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जैन-रत्न
है। क्योंकि रागद्वेषके क्षय होनेसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय ये तीनों ही कर्म नष्ट हो जाते हैं। यह संसाररूपी महल केवल दो ही स्तंभोंपर टिका हुआ है। वे हैं राग और द्वेष । मोहनीय कर्मके सर्वस्व ये ही राग और द्वेष हैं। तालवृक्षके सिरमें सूई भौंक देनेसे जैसे सारा तालवृक्ष सूख जाता है, वैसे ही सर्व कर्मोंके मूल राग-द्वेष पर आघात करनेसे-उसका उच्छेद करनेसे-सारा कर्मवृक्ष सूख जाता है-नष्ट हो जाता है ।
केवल ज्ञानकी सिद्धि।
राग-द्वेषके क्षय होनेसे जो केवलज्ञान उत्पन्न होता है, उसके संबंधमें बहुतोंको अनेक शंकाएँ रहती हैं। शंकाकार कहते हैं कि," ऐसा भी कोई ज्ञान होता होगा, जो अखंड ब्रह्मांडके-सकल लोकालोकके-त्रिकालवर्ती तमाम पदार्थों पर प्रकाश डाल सके ?" मगर वास्तवमें तो इसमें शंकाके लिए कोई अवकाश नहीं है। हम देखते हैं, मनुष्योंमें ज्ञानकी मात्रा, न्यूनाधिक प्रमाणमें होती है। यह क्या सूचित करता है? यही कि, जब आवरण थोड़ा हटता है तब ज्ञान थोड़ा प्रकाशमें आता है, और अधिक हटता है तब अधिक;
और वही आवरण जब पूरा हट जाता है तब ज्ञान भी पूर्णतया प्रकाशमें आ जाता है। इस बातको हम एक दृष्टान्त देकर स्पष्ट करेंगे । छोटी मोटी चीजों में जो परिमाण देखा जाता है वह बढ़ता हुआ अन्तमें आकाशमें जाकर विश्रान्ति लेता है। आकशसे आगे परिमाणका प्रकर्ष नहीं है। संपूर्ण परिमाण आकाशमें आ गया है। इस दृष्टांतसे न्यायद्वारा सिद्ध होता है कि ज्ञानकी मात्राको भी, इसी तरह, किसी पुरुषविशेषमें विश्रान्ति लेनी चाहिए । बढ़ते हुए ज्ञानके प्रकर्षका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com