उन तीन पदार्थों का प्रतिभासरूप है, मंजूर करनेवाला मीमांसक दर्शन और ऐसे ही प्रकारान्तरसे दूसरे भी स्याद्वादको अर्थतः स्वीकार करते हैं । अन्तमें चार्वाकको भी स्याद्वादकी आज्ञामें बंधना पड़ा है । जैसे-- पृथ्वी, जल, तेज और वायु इन चार तत्त्वोंके सिवा पाँचवाँ तत्त्व चार्वाक नहीं मानते । इसलिए चार तत्त्वों से उत्पन्न होनेवाले चैतन्यको चार्वाक तत्त्वों से अलग नहीं मान सकता है । चार्वाक यह भी जानता है कि, चैतन्यको पृथिव्यादिप्रत्येकतत्त्वरूप माना जाय तो घटादि पदार्थोंके चेतन बन जानेका दोष आ जाता है । अत एव चार्वाकका यह कथन है या चार्वाकको यह कहना चाहिए कि – चैतन्य, पृथिव्यादि अनेकतत्त्वरूप है । इस तरह एक चैतन्यको अनेकवस्तुरूप- अनेकतत्त्वात्मक मानना यह स्याद्वादही की मुद्रा है।
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जैन-रत्न
१--" इच्छन् प्रधानं सत्त्वाद्यैर्विरुद्धैर्गुम्फितं गुणैः। सांख्यः संख्यावतां मुख्यो नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् " ॥
-हेमचन्द्राचार्यकृत वीतरागस्तोत्र । २--" चित्रमेकमनेकं च रूपं प्रामाणिकं वदन् । योगो वैशेषिको वापि नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् "
_ --हेमचन्द्राचार्यकृत वीतरागस्तोत्र । भावार्थ-नैयायिक और वैशेषिक एक चित्र रूप मानते हैं । जिसमें अनेक वर्ण होते हैं उसे चित्र रूप कहते हैं। इसको एकरूप और अनेकरूप कहना यह स्याद्वादकी सीमा है। ३–“विज्ञानस्यैकमाकारं नानाऽऽकारकरम्बितम् । इच्छंस्तथागतः प्राज्ञो नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् " ॥
-हेमचन्द्राचार्यकृत वीतरागस्तोत्र । ४-"जातिव्यक्त्यात्मकं वस्तु वदन्ननुभवोचितम् ।
भट्टो वापि मुरारिर्वा नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् " ॥ "अबद्धं परमार्थेन बद्धं च व्यवहारतः ।। ब्रुवाणो ब्रह्मवेदान्ती नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् " ॥ "ब्रुवाणा भिन्नभिन्नार्थान् नयभेदव्यपेक्षया ॥ प्रतिक्षिपेयु! वेदाः स्याद्वादं सार्वतान्त्रिकम् ॥
-यशोविजयजीकृत अध्यात्मोपनिषद् । भावार्थ- " जाति और व्यक्ति इन दो रूपोंसे वस्तुको बतानेवाले भट्ट और मुरारि स्याद्वादकी उपेक्षा नहीं कर सकते हैं । " " आत्माको व्यवहारसे बद्ध और परमार्थसे अबद्ध माननेवाले ब्रह्मवादी स्याद्वादका तिरस्कार नहीं कर सकते हैं।" " भिन्न भिन्न नयोंकी विवक्षासे भिन्न भिन्न अर्थाका प्रतिपादन करनेवाले वेद सर्वतन्त्रसिद्ध स्याद्वादको धिक्कार नहीं दे सकते हैं ।
५ यह ध्यानमें रखना चाहिए कि इस तरह माननेमें भी आत्माकी गरज पूरी नहीं होती है । और इस लिए आत्मसिद्धिके ग्रंथ देखने चाहिएँ । स्याद्वादके संबंध चार्वाककी सम्मति लेनी चाहिए या नाहीं, इस विषयमें हेमचंद्राचार्य वीतरागस्तोत्रमें लिखते हैं कि:
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जैन-दर्शन
सप्तभंगी ।
|
ऊपर कहा जा चुका है कि ' स्याद्वाद ' भिन्न भिन्न अपेक्षासे अस्तित्व- नास्तित्व, नित्यत्व - अनित्यत्व आदि अनेक धर्मोका एक ही वस्तु होना बताता है । इससे यह समझमें आ जाता है कि, वस्तुस्वरूप जिस प्रकारका हो, उसी रीतिसे उसकी विवेचना करनी चाहिए | वस्तुस्वरूपकी जिज्ञासावाले किसीने पूछा कि - " घड़ा क्या अनित्य है ?" उत्तरदाता यदि इसका यह उत्तर दे कि घड़ा अनित्य ही है, तो उसका यह उत्तर या तो अधूरा है या अयथार्थ है । यदि यह उत्तर अमुक दृष्टिबिन्दुसे कहा गया है तो वह अधूरा 1 क्योंकि उसमें ऐसा कोई शब्द नहीं है जिससे यह समझमें आवे कि यह कथन अमुक अपेक्षासे कहा गया है। अतः वह उत्तर पूर्ण होने के लिए किसी अन्य शब्दकी अपेक्षा रखता है । अगर वह संपूर्ण दृष्टिबिन्दुओं के विचारका परिणाम है तो अयथार्थ है । क्योंकि घड़ा
प्रत्येक पदार्थ ) संपूर्ण दृष्टिबिन्दुओं से विचार करने पर अनित्यके साथ ही नित्य भी प्रमाणित होता है । इससे विचारशील समझ सकते हैं कि - वस्तुका कोई धर्म बताना हो तब इस तरह बताना चाहिए कि जिससे उसका प्रतिपक्षी धर्मका उसमेंसे लोप न हो जाय । अर्थात् किसी भी वस्तुको नित्य बताते समय इस कथनमें कोई ऐसा शब्द
५५१
((
सम्मतिर्विमतिर्वापि चार्वाकस्य न मृग्यते । परलोकाऽऽत्ममोक्षेषु यस्य मुह्यति शेमुषी " ॥
भावार्थ -- स्याद्वादके संबंध में चार्वाककी, जिसकी बुद्धि परलोक, आत्मा और मोक्षके संबंध में मूढ हो गई है, सम्मति या विमति ( पसंदगी या नापसंदगीदेखने की जरूरत नहीं है ।
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जैन-रत्न
भी जरूर आना चाहिए कि जिससे उस वस्तु के अंदर रहे हुए अनित्यत्व धर्मका अभाव मालम न हो । इसी तरह किसी वस्तुको अनित्य बताने में भी ऐसा शब्द अंदर रखना चाहिए कि जिससे उस वस्तुगत नित्यत्वका अभाव सूचित न हो । संस्कृत भाषामें ऐसा शब्द 'स्यात् । है । ' स्यात् ' शब्दका अर्थ होता है 'अमुक अपेक्षासे' । 'स्यात् । शब्द अथवा इसीका अर्थवाची 'कथंचित् शब्द' या 'अमुक अपेक्षासे' वाक्य जोड़कर 'स्यादनित्य एव घटः" घट अमुक अपेक्षासे अनित्य ही है, इस तरह विवेचन करनेसे, घटमें अमुक अन्य अपेक्षासे जो नित्यत्वधर्म रहा हुआ है, उसमें बाधा नहीं पहुँचती है । इससे यह समझमें आ जाता है कि वस्तु. स्वरूपके अनुसार शब्दोंका प्रयोग कैसे करना चाहिए । जैनशास्त्रकार कहते हैं कि वस्तुके प्रत्येक धर्मके विधान और निषेधसे संबंध रखनेवाले शब्दप्रयोग सात प्रकारके हैं । उदाहरणार्थ हम ‘घट' को लेकर इसके अनित्यधर्मका विचार करेंगे।
प्रथम शब्दप्रयोग " यह निश्चित है कि घट अनित्य है; मगर वह अमुक अपेक्षासे ।" इस वाक्यते अमुक दृष्टिसे घटमें मुख्यतया अनित्यधर्मका विधान होता है। ..दूसरा शब्दप्रयोग-" यह निःसन्देह है कि घट अनित्यधर्मरहित है, मगर अमुक अपेक्षासे " इस वाक्यद्वार। घटमें, अमुक अपेक्षासे, अनित्यधर्मका मुख्यतया निषेध किया गया है। १--इसी तरह ‘अस्तित्व' आदि धर्मोमें भी समझ लेना चाहिए ।
२--'स्यात् ' शब्द या उसीका अर्थवाची दूसरा शब्द जोड़े विना भी वचनव्यवहार होता है; मगर व्युत्पन्न पुरुषको सर्वत्र अनेकान्त--दृष्टिका अनुसंधान रहा करता है।
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जैन-दर्शन
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तीसराशब्द प्रयोग-किसीने पूछा कि-" घट क्या अनित्य और नित्य दोनों धर्मवाला है ?" उसके उत्तरमें कहना कि-"हाँ, घट अमुक अपेक्षासे, अवश्यमेव नित्य और अनित्य है।" यह तीसरा वचन-प्रकार है । इस वाक्यसे मुख्यतया अनित्य धर्मका विधान और उसका निषेध, क्रमशः किया जाता है। ___ चतुर्थ शब्दप्रयोग—" घट किसी अपेक्षासे अवक्तव्य है।" घट अनित्य और नित्य दोनों तरहसे क्रमशः बताया जा सकता है, जैसा कि तीसरे शब्दप्रयोगमें कहा गया है। मगर यदि विना क्रमयुगपत् ( एक ही साथ ) घटको अनित्य और नित्य बताना हो तो, उसके लिए जैनशास्त्रकारोंने,-'अनित्य' 'नित्य' या दूसरा कोई शब्द उपयोगमें नहीं आ सकता है इसलिए,-'अवक्तव्य' शब्दका व्यवहार किया है। यह भी ठीक है। घट जैसे अनित्य रूपसे अनुभवमें आता है उसी तरह नित्य रूपसे भी अनुभवमें आता है। इससे घट जैसे केवल अनित्य रूपमें नहीं ठहरता वैसे ही केवल नित्यरूपमें भी घटित नहीं होता है । बल्के वह नित्यानित्यरूप विलक्षणजातिवाला ठहरता है। ऐसी हालतमें घटको यदि यथार्थ रूपमें नित्य और अनित्य दोनों तरहसे-क्रमशः नहीं किन्तु एक ही साथ-बताना हो तो शास्त्रकार कहते हैं कि इस तरह बतानेके लिए कोई शब्द नहीं है। अत: घट अवक्तव्य है। .. - -..--- ___ १ शब्द एक भी ऐसा नहीं है कि जो नित्य और अनित्य दोनों धमोंको एक ही साथमें, मुख्यतया प्रतिपादन कर सके । इस प्रकारसे प्रतिपादन करनेकी शब्दोंमें शक्ति नहीं है । 'नित्यानित्य' यह समास-वाक्य भी कमहीसे नित्य
और अनित्य धर्मोंका प्रतिपादन करता है । एक साथ नहीं । " सकृदुच्चरितं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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जैन - रत्न
चार वचन - प्रकार बताये गये। उनमें मूल तो प्रारंभ के दो ही हैं । पिछले दो वचन - प्रकार प्रारंभ के दो वचनप्रकार के संयोग से उत्पन्न हुए हैं । " कथंचित्-अमुक अपेक्षासे घट अनित्य ही है । " “ कथंचित्-अमुक अपेक्षा से घट नित्य ही है ।" ये प्रारंभके दो वाक्य जो अर्थ बताते हैं वही अर्थ तीसरा वचन - प्रकार क्रमशः बताता है; और उसी अर्थको चौथा वाक्य युगपत् - एक साथ बताता है । इस चौथे वाक्य पर विचार करनेसे यह समझ में आ सकता है कि, घट किसी अपेक्षासे अवक्तव्य भी है । अर्थात् किसी अपेक्षा से घटमें ' अवक्तव्य ' धर्म भी है; परन्तु वटको कभी एकान्त अवक्तव्य नहीं मानना चाहिए । यदि ऐसा मानेंगे तो घट जो अमुक अपेक्षा से अनित्य और अमुक अपेक्षासे नित्य रूपसे अनुभव में आता है, उसमें बाधा आ जायगी । अतएव ऊपर के चारों वचनप्रयोगोंको ' स्यात् ' शब्दसे युक्त, अर्थात् कथंचित्-अमुक अपेक्षासे, समझना चाहिए ।
I
५५४
-
पदं सकृदेवार्थे गमयति " अर्थात् " एकं पदमेकंदैकधर्मावच्छिन्नमेवार्थ बोधयति " । इस न्यायसे, " एक शब्द, एकवार एक ही धर्मकोएक ही धर्मसे युक्त अर्थको प्रकट करता है " ऐसा अर्थ निकलता है । और इससे यह समझना चाहिए कि- सूर्य और चन्द्र इन दोनोंका वाचक पुष्पदंत शब्द ( ऐसे ही अनेक अर्थवाले दूसरे शब्द भी ) सूर्य और चन्द्रका क्रमशः ज्ञान कराते हैं, एक साथ नहीं । इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि यदि अनित्य- नित्य धर्मोंको एक साथ बतलाने के लिए कोई नवीन सांकेतिक शब्द गढा जायगा तो, उससे भी काम नहीं चलेगा |
यहाँ यह बात ध्यानमें रखनी चाहिए कि एक ही साथमें, मुख्यतासे नहीं कहे जा सके ऐसे अनित्यत्व - नित्यत्व धर्मोका 'अवक्तव्य' शब्द से भी कथन नहीं हो सकता है । किन्तु, वे धर्म मुख्यतया एक ही साथ नहीं कहे जा सकते हैं, इस लिए वस्तु में ' अवक्तव्य नामका धर्म प्राप्त होता है, कि जो '
अवक्तव्य ' धर्म
(
अवक्तव्य ' शब्दसे कहा जाता है ।
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,
·
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जैन- दर्शन
इन चार वचन प्रकारोंसे अन्य तीन वचन - प्रयोग भी उत्पन्न
किये जा सकते हैं ।
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पाँचवाँ वचन - प्रकार - " अमुक अपेक्षासे घट अनित्य होनेके साथ ही अवक्तव्य भी है । "
I
छठा वचन - प्रकार –" असुक अपेक्षासे घट नित्य होनेके साथ ही अवक्तव्य भी है । "
सातवाँ वचन - प्रकार - " अमुक अपेक्षासे नित्य - अनित्य होनेके साथ ही अवक्तव्य भी है । "
सामान्यतया, घटका तीन तरहसे - नित्य, अनित्य और अवक्तव्यरूपसे - विचार किया जा चुका है। इन तीन वचन प्रकारों को उक्त चार वचन-प्रकारोंके साथ मिला देनेसे सात वचनप्रकार होते हैं । इन सात वचन - प्रकारोंको जैन ' सप्तभंगी ' कहते हैं । सप्त' यानी सात, और 'भंग' यानी वचनप्रकार । अर्थात् सात वचन - प्रकार के समूहको सप्तभंगी कहते हैं । इन सातों वचन प्रयोगोंको भिन्न भिन्न अपेक्षासे - भिन्न भिन्न दृष्टिसे - समझना चाहिए। किसी भी वचनप्रकारको एकान्त दृष्टि से नहीं मानना चाहिए । यह बात तो सरलता से समझ में आ सकती है कि, यदि एक वचन - प्रकारको एकान्तदृष्टि से मानेंगे तो दूसरे वचनप्रकार असत्य हो जायँगे । '
"6
१ " सर्वत्राऽऽयं ध्वनिर्विधिप्रतिषेधाभ्यां स्वार्थमभिदधानः सप्तभङ्गीमनुगच्छति ॥ " एकत्र वस्तुनि एकैकधर्मपर्यनुयोगवशाद् अविरोधेन व्यस्तयोः समस्तयोश्च विधिनिषेधयोः कल्पनया स्यात्काराङ्कितः सप्तधा वाक्प्रयोगः सप्तभङ्गी ।”
""
"
स्यादस्त्येव सर्वम् इति विधिकल्पनया प्रथमो भङ्गः ।
6"
स्याद् नास्त्येव सर्वम्, इति निषेधकल्पनया द्वितीयः । "
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५५६
जैन-रत्न
यह सप्तभंगी ( सात वचनप्रयोग ) दो भागोंमें विभक्त की जाती है । एकको कहते हैं 'सकलादेश' और दूसरेको · विकलादेश' । " अमुक अपेक्षासे घट अनित्य ही है।” इस वाक्यसे अनित्य धर्मके साथ रहते हुए घटके दूसरे धर्मोको बोधन करानेका कार्य 'सकलादेश' करता है । ' सकल' यानी तमाम धर्मोको 'आदेश' यानी कहनेवाला । यह 'प्रमाणवाक्य ' भी कहा जाता है । क्योंकि यह प्रमाण वस्तुके तमाम धर्मोको विषय करनेवाला माना जाता है । " अमुक अपेक्षासे घट अनित्य ही है।" इस वाक्यसे घटके केवल 'अनित्य ' धर्मको बतानेका कार्य — विकलादेश' का है । ' विकल' यानी अपूर्ण । अर्थात् अमुक वस्तुधर्मको · आदेश' यानी कहनेवाला — विकलादेश' है । विकलादेश ' नय'-वाक्य माना गया है । 'नय' प्रमाणका अंश है । प्रमाण सम्पूर्ण वस्तुको ग्रहण करता है, और नय उसके अंशको ।
इस बातको तो हरेक समझता है कि, शब्द या वाक्यका कार्य अर्थबोध कराना होता है ! वस्तु के सम्पूर्ण ज्ञानको प्रमाण' कहते हैं और उस ज्ञानको प्रकाशित करनेवाला वाक्य 'प्रमाणवाक्य' ___ " स्यादस्त्येव स्याद्नास्त्येव, इति क्रमतो विधिनिषेधकल्पनया तृतीयः।"
" स्याअवक्तव्यमेव, इति युगपद्विधिनिषेधकल्पनया चतुर्थः ।"
" स्यादस्त्येव स्यादवक्तव्यमेव, इति विधिकल्पनया युगपद् विधिनिषेधकल्पनया व पञ्चमः ।"
" स्याद् नास्त्येव स्यादवक्तव्यमेव, इति निषेधकल्पनया युगपत् विधिनिषेधकल्पनया च षष्ठः ।"
" स्यादस्त्येव, स्याद् नास्त्येव, स्यादवक्तव्यमेव, इति क्रमतो विधिनिषेधकल्पनया युगपत् विधिनिषेधकल्पनया च सप्तमः।"
-प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकारः, वादि देवसूरि ।
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जैन- दर्शन
कहलाता है । वस्तुके अमुक अंशके ज्ञानको 'नय' कहते हैं और उस अमुक अंशके ज्ञानको प्रकाशित करनेवाला वाक्य ' नयवाक्य ' कहलाता है । इन प्रमाणवाक्यों और नयवाक्योंको सात विभागामें बाँटनेहीका नाम ' सप्तभंगी ' है ।'
प्रमाणकी व्याख्या 'न्यायपरिभाषा ' में आ चुकी है । अब नयका : थोडासा वर्णन किया जायगा ।
५५७
नय ।
एक ही वस्तुके विषयमें भिन्न भिन्न दृष्टिबिन्दुओं से, उत्पन्न होनेवाले भिन्न भिन्न यथार्थ अभिप्रायोंको ' नय' कहते हैं । एक ही ' भिन्न भिन्न अपेक्षाओं से काका, मामा, भतीजा, भानजा, मनुष्य भाई, पुत्र, पिता, ससुर और जमाई समझा जाता है, सो यह 'नय' के सिवा और कुछ नहीं है। हम यह बता चुके हैं, कि वस्तुमें एक ही धर्म नहीं है । अनेक धर्मवाली वस्तुमें अमुक धर्मसे संबंध रखनेवाला जो अभिप्राय बँधता है उसको जैनशास्त्रोंने 'नय ' संज्ञा दी है । वस्तुमें जितने धर्म हैं और उससे संबंध रखनेवाले जितने अभिप्राय - वे सब ' नय' कहलाते हैं ।
I
हैं
।
एक ही घट वस्तु, मूल द्रव्य - मिट्टीकी अपेक्षा विनाशी नहीं है: नित्य है । परन्तु घटके आकाररूप परिणामकी दृष्टिसे विनाशी है ।
१ – यह विषय अत्यंत गहन है; विस्तृत है । सप्तभंगीतरंगिणीनामा जैन तर्कग्रंथमें इस विषयका प्रतिपादन किया गया है । 'सम्मतिप्रकरण' आदि - जैन-न्यायशास्त्रोंमें भी इस विषयका बहुत गंभीरता से विचार किया गया है ।
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जैन - रत्न
इस तरह भिन्न भिन्न दृष्टि बिन्दुसे घटको नित्य और विनाशी माननेवाली दोनों मान्यताएँ ' नय ' हैं |
इस बात को सब मानते हैं कि आत्मा नित्य है । और यह बात 1 है भी ठीक; क्योंकि उसका नाश नहीं होता है । नगर इस बातका सत्रको अनुभव हो सकता है, कि उसका परिवर्तन विचित्र तरहसे होता है । कारण, आत्मा किसी समय पशु अवस्था में होता है, किसी समय मनुष्य-स्थिति प्राप्त करता है; कभी देवगतिका भोक्ता बनता है और कभी नरकादि दुर्गतियोंमें जाकर गिरता है । यह कितना परिवर्तन है ? एक ही आत्माकी यह कैसी विलक्षण अवस्था है ? यह क्या बताती है ? आत्माकी परिवर्तनशीलता । एक शरीर के परिवर्तन से भी, यह समझ में आ सकता हैं कि, आत्मा परिवर्तनकी घटमालमें फिरता रहता है । ऐसी स्थितिमें यह नहीं माना जा सकता है कि, आत्मा सर्वथा - एकान्ततः नित्य है । अत एव यह माना जा सकता है कि, आत्मा न एकान्ततः नित्य है; न एकान्ततः अनित्य है; बल्के नित्यानित्य है । इस दशा में आत्मा जिस दृष्टिसे नित्य है वह, और जिस दृष्टिसे अनित्य है वह, दोनों ही दृष्टियाँ, ' नय' कहलाती हैं ।
यह बात सुस्पष्ट और निस्सन्देह है कि, आत्मा शरीरसे जुदा है । तो भी यह ध्यान में रखना चाहिए कि, आत्मा शरीरमें ऐसे ही व्याप्त हो रहा है जैसे कि मक्खन में घृत | इसीसे शरीर के किसी भी भाग में जब चोट पहुँचती है, तब तत्काल ही आत्माको वेदना होने लगती है । शरीर और आत्माके ऐसे प्रगाढ संबंध को लेकर जैनशास्त्रकार कहते हैं कि, यद्यपि आत्मा शरीर से वस्तुतः भिन्न है, तथापि सर्वथा नहीं | यदि सर्वथा भिन्न मानेंगे तो, आत्माको, शरीर पर आघात
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जैन- दर्शन
लगने से, कुछ कष्ट नहीं होगा, जैसे कि एक आदमीको आघात पहुँचा - नेसे दूसरे आदमीको कष्ट नहीं होता है; परन्तु आबाल-वृद्धका यह अनुभव है कि, शरीर पर आघात होनेसे आत्माको उसकी वेदना होती है । इसलिए किसी अंशमें आत्मा और शरीरका अभेद भी मानना चाहिए । अर्थात् शरीर और आत्मा भिन्न होने के साथ ही कथंचित् अभिन्न भी हैं । इस स्थितिमें जिस दृष्टि से आत्मा और शरीर भिन्न हैं वह, और जिस दृष्टिसे आत्मा और शरीर अभिन्न हैं वह, दोनों दृष्टियाँ ' नय ' कहलाती हैं ।
जो अभिप्राय, ज्ञानसे मोक्ष होना बताता है, वह 'ज्ञाननय ' है और जो अभिप्राय क्रियासे मोक्षसिद्धि बताता है वह ' क्रियानय ' है । ये दोनों अभिप्राय ' नय ' हैं ।
I
बाह्य
जो दृष्टि, वस्तुकी तात्त्विकस्थितिको अर्थात् वस्तुके मूलस्वरूपको स्पर्श करनेवाली है, वह ' निश्चयनय' है और जो दृष्टि वस्तुकी अवस्थाकी ओर लक्ष खींचती है वह ' व्यवहारनय' है । निश्चयन बताता है कि आत्मा ( संसारी जीव ) शुद्ध - बुद्ध - निरंजन - सच्चिदानंदमय है और व्यवहार नय बताता है कि आत्मा, कर्मबद्ध अवस्थामें मोहवान् - अविद्यावान् है । इस तरह के निश्चय और व्यवहार के अनेक उदाहरण हैं ।
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6
अभिप्राय बतानेवाले शब्द, वाक्य, शास्त्र या सिद्धान्त सब नय ' कहलाते हैं | उक्त नय अपनी मर्यादामें माननीय है । परन्तु यदि वे एक दूसरेको असत्य ठहराने के लिए तत्पर होते हैं तो अमान्य हो जाते हैं । जैसे - ज्ञानसे मुक्ति बतानेवाला सिद्धान्त, और क्रियासे मुक्ति बतानेवाला सिद्धान्त - ये दोनों सिद्धान्त, स्वपक्षका
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जैन-रत्न
मण्डन करते हुए, यदि वे एक दूसरेका खण्डन करने लगे तो तिरस्कारके पात्र हैं। इस तरह घटको अनित्य और नित्य बतानेवाले सिद्धान्त, तथा आत्मा और शरीरका भेद और अभेद बतानेवाले सिद्धान्त, यदि एक दूसरेपर आक्षेप करनेको उतारु हों, तो वे
अमान्य ठहरते हैं। ___ यह समझ रखना चाहिए कि नय आंशिक सत्य है। आंशिक सत्य सम्पूर्ण सत्य नहीं माना जा सकता है । आत्माको अनित्य या घटको नित्य मानना सर्वाशमें सत्य नहीं हो सकता है । जो सत्य जितने अंशोंमें हो उसको उतने ही अंशोंमें मानना युक्त है। __ इसकी गिनती नहीं हो सकती है कि वस्तुतः नय कितने हैं। अभिप्राय या वचनप्रयोग जब गणनासे बाहिर हैं तब नय जो उनसे जुदा नहीं है-कैसे गणनाके अंदर हो सकते हैं। यानी नयोंकी भी गिनती नहीं हो सकती है। ऐसा होने पर भी नयोंके मुख्यतया दो भेद बताये गये हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । मूल पदार्थको 'द्रव्य' कहते हैं। जैसे-घड़ेकी मिट्टी । मूल द्रव्यके परिणामको
पर्याय' कहते हैं। मिट्टी अथवा अन्य किसी द्रव्यमें जो परिवर्तन होता है वह सब पर्याय है। द्रव्यार्थिक का मतलब है, मूल पदार्थों पर लक्ष्य देनेवाला अभिप्राय; और 'पर्यायार्थिक नय' का मतलब है पर्यायोंको लक्ष्य करनेवाला अभिप्राय । द्रव्यार्थिक नय सब पदाऑको नित्य मानता है। जैसे-घड़ा मूलद्रव्य-मृत्तिका रूपसे नित्य ह । पर्यायार्थिकनय सब पदार्थों को अनित्य मानता है । जैसे-स्वर्णका १" जावइया वयणपहा तावइया चेव हुंति नयवाया।"
--' सम्मतिसूत्र' 'सिद्धसेनदिवाकर'
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जैन-दर्शन
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माला, जंजीर कड़े, अंगूठी आदि पदार्थोंमें परिवर्तन होता रहता है। इस, अनित्यत्वको परिवर्तन होने जितना ही समझना चाहिए, क्योंकि सर्वथा नाश या सर्वथा अपूर्व उत्पाद किसी वस्तुका कमी नहीं होता है। __ प्रकारान्तरसे नयके सात भेद बताये गये हैं। नैगम् संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवम्भूत।
नैगम-'निगम' का अर्थ है संकल्प-कल्पना । इस कल्पनासे जो वस्तुव्यवहार होता है वह नैगमनय कहलाता है । यह नय तीन प्रकारका होता है,- भूत नैगम भविष्यद् नैगम' और ' वर्तमान नैगम' । जो वस्तु हो चुकी है उसको वर्तमानरूपमें व्यवहार करना ‘भूत नैगम' है। जैसे-आज वही दीवालीका दिन है कि जिस दिन महावीर स्वामी मोक्षमें गये थे।" यह भूतकालका वर्तमानमें उपचार है । महावीरके निर्वाणका दिन आज (आज दीवालीका दिन ) मान लिया जाता है । इस तरह भूतकालके वर्तमानमें उपचारके अनेक उदाहरण हैं । होनेवाली वस्तुको हुई कहना ' भविष्यद नैगम' है । जैसे चावल पूरे पके न हों, पक जानेमें थोड़ी ही देर रही हो, उस समय कहा जाता है कि " चावल पक गये हैं।" ऐसा वाक्यव्यवहार प्रचलित है। अथवा-अर्हन् देवको मुक्त होनेके पहिले ही, कहा जाता है कि मुक्त हो गये। यह 'भविष्यदू नैगमनय' है। ईंधन, पानी आदि चावल पकानेका सामान इकट्ठा करते हुए मनुष्यको कोई पूछे कि क्या करते हो?
१ अर्तीतस्य वर्तमानवत् कथनं यत्र स भूतनैगमः । यथा-" तदेवाऽय दीपोत्सवपर्व यस्मिन् वर्द्धमानस्वामी मोक्षं गतवान् "
-नयप्रदीप, यशोविजयजी।
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जैन-रत्न wwmmmmmmmmmmmmmmm वह उत्तर दे कि-" मैं चावल पकाता हूँ।" यह उत्तर वर्तमान नैगमनय' है। क्योंकि चावल पकानेकी क्रिया यद्यपि वर्तमानमें प्रारंम नहीं हुई है तो भी वह वर्तमानरूपमें बताई गई है।
संग्रह सामान्यतया वस्तुओंका समुच्चय करके कथन करना ' संग्रह ' नय है । जैसे-" सारे शरीरोंका आत्मा एक है।" इस कथनसे वस्तुत: सब शरीरोंमें एक आत्मा सिद्ध नहीं होता है। प्रत्येक शरीरमें आत्मा भिन्न भिन्न ही है; तथापि सब आत्माओंमें रही हुई समान जातिकी अपेक्षासे कहा जाता है कि-"सब शरीरोंमें आत्मा एक है।"
व्यवहार-यह नय वस्तुओंमें रही हुई समानताकी उपेक्षा करके, विशेषताकी ओर लक्ष खींचता है । इस नयकी प्रवृत्ति लोकव्यवहारकी तरफ है । पाँच वर्णवाले भवरेको 'काला मँवर । बताना इस नयकी पद्धति है । ' रस्ता आता है । ' कुंडा झरता है ' इन सब उपचारोंका इस नयमें समावेश हो जाता है। ___ ऋजुसूत्र-वस्तुमें होते हुए नवीन नवीन रूपान्तरोंकी तरफ यह नय लक्ष्य आकर्षित करता है । स्वर्णकी, मुकुट, कुंडल आदि, जो पर्यायें हैं उन पर्यायोंको यह नय देखता है । पर्यायोंके अलावा स्थायी द्रव्यकी ओर यह नय हमात नहीं करता है। इसीलिए पर्यायें विनश्वर होनेसे सदास्थायी द्रव्य इस नयकी दृष्टिमें कोई चीज नहीं है।
१ इसके सिवा अन्य प्रकारसे बहुतसे भेद-प्रभेदोंकी व्याख्या इस नक्में आती है।
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जैन-दर्शन
५६३ शब्द-इस नयका काम है-अनेक पर्यायशब्दोंका एक अर्थ मानना । यह नय बताता है कि, 'कपड़ा ' 'वस्त्र' 'वसन'
आदि शब्दोंका अर्थ एक ही है। __समभिरूढ-इस नयकी पद्धति है-पर्यायशब्दोंके भेदसे अर्थका भेद मानना । यह नय कहता है, कि, कुंभ, कलश, घट आदि शब्द भिन्न अर्थवाले हैं, क्योंकि कुंभ, कलश, घट आदि शब्द यदि भिन्न अर्थवाले न हों तो घट, पट, अश्व आदि शब्द भी भिन्न अर्थवाले न होने चाहिएँ; इसलिए शब्दके भेदसे अर्थका भेद है । ___ एवंभूत-इस नयकी दृष्टि से शब्द, अपने अर्थका वाचक ( कहनेवाला ) उस समय होता है, जिस समय वह अर्थ-पदार्थ उस शब्दकी व्युत्पत्तिमेंसे क्रियाका जो भाव निकलता हो, उस क्रिया प्रवर्ता हुआ हो । जैसे—गो' शब्दकी व्युत्पत्ति है. गच्छतीति गौः " अर्थात् जो गमन करता है उसे गो कहते हैं; मगर वह 'गो' शब्द इस नयके अभिप्रायसे-प्रत्येक गऊका वाचक नहीं हो सकता है; किन्तु केवल गमन-क्रियामें प्रवृत्त-चलती हुईगायका ही वाचक हो सकता है । इस नयका कथन है कि, शब्दकी व्युत्पत्तिके अनुमार ही यदि उमका अर्थ होता है तो उस अर्थको वह शब्द कह सकता है।
यह बात भली प्रकारसे समझा कर कही जा चुकी है कि ये सातों नये एक प्रकारके दृष्टिबिन्दु हैं। अपनी अपनी मर्यादामें स्थित रहकर, अन्य दृष्टिबिन्दुओं का खंडन न करनेहीमें नयोंकी साधुता है। मध्यस्थ पुरुष मब नयोंको भिन्न भिन्न दृष्टि से मान दे कर
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५६४
जैन-रत्न
हैं
तत्त्वक्षेत्रकी विशाल सीमाका अवलोकन करते हैं। इसीलिए वे, राग-द्वेषकी बाधा न होनेसे, आत्माकी निर्मल दशा प्राप्त कर सकते हैं।'
जैनदृष्टिकी उदारता। ऊपर स्याद्वादका कथन किया जा चुका है । उसको पढ़कर पाठक यह समझ गये होंगे कि विविध दृष्टिबिन्दुओंसे वस्तुका निरीक्षण करनेकी शिक्षा देनेवाला जैनधर्म कितना उदार है। जैनधर्मकी जितनी शिक्षाएँ हैं, जितने उपदेश हैं उन सबका साध्यबिन्दु-अन्तिम ध्येय राग-द्वेषको नष्ट करना है । अत-एव जैनधर्म के प्रचारक मापुरुषोंने तत्त्वविवेचनमें किसी प्रकारका पक्षपात न कर मध्यस्थ भाव रखे हैं। उनके ग्रंथ इस बातके प्रमाण हैं। उन्होंने सबसे पहिले यह उपदेश दिया है कि-" किसी तत्त्वमार्गको ग्रहण करनेके पहिले, शुद्ध हृदयसे और तटस्थदृष्टिसे, उसका खूब विचार कर लो।" उनके लेखोंमें, किसी भी दर्शनके सिद्धान्तको एकदम नष्ट करनेकी संकुचित वृत्ति नहीं है । उनके ग्रंथ बताते हैं कि, उनका लक्ष्य प्रत्येक सिद्धान्तका समन्वय करनेकी ओर रहा है । ' शास्त्रवार्तासमुच्चय' नामक ग्रंथ देखो। उस ग्रंथमें हमारे कथनका प्रमाण मिलेगा । इस ग्रंथमें ईश्वर जगत्कर्ता नहीं है' इस बातको सिद्ध करनेके बाद लिखा गया है कि,
१ 'नय ' का विषय गंभीर है । इसके अंदर भिन्न भिन्न अनेक व्याख्याएं समाविष्ट हैं । उमास्वाति महाराजकृत तत्त्वार्थसूत्र और यशोविजयजी उपाध्यायकृत नयप्रदीप, नयोपदेश नयरहस्य आदि तथा अन्य अनेक ग्रन्थोंसे यह विषय विशेषरूपसे-स्पष्टतया समझमें आ सकता है।
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जैन-दर्शन
" ततश्चेश्वरकर्तृत्ववादोऽयं युज्यते परम् ।
सम्यन्यायाविरोधेन यथाऽऽहुः शुद्धबुद्धयः ॥" "ईश्वरः परमात्मैव तदुक्तव्रतसेवनात् । यतो मुक्तिस्ततस्तस्याः कर्ता स्याद् गुणमावतः ॥" " तदनासेवनादेव यत्संसारोऽपि तत्त्वतः ।
तेन तस्यापि कर्तृत्वं कल्प्यमानं न दुष्यति ॥" मावार्थ-ईश्वरकर्तृत्वका मत इस तरहकी युक्तिसे घटित भी किया जा सकता है कि-ईश्वर-परमात्माके बताये हुए मार्गका सेवन करनेसे मुक्ति प्राप्त होती है । इस लिए, उपचारसे यह कहा जा सकता है कि, मुक्तिका देनेवाला ईश्वर है। उपचारसे यह भी कहा जा सकता है कि, ईश्वर-दर्शित मार्गका सेवन न करनेसे जीवको संसारमें भटकना पड़ता है। यह ईश्वरोपदेश नहीं माननेका दंड है।
जिनको इस वाक्य पर विश्वास हो गया है कि-ईश्वर जगत्कर्ता है; उनके लिए उक्त प्रकार की कल्पना की गई है। यह बात
"कर्ताऽयमिति तद्वाक्ये यतः केषाश्चिदादरः।
अतस्तदानुगुण्येन तस्य कर्तृत्वदेशना" ॥ इस श्लोकसे स्पष्ट हो जाती है । दूसरी तरहसे विना उपचारके मी ईश्वर जगत्कर्ता बताया गया है।
“परमैश्वर्ययुक्तत्वादू मत आत्मैव वेश्वरः ।
स च कर्तेति निर्दोषः कर्तृवादो व्यवस्थितः ॥" वास्तविक रीत्या तो आत्मा ही ईश्वर है। क्योंकि प्रत्येक आत्मामें ईश्वर-शक्ति मौजूद है । आत्मारूपी ईश्वर सब तरहकी
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क्रियाएँ करता रहता है, इसलिए वह कर्ता है । इस प्रकारसे कर्तृत्ववाद (जगत्कर्तृत्ववाद ) की व्यवस्था हो सकती है। आगे और भी लिखा है किः" शास्त्रकारा महात्मानः प्रायो वीतस्पृहा मवे ।
सत्त्वार्थसंप्रवृत्ताश्च कथं तेऽयुक्तमाषिणः ॥" " अभिप्रायस्ततस्तेषां सम्यग्मृग्यो हितैषिणा ।
न्यायशास्त्राविरोधेन यथाऽऽह मनुरप्यदः " ॥ " आर्ष च धर्मशास्त्रं च वेदशास्त्राविरोधिना ।
यस्तāणानुसन्धत्ते स धर्म वेद नेतरः ॥ भावार्थ-जहाँ ईश्वर जगत्कर्ता बताया गया हो, वहाँ उक्त अभिप्रायहीसे उसको कर्ता समझना चाहिए । परमार्थ दृष्टिसे कोई भी शास्त्रकर्ता ईश्वरको जगत्कर्ता नहीं बता सकता है । क्योंकि शास्त्र बनानेवाले ऋषि-महात्मा प्रायः परमार्थदृष्टिवाले और लोकोपकारक. वृत्तिवाले होते हैं, इस लिए वे अयुक्त-प्रमाणबाधित उपदेश नहीं दे सकते हैं । इसलिए उनके कथनोंके रहस्यको जानना चाहिए। खोजना चाहिए कि उन्होंने अमुक बात किस आशयसे कही है। __इसके बाद कपिलके प्रकृतिवादकी समीक्षा आती है। सांख्यमतानुप्सारी विद्वानोंने प्रकृतिवादकी जो विवेचना की है, उससे असंतोष प्रकट कर उन्होंने प्रकृतिवादमें कपिलका 'क्या आशय है उसका प्रतिपादन किया है । अन्तमें वे लिखते हैं कि:
"एवं प्रकृतिवादोऽपि विज्ञेयः सत्य एव हि । कपिलोक्तत्वतश्चैव दिव्यो हि स महामुनिः ॥"
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भावार्थ-इस तरह (प्रकृतिवादका जो वास्तविक रहस्य बताया गया है उसके अनुसार ) प्रकृतिवादको यथार्य ही जानना चाहिए । अलावा इसके वह कपिलका उपदेश है, इसलिए सत्य है; क्योंकि वे दिव्यज्ञानी महामुनि थे। ___ आगे उन्होंने क्षणिकवाद और विज्ञानवादकी आलोचना की है। उनमें कहाँ कहाँ दोष हैं सो बताये हैं और अन्तमें इस तरह वस्तुस्थितिका कथन किया है:
"अन्ये त्वभिदधत्येवमेतदास्थानिवृत्तये ।
क्षणिकं सर्वमेवेति बुद्धेनोक्तं न तत्त्वतः"॥ "विज्ञानमात्रमप्येवं बाह्यसंगनिवृत्तये । विनेयान् कांश्चिदाश्रित्य यद्वा तद्देशनार्हतः" ॥ " एवं च शून्यवादोपि सद्विनेयानुगुण्यतः ।
अभिप्रायत इत्युक्तो लक्ष्यते तत्त्ववेदिना" ॥ भावार्थ-मध्यस्थ पुरुषोंका कथन है, कि बुद्धने क्षणिकवाद परमार्थदृष्टिसे-वस्तुस्थितिको देखकर नहीं कहा है, बल्के मोहवास. नाको दूर करनेके लिए कहा है । विज्ञानवाद भी वैसे शिष्योंको लक्ष्य करके अथवा विषय-संगको दूर करनेके लिए बताया गया है। ऐसा जान पड़ता है कि, बुद्धने शून्यवाद भी योग्यशिष्योंको लक्ष्यमें रखकर वैराग्यकी पुष्टि करनेके आशयसे बताया है।
वेदान्तके अद्वैतवादकी वेदान्तानुयायी विद्वानोंने जो विवेचना की है, उसमें दोष बताकर आचार्य महाराज कहते हैं कि:
" अन्ये व्याख्यानयन्त्येवं समभावप्रसिद्धये । अद्वैतदेशना शास्त्रे निर्दिष्टा न तु तत्त्वतः" ॥
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जैन-रत्न ~~~~~~~~~~~~~
~~~~~~~~mmmmmmmmmmmmmm भावार्थ-मध्यस्य महर्षि कहते हैं कि, अद्वैतवाद वस्तुस्वरूपकी दृष्टि से नहीं बताया गया है, किन्तु समभाव-प्राप्तिके लिए बताया गया है ।
इस तरह जैन महात्माओंका, अन्य दर्शनोंकी तटस्थदृष्टिसे परीक्षा करना; उनका समन्वय करनेके लिए दृष्टि फैलाना, और शुद्धदृष्टिसे पूर्वापरका विचार करना कि, जैनेतर दर्शनोंके सिद्धान्त जैनसिद्धान्तोंके साथ कैसे मिलते हैं ! जैनक्षेत्रकी-जैनदृष्टिको कम महत्ता नहीं है। ___ अन्यदर्शनोंके धुरंधरोंका 'महर्षि । 'महामति । और इसी प्रकारके दूसरे ऊँचे शब्दोंसे अपने ग्रंथों में, उल्लेख करना और तुच्छ अभिप्रायवालोंके मतका खंडन करते हुए भी उनके लिए हलके शब्दोंका व्यवहार न करना जैनमहापुरुषोंके उदार आशयका प्रमाण है। धार्मिक वाद-युद्धके प्रसंगमें भी विरुद्ध दर्शनवालोंकी ओर प्रेमदृष्टिसे देखना और तदनुसार ही व्यवहार करना कितनी सात्त्विकता है? देखिए ! जैनाचार्योंके माध्यस्थ्य-पूर्ण उद्गार" भवबीजाकरजनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो निनो वा नमस्तस्मै" ॥
-हेमचंद्राचार्य । " नाशाम्बरत्वे न सिताम्बरत्वे
न तर्कवादे न च तत्त्ववादे । न पक्षसेवाऽऽश्रयणेन मुक्तिः कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव"॥
-उपदेशतरंगिणी। " पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद् वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ॥
-हरिभद्रसूरि ।
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भावार्थ-" जिनके, संसारके कारणभूत कर्मरूपी अंकुरोंको उत्पन्न करनेवाले राग-द्वेषादि समग्र दोष क्षीण हो चुके हैं, उनको, वे चाहे ब्रह्मा हों, विष्णु हों, शंकर हों या जिन हों मैं नमस्कार करता हूँ।" ___" मोक्ष न दिगम्बरावस्थामें है, न श्वेताम्बरावस्थामें है, न तर्कजालमें है, न तत्त्ववादमें है और न स्वपक्षका समर्थन करनेहीमें है । वस्तुतः मोक्ष कषायोंसे ( क्रोध, मान, माया और लोभसे ) मुक्त होनेमें है।" ___" परमात्मा महावीरके प्रति न मेरा पक्षपात है और न महर्षि कपिल, और महात्मा बुद्ध आदिहीके प्रति मेरा द्वेष है । मैं तो मध्यस्थबुद्धिसे, निदोष परीक्षाद्वारा जिनका वचन युक्त हो उन्हींका शासन स्वीकारनेके लिए तैयार हूँ।"
उपसंहार।
सन्स
जैनदर्शनकी उदारताका थोडासा विवेचन किया गया । इससे पाठक समझ गये होंगे कि जैनदर्शनका क्षेत्र संकुचित नहीं है। वह बहुत ही विस्तृत है । यद्यपि हमारे संकुचित वक्तव्यक्षेत्रमैतमाम तत्त्वोंका समास न हो सका है तथापि जीव, अनीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष इन नौ तत्त्वोंका; जीवास्तिकाय धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और काल इन छः द्रव्योंका; सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यगचारि, त्ररूप मोक्षमार्गका; गुणस्थान, अध्यात्म, जैन-आचार, न्यायशैली, स्याद्वाद, सप्तभंगी और नयका-इतनी बातोंका दिग्दर्शन कराया गया है।
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जैन-रत्न
mar.mmmmmar
परिशिष्ट (१) कितने समयके बाद कौनसे तीर्थकर हुए ? १-ऋषभदेवजी-तीसरे आरेके पिछले भागमें हुए । २-अजितनाथजी-ऋषभदेवजीके मोक्ष जानेके पचास लाख
कोटि सागरोपम बीते तब. ३-संभवनाथजी-३० लाख ४-अभिनंदनजी-१० लाख ५-सुमतिनाथ- ९ "
" " " " ६-पद्मप्रभु- ९० हजार ७-सपार्श्वनाथ- ९ " ८-चंद्रप्रभु- ९ सौ ९-पुष्पदंतजी-( सुविधिनाथ ) ९० कोटि सागरोपम बीते तब । १०-शीतलनाथजी-
९ , , " " ११-श्रेयांसनाथ-सो सागरोपम छासठ लाख छब्बीस हजार वर्ष कम
एक कोटि सागरोपम बीते तव । १२-वासु पूज्यजी-५४ सागरोपम बते तब । १३-विमलनाथजी-३० , बीते तब । १४-अनंत नाथजी-९ , ,, ,, १५ धर्मनाथजी- ४ , " " १६-शान्तिनाथजी- पल्योपम कम तीन सागरोपम बीते तब । १७ कुंथुनाथजी-आधा पल्योपम बीता तब।। १८-अरनाथजी-एक हजार कोटि वर्ष कम ३ पल्योपम बीता तब । १९-मल्लिनाथजी-एक हजार कोटि वर्ष बीते तब । २०-मुनिसुव्रतजी-चौपनलाख वर्ष , , । २१-नमिनाथजी-छः लाख वर्ष
" "। २२-नेमिनाथजी-पाँच लाख वर्ष २३-पार्श्वनाथजी-८३७५० वर्ष २४-महावीर स्वामी-ढाई सौ वर्ष
-
"
"
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जैनरत्न पूर्वाईका शुद्धिपत्र।
+ Ke + पे० ला० अशुद्ध १० १०-अरिष्टनेमिकी माता शिवा- | महावीर स्वामीकी माता त्रिशला देवीने हस्ति देखा
देवीने सिंह देखा । १८ ९-पाषाणके दो गोलोंको पृथ्वीमें घूघरे बजाती है ।
पछाड़ती है। २० ४-अठासी।
२८ अहाईस। २३ ११-एक हजार आठ आठ हजार । २३ १२-कुल मिलाकर इन घडोंकी कुल मिलाकर ढाई सौ अभिषेसंख्या ।
__ कोंमें इन घड़ोंकी संख्या । २५ ८-चार ।
पाँच। २६ ९-तीर्थकर नामकर्मका उदय तीर्थकी स्थापना करते हैं।
होता है। ३१ २-मणिका के।
मणियोंके। ३१ ८-(धूप)
( केशर कंकूक) ३१ १५-घी तथा शहद डालते हैं। घी डालते हैं। ३२ ८-रुधिर दुग्धके समान। धिर और मांस दुग्धके समान। ३२ १७-दो सौ कोस तक। सौ कोस तक। ३४ ५-बारह जोड़ी (चौबीस) चार जोड़ी ( आठ) ३५ ९-या मूलातिशय कहलाते हैं। कहलाते हैं। ३६ ५-सवासौ योजनतक | पचीस योजन (सौ कोस) तक! ३६ सत्रहवीं लाइनके आगे “ये चार मूलातिशय कहलाते हैं।"
यह वाक्य और पदिए।
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५७२
पे० ला० अशुद्ध
शुद्ध ४० ७-तीसरे दिनके अंतमें। चौथे दिन । ४७ १७-पाँच तो इनके । चार तो इनके। ५१ १६-क्षणमें प्रमदाका । क्षणमें प्रमादको। ५२ ४-पादोपगमन ।
पादपोपगमन। ५३ ११-आपचमें।
आपसमें । ५७ १६-वज्रषभ ।
वज्रषभ । ६६ ३-वार्षिक
वार्द्धिक । '६६ ९-४६ युग्म ।
४९ युग्म । ७१ ४-(बहेडाके जलसे) जैसे दुग्ध चावलकी भूसीके पानीसे जैसे फट जाता है।
दूध बिगड़ जाता है। ७७ २१-प्रथम पारणा।
पारणा। .८१ ७-क्षीणमो।
क्षीणमोह। ८१ १४-विषयज्ञान ।
विषयक ज्ञान । ८३ १३-आताप।
आतप । ८६ ६-चतुर्दश पूर्व और द्वादशांगी पर। गणधरोंपर । ८६ २३-प्रभुके चरणों में । प्रभुकी पाद पीठपर। ८७ ४-प्रभुका अधिष्ठायक । प्रभुके तीर्थका अधिष्ठायक । ८७ १५-समवसरण आया हुआ था। समवसरण हुआ था । .८८ ३-तपश्चाचरण ।
तपश्चरण । .८८ ३-४-इस समय उसके घाति परंतु उसके मान ।
कर्मनाश हो गये हैं परंतु मान। ८८ १५-( लाल, पीले) ( लाल ) । ९० १३-( इस लाइनमें सभी जगह ६ के अंकको ९ समझना) ९० १७-२४-पादोपगमन । पादपोपगमन। १०० २०-पुष्पको।
| पुण्यको।
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५७३
पे० ला० अशुद्ध
विताडित ।
१०३ ४ - विताडि । ११३ ८ - धसुमित्रने ।
वसुमित्रने ।
११३ १४ - ( इसमें ' त्रिपदीके अनुसार ' दो बार आया है, वह एक ही बार होना चाहिए ।
११३ १६ - महायज्ञ ।
११८ २१ - बहत्तर लाख वर्षकी । ११८ २२ - पादोपगमन । १२२ २–त्वप्नसुनाये ।
शुद्ध
महायक्ष
बहत्तर लाख पूर्व वर्षकी । पादपोपगमन | स्वम सुनाये। शंभवनाथ
१२३ ४ - शंबवनाथ ।
१२३ ७ - पूर्व भोग भोगने के बाद | १२३ २२ - कौओं को खिलाना ।
१२५ १-तीन लाख ।
१२५ १९ - एक पूर्वीग कम ।
१२८ ५-१ गणधर । १२८ ७– एक हजार आठ सौ । १२८ १९ - आठ पूर्वीगमें एक लाख पूर्व कम इस तरह ।
१३२ १७ - वत्स नामका नगर है । १३३ ४ - वहाँ ३३ सागरोपम १३७ ५ - बीस पूर्वीग न्यून बीस लाख पूर्व
१४० ३ - २४ पूर्व सहित ।
१४० ११ - हाथके आँवलेकी
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पर्व बीतने के बाद
कौओं को उड़ाने के लिए फेंकना है ।
तीन लाख और छत्तीस हजार साध्वियाँ ।
चार पूर्वीग कम ।
११६ गणधर । एक हजार पाँच सौ । आठ पूर्वांग कम एक लाख पूर्व इस तरह ।
वत्स नामका विजय ( द्वीप ) है । वहाँ ३१ सागरोपम । बीस पूर्वंग न्यून एक लाख पूर्व ।
२४ पूर्व कम । निर्मल जलकी ।
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५७४
पे० ला० अशुद्ध
शुद्ध १४० १८-एकावली तपको पालता था। एकावली वगैरा तपोंको
पालता था। १४२ १६-आधा पूर्व ।
आघा लाख पूर्व । १४३ ११-बोलते हुल । बोलते हुए। १४३ १३-ऐसा अनुमान होता है। x x x x १४५ १६-१३०० चौदह पूर्वधारी, | १४०० चौदह पूर्वधारी। १४५१८-४हजार वैक्रिय लब्धिधारी। १२०० वैक्रिय लब्धिधारी। १४८ १८-चल नामक ।
अचल नामक । १४९ १७-वासुपूज्यके । वसुपूज्यके। १५० १-वरुण नक्षत्र ।
वरुण ( शतभिषाका) नक्षत्र । १५० २-महिषी लक्षण । महिष लक्षण । १५० १४-पाटल (गुलाब) वृक्षके । पाटल वृक्षक । १५२ ८-दिन भाद्रपदमें । दिन उत्तरा भाद्रपद नक्षत्रमें । १७२ १४-अमिततेज प्राण लेकर। अशनिघोष प्राण लेकर १७५ ५-हागमें ली।
हाथमें ली। १७५ १०-उनको म विद्या । उनको महाविद्या। १८० ८-और अजितारी। और अपराजित । १८१ १४-बजता हुआ। बजाता हुआ। १८२ ३-कमली ।
कनकधी। १८३ १-मंत्र बतलाकर । तप बतलाकर। १८५ २२-अखंड करती थी। अखंड पालती थी। १८९ १०-विद्या साधने के लिए। विद्य दाग। १८९ ११-सिद्धपत्तनमें । सिद्धायत-में। २०१६-१३ तरहवाँ भव । | १२ बारहवाँ भव । २०५ १-कल्याण के किया। कल्याणक किया । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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पे० ला० अशुद्ध २०५ ३-मुनिवस्थामें। मुनि अवस्था । २०५ ८-अतिशयादिभिः । अतिशयर्द्धिभिः। २०७ १३-४५६.० सौ वर्ष । २३ हजार साढ़े सात सौ। २०८ ९-जला नामकी। | बला नामकी। २०९ १६-नंदवर्तना।
नंदवर्त्तदा। २०९ १६-प्रभुने ६४००। प्रभुने ६४ हजार। २११ १-सबिलावती।
सलिलावती। २१२ ५-मोतियोंकी।
माल्य (पुष्प) २१८ ११-निथ्यात्वी। मिथ्यात्वी। २४० १३-चित्र नक्षत्रमें । चित्रा नक्षत्रमें। २५१ १५-अतस वृक्ष । वेतस ( बैंत ) वृक्ष । २५७ १५-आहार पानी लेकर ।। नेग्निाथ प्रभुकी वंदनाकर। २५९ १५-साध्वियाँ ।
श्रःविकाएँ। २६४ १६-मरुभूति ।
मरुभूति हाथी। २७५ ६ देवलो कसे ।
विमानसे। २८७ १-नशत्रम ।
नक्षत्रमें। २८७ ५-८३ हजार ।
८३ हजार । २८८ २०-समयसार ।
नयसार । (आगे भी समयसारकी
जगह नयसार पढ़िए।) ३०४ २०-(उत्तराषाढा) । उत्तराफाल्गुनी) ३०७ ३-उत्तराषाढा ।
उत्तराफल्गुनी। ३०८ ५-उत्तराषाढा ।
उत्तर। फाल्गुनी। ३१६ ८-इन्द्र बड़े तड़के उस समय इन्द्र सोचने लगा।
उठकर सोचने लगा। ३२१ ११-बल आर्तध्यानमें मरकर ।' बैंक भरकर । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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५७६
पे. ला. अशुद्ध
शुद्ध ३३५ २७-नागकुमार नामके । कंबल और शंबल नामके नाग
कुमार । ३३८ २१-केवल त्रिषष्ठि । किंतु त्रिषष्ठि । ३४७ २२-नग्न जैन साधु । | नग्न साधु । ३४९ ११-मही वीरको। महावीरको। ३६३ ९-दस दिनकी।
पचीस दिनकी। ३७६ ११-वल्लभविजयजीके शिष्य । वल्लभविजयजीके साथ गुजरान
वालामें मुनि जयविजयजीके
शिष्य । ३७९ १४-नीरोग है और कोई नौकर। नीरोग है और कोई रोगी। ३८० ८-इन्द्रियोंको स्मरण । इन्द्रियोंके अर्थको स्मरण ।। ३८० १४-हैं ही नहीं। हैं कि नहीं। ३८६ २४-पूर्वांग। ३८७ १६-तैतर्य।
मेतार्य । ३९३ १७-बुद्धिमान ।
बुद्धिमती। ३९७ १-बारह श्रावक ।
दस श्रावक । ३९८ ७-४० गायोंके ।
४० हजार गायोंके। ३९८ ९-४० गायोंके । ४० हजार गायोंके। ४१५ १२-मुनते हैं।
सुनते हैं। ४२९ ६-रातदित ।
रात दिन । ४३७ ६-रजुगति ।
कजुगति । ४३८ ११-दिए गृहस्थ । दिन गृहस्थ। ४५४ ३-हही 'जैनदर्शन। वही जैनदर्शन। ४३९ १६-अधिकमास हमेशा चेत,
बेसाख, जेठ असाढ या सावनहीं में आते हैं। ।
पूर्व ।
xxx
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जैनरत्न
(उत्तराई)
..................... "
-
.
श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन
..
..................
.
.
.
.
.
.
.
-
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संपादक-कृष्णलाल वर्मा
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जैनरत्न
( उत्तराई)
सेठ सोजपाल काया
गाँव लायजा ( कच्छ ) में सेठ सोजपालजीके पिता काया सेठ रहते थे। ये कच्छी वीसा ओसवाल श्वेतांबर जैन थे। इनके तीन पुत्र हुए । बड़े सरवण, मझले सोजपाल और छोटे तेजु । इनका हाल नीचे दिया जाता है।
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__ जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध ) १-श्रवण सेठ और उनका कुटुंब.
इनका जन्म सं० १८९१ में हुआ था। ये सं० १९०५ में बंबई आये और मोदीकी दुकान शुरू की । अच्छी कमाई करने पर इन्होंने सराफीका धंधा भी शुरू किया था । सं० १९४५ में ये मांडवीसे 'बिजली' नामकी स्टीमरसे बंबई आते थे। रस्तेमें स्टीमर डूब गई। ये भी उसीमें डूब गये।
इनका ब्याह श्रीमती देवईबाई के साथ हुआ था। इनके चार पुत्र थे-लालनी, चाँपती, वीरजी और देवनी । इनमें से वीरजीमाईके सिवा सबका देहांत हो गया है। लालनीके गंगाबाई नामकी एक कन्या है । चाँपसीके पूजा और सामनी नामके दो लड़के हैं। वीरजीके गोसर नामका एक पुत्र और पानवाई, रयणीबाई, केसरबाई और साकरबाई नामकी चार कन्याएँ हैं । देवजीके कोई नहीं है।
श्रवण सेठके परनेपर इनके पुत्र तेजुकायाकी कंपनी में शामिल हुए। २-सोजपाल सेठ और उनका कुटुंब.
इनका जन्म सन् १८९८ में लायना ( कच्छ ) में हुआ था । ये सं० १९१४ में बंबई में आये थे। उस समय यद्यपि इनके बड़े भाई श्रवण सेठ मोदीकी दुकान करते थे; परन्तु ये अपने ही बल पर खड़े रहना चाहते थे इसलिए इन्होंने मी
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श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन मोदीकी एक अलग दुकान खोल ली । उसमें अच्छी कमाई करनेके बाद इन्होंने सराफी-लेनदेनका-धंधा प्रारंभ किया। सं० १९२६ में इनके छोटे भाई तेजुकाया भी बंबई आ गये थे। इसलिए थोड़े बरसोंके बाद इन्होंने अपने छोटे भाई ‘तेजुकाया के नामसे कंट्राक्ट का धंधा शुरू किया और इसमें खूब सफलता पाई । सं० १९५६ में इन्होंने अपने पुत्र स्वनीभाई, पालनभाई
और मेघनीभाईको अपना काम सौंपा और आप धर्मध्यानमें जीवन बिताने लगे।
लग्नोंमें-इन्होंने अपने भतीनों और पुत्र पुत्रियोंके ब्याह बड़ी धूमधामके साथ किये और कहा जाता है कि उनमें बहुतसा खर्च किया था।
जायदाद-अपने गाँव लायनामें एक लाख रुपये खर्च कर तीनों भाइयोंके लिए मव्य बँगले बनवाये । यहाँ तीनों माइयोंकी करीब दस लाखकी जायदाद मकानात वगैरा हैं।
दान-इन्होंने दानपुण्य में भी लाखों खर्चे । बड़ी बड़ी कुछ रकमें यहाँ दी जाती हैं। ८.०००) अपने गांव लायनामें एक हॉस्पिटल खोला उसमें.
३००००) हॉस्पिटलका मकान बनवाया. ५००००) चालु खर्च के लिए । अस्पताल में एक
एम. बी. बी. एस. डॉक्टर है। ६३००) लालबाग (वंबई) के अनमंदिरमें ।
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जैनरत्न (उत्तरार्द्ध) ५०००) कच्छी ओसवाल जैन बोर्डिंग माटुंगेमें ।
४५००) कच्छी ओसवाल देहरावासी जैन पाठशालामें । ५००००) अपने गाँव लायनाके बाहर अपने छोटे भाई तेज
कायाकी शामलातसे एक अच्छी धर्मशाला बनवाई । २५०००) गाव लायनेमें एक मंदिर, दो उपाश्रय और एक
महाजनवाडी, पंचायती, इनकी देखरेखमें बने । उनमें देखरेख रखनेके अलावा अपने पाससे
पचीस हजार रुपये भी दिये। ५०००) चिल्ड्रन्स होम उमरखाड़ी को।
लायजेमें एक कन्याशाला चलाते हैं और उसके तीनसौ रुपये वार्षिक खर्चके देते हैं। हरसाल गुप्त और प्रकट रूपसे कई हजार रुपये
दान दिया करते हैं। इनका ब्याह श्रीमती खीयंदीबाईके साथ हुआ था । उनसे चार पुत्र-गांगनी, रवनी, पालणनी और मेघनी तथा एक पुत्री-श्रीमती हीराबाई थे।
१-गांगजीभाई-इन का ब्याह श्रीमती देमाबाईके साथ हुआ था । अठारह बरसकी उम्रमें इनका देहांत हो गया ।
२ सेठ रवजीभाई इनका जन्म संवत १९३७ के श्रावणमें हुआ था। ये साधारण अभ्यास करके अपने पिताके साथ धंधा करने
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श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन लगे। और जब संवत १९५६ में इनके पिता धंधेसे हाथ खींचकर धर्म ध्यानमें लगे तब इन्होंने अपने पिताका सारा मार उठाया । और बड़ी ही योग्यताके साथ ये अपना कामकान करने लगे । इनकी दीर्घ दृष्टि, समय सूचकता और काम करनेकी होशियारीसे इन्होंने अच्छी ख्याति प्राप्त कर ली।
जिस तरह ये अपने धंधेमें होशियारीसे काम करते हैं उसी तरह सार्वजनिक कामों और खास करके जैन समाजके कामोंमें भी बहुत दिलचस्पी लेते हैं। इनकी प्रसिद्धि और जनसेवासे प्रसन्न होकर गवर्नमेंटने इनको सन् १९२७ में 'रावसाहब' की पदवी दी। समाजने भी इनकी सेवाओंसे उपकृत होकर मानपत्रों द्वारा इनका सम्मान किया. १-कच्छी वीसा ओसवाल देहरावासी महाजन बंबईने दो
मानपत्र दिये. (१) रावसाहबकी पदवी मिली तब और (२) मंबईमें स्पेशल कॉन्फरेसकी स्वागत समितिके ये
प्रमुख बने तब • २-लायजा ( कच्छ ) के कच्छी ओसवाल संघने इनको
मानपत्र दिया। १-बंबईक कच्छी दसा ओसवाल महाननने एक मानपत्र
भेट किया। ४-ग्रेनडीलर्स एसोसिएशन बंबईकी तरफसे एक मानपत्र
दिया गया।
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जैनरत्न ( उतरार्द्ध)
५-कच्छके रायण मित्रमंडलने मानपत्र दिया ।
इन परके विश्वास और इनकी सेवातत्परतासे ही जैन ममाजने इन्हें अनेक नवाबदारीके काम सौंप रक्खे हैं।
१-कच्छी वीसा ओसवाल जैन बोर्डिंग माटुंगाके ये प्रमुख थे और ट्रस्टी हैं।
२-कच्छी वीसा ओसवाल देहरावासी जैन पाठशाला और कन्याशालाके ये प्रमुख हैं।
३-कच्छी वीसा ओसवाल देहरावासी जैनसंघकी मिल्कत और फंडके ये ट्रस्टी हैं।
४-आनंदनी कल्याणनीकी पेढी पालीतानेके, ये बंबई संघकी तरफसे, प्रतिनिधि हैं ।
५-लालबागका मंदिर इन्हींकी देखरेखमें तैयार हुआ था ।
६-सं० १९८२ में बंबईमें सिद्धाचलजीके झगड़ेके बारेमें स्पेशल श्वेतांबर जैन कॉन्फरेंस हुई थी। उसकी स्वागत समितिके ये प्रमुख थे।
७-जुन्नेर (दक्षिण) में श्वेतांबर जैन कॉन्फरेंस सं० १९८६ में हुई । उसके ये प्रमुख थे। यह वह मान है, जो श्वेतांबर जैन समान अधिकसे अधिक किसीको दे सकता है । जुन्नेर गये तब ये अपनी स्पेशल लेकर गये थे । बंबईके तीन सौ प्रतिनिधि इनके साथ इनकी स्पेशलमें गये थे । सबकी व्यवस्था खानपानादि सहित इन्हींने की थी। प्रमुखपदसे इन्होंने जो माषण किया
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श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन वह बड़े ही महत्त्व का था। इनकी स्पष्ट वादिता और हिम्मत सराहनीय थे। 'बालदीक्षा' के संबंध जो तूफान जैन समाजमें उठ रहा है, उसमें अपने मगनको समतोल रखना बड़ा ही कठिन काम था। यह कठिन काम इन्होंने किया । ___इस अवसर पर इन्होंने सुकृत फंडमें ढाई हजार रुपये और जुन्नरमें दूसरी संस्थाओंमें दो हजार रुपये दिये थे।
इनके लग्न दो हुए थे। पहला लग्न श्रीमती माबाईके साथ हुआ था। इनसे दो सन्तानें हुई । एक लड़का रामजी
और लड़की पानबाई । लड़के रामजीभाईका जन्म सं० १९५७ में हुआ । इन्होंने मेट्रिक तक अभ्यास किया। रामनीका व्याह सं० १९७० में देवकांबाई के साथ हुआ । इनके एक कन्या रतनबाई और तीन पुत्र कल्याणजी, हंसराज और जादवजी हैं। पानबाईका जन्म सं० १९६३ में हुआ, और उनके लग्न सं० १९७० में प्रेमजी गणसीके साथ हुए ।
रखनी सेठका दूसरा ब्याह सं० १९६९ में श्रीमती कंकूबाईके साथ हुआ । इनके मणिबहन नामकी एक कन्या है।
३ पालणभाई ये सोनपाल सेठके तीसरे पुत्र हैं । इनका जन्म सं० १९३९ के वैशाखमें हुभा। इनके तीन लग्न हुए। पहला ब्याह श्रीमती मीठाबाईके साथ हुआ । उनके एक कन्या नेणबाई । दूसरा ब्याह देवकाबाईके साथ हुमा । उनसे
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध) लड़की वेलबाई और लड़का शिवजी । तीसरा ब्याह श्रीमती पानबाईके साथ हुआ । उनसे तीन लड़कियाँ, खेतबाई, संतोकबाई और प्रमावतीबाई और एक पुत्र रतनसी ।
४ मेघजीभाई ये सोनपाल सेठके चौथे पुत्र हैं । इनका जन्म सं० १९४५ में हुआ था। इनके लग्न श्रीमती हिमईबाईके साथ हुए । इनसे दो लड़कियाँ मोंघीबाई और चंचलबाई, दो लड़के देवसी व आनंदनी हैं।
५ हीरबाई ये सोजपाल सेठकी पुत्री हैं। इनका ब्याह कृपाल पुन्सीके साथ हुआ है। इनके तीन लड़के माणिक, जेठा और डुंगरसी
और एक लड़की वेलबाई हैं। इनके पति कृपाल पुन्सीके नामसे कच्छ लायजामें एक पाठशाला चलती है । इसके लिए उन्होंने बीस हजार रुपये दिये थे। हीरबाईके नामसे एक फंड है। उससे प्रति अमावस और पूनमको लायनामें मछलियोंका अगता रहता है यानी उस दिन कोई मछली नहीं पकड़ सकता है। स्व. कृपालजी सेठ बड़े ही उदार और गरीबोंकी सहायता करनेवाले थे।
पुण्यात्मा सोनपाल सेठ इस तरह धन और विशाल कुटुंबका त्याग कर सन् १९२८.के २९ मार्चको इस मवका त्याग कर गये।
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सेठ गणपत नप्पू
गणपत सेठका जन्म सं० १८९२ के वैशाखमें हुआ था। इनका मूळ गाँव नानीखाखर ( कच्छ ) था। ये कच्छी वीसा
ओसवाल थे । इनका गोत्र डोडिया था और श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन थे।
इनके पिता नप्पू सेठ अपने गाँवमें खेती करते थे । गणपत सेठ संवत् १९०५ में बंबई आये । करीब दस महीने तक मजूरी करके काम चलाया । इसी असेंमें इन्होंने लिखना बाँचना भी सीख लिया। फिर सं० १९०६ में ये कृपाल हरसीकी कंपनीमें ५) रू. मासिक पर नौकर हो गये । दो बरस तक बड़ी होशियारीसे काम किया । इसलिए कृपाल हरसीकी कंपनीके
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध)
मालिकोंने, होनहार समझ कर, सं० १९०८ में गणपत सेठको अपना भागीदार बना लिया। वह भागीदारी अबतक चली ना
इनके लग्न सं० १९१६ में श्रीमती कर्मादेवाईके साथ हुए थे। इनसे एक पुत्र लद्धामाई और पुत्री पुरवाईका जन्म हुआ । कर्मादेवाईका देहांत होने पर संवत् १९२२ में इन्होंने दूसरे लग्न किये । उनसे दो पुत्र और एक पुत्रीका जन्म हुआ। पुत्र-नागनीमाई और आसारियाभाई, पुत्री-मट्टचाई । गणपत सेठका देहांत सं० १९६६ में हुआ।
सेठ लद्धाभाई गणपत सेठके बड़े पुत्र लद्धामाईका जन्म सं० १९९१ के मगसर सुदि ८ के दिन हुआ था। सं० १९३७ में इनके लग्न श्रीमती गंगाबाईके साथ हुए । इनसे तीन पुत्र और तीन पुत्रियाँ जन्मे । पुत्र-शामजी, प्रेमजी और नाननी । पुत्रियाँ लालबाई, पानबाई और मोंगीबाई।
१ शामजीभाई इनका जन्म सं० १९४१ में हुभा । इनके लग्न गाँव चारोई ( कच्छ ) के सा मूलमी मारमलकी पुत्री जेवूनाईके साथ हुए । इनसे प्रागनी और भवानजी नामके दो पुत्र और लक्ष्मीबाई व कस्तूरबाई नामकी दो पुत्रियाँ हुई। इनके पुत्र प्रागनीके कांतिलाल और भवानजीके प्राणनीवन नामके पुत्र हैं।
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श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन. पेज १२.
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ARMANANINNARASIMINAASPINNAMAMALNAGALANDAFONESAPNAMONEARNINGS VVVVVVVVVVVVVVVVVVVVVVVVVVVVVVVVVVVVVVVVV PREONPARANORAMANANDH
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सेठ लद्धाभाई गणपत.
जन्म सं १९२१
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श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन. पेज १३.
सेठ नानजीभाई लद्धाभाई.
जन्म सं. १९४९
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श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन
२. प्रेमजीभाई इनका जन्म सं० १९४६ के मगर वदि ११ को हा था। इनके दो लग्न हुए हैं। पहले लग्न सं० १९६२ में श्रीमती कुँवरवाई के साथ हुए । इनसे मं० १९६६ में चुन्नीलाल नामका पुत्र हुआ । चुनीलालके वृजलाल नामका एक पुत्र है। श्रीमती कुँवरवाईने सं० १९७८ में दीक्षा लेली। प्रेमजीभाईने सं० १९६६ में दूसरे लग्न श्रीमती मांकचाईके साथ किये थे। इनसे एक पोपटमाई नामका पुत्र सं० १९६८ में हुआ।
३. नानजीभाई इनका जन्म संवत् १९४९ के मार्गशीर्ष सुदि २ को हुआ। सं० १९६२ के वैशाखमें गाँव विदडा (कच्छ) के सा पदमसी पूँनाकी पुत्री श्रीमती वेलबाई के साय इनके लग्न हुए। इनसे एक नेमजी नामके पुत्र सं० १९६५ के वैशाख सुदि ६ को हुए । नेमजीके एक पुत्र है । उसका नाम रमणिकलाल है।
मोलह बरसकी आयुमें ये पेढीपर काम करने लगे। ये सार्वजनिक कामोंमें बड़ा उत्साह दिखाते हैं। नीचे लिखी संस्थाओंमें ये ऑनरेरी काम कर रहे हैं।
श्री कच्छी ओसवाल देहरावासी जैन पाठशाला, पूरबाई जैन कन्याशाला, राइस मर्चट एसोसिएशन और पालीताना जैन बालाश्रममके ये सेक्रेटरी हैं। कच्छी वीसा ओसवाल जैन
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जैनरत्न (उत्तरार्द्ध)
बोडौंग माटुंगाके ये उपप्रमुख हैं। श्री कच्छी वीसा ओसवाल जैन मंदिरकी मिल्कत और फंडके और नानीखाखर (कच्छ) जैन पाठशालाके ये ट्रस्टी हैं। क० वी० ओ० जैन बोर्डिंग माटुंगाके कई वर्षों तक ये ट्रस्टी रहे थे।
ये विद्याके बहुत प्रेमी हैं । जहाँ जहाँ विद्याके लिए खर्च करनेकी जरूरत पड़ती है ये करते रहते हैं। जैनोंकी कई संस्थाओंके ये मेम्बर हैं।
४. लाछबाई इनका जन्म संवत् १९३८ में हुआ था। और इनके लम सं० १९९१ में मोटीखाखर (कच्छ) के सा रणपी देवराजके साथ हुए थे।
५ पानबाई इनका जन्म सं० १९४१ में हुआ था और इनके लग्न सं० १९५७ में मोटी खाखरके सा वीरजी रणसीके साथ हुए थे।
६ मोगोवाई इनका जन्म सं० १९५१ में हुआ था। इनके लग्न सं० १९६९ में नानाभासंबियाके सा वेरसी टोकरसीके साथ हुए थे। ५५००००) इस कुटुंचने बंबईमें जायदाद बनवाई । ५०००००) अपने देशमें जायदाद ।
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श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन
इस कुटुंबने मुख्यतया नीचे लिखे धर्मस्थान गाँव नानीखाखर ( कच्छ ) में बनवाये हैं
१-एक जिनमंदिर ( देरासर ) बनवाया । २-पशुओंके पानी पीनेके लिए प्याऊ बनवाई । ४-पाठशालाके लिए एक मकान बनवाया । ५-गिरनारजीमें एक देहरी बनवाई। इन सबमें करीब एक लाख रुपये लगे हैं।
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स्व० सेठ लखमसी हीरजी मैशेरी
बी. ए. एल. एल. बी.
उखमप्सीभाईके पिता श्रीयुत हीरजीसारंग कच्छी दसा ओसवाच श्वेतांबर जैन थे । इनका मूल निवास गाँव साएरा, तालुका अबडासा ( कच्छ ) था। ये बंबईमें तैलका व्यापार करते थे । इनके दो लग्न हुए थे। दूसरे लग्न कोठारावाले शा. तेजपाल लघा पालागीकी पुत्री तेजबाईके साथ हुए थे। बंबई में रहते इनके कई बालक हुए। परन्तु जीवित एक भी न रहा । इसलिए ये, जब श्रीमनो तेनबाईके गर्भसे इनके बड़े पुत्र लखमसी भाईका जन्म हुआ था, तब लालजी ठाकरसीकी कंपनीमें हिस्सेदार बनकर कच्छमें चले गये थे। वहाँ उनके दो बच्चे और हुए। बायांचाई
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श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन.
पेज १६.
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स्व. सेठ लखमशी हीरजी मैशरी B. A. LL. B. जन्म सन १८७५
स्वर्गवास सन १९२४
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श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन नामकी एक कन्या और पुन्सीमाई नामका एक पुत्र । इन बच्चोंकी आयु जिस वक्त क्रमशः छः तीन और एक बरसकी हुई हीरजीमाईका देहांत हो गया । बालक अपनी माता तेजबाईकी गोदमें मुँह छिपाकर रोते रह गये । पिताका साया उठ गया।
लखमसीमाईका जन्म ता. २६ जुलाई सन् १८७५ को बंबई में हुआ था। इनके पिता इन्हें लेकर देशमें चले गये। पिताका देहांत होजानेपर इनकी माता तेजबाई इनको शिक्षित बनाने के इरादेसे बंबई में लेआई और इन्हें 'धी रिपन इंग्लिश स्कूलमें दाखिल कराया। वहाँसे ये सेंट झेविअर हाइस्कूलमें दाखिल हुए। अच्छे नंबरोंमें मेटिककी परीक्षा पास की। इससे इन्हें राओश्री प्रागमलनी फर्ट स्कॉरशिप और मणिमाई जममाई प्राइज मिलें।
ये बड़े निर्भय ये। जब स्कूलमें पढ़ते थे तबकी मत है। सेंट झेविअर स्कूल घोचीतलाक पर था । वहाँसे मांडवीपर आते जाते उड़कोंको मवाली हैरान करते थे। एक बार इन्हें भी छेड़ दिया। इन्होंने और मास्तर लक्ष्मीचंद तेजपालने उनकी ऐसी खबर ली कि, फिर इन्होंने कमी उनका नाम न लिया।
ये जब विद्यार्थी अवस्या थे तब भी बड़े उदार थे। और अपने साथीको सहायता देनेके लिए हर समय तैयार रहते थे। श्रीयुत वेदजी आनंदनो मैशेरी बी. ए एल एल बी. ने लिखा है:-" मेरे पिता गरीब थे। इसलिए मेरे अभ्यासमें विघ्न आता
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध) था। मगर मैं मास्टर लक्ष्मीचंदजी और लखमशीभाईकी सहायतासे स्कूलमें ऊपर नंबर रखता था इसलिए लखमसीमाईने मेरे पितापर इस बातका दबाव डाला कि, वे मुझे आगे पढावें । इतना ही नहीं वे अपते जेव-खर्चसे मुझको भी सहायता देते रहते थे। इससे मैं भी सन् १८९८ में मेट्रिक पास कर सका । श्रीयुत लखमसी भाई सेंटझेविअर्स कॉलेजमें दाखिल हुए थे। उन्हें उस कॉलेजने जो सहूलियते ( सगवड़ें ) दे रक्खीं थीं, वे मुझे देनेसे इनकार किया तब लखमसीमाईने युनिवर्सिटिसे मेरे मार्क प्राप्त किये और अपने पाससे डिपाजिट मरकर मुझे एल्फिन्स्टन कॉलेजमें दाखिल करा दिया। मेरे मार्क अच्छे थे इसलिए मेरी कॉलेनकी फी माफ हो गई । इतना ही नहीं मुझे दस रुपये मासिककी स्कॉलशिप भी मिली । लखमसीमाईकी सहायता तो चाल ही थी।"
सन् १८९९ वे में लखमसीमाई बी. ए. पास हुए। लेटिन भाषाका भी इनका अभ्यास अच्छा था। भली माँति लेटिनमें बातचीत कर मकते थे । ये कच्छी दसा भोसवाल ज्ञातिमें दूसरे ग्रेन्युएट थे। सबसे पहले ग्रेन्युएट इस नातिमें वीरजी उद्धा
अपनी परिस्थितियों के कारण उन्होंने बी. ए. पास करके मेसर्स कॅप्टेन और वैद्य सॉलिसिटरके ऑफिसमें मेनेजिंग क्लर्ककी नौकरी कर ली। मगर साथमें लॉ कॉलेज भी अटेंड करते रहे। सन् १९०१ में उन्होंने एल एल. बी. की परीक्षा पास की।
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श्वेताम्बर मूर्तिपूमक जैन
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कच्छी दमा ओसवाल जातिमें ये सबसे पहले वकील हुए। इससे नातिने इन्हें सर गोकुलदास कानदास पारेख नाइटकी प्रमुखतामें मानपत्र दिया । लखमसीभाईने उत्तर देते हुए कहा:" यह मान मुझे नहीं मेरी पूज्य माता तेजबाईको है। " दूमरी भी कई संस्थाओंने उनको मानपत्र दिये।
सन् १९०२ में उन्होंने सनद लेकर स्मॉल कॉजेज कोर्टमें वकालत करना शुरू किया । इक्कीस बरस तक उन्होंने बराबर वकालत की और लोगोंमें, वकील मंडळमें तथा न्यायाधीशोंमें अच्छा मान व प्रेम प्राप्त किया। इस प्रेम संपादनका यह परिणाम हुआ कि सन् १९२३ में वे जे. पी. हुए सन् १९२४ में वे स्मॉल कॉजेन कोर्ट में एडिशनल जन मुकर्रिर किये गये ।
सन् १९०४ में मांडवीकी तरफसे बंबई म्युनिसिपल कोर्पोरेशनके मेम्बर चुने गये । तीन बरस मेम्बर रहकर उन्होंने अनुभव किया कि, समयके अमावसे कोर्पोरेशनके काममें चाहिए उतना योग वे नहीं दे सकते हैं। इसलिए उन्होंने खुद कोर्पोरेटर बननेका कोई प्रयास नहीं किया; परन्तु अपने छोटे माई डॉ. पुन्सीमाईको इसके लिए खड़ा किया और प्रयत्न करके उन्हें चुनवा दिया।
सन् १९०४ में वे कच्छी दसा ओसवाल महाजनके मंत्री चुने गये, बादमें तेरह बरस तक महाजनके उपप्रमुख रहे और सन् १९२४ में जातिने अपने प्रमुख बनाये । महानन कमेटि
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध ) योंके रिपोर्ट प्रायः वे ही तैयार करते थे।
सन् १९११ में वे अनंतनाथनी के मंदिरके ट्रस्टी चुने गये और सन् १९१४ से सन् १९२२ तक वे मंदिर और फंडके मॅनेजिंग ट्रस्टी रहे।
जैन श्वेतांबर कॉन्फरेंसमें वे हमेशा जातिकी तरफसे प्रतिनिधि चुने जाते थे । दूसरी बार बंबई में कान्फरेंस हुई उस समय पंडित लालन और शिवजीके कारण झगड़ा चल रहा था। बंबई में इसी झगड़ेको लेकर कॉन्फरेंस के दो माग हो जानेवाले थे। मगर लखमसीमाईके यत्नसे वह झमड़ा रुक गया। __ जैन श्वेतांबर एज्युकेशनल बोर्डके, जैन एसोसिएशन ऑफ इंडियाके और मांगरोल जैन समाके और यशोविजय गुरुकुल पालीतानेकी एडवाइजरी बोर्डके ये मेम्बर थे । लंडनमें स्थापित
वी जैन लिट्रेचर सोसायटी' के वे आजीवन सभ्य थे। 'सेंट झेविअर कॉलेज के वे ऑनरेरी खजानची थे। ___ अपने और अपने अनेक मित्रोंकी कठिनतासे उन्होंने अनुभव किया कि जब तक अपनी कोई शिक्षण संस्था न होगी तब तक जाति उन्नत न बनेगी । इस लिए उन्होंने यत्न करके सन १९०० में ' कच्छी दशा ओसवाल ' जैन पाठशाला और सन १९०३ में कच्छी दशा ओसवाल जैन बोर्डिंगकी स्थापना, अपने कई मित्रों और जाति-हितैषियोंकी सहायतासे की। इन संस्थाओंके कई बरसों तक ये मंत्री और प्रमुख रहें और
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श्रेताम्बर मूर्तिपूनक जैन तनमन धनसे इनकी सहायता करते रहे। अपने जीवनकी अंतिम घड़ी तक वे बोर्डिंग और पाठशालाके सलाहकार कार्यकर्ता और सहायक थे। ____ लखमसीमाईके दो लग्न हुए थे। पहला लग्न सुनापुर (कच्छ) के रामजी हीरजीकी कन्या श्रीमती पूरबाईके साथ हुए थे। इनके उदरसे तीने बच्चे हुए। एक बचपनही में गुजर गया। दूसरी कन्या लीलबाई थीं। वे भी कुछ दिन वैधव्य
और पुत्रवियोग भोगकर दुनियासे चली गई। पीछेसे पूरबाईका भी देहान्त हो गया। तीसरे दामनीमाई मौजूद हैं । ___इन्हीं दिनोंमें इनकी माता तेनबाई भी बीमार पड़ीं । इन्होंने और इनके भाई डॉक्टर पुन्सीने बहुत सेवा की। तेजबाईका मी देहांत हो गया। ये बाई अति समर्थ, कार्यकुशल और बुद्धिमान थीं।
लखमसीमाईके दूसरे लग्न तुंगी गाव (कच्छ) के शा. वीरजी डाह्याभाईकी कन्या श्रीमती मचीबाई उर्फ रतनबाईके साथ हुए थे। उनसे दो लड़के और एक कन्या उत्पन्न हुए । कन्या गुजर गई । लड़के बंकिमचंद्र और प्रेमचंद मौजूद हैं। ___ सन् १९२४ के जून महीनेमें लखमसीमाईको ‘स्मॉल कॉम कोर्ट के एडिशनल नजका पद मिला और उसी साल ३० वीं दिसंबरको उनका देहान्त हो गया। इस नर नके चले जानेसे भनेक शोक समाएँ हुई।
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जैनरत्न (उत्तरार्द्ध) वे जितने उत्साही समाजसेवक थे उतने ही न्यायप्रिय मी थे। जिस समय उनका देहांत हुआ उस समय 'स्मॉल काज कोर्टमें' शोक प्रदर्शित करनेके लिए एक सभा हुई थी। उस समामें स्मॉल कॉन कोर्टके चीफ जज श्रीयुत 'कृष्णलाल मोहनलाल जवेरीने कहा था:-" इनके अवप्तानसे इनके न्यायाधीश मित्रोंको बहुत बड़ा नुकसान हुआ है और बंबईकी स्मॉलकॉज कोर्ट में लड़ते झगड़ते आनेवालोंको एक निष्पक्ष और मायालु जज खोना पड़ा हैं। वे स्वर्गमें आनंद भोगते होंगे; परन्तु उन्हें चाहनेवालों और मित्रोंको ऐसी हानिमें डाल गये हैं जो की पूरी होनेवाली नहीं है।"
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श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन. पेज १६.
डॉ. पुन्सी हीरजी मैशेरी एल. एम्. एण्ड. एस. ए. जे. पी.
जन्म सं. १९३७.
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डा. पुन्सी हीरजी मैशेरी
एल. एम. एन्ड एस. ए. जे. पी. आदि
इनका जन्म सं० १९३७ : के भादवा . वदि. ५ के दिन हुआ था। जब ये एक बरसके थे तभी इनके पिताका देहांत हो गया था । इनकी मातुःश्री तेजबाईने लखमसीमाईकी तरह इनको भी शिक्षण लेनेके लिए स्कूलमें दाखिल कराया। इन्होंने मेट्रिककी परीक्षा पास करनेके बाद सोचा, मेरे भाई हमारी जातिमें जैसे पहले वकील हैं उसी तरह में भी पहला डॉक्टर बनूँ । इन्होंने अपने भाई और माताको अपनी भावना कही । उन्हें यह बात पसंद आई। लखमसीभाईने इन्हें मेडिकल
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध) कॉलेजमें दाखिल करा दिया। इन्होंने सन् १९०८ में एल. एम. एण्ड एस की परीक्षा पास की।
कच्छी दसा ओसवाल जातिने जैसे लखमसीमाईको सबसे पहले वकील होनेके उपलक्षमें मानपत्र दिया वैसे ही पुन्सीभाईको सबसे पहले डॉक्टर होनेके उप रक्षा मानपत्र दिया ।
डा. पुन्सीमाईने मांडवी बंदर पर ही सन् १९०८ में अपनी प्रेक्टिस शुरू की । इनका मिलनसार स्वभाव, इनकी रोगीको आश्वासन देनेकी पद्धति और पूरी जाँच करके रोगीको दवा देनेकी आदतने झकी अच्छी प्रसिद्धि की। मांडवी मुहल्ले में बसनेवाले क्या हिन्दु क्या मुसलमाम सभी लोग इन्हें स्नेह और मादाकी हिसे देखने लगे। ___ और इस स्नेह और आदरहीका यह परिणाम हुआ कि, सन् १९१३ में ये मांडवी मुहल्लेसे, म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन बंईके अंदर, प्रतिनिधि बनाकर भेजे गये । ये अवतक प्रत्येक बुमाकमें चुने जाते हैं। इन्होंने भी यथासाभ्य कॉर्पोरेशन द्वाश मी प्रनाकी सेवा की है।
इनकी कार्य कुशलताके कारण ही कॉर्पोरेशनने भी इन्हें स्टैंडिंग कमेटिके मेम्बर चुने । और आज तक उसके मेम्बर रहकर प्रजाकी उपयोगी सेवा कर रहे हैं। __इनके डॉक्टरी ज्ञानकी उत्तमताके कारण सन् १९१७ में इसको फ. सी. पी. एस. ( F C. P S.-फेलो ऑफ दि
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वेवर मूर्तिपूजक जेन
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कॉलेज ऑफ दि फिजिशिअन एन्ड सर्जन ) की पदवी प्राप्त हुई । सन् १९१८ में इन्फ्लुएंजा हुआ था । उसमें लोगोंकी सहायता करने के लिए ' कच्छी दसा ओसवाल जैन हॉस्पिटल और ' कच्छी वीसा ओसवाल जैन हॉस्पिटल, ऐसे दो हॉस्पिटल धर्मादेके खुले थे । उनमें इन्होंने ऑनरेरी डॉक्टर का काम किया था । यह समय डॉक्टरोंके लिए स्वर्णमुद्राएँ जमा करनेका था । एक एक मिनिट उनके लिए धन कमाता था । ऐसे समय में इन्होंने अपने समयका जो योग दिया वह बहुत ही कीमती और इनकी सेवाभावनाका ज्वलंत उदाहरण था ।
गवर्नमेंटने इनकी सेवाओंसे संतुष्ट होकर इन्हें जे. पी. की पदवी दी और कच्छी ओसवाल जातिने इन्हें मानपत्र दिया । सन् १९९८ में सिंगल सिटिंग पावर के साथ इन्हें ऑनरेरी मजिस्ट्रेटका ओहदा मिला ।
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अनंतनामजी महाराजके जिनमंदिर के ये ट्रस्टी हैं । कच्छी दसा ओसवाल जैन महाजन (पंचायत) के ये प्रमुख
कच्छी दसा ओसवाल जैन पाठशालाकी मॅनेजिंग कमेटी के दस साल तक सेकेटरी थे। दो साल से इसके ग्रे प्रमुख हैं । कच्छी दसा ओसवाल जैन बोर्डिंगकी कमेटीके भी ये प्रमुख हैं ।
सेल्स एण्ड पब्लिक सेफ्टी कमेटी के ये प्रमुख हैं। कच्छी प्रजापरिषदकी स्थापना करने वालोंमें से से एक है। पहले वर्ष बंबई
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध )
परिषद भरने और उसका कार्य करनेमें इन्होंने बहुत परिश्रम किया था । परिषदकी स्थापनासे एक बरस तक ये सेक्रेटरी भी रहे थे ।
सन् १९२९ में हिन्दु मुसलमानोंका हुल्लड हुआ था । उसमें इन्होंने पन्द्रह दिन तक अत्यंत महनतसे मांडवी मुहल्लेको शान्त रक्खा था । इस मुहल्लेर्म हिन्दु और मुसलमान दोनों कौमें बहुत बड़ी संख्या में बसती हैं । पुन्सीमाईका दोनों कौमों में प्रभाव है । इसी हेतुसे इन्होंने दोनों को शांत रखने में सफलता राई थी ।
इनके पांच लग्न हुए । पहला लग्न सन् १८९५ में कच्छतेरावाले सा राघवजी सोदे चांपाणीकी लड़की मांकबाईके साथ हुए। उनसे दो लड़कियाँ हुई और मर गई । सन् १९०५ मे बाईका भी देहांत हो गया ।
दूसरे लग्न कच्छ नलिया के सा मूरजी नत्थूभाई ककाकी लड़की वेजबाईके साथ सन् १९०७ में हुए । उनसे एक लड़की सन् १९१० में हुई । सुवावडमें ही बाईका देहांत हो गया ।
तीसरे लग्न अरीखाणाके सा वसनजी माणजी जीवराजकी लड़की सोनबाईके साथ सन् १९११ में हुए । सन् १९१६ में बाईका देहांत हो गया ।
चौथे लग्न कच्छ साहेरा के सेठ देवजी खेतसीकी लड़की नवल बाईके साथ सन १९१६ में हुए । उनसे बार बालक हुए ।
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श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन
दो लड़के-नवीनचंद और जवेरचंद; दो लड़कियाँ-रतनबाई और मधुरीबाई । सन् १९२३ में नवलबाईका देहांत हो गया।
___पाँच लग्न सांधाणके पटेल सा राघवजी खीमजीकी लड़की हीरबाईके साथ सन् १९२४ में हुए । इनसे कोई सन्तान नहीं हुई । सन् १९२७ में बाईका देहांत हो गया !
पुन्सीमाईका स्वभाव शान्त, सेवापरायण, परदुःखकातर स्पष्ट और सरल है । अपनी स्वाभाविक उदारताके कारण ये अनेक गरीबोंको मुफ्त भी दवा दिया करते हैं।
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सेठ खेतसिंह खीयसिंह जे. पी.
सुथरी (कच्छ) में नरपाणी कुटुंबके अंदर शा. खीयसिंह करमणका जन्म हुआ था। वे खेतीवाड़ीके उत्तम धंधे से अपना -गुजारा करते थे । उनकी पत्नी श्रीमती गंगाबाईसे उनके नौ पुत्र और एक पुत्रीका जन्म हुआ था। उनमेंसे पाँच भाई बचे थे । उनके नाम क्रमशः ये हैं - १ डोसाभाई २ सामंत उर्फ धामाई ३ खेतसिंहभाई ४ सोमपालभाई ९ हेमराजभाई.
सेठ डोसाभाईके कोई पुत्र नहीं हुआ । इसलिए उन्होंने अपने दोहिते माणेकमीको गोद लिया । लधामाईके एक पुत्र थे । उनका नाम देवजीभाई था । देवजीभाईके पुत्र जीवराज तथा लखमसी हैं। सेठ खेतसिंह माईके पुत्र हीरमी भाई थे ।
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जन्म सं० १९११ स्व० सेठ खेतसी खीयसी
श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन पेज २८
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श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन
२९
उनका पुत्र हीराचंद मौजूद है। सेठ सोपालभाईके पुत्र वसनजी तथा शिवजी हैं । बसनजीके दामजी और नरसी तथा शिवजीके डुंगरसी और वर्द्धमान हैं । दामजीके भी शामजी नामका एक पुत्र है | हेमराज सेठके शामजीभाई नामका पुत्र है ।
स्वीयसिंह कुटुंबका संक्षिप्त परिचय करानेके बाद अब हम खेतसिंहभाईका हाल लिखते हैं ।
खेतसिंह सेठका जन्म संवत १९११ में हुआ था । ये अपनी भुआ ( कोई ) के साथ सबसे पहले बंबई आये थे । और शाक गलीवाली पुरुषोत्तम महताकी शाला में व्यवहार लायक शिक्षण लेकर माघवजी घरमसीकी कंपनी में रूई विभाग में ( खाते में ) नौकर हुए । कुछ बरसोंके बाद नौकरी छोड़कर दो दूसरे मागीदारोंके साथ इन्होंने खेतसी मूलजीके नामसे एक कंपनी शुरू की। कुछ बरसोंके बाद इस कंपनीको नुकसान हुआ। दो हिस्सेदार देशमें चले गये। कंपनी बंद हो गई। मगर इन्होंने अपने हिस्सेका नुकसान देकर लेनदारोंको संतुष्ट किया । और अपने भाई सोमपाल खेतसिंह के नामसे रोजगार शुरू किया । रोजगार अच्छा चल निकला ।
इनके दो लन हुए थे। पहला लग्न सं० १९३२ में हुआ था। इनके कोई सन्तान नहीं हुई । इनका देहांत होने पर सं० १९३७ में इनके दुसरे लग्न श्रीमती वीरबाई के साथ हुए । इनकी कोख से एक पुत्र जन्मा । उसका नाम हीरजीभाई
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३०
जनरत्न ( उत्तरार्द्ध )
रक्खा । होरजीभाईका जन्म जिस वर्षमें हुआ उस वर्षमें सोमपाल खेतसिंहकी कंपनीको खूब नफा हुआ, इसलिए खेत सिंह माईके सभी बंधुओंका विचार हुआ कि, यह लड़का भाग्यशाली है । अगर इसके नामसे धंधा शुरू किया जायगा तो हमको नफा होगा । इसलिए उसी साल यानी सं० १९४४ में ' हीरजी खेतसिंह ' की कंपनी के नामसे रोजगार शुरू किया । इस कंपनीके शुरू होनेके बादसे खेतसिंह सेठने करोड़ों कमाये और गुमाये भी ।
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लक्ष्मी बहती गंगा है । इसका जो जितना सदुपयोग कर लेता है उतना ही वह नफा उठाता है । यानी धर्म - पुण्यमें जितना खर्च कर लेता है वही उसके खाते में जमा होता है । बाकी सब व्यर्थ । खेतसिंह सेठने जितना दानपुण्य किया उसका ब्योरा नीचे दिया जाता है ।
१२०००००) बारह लाख रुपयेके करीब सं० १९५५ से सं० १९७७ तक यानी उनकी मृत्यु हुई उसके पहले तक कच्छ, काठियावाड़ और गुजरात में दुष्काल पड़े उन मौकों पर गरीबोंको अन्नवस्त्र देनेमें
और पशुओंको खास खिलाने में खर्चे। इनके अलावा १०००००) जिन-मंदिरोंका जीर्णोद्धार कराने में । १०००००) धर्मशालाएँ वगैरा बँधवाने में ।
१०००००) जीवदया फंडों और पांजरापोलो में |
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श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन
१७५०००) पालीतानाका संघ निकाला उसमें ।
८००००) उजमणा किया उनमें । ८२०००) अपने गाँव सुथरीमें जातीय मेला किया उसमें । ८००००) जाति में सात बासनों - बर्तनों की लाणी की (माजीबांटी ) उसमें ।
३१
- ५००००) सर वसनजी त्रिकमजी और खेतसिंह - खियसिंह जैन बोर्डिंग पालीतानमें ।
३००००) दूसरे बोर्डिगों, बालाश्रमों और अनाथाश्रमों में २५०००) पाठशालाओं, कन्याशालाओं और श्राविकशालाओंको ।
२४००० ) लींबड़ी के दो बारकी उपाधान क्रियाओंमें । १५०००) पालीताने में जलप्रलय हुआ उस समय छप्पर बँधवाने |
७६०००) श्रीकच्छी दशाओसवाल जैन जातिका कर्ज चुकाने में। १०११०१) निराश्रितोंको आश्रय देनेके कामोंमें ।
२५०००) जातिकी तरफसे इन्हें मानपत्र दिया गया था तब जुदाजुदा संस्थाओंमें |
२७०००) लींबड़ी ( काठियावाड़) में बोर्डिंग के लिए मकान बँधवाया उसमें ।
२५०००) लींबड़ीमें एक जिनमंदिर बँधवाया उसमें । १००० ) प्रोफेसर बोसकी साइंस इन्स्टिट्यूट कलकत्ताको ।
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध )
१०००००) हिन्दु युनिव्हरसिटि बनारसको । ___१००००) कच्छी वीसा ओसवाल जैन बोर्डिंग बंबईको । २४३०१०१) इस तरह कुल चौबीस लाख तीस हजार एक सौ एक रुपये के करीब इन्होंने दान-पुण्य किया । सं० १९५५ के पहले कुछ किया होगा वह मालूम न हो सका । न उनके गुप्त दानकाही कुछ पता चला। लोग कहते हैं गुप्त दान भी वे बहुत दिया करते थे।
जामनगरके अनाथालयके एक वार्षिकोत्सव पर ये प्रमुख हुए थे । उस मौके पर इन्होंने जुदाजुदा संस्थाओंको अच्छा दान डिया था । पालीतानेके पास चौक गाँवमें इन्होंने हॉस्पिटल के लिए मकान बँधवा दिया था। सुथरीमें इनके नामको एक शफाखाना चल रहा है। हालार प्रांतके दबासंग आदि गाँवोंमें उनकी तरफसे पाठशालाएँ चल रही हैं। ____ व्यापारमे करीब ढाई तीन करोड़की उयलपायल सालाना करते थे । कई कंपनियोंके डिरेक्टर थे। उनके नाम यहाँ दिये जाते हैं।
( १ ) बैंक ऑफ इंडिया लिमिटेड ( २ ) सेफ डिपाजिट लिमिटेड ( ३ ) ज्युपिटर जनरल इन्स्योरेंस कंपनी लिमिटेड ( ४ ) राजपूताना मिनरल कं. लिमिटेड ( ५ ) अशोक स्वदेशी स्टोअर्म लिमिटेड (६ ) न्यु स्टॉक एक्सचेंज (७) बोम्बे कॉटन एक्सचेंन
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श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन
३३
सरकारने उन्हें उनकी व्यापारी कुशलता और उदार सखा
वर्तोंके कारण जे. पी. की पदवी दी थी ।
श्री कच्छी दशा ओसवाल जैनजातिने सन् १९१७ में ऑनरेबल सर पुरुषोत्तमदास ठाकुरदासकी अध्यक्षता में एक बहुत बड़ा मेलावड़ा (जल्सा) किया था और महाजन (पंचायत) की तरफ से उन्हें, सरपंच ( प्रमुख ) की पगड़ी बँघवाकर बहुत बड़ा मान दिया था । वे अनेक बरसों तक पंचायत के प्रमुख रहे थे । मुर्तिपुजक श्वेतांबर समाजने भी श्वेतांबर जैन कॉन्फरेंस के ग्यारहवें अधिवेशन के जो कलकत्तेमें हुआ था इनको प्रमुख बनाया था । कच्छी समाजमेंसे कॉन्फरेमके ये सबसे पहले प्रमुख थे । उस समय जब ये कलकत्ते गये थे तब यहाँ से एक स्पेशल ट्रेन द्वारा गये थे और बंबई के प्रतिनिधियोंको अपने साथ ले गये थे । इन्होंने प्रमुख स्थानसे जो मननीय भाषण दिया था उसकी जैन और अजैन सभी पत्रोंन मुक्त कंठसे प्रशंसा की थी '
इनका दान सात्विक होता था । मानकी इच्छा उसके पीछे नहीं होती थी। एक बार एक सज्जन खेतसिंह सेठ के पास आये और बोले, " अगर आप किसी सरकारी स्कूल या कॉलेजमें रुपये सवा दो लाखका दान दें, तो गवर्नमेंटमें आपका बहुत सम्मान होगा और आपको कोई ऊँची पदवी भी मिलेगी।” खेत सिंह सेठने हँसते हँसते जवाब दिया :- "भले आदमी !
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३४
जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध )
दान क्या मान और पदवीके लिए किया जाता है ? मान और पदवीके लिए जो धन दिया जाता है वह तो उनकी कीमत है । वह दान नहीं । और मैं तो सरकारको प्रसन्न करने की अपेक्षा अपने प्रभुको प्रसन्न करना ज्यादा अच्छा और हितकारक समझता हूँ | इस समय मेरी मातृभूमि कच्छ में, तथा काठियावाड़ और गुजरातमे मयंकर दुष्काल है। हजारों स्त्रीपुरुष अन्नके बगैर तड़प रहे हैं । ऐसे वक्त में आपकी सलाह के अनुसार रकम नहीं खरच सकता | हाँ सवा दो लाख नहीं ढाई लाख रुपये देनेका संकल्प मैं इसी समय करता हूँ । इनका उपयोग दुष्कालपीडित लोगों की मदद करनेमें किया जायगा । "
।
उनकी मनुष्य - दयाकी भावना इस उदाहरणसे स्पष्ट होती है। धर्मपर उनकी पूर्ण श्रद्धा थी नियमित देवदर्शन करते थे और साधु साध्वियोंकी तनमन और धनसे सेवा करनेको सढ़ा तत्पर रहते थे ।
इन्होंने अपने पुत्रके लग्न बड़ी धूमधामसे किये थे । लग्नर्मे कहा जाता है कि, करीब एक लाख रुपये खर्चे थे ।
सन् १९२० में इनके इकलौते भाग्यशाली पुत्र हीरजीभाईका पेरिस में देहांत हो गया। इसका इनके मन और शरीर पर बहुत खराब असर हुआ और सन् १९२२ के मार्चकी २२ वीं तारीख के दिन इनका लीमड़ीमें देहांत हो गया ।
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श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन
हीरजी खेतसिंह इनका जन्म सं० १९४४ के आसोन सुदि १५ के दिन हुआ था। इनके माग्यके कारण सोजपाल खेतसिंहकी कंपनीको बहुत नफा हुआ।
इन्होंने प्रिविअस तक अभ्यास किया था। अपने पिताकी तरह बड़े उदार थे। अपने जेब खर्चमेसे अनेक विद्यार्थियों को मदद किया करते थे। इन्होंने सुथरीकी पाठशालाको-जहाँ इन्होंने अपनी शिक्षा प्रारंभ की थी-कई बार महायता भेजी थी। अनेक विद्यार्थियोंको उच्च शिक्षा लेने जानेके लिए खर्चेकी व्यवस्था कर दी थी।
इनके दो लग्न हुए थे । प्रथम पत्नीसे एक कन्या और दूसरी पत्नीसे एक पुत्र हुआ था । कन्या चंदनबाईका देहांत हो गया है । पुत्र हीराचंद अभी मौजूद है।।
ये व्यापारमें लगे उसके थोड़े ही दिन बाद इन्होंने रूईका बहुत बड़ा सट्टा किया । अत्यंत परिश्रम करके पट्टेको पार उतारा
और तभी उन्होंने समझा कि खुद परिश्रम करके धन कमाने कितनी तकलीफ होती है
अच्छे अच्छे विद्वान, धनाढ्य और काठियावाड़के राजा महाराजाओंसे इनका स्नेह था।पालनपुरके नवाब तालेमहम्मदखाँ, बडौदेके स्व० कुमार जयसिंहराव, पोरबंदरके राणा नटवरसिंहजी और लींबडीके कुमार दिग्विनयजीके साथ इनका कुटुंबकासा
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध )
स्नेह था | अनेक विद्वानोंको समय समयपर वे सहायता दिया करते थे । ' मांडारकर रिसर्च इन्स्टिटयूट पूना को उन्होंने २५०००) रुपये की रकम दानमें दी थी ।
"
वे ' श्वेतांबर जैन कॉन्फरेंस' के मंत्री रहे, फ्रीमेशन की ओरियंटल बके, और रोयल एशियाटिक सोसायटि वगैरा के वे मेम्बर थे । क्रिकेटके शौकीन होनेसे वे हिन्दु जीमखानेके पेटून बने थे । कच्छी दसा ओसवाल जैन बोर्डिगके वे ट्रस्टी थे । ता. १६-७-१९२० के दिन पेरिसमें इनका देहांत हो
गया ।
सेठ हेमराज खीयसिंह
मं० १९१७ में इनका जन्म हुआ था। इनका धंधा हीरजी खेतसिंहकी कंपनी में ही था । इन्होंने अपनी प्राइवेट संपत्तिमे से नीचे लिखा दान दिया है।
२५०००) निराश्रित फंडमें ।
५०००) पालीताना जलप्रलय के समय ।
१०००००) सं० १९८० में कच्छके दुष्काळके वक्त गरीबों और मूक पशुओं की सहायता में ।
इसके अलावा खेत सिंह सेठने जो दान किया है उसमें १९८० में ६३ बरसकी आयुमें
इनका भाग था ही । सं० उनका देहांत हो गया ।
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श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन पेज ३७
Goog.go.gigopogos.go-goagopogogoagogogoagogo
ఆంధ్యంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంది.
स्व० सर विसनजी त्रिकमजी
जन्म सं० १९२२
ఆంంంంంంంంంంంంంంంటి
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सर वसनजी विकमजी नाइट
सर वसनजीके पितामह सेठ मूलनी देवजी सुथरी (कच्छ) में रहते थे । जातिके दसा ओसवाल और मूर्तिपूजक श्वेतांबर जैन थे । सेठ मूलनी सं० १८९० में बंबई आये थे । और सेठ नरसी केशवजी नायककी पेढीमें, अपनी होशियारीके कारण, मागीदार हुए । लक्ष्मी प्रसन्न हुई और धनी बने ।
सं० १९२२ के जेठ महीनेमें मूळजी सेठके पुत्र त्रिकमजीके घर पुत्रका जन्न हुआ । उसका नाम वसननी रक्खा गया। यही बालक वसननी प्रसिद्ध सर वसनजी हुए।
वसनजीके जन्मके छः ही दिन बाद उनकी माता लाखबाईका देहांत हो गया। माताका देहान्त हो गया; परन्तु
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध )
लक्ष्मीने उनके घरमें द्विगुण प्रभाके साथ प्रवेश किया ।
सं० १९३० में उनके पिता त्रिकमनीका और सं० १९३२ के कार्तिक वदि ११ के दिन उनके दादा मूलजीका भी देहांत हो गया । दस ही बरसकी आयुमें बालक वसननी निराधार हो गये। उनकी पेढीका काम लखमसी गोविंदजी करने लगे। वे जब कुछ बड़े हुए तब खुद ही कामकाज देखने लगे।
इनके तीन लग्न हुए थे । पहला लग्न शा वालनी वर्द्धमानकी पुत्री श्रीमती खेतबाई के साथ हुआ था। उनसे प्रेमाबाई
और लीलाबाई नामकी दो पुत्रियाँ और शामजीमाई नामके एक पुत्र हुए थे।
दूसरा ब्याह नरसी नाथाके कुटुंबमें श्रीमती रतनबाईके साथ हुआ था । इनसे एक पुत्र मेघनीभाई और एक कन्या लक्ष्मीबाई हुए थे।
तीसरे लग्न ठाकरसी पसाइयाकी पुत्री श्रीमती वालबाईके साथ हुए । इनसे बंकिमचंद्र नामका एक पुत्र हुआ।
सेठ वसनजीभाई बड़े ही उदार सज्जन थे । इनकी सखावत बचपन से ही प्रारंम हुई थी। पन्द्रह हजार रुपये लगाकर उन्होंने बारसीमें और सांएरामें जिनालय बनवाये ।
सं० १९५२ में उन्होंने अपने गरीब जाति भाइयोंको सस्ते मावसे अनाज देनेके लिए एक दुकान खोली थी । इससे
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श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन
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जाति में उनकी बहुत प्रशंसा हुई थी । बंबई में जब कॉलेरा ( मरकी ) का रोग हुआ था, तब उन्होंने लोगों को राहत देने के लिए एछ अस्पताल मांडवी बंदर पर खोला था । गवर्नमेंटने इसलिए उनकी बहुत प्रशंसा की थी ।
सं० १९९६ के भयंकर दुष्कालमें उन्होंने दुखी लोगोंको अच्छी मदद की थी । अपने गाँव सुथरी ( कच्छ ) में अनाजकी दुकान खोलकर अनेक गरीब लोगों को आश्रय दिया था ।
इस तरह की उनकी परोपकार वृत्तिसे प्रसन्न होकर सरकारने पहले उनको जे. पी. की और पीछेसे राव साहबकी पदवी दी थी ।
ये सरकारी सम्मान कच्छी जैन समाज में सबसे पहले बसनजी सेठहीको मिले थे । इस तरहका सरकारी मान, जाति में पूर्ण प्रतिष्ठा और लक्ष्मी की पूर्ण कृग होते हुए भी वसनजी सेठ निरभिमानी थे ।
उन्होंने दान बहुत किया है, परन्तु सब प्रकट नहीं हुआ । वे कभी यह नहीं चाहते थे कि वे जो दान दें वह प्रसिद्धि में आवे । मगर प्रायः जैन समाजका और खास करके कच्छी दसा ओसवाल जैनसमाजका एक मी धार्मिक या सामाजिक काम उनकी जिंदगी में ऐसा न हुआ होगा जिसमें उनकी रकम न होगी । उनके दिये हुए दानमेंसे जो रकमें प्रसिद्धि में आई यहाँ दी जाती हैं ।
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध )
१०००) लेडी नार्थकोट हिन्दु आर्फनेन बंबईके अंडमें। १२५०) घायल जापानियों की शुश्रूषाके लिए जो कंड हुआ
उसमें। ३०००) जैन मंदिरों के जीर्णोद्धारके लिए । ७५००) जैन यतिपाठशाला पालीताने को । १२०००) जैनधर्मप्रसारक वर्ग पालीताने को । ६०००) बंबई युनिव्हरसिटको स्वर्गीय करमशी दामनी
स्कॉलर्शिप खाते। ५००००) सर वसननी त्रिकमनी और खेतसी खीसमो जैन
बोर्डिंग पालीताने में । २२५००० सन् १९११ में उन्होंने रोयल इन्स्टिट्यूट ऑफ
सायंसको दिये थे। उसीसे वसननी विक्रमजीके नामकी एक लायब्रेरी वहीं चल रही है। रोयल इन्स्टिट्युटको उन्होंने सवा दो लाख रुपयेकी सखावत की इसीसे खुश होकर गवर्नमेंटने उनको 'सर नाइट' की पदवी दी थी। यह पदवी कच्छी जैन
समाजमें सबसे पहले इन्हींको मिली थी। लोगोंका कहना है कि, उन्होंने करीब तेरहलाख रुपयेका दान दिया था।
विद्या और विद्वानोंके वे आश्रय थे। कई प्रसिद्ध प्रसिद्ध
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श्वेतांबर मूर्तिपूजक जेन १ विद्वान उनसे नियमित मासिक सहायता पाते थे। उनके दर्वाजे पर गया हुआ कभी निराश नहीं लौटा।
वे खोजा रीडिंग रूमके जीवनसभ्य थे । मांगरोल जैनसमाजके प्रतिनिधि थे। सेठ नरसी नाथा चेरिटी फंडके, कुमठा मंदिरके, सिद्धक्षेत्रमें स्थापित वीरबाई पाठशालाके और अपने नामके जैनबोर्डिंगके ट्रस्टी थे। कच्छी दसा ओसवाल जैन महाजनके प्रमुख, पांजरापोल बंबईके ट्रस्टी व उपप्रमुख थे। कॉटन एक्सचेंज और कॉटनटेड एसोसिएशनके वे समासद थे। कई मिलोंके डिरेक्टर भी थे।
शिक्षणका प्रचार करने के लिए उन्होंने खेतबाई जैनपाठशाला और रतनबाई जैनकन्याशालाकी स्थापना की थी। वे अनेक विद्यार्थियोंको मासिक स्कॉलर्शि भी दिया करते थे।
एक बार वे इंग्लैंड मी हो आये थे। वे उत्साही, कार्य: दक्ष, निरभिमानी और सखी पुरुष थे। जैनसमाजको उनका अभिमान था।
दैव दुर्विपाकसे उनकी पिछली जिंदगीमें उन्हें संकटका सामना करना पड़ा । लक्ष्मी समी विलीन होगई। तो भी लोगोंने कभी उन्हें शोक करते नहीं देखा। वे कहा करते थे, लक्ष्मी आती है और जाती है । इसके लिए हर्ष शोक कैसा?
ता. १२-१-१९२२ की रातको यह महान नर इस मानव देहको छोड़कर चला गया। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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सा. मालसीमांयाके परिवारका परिचय
मा. मांया पुन्सी कच्छ रवामें रहते थे। दसा ओसवाल श्वेतांबर जैन ये। खेतीका काम करते थे । उनके चार लड़के १ मोजपाल २ माणजी ३ मालसी ४ रतनप्ती और दो लड़कियाँ १ जेतबाई २ जीवांचाई थे ।
मालसीमाईका जन्म सं० १९०२ में कच्छ रवामें हुआ या। वे छोटी उम्र में बंबई माये थे । और रूईकी नौकरी करते
और काठियावाड़में व्यापार करने जाते थे। उसके बाद निकल कंपनीमें नौकर हुए। इस कंपनीकी तरफसे मांडवी (कच्छ) में एजंट होकर गये। उस दिनसे ये पैसेन्जर एजंटकी तरह काम करते रहे । यह काम उन्होंने दस बरसतक किया । बादमें
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श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन.
पेज ४३.
स्वर्गीय सेठ मालसी माया जन्म सं. १९०२
स्वर्गवास सं. १९७२
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बी. आइ. एस एन. कं० के. पेसेंजर एजंट मेसर्स मालसी मायाकी कं० की तरफसे, श्री. दामजी मालसीने भांडूपमें श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन. ] उपाधान तपका महोत्सव कराया था उसका दृश्य ।
[ पेज ४४
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श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन ब्रिटिका इंडिया स्टीमनेविगेशन कंपनी लिमिटेड में बंबई में एजंट मुकर्रर हुए । उसमें वे आखिर तक रहे। उनके वंशज अबतक वही काम कर रहे हैं। ____ मालसीमाईके सात लड़के और तीन लड़किया हुए। लड़के १ सामनी २ नागसी ३ चांपसी ४ दामनी ५ लखमसी ६ हीरजी ७ करमसी और लड़कियाँ दो १ पूरबाई २ सोनबाई । अभी उनमें से चांपसी, दामजी और करमसी मौजूद हैं। ___ चांपलीके केशवजी और भोजराज नामके दो लड़के हैं । केशवजीक बंकिमचंद नामका लड़का है। चांपसीकी पत्नीका नाम धनबाई है। उनके लड़के केशवजीकी पत्नीका नाम प्रेमाबाई है।
दामजीमाईके एक लड़का कानजी और लड़की नेणबाई हैं । दामनीमाईकी स्त्रीका नाम जेठीबाई है।
करमसीके कोई संतान नहीं है।
मालसीमाईके तीनों लड़के साथ रहते हैं। उनमें अच्छा संप है। उन्होंने भांडपमें अस्सी हजार खर्चकर बंगले बंधाये हैं। कच्छ रवामें भी अभी जायदाद पर करीब पचास हजार रुपये खर्चे हैं। ___मालसीभाईके लड़के लड़कियोंके लग्नमें करीब पचास हजार रुपये खर्च हुए हैं। सं० १९८४ के आसोनमें कच्छ वामें
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जैनरस्म ( उत्तराई) मालसीमाईकी लड़की पूरबाईके उजमणेमें इन्होंने पाँच हजार रुपये खर्चे हैं।
सं० १९८५ के मगसरमें भांडुपमें उपधानकी क्रिया कराई थी। ऐसी क्रिया कच्छी दप्सा ओसवाल जातिमें सबसे पहले हुई है । इसमें दस हजार रुपये खर्च हुए थे। उस समय कच्छ नखउ. वाली गंगास्वरूप बहिन भच्चीबाई और कच्छ नलियावाला गंगास्वरूप बहिन कुंवरबाईने पंन्यासनी दानसागरजी महाराज के पाससे दीक्षा ली थी। उनके नाम क्रमशः कमलश्री और कल्याणश्री रखे गये । इनके दीक्षा महोत्सवमें मालसीमांयांके परिवारने अपने मागके एक हजार रुपये खर्चे थे । उपधान और दीक्षाके महोत्सव बड़ी धूमधामसे किये गये थे।
उस समय दो अच्छी बात हो गई (१) सा. शिवजी मेघणकी लड़की और सा. हीरजी पर्वतकी पत्नी रतनबाईको संसारसे विरक्ति और भात्मज्ञाकी प्राप्ति हुई (२) कच्छ खावाळे सा. कानजी नरसीकी लड़की गंगास्वरूप बहिन जेतबाईके मनमें दीक्षा लेनेका विचार भागया और इन्होंने उसी वर्ष वैशाख मुदि ३ को भायखाला कमलश्रीजीके पाससे दीक्षा लेली। उनका नाम जयश्रीमी रक्खा गया ।
. मांडुपके उपधान और दीक्षा महोत्सवका काम कच्छी नैनों के सिवा काठियावाड़ी, गुजराती, मारवाडी भाई बहिनोंने भी
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बी. आइ. एस. एन. के. के. पेसेंजर एजंट मेसर्स सालसी मायाकी कं० की तरफसे श्री दामजी मालसीने भांडूपमें शेतांतर मनिपजक जैन
सधान तपका महोत्सव मा ा या तया ।
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श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन उठाया था। उपधानकी क्रिया पन्यासनी दानसागरजी महाराजने कराई थी।
मालसीभाई बुद्धिवान, विवेकी, विनयवान और कार्यदक्ष पुरुष ये । उनकी पत्नी लाखबाई शान्त स्वभाववाली और सच्चरित्रवाली थी। उनकी संतानोंमें मालप्तीमाईकी बुद्धि और लाखबाईकी शान्ति गुण आये हैं । लाखबाई सं० १९५४ में और मालसीमाई सं० १९७२ में रामशरण हुए । मालमीमाईके संतानोंने अपने कुलकी कीर्ति बढ़ाई है। अच्छे कामोंमें हमेशा इन्होंने अपना माग दिया है।
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सेठ कुँवरजी आणंदजी
( देवजी कुँवरजीकी कंपनी काथा बजार मांडवी )
१ कच्छ मंजल रेडलियामें आनंदजी सारंगके यहाँ इनका जन्म सं० १९३२ में हुआ. ये श्वेतांबर जैन है। आनंदजीके छ: लड़के थे - (१) कुंवरजी (२) खेतसी (३) गंगाजर ( ४ ) मनजी (५) आसारिया (६) देवजी । लड़कियाँ ३ थीं ममुबाई, देकांबाई, दीमुबाई ममुबाईके लग्न कच्छ कोठारेर्म कच्छ कोठारे हुए चांपसी लालजी के साथदेकांबाई के लग्न हेमराज हंसराजके लड़के हंसराज के साथ हुए । दीमुबाईके कच्छ सुथरी में मायां कुर्दरके लड़के रायमलके साथ हुए ।
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श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन. पे. ४६.
सेठ कुँवरजी आणंदजी.
जन्म सं० १९३२
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श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन
कुँवरजीभाई सं० १९५३ में बंबई आये और शामजी खीमजीकी कंपनी में नौकर होकर खामगाँवमें गये। दो बरस तक नौकरी की फिर सं० १९५५ मे कुँवरजी आनंदजीके नामसे खजूरका रोजगार शुरू किया। चार बरसके बाद सं० १९९९ में शिवजी कुंवरजीके नामसे खजूरका कमीशनसे बंधा शुरू किया । इसमें अच्छी कमाई की। सं० १९६२ में देवजी कुँवरजीके नाम से धंधा शुरू किया और इसमें इन्होंने अच्छी रकम पैदा की।
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सं० १९९७ के महा वदि ७ की कच्छ बांकुडेके पटेल सा सोनपाल उड़ाकी लड़की कुँवरबाई उर्फ ममृबाईसे व्याह किया ।
घाटकूपर में पचास साठ हजार रुपये खर्चकर बँगला बँधाया । अपने गाँव भी अच्छी स्टेट बनवाई है ।
सं० १९८५ में कच्छ के मंजिल गाँवके बाहर तलाव के पास एक भव्य धर्मशाला बनवाई है । उसमें करीब चालीस हजार रुपये खर्च हुए ।
1
कच्छ में जब जब दुष्काल पड़े तब तब अपने गाँवमें अनाज बटवाया है। इसमें करीब बीस-पचीस हजार रुपये खर्च किये हैं ।
गायों को कच्छ में हरसाल पाचसौ छः सौका घास डलवाया करते हैं ।
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध )
सं० १९६५ से अबतक बीस बरसमें जुदा जुदा चंदों में
करीब पौन लाख रुपये दिये हैं ।
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माईके लड़के रतनसी माणेककी पुत्री झपकु
खर्च किये थे । अपने
सं० १९७४ में अपने छोटे
को गोद लिया है । इसके लग्न कानजी बाईके साथ किये । उसमें अस्सी हजार भाइयोंके लग्नों में भी इन्होंने पचास हजार रुपये खर्चे ।
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नं० १९७२ में इनके पिताका और सं० १९८३में इनकी माताका देहान्त हुआ । इनकी माताने धर्मादेमें दस हजार रुपये खर्च किये
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इनके पुत्र रतनसीके लखमीचंद नामका लड़का है । इनके भाई गंगाजरके चांपसीपुत्र और मानबाई नामकी पुत्री है । वसनजीके हीरबाई नामकी लड़की है। चौथे माईके कोई संतान नहीं है । माई देवी लालजी नामका पुत्र है ।
कुँवरजी सेठकी माता मेघवाई बहुतही सरल और गृहकार्य कुशल थीं। इससे इनके माइयों में हमेशा प्रेम रहा । कभी कोई झगड़ा नहीं हुआ ।
कुँवरजी माईका स्वभाव सादा, सत्यप्रिय और निखारस है । यही इनकी सफलता की कुंजी है ।
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श्वेतांबर मूर्तिपूजक जन पेज ४९
सेठ पदमसी शिवजी. जन्म सं. १९४८
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पदमसी शिवजी (गोविंदजी पदमसीकी कंपनी, काथाबजार मांडवी )
सं० १९४८ के पोस वदि ६ के दिन कच्छ रवा गावमें सेठ पदमसीका जन्म हुआ। ये श्वेतांबर जैन हैं। इनके पिता शिवनी माणिक थे। इनके ३ लड़के और छ: लडकियाँ हुई। लड़के हीरजी, राघवनी और पदमसी, लड़कियाँ भागबाई, सुंदरबाई, पुरवाई, मीठाबाई, कुंवरबाई और धनबाई ।
सेठ पदमसीका पहला ब्याह कच्छ नलियाके शिवजी नागजीकी पुत्री वालबाईके साथ हुआ था। उससे एक मागवाई नामकी कन्या हुई।
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध )
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___ दुसरे लग्न नलियाके खिमराज रतनसीकी लड़की प्रेमाबाई के साथ हुए । उनके दो लड़के और दो लड़कियाँ हुई। लड़कों के नाम गोविंदनी और लखमीचंद हैं। लड़कियाँ देवकुँवर और रतन हैं। ____सं० १९५८ में पदमसी सेठ बंबई आये । ये आंक हिसाब और गुजरातीकी एक किताब पढ़े थे । सं० १९६१ में ये नेणसी देवसीकी कंपनीमें इनके भाई हीरजीकी जगह भागीदार हुए । इन्होंने सं० १९७६में मर्चेट्स स्टीमर नेविगेशन (प्राइवेट) कंपनीकी स्थापना की । इसमें इन्होंने अच्छी कमाई की।
सं० १९७६ में पचास हजार रुपये खर्च कर बँगला बाँधा।
सं० १९७४ में पिताका और सं. १९७९ में माताका देहावसान हुआ। ___ इनके पिता व्यवहारकुशल और धर्मपरायण थे। माता मद्रिक स्वभावकी थी। ___ इनके गांवमें इनकी खेतीबाड़ी है। उसकी आमदनी वहीं धर्मा देमें खर्च देते हैं।
कच्छ नलिया शिवनीमाईका स्थापन किया हुआ एक जैनबालाश्रम है । उसमें ये अपने प्राइवेट खर्च से तीन सौ रुपये सालाना देते हैं।
कच्छमें जब जब दुष्काल पड़े थे तमी तब इन्होंने अच्छी मदद की थी।
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श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन
कच्छ नलियाके कच्छी जैनबालाश्रमके व्यवस्थापक और दसा ओसवाल महाजनके ये सभ्य हैं।
कच्छी दसा ओसवाल सेवक समानके ट्रस्टी हैं। पालीतानेकी सर विसनजी त्रिकमजी जे. पी. और सेठ खेतसी खीअसी जे. पी. जैनबोर्डिंग स्कूल फंडके ये ट्रस्टी हैं।
इन्होंने अपनी लड़की मागबाईके लग्न कच्छ नलियाके शा माणजी मूरजीके लड़के गोविंदजीके साथ किये थे। उसमें बीस हजार खर्चे थे।
सं० १९८५ के आसोज सुद ८ को गोविंदजी पदमसी नामसे अपनी नई पेढी शुरू की । इनकी छः बहनोंमेंसे अमी तीन बहनें सुंदरवाई, पूरवाई, और मीठाबाई मौजद हैं।
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वीरजी लढा
(वीरजी ला कं० चिंच बंदर मांडवी बंबई )
सं० १९४७ के वैशाख वदि ० ) ) शनिवार के दिन गाँव नलिया (कच्छ) के निवासी लद्धा खीं अराजके यहाँ इनका जन्म हुआ । इनके दो बहिने हैं- १ देकांबाई २ चांपूबाई | नलियावाले सेठ ठाकरसी पसाइयाके साथ देवांचाई के और वराडीयावाले थोमण राघवजी के साथ चांपूचाईके लग्न हुए ।
वीरजीभाईके तीन लग्न हुए । पहले लग्न मांडण पदमसी की लड़की मांकबाईके साथ सं० १९६२ में हुए । सन्तानहीन पाँच बरसके बाद वे मरीं ।
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श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन. पेज ५२.
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श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन दूसरे लग्न सुथरीवाले चांपसी द्धाकी लड़की उमरबाईके साथ हुए और आठ बरसके बाद वे भी सन्तानविहीन चली गई।
तीसरे लग्न धननी वरसंग पालाणीकी लड़की लीलबाईके साथ हुए।
सं० १९६० में इनके पिता द्धामाईका देहान्त हुआ। वे हीरजी खेतसीकी कंपनीमें हिस्सेदार थे। ___ ये सं० १९६४ में हीरनी खेतसीकी कंपनीमें काम करने लगे सं० १९६५ में दो सौ रुपये सालाना वेतन मिलने लगा
और सं० १९७० तक बारह सौ सालाना हो गये। सं० १९७१ में ये भी हीरनी खेतसीकी कंपनी में भागीदार हुए । सं० १९७४ में भवानजी धनजीके नामसे, पदमसी पासवीरकी भागीदारीमें, रुईका अत्या-व्यापार शुरू किया। पदमसीमाईका देहान्त हो गया इससे उसी साल धंधा बंद करना पड़ा।
ये सं० १९७५ में अर्जन खीमजीकी कंपनी में हिस्सेदार हुए । सं० १९७८ तक रहे। फिर सं० १९७९ में वीरजी लद्धाके नामसे रुईका व्यापार शुरू किया। वह आजतक चालु है।
सं० १९८६ के कार्तिक सुद १३ को इनकी माता दिमु. बाईका देहान्त हुआ तब दस हनार रुपये दानमें दिये । वे रुपये पालीतानेमें देवनी पुन्सीकी धर्मशालामें एक रसोडा चालू है, उसमें दिये और रसोडे पर इस तरह का बोर्ड लगवाया
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जेनरत्न ( उत्तरार्द्ध )
देवजी पुन्सी अने वीरजी लद्धाना मातुःश्री मुबाईनो रसोड़ो'
२००) रुपये जीवनदान नामकी पुस्तकके छपवाने में मदद दी. कंपनीकी तरफसे जुदा जुदा खातों में अबतक बीस हजार रुपये दान में दिये हैं ।
पचास हजार रुपये खर्च करके घाटकूपर में बँगला बँघवाया है। वीरजीभाई उत्साही, व्यवहार कुशल और श्रद्धालु मनुष्य हैं।
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सा. लद्धाभाई मणसी
गाँव वराडिया ( कच्छ ) के सा. मणप्ती हंसराजके यहाँ सं० १९४४ में मेघवाईके गर्भसे इनका जन्म हुआ। मणसीमाईके तीन लड़के हुए-१ चांपसी २ लद्धाभाई ३ जेठामाई ।
जब इनकी आयु दो बरसकी हुई तब इनके पिताका देहान्त हो गया। इनके पिता खेती करते थे । सं० १९५७ में लद्धामाई धरण गाँव गये । वहाँ इनके बड़े भाई चांपलीकी सहायतासे बारदानेका एक बरस धंधा किया। सं० १८५८ में पचास रुपये सालानासे वसननी अर्जणकी दुकान पर नौकर रहे । सं० १९५९ में १५०) रू. सालानामें वीरजी मणसीके यहाँ नौकर
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध) हुए । सं० १९६१ में बंबई आये और वेजी शिवजी के यहाँ ६००) रु. सालानामें नौकर हुए। दूसरे साल हजार रुपये सालाना हुए । तीसरे साल कामसे खुश होकर सेठने ढाई हजार रुपये इनाममें दिये । इसी तरह प्रति वर्ष छ: बरस तक कमी पाँच हजार कभी सात हजार ऐसे इनाम देते रहे । सं० १९०० में इन्हें दस हनार रुपये इनाम मिले । सं० १९७१ में इन्हें दुकानमें भागीदारी मिली । ये अब तक उसके भागीदार हैं।
सं० १९१३ में गाँव वायट ( कच्छ ) के सा नागसी नेणसीकी लड़की मूरबाईके साथ लम हुए। उनके दो लड़कियाँ हुई । वें मर गई । बाईका भी देहांत हो गया। ___सं० १९७२ में वराडिया ( कच्छ ) के सा. वीरनी मणसीकी लड़की सोनबाईके साथ लग्न हुए । उनके एक लड़का हुआ। थोबण नाम रक्खा । लडका अब बारह बरसका है। तीन बरसके बाद बाईका देहान्त हुआ। ____सं० १९७५ में प्रजाऊ (कच्छके) जेठा मेरजीकी लड़की वेलबाई के साथ लग्न हुए। वे अब तक विद्यमान हैं।
इन्होंने वराडिया ( कच्छ ) में आठ हजार रुपये खर्च कर एक मकान बनाया। घाटकूपरमें एक चॉल साठ हजार रुपये में बनवाई । उसका नाम लद्धामाई मणसीकी चाल है।
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श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन
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सं० १९७१ से आज तक कंपनीकी तरफसे धर्मादे में, तीन चार हजार रुपये सालाना खर्च होते हैं । उसमें इनका भाग है । इन्होंने भांडुपकी तीन हजार वार जमीन कच्छी दसा ओसवाल जैन बोर्डिंग बंबईको भेटमें दी है ।
इनका स्वभाव सरल और शान्त है । न्याय और प्रमाणिकता इन्हें अधिक पसंद हैं । साहित्यके शौकीन हैं ।
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सेठ त्रिकमजी नरसी
गाँव तेरा (कच्छ) के निवासी दसा ओसवाल सा. नरसी गेलाके यहाँ एक पुत्र सं० १९४० के कार्तिक वदि १३ के दिन बंबईमें जन्मा । उसका नाम त्रिकमनी रक्खा गया ।
नरसी गेला बंबई में रूईकी मुकादमीका रोजगार करते थे। उनके चार लड़के और तीन लड़कियाँ हुई। लड़कियाँ गुजर गई। लड़के देवसी, नरपार, डुंगरसी और त्रिकमनी हैं। देवसी और नरपार उनके लग्न होनेके थोड़े ही दिन बाद मर गये । देवसीका एक लड़का चाँपसी मौजूद है।
डूंगरसीमाई हीरजी खेतसीकी कं० में नौकर थे । सं० १९३८ से इन्होंने सेठ मूलजी जेठाकी कंपनीके रुई डिपार्ट
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श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन.
पेज ५८.
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सेठ त्रिकमजी नरसी.
जन्म सं. १९४०.
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श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन मेटमें तीन बरसतक मुकादमका काम किया । सं० १९७१ में इनका देहांत हुआ। इनके एक कन्या हुई थी। वह भी गुजर गई। उनकी विधवा श्रीमती कुँवरबाई मौजूद हैं।
डूंगरसीभाईकी कार्यकुशलतासे मूलनी जेठा कंपनीके संचालक खुश हुए और उन्होंने त्रिकमजीभाईको वह जगह दी जो आजतक चाल है।
त्रिकमजीके दो लग्न हुए। प्रथम लग्न सं० १९५२ में नलिया (कच्छ) वासी श्रीयुत रायमल हीरनीकी लड़की ममु. बाईके साथ हुए । उनके दो लड़कियाँ हुई थीं। वे मर गई। दूसरे लग्न सं० १९६२ में जेतली गेलाकी लड़की राजबाईके साथ हुए। उनके चार लडके और दो लड़कियाँ हुई। उनमेंसे दो लड़के और एक लड़की गुजर गये । अभी लड़के पदमसी, व जीवराज और कन्या पूरबाई मौजूद हैं।
पूरबाईके लग्न जखौके सेठ काननी पांचारियाके लड़के वीरचंदके साथ हुए। इसमें इन्होंने पन्द्रह हजार रुपये खर्च किये।
___ इनको संगीत और वाचनका अच्छा शोक है । ये, शान्त, विनयी, प्रामाणिक और बुद्धिमान व्यक्ति हैं । वे अपनी भोजाईका अपनी माताके समान आदर करते हैं। बाई मी त्रिकमजीमाईको अपने लड़केके समान समझती है। त्रिकमनीमाई उदार मनुष्य हैं। इन्होंने दान किया है मगर सभी गुप्त ।
कच्छी दमा ओसवाल ज्ञातिके ये एक प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं।
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सेठ कुँवरजी केशवजी शामजी
सं० १९४१ के श्रावणमें कच्छ कोठाराके दसा ओसवाल - सा केशवजी शामजीके यहां एक लड़का हुआ । उसका नाम -कुँवरजी रक्खा गया । केशवजी शामजीके तीन लड़के और एक लड़की हुए । लड़के - लखमसी, घनजी, कुँवरजी और लड़कीवीरबाई |
केशवजी के पिता शामजी आसमल बंबई में वर्द्धमान पुन्सी की पेढीमें रूईकी मुकादमीका धंधा करते थे । वे कुछ धन कमा कर देशमें जा रहे । वहाँ उनके दो लड़के केशवजी और गोविंदजी और चार लड़कियाँ हुई ।
केशवजी और गोविंदजी बंबई आये । गोविंदजी त्रिकपजी
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श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन. पेज ६०.
सेठ कुँवरजी केशवजी शामजी. जन्म सं. १९४१
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श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन मूलजी ( सर विसनजी त्रिकमनी) की कंपनी में शामिल हुए।
और केशवनीमाईने स्वतंत्र परचरण रुईका धंधा किया । केशवजीने इसमें अच्छी कमाई की।
केशवजीके प्रथम लग्न चांपूबाईके साथ हुए। उनसे लखमसी और वीरवाई हुए। दूसरे लग्न श्रीमती प्रेमाबाईके साथ हुए । इनसे धनजी और कुंवरजी नामके दो लड़के हुए। प्रेमाबाई सं० १९५४ में और सं० १९६० में केशवजीमाईका देहांत हो गया ।
लखमसीमाईके पहले लग्न सं० १९४५ सं० १९५५ में हुए थे । घननीमाईके लग्न सं० १९५५ में हुए थे।
कुँवरजीभाईके प्रथम लग्न सं० १९५५ में श्रीमती गंगाबाई के साथ हुए । दूसरे लग्न सं० १९६९ में श्रीमती नेनबाईके साथ हुए। तीसरे लग्न सं० १९७० में मेघवाईके साथ हुए
और चौथे सं० १९७८ में देवकांबाईके साथ हुए थे। यह बाई अभी मौजूद है। . ___मेघवाईसे एक लड़की नवलबाई हुई और देवकांबाईसे विमला नामकी एक कन्या है।
सं० १९१६ में इन्होंने कुंवरजी कानजी नामकी कंपनीमें काम शुरू किया । सं० १९६० में इनके पिताकी मृत्युके बाद धननी केशवजीके नामसे रूईका धंधा शुरू किया। सं० १९६९
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध)
से इन्होंने कुँवरनी केशवजीके नामसे धंधा किया। सं० १९७६ में ओधवनी, सी. लद्धाके भागमें धंधा किया। सं० १९७९ हीरनी लालनीकी भागीदारीमें धंधा किया। सं० १९८३ तक इसमें शामिल रहे। फिर तबीअत ठीक न रहनेसे अलग हो गये। जब तबीअत अच्छी हुई तो महम्मद सुलेमानकी पेढीमें मागीदार हुए। अभी तक यह भागीदारी चालू है।
सं० १९५२ में इन्होंने केशवजी और गोविंदनी शामनी के नामसे पालीतानेमें रसोडा शुरू किया। उसका बार्षिक खर्च करीब तेरह सौ चौदह सौ है । वह रसोड़ा आन कत चालू है ।
कच्छ कोठारामें सं० १९६४ में जैन पाठशालाका एक मकान बनवाया । उसमें चार हनार रुपये खर्चे । उसके बाद शिक्षक रख कर पाठशालाकी पढ़ाई शुरू की। आज तक वह शाला चालू है। उसका वार्षिक खर्चा पाँच सौ रुपये हैं।
श्रीयुत शिवजी देवसीने मांडवीमें 'कच्छी जैन बालाश्रम' नामकी एक संस्था कायम की थी। उसमें उस समय कोई स्थायी फंड नहीं था । आठ महीने स्टीमरोंके चालु रहनेसे बंबईसे लोग
आते जाते रहते थे इसलिए उनके दानसे खर्चा चलता रहता था; परन्तु चौमासेमें स्टीमर बंद हो जाते थे इसलिए भामदनी मी बंद हो जाती थी । चार महीनेके लिए शिवजीमाई अलहदा अलहदा सेठियोंके यहाँ विद्यार्थियोंको रखते थे। इसमें चार पाँच हजारका खर्चा होता था। एक साल इसी तरहसे इन्होंने भी
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'श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन विद्यार्थियोंको रक्खा था । इनके उसमें चार हजार रुपये खर्च हुए थे।
मांडल ( काठियावाड़ ) की यति पाठशालामें इन्होंने एक हजार रुपये दिये थे । पालीतानेके जैन पुस्तक प्रसारक वर्गको एक हजार दिये थे । इनके अलावा जुदा जुदा रूपसे इन्होंने बीस हजारका दान दिया है । दो बरस पहले पाटनसे बड़ा संघ निकला था । वह जब कच्छमें कोठारे गाँव गया था, उस समय संघके भोजन खर्चका चौथा भाग इन्होंने दिया था ।
कुँवरजीमाई बुद्धिशाली, व्यापारकुशल, संगीत प्रेमी, स्वदेश हितैषी और धर्मतत्त्वके जाननेवाले हैं। इन्हें वाचनका अच्छा शौक है।
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सा. हीरजी कानजी मणसी
कच्छ नलियाके रहनेवाले कच्छी दसा ओसवाल श्वेतांबर जैन सा. मणसी मरजीने कच्छी दसा ओसवालोंमें, बंबईमें, सबसे पहले वीमाका धंधा शुरू किया। उनके काननी नामका एक माग्यवान लड़का हुआ। उसने पीछेसे कानजी मणसीके नामसे धंधा चालू रक्खा । .... ___कानजीके दो लड़के हुए। एकका नाम हीरजी और दूसरेका नाम वेलजी । हीरजीका जन्म कच्छ नलियामें सं० १९३२ के कार्तिक वदि ६ गुरुवारको हुआ था। सं० १९५४ के महा मुदि ५ के दिन कच्छ नलियाके सा. जवेर करमतीकी सुपुत्री बाई हीरबाई के साथ लग्न हुए। इनके तीन लड़के और तीन
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श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन. पेज ६४.
सा. हीरजी कानजी मणसी. जन्म सं. १९३२
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श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन
लड़कियाँ हुई । उनकी बड़ी लड़की पूरबाईके लग्न कच्छ साहेरावाले सेठ मेघनी खेतसीके सुपुत्र शिवजीके साथ सं० १९६१ में हुए । दो बरसके बाद इस बाईका देहांत हो गया।
हीरजीमाईके लड़के नरसीमाई मौजूद हैं। दूसरे सभी बालक गुजर गये हैं। नरसीभाईके पहले लग्न कच्छ जखऊवाले सा. नेणसी वसाइया मारवाड़ीकी लड़की वेजबाईके साथ सं० १९६८ में हुए थे। उनके एक लड़का हुआ । उसका नाम जेठामाई रक्खा । वह इस समय तेरह बरसका है।
___ वेनबाई सं० १९७३ में गुजरी । नरसीमाईके दूसरे लग्न सं० १९७४ के वैशाखमें कच्छ सुथरीवाले हीरजी खेतसीकी लड़की लीलबाई ( चंदनबाई ) के साथ हुए। उनके दो लड़के हुए। एक गुजर गया। दूसरेका नाम मोतीचंद ( माणिकनी ) रक्खा गया। वह इस समय नौ बरसका है।
सं० १९७७ में लीलबाई गुजर गई । नरसीमाईके तीसरे लग्न कच्छ जखऊ वाले सेठ टोकरसी कानजीकी लड़की दीमुबाईके साथ सं० १९७८ में हुए । बाई सं० १९८१ में गुजर गई। नरसीभाईके चौथे लग्न कच्छ जखऊवाले सेठ नरपार बसाइया मारवाडीकी लड़की चांपूबाईके साथ सं० १९८२ में हुए । उसके एक लड़की हुई । उसका नाम जयंती रक्खा । वह दो बरसकी है।
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध )
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हीरजीभाई पन्द्रह बरसकी उम्रमें धंधे लगे। उनके पिता कानजीभाई सं० १९५८ के मार्ग शीर्ष सुदि १३ को रामशरण हुए। उसके बाद हीरजीमाईन बहुत उन्नति की । कच्छ नलियावाले सा. मालसी भोजराजके समागमसे हीरजीभाईने धार्मिक ज्ञान प्राप्त किया और उनकी सलाहसे हीरजीभाईने संस्कृत सीखी। उसके बाद पंडित लालनके समागमसे उनकी आध्यात्मिक ज्ञानकी तरफ रुचि हुई और शिवजीमाईके समागमसे उन्होंने पार्मार्षिक कार्योंमें प्रवृति की।
सं० १९५९ में पालीतानेमें श्री जैनधर्म विद्याप्रसारक वर्ग की स्थापना हुई और उसके साथ जैन बोर्डिंग स्थापित हुआ। उसमें हीरजीभाईका बड़ा हिस्सा था । और वर्गकी व्यवस्थापक कमेटीके मेम्बर थे । वे जैसे वी. मा. की दलाली करते थे वैसे ही धर्मकी दलाली भी करते थे । यानी व्यवहारके साथ धार्मिक काम भी करते थे। सं० १९७७ से वे पार्मार्थिक कामोंमें विशेष लक्ष देने लगे।
सं० १९७९ में उनकी पत्नी हीरबाईका देहांत हुआ। बाई बुद्धिमती, सुगुणी और कार्यकुशल थीं । इनके वियोगका असर हीरजीभाईके मन पर हुआ और वे विशेष विरक्त हुए। हीरजीमाई अपने छोटेमाई वेलजीभाईके लड़के कुंवरजी और लड़की लक्ष्मीबाईको अपनी संतानके समान समझते हैं । वेलनीभाई सं० १९७२ में गुजर गये थे। सं० १९७३ में वेलनीमाई
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श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन ७ की पत्री मेघवाईका भी देहांत हो गया। उनकी सन्तानको हीरजीमाईने मातापिताका वियोग मालूम न होने दिया । और वेटजी माईका लड़का कुँवरजीभाई भी हीरजीमाईको अपने पिताके समान समझता है।
पिछले दस बरससे हीरजीभाईका जीवन प्रायः परमार्थके कामों में ही बीतता है। वे चंबईकी श्रीकच्छी दसा ओसवाल जैन ज्ञातिके और उसके जिनमंदिरके ट्रस्टी हैं। कच्छी दमा ओसवाल जैन बोर्डिंग और पाठशालाकी मेनेजिंग कमेटीके सभ्य हैं । सेठ नरसी नाथा चेरिटीफंटके ट्रस्टी हैं । नलिया पांजरापोल की व्यवस्थापक कमेटीके सभ्य है। लाडण खीमजी ट्रस्ट फंडके ट्रस्टी हैं। नलिया जैन बालाश्रमके ट्रस्टी हैं। कच्छ कोहाय सदागम प्रवृति और पांजरापोलके ट्रस्टी हैं। नलियाकी जैन कन्याशालाके व्यवस्थापक हैं । कच्छी दप्ता ओसवाल जैन स्वयंसेवक ममानके स्थापक, व्यवस्थापक और ट्रस्टी हैं । कच्छी जैन बालाश्रमको जुदा जुदा करके अबतक दम हमारकी सहायता दी है। कच्छी दसा ओमवाल सेवक समाजको इन्होंने तीन हजारकी महायता दी है । इसके अलावा पालीताना जैन बोर्डिंग, विधवा. श्रम, पुस्तक प्रकाशन खाता, कच्छ नलिया पांजरापोल और परचूरण मिलाकर रुपये सात हजार खर्चे हैं। ___ हीरजीभाई विनयी, सेवाप्रिय, सत्संगरंगी और उत्तम चारित्रवान हैं।
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सेठ वीरचंद पानाचंद बी. ए.
सेठ वीरचंदभाई उन आदमियोंमेंसे एक हैं। जो अपने ही बळपर उठते हैं, बढते हैं, स्थिर होते हैं और इतिहासमें अपना नाम अमर कर जाते हैं।
इनका जन्म जामनगर ( काठियावाड़) राज्यके आटकोट तालुकेके समढीमाला नामके एक छोटेसे गाँवमें हुआ था । इनके पिताका नाम पानाचंद था । उनका मामूली रोजगार था। पानाचंदके पांच पुत्र थे। हीराचंद, माणिकचंद, लक्ष्मीचंद, रूपचंद और वीरचंद । वीरचंदमाई सबसे छोटे हैं। ये श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन हैं।
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श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन. पेज ६८.
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सेठ वीरचंद पानाचंद.
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श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन ६९ वीरचंदभाई १२ वर्षकी उम्र में, सातवीं गुजरातीका अभ्यास पूरा कर, अपने भाई और पिताके साथ व्यापारमें लगे। चार वर्ष तक दुकानमें रहे । फिर सत्रहवें वर्ष में इनको इंग्लिश पढनेके साधन मिले । एक वर्षमें इन्होंने इंग्लिशकी चार क्लासोंका अभ्यास पूरा किया और रानकोट ( काठियावाड़ ) में जाकर इंग्लिश पांचवीं क्लासमें दाखिल हुए । मेट्रिक पास कर मावनगर में शामलदास कॉलेनमें दाखिल हुए। वहासे सन् १९१८ में बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण हुए और ग्रेन्युएट बने । भावनगरमें पढ़ते हुए इन्होंने अपने भतीनोंको अपने पास रखा और उनको अभ्याप्त आगे बढ़ानेमें, पूरी मदद दी।
ये ग्रेज्युएट होकर बंबई आये । पूर्व आफ्रिकाके साथ इन्होंने आयात निर्यात ( Export import ) का धंधा शुरू किया । थोड़े दिन बाद अपने भतीजे फूलचंदको आफ्रिका भेजा। खुद भी सन् १९२० और १९२६ में पूर्व आफ्रिका हो आये। इनके साहस और चरित्रका वहाँके लोगोंपर अच्छा प्रभाव पड़ा। इस प्रमावने इनके व्यापारमें बहुत मदद पहुंचाई । इन्होंने रोज. गारमें सफलता प्राप्त कर लोगोंकी इस धारणाको झूठा ठहराया कि अंग्रेजी पढ़े लिखे लोग व्यापार नहीं कर सकते हैं।
इन्होंने धीरे धीरे अपने व्यापारको बढ़ाया और इस समय इनका व्यापारिक संबंध पूर्वआफ्रिकाके शहर मोम्बासा, नैरोबी, जंजीबार और दारेसलाम के साथ मुख्य तया है।
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध )
मैसूर राज्यमें एक मँगिनीजकी खान है। उसका नाम केशापुरकी खान है । उसके लिए वहाँ एक प्रार्थना मंदिर अपने खर्च से बनवाया और खान के मजूरोंसे मद्य मांसका त्याग कराया ।
'ओरीअंटल केनेरी कंपनी ' ओनवर ( दक्षिण बेलगाम ) में हैं जो फल सुरक्षित रखनेका ( fruit cannig ) उद्योग करती है । इसके में गोपल्प ( आमका रस ) के ये सोल एजंट हैं । यह काम विशेष लाभदायक न होने पर भी हिन्दुस्थानी उद्योगको सफल बनाने के लिए इन्होंने यह एजेंसी ली है । सामाजिक और सार्वजनिक काममें इनका बहुत बड़ा भाग है ।
७०
श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन कॉन्फरेंस के आधीन एक 'जैन एज्युकेशन ' बौर्ड है । उसके ये मंत्री हैं । ।
श्री सिद्धक्षेत्र जैनबालाश्रम पालीतानेके ये मंत्री हैं । बंबईकी गोहिलवाड दशाश्रीमाली ज्ञातिके दवाखानेके ये मंत्री हैं ।
ब्रिटिश इंडिया कॉलोनियल मर्चेंटस ( Merohants ) नामकी व्यापारी संस्था के भी ये मंत्री हैं ।
बंबई म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन के ये सन् १९२६ से १९२९ तक मेम्बर रहे हैं ।
सन् १९३० में देश में कांग्रेसने सत्याग्रह आरंभ किया । बंबई में, बंबई प्रांतिक कांग्रेस कमेटीने भी एक सत्याग्रह कमेटी
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श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन
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स्थापित की। उस कमेटीका नाम युद्ध समिति (war council) प्रसिद्ध हुआ। बंबई में गवर्नमेंटने इस समितिको गैरकानूनी ठहराया । उसके अंदर कार्य करनेवालोंको गवर्नमेंट पकड़ पकड़ कर सना देने लगी। तेरह समितियों के प्रमुख और मेम्बर गिरफ्तार हो गये इसके बाद चौदहवीं युद्ध समितिका संगठन ( formation ) हुआ उसमें वीरचंदभाई प्रमुख चुने गये । जैन समाजके लिए यह गौरवकी बात थी कि उसका एक सुप्त वह सम्मान प्राप्त कर सका जो सम्मान महान देशके नेताओंको ही मिल सकता है। इसके लिए जैन समाजने और व्यापारी समाजने इनका अच्छा आदर किया। इनको जिन संस्थाओं ने पब्लिक मीटिंग कर सम्मान दिया उनके नाम नीचे दिये जाते हैं।
१-सराफ महाजन एसोसिएशन-इसने जो सभाकी उसके प्रमुख श्रीयुत हीराचंद वनेचंद देसाई थे।
२-गोकुलमाई मूलचंद जैन होस्टलके विद्यार्थियोंने इनको मानपत्र दिया।
३-जैन घोघारी संघ काठियावाड-इसने जो समा की उसके प्रमुरू श्रीयुत मोतीचंद गिरधर कापडिया सॉलिसिटर थे। इन्हों ने वीरचंदभाईके लिए कहा था:-" वीरचंदभाई वार काउन्सिलके प्रमुख चुने गये यह बात अपने लिए आनंदकी है। आज . वीर चंदभाईका दर्जा बंबईमें राजाके समान है । ये आज बंबईके
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७२
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध) बेतानके राजा हैं । यह वह जगह है जिसके लिए हरेकके दिल में ईर्ष्या पैदा हो सकती है । ये सामान्य स्थितिसे जीवन आरंभ कर धीरे धीरे अपने उद्योगसे आगे बढे और अच्छी लक्ष्मी प्राप्त कर, अपनी जातिकी अनेक तरहसे मलाई करते आये हैं। और अब इन्होंने ऐसा ऊँचा पद पाया है। यह अपने लिए अभिमानकी बात है। काठियावाड़ीकी हैसियतसे और एक जैनकी हैसियतसे इस पद पर आनेवाले व्यक्ति वीरचंदभाई सबसे
___३-जैन श्वेतांबर कॉन्फरेंस-इसने जो सभा बुलाई थी उसके प्रमुख सेठ वेलजी लखमसी नप्पू बी. ए एल एल. बी. थे। उन्होंने कहा था:-" पहले जो लोग सरकारसे पद प्राप्त करनेवालोंको मात्र पत्र दिया करते थे, वे ही लोग अब सरकार के महमान होनेवालोंको ( जेल में जानेवालोंको) अभिनंदन देते हैं। यह विचार-परिवर्तन महात्मा गाँधीने किया है । श्रीयुत वीरचंदभाई आज अपने मिट कर सारी बंबईके नेता हुए हैं। पहले बंबईकी म्युनिसिपेलिटीके प्रमुख सबसे पहले शहरी गिने जाते थे । आज बंबईकी वार काउन्सिलके प्रमुख सबसे पहले शहरी समझे जाते हैं। और यह मान वीरचंदभाईको मिला है। "
बंबई की जैन युवक संघ पत्रिकामें श्रीयुत परमानंद कुंवरजीने लिखा है:-" वीरचंदभाई जैन युवक संघके एक अग्रगण्य समासद हैं । बंबईकी संग्राम समितिके ये प्रमुख चुने गये यह
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श्वेताम्बरं मूर्तिपमक जैन
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बात जानकर किस जैन युवकका हृदय अभिमान और आनंदसे न उछल उठा होगा ? जैन समानकी जुदा जुदा संस्थाओंके साथ संबंध रखनेवाले वीरचंदभाईको कौन नहीं पहचानता है ? इतना होने पर भी प्रतिमाशाली व्यक्तित्वकी कुछ विशेषताओंका यहाँ पर उल्लेख करना आवश्यक है। उनकी वर्तमान प्रभुता किसी अकस्मातका परिणाम नहीं है। यह अबतक प्रयत्नपूर्वक विकसित किये गये गुणोंका परिणाम है। वे गरीब कुटुंबमें जन्मे, माधारण स्थितिमें पले पोसे भावनगर के जैनबौर्डिगमें रहकर कॉलेजमें पढ़े और ग्रेजुएट हुए। उसके बाद बड़ी पूँजीके बगैर ही व्यापारमें लगे। उत्तरोतर उनका व्यापार बढ़ा और उसके साथ ही धनकी आमदनी भी बढने लगी। तो भी उनकी स्थिति ऐसी नहीं है जो उनको बंबईके बड़े सेठोंमें गिनने दे। ऐसी साधारण हालत होते हुए भी उन्होंने कभी गरीबों को मदद देते समय और विद्यार्थियोंको ऊँची शिक्षा प्राप्त करनेके लिए मदद देते समय, अपनी स्थितिका कुछ खयाल नहीं किया। उन्होंने अबतक अनेक गरीबोंके कलेजे ठंडे किये होंगे और द्रव्य न होनेसे पढना बंद कर देने वाले अनेक विद्यार्थियों को सहायता देकर उनसे युनिवरसिटिकी ऊँची परीक्षाएँ पास कराई होंगी। उनमें अपूर्व सौजन्य और उदारता हैं। कोई मदद माँगने आवे, किसी संस्थाके चंदेकी फहरिस्त आवे, किसी संस्थाके कामका उत्तरदायित्व लेने के लिए
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध )
उन्हें कहा जाय, या जाति, धर्म, या सगे-संबंधियों का कोई काम उनको सौंपा जाय वे कभी इन्कार नहीं करते । चाहे उनके पास द्रव्यकी बाहुलता न हो, चाहे काम करनेके लिए उनके पास समय न हो; परन्तु वे कभी किसीको नकारात्मक जवाब न देंगे। अगर वे किसीको इन्कार कर दें तो उनका नाम वीरचंदभाई ही नहीं । फूल नहीं तो फूलकी पंखड़ी ही, जितना दिया जासके उतना देना, जितनी हो सके उतनी सेवा कर जीवनको कृतार्थ बनाना, अपनी शक्तिके बाहर कामका बोझा उठाना और फिर रातदिन काम के बोझे तले दबे रहना, यह उनके जीवनका अबतक सामान्य क्रम रहा है
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उनको जब देखो तभी वे हँसते हुए। जब कोई अपनी बात सुनाने उनके पास जाता है वे बड़े धैर्य और उत्साह के साथउसकी बात सुनते हैं और जो कुछ उसके लिए वे कर सकते हैं करते हैं । उनका वात्सल्य सर्वस्पर्शी और सर्वग्राही है । उन्होंने अपनी पत्नीको ऊँचे मार्ग पर चलाया है, अपनी संतानको उल्लास के साथ पढ़ाया है, अपने मित्रोंको समान प्रेमसे नहलाया है, जातिको, सेवाकरके, आभारी बनाया है, जैनसमाजको, उसकी संस्थाओंका कार्यकर, ऋणि और देशको, कई वर्षोंसे महासभाकी सेवा कर, गौरवान्वित बनाया है ।
वे कभी आडंबर नहीं करते । सत्य सेवा ही उनका जीवनव्रत है । संयम उनके लिए एक स्वाभाविक वस्तु हो गई
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श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन
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। वाद-विवाद, पक्षापक्षी और मिथ्या ममत्त्वसे वे हमेशा दूर रहते हैं । उनमें ऐसी स्वच्छ सेवावृत्ति और ऐसी सर्वस्पर्शी प्रेम-भावना है कि, छोटे बड़े, दूरके पासके, ज्ञातिके, धर्मके और देश के सभी इनको अपना ही समझते हैं और अपने से जैसे सेवा लेनेका हक होता है वैसे ही इनसे सेवाएँ लेनके लिए सभी अधिकार बताते हैं और वीरचंदमाई जैसे बारिश सबजगह समानरूपसे बरसती है और सूरज समानरूपसे तपता है, वैसे ही, वे अपना तन, मन और धन सबकी सेवा में अर्पण करते आये हैं । और इस तरह उन्होंने सभी तरह के लोगोंका प्रेम संपादन किया है । ऐसे एक निर्मल सेवापरायण सज्जन इस कठिन समयमें बंबईकी संग्राम समितिके प्रमुख हुए हैं । इस बात से दोनों के गौरवमें अभिवृद्धि होती है और जैनसमाज और कांग्रेस अभिनंदनीय बनते हैं । इस समय राजनीति में भाग लेना काँटोंके आसन पर बैठ कर तपस्या करना है । यह तपस्या वही कर सकता है जिसने सब विकारोंको जीतकर बुद्धिको निर्मल बनाया है और जिसने सभी मयों और स्वार्थीको छेद कर सच्ची निर्भयता तथा वीरताको विकसित किया है। हमें आशा है कि, वीरचंदभाईने अपने सिर पर खास तरहकी अति विकट जवाबदारीका जो काम लिया है उसे वे पूरा करेंगे और देशके संग्रामको बड़े जोरके साथ आगे बढ़ायँगे । और वर्तमान के साहस- पूर्ण कार्यक्रमको
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जैनरस्न ( उत्तरार्द्ध)
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विशेषरूपसे व्यवस्थित कर, जिस ध्येयके लिए महात्मा गाँधीने यह युद्ध आरंभ किया है, उस ध्येयके पास देशको ले जानेकी महनत करेंगे । वीरचंदभाईको, अन्तःकरणके साथ अभिनंदन है और हृदयकी अनेक शुभेच्छाएँ हैं।"
वीरचंदभाई ता० २० सितंबर सन् १९३० को बंबईकी संग्राम समितिके प्रमुख हुए । सोलह दिन तक शानके साथ काम किया और ६ ठी अक्टोबर सन् १९३० को पकड़े गये
और मजिस्ट्रेटने ४ महीने तकके लिए उनको सरकारके महमान रहनेके लिए यरवडाकी जेलमें भेज दिया। आज वे सरकारके महमान हैं।
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श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन. पेज ७७.
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बेरिस्टर मकनजी जूठाभाई महता. B. A. LL. B, Bar at Law.
जन्म सं. १९६७
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बेरिस्टर मकनजी जूठाभाई महेता
साहस, अध्यवसाय और उत्साहसे मनुष्य, हरेक तरहकी कठिन परिस्थितिमें भी, उन्नतिके शिखरपर पहुँच सकता है । इस' बातको सत्य प्रमाणित करनेके लिए अगर किसी उदाहरणकी जरूरत होतो मकनजी जूठामाईका उदाहरण दिया जा सकता है।
इनका जन्म माँगरोलके एक दशाश्रीमाली श्वेतांबर मूर्ति-- पूनक जैन कुटुंबमें सं० १९३७ के मगसर सुदि ७ के दिन हुआ था । चार बरसकी छोटी उम्रमें इनकी माताका देहांत हुआ
और ये मेट्रिक हुए । इसके पहले ही इनके पिता मी (इन्हें इनके माईको सौंप ) स्वर्गवासी हो गये।
सन् १८९८ में ये मेट्रिक हुए। उस समय इनके पास
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध )
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इतनी पूँजी नहीं थी कि, ये चार बरसकी कॉलेजकी पढ़ाई पूरी करते । तो भी इन्होंने साहस न छोड़ा और ज्यों त्यों करके ये सन् १९०३ में बी. ए. पास हुए । इन्होंने बी. ए. पास किया उस वक्त तक में इनके पिता जो कुछ मिल्कियत छोड़ गये थे वह समाप्त हो चुकी थी । और ऊपर से १२००) रु. कर्जा भी हो गया था । परन्तु इन्होंने किसी तरहसे भी अपना साहस कम न होने दिया था ।
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इनका उत्माह इनका धैर्य और कॉलेनकी इनकी प्रगति देखकर हरेक यह अनुमान करता था कि मकनजी एक होनहार व्यक्ति है । इनके पास धनका अभाव था; परन्तु गुणोंका धन मौजूद था । इसीलिए कलकत्तेके प्रसिद्ध व्यापारी श्री इंद्रजी सेठने अपनी पुत्री श्रीमती गुलाबबाई ( लाडकुँवर ) का व्याह इनके साथ कर दिया । इन दोनोंकासा अपार प्रेम स्नेह-लग्न करनेवालों में भी कठिनता से मिलता है । मकनजीभाईका कौटुंबिक और सांसारिक सुख इनकी स्नेहमयी पत्नी के कारण है । श्रीमती गुलाबबाईने अपनी सेवा और अपने स्नेहको अपने कुटुंबही में सीमित न रक्खा । समाजके लिए भी उसको अर्पण किया और उसीका यह फल है कि श्रीमती गुलाबबाईको जैनस्त्रियोंमें अग्रस्थान मिला है । अपनी पत्नीको अपनी ही तरह समाज सेवामें लगी हुई और समाज में सम्मान पाती हुई देखकर मकनजीभाईका हृदय कितना आनंदित होता होगा ?
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श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन बी. ए. पास होनेके बाद इनको नौकरी करनी पड़ी। ३०) रुपये महीना कमाकर भी इन्हें जो कौटुंबिक सुख था वह स्वर्गीय था । श्रीमती गुलाब बहिनने अपने घरकी व्यवस्था इतनी सुंदरतासे की कि अच्छे अच्छे पैसेदारोंके यहाँ मी वैसी व्यवस्थाका, और व्यवस्था व स्नेहसे प्राप्त सुखका अमाव था।
नौकरी करते हुए भी श्रीयुत मकननीमाईने आगे बढ़नकी अभिलाषाको न छोड़ा। ये लॉकॉलेजमें जाते रहे और एलएल. बी. पास कर बंबईकी, स्मॉल कॉनिज कोईमें विकालत करने लगे। थोड़े ही दिनोंमें इनकी प्रेक्टिस अच्छी चल निकली।
कॉलेजमें ज्ञाति-सेवा और देश-सेवाके अनेक मनोरथ होते हैं परन्तु कमाईमें लगनेपर वे मनोरथ नष्ट हो जाते हैं, मगर मकनजीमाईके सेवाके भाव नष्ट न हुए। ज्योंहीं इनको अभ्यामके कामसे अवकाश मिला इन्होंने जाति-सेवा आरंभ कर दी। ये मांगरोल जैनसमा बंबईके मंत्री बने और उसका कार्य इस उत्तमताके साथ किया कि भाज वह संस्था बहुत उन्नत हो गई है और एक उत्तम कन्या-शाला चला रही है। __ इनकी कार्य दक्षतासे सन् १९०७ में ये श्वेतांबर जैन कॉन्फसके असिस्टेंट सेक्रेटरी चुने गये । बंगाल गवर्नमेंटने जब सम्मेतशिखरजीके पवित्र पर्वतपर बँगले बंधवाना नक्की किया तब, कॉन्फरंसने श्रीयुत मकनजीभाईको कलकत्ते इसलिए भेजा कि ये
जाकर सरकारको सम्मेतशिखर पर जैनोंका जो पुराना हक है उसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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जैनरत्न (उत्तरार्द्ध) बतावें, जैनोंके हृदयमें सम्मेतशिखरके लिए कैसी लागणी है सो सरकारको समझा और सरकारसे अपील करें कि वह सम्मेतशिखरकी पवित्रताको बंगले न बँधवाकर अक्षुण्ण-कायम रहने दे। ___हरेक चीनको खुद देखना और उससे कुछ सीखना यह इनके हृदयकी उत्तम भावना है। इसी मावनाके कारण इन्होंने लगमग सारा हिन्दुस्थान देखा है । शत्रुनय, सम्मेतशिखर केसरियाजी आदि प्रसिद्ध जैन तीर्थोकी इन्होंने सकुटुंब यात्रा की है। इतना ही नहीं हिंदुओं के प्रसिद्ध तीर्थस्थान श्रीनाथनी, काशीनी, गयाजी आदि भी ये गये हैं और उनकी स्थितिका अवलोकन किया है। शिमला, उटकमंड, नेनीताल जैसी शीतल पहाडियोंको, कलकत्ता और सीलोन जैसे बंदरोंको, उदयपुर, दिल्ली, आगरा जैसे ऐतिहासिक शहरोंको और चित्तौड़गढ, सिंहगढ, रायगढ जैसे प्रसिद्ध किलोंको इन्होंने देखा है और उनसे बहुत कुछ ज्ञान प्राप्त किया है।
स्मॉलकॉजिन कोर्टमें छः बरस प्रेक्टिस करने के बाद ये इतना धन संग्रह कर सके कि जिससे इंग्लेंडमें जाकर बेरिस्टरी पास कर सके । सन् १९१२ में इंग्लेंड जाकर बेरिस्टरीमें पहले नंबर पास हुए। पचास मुहरें इनाम मिलीं। वापिस आकर हाइकोर्टमें प्रेक्टिस करने लगे और आजतक बड़ी सफलताके साथ कर रहे हैं।
उन्हीं दिनों हिन्दु युनिवरसिटि बनारसकी स्थापना हुई थी। ये उसकी सिनेटमें चुने गये और चार बरसतक सीनेटमें उत्साहके
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श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन
साथ अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य किये । बनारस हिन्दु-युनिवर्सिटीकी परीक्षाओंके अभ्यासक्रम ( कोर्स ) में जैनग्रंथ दाखिल कराये । बम्बई युनिवर्सीटीमें भी बि. ए, एम. ए. के कोर्समें आपने कोशिश करके जैन साहित्य दाखिल कराया। उसी समय गुजराती वांचनमालाकी नई पद्धतिसे रचना हुई थी जिसमें जैनोंके संबंधमें अनेक भ्रमोत्पादक बातें थीं। एज्युकेशनल डिपाटमेन्टके साथ पत्रव्यवहार करके आपने ऐसी बातें पुस्तकोंमेंसे निकालवा दी।
राजकीय क्षेत्रमें जैनसमाजको आगे बढ़ानेका भी आपने यत्न किया । जैन त्योहारोंक दिन भो सरकार छुट्टी रखे, इसके लिए जो प्रयत्न हुए उसमें भी आपन अच्छा योग दिया था । इस प्रयत्नका फल यह है कि, कुछ त्योहारोंके दिन सार्वजनिक छुट्टियाँ होती हैं और कुछके दिन साम्प्रदायिक होती हैं।
शिक्षा-प्रचार तो आपका जीवनमंत्र है । 'जैन ग्रेजुएटस एसोशिएशन' के आप उत्पादक हैं।
इस प्रकारकं अनेक जनसमाजोपयोगी कार्योंसे श्री मकनजीभाईने जैन समाजमें ही नहीं परंतु जैनेतर समाजोंमे भो ख्याति प्राप्त की है।
बम्बई में सन् १९१६ में जैनश्वेताम्बर मूर्तिपूजक कान्फरंस का दसवाँ अधिवेशन हुआ था उस समय ये स्वागत-समितिके प्रधानमंत्री थे । उस अधिवेशनको सफल बनानेमें इन्होंने कोई
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध)
बात उठा नहीं रखी थी। सन् १९१६ का शान्दार अधिवेशन इन्हींकी महनतका फल था । और समाज व धर्मकी उन्नतिके मिमित्त जो अनेक प्रस्ताव उस समय हुए थे, उनमें अका मुख्य हाथ था। ___जैन एज्युकेशन बोर्डके ये सन् १९१६ में प्रेसीडेन्ट (प्रमुख) चुने गए। जैनोंके लिए शिक्षण-विषयक अलग Column रखानेके वास्त आपने गवर्मेन्टसे और म्युनिसिपालेटीसे निश्चित कराया । इस मम्थाके आप आजीवन सभ्य हैं.
जैन कॉन्फरसके आप प्राणसम हैं । सादडी अधिवेशनके बाद कॉन्फरंस जरा सुषुप्ति दशामें आ गई थी। आपने सन् १९२५ में कन्वेन्शन बुला उसे जागृत की। आप “ रेसीडेन्ट जनरल सेक्रेटरी" चुने गए। सन् १९२६ में जैन समाजक समक्ष एक अत्यत महत्त्वपूर्ण प्रश्न उपस्थित हुआ । परमपवित्र श्री श–जयतीर्थक मवन्धमें पालीताणा ठाकुरके साथ विकट परिस्थिति उत्पन्न हुई। आपने इस समय अडग रह कर जैनकान्फरंसका स्पेशल अधिवेशन बंबई में बुलाया। जनसमाजको जागृत करनेके लिए — बॉम्बे क्रॉनिकल । ( अंग्रेजी दैनिक ) में
शत्रुजय संबन्धो विद्वत्तापूर्ण लेख दिये, जिनका संग्रह कॉन्फरंसने * Shatrunjaya Dispute ' नामक पुस्तकमें किया । इन लेखोंने जनसमाजके चक्षुपट खोल डाले थे । जैनेतरोंने इस प्रश्नके लिए सहानुभूति प्रकट की थी । सांगलीमें दक्षिण महाराष्ट्र जैन
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श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन ८३ कॉन्फरंसके आप प्रमुख थे । श्वेतांबर, दिगंबर संप्रदायोंका संगठन आदि कार्य करनेके लिए “All India Jain Assosiation" के आप प्रमुख हैं। श्वेतांबर मूर्ति० कॉन्फरंसकी कार्यकारिणी समिति के आप उप प्रमुख (सन् १९३० से १९३४ तक) रहे। महावीर जैन विद्यालय स्टुडन्ट युनियनके भी आप प्रमुख रहे।
बम्बई युनिवर्सिटी सीनेटके फेलो आप १९२९ से १९३३ तक रहे । बम्बई हाईकोर्टकी बार काउन्सिल (Bar Council) के आप एक सभासद हैं । जैनोंकी तो लगभग सभी संस्थाओं में आपका सहयोग है।
सेवा आपका परम ध्येय है। जैनसमाजमें, तीर्थ रक्षण आदि के जब भी प्रसंग उपस्थित हुए हैं आपने अपना पूर्ण सहयोग दे उन कार्योंके लिए यश प्राप्त किया है। श्री केशरियानाथजी जैन तीर्थके लिए भी आपने श्वेतांबर जैनसमाजकी ओरसं इस प्रकरणकी वकफियत हामिल कर एक मेमोरियल तैयार कर, जैन कॉन्फरसकी तरफसे उदयपुर नरेशको भेजा । स्वयं केशरियाजी जाकर सर्व वृतांत जाना । श्वेतांबर जैनसमाजके शायद ही कोई महत्वपूर्ण कार्य आपके बिना सहयोगके हुए होंगे। आप हमेशा ऐसे कार्य अत्यंत उत्साह और दक्षतासे करते रहे हैं । जैन कॉन्फरंसके इतिहासमें तो आपकी सेवाए स्वर्णाक्षरोंसे लिखी गई हैं।
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध ) आपका स्वभाव शांत और परोपकारमय है ।
आपके ३ पुत्र और ३ पुत्रियाँ हैं । ज्येष्ठ पुत्र श्रीशांतिलाल मकनजी बी. ए. एलएल. बी., एडवोकेट हैं। दूसरे श्री भोगीलाल बी. ए. हैं । कुमारी पुष्पा बहन प्रीवीयसका अभ्यास करती हैं ।
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सेठ रामचंदजी चांदनमलजी
सेठ रामचंदी मूल फलोदी ( मारवाड़) के निवासी थे । जाति वीसा ओसवाल गोलेछा गोत्र और श्वेतांबर जैन थे । ___ इनके पाँच पुत्र थे । ? कल्याणमलर्जा २ इन्द्रचंद्रनी ३ अमोलकचंद्रजी ४ सरदारमलनी ओर ५ चाँदनमलजी ।
श्रीयुत कल्याणमलर्जा और इन्द्रचंद्रजी प्रारंभमें बराडमें आये । इन्होंने कारंजा ( बराड ) में इन्द्रचंद्र जेठमलके नाम धंधा प्रारंभ किया। पीछेसे दूसरे तीन भाई भी आ गये और सब साथ ही कामकाज करने लगे । कुछ वर्षों के बाद बड़े चारों भाइयोंने अपने हिस्से निकाल लिए । दुकान सेठ चाँदनमलजीके पास रही। चाँदनमलर्जीने परिश्रम करके दुकान उन्नत बनाई। सं० १९४५ में उन्होंने इस दुकानका नाम बदल कर 'रामचंद चाँदनमल' रक्खा ।
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श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन. पेज ८५.
सेठ पूनमचंदजी गोलेछा.
जन्म सं. १९४३
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श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन wwwwwwwwwwwwwwwww
सेठ चाँदनमलजीका जन्म सं० १९०३ म हुआ था और इनका ब्याह श्रीयुत सरूपचंदी कोचरकी कन्या श्रीमती मीबाईके साथ सं० १९१८ में हुआ था । इनके छः मन्तोन हुई । चार पुत्र और दो कन्याएं । पुत्र-मूलचंद्रजी, सोभागमली, पूनमचंदजी, और दीपकचंदर्जा । कन्याएँ-लाबाई और धनबाई ।
। मूलचंदजो-इनका जन्म सं० १९२७ में और ब्याह श्रीमती जडावबाईके साथ हुआ था। इनके एक कन्या लक्ष्मीबाई है । सोभागमलजीके पुत्र कनकमलजीको इन्होंने गोद लिया है।
२ सोभागमलजी इनका जन्म सं० १९३८ म और ब्याह सं० १९५१ म श्रीमती वीरांवाईके साथ हुआ था। इनके ३ पुत्र और तीन पुत्रियाँ हुई । पुत्र कनकमल, संपतलाल और अनूपचंद । पुत्रियाँ अनूपबाई, सोनबाई और हुलासबाई हैं । इनमेंसे अनूपचंदका देहांत हो गया है ! यह लड़का बड़ा ही होनहार था।
३ पूनमचंद्रजी-इनका जन्म सं० १९४३ में और पहला ब्याह सं० १९५७ में हुआ था और दूसरा ब्याह सं० १९६७ में श्रीमती सुंदरबाई के साथ हुआ था । इनके दो पुत्र गुलाबचंद और सुगनचंद्र हैं।
४ दीपचंद्रजो-इनका जन्म सं० १९४७ में ओर ब्याह सं० १९६१ में श्रीमती केसरवाई के साथ हुआ था ।
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध)
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इनके कोई संतान नहीं है । सं० १९६४ में इनका देहांत हो गया था। श्रीयुत पूननचंद्रजीके पुत्र गुलाबचंदको गंगास्वरूप केसरबाईने गोद रखा है । सं० १९८९ में गुलाबचंदका व्याह लोहावट निवासी श्रीयुत आसकरणी चोपड़ाकी पुत्री अचरजबाईके साथ हुआ। इसमौके पर करीब दस हजार रुपये खर्च हुए।
सं० १९५३ से सं. १९५७ तक बीचम सेठ चाँदनमखर्जी और सेठानीजी श्रीमती मर्धाबाईने सारे हिन्दुस्थानक जैनतीर्थोकी यात्रा कर ली थी। और उन अवसरोंपर जी खोलकर दानपुण्य किया था।
सेठ चाँदनमलजीने अपने पुत्र पुत्रियोंकी शादियोंमें करीब दस हजार खर्च किये थे । जायदाद बनाने में करीब पचास हजार और धर्मकार्योंमें करीब पन्द्रह हजार खर्चा किया था।
ये सरल स्वभावके, धर्मनिष्ठ और उद्योगी पुरुष थे । इनका देहांत सं० १९५७ में हुआ था ।
सेठानी श्रीमती मघीबाईर्जाने सं० १९७० के श्रावण महीनेम अपनी चारों बहुओंके साथ अठाईकी तपस्या की थी। उस समय दान-पुण्य और म्वामीबत्सलमें अच्छो रकम खर्च की थी।
सं० १९७२ में सेठ मूलचंद्र की पत्नी गुरणीर्जा पुण्यश्रीजीके दर्शनको गई थीं। वहाँसे वे अपने गुरुदेव दादाजीकी
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मूर्ति लाई थीं । सेठानी मीबाईर्जाने गोलेछा-देवभवनमें एक देरासर बनवाया और उसमें उस मूर्तिकी सं० १९७२ के. आषाढ़ सुदि २ को प्रतिष्ठा कराई और स्वामि-वत्सलकर अच्छा दान-पुण्य किया।
सेठानी मघीबाई नियमित सामायिक, प्रतिक्रमण देवपूजा आदि धर्मकार्य किया करती थीं। सं० १९७६ के माघ सुदि ६ को इन धर्मात्मा सेठानी का देहांत हो गया।
अपने मातापिताका देहांत होनेपर इन बंधुओंन जातीय जामन और दानपुण्यम करीब पांच हजार रुपये खर्चे ।
इस पेढी द्वारा आजतक जुदा जुदा सब मिलाकर करीब तीस हजारका दान किया गया है । उनमसे मुख्य काम ये हैं
१ सं० १९८४ में उपाधान कराया । २ करेडा पार्श्वनाथ में एक देहरी बनवाई।
३ जिनदत्तगुरुकुल पालीताना और कन्याशाला फलौदीको रकमें दी। वराडप्रांतिक श्वेतांबर जैन कॉन्फरेंसके सहायक रहे ! अनेक छोटेमोटे कामोंमें देते रहे हैं। और कई स्वामीवत्सल किये।
सेठ मूलचंद्रजी, सेठ सोभागमलजी और सेठ पूनमचंद्रर्जा तीनों भाइयोंने अपने पिता की मृत्युके बाद दुकानको खूब तरक्की दी। सं० १९५९ में इन्होंने बंबईम 'मूलचंद सोभागमल' के नामसे एक पेढी शुरू की। धीरे धीरे यह पेढी खूब बढी.
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और प्रायः सारे हिन्दुस्थानमॅसे अनेक बड़े व्यापारीयोंकी आदत इस पेढीने प्राप्त की है। इस समय इनकी दो पेढियाँ चल रही हैं।
१बंबई में-मूलचंद सोभागमलके नामसे है। यह पेढी खास करके सोना, चाँदी, कपड़ा, हुंडी और रूईकी आढतका धंधा करती है । करीव पचास लाखका सालाना बिजनेस करती हैं।
२ कारंजा(वराड़)म रामचंद चाँदनमलके नामसे है । इस पेढीपर खाम तरहसे कपड़े और साहूकारीका कारोबार होता है। यह पेढ़ी सालाना करीब पाँच लाखका बिजनेस करती है।
तीनों भाई भद्र परिणामी, न्यायप्रिय और धर्मात्मा हैं। सादा और सरल जीवन बिताते हैं। इन्होंने अपने पिताजीके देहांत बाद एक लाखके ऊपर जायदाद बनवाई है और लड़के लडकियोंकी शादियोंमें करीब चालीस हजार खर्च किये हैं।
------ सरदारमल पाबूदान
श्रीमान् सेठ चांदनमलजीके बड़े भाई सेठ सरदारमलजी कारजेसे जाने वाद उनके बड़े पुत्र श्रीयुत पाबूदाननीने अपने साले श्रीयुत पदमचंद्रनो कोचरकी सहायतासे अहमदाबादमें एक
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दुकान खोली। दुकानको अभी थोड़ा ही समय हुआ था कि श्रीयुत पाबूदानजीका देहांत हो गया ।
श्रीयुत पाबूदानजीके तीन लड़के हैं - १ जोगराजजी २ लूणकरणजी और ३ भोमराजजी | जब श्रीयुत पाबूदानजीका देहान्त हुआ तब इनकी उम्र छोटी थी । अपने मामाकी योग्य देखरेखमें इन्होंने कामकाज सीखा और दूकानमें अपने मामाको बहुत अच्छी सहायता दे रहे हैं। तीनों भाई बड़े अच्छे मिलनसार, सुशील और धर्मात्मा मनुष्य हैं ।
पदमचंद्रजी कोचर
श्रीयुत पाबूदानजीके देहांत के बाद श्रीयुत पदमचंद्रजी न इतने परिश्रम से दुकानका कामकाज किया कि, अहमदाबाद में यह पेढ़ी एक बहुत प्रतिष्ठित हो गई । पद्मचंद्रजी की सबसे बडी नीति रोजगार करनेमें ईमान्दारी है । आज तक जिसके साथ इनका काम पड़ा वह इनकी ईमान्दारीका कायल हो गया । विदेशोंम इतनी साख हो गई कि, इस पेढ़ीकी किसी भी बात में कभी कोई शंका नहीं करता ।
इनका मुख्य काम कपडेकी आदत है । इसलिए मिलोंके साथ उनका काम पड़ता है। मिलोंवाले श्रीयुत पद्मचंद्रजीकी प्रामाणिकतसे प्रसन्न हैं और यदि कभी कोई वांधाकी (विवादकी) बात आ पड़ती है तो मिलोंवाले श्रीयुत पद्मचंद्रजीकी बात स्वीकार करते हैं
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ये बड़े धर्मात्मा पुरुष हैं । यदि कोई साधर्मी भाई देशसे
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इनकी पेढ़ीपर आ जाता है तो ये उसकी बड़ी खातिर करते हैं. और अपने पुत्र संपतलालजीको या अपने, दूकानके, नौकरोंको भेज कर आगत सज्जनको शहरके सभी मंदिरोंके दरशन करवाते हैं और आसपास की यात्रा भी करवा देते हैं ।
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।
इनके एक पुत्र संपतलालजी हैं । ये अपने योग्य पिताके आज्ञाकारी पुत्र हैं । दुनियामें इन्हें कोई अपना विरोधी मालम नहीं होता । जिससे ये एक बार मिलते हैं वही इनको अपना स्नेही और हितैषी समझने लग जाता है। इनकी जवानमें कटुता तो नाम मात्रको भी नहीं है । अपने पिताकी ईमान्दारी और धर्मपरायणता इनमें पूर्णरूप से आई है ।
संपतलालजीके तीन पुत्र हैं, - १ हस्तमल २ जेठमल ३ गुलाबचंद्र |
श्रीयुत पद्मचंद्रजीने अपने कुटुंब के सहित प्रायः सभी यात्राएँ कीं हैं । ये धर्मकार्यमें सदा दिल खोल कर धन खरच किया करते हैं । जहाँ जाते हैं वहाँ स्वामिवत्सल, पूजा, प्रभावना किया करते हैं ।
पं. भगवानदासजी जैन
इनके पिताका नाम कल्याणचंद्रजी था । ये पालीताने के रहनेवाले हैं और हाल जयपुरमें रहते हैं । श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन हैं ।
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श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन. पेज ९१.
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सेठ कुंदनमलजी कोठारी.
जन्म सं. १९५३
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श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन
इन्होंने यशोविजय जैनपाठशाला बनारसमें अध्ययन किया है । प्राकृत, संस्कृत और हिन्दी भाषाओंके अच्छे जानकार हैं
और गणित एवं ज्योतिष शास्त्रके विशेषज्ञ हैं। इन्होंने ' मेघमहोयद वर्ष प्रबोध' और 'गणितसार' नामक ग्रंथोंका हिन्दीमें अनुवाद किया है। गणितसार प्रसिद्ध गणितशास्त्रके ग्रंथ 'लीलावती' की जोड़का है। ऐसे ग्रंथको समझना और उसको अपनी भाषामें लिखना कितना कठिन कार्य है ? मगर जो इस कठिन कार्यको कर सके वह कितने विद्वान हैं यह बात सहज ही मसझमें आ सकती है । इन ग्रंथोंको प्रकाशमें लाकर पंडित भगवानदासजीने जैनसाहित्य और जैनधर्मकी बड़ी सेवा की है। इनके अलावा आप 'भुवनदीपक ' 'वास्तुसार' ( शिल्पशास्त्र )
और ' त्रैलोक्य प्रकाश ' नामके ग्रंथ तैयार कर रहे हैं आशा है आप जैनधर्म, जैनसमाज और जैनसाहित्यकी इसी तरह सेवा करते रहेंगे।
सेठ कुंदनमलजी कोठारी
इनके पिताका नाम फूलमलजी था । ये ओसवाल श्वेतांबर जैन हैं । इनका गोत्र रणधीरोत कोठारी है । इनके यहाँ जमींदारी है और ये साहूकारीका धंधा करते हैं ।
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध )
इनका जन्म सं० १९५३ के श्रावण महीने में हुआ था, और इनका व्याह जब ये १७ वर्ष के थे तब हुआ था । इनके एक कन्या हैं जिसका नाम वदनवाई हैं और एक पुत्र है, उसका नाम पारसमल ' है ।
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इनके दादा बख्तावरमलजी रियासत जोधपुरके रियाँ गाँवसे आये थे, तब बहुत ही गरीब थे । मगर उन्होंने परिश्रम और होशियारीसे अच्छा धन पैदा किया । आज दारव्हा ( बराड़ ) के मुखिया व्यापारियों में इनकी पेट्टी है ।
इनकी पेढीका नाम बख्तावरमल फूलमल है । ये दारव्हेक एक अच्छे जमींदार और प्रमुख व्यापारी समझे जाते हैं ।
आपके पिता फूलचंद्रजी बडे ही धर्म - प्रिय मनुष्य थे । उन्हींके मुख्य उद्योगसे द्वार हमें जैनमंदिर बना है । मंदिर के चिट्ठेमें आपने आठ हजार रुपये भरे हैं ।
कुंदनमलजी साहब प्रभावशाली और स्वाधीन विचारके मनुष्य हैं । ये अनेक वर्षों तक बराड प्रांतिक जैनकॉन्फरंसके ऑनरेरी सेक्रेट्री रहे हैं । बराड़ प्रांतिक जैनकॉन्फरंकी तरफसे जैनसंसार नामक मासिकपत्र निकला था । वह दो बरस तक चला । आप उसके मुख्य सहायकोंमें थे ।
दार बाहिर गाँवों से आने जानेवाले लोगोंके ठहरनेका कोई इन्तजाम नहीं था । लोगोंको बड़ी तकलीफ होती थी । आपने वह तकलीफ महसूस की और दस हजार रुपये लगाकर
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श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन
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स्टेशनके सामने एक अच्छी धर्मशाला बना दी और मुसाफिरोंसे आशीर्वाद लिया ।
ये तीन बरस तक दारव्हा तालुका बोर्डके उपप्रमुख रहे थे । इस पद पर रहकर इन्होंने दारव्हा तालुकेकी बहुत सेवा की थी ।
माताके ये बड़े भक्त थे। जब तक माता जीवित रहीं बडे प्रेमसे ये उनकी सेवा करते रहे । हमेशा माताने जो हुक्म दिया वही किया । कभी माताकी आज्ञा न टाली । उनके देहांत होने पर बड़ी अच्छी तरह सभी लोकाचार किये । मौसर कर जाति बंधुओं में प्रति घर एक चांदीकी अमरतीकी ल्हाण बाँटी ।
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ये राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक सभी कामोंमें रस लेते हैं और उनमें यथासाध्य तन, मन और धनसे सहायता करते हैं ।
जैनधर्मके आप बड़े भक्त हैं । हमेशा सेवा, पूजा, सामायिक आदि कार्य किया करते हैं | अतिथि सत्कार इनका एक मुख्य गुण है । हमें मालूम हुआ है, कि दारुहेमें आये हुए किसी भी साधर्मी बंधुक ये अपने यहाँ भोजन कराये बिना नहीं जाने देते ।
इनका स्वभाव मिलनसार और उदार है ।
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध )
सेठ मोहनचंद्रजी मूथा
इनके पिताका नाम मालूमचंद्रजी है । ये ओसवाल जातिके खिंवसरा मूथा गोतवाले हैं। श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैनाम्नायक अनुयायी हैं और दिग्रस ( बराड ) में रहते हैं ।
दिन हुआ था । जब इनकी उम्र व्याह हुआ । इनके एक पुत्री है
इनका जन्म सं० १९३९ के प्रथम श्रावण सुदि १३ के १६ बरसकी थी तब इनका । उसका नाम भँवरीबाई हैं । ये तीन भाई थे-मोहनचंद्रजी, मूलचंद्रजी और धर्मचंद्रजी दोनों छोटे भाइयोंका देहांत हो गया
1
धर्मचंद्रजीके एक पुत्र है । उसका नाम फतहचंद्र है । उसकी उम्र इस समय करीब १७ बरसकी है । मेट्रिक में पढ़ता है । मोहनचंद्रजी साहब उसको बड़े प्यारसे रखते । वही आपका कुलदीपक है |
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इनके पिता सं० १९३६ में मारवाड़की जोधपुर रियासत के आसोप गाँव से बडी ही गरीब हालतमें दिगरस आये थे । यहाँ आकर उन्होंने बहुत ही छोटे रूपमें अनाज और किरानेका धंधा आरंभ किया । कुछ बरस बहुत तकलीफसे निकले; परंतु अंतमें असीम परिश्रमने सफलता दी। धीरे धीरे उनके पास खासी
पूँजी हो गई ।
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पेज ९४.
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सेठ मोहनचंदजी मूथा.
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श्वेताम्बर मृतिपूजक नैन सं० १९६२ में मोहनचंद्रनी साहबके पिताका देहांत हो गया । सारे कुटुंबका बोझा इन्हींके सिरपर आ गिरा; मगर इन्हान धीरजके साथ बोझा उठाया, व अपने पिताके व्यापार और धनको बढ़ाया । आज ये वराडके माननीय साहूकारोंमेंस और जैन मुखियाओंमेंसे-एक हैं।
ये अच्छे विचारोंके सज्जन हैं । जातिम घुसे हुए बुरे रिवाजोंको मिटानेकी बड़ी कोशिश किया करते हैं। जब वराड प्रांतिक जैनकॉन्फरंस स्थापित हुई तब आप और आपके भाई 'धर्मचंद्रजी उसके काममें बड़ी ही दिलचस्पी लेते थे । कॉन्फरंसकी तरफसे 'जैनसंसार' निकलता था उसका प्रचार करनेमें दानों भाइयोंने बड़ी महनत की थी। स्वयं भी उसको ५०) म. सालाना देते थे।
उस समय यह निश्चित किया गया था कि, जैनसंसार को स्थायी बनानेके लिए दस हजारकी पूंजी लगाकर एक प्रेम खेल लिया जाय। ढाई ढाई सौके शेअर निकाले जायँ और वराके धनिक जैनोंसे शेअर भराये जायँ । अगर दैवयोगसे कभी प्रेस बंध करना पड़े तो उसकी सम्पत्तिके मालिक शेअर होल्डर्स हों । तदनुसार शेअर भरानेका काम आरंभ हुआ। मेरे (कृष्णलाल वाके ) साथ सेठ मोहनचंद्रजी साहब भी अपना काम हर्जकर धनिक लोगोंके पास शेअर भरानेके लिए जाते थे । खुदने भी एक शेअर लिया था । एक जगह एक सेठ बोले,-" निकम्मे
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध)
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वैठोंने यह ठीक धंधा निकाला है।" फिर वह मोहनचंद्रनी साहबसे बोले:—" तुम्हें भी इसमेंसे कुछ कमीशन मिलता होगा। बगैर मतलब कोई क्यों भटके ? " मोहनचंद्रनी साहबने शांतिसे जवाब दियाः-“ धर्मके कामसे जो फल मिलेगा उसमें मेरा साझा है ही। और आपको भी उसमें साझीदार बनानेके लिए आया हूँ।" मगर सेठकी बात मेरे हृदयमें तीरकी तरह चूम गई और मैंने उसी वक्तसे यह कार्य छोड दिया । जैनसंसार भी उसी समयसे बंद हो गया । ____ आप बाल-विवाहके विरोधी हैं, इसलिए जिस समय लड़कीको दस बरसकी उम्रसे अधिक अविवाहित घरमें रखना पाप समझा जाता था, उस समय आपने लोगोंके तानों और तिरम्कारोंकी परवाह न कर अपनी कन्याको बड़ी होने दी और जब वह तेरह बरसकी हुई तब उसकी शादी की ।
मारवाडी समाजम शादियोंके मौके पर गालियाँ-सीठने शानका बहुत रिवाज है । मगर आप इसके कट्टर विरोधी हैं। इसलिए जब आपकी पुत्रीका ब्याह हुआ तब आपने बड़ी दृढ़ता दिखाई और उस मौके पर सीठने बिलकुल नही गाने दिये ।
दिगरसमें दिगंबर आम्नायके दो जिनालय हैं; परंतु श्वेतांबर आम्नायका एक भी नहीं है। यह बात इनको बहुत अखरती थी कि, हमारी पद्धतिके अनुसार पूजापाठ करनेका कोई भी साधन
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वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन
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नहीं है । अंतम इन्होंने श्रम करके रुपये जमा किये और अब शीघ्र ही मंदिर बन जायगा ।
इनका स्वभाव सरल और शांत है । बड़े प्रेमसे ये अतिथि सेवा करते हैं । धनपाकर भी इनको आभमान नहीं है ।
सेठ शिवचंद्रजी
इनके पिताका नाम जीवराजजी और दादाका नाम अगरचंद्रजी था । इनका गोत्र - ऋणजरोत कोठारी और जाति ओसवाल है । श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैनधर्मके पालक हैं । इनके दादा मु० समेर ( जोधपुर से दिगरस ( वराड़ ) में सौ बरस पहले आये थे । ये साधारण इंग्लिश पढ़के अपने कारबार में लग गये थे । इनका व्याह अठारह बरसकी उम्र में हुआ था । इनके चार बहिनें और एक भाई लोभचंद्रजी हैं । लोभचंद्रजी मेटिक पढ़े हैं ।
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इनका जन्म सं० १९६१ में हुआ था । ये बड़े ही उत्साही और धर्मकाम रस लेनेवाले व्यक्ति हैं । दिगरसमें जैनमंदिर बनवाने के लिए जो चंदा हुआ था उसमें इन्होंने अच्छो रकम दी थी ।
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध) इनके दादा जब दिगरसमें आये थे तब उनकी दशा बहुत अच्छो न थी; परंतु उन्होंने प्रामाणिक परिश्रम करके अच्छा व्यापार जमा लिया । उनके पुत्र जीवराजजीने उस व्यापारको बढ़ाया और सेठ शिवचंद्रजीने उसको और भी तरक्की दी । आज इनकी पेढी लखपति समझी जाती है।
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श्रीयुत फतेहचंद कपूरचंद लालन
श्री फतेहचंद्रजीका जन्म सं० १९१४ के फालान वदि १० को हुआ था । ये जातिके बीसा ओसवाल और लालन गोत्रके हैं । श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैनधर्मका पालन करते हैं । ये खास जामनगर ( काठियावाड़ ) के रहनेवाले हैं और अभी बंबई में रहते हैं। ___इनका ब्याह जब ये चौदह बरसके थे तब श्रीमती मोंधीबाईके साथ हुआ।
ये बड़े ही विद्या-व्यसनी हैं । इनको पढ़नेकी बहुत इच्छा थी; परंतु इनके पिता साधारण गुजराती पढ़ानेके बाद आगे पढ़ने देना नहीं चाहते थे । इसलिए वे न पुस्तकोंके लिए पैसे देते थे और न फी ही देते थे। इन्होंने प्रयत्न करके स्कॉलर
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श्रीयुत फतेचंद कपूरचंदलाल जन्म सं० १९१४.
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श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन
शिप प्राप्त की । उसीमेंसे पुस्तकें खरीदते थे और स्कूलकी फीस देते थे । इनके पिता इतने विरुद्ध थे कि, घरमें बत्तीके सामने बैठकर पढ़ने भी नहीं देते थे इसलिए ये दिनको सूर्यकी रोशनीमें और रातको सड़कोंके दीपकोंके प्रकाशमें पढ़ते थे । इस तरह पढ़कर ये इंग्लिश, संस्कृत, गुजराती और धर्मके अच्छे पडित हो गये।
जब इनकी बड़ी उम्र हुई तब ये अपना निर्वाह टयुशनोंसे करने लगे । इनकी पत्नी कुछ पढी लिखीं नहीं थी, इसलिए इन्होंने श्रम करके उनको भी धर्म और गुजरातीका अच्छा ज्ञान करा दिया ।
धर्मका इनपर अच्छा रंग चढ़ा और इन्होंने अपनी ३७ बरसकी आयुमें जीवन भरके लिए ब्रह्मचर्यव्रत धारण कर लिया । इनकी पत्नीने भी अपने पतिका अनुसरण किया। यह व्रत दोनोंने मुनि श्री मोहनलालजी महाराजके पाससे धारण किया था।
ये दीक्षा लेना चाहते थे; परंतु सेठ वीरचंद दीपचंदकी सलाहसे इन्होंने इस विचारको छोड़ दिया और जैनधर्मका विदेशोंमें भी प्रचार करने का निश्चय किया। सेठ वीरचद दीपचंद की सहायतासे ये सं० १९५२ में अमेरिका गये और साढे चार बरस तक वहाँ अहिंसा, योग और अध्यात्मका प्रचार करते रहे । वहाँका खरचा वहीं कमाई करके चलाते थे ।
सं. १९९७ में ये वापिस बंबई लौटे । सं० १९६५ में
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध )
ये पुनः युरोप गये । छः महीने जैनधर्मका प्रचार कर हिन्दुस्थानमें आये और सं० १९६७ में ये पुनः लंडन गये । वहाँ इन्होंने 'जैनसोसायटी' कायम की। इस सोसायटीको कायम करनेमें इनको श्रीयुत हरबर्ट वारन और बेरिस्टर जुगमंदरलालजीसे अच्छी सहायता मिली थी ।
ये सं० १९६१ तक टयुशन करके अपना निर्वाह करते थे | बादमें सर विसनजी त्रिकमजीके पास उनके कंपेनिअनकी तरह रहते थे और वे ही इनका खरचा चलाते थे। अब ये अपने भतीजे पदमसीके पास रहते हैं ! जो लालन और कंपनीके मालिक हैं ।
ये अच्छे वक्ता और लेखक हैं । अबतक इन्होंने नीचे लिखी पुस्तकें लिखी हैं ।
१ सहजसमाधि २ स्वानुभवदर्पण ३ सवीर्यध्यान ४ परमज्योति पंचविंशति ५ आत्मावबोध कुलक ६ सवक्ता ७ लालन आत्मवाटिका ८ आत्म विकासने मार्गे ९ जैनमार्गोपदेशिका चार भाग १० गोस्पल ऑफ मॅन ।
इनमेंकी अंतकी पुस्तक इंग्लिशमें है और दूसरी ९ पुस्तकें शुजराती भाषामें हैं ।
ये सरल और शांत प्रकृतिके मनुष्य हैं । इनका सारा जीवन निवृत्ति और अध्ययन, मनन और धर्मोपदेशमें बीता है ।
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श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन
सेठ राजमलजी सुराणा
इनके पिताका नाम भूरामलजी था । ये जातिके ओसवाल और सुराणा गोत्रीय श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन हैं। जवाहरातका रोजगार करते हैं। इनके पूर्वज दिल्ली रहते थे, वहींसे इनके दादा जयपुर में आकर जवाहरातका धंधा करने लगे।
इनका जन्म सं० १९६४ के भादवा वदि २ को हुआ था। और इनकी शादीमें इनके पितान करीब पैंतालीस हजार रुपये खरच किये थे । इनके दो पुत्रियाँ हैं। एकका नाम जतनवाई और दूसरीका रतनबाई । दोनों हिन्दी पढ़ी हुई हैं। सेठानीजी पढ़ी लिखीं हैं।
राजमलजीको हिन्दी और इंग्लिशका साधारण ठीक ज्ञान है । सुधारक विचारोंकी तरफ झुकाव है। सं० १९७७ में इनके पिताका स्वर्गवास हो गया। उस समय लोगोंने वहत जोर दिया कि उनका कऱ्यावर ( नुकता) किया जाय; परंतु इन्होंने किसीकी बात न मानी। “ नुकता करना हानिकारक है। मैं कभी न करूँगा।” यह वात जितनं इन्हें समझाने आये उनको दृढ़ता पूर्वक कह दी।
जयपुरकी जनानी ड्योढी पर जो जवाहरात खरीदा जाता था वह इनके पिता भूरामलजीकी मार्फत या उन्हींसे खरीदा
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध )
जाता था । जयपुरके प्रायः जागीरदार भी उन्हींसे या उन्हीं की मार्फत जवाहरात खरीदते थे । वह व्यवहार अब भी प्रायः चालू है ।
इनके यहाँ जवाहरातका धंधा ही होता है और नहीं । इनकी फर्म भूरामल राजमल सुराणा के नाम से प्रसिद्ध है ! यह फर्म जड़ाऊ काम करनेमें खास तरहसे प्रसिद्ध है । इनका माल । हिन्दुस्थानके अलावा इंग्लेंड अमेरिका आदि विदेशोंमें भी जाता है । यह फर्म हमेशा सच्चे जवाहरातहीका धंधा करती है । इमिटेशनका नहीं करती ।
सेठ राजमलजी अच्छे सुधारक, उत्साही और कर्मशील सज्जन हैं ।
पं० शिवजी देवसिंह
शिवजीभाईका जन्म संवत १९३६ के वैशाख वदि ९ को हुआ था । इनके पिताका नाम श्रीयुत देवसिंहजी और माताका नाम श्रीमती वेमुबाई था । ये जातिके कच्छी दसाओसवाल और गोत्रके लापसिया हैं । ये मूर्तिपूजक श्वेतांबर जैनधर्मका पालन करते हैं । ये खास गांव नलिया ( कच्छ ) के रहनेवाले और अभी गाँव मढडा ( काठियावाड़) में रहते हैं ।
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पं० शिवजी देवसिंह.
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श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन
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इनका व्याह जब ये बारह बरसके थे तब श्रीमती सुलक्षणाबाईके साथ हुआ था। इनके दो पुत्र हैं। एकका नाम सुधाकर और दूसरेका सुमतिचंद्र । श्री सुमतिचंद्रकी पत्नीका नाम सरलाबाई है।
शिवजीभाई बचपनहीसे विद्याव्यसनी थे; परंतु इनकी इच्छाके अनुसार इनको अध्ययनकी सुविधा न मिली । तो भी ये यथासाध्य प्रयत्न करते रहे। ____ सं० १९५४ में उमरसीभाईसे इनका स्नेह हुआ । दोनों प्रायः साथ साथ रहते, अध्ययन करते और धर्मक्रियाएँ करते । दोनोंकी स्मरण शक्ति अच्छी थी । इसलिए दोनोंने एक बार 'वीर कहे गौतम सुणो पाँचमा आराना भावरे ' इस २१ गाथाकी सन्झायको एक घंटेमें पाठ करके एक दूसरेको सुना दिया। ___पिताके आग्रहसे ये बंबई आये और कानजी मणसीकी दुकानपर १००) रु. मासिकके वेतनपर नौकर रहे । मगर नौनरीमें इनका मन नहीं लगता था । ये तो संस्कृत पढ़ना चाहते थे इसलिए ऐसी नौकरी करनेकी इच्छा रखते थे जिसको करते हुए ये संस्कृत पढ़ सकें । पालीताना वीरबाई जैनपाठशालाके मॅनेजरकी जगह पर काम करनेके लिए इन्होंने पाठशालाके ट्रस्टी सर वसनजी त्रिकमजी जे. पी. और सेठ हीरजी घेलाभाई जे. पी. से निवेदन किया । उन्होंने इन्हें २३) रु. मासिकपर
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध) मॅनेजरकी जगहपर रखना स्वीकार कर लिया। इन्हें पालीतानेकी नौकरीसे संस्कृत पढ़नेकी सुविधा मिल सकती थी; परंतु धन कमानेकी सुविधा न थी इसलिए पिताने आज्ञा न दी। ये बड़े धर्मसंकटमें पड़े । ये न पिताकी इच्छाके विरुद्ध पालीताने जा सकते थे और न अपनी इच्छाके विरुद्ध नोकरीही कर सकते थे। परंतु श्रीयुत माणकर्जाभाई और रायमलभाईने इनके पिताको समझाकर इन्हें पालीताने जानेकी आज्ञा दिला दी और ये सं० १९५७ में पालीताने चले गये।
सं. १९९७ में प्रसिद्ध जैन विद्वान फतेहचंद्र कपूरचंद्र लालनसे इनकी मुलाकात हुई । दोनों विद्या-व्यसनी और धर्म एवं जातिसेवाकी भावना रखनेवाले थे इसलिए दोनोंमें दृढ मित्रता हो गई । वह आज तक चली जा रही है।
सं० १९५८ में इन्होंने पं० अमीचंद्रजीसे न्यायके ग्रंथ स्याद्वाद मंजरी और रनावतारिकाका अध्ययन किया । __ इनकी इच्छा थी कि, ये प्रसिद्ध मुनिराजश्री मोहनलालजी महाराजसे धर्मशास्त्रोंका अध्ययन करते; परंतु उनकी यह इच्छा पूरी न हुई । कारण, महाराज साधुके सिवा किसीको पढाना नहीं चाहते थे ।
ये सं० १९५९ में यात्राके लिए गये हुए थे। जब ये बनारसमें पहुंचे तो वहाँ इन्हों सैकड़ों विद्यार्थियोंको हिन्दु धर्मशास्त्रोंका और संस्कृतका अध्ययन करते देखा । उसी समय
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इनके दिलमें भी यह खयाल आया कि क्यों न पालीतानेमें भी ऐसी व्यवस्था की जाय कि जहाँ पर रहकर सैंकड़ों जैनविद्यार्थी धर्मशास्त्रोंका, प्राकृतका और संस्कृतका अध्ययन करें ।
इन्होंने यात्रासे लौटते ही कच्छका प्रवास किया और गाँवगाँवमें फिरकर बोर्डिंगमें रहनेवाले लड़कोंके लिए खर्चेका प्रबंध किया एवं मातापिताओंको समझा कर ३१ लड़के एकत्र किये और उन्हें पालीताने लाकर सं० १९९९ के आषाढ सदि १५ को बोर्डिंगकी स्थापना की। बोर्डिंगका नाम 'जैनबोर्डिग पालीताना' रखा।
उसी मौके पर ‘जैनधर्मविद्याप्रसारकवर्ग' नामकी संस्था भी कायम की।
और 'आनंद' नामका मासिक पत्र भी प्रकाशित कराया। ___इनकी यह प्रवृत्ति 'वीरबाई जैनपाठशाला' के एक ट्रस्टीको अच्छी न लगी। इसलिए इन्होंने पाठशाला छोड़ दी और बोर्डिंगहीमें रहने लगे। इनके कुटुंबके खर्चेके लिए सर विमनर्जी अपने जेब खर्चमेंसे ४०) रु. मासिक देने लगे ।
सं० १९६० में सर विसनजी त्रिकमजी जे. पी. ने ५० हजार और सेठ खेतसी खीअसी जे. पी. ने ५० हजार उस बोडिंगको दिये। बोर्डिगका नाम बदलकर 'सर विसनी त्रिकमजी जे. पी. तथा सेठ खेतसी खीअसी जे. पी. जैनबोडिग स्कूल पालोताना' रखा गया।
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध) सं० १९६३ में इन्होंने कच्छमें भ्रमण किया और करीब २० गाँवोंमें पाठशालाएँ स्थापन की। इनमें लड़के और लड़कियाँ सभी साथ साथ पढ़ते थे। ____ सं० १९६४ में इन्होंने भावनगरमें ‘आनंद प्रिंटिंग प्रेस' आरंभ किया और वहाँसे ग्रंथ भी प्रकाशित कराने लगे ।
सं० १९६४ में बंबई में 'कच्छी जैनमहिला समाज' और 'रूपसिंह भारमल श्राविकाशाला' नामकी दो संस्थाएँ स्थापित की। इसके पहिले कच्छी जैनसमाजमें स्त्रियोंके लिए कोई संस्था नहीं थी।
जामनगर स्टेटके हालार प्रांतमें, २० दिन तक भ्रमण किया और वहाँसे २० गरीब विद्यार्थियोंको मांडवी ( कच्छ )में लेजाकर ‘कच्छी जैन बालाश्रम' सं० १९६५ के कार्तिक सुदि १ को स्थापन की। अब वह संस्था नलिया ( कच्छ )में है और सेठ नरसी नाथाके फंडमेंसे उसको ६००० रु. वार्षिक मदद मिलती है। इस संस्थाका नाम भी इस समय 'सेठ नरसी नाथा कच्छी जैनबालाश्रम' हो गया है। ___ अब तककी शिवजीभाईकी प्रवृत्तियोंने इनको समाजमें दिनोदिन प्रतिष्ठित और आदरणीय पुरुष बनाया। ___सं० १९६६ में इन्होंने गुप्त-प्रवास किया । इस गुप्त प्रवासमें इनका हेतु आत्मसाधन था; परंतु जनसमाजने इस गुप्त प्रवासको किसी दूसरे दृष्टिबिंदुसे देखा । स्त्रीसमाजके साथ बढ़ते
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हुए इनके परिचयने लोगोंको शंकाकी जगह दा । इस अवसर पर इनको श्रीयुत माणेकजी पीतांबरने - जो इनके अनन्य मित्रोंमें सेभक्तोंमेंसे एक थे - इनका ध्यान इस ओर खींचा और कहा - " स्त्री समाजके साथ आपका जो परिचय बढ़ रहा है वह किसी दिन आपको और कार्यको हानि पहुँचायगा । " मगर शिवजीभाई अपनी धुन में थे । इन्होंने इस सूचना पर ध्यान नहा दिया । सं० १९६६ हीमें इन्होंने पालीतानेमें 'जैन विधवाश्रम ' की स्थापना की । इस आश्रमकी स्थापनाने विरोधको बहुत ही अधिक बढ़ा दिया |
चारों तरफ से विरोधके बादल घिर रहे थे उसी समय सं० १९६६ हीमें इन्होंने पालीतानेमें ' आनंदसमाज ' का महोत्सव किया। कहा जाता है कि पालीतानेके पहाड़ पर इनने और पंडित लालनने भक्त - मंडलीसे अपनी पूजा कराई थी । वे इससे इन्कार करते हैं और कहते हैं, - " हमने पहाड़पर क्या दूसरी जगह भी कभी अपनी पूजा नहा कराई थी । हमारे विरोधियोंने यह झूठी अफवा उड़ाई है । " परंतु विरोध इतना । बढ़ गया था कि, पंडित लालनको अनेक शहरों और गाँवोंके संघोंने ' संघ बाहर
और इनको
"
कर दिया ।
सं० १९६९ में पालीतानेमें जल - प्रलय हुआ और 'जैन बोर्डिग ' और ' जैन विधवाश्रम ' नष्ट हो गये । ये भी उसी
समयसे आकर मढडामें एकांत जीवन बिताने लगे ।
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध) सं० १९७३ में होमरूलकी स्थापना हुई। ये उसके सभासद बने और कार्य करने लगे।
खेडेके सत्याग्रहमें खेड़ा जिलेमें और सन् १९२१ के सत्याग्रहमें भरोच जिलेमें इन्होंने करीब ११० गाँवोंमें फिरकर लोगोंमें सत्याग्रहकी भावना फैलानेका कार्य किया ।
सं० १९७७ में इन्होंने मढडामें 'लालन निकेतन' की स्थापना की । इसमें आध्यात्मिक जीवन बितानेवाले रहते थे ।
मढ़ाहीमें सं० १९७८ में उद्योगशालाकी और सं० १९७९ में योगाश्रमकी और सं० १९८० में 'भारतमंदिर' की स्थापना की। इन्हीं संस्थाओंके कारण सं० १९८१ में काठियावाड परिषदके साथ और फिर गांधीजीके साथ झगड़ा हुआ । इससे संस्थाओंको सहायता मिलनी बंद हो गई और सं० १९८२ में ये संस्थाएं बंद हो गई । __काठियावाड़ें, कच्छ, महाराष्ट्र और गुजरातमें जहाँ जहाँ राष्ट्रीय, सामाजिक और धार्मिक परिषदें हुई ये उनमें शामिल हुए और अपनी ओजस्विनी एवं मधुर भाषण शैलीसे लोगोंको मुग्ध कर लिया।
शिवजीभाई बड़े ही उद्योगी और दृढ निश्चयी मनुष्य हैं । इन्होंने अनेक विरोधोंकी आँधीका मुकाबिला किया है। कभी जीते हैं कभी हारे हैं, भगर ये अपने विचारों पर हमेशा स्थिर
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श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन wwwxxxmmmmmmmm
इनके छोटे भाईका नाम कुँवरजी था । वे बड़े ही उद्योगी थे । वे अपनी १४ बरसकी उम्रमें ही धंधेमें लग गये थे और तबसे ३८ बरसके होकर गतदेह हुए तबतक वे ही अपने कुटुंबका पालन करते थे।
शिवजीभाई अच्छे लेखक हैं और इनकी अबतक नीचे लिखी पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं।
१ धर्म रत्न प्रकरण ३ भाग, २ उपदेशरत्नाकर, ३ उपदेश पद, ४ अध्यात्मसार, ५ धर्मवीर जयानंद २ भाग, ६ जैन सतीमंडल २ भाग, ७ श्राविकाभूषण ४ भाग, ८ शासनदेवीनो प्रवास, ९ दीक्षाकुमारी २ भाग, १० तत्त्वभूमिमें प्रवास, ११ जैन शशिकांत, १२ शिवविनोद ५ भाग, १३ शिवबोध २ भाग, १४ शिवप्रबोध २ भाग, १५ शिवविलास, १६ रागबोध, १७ विद्याचंद्र सुमति.
व्याकरणतीर्थ, और न्यायतीर्थ पं० बेचरदासजी दोशी
इनके पिताका नाम जीवराजजी था। ये जातिके बीसा श्रीमाली और सव्वाणी गोत्रके हैं । ये श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन और रियासत वला ( काठियावाड़ ) के निवासी हैं ।
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध )
इनका जन्म सं० १९४६ के पोस महीनेमें हुआ था । ये अपने गाँव में गुजराती छठी क्लास तक पढ़कर जब बनारस यशोविजय जैन पाठशाला में गये तब इसको उम्र बारह बरसकी थी । इन्होंने वहाँ बारह बरस तक अध्ययन किया और जैन न्यायतीर्थ और व्याकरणतीर्थकी कलकत्तेकी परीक्षाएँ पास कीं ।
जब ये पास होकर आये तब इन्हें गोधावीसे, मुनिश्री रत्नविजयजी महाराजको पढ़ानेके लिए आमंत्रण मिला । इन्होंने जाकर मुनिमहाराजको विशेषावश्यक सूत्र पढ़ाया ।
पश्चात अहमदाबाद आये और श्रीभगवती सूत्रका गुजराती भाषांतर करने लगे । उस समय यह माना जाता था कि, सूत्र सिद्धांतोंका प्रचलित मातृभाषाओं में अनुवाद होना बुरा है । इससे जब चारों तरफ, आन्दोलन आरंभ हुआ, तब ये उस कामको बंद कर पाली गये और वहाँपर इन्होंने स्मर्गीय विजयधर्मसूरिजी के शिष्य भक्तिविजयजीको भगवतीसूत्र पढ़ाया ।
वहाँसे ये बंबई आये और भगवती सूत्रके पाँच शतकोंका गुजराती में अनुवाद, उस पर नोट टिप्पणीयाँ वगैरा लगाकर, तैयार किया । यह अनुवाद जैनागम - प्रकाशक सभाने दो भागों में प्रकाशित किया था ।
ये टीका लिखते थे इसी अरसेमें इन्होंने मांगरोल जैनसभा में एक व्याख्यान दिया । व्याख्यानका विषय था- 'जैनसाहित्यमां विकार थवाथी थयेली हानि ' यह व्याख्यान बादमें पुस्तका
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श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन कार प्रकाशित कराया गया । इससे सारे जैनसमाजमें तहलका मच गया। यह व्याख्यान जैनधर्मको हानि पहुँचानेवाला समझा गया और इसके विरुद्ध समाचार पत्रोंमें अनेक लेख लिखे गये । 'बेचरहितशिक्षा' नामकी एक पुस्तक भी प्रकाशित्त कराई गई।
विचारस्वातंत्र्यके इस जमानेमें जैनसमाजका यह आन्दोलन इन्हें असहिष्णुता मालूम हुआ। महावीर जैनविद्यालयमें भी ये उस समय तत्वार्थसूत्रकी टीका लिखनेका कार्य करते थे । इस कामसे इन्होंने त्यागपत्र-राजीनामा दे दिया। यद्यपि महावीर जैनविद्यालयकी कमेटीने यह त्यागपत्र स्वीकार नहीं किया; परंतु विद्यालयके सेक्रेटरी श्रीयुत मोतीचंद गिरधरदास कापड़ियाने इनसे कहा,-" अगर आप यहाँसे चले जायँ तो अच्छा हो । यदि आप यहाँ रहगे तो संस्थाको हानि होगी। " इसलिए इन्होंने संस्था छोड़ दी।
अहमदाबाद के नगरसेठ कस्तरभाई मणिभाई ने अहमदाबाद जैनसंघकी तरफसे इनको नोटिस दिया कि तुम पन्द्रह दिनके अंदर आकर संघसे अपने विचारोंके लिए माफी माँगो, नहीं तो संघबाहर कर दिये जाओगे । ____ इन्होंने अध्ययन और मननके पश्चात जो बिचार प्रकट किये थे उनके लिए माफी मांगनेका कोई उचित कारण नहीं देखा इसलिए ये चुप रहे और अहमदाबादके संघने इनको
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध) सब बाहर कर दिया। परंतु और स्थानोंके संघने इन्हें संघ बाहर नहीं किया।
इसके बाद एक साल तक इन्होंने जैनसाहित्यसंशोधन नामक त्रिमासिक पत्रमें काम किया। यह पत्र पूनेसे निकलता था और मुनिश्री जिनविजयजी महाराज इसके संपादक थे ।
अहमदाबादमें महात्मा गाँधीने गुजरात पुरातत्त्व मंदिर' नामकी एक संस्था कायम की थी। ये वहाँ काम करने चले गये।
इन्होंने कोलंबोंके । विद्यालंकार परिवेण ' ( विद्यालंकार कॉलेज ) में जाकर पाली भाषाका अध्ययन किया था । उस समय इनके साथ महामहोपाध्याय सतीशचंद्र विद्याभूषण एम. ए. पी. एच. डी. और पं० हरगोविंददासजी भी वहाँ पालीका अध्ययन करते थे। आठ महीनेमें इन्होंने पाली भाषामें प्रवीणता प्राप्त की । वहाँके महास्थविर ( प्रिन्सिपाल ) सुमंगलाचार्यने परीक्षा लेकर इन्हें सर्टिफिकेट दिया था।
अहमदाबादमें पुरातत्त्व मंदिरके कामके साथ ही इन्होंने 'गुजरात विद्यापीठ ' में 'प्राकृत ' 'पाली ' आदि प्राचीन भाषाओंके अध्यापनका काम भी स्वीकार किया। यह काम ये सं० १९३२ के सत्याग्रह-आन्दोलन तक करते रहे । आन्दोलनमें ये पकड़े गये । जब जेलसे छूटे तब इनको ब्रिटिश हदसे निकल जानेका हक्म हआ। अब ये अपने गाँवमें बैठे हैं। इस
समय इनकी आखें भी खराब हो गई हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन अब तक इन्होंने नीचे लिखे ग्रंथोंका भाषान्तर या सम्पादन किया है।
१ भगवतीसूत्र २ भाग (गुजराती अनुवाद सहित ) २ यशोविजय जैनग्रंथमालाके करीब पैंतीस ग्रंथ (इनमें प्राकृत
और संस्कृत दोनों तरहके ग्रंथ हैं । ) ३ सम्मति तर्क (पं० सुखलालजीने और इन्होंने मिलकर ) ४ पाइयलच्छि नाममाला । ५ समराइच्चकहा ( ३ भाग ) ६ प्रद्युम्नचरित्र । ७ जैनदर्शन ( पदर्शनसमुच्चयसे गुजराती अनुवाद ) ८ प्राकृत मार्गोपदेशिका । ९ प्राकृत व्याकरण।
करीब एक वरसतक इन्होंने 'जैनशासन ' पत्रका संपादन भी किया था। ___ ये निर्भीक और स्वाधीन विचारके व्यक्ति हैं । बहुत बड़े पंडित और विचारशील आदमी हैं । इनका मिजाज सीधा सादा मगर स्वात्माभिमानी है।
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जनरत्न ( उत्तरार्द्ध )
पं० सुखलालजी संघवी
इनके पिताका नाम संघर्जा था। इनका जन्म लींबड़ी ( काठियावाड़) में हुआ था। इनके पिता श्वेतांबर स्थानकवासी जैन थे । बचपनमें ये भी इसी आम्नायको मानते थे; परंतु अब ये श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन आम्नायको मान रहे हैं।
ये जब गुजराती छठी पुस्तक पढ़ चुके थे तब इनको बड़े जोरके चेचक निकले । इसीमें इनकी आँखें चली गई और ये अंधे हो गये । इनका पढ़ना लिखना बंद हो गया। किसी कामके करने लायक न रहे । ये दिनभर स्थानकमें जा बैठते और सामायिक प्रतिक्रमण करते रहते । एक बार स्थानकवासी मुनि श्री उत्तमचंद्रजी महाराज लीबड़ी पधारे । इन्होंने पंडितजीको बुद्धिशाली समझकर सारस्वत व्याकरण पढ़ाया।
फिर ये बनारस गये और यशोविजय जैनपाठशालामें पढने लगे । करीब दो सालके बाद पाठशालाके संचालक आचार्य श्री विजयधर्मसूरिजीके साथ मतभेद हो गया । इसलिए इन्हें और पं० व्रजलालजीको पाठशाला छोड़नी पड़ी। ये दोनों भदेनी घाटपरकी जैनपाठशालामें जाकर रहे । और वहींपर रहकर पंडितोंसे अध्ययन करते रहे । इनके खर्चेकी व्यवस्था उस समय मुनि और हाल आचार्य महाराज श्रीविजयवल्लसरिजीने करा दी थी।
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သွေလိုလိုသွေလိုနေ
श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन पेज ११४
पं० सुखलालजी
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श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन इन्होंने दर्शनशास्त्र, साहित्य और व्याकरणमें पूर्णता प्राप्त की; परंतु परीक्षा किसी परीक्षालय या युनिव्हरसिटीकी न दी । कारण, परीक्षा और उपाधी य दोनों चीज इनको आदरणीय वस्तु मालूम न हई । ये ज्ञानका आदर करते हैं, उपाधिका नहीं। ज्ञान बगैर उपाधिके भी प्रकट हुए बिना नहीं रहता । ___बनारसमें अध्ययन समाप्त करनेके बाद इन्होंने दरभंगा आदि स्थानोंमें रहकर दर्शनशास्त्रका अध्ययन किया । फिर ये आगरेमें आकर आत्मानंद जैन पुस्तक प्रचारक मंडलका काम करने लगे। कई बरसों तक इस कामको बड़ी योग्यताके साथ किया और अनेक ग्रंथोंका संपादन और हिन्दीमें अनुवाद किया।
वहाँसे महात्मा गांधी द्वाग संस्थापित गुजरात पुरातत्त्व मंदिर अहमदाबादमें आये और यहीं सन् १९३२ के सत्याग्रह तक काम करते रहे और गुजरात विद्यापीठमें दर्शनशास्त्र और साहित्य शास्त्र भी पढ़ाते रहे ।
अब ये हिन्दू युनिवरसिटि बनारसमें जैनदर्शनके अध्यापक ( Professor ) हैं।
इनकी अबतक नीचे लिखी पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं । १ कर्मग्रंथ ४ भाग ( हिन्दी अनुवाद सहित ) २ पंचप्रतिक्रमण (, , , ) ३ योगदर्शन ( , , , ) ४ तत्त्वार्थसूत्र गुजराती अनुवाद सहित )
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध)
५ सन्मतितर्ककासम्पादन ( पं० बेचरदासजीके साथ )
ये गहरे विचारक और प्रत्येक वस्तुको नवीन दृष्टिसे देखनेवाले हैं। दिग्गज विद्वान होते हुए भी निरभिमानी हैं । स्वभाव सरल है और दूसरेको मदद करने लिए हर समय हर तरहसे तैयार रहते हैं।
श्रीयुत मोहनलाल दलीचंद देसाई
___B. A. LL. B.
श्रीयुत मोहनलाल भाईकी माताका नाम उनमबाई और पिताका नाम दलीचंद था। ये जातिसे दशा श्रीमाली और धर्मसे श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन हैं । इनका जन्म सन् १८८५ के अप्रेल महीनेमें, बांकानेर ( काठियावाड ) रियासतके लणसर गाँवमें हुआ था। अभी ये बंबईमें रहते हैं और विकालत करते हैं। ___ इनके पिता गरीब आदमी थे। वे अपने पुत्रकी पढाईका इंतजाम नहीं कर सकते थे। इसलिए बालक मोहनलालको उसके मामा श्रीयुत प्राणजीवन मुरारजी साह अपने यहाँ ले गये । उस समय उनकी उम्र ५ बरसकी थी। प्रिविअस पास हुए तब तक ये अपने मामाके पास ही रहे थे ।
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श्वेतांवर मूर्तिपूजक जैन पेज ११६
श्रीयुत मोहनलाल दलीचंद देसाई बी. ए. एल एल्. बी. जन्म सं० १८८५
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श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन ११७ प्रिविअस पास करके ये गोकलदास तेजपाल बोर्डिंगमें जाकर रहे । वहीं रहकर इन्होंने बी. ए. पास किया।
बी. ए. पास करनेके बाद इन्होंने माधवजी कामदार एण्ड छोटुभाई सोलिसिटर्स के यहाँ ३०) रु. मासिकमें नौकरी कर ली। वहाँ नौकरी करते हुए ही इन्होंने LL. B. का अभ्यास किया और साढे तीन बरसके बाद ये एलएल. बी. पास हुए।
ये सन् १९०२ में मेट्रिक, सन् १९०६ में ग्रेजुएट और सन १९१० के जुलाई में एलएल. बी. हुए।
सन् १९१० के सेप्टेम्बरमें, इन्होंने विकालतकी सनद लेनेके लिए-इनके पास रुपये नहीं थे इसलिए-सेठ हेमचन अमरचंद्रसे कर्जके तौरपर रुपये लिए। उदार सेठने इनको बगैर ब्याजके रुपये दिये । और रुपये देकर कभी तकाजा नहीं किया। मोहनलालभाईने अपने आप ही अपनी सुविधानुसार रुपये भर दिये। ___इनके दो व्याह हुए हैं। पहला ब्याह सन् १९११ के फरवरीमें श्रीयुत अभयचंद कालीदासकी कन्या श्रीमती मणिबहनसे हुआ था। उनसे दो सन्तान हुई । लाभलक्ष्मी नामकी कन्या और नटवरलाल नामका लड़का ।
__ मणिबहनका देहांत हो गया तब दूसरा व्याह सन १९२० के दिसंबरमें, श्रीमती प्रभावती वहनके साथ हुआ था।
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११८ जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध ) उनसे ४ संतान हुई,-'माणिकलाल और जयसुखलाल नामके दो पुत्र और ताराबहन व रमाबहन नामकी दो पुत्रियाँ ।
ये उद्योगी और उदार मनुष्य हैं। सामाजिक और धार्मिक उन्नतिके कामोंमें बहुत महनत करते हैं।
साहित्य और खास कर जनसाहित्यके बडे शोकीन है। इनकी जैनसाहित्यकी सेवा अमर रहेगी। आजतक इन्होंने निम्न लिखित पुस्तकें लिखीं हैं। १ जैनसाहित्य अने श्रीमंतोनुं कर्तव्य (गुजराती) २ जिनदेवदर्शन
( , ) ३ सामायिक सूत्र ( म्हस्य ) ४ जैनकाव्यप्रवेश
( , ) ५ समकितना ६७ बोलनी सन्झाय अर्थ सहित ( ,, ' ६ जैन ऐतिहासिक गसमाला भाग १ ला ( , ) ७ श्रीमद यशोविजयी
( इंग्लिश ) ८ नयकर्णिका
( , )
(गुजराती) १० उपदेशरत्नकोश ११ स्वामी विवेकानंदना पत्रो १२ श्रीसुजशवली १३ गुर्जर जैनकवियो भाग १ ला ( , ) १४ , , भाग २ रा ( ,, )
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श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन
१५ सनातन जैनके दो बरस उपसंपादक रहे । १६ जैन श्वेतांबर कॉन्फरंस पत्रके ७ बरस तक संपादक रहे । १७ जैनयुग मासिक पत्रके ५ बरस तक संपादक रहे । १८ जनयुग पाक्षिकपत्रकं अभी सम्पादक हैं । १९ रॉयल एशियाटिक सोसायटीक लिए प्रोफेसर वेलिन्करने
प्राचीन हस्तलिखित पुस्तकोंकी सूची बनाई थी उसमें उनको मदद की। नीचे लिखी सभाओंके मेम्बर हैं. १ जैनश्वेतांबर कॉन्फरंसकी स्टेंडिंग कमेटीक । २ श्रीमहावीर जैनविद्यालय बंबईकी मॅनेजिंग कमेटीके । ३ जैन एज्युकेशनल बोर्ड बंबईके आजीवन सभ्य । ४ श्री मांगरोल जैनसभाकी मॅनेजिंग कमेटीके । ५ नागरी प्रचारिणी सभाके । ६ जैनधर्म प्रसारक सभा भावनगरके आजीवन सम्य । ७ जैन आत्मानंद सभा भावनगरके आजीवन सभ्य ।
सन १९२६ के दिसंबर महीनमें दक्षिण प्रांतिक महाराष्ट्र जैन श्वेतांबर कॉन्फरेंस-जो कोल्हापुरमें हुई थी-के प्रमुख हुए ।
ये १८ बरससे महावीर जैनविद्यालय बंबईको प्रतिवर्ष ५१) रु. देते आ रहे हैं।
इंग्लिश जैनगजटको १००) दिये।
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध)
और जैनसाहित्य संशोधकको १००) रु. दिये थे।
इनका स्वभाव मिलनसार होते हुए भी स्पष्ट और निर्भय है । दूसरेको अपनी परिस्थिति और शक्तिके अनुसार सहायता देने में कभी आगापीछा नहीं करते ।
श्रीयुत बी. एन. महेशरी
इनके पिताका नाम नथूभाई गंगाजर और माताका नाम मीठांबाई था। ये जातिके कच्छो दसा ओसवाल हैं और श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैनधर्नका पालन करते हैं । ये कच्छके रहनेवाले हैं और अभी माटुंगा ( बंबई ) में रहते हैं ।
इनका ब्याह जब ये २१ बरसके थे तब श्रीमती रतनबाईके साथ हुआ था । इनके दो पुत्र शरत्चंद्र और कृष्णचंद्र एवं तीन पुत्रियाँ-धनलक्ष्मी, प्रमिला और अनसूया हैं।
इनके पिता बचपनहीमें स्वर्गवासी हो गये थे इसलिए इनको अध्ययन करनेका विशेष मौका न मिला । इनको अपनी छोटी उम्रमें ही रोजगारमें लगना पड़ा। ये वीमाकी दलाली
और सट्टा करने लगे। सन १९१२ से इन्होंने सार्वजनिक कामोंमें भाग लेना आरंभ किया ।
सन १९२३ में इन्होंने एक पत्र निकालना भी आरभ
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किया। पेपरमें समाजसुधारके उग्र लेख प्रकाशित होते थे । इसलिए एक बार इनको लोगोंने पीट भी दिया था। तो भी ये अपने विचार प्रकट करते ही रहे । ____ दो बार ये बंबई म्युनिसिपल कॉर्पोरेशनके मेम्बर हुए थे । एक बार इन्होंने कॉर्पोरेशनमें यह प्रस्ताव रखा था कि," शहरमें भ्रूणहत्याओंकी जो घटनाएँ हुआ करती हैं उनको बंद करनेके लिए, म्युनिसिपॅलिटीके छोटे बड़े सभी अस्पतालोंके बाहर ऐसे बंबे रखवा दिये जायँ जिनमें, विधवाएँ या कुमारियाँ अपने निर्दोष शिशुओंको मारनेके बजाय, रख जाया करें।" कांग्रेस म्युनिसिपल पार्टीके ये सेक्रेटरी भी रहे थे ।
ये जैन एज्युकेशनल बोर्ड बंबईके मेम्बर हैं ।
कच्छी दसा ओसवाल जैन बोर्डिंग हाउस बंबईके ये आठ बरस तक सेक्रेटरी रहे थे।
चार बरस तक मांडवी कांग्रेस कमेटीके सेक्रेटरी रहे ।
ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटीके ये तीन बार मेम्बर चुने गये थे; परंतु दो बार इन्होंने मुसलमान मेम्बरको भेजनेके लिए इस्तीफे दे दिये थे। ___ जब ये मांडवीमें कांग्रेसके सेक्रेटरी थे तब बहुत कार्य किया। एक बार करीब तीस हजार तक मेम्बरोंकी संख्या हुई । पाँच लाख और पैंतीस हजार रुपये तिलक स्वराज्य फंडमें जमा हुए।
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१२२ जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध ) अठारह हजार कपडे जमा हुए । भारतके प्रसिद्ध २ नेताओंमे-- जो वंबई में आये-मांडवी पर लाकर व्याख्यान कराये थे ।
सं० १९१२ में इन्होंने एक युनिअन सोसायटी कायम की । उसने दो संस्थाएँ आरंभ की उनके नाम हैं
१ युनिअन सोसायटी फ्री रीडिंग रूम एण्ड लायब्रेरी. २ युनिअन सोसायी सहायक फंड ।
मिसिज एनिविसेंट जब सन् १९१७ में छूटीं तब इस युनिअनने उनके स्वागतके लिए सभा बुलाई । उसमें करीब ६० हनार आदमी थे।
बंबई में सन् २९ में हिंदु मुसलमानोंका दंगा हुआ था तब कोपोरेशनने जो पीस कमेटी कायम की उसकी पब्लिसिटि कमेटीक ये सेक्रेटरी हुए थे। ___वंबईकी नेशनल वालंटिअर कोर, जो सं० १९२३ में कायम हुई थी उसके ये प्रमुख थे। दिल्ली कांग्रेसमें इस कोरन बहत काम किया । कोकीनाडा कांग्रेसमें असिस्टेंट केप्टेनकी हैसियतसे काम किया था। उस समयके प्रमुख कोंडा कटप्पैयाने और मि. साम्बुमूर्तिने प्रशंसापत्र दिये और उसमें लिखाकि अगर मि. महेशरी न होते तो कांग्रेसमें व्यवस्थाका इतना अच्छा काम हो सकता था या नहीं इसमें शक हैं।
दो प्रदर्शिनियोंके ये सेक्रेटरी रहे । एक मांडवी कांग्रेस कर्भाटी स्वदेशी प्रदर्शिनी और दूसरी खिलाफत कमिटी स्वदेशी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन. पेज १२३.
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श्रीयुत मोहनलाल भगवानदास सॉलिसिटर.
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प्रदर्शिनी । खिलाफत कमेटीसे इनको एक गोल्ड मेडल भी मिला था । इन्होंने उस मौके पर एक गोलमेज बनाई थी । उसमें कांग्रेसका इतिहास था ।
इनके विचार स्वतंत्र हैं । अन्तर्जातीय खानपान और विवाहके पुरस्कर्ता और विधवाविवाहके हिमायती हैं। लग्न - त्याग भी ठीक समझते हैं। हिन्दुमुस्लिम एकतामें देशका उद्धार समझते हैं ।
देशके लिए ये जेल भी जा चुके हैं ।
श्रीयुत मोहनलाल भगवानदास जौहरी
सॉलिसिटर
श्रीयुत मोहनलालजी के पिताका नाम भगवानदासजी था, और वे जवाहरातका धंधा करते थे ।
ये जातिसे दसाश्रीमाली और धर्मेंस श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन हैं। ये मूल सूरतके रहनेवाले हैं और अब बंबई में रहते हैं ।
ये बी. ए. में सम्मानपूर्वक उत्तीर्ण हुए थे। B.A. ( Hounours ) और फिर LL. B. पास करके सॉलि मिटर बने ।
इनका ब्याह इनकी १९ बरसकी आयुमें श्रीमती कलावती
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध) बाईके साथ हुआ था । इनके ५ संतान हैं । २ पुत्र अरविंद
और जयंती व ३ पुत्रियाँ सरला, चंद्रकला और सुलोचना हैं । __मोहनलालभाईके दादा भीखाभाई उर्फ गुलाबचंद्रजी वांसदा स्टेटके दीवान थे।
इनको ज्योतिष, वैद्यक, योग और दर्शनशास्त्रोंका अच्छा ज्ञान है।
सन १९२६-२७ में श्वेतांबर जैन कॉन्फरेंसके ये सेक्रेटरी थे । कॉन्फरेसका बंबई में स्पेशल सेशन भरनेमें इन्होंने बहुत महनत की थी।
महावीर जैनविद्यालयकी रिलिजिअस इन्स्ट्रकशन कमेटीके ये मेम्बर हैं। धार्मिक परीक्षाओंके ये प्रायः परीक्षक रहा करते हैं।
ये स्त्रीशिक्षाके हिमायती हैं। इन्होंने अपनी धर्मपत्नीको गुजरातीका अच्छा ज्ञान कराया है और कुछ संस्कृत भी सिखला दी है।
इनका सार्वजनिक जीवन मोहनलाल जैन लाइब्रेरीके मंत्रीपदसे हुवा था।
इन्हें व्यायामका बडा शौक है । कसरतोंमें इन्हें कई इनाम भी मिले हैं।
इनका स्वभाव मिलनसार और शांत है।
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श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन
१२५
मुक्तिमूरिजी महाराज
आपका जन्म सं. १८८७ फाल्गुन कृष्णा ९ के दिन काछी बडोदा ( मालवे ) में हआ था। आपका जन्म नाम मूलचंद, पिता खेमचंद, माता चैनादेवी, ओसवाल, सालेचा मोहता । आपने दीक्षा स. १९०७ के फाल्गुन शुक्ला ७ के दिन सम्मेतसिखरजी पर ली थी। दीक्षा नाम महिमा कीर्ति. और गुरु महेन्द्रमरिजी था। ___ आप, सं. १९१५ ज्ये. शु. १२ सोमवारके दिन गद्दी नशीन हुए । आपने काशीमें रह कर यति बालचंद्रजीके पास विद्याध्ययन किया था । संस्कृत और धर्मशास्त्रोंके बड़े विद्वान थे । वहाँ आपने मंत्र यंत्रादिककी भी बहुत साधना की और लोगों में अपनी धाक जमाई । वहाँसे ग्रामानुग्राम विहार करते हुए आप कोटे पधारे और बंदीमें पटवोंके मंदिरमें आपने सं. १९२० के सालमें प्रतिष्ठा कराई । वहाँसे विहार करके जयपुर पधारे । यहाँ लोगोंमें आपकी प्रतिभाका बड़ा प्रभाव पड़ा।
आपके यहाँ आनेका मुख्य कारण यह था कि आपके गुरु श्रीमान महेन्द्रसूरिजी महाराज जयपुर पधारे थे; परन्तु चूंकि ये जयसेलमेरकी गद्दीवाले थे और यहाँक श्रावक सभी बीकानेर
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध )
वालोंकी गद्दीको मानते थे, इसलिए जयपुरके श्रावकोंने इनका कुछ आवआदर नहीं किया । अपने गुरुके मुँहसे आपने यह बात सुनी और निश्चय किया कि, मैं जाकर जयपुरमें अपनी गद्दी स्थापित करूँगा और मेरे गुरुका अपमान करनेवालोंसे पूरा बदला लूँगा । तद्नुसार आप जयपुर में आये । यहाँ पटवावालों के मुनीम श्रीयुत चाँदनमलजी गोलेछा दो तीन अन्य श्रावकोंकी महायता से महाराजको स्वागत करके शहर में लाये । महाराजने यद्यपि अपने प्रभावसे अनेकोंको अपना भक्त बना लिया; परन्तु बीकानेरकी गद्दीको माननेवाले कुछ श्रावकों और साधुओंन आपको उपेक्षा से ही देखा ।
पहले आप जब जैसलमेर से फलौधी पधारते थे तबकी बात । रास्ते में पोकरण गाँवक पास होकर आरहे थे । वहाँ उन्होंने पोकरण ठाकुरके कुमारको हिरण पर गोली चलानेके लिए उद्यत देखा । आपने कहा:-" मत चलाओ। " जब कुमार ने ध्यान नहीं दिया, तब महाराजने उसकी बंदूकका मुँह बंद कर दिया । तब तो वह आपके चरणोंमें गिरा और अपने गाँवमें ले जाकर आपकी बड़ी भक्ति की । वहाँ फतहसिंहजी चाँपावतको आपने फर्मायाः - " एक बरसमें तुम अच्छे ओहदे पर पहुँचोगे । तदनुसार वे जयपुर में जयपुरके दीवान ( Prime minister ) हो गये थे । वे आकर आपके पैरों पड़े। उन्होंने महाराजा रामसिंहजीसे आपकी तारीफ की। उन्होंने आपको मिलने बुलाया ।
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I
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श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन
१.२७
वहाँ आपसे महाराजा रामसिंहजीने कहाः “ आप कोई चम त्कार दिखाइए । "
""
आपने जवाब दियाः- “हम साधु क्या चमत्कार दिखायँगे महाराजा रामसिंहने आग्रह किया तब उन्होंने कहा :- " देखिए आपके सामनेवाला थंभा मेरे सवालों का जवाब देता है।" फिर भको संबोधन कर कुछ प्रश्न किये । भने उनका जवाब दिया । यह चमत्कार देखकर महाराज रामसिंहजी बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंने कहा: - " कहिए मैं क्या आपकी सेवा करूँ ? " तब आपने कहाः “ यहाँके कुछ श्रावकों और यतियोंके साथ हमारा मुकदमा चल रहा है । आप उसे ठीक कर दीजिए ।
""
महाराजा रामसिंहजीने आपकी इच्छानुसार मुकदमा फैसल कर दिया और जिन यतियोंने आपका अपमान किया था उन्हें सजा दिलाई ।
जयपुर में पहले आप दूसरे मकानमें ठहरे हुए थे; इस मुकदमेके जीतने पर आप कुंदीगरोंके भैरूंजीके पासवाले खरतर गच्छके उपाश्रयमें आ गये और सभी श्रावक मानने लगे ।
महाराजा रामसिंहजीके कोई काम था । उसके लिए वे एक दिन उपाश्रय आये । वहीं भोजन भी - महलोंसे काँसा मँगवाकर - किया था । महाराज साहबने एक कागज में पहलेहीसे लिख कर कुछ रख दिया था । रामसिंहजी भोजन कर चुके उसके बाद उन्होंने पूछा:- " महाराज, मेरा एक सवाल है । " आपने
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध )
हँसकर अपनी गद्दीके नीचेसे कागज़ निकाल कर दिया और कहाः-" सवाल और जवाब दोनों देख लीजिए । " महाराजा रामसिंहनी देखकर आश्चर्यान्वित हुए । महाराजने कहाः-" आगे प्रयत्नको सफल बनाना हमारे जिम्मे रहा । " महाराजा राम सिंहनी यह कहकर चले गये कि आपके किये ही यह होगा।"
फिर जो काम था वह सिद्ध हो गया। इससे महाराजा रामसिंहनी बड़े प्रसन्न हुए और आपको अपना गुरु मानकर एक ढाई हजारका — ढिंगारिया भीम' नामका गाँव दानमें दिया
और पालखी, चँवर, छड़ी और पैरोंमें पहनने के लिए सोना और दुशाला ओढाकर पाँच सौ रुपये भेट किये व लवाजमेंके साथ आपको पालखीमें बिठाकर उपाश्रय रवाना किया । ____ महाराजा रामसिंहनीको शिकारका बड़ा शौक था; परन्तु आपके उपदेशसे उन्होंने यह शोक छोड़ दिया । और इस तरह आपने हिंसा करनेसे उन्हें रोका।
यहाँसे एक बार आप विहार करके जोधपुर पधारे । वहाँ श्रावकोंने धूमधामके साथ आपकी पधरामणी की। यह बात संवत १९२८ की है । उस समय वहाँ महाराजा तखतसिंहजी राज्य करते थे। उन्होंने भी आसोपा व्यास भानीरामजीकी मार्फत आपको मिलने बुलाया और आपकी असवानीके लिए अपना लवाजमा-हाथी, घोड़े, नगारा, निशान आदि-भेजा। आपसे जोधपुरहीमें चौमासा करनेकी भी महाराजा तख्तसिंहजीने
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श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन
विनती की थी; परन्तु आपको जैसलमेर प्रतिष्ठा कराने जाना था, इसलिए आप वहाँ चौमासा न कर सके।
वहाँसे विहार कर आप जैसलमेर पधारे । वहाँ पटवोंके प्रसिद्ध खानदानके सेठ संघवी हिम्मतरामजीने संघ सहित आपका बड़े समारोहके साथ सामेला किया । इनके बनवाये हुए अमरसरके मंदिरकी प्रतिष्ठा कराई । संघवीजीकी आप पर बड़ी भक्ति थी और इसीलिए उन्होंने आग्रहपूर्वक आपके छ: चौमासे जैसलमेरमें कराये थे।
सं० १९४० में आपने ब्यावरके श्रीसंघके बनवाये हुए मंदिर व दादासाहिबकी पादुकाकी प्रतिष्ठा कराई थी। जयपुरमें बांठियोंके मंदिरकी, प्रतिष्ठा भी, पायछंद गच्छके श्रीपूज्यजीके साथ मिलकर सं० १९४३ में कराई थी । रतलाममें सेठ सोभागमलजी व चाँदनमलजीने मंदिर बनवाया था। उस मंदिरकी प्रतिष्ठा सं० १९५२ में आपने करवाई थी। मंदिरके पास ही दादाबाड़ी बनी हुई है। उसमें जिनदत्तसूरि महाराजकी मूति स्थापित की है और उसके एक तरफ जिनकुशलसूरि महाराज और दूसरी तरफ जिनचंद्रसूरि महाराजकी चरण पादुकाएँ हैं।
आहोर ( गोरवाड ) में सं० १९५५ फाल्गुन वदि ५ को अंजन शलाखा करवाई थी। इस समय आप बहुत बीमार थे; परन्तु श्रावकोंके अति आग्रहसे प्रतिष्ठा कराने जयपुरसे आहोर गये थे । प्रतिष्ठा निर्विघ्न समाप्त हुई और फाल्गुन वदि १२ को वहीं आपका स्वर्गवास हो गया।
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध ) जिनचंदमूरिजी
आपका गृहस्थ नाम रतनलाल पिताका नाम पुरुषोत्तमजी माता चौथांबाई । जन्म सं० १९३१ गाँव पालीमें हुआ था । जातिके ओसवाल वेद मूथा गोत्र । आपने दीक्षा सं० १९५० के फाल्गुन वदि २ को ली थी। नाम रत्नोदयगणि रक्खा गया । आप मुक्तिसूरिजीके पाटवी शिष्य हुए । आपने उपाश्रयहीमें संस्कृत और धर्मशास्त्रोंका अध्ययन किया। आप अपने गुरु महाराजके परमभक्त थे । गुरुकी बड़ी सेवा की थी। मुक्तिसरि महाराजका स्वर्गवास होने पर आपको जयपुरके श्रीसंघने सं० १९५६ के बैसाख सुदी १५ को गद्दी पर बिठाकर सूरिपद दिया और आप जिनचंदमूरिजीके नामसे प्रसिद्ध हुए । जयपुर में पंचायती मंदिरमें, सेठ पूनमचंदजी कोठारीने एक देहरी बनवाई थी। उसमें प्रतिमा स्थापन कर आपने सं० १९५८ में प्रतिष्ठा कराई । सं० १९७६ ज्येष्ठ सुदी ३ के दिन आपने बाडमेरके श्रीसंघके बनवाये हुए आदिनाथजीके मंदिरमें प्रतिष्ठा कराई। जयपुर राज्यान्तरगत बडखेडा गाँवमें एक आदीश्वरजीका प्राचीन मंदिर था; परन्तु वह बहुत जीर्ण हो गया था। इसलिए श्रावकोंको उपदेश देकर उसका जीर्णोद्धार कराया और तब सं० १९८४ के फाल्गुन सुदी २ को उसकी प्रतिष्ठा कराई ।
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श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन १३१ आप विद्याके बड़े प्रेमी थे। अपने शिष्यको आपने सरकारी उच्च परीक्षाएँ दिलाई थीं और जैनसमाजके अनेक काम आपन कराये थे । अनेक स्थानोंमें चौमासे करके अठाई महोत्सव, स्वामीवत्सल अदि कराये थे।
धरणेन्द्र ‘गणि'
इनका गृहस्थ नाम गणेशचंद्र और पिताका नाम हमीरमलजी जातिके ओसवाल और संठिया गोत्रके ये । इनका जन्म चौहठण ( बाडमेर) में सं० १९६४ के फाल्गुन कृष्णा २ को हुआ था । दीक्षा इन्होंने सं० १९८२ के वैशाख सुदि ३ को ली थी। ये जिनचंद्रसरिजीके पट्ट शिष्य हैं । दीक्षा नाम धरणेन्द्र है। ये संस्कृतके शास्त्री हैं। ये बड़े प्रतिभाशाली और अच्छे लेखक हैं । 'जैनसमाजके अनेक पत्रोंमें ' प्रायःलेख लिखा करते हैं । इन्होंने एक सस्कृतके सुभाषितोंका संग्रह किया है और उसका हिन्दी भाषान्तर करके शीघ्र ही प्रकाशित करानेकी उम्मैद रखते हैं । जैनसमाजका कार्य बड़े उत्साहके साथ करते हैं । जयपुरमें गुरणीजी श्रीसोहनश्रीजी महारानके उपदेशसे एक श्राविकाश्रम स्थापित हुआ है। उसके मंत्रीका काम ये बड़े उत्साहके साथ कर रहे हैं । जयपुरके 'श्वेतांबर नवयुवक मंडल'
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध)
के ये सभापति हैं । यतिसमाजमें दो चार उत्साही समाजका काम करनेवाले हैं उनमेंके आप एक हैं । जैनसमाजको इनसे बड़ी आशा है । ये खादीके बड़े भक्त हैं । हमेशा शुद्ध खादी पहनते हैं।
इस समय इनके गुरुजीका देहांत हो गया है । ये अपने गुरुजीकी जगह श्रीपून्य हुए हैं और धरणेन्द्रमारजीके नामसे पहचाने जाते हैं।
यति श्रीउदयचंद्रजी महाराज
यति उदयचंद्रजी महाराज जिस समय भीलवाड़ेसे उदयपुर आय उस समय महाराणा जवानसिंहजी राज करते थे ।
यहाँ शेरसिंही महता बड़े प्रतिष्ठित व्यक्ति थे और उस समय वे प्रधान थे । एक दिन उनकी पत्नी टट्टी गई थी तब उसके नाकमेंसे नथ गिर पड़ी । वह नथ भंगिन उठा कर ले गई । नथ हीरामोतियोंसे जड़ी हुई थी। उसका मूल्य दस हजार रुपये था । नथ कौन ले गया सो कोई न जान सका ।
पुलिसने बड़ी दौडधूप की । कइयोंको मारा पीटा; मगर नथका पता न चला । शेरसिंहजी निराश होकर बैठ रहे।
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श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन १३३ उनको किसीने जाकर कहा कि, भीलवाड़ेसे यतिजी महा. राज उदयचंद्रजी आये हैं और वे सिद्ध महात्मा हैं । अगर वे चाहें तो इसका पता लगा सकते हैं ।
शेरसिंहजीने तुरत अपने आदमी दौड़ाये और उदयचंद्रजीको चोरीका पता लगानेके लिए कहा । उन्होंने जवाब दियाः-" मैं साधु आदमी हूँ । चोरियोंका पता लगाना मैं नहीं जानता । नमोकार मंत्र चाहो तो मैं सुना सकता हूँ।"
जब उन आदमियोंने उनको भेट पूजाका दो सौ चार सौ रुपयोंका लालच दिलाया तब तो वे एकदम मौन हो गये और नवकार मंत्रका जाप करने लगे।
आदमी निराश होकर गये । तब शेरसिंहजीको वृद्ध आदमियोंने सलाह दी कि, आप खुद जाइए और नम्रतापूर्वक उनसे प्रार्थना कीजिए।
शेरसिंहजी मुसद्दी आदमी थे। महाराजके पास गये और वंदना करके चुपचाप बैठ गये। पहले जो आदमी आये थे उनको -साथ न लाये।
उदयचंद्रजीने पूछाः—" आप कैसे आये हैं ? "
उन्होंने नम्रतासे जवाब दियाः--" किसी कामके लिए हाजिर हुआ हूँ; परन्तु कहते संकोच होता है।"
उदय-संकोचकी कोई बात नहीं है । काहए । शेर०-आप मुझे निराश तो न करेंगे ?
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१३४ जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध )
उदयचंद्रजी बड़े संकटमें पड़े। कैसे कहें कि निराश न करूँगा । जान बिना किसी बातकी हामी कैसे भरते । कुछ देर सोचकर बोल:-" अगर मुझसे होने जैसा और निर्दोष काम होगा तो मैं आपको निराश न करूँगा।" ____ शेरसिंहजीन चोरीकी बात कही। महाराज बड़े धर्मसंकटमें पड़े । थोड़ी देर विचारमें बैठे रहे। फिर बोले:-" मैं तुम्हारी चोरीका पता लगा दूँगा। तुम्हारा माल कहाँ है सो भी बता दूंगा; परन्तु तुमको यह प्रतिज्ञा करनी पड़ेगी कि तुम चोरको
दुःख न दोगे।"
शेरसिंहजी बोले:-" अगर चोरको सना न दी जायगी तो भविष्यमें वह और भी चोरी करेगा।"
महाराज-मैं ज्यादा बातें नहीं जानता। अगर तुम चोरको दुःख न देनेकी प्रतिज्ञा करो तो मैं पता बता दूं । अन्यथा तुम अपने घर जाओ और मुझे प्रभुका भजन करने दो।
शेरसिंहजीने महाराजकी शर्त स्वीकार की तब उन्होंने बताया,--- ___“ तुम्हारे यहाँ जो भंगिन झाड़ने आती है उसके घर चूल्हे पर एक आलिया (ताक) है । उसमें एक कुलडेके अंदर तुम्हारी नथ पडी है । ऊपर मिट्टीका सकोरा ढका हुआ है।"
उसी समय आदमी दौड़ाये गये । वे भंगिनके घर जाकर महारानने जो जगह बताई थी वहाँसे नथ उठा लाये। सारे
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श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन १३५ शहरमें महाराजकी बहुत प्रशंसा हुई । शेरसिंहजीने महाराजकी भेट पजा करनी चाही; परन्तु उन्होंने स्वीकार न की। ___एक दिन महाराणा जवानसिंहजी जगदीशके मंदिर दर्शन करने पधारे । तब शेरसिंहजीने यतिजी महाराजका हाल कहा । महाराणाजीने उसी समय उन्हें बुलानका हक्म दिया।
यतिजी महाराजने जगदीशके मंदिरमें जाकर आशीर्वाद दिया । शेरसिंह ने कहाः-" हुजूर फर्माते हैं कि, आप जैसे सन्तोंका इस शहरमें रहना जरूरी है। इसलिए आप कहें उतनी जागीरी आपको सरकारकी तरफसे मिले ।"
यतिर्जाने जवाब दियाः-" मैं यहाँ रहनेके लिए आया हूँ। मगर जागीर तो नहीं लूँगा । साधुओंको इस उपाधिकी. क्या जरूरत है ?" ____बहुत आग्रह किया गया तब उन्होंने कहाः-" और तो मुझे किसी चीनकी जरूरत नहीं है; परन्तु मैं नासिका (सँघनी) सूंघता हूँ। उसके लिए एक टका (आधा आना) रोज चाहिए। सो आप एक टका मुझे राजमेंसे दिला द।" ___महाराणा साहब हँसे और बोले:-" साधु बड़े त्यागी हैं। सरकारसे इनके लिए एक टका रोज मिले ऐसी व्यवस्था कर दो।" __ लोभी लोग यतिजी महाराजके त्याग पर हँसे और उन्हें मूर्ख बताया । भले लोगोंने उनकी तारीफ की। ___ सरकारसे एक टके रोजकी व्यवस्था हो गई। वह टका
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'१३६
जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध )
उनके शिष्य प्रशिष्योंको मिलता रहा था और आज भी यति रत्नचंद्रजीको मिल रहा है ।
उनके शिष्य ( ? ) उनके हरषचंद्रजी और उनके देवीचंद्रजी और देवीचंद्रजीके दो शिष्य थे । माणिकचंद्रजी और दुलीचंद्रजी ।
इस समय दुलीचंद्रजी और माणिकचंद्रजीके रतनचंद्रजी मौजूद हैं।
यतिजी महाराज श्री अनूपचंद्रजी और उनके पूर्वज
१ श्रीनगराजजी महाराज
ये महात्मा बड़े ही निःस्वार्थ और धर्मपरायण पुरुष थे । ये लौकागच्छके थे । यतिर्योकी पद्धतिके अनुसार ये अपने पास धन रखते थे; परन्तु उस धनका इन्होंने कभी अपने सुख के लिए उपयोग नहीं किया । राजअंश लेनेकी इनको प्रतिज्ञा थी ।
ये उदयपुर के महाराणाजी श्री भीमसिंहजीके समयमें हुए हैं और मेवाड़के बनेड़ा गाँव में रहते थे ।
एक बार वे गवालियर गये थे । वहाँके राजाको सूजाककी
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श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन १३७ बामारी थी। उसने अनेक इलाज कराये और लाखों रुपये खर्चे परन्तु बीमारी नहीं मिटी। राजाने जब नगराजजी महाराजके आनेकी बात सुनी तब उन्हें बुलाया और अपनी बीमारीका हाल कहा व प्रार्थना की,-" आप मेरा रोग मिटा दीजिए।"
नगराजजी महाराजने कहा:-" में दवादारु नहीं करता। मगर गुरुदेवकी कृपा होगी तो किसी दिन आपका यह रोग मिट जायगा।" ___एक महीनेके बाद महाराज दर्बारमें गये और सँघनीकी डिब्बी निकाल कर सूंघनो सँघने लगे। राजाको कहाः-" आप भी संघिए ।"
राजाने सूंघनी संघी। थोड़ी देरके बाद राजा बोले:“ क्षमा कीजिए । मैं पेशाब करके आता हूँ।"
राजा पेशाब करने गये तो उन्हें कोई तकलीफ नहीं हुई। पेशाब साफ आया। वे वापिस आकर बोले:-" महाराज ! आपने सँघनीमें कोई दवा दी थी ?" _महाराजने जवाब दियाः-" नहीं, आज गुरुदेवकी कृपा हुई है । अबसे आपका रोग गया समझिए ।" ___दस दिनके बाद राजा महाराज जहाँ ठहरे थे वहाँ आये
और बोले:-" उपकारी पूज्य ! आपने मेरा बरसोंका ऐसा दुःखदायक रोग मिटा दिया है जो लाखों रुपये खर्चनेसे भी नहीं मिटा था। मैं आपकी क्या सेवा करूँ ? मैं इस उपकारका
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१३८
जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध )
बदला तो नहीं चुका सकता; परन्तु अल्प भेट अर्पण कर कुछ सेवा करना चाहता हूँ। यह सेवा स्वीकार कीजिए।"
राजाने चार हजार रुपये सालानाकी आमदनीबाले एक गाँवका पट्टा महाराजके भेट किया। महाराजने कहाः-" मैं आपको इस उदारताके लिए धन्यवाद देता हूँ; मगर मैं तो साधु हूँ। मुझे यह जागीर क्या करनी है ?"
उन्होंने पट्टा वापिस लौटा दिया। राजाने बहुत आग्रह किया; परन्तु महाराजने एक भी बात न मानी । दो चार दिनके वाद महाराज बनेड़े चले आये।
उदयपुरमें साहजी शिवलालजी गरौडिया उस समय प्रधान थे । वे उस समय चाहते सो कर सकते थे ।
उदयपुरकी कसेरोकी ओलमें प्रसिद्ध कावडिया भामाशाहका एक उपासरा था । समयके फेरसे भामाशाहके वंशजोंका सरकारमें कोई प्रभाव नहीं रहा; उपासरेमें भी कोई साधु नहीं रहा, इसलिए उपासरा खालसे हो गया । उपासरेके आधे भागमें दानकी कचहरी बनी और आधे भागमें माजी साहब मेरतणीजीका नोहरा बना। आगेकी कुछ जगह दरीखाना बनानेके लिए रखी गई। ___ एक दिन साहनी शिवलालजी इधरसे होकर निकले तब एक श्रावकने कहा।-" आप लौकेगच्छके हैं और यह उपासरा भी लौकेगच्छका है । इसमेंका यह थोड़ा भाग बाकी रह गया
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श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन १३९ है। अगर आप कुछ करें तो ठोक वरना यहाँसे लौकेगच्छका नाम उठ जायगा।" ____साहर्जा शिवलालजीने - खबर कराई और उन्हें पता चला कि बनेड़े नगराजर्जा महाराज हैं । उन्होंने नगराजजी महाराजको लिखा,-" आप यहाँ पधारिए मैं आपको दो हजारका गाँव नागीरमें सरकारम दिला दूँगा।"
उन्होंने जवाब दियाः-“ मैं राजअंश नहीं लेता। मैं उदयपुर आना भी नहीं चाहता।"
साहर्जाने फिर लिखा,-" अगर आप न आवे तो अपने किसी शिष्यको ही भेज दें। अगर आप ऐसा न करेंगे तो यहाँसे लौंकागच्छका नाम उठ जायगा । इसका पाप आपको होगा।"
महाराजने बहुत सोच विचारके बाद अपने शिष्य चतुरभुनर्जाको उदयपुर भेना और उन्हें कहाः-" वहा, राजसे एक. रुपये रोजकी जागीरीसे अधिककी जागीरी मत लेना और वह भी चार जगहसे लेना।"
साहजी शिवलालजीने चाहा कि इनको ज्यादा जागीर मिले; मगर चतुरभुजजी महाराजने यह बात मंजूर न की। नगराजजी महाराजने लिखा अगर तुम ज्यादा आमदनी दिलाओगे तो मैं अपने शिष्यको वापिस बुला लूंगा।"
इसलिए चतुरभुननी महाराजको निम्नलिखित प्रकारसे धर्मादा मिलनेका हुक्म महाराणाजी श्री भीमसिंहजीने दिया ।
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध )
सांगानेरके गोलखसे ( रोजाना ) चार आने भीलवाड़े गोलखसे ( रोजाना ) चार आने इस तरह पन्द्रह रुपये मासिकका तांबापत्र सं० १८८३ के सावन सुदि ८ शुक्रवारको कर दिया । यह रुपये चांदोड़ी थे । इनके उदयपुरी अब भीलवाड़े के खजाने से १३३||||| नकढ़ मिलते हैं ।
१४०
इसके बाद महाराणाजी श्रीजवानसिंहजी के समय से चांदोडी ४) रु. मासिक दाणसे मिलनेका हुक्म सं० १८९१ चेत सुदि ७ को और हुआ । अब यह रकम ३) रु. उदयपुरी वाणनाथ - जीसे मिलती है ।
फिर सवा तीन बीघे जमीन माफीमें मिली यह आयड़के पास है । उसका तांत्रापत्र महाराणाजी श्रीजवान सिंहजीने सं० १८९२ बेसाख वदि ५ को कर दिया ।
उदयपोलके बाहर भी पौने तीन बीघे जमीन उनको माफीमें मिली है ।
नगराजजी महाराज जब सं० १८८९ में यहाँ आये तब महाराणाजी श्रीजवान सिंहजीने उनको पालखी बैठने को और छड़ी आगे रखवाने को दी । इसका परवाना सं० १८८९ का पोस सुदि ११ के दिन कर दिया ।
बड़ेके राजाजी भीमसिंहजीको नगराजजी महाराजने कठिन रोगसे छुड़ाया इसलिए उन्होंने चाँदोकी छड़ी और पालखी दिये ।
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श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन १४१. इसका परवाना उन्होंने सं० १८८१ का महा सुदि १ को कर दिया ।
नगराननी महारान बड़े ही गंभीर और सरल स्वभावके थे और लोगोंका इलाज किया करते थे । उनके हाथमें यश था । उनका निसने इलाज कराया वह रोगमुक्त हो गया।
उनके दो शिष्य थे । एक चत्रभुजनी जिनका जिक्र ऊपर आया है और दूसरे रुगनाथजी । ____ रुगनाथजी बनेड़ेसे भीलवाड़े गये । वे बड़े अच्छे ज्योतिषी थे। उनके शिष्य रामचंद्रजी हुए। वे बहुत बडे विद्वान थे । वे काशी चले गये। उन्होंने मकसदाबादके सेठ लक्ष्मीपतजी
और धनपतसिंहजी को उपदेश देकर काशीजोके मत टोलामें एक जिनमंदिर और उपाश्रय बनवाये और एक जैनप्रभाकर प्रेसकी स्थापना की । उस प्रेससे उन्होंने ४५ आगमोंकी, हिन्दी टीका लिखकर, प्रकाशित कराई । उनको पीछेसे उनके श्रीपूज्यनीन, उपाध्याय और गणिकी पदवी दी थी। ___उनके शिष्य नानकचंद्रजी हुए। वे भी बहुत बड़े विद्वान थे। उन्होंने, सुना जाता है कई पुस्तकें लिखीं व संपादन की थीं। उनमेंसे दो हमने देखी हैं । एक है 'कर्मग्रंथ ' प्रथम भागकी हिन्दी टीका और दूसरी है 'जिनपजासंग्रह' ।
२. चतुरभुजजी महाराज ये महाराज बड़े अच्छे वैद्य, और मंत्रविद्याके जानकर थे।
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કર जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध )
३. जालमचंद्रजी महाराज उनके बाद उनके शिष्य जालमचंद्रजी महागज गद्दीपर बैठे । उनके बाद
४. गुलाबचंद्रजी महाराज गद्दीनशीन हुए। इन महाराजने अपने शीलस्वभावके कारण शहरमें अच्छी प्रतिष्ठा प्राप्त की। इन्होंने तीर्थयात्रादि धर्मकामोमें करीब दस हजार रुपये खर्च किये । य बड़े मिलनसार और अतिथि-सत्कार करनेवाले थे। मेवाड़हीके नहीं सारे हिन्दुस्थानके यति जब कभी केसरियाजीकी यात्राके लिए उदयपुर आते थे वे आपहीके यहाँ आकर ठहरते थे। कहा जाता है कि शीलस्वभावके कारण शहरमें आपकी बड़ी प्रतिष्ठा थी।
यतिश्री अनूपचंद्रजी इनका जन्म सं० १९४३ में हुआ था । ये जब छः बरसके थे तभी सं० १९४९ में इनके मातापिता इनको उदयपुरके पीपलीवाले उपाश्रयके यतिजी महाराज श्रीलछमीलालजीके भेट कर गये थे । लछमीलालजी महारान बड़े विद्वान थे । उनके अक्षर मोतीके दानेसे गोल और सुंदर होते थे। उन्होंने भगवतीसत्रकी १३ और ४५ आगमोंकी दो दो नकलें की थीं। वे शहरमें बहुत अच्छे शिक्षक भी थे । शहरके कई बड़े बड़े
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श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन. पेज १४२.
स्व० यति श्री गुलाबचंद्रजी महाराज
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यति श्री अनूपचंद्रजी महराज.
जन्म सं० १९४३
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श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन १४३ रईस उनके पास पढ़े थे । उनमेंसे धा भाईनी अमरसिंहजी और फतहलालजी एवं श्रीयुत चंद्रनाथजी हाकिम सहाड़ा, और मथुरानाथजी हाकिम देवस्थान आदि अभी मौजूद हैं।
स. १९५२ में लछमीलालजी महाराजका देहांत हो गया। उनके बाद यति श्रीगुलाबचंद्रजीके शिष्य रतनचंद्रजीको पीपलीवाले उपाश्रयमें देखरेख करनेके लिए रखा । उन्होंने अनूपचंद्र जीको बहुत दुःख दिया । इसलिए गुलाबचंद्रजी महाराजने इनको अपने पास बुला कर रख लिया । धीरे धीरे रतनलालजीने गुपचुप पीपलीवाले उपाश्रयका सारा माल असबाब और ग्रंथ-संग्रह बेच दिया । गुलाबचंद्रजी महाराजको जब यह खबर लगी तब उन्होंने रतनलालजीको उपाश्रयसे निकाल दिया ।
सं० १९५७ के मार्गशीर्ष सुदि ४ के दिन इनको यति दीक्षा दी गई । दीक्षा लेनेके कुछ बरस बाद ये कभी पीपलीवाले उपाश्रयमें और कभी कसेरोंकी ओलके उपाश्रयमें रहते थे । ये कुछ बरस स्वर्गीय श्रीपूज्यजी महाराज श्रीनृपतिचंद्रसूरिजीके पास भी रहे थे । सूरिजीने इनको बहुत अच्छी तरहसे पढ़ा लिखाकर होशियार किया ।
यति श्रीगुलाबचंद्रजी महाराजके कोई शिष्य नहीं रहा था इसलिए सं० १९६९ में उन्होंने अनूपचंद्रजीको अपने उपाश्रयका भी, उत्तराधिकारी बना दिया। फिर सं० १९८७ में उन्होंने अनूपचंद्रजीको धूमधामसे बड़ी दीक्षा दी और अपनी गद्दोका
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध) मालिक करार देकर युवराज पद प्रदान किया। इस मौके पर करीब तीन हजार रुपये खर्च किये गये थे । ___ इसी अवसर पर अनूपचंद्रनी महाराजको इनकी धार्मिक
और सामाजिक सेवाओंसे संतुष्ट होकर उदयपुरके जैनसंघने एवं प्रतापसभाने मानपत्र दिये थे ।
इसी मौकेपर अठाई महोत्सव किया गया था । बड़ी शानसे जुलूस निकला था। उसमें निशान, हाथी, और बेंड सरकारको तरफसे आये थे।
सं० १९९० में गुलाबचंद्रजी महाराज कालधर्मको प्राप्त हुए । तब अनूपचंद्रजी महाराजने उनको, बढिया डोलमें बिठाकर उनकी स्मशानयात्रा कराई। इनको दागमें शहरके बड़े बड़े रईस भी गये थे । करीब सात सौ दागिये शामिल हुए थे । अनूपचंद्रनी महारानने एक साहसका कार्य किया । ऐसे मौकों पर भंगियोंको फूली, पैसे और चांदीके फूल लुटाते जाते हैं । भंगी बुरी तरहसे बाँसोंसे पीटे भी जाते हैं। अनूपचंद्रनी महाराजने कहाः-" भंगियोंको जो कुछ लुटाना हो यहीं लुटा दो। विचारे भगियोंको, देना और फिर बाँसोंसे पीटना बुरा है। यह बुराई मैं अपने गुरुजीके डोलके साथ बिल्कुल नहीं होने दूंगा। यद्यपि लोग इस पुराने रिवाजको तोड़नेके खिलाफ थे मगर इनकी दृढताके सामने वह बुराई न होने पाई।
फिर सं० १९९० के मार्गशीर्ष सुदि १५ को गुलाबचंद्रजी
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श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन १४५ wwwmmmmmmmmmmmm महाराजकी छत्री बनवाई गई थी उसकी पादुका प्रतिष्ठा कराई गई। सं. १९९० के पोस वदि १ को इनकी गद्दीनशीनी हुई। उस दिन पुराने रिवाजके अनुसार उदयपुर स्टेटसे एक दुशाला आया था।
इस मौके पर करीब ढाई हजार रुपये खर्च किये गये थे।
ये बड़े ही उदार हृदयके सज्जन हैं । इन्होंने समय समयपर अनेक व्यक्तियोंको सहायता दी है । मुख्यतया विद्याध्ययनकर आगे बढ़नेवालोंको-विद्यार्थियोंको छात्रवृत्तियाँ दी हैं और अपने वसीलेका उपयोग कर दूसरोंसे दिलाई हैं।
कई लोगोंने-जिनको इन्होंने कठिन वक्तमें रुपये दिये थे-रुपये वापिस भी नहीं लौटाये; मगर इन्होंने कभी उनको एक कड़वा वचन नहीं कहा । आ गये तो ठीक नहीं आये तो कुछ नहीं। __इन्होंने उदयपुरमें एक वर्द्धमान ज्ञानमंदिर नामक पुस्तकालय, एवं वर्द्धमान ज्ञानमंडली नामकी एक संस्था भी कायम की है।
वर्द्धमान ज्ञानमंदिरमें करीब तीन हजारके जैनसूत्र, सिद्धांत, सामान्य ग्रंथ व इतर पुस्तकें हैं । इस ज्ञानमंदिरसे तीनों सम्प्रदायोंके साधु, श्रावक, एवं सामान्य जनता लाभ उठाते हैं।
वर्द्धमान ज्ञानमंडली शहरसेवा और सामाजिक एवं धार्मिक सेवा करती है।
इन्होंने अबतक नीचे लिखे स्थानोंमें प्रतिष्ठाएँ कराई हैं । ये सभी स्थान प्रायः मेवाड़में हैं। -. १. सिंगपुरा, सं० १९७९ में
२. संगेसरा, सं० १९८० प्र. जेठ सुदि २ ३. मगरवाड़, सं० १९८१ जेठ सुदि १०
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध )
४. आसपुर, सं० १९८२
५. चित्तौड़ तलहटी, सं० १९८३ महा सुदि १३
६. करेड़ा, ५२ जिनालय - प्रतिष्ठा सं० १९८४ बेसाख सुदि ९ ७. चित्तौड़गढ़पर, सं० १९८५ महा सुदि १३
८. कुशलगढ़, चरण - प्रतिष्ठा सं० १९८५ फागण वदि ५ ९. खमनोर, सं० १९८५ जेठ वदि ५
१०. भीलवाड़ा, चरण-प्रतिष्ठा सं० १९८६ बेसाख वदि ५ ११. नाथद्वारा, सं० १९८६ असाढ़ सुदि ५
१२. उदयपुर, वासुपूज्यजी महाराजके मंदिरमें, सं० १९८७ महा सुदि १०
१३ पीतास, सं०
१९८८ जेठ सुदि १० १९९१ वैशाख सुदि ३ १९९२ वैशाख सुदि १०
१४. बागोल, सं० १९. दरीबा, सं० १६. चंगेड़ी ।
१७. बाटी ।
इनका स्वभाव सरल, उदार और स्वाभिमानी है । इनका जीवन सादा और भक्तिपरायण है ।
स्व० मूरबाई सेठ जेठा भाई माडणकी विधवा.
इनका जन्म सं. १९१७ में हुआ था। इनके पिताका नाम मांडण शिवजी था । ये कच्छ सिंधोड़ीके रहनेवाले कच्छी दसा ओसवाल श्वेतांबर थे । मूरत्राईके लग्न सं. १९२८ में कच्छ सांधाणवाले सेठ जेठा भाई माडण के साथ हुआ था । सं. १९३४ में उनके एक
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श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन पेज १४
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स्व० बाई मरवाई सेठ जेठाभाई मांडणकी विधवा
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श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन
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लड़की हुई । उसको नलिया कच्छवाले सा. गेलाभाई लीलाधरके साथ सं. १९४५ में व्याही । सं.१९५७ में उसका देहांत हो गया। ___सं. १९३५ में मूरबाईके पतिका देहांत हो गया । सं. १९५६ में हालार प्रांतके गांव असडियाके रहनेवाले रतनसी कूरसीके लड़के खीमजीको मूरबाईने गोद लिया। खीमजी उस समय आठ बरसके थे । सं. १९६० में खोमजीके लग्न किये। उनके चार लड़के और तीन लड़कियाँ हुए । एक लड़का मर गया । लड़के मणिलाल, केसरसिंह,
और डूंगरसिंह व लड़कियाँ वेजबाई, कस्तूरीबाई, हीरवाई मौजूद हैं। ___ मूरबाईके सुसरे मांडण तेजसिंहने कच्छ सांधाणमें जिनमंदिर, पांजरापोल बनवाये और सदाव्रत, कुत्तोंको रोटियाँ और कबूतरोंके लिए दानेकी खास व्यवस्था की । इस व्यवस्थाको ससुर और पतिके गुजरजानेके बाद भी, मूरबाईने-अपनी तकलीफके समयमें भी चालू रक्खी। ___ मूरबाईमें बुद्धि, शक्ति और व्यवहार कुशलता थे। सारी पंचायतपर उनका काबू था । गाँवके ठाकुर उनकी सलाह लेते, जातिमें, या गाँवके अन्य लोगोंमें कोई झगड़ा होता तो मूरबाई उसका फैसला करतीं । वे प्रभावशालिनी थीं। उनके सामने बोलनेका किसको साहस न होता था। वे अपना विचारा करतीं। अपनी बातपर कायम रहतीं। उन्हें अनेक बार कचहरियोंमें जाना पड़ा था। वकील लोग उनकी बुद्धिमत्ताके कायल थे। कठिन मामलोंमें उनकी सलाह लेते थे । उन्हें वृद्धावस्था में सभी मूरबाई माँ कहते थे। उनके गाँव साँधाणमें आया हुआ कोई भी जैन उनके घर जीमे बिना जा नहीं सकता था। वे देव गुरु और साधर्माकी बड़ी सेवा करती थीं। उनका शरीर कद्दावर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध )
और प्रभावशाली था । उनकी बड़ी बड़ी आँखोंके तेजमें लोग अंजित हों जाते थे। ऐसी महान बाईका पैंसठ बरसकी उम्र में देहांत हो गया ।
मूरबाईके पीछे उनके पुत्र खीमजी भाईने सांधाण, धुँवाई और छछीकी सारी प्रजाको जिमाया था । और अपनी जातिको तीन टक जिमाया था । मूरबाईने धार्मिक कार्योंकी व्यवस्था जिस तरह की थी उसी तरह उनके लड़के खीमजी भाई आज तक कर रहे हैं ।
सौभाग्यवती गुलाबबाई मकनजी महता
इनका जन्म सं० १९४७ के वैशाख वदि ७ के दिन कलकत्ते में हुआ था । इनके पिता इन्द्रजी सेठ कलकत्ते के एक बड़े व्यापारी थे । इनका प्यारका नाम लाडकुँवर था ।
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इनका व्याह सन १९०२ में बेरिस्टर श्री मकनजी जूठाभाई महताक साथ हुआ। श्री मकनजी उस समय सेंट झेवियर कॉलेज में थे । दम्पतिका जीवन बड़े सुखसे बीता है । कहा जाता है कि बरसके वैवाहिक जीवनमें कभी इनका पतिके साथ कलह न श्रीमतीजी अच्छी सुशिक्षिता हैं और बड़े कुटुंबके अनेक कामोंमें व्यस्त रहते हुए भी सामाजिक कार्योंमें भाग लेती रहती हैं । कई बरस से आप 'जैन महिलासमाज ' की उपप्रमुख हैं । जुन्नेर और सांगली में जैनमहिला परिषदके अधिवेशन हुए थे उनकी आप प्रमुख चुनी गई थीं । सन १९३४ में श्वेतांबर जैन कॉन्फरंसके साथ जैनमहिला - परिषदका अधिवेशन हुआ था उस समय आप स्वागत समितिकी प्रमुख चुनी गईं थीं । आप जैनकॉन्फरंस की स्टेंडिंग कमेटीकी सभासद हैं ।
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१ श्रीयुत ईश्वरलालजी सोगानी. २ श्रीमती लक्ष्मीदेवी
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श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन
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आप श्वेतांबर धर्मका पालन करती हैं। धर्ममें इनकी अच्छी श्रद्धा है। धार्मिक अध्ययन भी इनने ठीक किया है। आप व्याख्यान भी सुंदर देती हैं । आपका स्वभाव मिलनसार, स्नेहपूर्ण स्वतंत्र, सरल एवं स्पष्ट है । सुगृहिणियोंका अतिथि–सत्कार गुण आपमें पूर्णरूपसे है।
श्रीयुत ईश्वरलालजी सोगानी कुदरत अनेक बार हरेक कौमको ऐसे कर्मवीर पुरुष प्रदान करती है, जिनसे उस कौमका गौरव होता है। श्रीयुत ईश्वरलालनी भी ऐसे ही व्यक्तियोंमेंसे एक हैं।
इनका जन्म सं० १९४२ में श्रीयुत मनसुखलालजीके घर हुआ था। ये जातिसे खंडेलवाल और धर्मसे दिगंबर जैन हैं । स्थिति साधारण थी, इसलिए केवल दस बरसकी आयु तक तालीम पाकर काममें लग गये ।
इनका पहला ब्याह इनकी सोलह बरसकी आयुमें हुआ था । इनकी पहली पत्नीका देहान्त हो जानेपर इन्होंने श्रीमती लक्ष्मीदेवीके साथ दूसरा ब्याह सं० १९६७ में किया।
शहरमें स्त्रीशिक्षाका उस समय प्रचार होने लग रहा था। अर्जुनलालजी सेठी और उनकी स्थापन की हुई जैनशिक्षाप्रचारक समितिने शहरमें शिक्षाप्रचारके लिए बड़ी हलचल मचा रखी थी। प्रत्येक नवयुवकको अपनी पत्नियोंको पढ़ानेका शौक था। ये खुद भी इस शिक्षाका प्रचार करनेवालोंमें एक खास व्यक्ति थे। इसलिए इन्होंने भी अपनी पत्नीको सुशिक्षिता, आदर्श गृहिणी बनानेके खयालसे बंबईके प्रसिद्ध श्राविकाश्रममें भेज दिया। परन्तु लक्ष्मीदेवी वहाँ बीमार हो गई और उन्हें वापिस बुला लेना पड़ा । फिर इन्होंने लक्ष्मीShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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जैनरत्न (उत्तरार्द्ध)
देवीको घरपर ही पढ़ाना प्रारंभ किया। दिनभर रोजगारका काम करते
और रातको घंटे डेढ़ घंटे अपनी पत्नीको पढ़ाते । लक्ष्मीदेवी अपने पतिकी इच्छानुसार मन लगाकर पढ़तीं और रातका सीखा हुआ दिनमें तैयार कर लेती। धीरे धीरे लक्ष्मीदेवीने अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया । ___ भारतमें पर्देकी फिजूल प्रथा और राजपूतानेके वस्त्राभूषणोंके भद्देपनकी और फिजूलखर्चीकी चर्चा बड़े जोरोंपर थी । ईश्वरलालजीने स्थिर किया कि, मैं इस फिजूल और हानिकारक बातको अपने घरसे हटाकर रहूँगा।
इन्होंने धीरेधारे अपनी पत्नीको उपदेश देना प्रारंभ किया। एक समय लक्ष्मी देवीने पूछा:-" आपके कहनेके अनुसार अगर मैं चलँगी तो लोग क्या कहेंगे?" इन्होंने प्रश्न किया;-"तुम वस्त्राभूषण पहनती हो, किसके लिए ? " लक्ष्मीदेवीने जबाब दिया:-" आपके लिए !" तब मेरा मन जिससे प्रसन्न होता है वही करो । मुझे तुम्हारा यह बड़ा लहँगा, ये गोटे किनारीकी साड़ियाँ, ये बड़ेबड़े जेवर बिलकुल पसंद नहीं हैं। इन्हें उतार डालो । लंबा घूघट निकालना छोड़ दो।" “ अच्छा" कहकर लक्ष्मीदेवी अपने काममें लगीं। ___ सन १९२० की रक्षाबंधनवाले दिनकी बात है । एक दिन ईश्वरलालजी शहरके बाहरवाले अपने मकानमे भोजन करके बैठे थे । उस समय उनके दिलमें यह खयाल आया कि, मैं आज लक्ष्मीकी यह बीमारी-पर्दे और जेवरकी बीमारी-हटाकर ही रहूँगा । उन्होंने पत्नीको बुलाया । कहाः-" आज तुम ये जेवर उतार दो और रंग बिरंगे कपड़े निकालकर सफेद खद्दरके कपडे पहन लो।" लक्ष्मीदेवीका मन दहला। यह नई बात कैसे होगी । उनकी आँखोंसे पानी गिरने लगा। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन
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ईश्वरलालजीने कहा:-"अगर तुम मुझे खुश रखना चाहती हो तो मेरा कहना मानो । और अगर लोगोंकी खुशीके आधारपर रहना चाहती हो तो मेरी खुशीकी बात छोड़ दो।"
लक्ष्मीदेवी काठकी पुतलीकी तरह थोड़ी देर खड़ी रहीं। एक तरफ पुराने खयालके लोगोंके तिरस्कारका डर था और दूसरी तरफ़ था अपने पतिकी नाराजगीका विचार । आखिर उन्होंने रामायणकी इस प्रसिद्ध चौपाईका स्मरण किया.___ 'एको धर्म एक व्रत नेमा, मनवचकाय पतिपद प्रेमा'
और आँसू पोंछ डाले । जेवर उतार दिया। एक तरफ़ जाकर सफेद खद्दरकी साड़ी पहनी और अपने पतिके सामने आ खड़ी हुईं। यह दृश्य अवर्णनीय और स्वर्गीय था। दोनोंकी आँखोंमें स्नेहके आँसू थे।
ईश्वरलालजीने कहा:-" अब गाड़ीमें बैठकर शहरमें अपने घर राखी बाँधने चली जाओ । शहरमें कहीं घूघट मत निकालना । न घरपर ही घूघट निकालना ।" देवी आज्ञानुसार खुले मुँह खुली गाड़ीमें जा बैठीं । शहरमें घर पहुँची । लोग-जो जानते थे-रस्तेमें उँगली उठाने और कानाफूसी करने लगे । घर पहुँचनेपर यह खबर मुहल्लेभरमें पहुँच गई। सौ सवा सौ औरतें इन्हें देखनेको आ पहुँचीं। इनकी रिश्तेदार औरतें इन्हें घेरकर बैठ गई और आंसू बहाने लगीं। मुहल्लेकी कोई कहती, " यह तो साध्वी हो गई।" कोई कहती," इसने तो विधवाका वेष कर लिया ।" कोई कुछ कहती और कोई कुछ । किसीने तिरस्कार किया और किसीने उपदेश दिया, मगर देवी चुप साधे बैठी रही ।
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१५२ जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध)
mmmmmmmmmm. शामको वापिस अपने रामबागके पासवाले मकानमें आईं। उस समय देवीका हृदय बैठा हुआ था । दिनभर विरुद्ध बातें सुनना । सहानुभूतिका एक लफ्ज भी सुननेको न मिलना । बड़ी ही भयंकर स्थिति है। ऐसी स्थितिसे गुजरनेवाले धन्य हैं। घर पहुँचते ही पतिने प्रसन्नतासे कहा:-" आज तुमने मेरा मनोरथ पूरा कर दिया ।" पतिकी प्रसन्नता देखकर देवीका हृदय आनंदसे उत्फुल्ल हो उठा ।
शहरमें बड़ी चर्चा चली । जिधर निकल जाओ उधर ही ईश्वरलालजीकी निंदा सुनाई देती थी । एक आदमी भी सहानुभूति बतानेवाला न था; परन्तु वाहरे बहादुर! अपनी भावनापर. दृढ रहा और राजपूतानेके लिए एक आदर्श खड़ा कर दिया।
सन् १९२४ में ये सपत्नीक जवाहरातके धंदेके लिए विलायत गये । यहाँसे चले उस समय दोनों पतिपत्नो इंग्लिशका एक शब्द भी नहीं जानते थे । परन्तु इंग्लेंडमें जाकर इन प्रखर बुद्धि दम्पतिने इंग्लिशमें बात चीत करना भली प्रकार सीख लिया ।। __ अपनी कार्य दक्षताके कारण इन्होंने, वेम्बली (इंग्लंड) की सन् १९२५ की 'ब्रिटिश एम्पायर एग्जिबीशन' ( British Empire Exhibition) में भारतकी बढ़िया कारीगरीके नमूने रखे और वहाँके बोर्डने इन्हें एक सर्टिफिकेट और मेडल दिया। इस प्रदर्शनीके पेटून शाहन्शाह पंचमजार्ज और प्रिन्स ऑफ वेल्स थे । वे, ड्यूक
और डचेस ऑफ यार्क, भारतमंत्री लॉर्ड बर्कनहेड और दूसरे अनेक महानुभाव इनके स्टॉलमें समय समय पर आये । भारतमंत्रीने और ड्यूक व डचेस ऑफ यार्कने स्टॉलमेंसे बहुतसा माल खरीदा। महारानी
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मेरी भी एक दिन आई । उन्होंने लक्ष्मीदेवीसे कुशल समाचार पूछे । कुछ देर हिंदुस्थानके विषयकी बातें पूछी । फिर वे चली गई।
इंग्लेंडसे ये अमेरिका गये । वहाँ सन १९२६ में अमोरिकाकी स्वाधीनताके एक सौ और पचासवें वर्षका फिलाडेलफियामें उत्सव हुआ था । उस मौके पर एक बहुत बड़ी प्रदर्शनी भी हुई थी । उस प्रदर्शनीमें इन्होंने भारतवर्षके प्रतिनिधिकी तरह काम किया और हाथी दांतके, छपाईके और बंधाईके कामोंके, भारतवर्षके ऐसे बढ़िया नमूने वहाँ रखे कि जिनसे प्रसन्न होकर वहाँकी जुरी ऑफ एवार्डस (jury of Awards) ने इन्हें, तीन सोनेके मेडल दिये
और पीतलके कामके नमूनेके लिए भी Grand Prize Certificate. of Award. नामका एक सर्टिफिकेट दिया। ___ एक बात बड़ी महत्त्वकी हुई । लक्ष्मीदेवीसे वहाँके हिन्दुस्थानी और अमेरिकन सज्जनोंने कहा कि:-" आप यह खद्दरकी साड़ी उतार दीजिए और बढ़िया, बनारसी कामकी साड़ी पहनिए । आप भारतकी प्रतिनिधि हैं इसलिए आपको वस्त्र भी वैसे ही पहनने चाहिए।" देवीने जवाब दियाः-“प्रतिनिधि मैं हूँ। ये कपड़े नहीं। दूसरे भारतकी करोड़ों जनता ऐसे ही कपड़े पहनती हैं जैसे मैं पहने हूँ। इसलिए अगर मैं भारतको रिप्रजेंट करना चाहती हूँ, तो मेरे लिए यह जरूरी है कि, मैं वे ही वस्त्र पहनूं जिन्हें मैं हमेशा पहनती हूँ और जिन्हें गरीब भारतकी करोड़ों जनता पहनती है । भारतकी मुट्ठी भर जनता जैसे कपड़े पहनती है वैसे कपड़े भारतकी वर्तमान जनताके वास्तविक कपड़े नहीं हो सकते ।"
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध)
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अमेरिकन स्त्री पुरुषोंको इनकी यह बात बहुत पसंद आई । इनके लिए उनके हृदयमें मान और भी अधिक हो गया ।
न्यूयार्कमें एक दिन बुद्ध जयंतीका उत्सव और भोज था। वहाँ जापान अमेरिका और हिंदुस्तान आदि समस्त संसारके हजारों स्त्रीपुरुष जमा थे। इन दम्पतिको भी लोग बड़े आदरके साथ उसमें ले गये । जापानी काउन्सिल (एलची) ने कहा:-" ये माता उस देशकी है जिस देशकी माताने भगवान बुद्धको जन्म दिया था। इसलिये ये हमारे लिए वंदनीय हैं।" लोगोंने इन्हें प्रणाम किया । फिर देवीसे कहा गया कि, आप कुछ बोलिए । देवी बोली:-"मैं इंग्लिश नहीं जानती।" लोग कहने लगे:-" आप चाहे किसी भाषामें बोलिए हम आपके मुखसे कुछ सुनना चाहते हैं।" देवी बड़ी संकटमें पड़ी । सोगानीनीने इन्हें साहस दिलाया और कहाः-"रत्नकरंडका, नमस्कारका, श्लोक ही बोल जाओ।" देवीने ' नमोस्तुवर्द्धमानाय-' वाला श्लोक इस तरह पढाः
नमोस्तु जिनबुद्धाय, स्पर्द्धमानाय कर्मणा।
सालोकानां त्रिलोकानां, यद्विद्या दर्पणायते ॥ लोग बड़े प्रसन्न हुए। एक बंगाली विद्वानने इसका विवेचन किया। लोग बड़े हर्षित हुए । उसमें चीन जापान, पर्शिया और इजिप्टके एलची और शहरकी अनेक प्रसिद्ध व्यक्तियाँ थीं।
जब अमेरिकामें पहुंचे ही थे तबकी बात है । इनके पासके सब रुपये खर्च हो चुके थे । इनके पास पैसा कुछ न रहा सिर्फ पचास सेंट थे । इसलिए तीन दिन तक केवल आठ सेंटकी डबल रोटी पर
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श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन पेज १५५
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श्रीयुत शिवचरण लालजी जैन
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श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन
१५५
इन लोगोंको निर्वाह करना पड़ा । कठिनता सहे बिना क्या कोई
आदमी कुछ कर सका है ? ___अमेरिकामें इनका अनेक प्रसिद्ध प्रसिद्ध व्यक्तियोंके साथ परिचय हो गया । उपवास चिकित्साके आविष्कर्ता प्रसिद्ध डॉक्टर बर्नर मॅक्फेडनके साथ भी इनकी घनिष्ठता हो गई। उसने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ' मॅकफेडन्स' एन्साइक्लो पीडिया ऑफ फिजिकल कल्चर ( Macfadden's Encyclopedia of Phisical Culture) के पाँचों वॉल्युम इन्हें भेटमें दिये । इन दम्पतिके साथ उसने आग्रह 'पूर्वक अपना फोटो भी उतरवाया । ___ अमेरिकाके प्रसिद्ध प्रसिद्ध अनेक पत्रोंने इनके फोटो प्रकाशित किये और इनकी भूरि भूरि प्रशंसा की। __ जब ये हिन्दुस्थानमे लौटे तब लोगोंने इनका अच्छा स्वागत किया।
इन्होंने कुछ प्राकृतिक चिकित्साका अभ्यास किया है। इसके द्वारा ये अपने मकानपर लोगोंका इलाज किया करते हैं । सच्ची लगनसे काम करते हैं और लोगोंको इनपर विश्वास है, इसलिए प्रायः रोगी आराम भी हो जाते हैं। कुछ रोगी तो ऐसे आये जिन्हें सबने जवाब दे दिया था; परन्तु इनके पास आकर वे आराम हो गये थे।
श्रीयुत शिवचरणलालजी जैन इनके पिताका नाम भजनलालनी या । ये नातिसे वैश्य बुढेलवाल, हैं। इनका गोत्र मोदी है। ये जसवंतनगर जिला इटावाके जमींदार हैं
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध)
और दिगंबर जैनधर्मका पालन करते हैं । इनका ब्याह इनकी बारह बरसकी उम्रमें हुआ था। __बुढेलवाल जातिके प्रमुख कुटुंबोंमेंसे मोदी कुटुंब एक है। इस कुटुंबकी जनसंख्या बुढेलोंमें सबसे अधिक है । जसवंतनगरके जैनोंमें यह कुटुंब प्रमुख और राजमान्य है। ___ इनके चाचा लाला मगनीरामजी डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के मेम्बर व असेसर थे।
लाला भजनलालजी व मगनीरामजीने रथयात्रा और वेदी प्रतिष्ठा कराई थी। तीर्थक्षेत्र कम्पिलमें दिगंबरजैनधर्मशालाके लिए जगह खरीदनेमें दोनों भाइयोंने अच्छी रकम दी थी। __ लाला शिवचरणलालनी ग्राम्य पंचायतके, प्रजाकी ओरसे चुने हुए मेम्बर हैं । जसवंतनगरके अस्पतालके चंदेमें इन्होंने एक हजार रुपये दान दिये थे। ये श्री भारतवर्षीय दिगंबर जैन परिषदकी प्रबंधकारिणी समितिके मेम्बर हैं । सामाजिक एवं धार्मिक कार्योंमें ये खूब भाग लेते हैं।
इनका मुख्य रोजगार जमींदारी है। जसवंतनगरमें 'मेसर्स भजनलाल मगनीराम जैन' नामकी फर्म भी है। जिसमें थोक कपड़े और सराफीका रोजगार होता है । जसवंतनगरके अंदर बुने हुए कपड़ेकी आढत भी फर्म करती है।
लाला शिवचरणलालनी उदार और प्रगतिशील विचारोंके सज्जन हैं।
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जैनरत्न
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श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन
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जैनरत्न
( उत्तरार्द्ध)
नप्पू नेणसी
नप्पु सेठका जन्म गाँव बारोई (कच्छ) में संवत १८६९ में हुआ था । इनके पिताका नाम नेणसी था। ये नातिके वीसा ओसवाल थे। इनका गोत्र केनिया और धर्म श्वेतांबर स्थानकवासी था।
ये अपनी इकतीस बरसकी आयुमें, ( संवत् १९०० के सालमें) बंबई आये थे। इसके पहले अपने पिता नेणसीमाईके साथ देशमें खेतीका काम करते थे ।
ये बंबई में आकर प्रारंभमें अनाजकी फेरी करने लगे। कुछ बरसोंके बाद मोदीकी दुकान खोली। उससे जब अच्छी कमाई हुई तब सं० १९२० में नप्पू नेणसीकी कंपनी के नामसे अनाजके थोक व्यापारकी पेढी प्रारंभ की । वह आज तक चली आ रही है।
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध)
इनके दो सन्तान हुई थीं। एक लड़का और एक लड़की। लड़के का नाम लखमसी माई और लड़कीका नाम नीबाई था । नप्पू सेठका देहान्त सं० १९३३ में हुआ था।
लखमसी सेठ नप्प सेठके पुत्र जखमसी सेठका जन्म संवत् १९०३ में हुआ था। इन्होंने तीन लग्न किये थे। तीसरे लग्न सं० १९४० में खेतसी गोबरकी पुत्री श्रीमती वेलबाईके साथ हुए थे । इनसे ३ पुत्र और चार पुत्रियोंका जन्म हुआ था। पुत्रोंके नाम १ खीमनीमाई २ वेलनीमाई और ३ जादवनीमाई तथा पुत्रियोंके नाम १ देवकांबाई २ देमुबाई ३ चंपाबाई ४ रतनबाई हैं। ____ लखमसी सेठ बड़े ही बाहोश और उदार आदमी थे। इन्होंने अपने पिताके शुरू किये हुए धंधेको बढ़ाया । इतना ही नहीं 'वेलजी लखमसी एण्ड कंपनी ' के नामसे एक नई पेढी भी प्रारंभ की। ___ इन्होंने अपनी उम्रमें करीब आठ लाखकी जायदाद बनाई
और पौन राख जितनी रकम जुदा जुदा स्थानोंमें धर्मार्थ खर्च की। इनका देहांत सं० १९७० में हुभा । लखमसी सेठकी संतान.
१-खीमजीभाई-इनका देहांत बचपनहीमें हो गया ।
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श्वेतांबर स्थानकवासी जैन. पेज ११.
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नप्पू नेणसीकी कंपनी के मालिक सेठ वेलजी लखमसी जन्म सं० १९५
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श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन
२ वेलजी सेठ इनका जन्म सं० १९४५ के आसोनमें (१४ अक्टोबर सन् १९१९) को हुआ था। सन् १९०९ में इन्हें बी. ए. की और सन १९११ में एल एल. बी की डिग्री मिली थी। परन्तु इन्होंने कभी विकालत नहीं की । इनके तीन ब्याह हुए हैं।
पहला ब्याह इनकी तेरह बरसकी उम्र मुरनी भाराकी पुत्री देवकांचाईके साथ सं. १९५८ में हुआ था। इनसे दो पुत्रियाँ हुई । एकका नाम संतोषबाई और दूसरीका नाम हेम. कुंवरबाई । देवकांचाईका देहांत हो गया । बाद में,
दूमरा ब्याह सं. १९६८ में देवनी खेतमीकी पुत्री तेजबाईके साथ हुआ । इनसे कोई संतान नहीं हुई। इनका देहान्त होने पर,
तीसरा ब्याह सं० १९७५ में भवाननी रामनीकी पुत्री कुँवरबाईके साथ हुआ। इनसे दो पुत्र हैं-प्रेमजी और कस्पाणनी।
एल एल. बी. की परीक्षा पास करके इन्होंने व्यापारका कामकान सम्माला । इनकी पुरानी दो दुकानें चल रही थीं। इन्होंने एक दुकान और प्रारंम की है । अभी इनकी नीचे लिखी तीन दुकाने हैं
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६
जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध )
१ - नप्पू नेणसीकी कंपनी.
२ - बेलजी लखमसीकी कंपनी.
३ - जादवजी लखमसीकी कंपनी । यह दुकान इनके छोटे भाईके नामसे इन दोनों भाइयोंने मिलकर प्रारंभ की है।
दो दुकानोंमें अनाज और चावलका धंधा होता है । करीब एक करोड रुपये सालानाकी दुकानोंमें उथलपाथल होती है । तीसरी दुकान में इन्स्योरेंस एजेंसीका धंधा होता है । ये नीचे लिखी बीमा कंपनियोंके डिरेक्टर भी हैं। १ - बल्कन इन्स्योरेंस कंपनी फोर्ट बंबई ।
२ - इण्डस्ट्रिअल एण्ड प्रुडेन्शिअल इन्स्योरेंस कंपनी फोर्ट । वेलनी सेठ केवल सेठ ही नहीं हैं। ये प्रजाके सेवक भी
हैं । इनकी सेवाएँ इतनी उत्तम हैं कि प्रजाने उनसे प्रसन्न हो
।
कर इन्हें अनेक जवाबदारीके काम सौंपे हैं
ये हैं
। उनमें से कुछ
१ - बंबई पांजरापोलके ये ट्रस्टी हैं । यह संस्था बंबई में माधवबाग के पीछे है। इसकी आय करीब तीन लाख रुपये सालाना है ।
२ - सर जमशेदजी जीजीभाई धर्मशाला के ये ट्रस्टी हैं। यह संस्था भायखाला पर है । इसमें पचास हजार रुपये सालानाका सदाव्रत बँटता है ।
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श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन
३-कच्छी वीसा ओसवाल जैन बोर्डिंग के ये ट्रस्टी हैं। यह माटुंगेमें है । इसमें करीब डेढ सौ विद्यार्थी सिर्फ कच्छी वीसा
ओसवालों के रहते हैं। ये, कई बरसोंसे इसके ऑनररी सेक्रे टरी हैं।
४-इंडियन एज्युकेशनल सोसायटी दादरके ये ट्रस्टी हैं । यह संस्था दादरमें एक हाइ स्कूल चला रही है।
५-सकल संघ स्थानक कांदाबाड़ी बम्बईके ये ट्रस्टी हैं।
ई-कच्छी वीसा ओसवाल स्थानक चिंच पोकलीके कायमके ट्रस्टी और प्रमुख हैं।
७-इनके अलावा ग्रेन मर्चट्स एसोसिएशन बंबईके ये
-श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन कॉन्फरेंस बंबईके रेजिडेंट जनरल सेक्रेटरी हैं। ___बंबई पोर्ट ट्रस्टके मेम्बर हैं। यह ट्रस्ट करीब तीन करोडका कारबार करता है। ___म्युनिसिपल कोरपोरेशन बंबईके दो बार मेम्बर रह चुके हैं।
ये केवल नामके ट्रस्टी या मेम्बर नहीं होते । परिश्रम पूर्वक उन संस्थाओंका काम भी करते हैं । पहले कच्छी वीसा
ओसवाल बोर्डिंगमें लगभग तीन घंटे रोज देते थे। इतना ही नहीं बच्चोंको उत्साहित करनेके लिए उनके साथ बगीचे.
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध)
वगैरामें काम मी करने लगते थे। घास निकालते, मिट्टी हटाते कंकर चुनते और वाल्टी भर भरके पानी भी ले आते थे। अब देश और समाजके कामोंकी प्रवृत्ति बढ जानसे बोडिंगमें इतना समय नहीं दे सकते हैं तो भी प्रायः हमेशा बोर्डिगमें जाया करते हैं।
माटुंगेमें मन् १९२८ में एक साधु महाराज का चौमासा था । महाराज प्रभावशाली थे । इसलिए हमारों लोग हमेशा खास करके पर्युषणों के दिनोंमें महाराजका व्याख्यान सुनने आते थे। आनेवाले लोगोंकी और उनके सामानकी व्यवस्था रखना जरूरी था। कई सजन यह काम करते थे। वेलजी सेठ सबके मुखिया थे। और चीजों के साथ जोडोंकी रक्षा करना भी जरूरी था। क्योंकि ऐसे मौकोंपर लोगोंके जूते कई बार खो जाया करते हैं। इसलिए जोड़े रखनेके लिए एक स्टेंड बनवाया गया। स्टेंडके खानोंके टिकिट बनवाये गये। जो सज्जन आते उनको अपने जने खानेमें रखनेको कहा जाता । लोग खानेमें अपने जोड़े रखते और टिकिट ले जाते । कई सज्जन ऐसे भी आते थे जो कहने पर ध्यान नहीं देते थे। वे अपने जोड़े बाहर ही डालकर चले जाते थे । कई बार मैंने देखा कि, वेलनी सेठ तुरंत बाहरसे उठाकर जोड़े स्टॅडमें रख देते थे और बाहर जोड़े डालफर जानेवाले सज्जनोंको टिकिट देते थे।
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श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन
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एक दिन मैंने कहा: “ सेठ ! आप यह क्या करते हैं ? अपने अनेक विद्यार्थी हैं, वे यह काम कर लेंगे । "
वेळजी सेठने हँसकर जवाब दिया :- " संचके जोड़े उठाना भाग्यसे मिलता है। संघ तो साक्षात् तीर्थ है । संघके जोडे उठाने में शर्म कैसी ? और हम लोगोंने तो स्वयंसेवक बनकर सेवाव्रत स्वीकार किया है। सेवात्रतीको, अमृक करूँ और अमूक न करूँ ? ऐसा कभी विचार भी नहीं करना चाहिए। सेवकका तो धर्म है कि जो काम उसके सामने आये उसको आनंद के साथ वह पूरा कर डाले । "
1
मैंने चुपचाप सिर झुका लिया। इनकी सेवा - भावना अनुकरणीय है ।
datt सेठ और इनके छोटे भाई जादवजी सेठ दोनों साथ ही रहते हैं । कारोबार और रहना सब साथ ही है । वेलजी सेठ जो कुछ करते हैं उन सबमें जादवजी सेठका सहकार रहता है। ये उदार भी पूरे हैं। इन भाइयोंने अब तक नीचे लिखी रकमें दानमें दीं हैं—
५०००० ) तिलक खराज्य फंडमें ( पचास हजार ) १७००० ) कच्छी वीसा ओसवाल जैन बोर्डिग माटुंगा में | १५०००) बाराई (कच्छ) में एक स्कूल खोला। इस स्कूल का प्रबंध येही करते हैं । आवश्यकता होने पर और खर्चा भी इसमें देते रहते हैं ।
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध )
५००० ) कच्छी वीसा ओसवाल केळवणी फंड बंबई में । १५०००) कांदावाडी बेवईके स्थानक फंडमें । ३०००० ) माटुँगे में लखमसी नप्पू हॉल बनवाया
इस तरह एक लाख सैंतीस हजारका दान एक मुश्त बड़ी बड़ी रकमोंमें दिया । वैसे हजार, पांच सौ या सौ सौ करके दोनों भाई प्रति वर्ष अनेक संस्थाओं को देते हैं। मालूम हुआ
|
कि इस तरहकी रकम सालाना आठ दस हजार तक हो जाती
है । अब तक इन्होंने जितना दान दिया सब अपने छोटे भाई जादवजी सेठकी सलाह लेकर ही दिया । दोनों भाइयों में
要
इतना प्रेम है कि इनको राम लक्ष्मणकी उपमा दी जाती है । बेलनी सेठ माटुंगा रेसिडेंट्स एसोसिएशनके, हिन्दु सभा माटुंगा, और महँगा युथ लीग के प्रमुख रहे हैं और एक दोके संभवतः अब भी हैं । बंबई बायकॉट कमिटीकी एडवाइ जरी कमेटीके भी ये मभ्य मध्य हैं ।
कांग्रेस और महात्मा गांधी के ये बड़े भक्त हैं । इसका प्रमाण इनके तिलक - फंडमें दिये हुए पचास हजार रुपये तो हैं हीं, मगर इनका वर्किंग कमेटीमें मेम्बर होना सबसे बड़ा प्रमाण है । जिस समय वर्किंग कमेटीको गवर्नमेंटने गैरकानूनी ठहराया है और कमेटीके मेम्बरोंको पकड़ पकड़कर जेलमें भेज रही है उस समय इनका वर्किंग कमेटीमें दाखिल होना बड़े साहस और त्यागका काम है । इस समय ' ऑल इंडिया
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स्वर्गीय सेठ जावजी लखमसी जन्म सं. १९५५. स्वर्गवास सं. १९८९
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कोंग्रेस कमेटी की वर्किंग कमेटी में दाखिल होना जेलखानेको और सब तरहकी तकलीफोंको आमंत्रण देना है । ऐसा आमंत्रण वही दे सकता है जिसके हृदय में देशभक्तिकी आग जल रही हो । जैन समाजको अभिमान है कि, वह वेलजी सेठ जैसे गर्भ - श्रीमंत, सुखमें जीवन बितानेवाले और सुशिक्षित सज्जनको देश के अर्पण कर सका है । बेलजी सेठ इस समय वर्किंग कमेटीमें खजानचीके मानद ओहदे पर हैं ।
११
ये खादी के प्रचारक हैं। दो बरस तक इन्होंने अपने मकान पर खादीकी दुकान चलाई थी । आज पाँच बरस से राष्ट्रीय भाषा हिन्दीका प्रचार करने के लिए ये माहुँगे में, एक हिन्दी क्लास अपने खर्चे से चला रहे हैं ।
इन्होंने अपने पिताके देहान्त होने बाद करीब पाँच लाख -- की नई जायदाद बनवाई है ।
३ जादवजी सेठ
इनका जन्म सं. १९५५ में हुआ था । इनके प्रथम लग्न सं० १९७२ में सा खीमजी चाँपसीकी पुत्री सुंदरबाईसे हुए थे । दूसरे लग्न सं० १९७६ में साहीरजी कचराकी पुत्री उमरबाईके साथ हुए थे । ये बाहोश मनुष्य हैं और अपने बड़े माई बेलजी सेठको हर कार्य में पूर्ण सहायता देते हैं ।
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध)
४-देवकांवाई-इनके लग्न सा वेलनी नेणसीक माथ
हुए थे।
५-देमुंबाई-इनके लग्न सा पोपटमाई लालनीके साथ हुए थे।
६-चंपाबाई-इनके लग्न भी सा. वेलजी नेणसीके पाय ही, देवकांबाईका देहांत हो जाने पर, हुए थे। ___७-रतनबाई-इनका जन्म सं० १९५८ में हुआ था। इन्होंने थर्ड इंग्लिश और सातवीं गुनराती तक अभ्यास किया था । इनके पूर्व जन्मके संस्कार अच्छे थे। इसलिए बचपन ही. से इन्हें धर्ममें बड़ी श्रद्धा थी। ये धर्ममय जीवन बिताती थीं। बालब्रह्मचारिणी रहनेका निश्चय था और अपने मातापिताको भी इस निश्चयकी सूचना देदी थी। आखिर सं० १९७७ में आठ कोटि नानी पक्षके सिंघाड़ेके महासती पाँचीबाईजीके पाससे इन्होंने दीक्षा ले ली । धर्मात्मा माइयोंने धूमधामके साथ अपनी संसारके सुखोंसे उदास बनी हुई बहिनको दीक्षा दिला दी। इनका दीक्षाका नाम रतनबाई स्वामी हुआ। पाँच बरस तक जप, तप, व्रत पञ्चखाणादि करके सं० १९८३ में इन्होंने देहत्याग कर दिया ।
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श्वेतांबर स्थानकवासी जैन. पेज १३
जला सं० १९,००] हवा. म्लेट हीरजी भोजराज. [रवर्गवासट सं० १९.६.४
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श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन १५ सेठ हीरजी भोजराज एण्ड सन्स
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हीरजी सेठ गाँव मेराऊ ( मांडवी-कच्छ ) के रहनेवाले थे। स्यानकवासी धर्म पालते थे। इनका जन्म करीब सं० १९०० में हुआ था। इनके पिता भोजरानजीकी हालत बिलकुल साधारण थी। इसलिए हीरजीभाई कपाईकी तलाशमै सं० १९१५ में अपनी पन्द्रह बरसकी आयुमें बंबई माये । ____ आकर प्रारंभमें मजदूरी करने लगे । दिन भर महनत करके जो कुछ कमाते उससे आधा बचाते और आधा खाते । एक वर्ष तक उन्होंने इस तरह मनदूरी करके कुछ रुपये जमा किये । और उस थोडीसी पूंजीसे मोदीकी दुकान प्रारंभ की।
कुछ बरसों तक मोदीकी दुकान करनेके बाद उन्होंने घासका व्यापार प्रारंभ किया। इसके साथ ही उन्होंने ईटोंका व्यापार मी शुरू किया। इस रोजगारमें खूब कमाई की । नब इनका यह धंधा खूब चलने लगा तब इन्होंने कंट्राक्टका काम भी शुरू किया और इसमें खूब धन कमाया । इसके बाद इस्टेट ( जमन जायदाद ) का और साहूकारीका धंधा प्रारंभ किया । वह मानतक चालू है। अपनी महनत,
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૧૪
जेनरत्न ( उत्तरार्द्ध )
अपनी होशियारी और समयसूचकता से पचीस बरस पहले जो मजूरी करते थे वे ही हीरजीभाई पत्रीम बरमके बाद एक बहुत बड़े व्यापारी और कच्छी बीसा ओसवाल जैन समाजहीमें नहीं बंबई में बहुत बड़े धनिक माने जाने लगे |
इनका प्रथम ब्याह श्रीमती मालबाईके साथ हुआ था और दूसरा ब्याह जीवीबाई के साथ हुआ था ।
इनके चार पुत्र हुए ।
१ केशवजीभाई
इनका ब्याह श्रीमती रतनबाईके साथ हुआ था । इनके साकरबाई और नर्मदाबाई नामकी दो कन्याएँ हैं । ये बी. तक पढ़े थे ।
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२ रतनसीभाई
इनका जन्म सं० १९४९ के पोस वदि ९ को हुआ था । इनके दो यह हुए । इनके दो लड़कियाँ हैं । एकका नाम मटुबाई है और दूसरी का नाम बच्चूचाई। ये मेट्रिक तक पढ़े हैं और सरल स्वभावके सज्जन हैं ।
३ नानजीभाई
इनका जन्म सं० १९५० के मगसर वदि ११ को हुआ । इनके दो ब्याह हुए | पहला ब्याह सं० १९६५ में मणिबाईके साथ हुआ और दूसरा ब्याह श्रीमती उपरबाईके साथ हुआ
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श्वेतांबर स्थानकवासी जैन.
पेज १४.
सेठ रतनसी हीरजी. जन्म सं० १९४९ सेठ नानजी हीरजी. जन्म सं० १९५०
सेठ हीरजी भोजराज एण्ड सन्सके मालिक..
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श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन
था। इन्होंने मेट्रिक तक अभ्यास किया। इनके दो पुत्र और एक कन्या हैं। पुत्र मुरारजी व अमृतलाल और कन्या मान बाई। इनमेंसे मुरारजीको इनके छोटेभाई कुंवरजीके गोद रक्खा है। नानजीभाई (१) कच्छी वीसा ओसवाल जैन देहरावासी पाठशालाकी मेनेजिंग कमेटी के और (२) पूाबाई कन्याशालाकी मेनेजिंग कमेटीके मेम्बर हैं।
ये कच्छकांठीके बावन गाँवकी कच्छी वीसा ओसवाल जाति पंचायत ( नात ) के उपप्रमुख हैं। ___ ये कच्छी वीसा ओसवाल जैन बोर्डिंग माटुंगाके ट्रस्टी और प्रमुख हैं। पहले सेक्रेटरी थे।
४ कुंवरजीभाई ये भी मेट्रिक तक पढ़े हुए थे। इनका ब्याह श्रीमती राजबाईके साथ हुआ था।
१८ बरस की उम्र में ये निःसन्तान मरे । इनकी पत्नीने नाननीमाईके पुत्र मुरारजीको गोद रक्खा ।
इनके अलावा हीरजी सेठ अपने माईके लड़के वसनीको भी अपना ही पुत्र मानते थे। वे अक्सर कहा करते थे कि मेरे पाँच पुत्र हैं । वसनजी भी मेग ही लड़का है। ___ हीरजी सेठने अपने लड़कोंकी शादियोंमें (लमोंमें) डेढ लाखके करीब रुपये खर्च किये थे।
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध)
उन्होंने बहुत बड़ी जायदाद बनाई थी। इस समय इनके पुत्रों के पास नीचे लिखी जायदाद है ।
सोलह लाख वार जमीन मुलंद (बंबई ) में, पैंतीस हजार वार जमीन काँदीवली ( बंबई ) में, नेपिअन्सीरोड पर दो बँगले और बीस बड़ी बड़ी चालें ( रहने के मकान ) जुदा जुदा मुहल्लोंमें हैं !
इन्होंने गाँव इथरबरोली मिला अहमदनगरमें एक धर्मशाला बनवाई थी। ये धर्मपरायण, उत्साही और परिश्रमी सज्जन थे। इनका देहांत सं० १९६७ में हुआ था।
इनके देहान्तके बाद इनके पुत्रोंने सारा कामकाज संभाला । इनके बड़े पुत्र केशवजीभाईका भी अब देहान्त हो गया है। माले दो पुत्र रतनसीमाई और नानजीमाई इस समय दुकानका काम चला रहे हैं। इस समय साहकारीका ही मुख्य रोजगार करते हैं।
इन सज्जनोंने नीचे लिखी रकम दानमें दी हैं। १५००) पूरबाई कन्याशाला बंबईको। इस रकमके ब्यानसे
प्रतिवर्ष बाई मालबाई जीवीवाईके नामसे एक चाँद उस कन्याको दिया जाता है, जो सारी पाठशाला में अच्छे स्वभावकी समझी जाती है।
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स्थानकवासी जैनसद्गृहस्थ
१५००) कच्छी वीसा ओसवाल देहरावासी जैन पाठशाला
बंबईको । इसके ब्याजसे केशवनी कुंवरजीके नाम से एक चाँद शालाके उस लड़केको दिया जाता है, जिसका स्वभाव और चरित्र सबसे अच्छा
समझा जाता है। १०५००) कच्छी वीसा ओसवाल जैन बोर्डिंग माटुंगा बंबईको। १२५०००) कच्छी वीसा ओसवाल जैन बोर्डिंग माटुंगा बंबईको
इस शर्त पर कि इसका नाम बदलकर नीचे लिखा नाम बोर्डिंग हाउसका कर दिया जाय । "शा. हीरजी भोजराज एन्ड सन्स कच्छी वीसा
ओसवाल जैन बोर्डिंग माहुँगा (बंबई). ५१००) लालबाग (बंबई ) के जैन मंदिरमें । ६०००) वीसा ओसवाल दुष्काल फंडमें ।
इस तरह बड़ी बड़ी रकमोंमें एक लाख अडतालीस हजार पाँच सौ रुपयेका दान दिया है। इनके सिवाय छोटी छोटी रको जुदा जुदा संस्थाओंमें या अन्य स्थानोंमें दी जाती हैं। उनकी जोड प्रतिवर्ष पाँच हजार जितनी होती है। ऐसे करीब तीस हजारसे ऊपर रकम दे चुके हैं ।
नाननीमाई बड़े विचारक और धर्म सहिष्णु पुरुष हैं।
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सेठ मेघजी थोभण
मेघजी सेठका जन्म सं० १९१९ के श्रावण वदि १३ के दिन मुन ( कच्छ ) में हुआ था । ये खास रहनेवाले मांडवी ( कच्छ ) के हैं। इनके पिताका नाम थोभणजीमाई था। इनकी जाति ओसवाल और धर्म स्थानकवासी जैन है।
ये जब पन्द्रह बरसके हुए तब बंबई में आये और रूईकी दलाली करने लगे। ये बड़े ही कार्य दक्ष और परिश्रमी थे। दलाली में भी ठीक रकम पैदा कर ली थी। फिर इन्होंने मेसर्स गील कंपनीके साथ भागीदारीमें अपना धंधा शुरू किया वह अब तक चाल है। इसमें इन्होंने खूब धन कमाया । पन्द्रह बरसकी छोटी आयुमें आकर दलालीका काम करनेवाले साधारण
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श्वेतांबर स्थानकवासी जैन. पेज १८.
स्वर्गीय सेठ मेघजी थोभण जन्म सं. १९१९.
स्वर्गवास सं. १९८५
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स्थानकवासी जैनसद्गृहस्थ स्थितिके मेघनीमाई तीस बरस की उम्रमें एक बड़ी युरोपिअन फर्मके भागीदार और लखपति आसामी थे । उनकी होशियारी, उनके साहस, काम करनेके उत्तम ढंग और उनकी प्रामाणिकताने उन्हें इतना ऊँचा उठाया था। ___ उनका ब्याह शा परसोतम ओघवजी मुनवालोंकी पुत्री जीवीबाईके साथ हुआ था। इनसे एक पुत्र और एक कन्या हुए । पुत्रका नाम वीरचंदमाई और कन्याका नाम दीवालीबाई रक्खा गया।
जायदाद-इन्होंने अपने निवासस्थान मांडवी (कच्छ) में पचास हजार रुपयेकी जायदाद बनवाई है।
लग्नमें इन्होंने अपने पुत्र और पुत्रीके लग्न बड़ी धूमधामसे किये थे । अपने पुत्र वीरचंदमाईके ब्याहमें ४५०००) हजार रुपये और अपनी पुत्री दीवालीबाईके लग्नमें ३५०००) रुपये खर्च किये थे।
दान-इन्होंने जो दान किया उनमेंकी बड़ी बड़ी रकमें नीचे लिखी हैं। ३१००००) का एक टूस्टडीड किया है । इसके व्याजमेंसे जुदा
जुदा धर्मकार्योमे रकम दी जाती है। १५०००) महीघर स्टेटमें प्रतिवर्ष, शारदादेवीके आगे लगभग
सात हजार पशुओंकी बली होती थी। इस घोर
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध) हिंसाको रोकने के लिए इन्होंने और इनके मामाके लड़के सेठ शान्तिदास आशकरणने यह हिंसा बंद करानेके काममें मदद की। स्टेटने कानुन बनाया कि देवीके आगे कोई हिंसा न करे । अगर करेगा तो पचास रुपये जुर्माना होगा और छः महीनेकी नेल होगी । यह फर्मान शारदा मंदिरके आगे थंभों पर खोद दिया गया है । स्टेटने यह हिंसा बंद की इसके लिए मेवजी सेठने और शान्तिदास सेठने वहीं पन्द्रह हजार रुपये लगाकर. एक हॉस्पिटल
खुलवा दिया। १००००) बंबई में रहनेवाले स्थानकवासी जैनों के लिए धर्म
कार्य करनेके लिए संघका कोई स्थानक न था । संघको धर्मकरणी करनेमें बड़ी कठिनता पड़ती थी। इसलिए इन्होंने, कुछ आगेवान गृहस्थोंके साथ मिलकर स्थानक बनवानेकी बात की । इतना ही नही चंदेका प्रारंभ दस हजार रु. देकर किया और महनत करके २४३०००) की रकम जमा की।
उसीका फल यह कांदेवाड़ी मुहल्लेका स्यानक है। सार्वमनिक जीवदयामंडल घाटकूपरकी सं० १९७९ में स्थापना हुई । उसकी, प्रारंभसे सं० १९८४ तक प्रमुख रहकर, सेवा की। इसमें इन्होंने जदा जुदा समयमें अच्छी रकम भी दी।
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स्थानकवासी जैनसद्गृहस्थ. २१ इन्होंने गुप्त दान भी बहुत किया है । कहा जाना है कि करीब दस हनार रुपये वार्षिक गुप्त रूपसे और परचूरण दानमें दिया करते थे। कच्छमें जब जब दुकाल पड़ा तब तर इन्होंने डोरोंके लिए घाप्त और मनुष्योंके लिए अनाजकी सस्ती दुकानें खुलवाई थीं और हजारों रुपयोंका दान किया था। जिस साल अहमदनगर जिलेमें मयंकर दुष्काल पड़ा था उस साल वहाँ १०४४ गायोंकी रक्षा की थी। उसमें मेघनी सेठने बहुत बड़ी रकम दी थी।
श्रीश्वेताम्बर स्थानकवासी जैन कॉन्फरेंसको इन्होंने पहलेहीसे सहायता दी थी । बीचमें कुछ कालके लिए कॉन्फरेंस सो गई। बारह बरस सोती रही। फिर बारह बरसके बाद उसको जगा कर उसमें कार्यकारिणी शक्ति पैदा करनेका काम इन्हें सौंगा गया । मलकापुरमें कॉन्फरेंसका जल्सा हुआ। उसके ये प्रमुख बनाये गये । इन्होंने सचमुचही उसमें नया जीवन डाल दिया । कान्फोसका ऑफिस बंबई आया इतना ही नहीं बंबई में फिर उसका उत्सव हुआ तब इन्होंने वृद्ध होते हुए भी स्वागत समितिके प्रमुखका कार्य स्वीकार किया और इस तरह समाजकी सेवा की।
स्थानकवासी श्रीसंघने इनके कामोंकी,-इनकी सेवाओंकी कदर करनेके लिए, इन्हें माधवबागता. २०-३-२७ के दिन एक मानपत्र दिया था।
आँखके स्पेशिआलिस्ट डॉक्टर रतिलाल शाहको एक बार
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૧
जैनरत्न (उत्तरार्द्ध)
ये कच्छ में ले गये । वहाँके अनेक आँखों के रोगी मनुब्यका इलाज कराया और हजारोंका आशीर्वाद लिया । इसमें इनके हजारों रुपये खर्च हुए ।
उनका रहनसहन सादा और सरल था । उनका स्वभाव निरभिमानी और सत्यप्रिय था । उनका जीवन धर्मपरायण और वैराग्यमय था । व्यवहारकुशल प्रेमभाव दिखानेवाले इतने थे कि, एक बार जो इनके सहवासमें आता था वह हमेशा इनका भादर
करता था ।
सन् १९२९ की १८ वीं मईके दिन ६५ वर्षकी आयुर्मे इनका देहांत होगया । अपने पीछे ये पुत्र और पौत्रोंसे भरा घर छोड़ गये ।
सेठ वीरचंदभाई - ये स्वर्गीय सेठ मेघजीभाई के पुत्र हैं । इनका जन्म सं० १९९६ के कार्तिक सुदि १९ के दिन हुआ था । इनको साधारण इंग्लिश और गुजरातीका ज्ञान कराकर मेघजी सेठने इन्हें चौदह वर्षकी उम्र में ही धंधे में डाल दिया था । सोलहवें वर्ष में इनका ब्याह सा जेवंत वृजपालकी पुत्री श्रीमती लक्ष्मीबाई के साथ कर दिया । इनके ४ पुत्र हैं । मणिलाल, शांतिलाल, भोगीलाल और सोभागमल ।
|
इनके पिता मेघजीसेठ कुछ सुधारक थे । मरणके बाद रोने पीटने और ज्ञातिभोजन करनेका रिवाज उन्हें बिलकुल पसंद नहीं था । मरते समय वे अपने पुत्रको ताकीद कर गये कि, मेरे
I
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स्थानकवासी जैनसद्गृहस्थ.
बाद यह रिवाज, कमसे कम अपने घरमें बिलकुल न किया जाय । सपूत पुत्रने अपने पिताकी आज्ञाका पालन किया । इतनाही नहीं पिताकी मृत्युके समय इन्होंने पचास हजार रुपयेका दान दिया। इनके अन्य संबंधियोंने भी उसी समय सम मिलाकर पचीस हजारका दान दिया।
ये भी अपने पिताश्रीके समान ही उदार, सरल और निरमिमानी हैं। इनके पिता जैसे हर बरस दस बारह हजारका दान दिया करते थे, वैसे ही ये भी दिया करते हैं।
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देवजी खेतसी
I
१ सेठ खेतसी - ये कच्छी वीसा ओसवाल स्थानकवासी जैन थे । इनका जन्म गाँव बाराई ( कच्छ ) में हुआ था । ये सं० १९१४ या १५ में बंबई आये । यहाँ आकर मोदीका धंधा शुरू किया । इसमें जब ठीक कमाई हुई तब इन्होंने दाल की वखार की और रेंट कंट्राक्टर ( मकानोंके भाडे वसूल करने की ठेकेदारी ) का काम भी शुरू किया ।
बंबई में पहले मूर्तिपूजक और स्थानकवासी दोनों तरहके कच्छी वीसा ओसवालोंका संघ एक ही था । खेतसी सेठने सं० १९३० में इस बातका प्रयत्न किया कि स्थानकवासी संघ जुदा होना चाहिए। इस प्रयत्नमें इनको सफलता मिली और सं०
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श्वेतांबर स्थानकवासी जैन. पेज २६.
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सेठ देवजी खेतसी.
स्वर्गवास सं. १९७८
जन्म सं.१९२२.
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श्वेतांबर स्थानकवासी जैन
१९३१ में कच्छी वीसा ओसवाल स्थानकवासी जैन संघ स्थापित हो गया। सं० १९४७ में खेतसी सेठका देहान्त हुआ। इनके पुत्र देवजी थे।
२ सेठ देवजी-इनका जन्म सं० १९२२ में गाव बाराई (कच्छ) में हमा था। इन्होंने चौदह बरसकी उम्रतक स्कूल में शिक्षण लिया था। फिर धूलिया (खानदेश) काम सीखने के लिए भेजे गये; परन्तु अनुकूलता न आनेसे वापिस बंबई में आ गये और अपने पिताके साथ ही काम करने लगे।
इनके पिताके देहान्त होज़ाने के बाद सं० १९५५ में इन्होंने चावलकी वखार शुरू की। उसमें अच्छी कमाई होनेसे
और भी दुकानें प्रारंभ की । उनकी शुरू की हुई नीचे लिखी दुकानें अभी काम कर रही हैं।
१-नंबईमें-देवनी खेतसी एण्ड कंपनी। २-रंगून ( बर्मा ) में, गाँगनी प्रेमजी एण्ड कंपनी ३-मोलमिन (बर्मा) में, " " . " ४-बसिन (बर्मा) में, " " " , ५-ग्रम (बर्मा) में, " " , " ६-कोलंबो (सीलोन) में " " " "
ये सब कंपनियाँ मुख्यतया चावलका व्यापार करती हैं। लगभग साठ लाख रुपये सालानाका इनपर रोजगार होता है।
देवनी सेठके दो ब्याह हुए थे। पहला ब्याह श्रीमती
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जैनरस्न (उत्तरार्द्ध)
राजीबाईसे हुआ । इनसे दो सन्तान हुई । एक पुत्र और एक कन्या । पुत्र प्रेमजी और कन्या वेलबाई । वेलबाई का ब्याह जखू हरसीके साथ हुआ था। उनका अब देहान्त हो गया। बाई विधवा है।
दूसरा ब्याह श्रीमती उमरबाईके साथ हुआ था। इनसे पाँच सन्तान हुई थीं। तीन पुत्र और दो कन्याएँ वे निम्न लिखित हैं।
(१) शिवनीमाई-इनका जन्म सं० १९६१ में हुआ। ब्याह ३ रा श्रीमती मणिबाईके साथ हुआ। इनके एक पुत्र चिमनलाल और एक कन्या रेवतीबाई हैं ।
(२) मवानजीभाई-इनका जन्म सं० १९६४ में हुआ था। ब्याह श्रीमती सुंदरबाईके साथ हुआ था । इनके सुशीला नामकी एक पुत्री है।
(३) गांगनीमाई-इनका जन्म सं० १९६७ में हुआ था। ब्याह श्रीमती केसरबाईके साथ हुआ था। इनके नेमजी और जयंतीलाल नामके दो पुत्र हैं।
(४) तेजबाई-इनका ब्याह नप्पू नेणसीकी फर्मके मालिक सेठ वेलनी लखमसीके साथ हुआ था। बाईका अब देहान्त हो गया है । कच्छी वीसा ओसवालों में कोई भी बंबईमें लम नहीं करता था। सभी कच्छमें जाकर लम करते थे। देवजी सेठने और लखमसी सेठने मिलकर यह रिवाज तोड़ा और बंबईमें
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श्वेतांबर स्थानकवासी जैन
लम करनेकी प्रथा डाली । बंबईमें कच्छी वीसा ओसवालोंमें वेलजीमाई और तेजबाईके ही लग्न सबसे पहले हुए थे ।
(१) रतनबाई-इनके जन वेलजी नेणसीके पुत्र मेघनी वेलनी के साथ हुए थे।
दान-साठ हमारके करीब इन्होंने दान किया था। उनमें से ५०००) कच्छी वीसा ओसवाल जैन बोर्डिग माटुंगाको दिये थे।
लग्न-छः लग्न अपने लड़के लड़कियोंके किये और उनमें करीब साठ हजार रुपये खर्चे ।
जायदाद-अपने गाँव बाराईमें जायदाद बनवानेमें पचास हजार रुपये खर्चे ।
संवत १९७८ के मादवेमें इनका देहान्त हुआ।
३ प्रेमजीसेठ-इनका जन्म सं० १९४२ के भादवा सुदि ८ को हुआ था। इनके पिता देवजीसेठ के देहांत के बाद इन्होंने कारबार सम्भाला । वे ही उत्तमताके साथ कार्य कर रहे हैं और अपने पिताकी सम्पत्तिको बढ़ा रहे हैं। ____इनका पहला ब्याह श्रीमती देवकाबाई के साथ हुआ। इनके एक पुत्र हुआ । उसका नाम नाननीमाई है। नाननीमाई मेट्रिक तक इंग्लिश पढ़े हैं। स्वतंत्र विचारके देशमक्त व्यक्ति हैं। इनका ब्याह श्रीमती मणिराईके साथ हुआ था । सन् १९३० के आन्दोलनमें ये बंबईकी प्रांतिक महासमा वारकाउंसिलके मेम्बर थे। पकड़े गये। छः महीनेकी सजा हुई।
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२८
जैनरस्न ( उत्तरार्द्ध) -
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प्रेमजीसेठकी प्रथम पत्नी श्रीमती देवकाबाईने ब्याहके छ: बरसके बाद दुनियासे उदास होकर अपने पुत्र नानजीको छः चरसका छोड़कर दीक्षा लेली । इन्होंने आठ कोटि नानी पक्षकी महासतीजी केसरबाईनीसे दीक्षा ली थी। इनका दीक्षा-नाम देवकुरबाई स्वामी हुआ। ये तीन वरस अच्छी तरहसे चारित्र पालकर कालधर्मको प्राप्त हुई ( इनका देहान्त हुआ)
जायदाद-इन्होंने सीवरी ( बंबई ) में दस हजार वार जमीन खरीदी और बंबई में, रंगुनमें और बेंगलोरमें बंगले बनवाये । ___ लग्न और मृत्यु-इन्होंने पाँच लग्न अपने भाइयोंके और 'पुत्रके किये । उनमें पचास हजार रुपये खर्चे । इनके पिताकी मृत्यु हुई तब उनके पीछे जमणवार ( जीमन या नुकता ) कर. नेमें और दान देने में ग्यारह हजार रुपये खर्चे ।
दान-इन्होंने जुदा जुदा नीचे लिखे स्थानों में दान दिया है। १८०००) अपने गाँव बाराईमें सेठ देवनी खेतसीके स्मरणार्थ
एक स्थानक बंधवाया और उसे संघके अर्पण
कर दिया। ३००००) बंबईमें स्थानकके चंदेमें और पांजरापोलके चंदेमें
दिये। इनके अलावा करीब डेढ दो हजारका दान जुदा जुदा स्थानों में हर साल किया करते हैं।
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सेठ चॉपसी भारा
भारा सेठ गाँव देसलपुर तालुका मुंद्रा ( कच्छ ) में रहते ये। हालत साधारण थी। ये कच्छी वीसा ओसवाल थे। इनका गोत्र वीरा और स्थानकवासी जैन है । इनके पाँच लड़के हुए १ चांपसीमाई २ तेजपालमाई ३ मूरजीमाई ४ लाधामाई और ५ डाह्याभाई।
चाँपसीभाईका जन्म सं० १८७७ में हआ था। वे सं० १८९५ में बंबई आये। उन्होंने एक रुपया महीना और मोजनवस्त्र पर पाँच बरस तक नौकरी की । संयमपूर्वक' रह कर वेतनके समी रुपये जमा किये । पाँच वरसके बाद उन्होंने भीडी बनारमें मोदीकी दुकान शुरू की। इसमें ठीक पैसा कमाया।
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३०
जैनरत्न (उत्तरार्द्ध) तब सं० १९१० में इन्होंने अनाजकी आडतकी दुकान खोली। उसका नाम रक्खा 'चांपसी माराकी कंपनी । यह कंपनी खूब फली फूली। ___इनका लग्न सं० १९१० में श्रीमती मेघईबाईके साथ हुआ या । इनके तीन लड़के और चार लड़कियाँ हुए । लड़के-१ लालजीभाई २ खीमजीमाई ३ आनंदनीभाई। लड़कियाँ-१ मांगलबाई २ गोमीबाई ३ गांगबाई ४ परमाबाई । ____ चांपसी सेठ उदार पुरुष ये । अपनी कमाईका बहुत बड़ा माग वे दान पुण्यमें खर्चते थे। हृदयके सरल और धर्मपरायण पुरुष थे । उनकी मृत्यु सं० १९३४ में हुई थी।
लालजी सेठ इनका जन्म सं० १९१४ में हुआ था। इनके दो लग्न हुए थे । पहली पत्नीका निःसन्तान देहांत हो गया। दूसरे लग्न सं० १९४२ में श्रीमती रतनबाईके साथ हुए थे। उनके चार बालक हुए । मगर तीन गुजर गये । चौथे पोपटभाई मौजूद हैं।
लालनी सेठने अपने पिताकी स्थापन की हुई कंपनी खूब बढ़ाई, प्रसिद्ध की। भीडी बजारमें असुविधा होनेसे इन्होंने दानावंदरपर एक बिल्डिंग बनवाया और कंपनी वहीं उठा लाये। आजतक वह वहीं है।
चिंचपोकली स्थानकईन्होंने पन्द्रह हजार रुपये दिये थे।
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श्वेतांबर स्थानकवासी जैन
३१
जाति के आगेवानों में से ये एक थे । सं० १९९४ में जब कंपनी खूब तरक्की कर रही थी, इनका देहांत हो गया
खीमजीभाई
चांपसी सेठके दूसरे पुत्र खीमजीभाई थे । इनका जन्म सं० १९१७ में हुआ था । इनका ब्याह श्रीमती सोनबाईके साथ हुआ था । इनके आठ संताने हुई परन्तु श्रीमती सुंदरबाईके सिवा अब सबका देहांत हो गया है । श्रीमती सुंदरबाईके लग्न सेठ लखमसी नप्पुके पुत्र जादवनी भाईसे हुए हैं ।
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इन्होंने अपने गाँव देसलपुर में एक बड़ी बिल्डिंग बंधवाई है । इन्होंने अपनी दो कन्याओंके लग्न बड़ी धूमधाम के साथ किये । उनमें तीस हजारका खर्चा किया और प्रत्येक लड़कीको पचीस पचीस हजार रुपये नकद जेवर के अलावा दिये ।
इन्होंने अपनी मातुःश्री श्रीमती मेघीबाईके देहांत होनेपर पन्द्रह हजार रुपये धर्मादेमें और जातिको जिमाने में दिये ।
।
इन्होंने गुप्त और प्रकट धर्मादा भी बहुत किया । प्रकट रकमें जो मालूम हुईं वे ये हैं
१५०००) सं० १९९६ के दुष्कालमें कच्छमें सस्ते भावसे
अनाज बेचने के लिए दुकान निकाली । सर्वधा
गरीबों को मुफ्त में अनाज दिया । उसमें खर्चे
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जैनरत्न ( उत्तराई)
१००००) देसलपुरमें एक स्थानक बनवाया। कच्छमें इतना
बड़ा अच्छा स्थानक दूसरा नहीं है। ४००००) अपनी मृत्युके समय दे गये जिनकी व्यवस्था
पीछेसे पोफ्टमाईने की। ये उद्योगी और धर्मपरायण मनुष्य थे । इनका देहांत सं० १९७४ में हो गया था।
चांपसीसेठके तीसरे पुत्र आनंदनीमाईका जन्म सं० १९२९ में हुआ था । मेट्रिक तक इन्होंने अभ्यास किया । सं० १९५० में इनका देहांत हो गया।
पोपटभाई ___ इनका जन्म सं० १९४९ में हुआ था। ये सेठ लालजीमाईके पुत्र हैं । इनका ब्याह सं० १९६१ में श्रीमती मीठांबाईके साथ हुआ था। इनके चार सन्तान हैं । २ लड़के-केशवनी व शामजी । २ लड़कियाँ-रतनबाई और साकरवाई।
ये बड़े ही बाहोश भादमी हैं । इनके पिता और काकाने निस कंपनीको आगे बढ़ाया था, उसके व्यापारको इन्होंने और मी अधिक फैलाया।
सन-इन्होंने अपने बड़े पुत्र केशवजीके लम धूमधामसे किये । उसमें पन्द्रह हमार रुपये खर्चे । केशरजीका जन्म सं. १९६८ में हुआ था। ये इंग्लिश पांचवीं क्लास तक पढ़े हैं।
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श्वेतांबर स्थानकवासी जैन. पेज ३३.
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करवालाल स्या
జాంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంం
ప్రశాంతంంంంంంంంంం ,09090909090909090.
श्रीयुत हीरालालजी कोठारी, कामठी.
మరుసుమును ముందుకు
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स्थानकवासी जैन सद्गृहस्थ ३३
सेठ हीरालालजी कोठारी इनके पिताका नाम उदयराजनी है। ये जातिके ओसवाल और । कोठारी गोत्रीय श्वेतांवर साधुमार्गी जैन हैं। ये दौलतपुरा (जोधपुर) के निवासी हैं । वहीं सं० १९५६ की भादवा वदि अमावसको इनका जन्म हुआ था । वहाँसे ये अपने पिता राजमलनीके साथ कामठी (नागपुर) आये । यहाँ इनके काका उदयराजजीने इन्हें गोद ले लिया । यहीं इनकी तालीम हुई । साधारण इंग्लिशका ज्ञान है और हिन्दीके लेखक हैं। समय समय पर अनेक पत्रोंमें इनके लेख निकलते रहते हैं। जिनका विषय मुख्यतया समाजोन्नति रहता ह। __इनके दो ब्याह हुए हैं। पहला ब्याह सं० १९७२ की वैशाख सुदि ३ को चीखली ( यवतमाल ) निवासी श्रीराजमलजी लूनावतकी पुत्रीसे हुआ था । इनसे दो पुत्र जेठमल और हेमचंद्र हैं। सं० १९८५ में प्रथम पत्नीका देहांत हो गया।
सं० १९८६ की माह सुदि ९ को वरोरा ( चांदा ) निवासी श्रीयुत पोमचंद्रनी सीपाणाकी पुत्री सूरजकुँवरके साथ इनका दूसरा ब्याह हुआ ।
इनके कुटुंबमें इस समय भार्या व पुत्रोंके अलावा मातापिता, काका काकी और दो भाई हैं।
समाज सुधारके कार्योंमें ये बहुत भाग लेते हैं। इन्होंने. कुछ बरस पहले ' मध्यप्रांत ओसवाल सभा' नामक एक संस्था अपने कुछ उत्साही मित्रांके सहयोगसे आरंभ की थी। उसके बाद बराड
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३४
जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध)
प्रांत भी उसमें शामिल कर लिया गया और अब यह संस्था 'मध्यप्रांत व बराड ओसवाल सभा' के नामसे चल रही है। उसके आप मानद सहायकमंत्री हैं।
इनका मुख्य धंधा साहूकारी है। सोने चाँदिका रोजगार भी इनकी दुकानपर होता है।
श्रीयुत भेरूलालजी गेलड़ा ये सं. १९४९ के महावदि ३० के दिन ओसवाल जातिके श्रीयुत गुलाबचंद्रजी गेलड़ाके घर श्रीमती गेंदबाईनीकी कोखसे उदयपुर शहरमें जन्मे थे । ये स्थानकवासी तेरह पंथ धर्मके माननेवाले हैं। इनके एक भाई शोभालालनी हैं और वे बराडप्रांतमें सरकल इन्स्पेक्टर हैं। ___ ये जब १५ बरसके हुए तब इनका ब्याह श्रीमती भूरकुँवरबाईके साथ हुआ था। ___ इनके पिता गुलाबचंद्रजी वकालत करते थे। उसमें उन्होंने अच्छी. कमाई की थी।
भेरुंलालजीका स्वभाव बचपनमें खिलाड़ी था । इसलिए ये अधिक विद्याध्ययन न कर सके । सामान्य हिन्दी पढ़ी थी। इनके पिता चाहते थे कि ये भी अहलकारी या वकालत करें। मगर इनको ये काम पसंद न थे। आखिरकार इन्होंने कपड़ेकी दुकान खोली । सफलतापूर्वक वह दुकान चल रही है।
संगतिने इनके विचारोंमें परिवर्तन किया। इनके हृदयमें सेवाकी भावना जागी। भावनाको कार्यरूप में परिणत करनेका अवसर भी मिल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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स्थानकवासी जैन सद्गृहस्थ ३५ ~~~immmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm. गया। सं० १९७४ में उदयपुरमें प्लेगका दौर दौरा हुआ। इन्होंने अपने कुछ उत्साही मित्रोंके साथ सेवा समिति कायम की । और उस समिति द्वारा करीब साढ़े तीन हजार आदमियोंको दवा-सेवा-वस्त्रादिसे मदद की। ___ प्लेग समाप्त होनेके चार ही महीने बाद इन्फ्लुएंजाका रोग शुरू हुआ। इसमें भी इन्होंने सेवासमितिद्वारा करीब चार हजार स्त्रीपुरुषोंको मदद पहुँचाई।
फिर सं० १९७६ में कॉलेरा हुआ। ये अपने मित्रों सहित सेवा-कार्यमें जुट गये और एक महीने तक सेवा करते रहे । ___ इन भयंकर छूतके रोगोंमें जब लोग डर डरके दूर भागते हैं सेवाका काम करना वास्तवमें बड़ी ही प्रशंसाकी बात है । इन्होंने सेवा ही नहीं की बल्के धनसे भी आवश्यकतानुसार सहायता पहुँचाई । ___ सं० १९७७ में इन्होंने एक · ओसवाल सेवासमिति' कायम कर उसके द्वारा ढाई बरस तक ओसवाल जातिकी सेवा की।
सं० १९७९ में 'मेदपाट छात्रालय' की स्थापना कर उसके द्वारा डेढ बरस तक मेवाडके विद्यार्थियोंकी सेवा करते रहे । ___ सन् १९१९ से ' सार्वजनिक कन्याशाला उदयपुर ' की संयुक्त मंत्रीके नाते सेवा कर रहे हैं। आजकल इनका जीवन सार्वजनिक कन्याशालाकी सेवाहीमें बीत रहा है। रातदिन इसके सिवा किसी दूसरी बातकी तरफ बहुत कम ध्यान देते हैं। यह इन्हीके उद्योगका फल है कि, आज सार्वजनिक कन्याशालाका एक मकान भी बन गया है और उसमें कन्याओंके लायक सब तरहकी अच्छी तालीम दी जा रही है।
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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध)
उदयपुरमें नवीन जीवन डालनेवाले सज्जनोंमें कहा जाता है कि ये भी एक हैं । आजतक उदयपुर शहरमें कोई भी सार्वजनिक कार्य ऐसा नहीं हुआ जिसमें इन्होंने सेवा न की हो।
इनका स्वभाव, बड़ा ही मिलनसार और उदार है। बाहरसे कोई सार्वजनिक कार्यकर्ता शहरमें आता है तो ये हर तरहसे उसकी. सहायता करते हैं।
श्रीयुत रतनलालजी महता इनका जन्म स.१९३३के महा वदि ७ को हुआ था। इनके पिताका नाम एकलिंगदासजी था । ये जातिके ओसवाल, स्थानकवासी जैन हैं। ___ इनके दो भाई गेरीलालजी और बख्तावरमलनी हैं । गेरीलालांका देहांत हो गया है। इनके दौलतसिंहजी और करणसिंहनी दो पुत्र हैं।
इनके मातापिताका देहांत बचपनहीमें हो गया था । इसलिए इनकी पढ़ाईकी कोई व्यवस्था न हुई । सिर्फ हिन्दीकी दो पुस्तकें पढ़े थे। कुछ लिखनेका अभ्यास करके ये मगरेमें थोड़ी तनखापर नौकर हुए। ___सं० १९७६ से इनको सेवाका शौक पैदा हुआ। और ये जैनशिक्षणसंस्था उदयपुरमें संचालकका काम करने लगे। सं. १९८४ में तो इन्होंने नौकरी भी छोड़ दी और ये अपना सारा समय संस्थाका काम करनेमें बिताने लगे।
इन्होंने विद्यार्थियोंके साथ भ्रमण कर संस्थाके लिए स्थायी फंड जमा किया। जिसका सूद २०० रु. मासिक आता है। इस संस्थाकी देखरेखमें (१) जैन ज्ञानपाठशाला (२) जैन ब्रह्मचर्याश्रम (३) जैन
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श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन पेज ३६.
श्रीयुत रतनलालजी महता. जन्म सं० १९३३.
नञः जनाः जाত:: তजज
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स्थानकवासी जैन सद्गृहस्थ
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कन्यापाठशाला चल रहे हैं । संस्थाओंसे करीब दो सौ विद्यार्थी लाभ उठा रहे ह।
इन्होंने अपने खर्चेसे नीचे लिखे काम किये हैं। १. उदयपुरमें एक जैन हुनरशाला कायम की ।
२. उदयपुरमें प्रदर्शनियाँ भरीं । जिनमें जैन हुनरशालामें बने हुए मालके लिए इनका अच्छा सन्मान हुआ। उदयपुरके महाराणा साहब भूपालसिंहनी भी एक प्रदर्शनीमें पधारे थे और हुनरशालाके कार्यको देखकर खुश हुए थे।
३.सं.१९८८ में इन्होंने बीकानेर जिलेके चूरू गाँवमे ६०० गायें नीलाममें, इसलिए खरीदी कि घासके आभावसे वे वहाँ मरती थीं। बीकानेर राज्यने गायोंका निर्यातकर, ३ हजार रुपये, माफ कर दिया । उदयपुरके स्वर्गीय महाराणाजी श्रीफतेहसिंहनीने ४ हजार रुपये गायोंकी रक्षाके लिए दिये ।
४. जैनरत्न धर्मपुस्तकालय स्थापन किया । उसमें करीब ३ हजार रुपयोंकी पुस्तकें हैं।
५. जैनरत्न उत्तम प्रकाशकमंडल स्थापित कर उसके द्वारा छोटी छोटी करीब २५ पुस्तकें प्रकाशित कराई।
६. घाटकूपर (वंबई ) के जीवरक्षा फंडमें २५०) रु. हुक्मीचंद मंडल रतलामको १५१) और (३) जैनशिक्षणसंस्थामें धर्मरत्न पुस्तकालय भवन बनानेमें ५००) रु. दिये।
ये उद्योगी और मिलनसार आदमी हैं । अपनी मति-शक्तिके अनुसार महायता करनेमें संकोच नहीं करते । इनके विचार उदार हैं।
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जैनरल (प्रथमखंड)
१ चौबीस तीर्थंकर चरित्र (भूमिका लेखक-आचार्यमहाराज श्रीविजयवल्लभ सूरिजीके प्रशिश्य मुनि
श्रीचरणविजयजी महाराज )
लेखक-कृष्णलाल वर्मा कलिकाल सर्वज्ञ श्रीमद् हेमचंद्राचार्य रचित त्रिषष्टिशलाकापुरूषचरित्र और दूसरे अनेक ग्रंथोंके आधारपर यह ग्रंथ लिखा गया है। इस ग्रंथकी भाषा बड़ी ही सुंदर और सरल है। बड़े टाइपमें छपाया गया है, जिससे कम पढ़े लिखे स्त्रीपुरुष भी आसानीसे पढ़ और समझ सकें। ऊपर सुनहरी अक्षरोंवाली कपड़ेकी बाइंडिंग । मूल्य ६)
इसमें पूर्वाद्धमें २४ तीर्थंकरोंके चरित्र और उत्तरार्द्धमें करीब ४० वर्तमानके जैन सद्गृहस्थोंके परिचय हैं । पूर्वार्द्धमें करीब ६ सौ पेज है और उत्तरार्द्धमें करीब दो सौ । यह ग्रंथ जैनरत्नकी निम्नलिखित योजनाका प्रथमखंड है ।
जैनरत्न
इस ग्रंथमें तीर्थंकर, चक्रवर्ती, वासुदेव, प्रतिवासुदेव, बलदेव, राजा, आचार्य, साधु, साध्वियां, श्रावक और श्राविकाएँ वगैराके चरित्र रहेंगे।
ग्रंथ कई खंडोंमें प्रकाशित किया जायगा । हरेक खंडमें दो विभाग रहेंगे । एक पूर्वार्द्ध और दूसरा उत्तरार्द्ध । पूर्वार्द्धमें प्राचीन भूतकालके महापुरुषोंके चरित्र रहेंगे और उत्तरार्द्धमें वर्तमान सजनोंका परिचय रहेगा।
प्राचीन कालके चरित्रोंमें त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रके पश्चात भगवान महावीरके बादका सभी सिलसिलेवार इतिहास रहेगा। । (१) भगवान महावीरके पहधर आचार्य ।
(२) वे सभी आचार्य या साधु जिन्होंने जैनधर्मकी जयपताका फहराई और अनेक जातियोंको जैनधर्मानुयायिनी बनाया । जैसे, भोसवाल, अग्रवाल, पोवाड, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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सूचीपत्र
श्रीमाल, वगैरा जातियाँ पहले कौन थी ? किस धर्मको मानती थीं और फिर किन परिस्थितियों में जैनाचार्योंने उन्हें जैन बनाया।
(३) जैनराजा-वे सभी राजा जिन्होंने जैनधर्मका पालन किया। (४) जैनमंत्री-वे सभी जैन मंत्री जिन्होंने अपनी बुद्धिके बलसे राज्य और देशकी उन्नति व रक्षा की थी।
(५) जैनदानी–वे सभी दानवीर श्रावक जिन्होंने लाखोंकी दौलत खर्चकर जैनधर्मकी प्रभावना की और अपना नाम अजर अमर किया।
(६) गच्छोंका इतिहास-कौनसे आचार्यने किस कारणसे नवीन गच्छकी स्थापना की।
(७) जैनवीर-वे सभी जैनवीर जिन्होंने युद्धस्थलमें तलवारके जौहर दिखाये और समय आने पर हँसते हँसते अपने प्राण देशके लिए न्योछावर कर दिये।
अभिप्राय यह है कि, इसमें ऐसे सभी चरित्रोंका समावेश किया जायगा कि, जो जैनधर्मानुयायियोंके लिए व्यबहार-दृष्टिस और आध्यात्मिक दृष्टिसे, दोनों दृष्टियोंसे-अभिमानकी वस्तु होंगे।
वर्तमानमें निम्न लिखित व्यक्तियोंका परिचय दिया जायगा । (१) त्यागी-आचार्य और मुनिराज ।
(२) पदवीधर ( Degree holders ) जैसे, सॉलिसिटर, बेरिस्टर, वकील, डॉक्टर, ग्रेज्युएट, पंडित, वैद्य, हकीम, वगैरा और वे सभी शिक्षित जिन्हें युनिव्हरसिटिसे या किसी भी शिक्षा संस्थासे कोई पदवी मिली होगी।
(३) उपाधिधर ( Title holders) जैसे, सर, राजा, रायबहादुर, जे. पी. वगैरा और वे जिन्हें किसी देशी राज्यकी तरफसे या किसी भी समाज या संस्थाकी तरफसे कोई उपाधि मिली होगी।
(४) लेखक । (५) ऑफिसर(६) जमींदार । (७) समाज और धर्मके सेवक (८) दानी। (९) तपस्वी । (१०) व्यापारी । (११) विदुषी महिलाएं । और (१२) जैनोंकी सामाजिक संस्थाएँ ।
यथासाध्य सबके फोटो भी प्रकाशित किये जायेंगे।
इस ग्रंथका मूल्य १. पहलेसे ( In advance ) रु. २०) २. पहलेसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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ग्रंथ भंडार लेडीहार्डिंजरोड माटुंगा ( बम्बई) mmmmmmmmmmmmm पांच रुपये देकर ग्राहक होनेवालोंसे रु. २५) ३ पीछेसे ग्रंथकी कीमत जितनी रखी जाय उतनी । जो सज्जन इस ग्रंथकी ५ प्रतियोंके ग्राहक होंगे वे सहायक, जो १० के ग्राहक होंगे वे आश्रयदाता, जो १५ के ग्राहक होंगे वे रक्षक, और जो २० के ग्राहक होंगे वे पोषक समझे जायँगे । हमारे अन्य जैनग्रंथ
२ जैनरामायण
(अ०–श्रीयुत कृष्णलाल वर्मा) इसमें राम, लक्ष्मण, सीता और रावणके मुख्यतासे और हनुमान, अंजनासुन्दरी, पवनंजय तथा वालीके गौणरूपसे चरित्र हैं । प्रसंगवश और भी कई कथाएँ इसमें आ गई हैं। वर्णन करनेका ढंग बड़ा ही सुन्दर है । हिन्दु रामायणसे यह बिलकुल भिन्न है । इसके पढ़नेसे पाठकोंको यह भी ज्ञात हो जाता है, कि रामचंद्रजीकी
ओरसे युद्ध करनेवाले 'वानर' पशु नहीं थे बल्कि वे विद्याधर थे। 'वानर' एक वंशका नाम था। इसी तरह रावण आदि ‘राक्षस-दैत्य नहीं थे बल्कि 'राक्षस' एक वंशका नाम था । जैनाचार्य, श्रीहेमचंद्राचार्य रचित त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित्रके सातवें पर्वका यह अनुवाद है । छपाई सफाई बढ़िया । पक्की बाइंडिंग । ऊपर सुनहरी अक्षर । मू० ४) रु.
३ स्त्रीरत्न (लेखक-श्रीयुत कृष्णलाल वर्मा ) इसमें ब्राह्मी, सुंदरी और चंदनबालाके पावन चरित्र हैं । इनका वाचन जीवनको उच्च व धर्म-परायण बनाता है और संसारकी वासनाओंसे छुड़ाकर कर्तव्यमार्गपर लगाता है । चार सुंदर चित्रोंसे सुशोभित । दूसरी बार छपी है । मू० पाँच आने ।
४ सुरसुंदरी या सात कौड़ीमें राज्य (लेखक-श्रीयुत कृष्णलाल वर्मा)
[स्त्री समाजके लिए सुंदर भेट ] बालपनका शिक्षाकाल और आनंद, पति पत्नीका उल्लासमय जीवन, प्रति पेजमें पवित्रताकी अपूर्व भावनाएँ, पतिकी भूलका दुखद: परिणाम, सुरसुंदरीपर पड़े हुए Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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सूचीपत्र wwwwwwwwwwwwww संकट, संकटोंको जय करती हुई उसकी वीर मूर्ति, बरसों बाद पुनः पति-पत्नीका मिलन । वह आनंद । वह प्रेमका जीवन, सुंदर चित्र; आकर्षक छपाई; सफाई; मोटे टाइप । तीसरा संस्करण । मू० पाँच आने ।
५ अनंतमती (ले०-श्रीयुत कृष्णलाल वर्मा)
[ चार चित्रोंसे सुशोभित-मूल्य चौदह आने ] पुरुषोंमें जैसे भीष्मपितामह आदि महात्माओंने यावज्जीवन ब्रह्मचर्यका पालन किया था, वैसे ही अनंतमतीने जीवनभर ब्रह्मचर्य पाला था। यह प्रसिद्ध है कि पुरुषका ब्रह्मचर्य उसकी इच्छाके विरुद्ध नष्ट नहीं होता; परन्तु नारीका ब्रह्मचर्य दुष्ट पुरुष जबर्दस्ती, भी नष्ट कर सकते हैं ।
यह चरित्र बतायगा कि नारी भी बालब्रह्मचारिणी रह सकती है और दुष्टोंके पंजेसे अपनेको बचा सकती है । बालब्रह्मचारिणी स्त्री किस तरह पवित्र प्रेमका प्रवाह बहा सकती है और जनसमाजहीकी नहीं पशुसमाज तककी सेवा कर उनके स्वाभाविक वैरभावको भुला देती है । बड़ी ही अद्भुत कथा हैं। पढ़कर ह्रदयमें सेवाभावका और धर्म भावका स्रोत बहने लगता है । (पुनः छपनेपर मिल सकेगी)
६ आदर्शजीवन
ले-श्रीयुत कृष्णलाल वर्मा यह आचार्य महाराज श्रीविजयवल्लभ सूरिजीका विस्तृत जीवनचरित्र है । अनेक फोटोसे सुशोभित करीब ८ सौ पृष्ठका ग्रंथ । ऊपर रेशमी कपड़ेकी बाइंडिंग सुनहरी अक्षर । मूल्य मात्र ३॥) रुपये।
७ पैंतीस बोल
ले०-श्रीयुत कृष्णलाल वर्मा। यह प्रसिद्ध पैंतीस बोलका थोकड़ा है। इसमेंकी सभी बातें बड़ी ही अच्छी तरहसे समझाई गई हैं। यह विद्यार्थियों के कामकी तो है ही परंतु बड़े भी इससे बहुत लाभ उठा सकते हैं । मूल्य।)
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ग्रंथ भंडार लेडी हार्डिंज रोड माटुंगा (बम्बई)
५
८ जैनदर्शन __ अ०-श्रीयुत कृष्णलाल वर्मा इसके मूल लेखक हैं स्वर्गीय आचार्य श्रीविजयधर्म सूरिजीके शिष्यरत्न मुनि 'श्री न्यायविजयजी महाराज । इसको पढ़नेसे जैनदर्शनकी मोटी मोटी सभी बातें सरलतासे समझमें आ जाती हैं । विद्यार्थियोंको पढ़ाने, इनाममें देने और थोड़ेमें जैनदर्शनकी बातें समझनेके लिए यह ग्रंथ बहुत उपयोगी है । मूल्य बारह आने ।
९ जैन तत्त्व प्रदीप प्रसिद्ध पूज्य श्री जवाहरलालजी महाराजके विद्वान शिष्य मुनि श्री घासीलालजी महाराज द्वारा लिखित । इसमें देवस्वरूप, गुरुस्वरूप, धर्मस्वरूप, सम्यग्ज्ञान दर्शन
और चारित्र स्वरूप, जीवस्वरूप, २४ दण्डक, २४ द्वार । इतनी बातें हैं । पहले मूल प्राकृत और फिर उसपर संस्कृत एवं हिन्दी कविता है । स्थानकवासी सम्प्रदायकी दृष्टिसे तत्त्वोंकी जानकारीके लिए यह ग्रंथ बहुत उपयोगी है । विद्यार्थियोंके लिए स्कूलों में पढ़ानेकी चीज है । मूल्य सादीके ॥) सजिल्दका १)
१० जैन सतीरत्न (गुजराती) इसमें ब्राह्मी, सुंदरी, चंदनबाला, महासती सीता और सती दमयंतीके चारत्र हैं। अनेक सादे और रंगीन चित्रोंसे सुशोभित । मूल्य ११) सजिल्द १m) हमारे सर्वोपयोगी ग्रंथ
१ गृहिणीगौरव ।
(अ०-श्रीयुत कृष्णलाल वर्मा।) इसमें नारी जीवनको गौरवान्वित करने वाली सात गल्में हैं।
(१) गृणिहीगौरव-इसमें बताया गया है कि, पतिकी वीरता, पतिकी महत्ता और पतिके शौर्यमें ही स्त्रीका गौरव है । स्त्रीका गौरव इसमें नहीं है कि वह साहूकारकी या राजाकी पुत्री होनेसे अपने आपको बड़ी माने और पतिको तुच्छ दृष्टिसे देखे।
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सूचीपत्र
wwwwwmummmmmmmmmmmmmmm
(२) प्राणविनिमय-इसमें बताया गया है कि, गरीबीमें भी पतिपत्नी कैसे सुखसे रह सकते हैं । गरीब स्त्री अपने पतिप्रेमके प्रभावसे राजपुत्र तकको सजा दिला सकती है और एक नारीको विधवा होनेसे बचानेमें अपने प्राण दे सकती है । इतनी करुण कथा है कि, पढ़ते पढ़ते आँसू रोके नहीं रुकते।
(३) सेवाका अधिकार-इसमें बताया गया है कि, पुरुष किस तरह एक नारीव्रत पालन कर सकता है । स्त्री किस तरह विमुख स्वामीको भी सेवा करके अपनी ओर आकर्षित कर सकती है । पतिकी अमानीती होनेपर भी किस तरह पतिकी निंदा करनेवालोंका मीठा तिरस्कार करती है और अपने आचरण द्वारा यह बताती है कि,
एको धर्म एक व्रत नेमा, मन वचकाय पतिपद प्रेमा।
(४) वीणा-इसमें बताया गया है कि आज कलके पढ़े लिखे पुरुष भी कैसे धनलोलुप होते हैं । एक सुशिक्षिता कन्या किस भाँति अपने पिताको कर्जकी बदनामीसे बचानेके लिए अपना सब कुछ देकर आप दाने दानेकी मोहताज हो जाती है । किस तरह अपने गुणोंसे फिरसे घरको सुव्यवस्थित करके सुखी होती है ।
(५) सतीतीर्थ-इसमें बताया गया है कि एक सरल कृषक बालिका किस भाँति एक डाकूको भी सन्मार्ग पर ला सकती है।
(६) अरुणा-इसमें बताया गया है कि एक स्त्री अपने कर्तव्यके लिए अपने पिताकी मान मर्यादाको बचानेके लिए, एक पुरुषसे प्रेम करती हुई भी और उसके हाथों कैद हो जाने पर भी उससे लग्न नहीं करती है और उसको अपने पिताके साथ सुलह करनेके लिए अपनी मौन भाषाद्वारा, अपनी उदासीनता द्वारा विवश करती है । बड़ी ही अद्भुत कथा है।
(७) त्याग-इसमें बताया गया है कि, स्त्री अपने पतिको प्रसन्न करनेके लिए कर्त्तव्य समझकर अपने प्राण तक दे सकती है ।
अनेक बहुरंगी और एक रंगी चित्रोंसे सुशोभित पुस्तकका मूल्य सादीका ॥) सुनहरी अक्षरोंवाली बाइंडिंगके २) रु. : · सुप्रसिद्ध विद्वान हिन्दी ग्रंथरत्नाकर कार्यालयके मालिक श्रीयुत नाथूरामजी प्रेमी
लिखते हैंShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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ग्रंथ भंडार लेडीहार्डिंजरोड माटुंगा (बम्बई) ७
~~~~ " गृहिणी-गारवकी सातों गल्पं बड़ी ही सुंदर और शिक्षाप्रद हैं । सातोहीमें कोमलता, कमनीयता और त्यागशीलताके मनोमुग्धकर चित्र चित्रित किये गये हैं। इन्हें देखकर आँखें जुड़ा जाती हैं और हृदय पवित्र प्रेमको भावनासे भर जाता है। प्रायः प्रत्येक कहानीमें ऐसे प्रसंग आये हैं जिन्हें पढ़कर आँसुओंका रोकना असंभव हो जाता है । पढ़ी लिखी बहिनबेटियोंको देनेके लिए इससे अच्छी भेट और क्या होगी ? जो स्त्रियाँ पढ़ नहीं सकती हैं उन्हें पढ़कर ये कहानियाँ सुनानी चाहिए । इससे उनके हृदय पवित्र और उन्नत बनेंगे । पवित्र कहानियोंका ऐसा सुंदर संग्रह प्रकाशित करके आपने स्त्रियोपयोगी साहित्यके मनोरंजक अंशकी बहुत अच्छी पूर्ति
२. आदर्श बहू ।
अनु०-६० शिवसहाय चतुर्वेदी बढ़िया एण्टिक पेपरपर छपी हुई। चार सुंदर चित्रोंसे सुशोभित । ( तीसरा संस्करण मू०॥) सजिल्द ११)
यह बंगालके सुप्रसिद्ध लेखक श्रीयुत शिवनाथ शास्त्रीकी मेजबऊ' नामकी "पुस्तकका परिवर्तित अनुवाद है । बंगालमें इसका बड़ा आदर है। थोड़े ही समयमें अबतक इसके इक्कीस संस्करण हो चुके हैं । आशा है हिन्दी संसारमें भी इसका आदर होगा । इसमें शारदाके चरित्र द्वारा बताया गया है कि, एक सुशील बहू किस प्रकारसे सारे कुटुंबमें सुखशान्ति रख सकती है ? कैसे समय पर अपने पतिकी सहायता कर सकती है और कैसे प्रेम दिखानेवाले ससुर और विना ही कारण नाराज रहनेवाली सासकी, एकाग्रताके साथ एकसी भक्ति और सेवा कर सकती है । अपनी गृहस्थीको सुखपूर्ण बनानेके लिए हरेक घरमें इस पुस्तकका पाठ होना चाहिए। (फिरसे छपती है )
३. दरिद्रता और उससे बचनेके उपाय ।
( अनु०-श्रीयुत कृष्णलाल वर्मा।) इसमें बताया गया है कि, हरेक मनुष्य प्रामाणिक प्रयत्नसे, रातदिन धनवान बननेके विचारोंसे, अपनेको क्षुद्र न समझनेके खयालसे, गरीबीसे छूट सकता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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सूचीपत्र
उदाहरणोंद्वारा इस बातको प्रमाणित किया है । अन्तमें एक ऐसी कथा दी गई है जिसे पढ़कर अत्यंत दरिद्र मनुष्यके हृदयमें भी धनवान बननेका साहस होता है; अपनी एक आने जितनी पूँजी लेकर भी वह कार्यक्षेत्र में आजानेकी हिम्मत करता है; वह रोजगार करके धनवान बन सकता है। स्त्रियाँ इसे पढ़कर घरके सारे वातावरणको ही बदल देती हैं । अपने घरको धनियोंका घर बना लेती है। दूसरा संस्करण । मू० दो आने मात्र ।
४ राजपथका पथिक ।
(अ.-श्रीयुत कृष्णलाल वर्मा ।) दुनियामें रहते हुए और सांसारिक झंझटोमें फंसे हुए भी मनुष्य किस तरह अपने जीवनको आध्यात्मिक बना सकता है, किस तहर सुख और शान्तिसे जीवन बिता सकता है, सो इस पुस्तकमें सरलतासे समझाया है । मूल्य पाँच आने ।
५ पुनरुत्थान । (लेखक-श्रीयुत कृष्णलाल वर्मा ।) आशा, विश्वास, त्याग, सेवा, पतितोद्धार और स्वाधीनताकी साक्षात् प्रतिमा इस कथाको पढ़कर सोता आत्मा जाग उठता है । खोई मनुष्यता मिल जाती है; हृदय पवित्र और स्वर्गीय भावोंसे परिपूरित हो जाता है । मूल्य चौदह आने ।
६ अपूर्व आत्मत्याग ।
( अनु०–श्रीयुत कृष्णलाल वर्मा।)। प्रेम, पवित्रता, सतीत्व और त्याग ये स्त्रियोंके स्वाभाविक गुण हैं । आदर्श स्त्रियोंमें ये आदर्श रूपसे होते हैं । दुःख उन्हें विचलित नहीं कर सकते । अंधा प्रेम उन्हें पवित्रता और सतसे नहीं डिगा सकता । स्त्रियाँ जिससे प्रेम करती है उसके लिए अपना धन-माल सुख-वैभव सभी दे सकती है। इतना ही क्यों ? वे अपने प्राण तक दे सकती हैं, परन्तु अपना सत और अपनी पवित्रता नहीं दे सकती। ये ही बातें विमलाके चरित्रद्वारा इस पुस्तकमें भली प्रकार समझाई गई हैं । कथा इतनी मनोहर, करुण और उपदेशप्रद है कि अनेकोंने इसको पाँच पाँच Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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ग्रंथ भंडार लेडीहार्डिंजरोड माटुंगा (बम्बई)
९
और सात सात बार पढ़ा है, तो भी उनका जी न भरा । ऐसा उत्तम उपन्यास आजतक प्रकाशित नहीं हुआ। मूल्य १)
७ वरदान ।
(लेखक-श्रीयुत प्रेमचंद्रजी।) कर्तव्य और प्रेमका अनोखा संग्राम, कर्तव्यके हेतु सुखका बलिदान, बालपनकी मनमुग्धकारी चुहले, माता पिताकी कन्याको धनिक घरमें ब्याहनेकी लालसासे युवक युवतिके हृदयोंके टुकड़े, और परोपकारके लिए अपना सर्वस्व समर्पण । ये सब आपको इस ग्रंथमें देखनेके लिए मिलेंगे। श्रीयुत प्रेमचंद्रजीकी सुविख्यात लेखिनीका चमत्कार स्वयं प्रसिद्ध है। पवित्र भावनाओंसे पूर्ण इस ग्रंथका मूल्य १) रु.
८ विधवा प्रार्थना । (ले०-स्व० मौलाना अल्ताफहुसेन हाली।) उर्दूके परम प्रसिद्ध लेखक और कवि शमसुल उल्मा मौलाना अल्ताफहुसेन . हॉलीकी कविता 'मनाजात बेवा' का यह नागराक्षर संस्करण है।
मूल पुस्तकके कठिन उर्दू और अप्रचलित हिन्दी शब्दोंके अर्थ पादटीकामें दिये हैं।
मौलाना साहबने इस कवितामें विशेषकर हिन्दु विधवाओंके दुखोंका वर्णन किया है। मनाजातका विषय करुणा प्रधान है । आरंभके १४ पृष्ठोंमें विधवा शोकभरे शब्दों में ईश्वरकी लीलाका वर्णन करती है, फिर शेष अंशमें वह अपनी रामकहानी सुनाती है।' __भाव और रसकी प्रधानताके सिवा, इस कवितामें अलंकार, प्रकृति वर्णन, मनोहर पदयोजना आदि अनेक चमत्कार हैं, । जिनका आनंद पुस्तकको आद्योपान्त पढ़नेहीसे प्राप्त हो सकता है । भाव और भाषा दोनोंके विचारसे 'विधवाप्रार्थना'' एक आदर्श-रचनाका आदर्श है । मू. पाँच आने ।
९. सर्वोदय ।
(लेखक-म० गाँधी।) कानपुरकी 'प्रभा' लिखती है:-" अर्थशास्त्र और सार्वजनिक सुखके संबंध सुविख्यात अंग्रजी लेखक स्वर्गीय जॉन रस्किनके विचार अत्यंत सुंदर और दिव्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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सूचीपत्र
। इस पुस्तकमें वे ही विचार महात्मा गाँधीकी लेखनी द्वारा व्यक्त किये गये हैं। x x x x x रोटीवाद और भौतिक सुखवादकी अति रोकने के लिए; उनके कृष्ण पक्षको जाननेके लिए व उनके मादक और पतनकारी फंदेसे बचने के लिए सर्वोदय के विचार विशेष महत्त्वके हैं । मू० चार आने ।
१० गांधीजीका बयान या सत्याग्रह मीमांसा ।
आवरण पृष्ठपर महात्माजीका फोटो | मू० ॥ ) छपाई सफाई सुंदर ।
प्रभाने लिखा है:-" पाठकों को मालूम होगा कि, पंजाब - इत्याकांड संबंधी जाँच करनेके लिए हंटर कमेटी नामकी एक कमेटी बैठी थी । उस कमेटीमें महात्माजीने लिखित इकरार दिया था, वही इस पुस्तिका के रूपमें प्रकाशित किया गया है । गाँधीजी का यह बयान एक अत्यंत महत्वपूर्ण वक्तव्य है । इसी में महात्माजीने अपने सिद्धान्तोंका मंडन और सत्याग्रहपर किये जानेवाले आक्षेपोंका खंडन अपनी स्वाभाविक योग्यता और असाधारण उत्तमतासे किया है। प्रकाशकोंने इस बयानको हिन्दी में प्रकाशितकर हिन्दी की अच्छी सेवा की है ।
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११ तीन रत्न ।
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( ले० - महात्मा गाँधी । )
इसमें तीन कथाएँ हैं । ( १ ) मूर्खराज ( २ ) मनुष्य कितनी जमीनका मालिक हो सकता है ? (३) जीवनडोर । संसारके प्रसिद्ध महापुरुष टाल्स्टायने अनेक कथाएँ लिखी हैं । उन्हीमेंसे जो कथाएँ सर्वोत्कृष्ट थीं उनको महात्माजीने गुजरातीमें लिखा था । उन्हीं गुजराती कथाओंका यह हिन्दी अनुवाद है । पुस्तककी उत्तमता के विषयमें दोनों महापुरुषों का नाम ही काफी है । मू० दस आने ।
१२ पञ्चरत्न | ले० - महात्मा गाँधी
इसमें महात्माजीकी लिखी हुई १ पूर्व और पश्चिम २ एक धर्मवीरकी कथा । ३ धर्मनीति और नीतिधर्म आदि पाँच पुस्तकें हैं मूल्य १ 1 )
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ग्रंथ भंडार लेडी हार्डिंजरोड माटुंगा ( बम्बई )
१३ स्वदेशी धर्म ।
लेखक • 11 - काका कालेलकर ।
इसके बिषयमें गाँधीजी कहते हैं । " इसके अंदर जो विचार हैं वे स्वदेशी `धर्मको सुशोभित करनेवाले हैं । मैं चाहता हूँ कि समस्त भारत इनका पूर्णतया उपयोग करे । "" मू० 1)
१४ कलियुगमें देवताओंके दर्शन ।
११
हास्यरसपूर्ण एक छोटासा निबंध । मू० एक आना । १५ संवाद संग्रह |
( लेखक - कृष्णलाल वर्मा । )
हर साल हरेक पाठशाला और हरेक हाइ स्कूलमें वार्षिकोत्सव और पारितोषिक वितीर्णोत्सव हुआ करते हैं । उनमें खेलनेके लिए संवाद कठिनतासे मिलते हैं । इसी कमीको पूरा करनेके लिए लेखकने यह संवाद संग्रह तैयार किया है । इसमें कन्याओंके और लड़कोंके खेलने लायक संवाद है । ये संवाद बंबई में बड़ी ही सफलताके साथ खेले जा चुके हैं । इसमें जितने गायन हैं उन सबके नोटेशन भी दिये गये हैं । जिससे हरेक आदमी आसानीसे उन्हें गा सकता है और बजा सकता है । मू० १ )
१६ - १७ बाल श्रीकृष्ण (भाग १ ला २ रा )
(लेखक – श्रीयुत कृष्णलाल वर्मा )
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इसमें भगवान श्रीकृष्णकी बाललीलाका वर्णन है । बच्चे पढ़कर प्रसन्न होते हैं उनके हृदयमें उत्साह आता है । जीवनकी एक एक घटनापर एक एक कथा है । हरेक कथाके साथ उसके भावको बतानेवाले चित्र हैं । ऊपर आर्टपेपरपर माखनचोर -और बंसीवालेके बड़े ही सुंदर बहुरंगे चित्र हैं । मूल्य प्रत्येक भागके चार आने ।
१८ शिशुकथा
इस पुस्तक के लेखक श्रीयुत एन. जी. लिमये बी. ए. एस. टी. सी. सुप्रिण्टेण्डेण्ट Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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१२
सूचीपत्र wrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr • म्यु. मराठी स्कूल्स बंबई हैं । इसका मराठी संस्करण बंबई गवर्नमेंटने इतर वाचन
पुस्तककी तरह मंजूर किया है। छोटे बच्चोंके लिए पुस्तक बड़े कामकी है। • मूल्य-ढाई आने ।
१९ महेन्द्रकुमार (नाटक) अर्जुनलालजी सेठी कृत (अप्राप्य ) .२० दलजीतसिंह (नाटक) कृष्णलाल वर्मा कृत २१ चंपा (उपन्यास) २२ बालविवाहका हृदयद्रावक दृश्य , , , ( २३ बूढे बाबाका ब्याह २४-२५ डायरेक्ट मेथड हिन्दीप्रवेश ( भाग १ ला, २ रा)
(लेखक-श्रीयुत कृष्णलाल वर्मा) सरलतासे हिन्दी भाषा सिखानेवाली उत्तम पुस्तकें । मू . प्रथम भागके ) • दूसरे भागके चार आने ।)
२६ सरल हिन्दीरचनाबाध
(लेखक-श्रीयुत कृष्णलाल वर्मा) इस पुस्तकसे व्याकरणका विषय बड़ी ही सरलतासे समझमें आता है । यह : सर्वमान्य सिद्धांत है कि जो बात उदाहरणों द्वारा समझाई जाती है वह बहुत ही
सुगमतासे समझमें आ जाती है । इसी सिद्धांतके अनुसार व्याकरणकी हरेक बात • बहुतसे उदाहरणों द्वारा समझाई गई है । शुद्ध बोलने और लिखनेके इच्छुकोंको
यह पुस्तक जरूर पढ़ना चाहिए । गुजराती, मराठी आदि दूसरी भाषा बोलनेवालोंके .लिए तो यह पुस्तक बड़े ही कामकी चीज हैं । मूल्य दस आने । सब तरहकी पुस्तकें मिलनेका पता
ग्रंथभंडार, लेडीहाजिरोड,
माटुंगा (बंबई नं० १९)
मुंबईवैभव प्रेस, मुंबई.
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