SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 587
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन - रत्न चार वचन - प्रकार बताये गये। उनमें मूल तो प्रारंभ के दो ही हैं । पिछले दो वचन - प्रकार प्रारंभ के दो वचनप्रकार के संयोग से उत्पन्न हुए हैं । " कथंचित्-अमुक अपेक्षासे घट अनित्य ही है । " “ कथंचित्-अमुक अपेक्षा से घट नित्य ही है ।" ये प्रारंभके दो वाक्य जो अर्थ बताते हैं वही अर्थ तीसरा वचन - प्रकार क्रमशः बताता है; और उसी अर्थको चौथा वाक्य युगपत् - एक साथ बताता है । इस चौथे वाक्य पर विचार करनेसे यह समझ में आ सकता है कि, घट किसी अपेक्षासे अवक्तव्य भी है । अर्थात् किसी अपेक्षा से घटमें ' अवक्तव्य ' धर्म भी है; परन्तु वटको कभी एकान्त अवक्तव्य नहीं मानना चाहिए । यदि ऐसा मानेंगे तो घट जो अमुक अपेक्षा से अनित्य और अमुक अपेक्षासे नित्य रूपसे अनुभव में आता है, उसमें बाधा आ जायगी । अतएव ऊपर के चारों वचनप्रयोगोंको ' स्यात् ' शब्दसे युक्त, अर्थात् कथंचित्-अमुक अपेक्षासे, समझना चाहिए । I ५५४ - पदं सकृदेवार्थे गमयति " अर्थात् " एकं पदमेकंदैकधर्मावच्छिन्नमेवार्थ बोधयति " । इस न्यायसे, " एक शब्द, एकवार एक ही धर्मकोएक ही धर्मसे युक्त अर्थको प्रकट करता है " ऐसा अर्थ निकलता है । और इससे यह समझना चाहिए कि- सूर्य और चन्द्र इन दोनोंका वाचक पुष्पदंत शब्द ( ऐसे ही अनेक अर्थवाले दूसरे शब्द भी ) सूर्य और चन्द्रका क्रमशः ज्ञान कराते हैं, एक साथ नहीं । इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि यदि अनित्य- नित्य धर्मोंको एक साथ बतलाने के लिए कोई नवीन सांकेतिक शब्द गढा जायगा तो, उससे भी काम नहीं चलेगा | यहाँ यह बात ध्यानमें रखनी चाहिए कि एक ही साथमें, मुख्यतासे नहीं कहे जा सके ऐसे अनित्यत्व - नित्यत्व धर्मोका 'अवक्तव्य' शब्द से भी कथन नहीं हो सकता है । किन्तु, वे धर्म मुख्यतया एक ही साथ नहीं कहे जा सकते हैं, इस लिए वस्तु में ' अवक्तव्य नामका धर्म प्राप्त होता है, कि जो ' अवक्तव्य ' धर्म ( अवक्तव्य ' शब्दसे कहा जाता है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat , · www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy