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जैन-दर्शन
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जहाँ अन्त होता है, ज्ञानकी मात्रा जिसके आगे बढ़नेसे रुक गई है, जिसके अन्दर संपूर्ण ज्ञानने विश्रान्ति ली है वही पुरुष सर्वज्ञ है, सर्वदर्शी है और उसीका ज्ञान केवलज्ञानके नामसे पहिचाना जाता है ।
ईश्वर जगत्का कर्ता नहीं है। जैनधर्मका एक सिद्धान्त विचारशील पाठकोंका ध्यान अपनी ओर विशेषरूपसे आकर्षित करता है । वह यह है कि,-ईश्वर जगत्का पैदा करनेवाला नहीं है । जैनशास्त्र कहते हैं कि कर्मसत्तासे फिरनेवाले संसारचक्रमें निलेप, परमवीतराग और परमकृतार्थ, ईश्वरके कर्तृत्वकी कैसे संभावना हो सकती है ? प्रत्येक प्राणीके सुख-दुःखका आधार उसकी कर्मसत्ता है । वीतराग न किसी पर प्रसन्न होता है और न रुष्ट ही । प्रसन्न या नाराज होना वीतराग-स्थितिको नहीं पहुँचे हुए नीची स्थितिवालोंका काम है।
ईश्वरपूजाकी आवश्यकता । 'ईश्वर जगत्कर्ता नहीं है। इस सिद्धान्तके साथ इस प्रश्नका उत्पन्न होना भी स्वाभाविक है कि-ईश्वरको पूजनेसे क्या लाभ है ? जब ईश्वर वीतराग है-वह प्रसन्न या नाराज नहीं होता है, तब उसकी पूजा-भक्ति क्यों की जाय ? जैनशास्त्रकार इसका उत्तर इस तरह देते हैं कि,-ईश्वर की उपासना उसको प्रसन्न करनेके लिए नहीं की जाती है; बल्के अपने हृदयको शुद्ध बनानेके लीए की जाती है। सब दुःखोंकी जड राग-द्वेषको दूर करनेके लिए राग-द्वेषरहित परमात्माका अवलम्बन करना अत्यन्त आवश्यक है। मोहवासनाओंसे पूर्ण आत्मा स्फटिकके समान है। जैसे स्फटिक अपने पासवाले रंग के समान ही रंग धारण कर लेता है, वैसे ही राग-द्वेषके जैसे संयोग
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