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________________ १३८ जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध ) बदला तो नहीं चुका सकता; परन्तु अल्प भेट अर्पण कर कुछ सेवा करना चाहता हूँ। यह सेवा स्वीकार कीजिए।" राजाने चार हजार रुपये सालानाकी आमदनीबाले एक गाँवका पट्टा महाराजके भेट किया। महाराजने कहाः-" मैं आपको इस उदारताके लिए धन्यवाद देता हूँ; मगर मैं तो साधु हूँ। मुझे यह जागीर क्या करनी है ?" उन्होंने पट्टा वापिस लौटा दिया। राजाने बहुत आग्रह किया; परन्तु महाराजने एक भी बात न मानी । दो चार दिनके वाद महाराज बनेड़े चले आये। उदयपुरमें साहजी शिवलालजी गरौडिया उस समय प्रधान थे । वे उस समय चाहते सो कर सकते थे । उदयपुरकी कसेरोकी ओलमें प्रसिद्ध कावडिया भामाशाहका एक उपासरा था । समयके फेरसे भामाशाहके वंशजोंका सरकारमें कोई प्रभाव नहीं रहा; उपासरेमें भी कोई साधु नहीं रहा, इसलिए उपासरा खालसे हो गया । उपासरेके आधे भागमें दानकी कचहरी बनी और आधे भागमें माजी साहब मेरतणीजीका नोहरा बना। आगेकी कुछ जगह दरीखाना बनानेके लिए रखी गई। ___ एक दिन साहनी शिवलालजी इधरसे होकर निकले तब एक श्रावकने कहा।-" आप लौकेगच्छके हैं और यह उपासरा भी लौकेगच्छका है । इसमेंका यह थोड़ा भाग बाकी रह गया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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