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________________ जैन-दर्शन ४८५ कर्मोंके संयोगका प्रवाह अनादिकालसे बहता आ रहा है । जो संयोग आत्मा और आकाशकी तरह अनादि होता है, वही कभी नष्ट नहीं होता है, बाकीके अनादि संयोग नष्ट हो जाते हैं। आत्माके साथ प्रत्येक कर्मव्यक्तिका संयोग सादि है। इसलिए किसी कर्मव्यक्तिका आत्माके साथ स्थायी होना नहीं बनता है, तब इस बातके माननेमें कौनसी आपत्ति हो सकती है कि, सारे कर्म आत्मासे भिन्न हो जाते हैं ? इसके अतिरिक्त संसारके मनुष्योंकी ओर दृष्टिपात करनेसे विदित होता है कि, किसी मनुष्यमें राग-द्वेष ज्यादह होता है और किसीमें कम । इस तरहकी राग-द्वेषकी कमी ज्यादती, विना हेतुके नहीं है । इससे माना जा सकता है कि कम-ज्यादा होनेवाली चीज जिस हेतुसे कम होती है, उस हेतुकी पूर्ण सामग्री मिलने पर वह चीन नष्ट भी हो जाती है। जैसे पोस महीनेकी प्रबल शीत बाल सूर्यके मंद तापसे कम होने लगती है और जब ताप प्रखर हो जाता है तब वह शीत सर्वथैव नष्ट हो जाती है। अतःइस कथनमें क्या बाधा हो सकती है कि, कम-ज्यादा होनेवाले रागद्वेष दोष जिस कारणसे कम होते हैं, उस कारणके पूर्णतया सिद्ध होने पर वे सर्वथा नष्ट हो जाते हैं। शुभ भावनाओंके सतत प्रवाहसे राग-द्वेषकी कमी होती है। इन्हींका प्रवाह जब प्रबल हो जाता है; जब आत्मा ध्यानके स्वरूपमें निश्चल हो जाता है, तब राग-द्वेष सम्पूर्णरूपसे नष्ट हो जाते हैं; केवलज्ञानका प्रादुर्भाव होता १-जहाँ कर्म अनादि बताया गया है, वहाँ भिन्न २ कोंके संयोगका प्रवाह अनादिकालसे समझना चाहिए। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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