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________________ ३५८ जैन - रत्न झाड़पर लटकाने लगे । सात बार रस्सी टूट गई । इससे निर्दोष समझकर छोड़ दिया । वहाँ से सिद्धार्थपुर गये । वहाँ भी चोर समझकर पकड़े गये । वहाँ कौशिक नामक घोड़ेके व्यापारीने प्रभुको छुड़ाया । " इस तरह छः महीने तक अनेक उपसर्ग करके भी जब संगम प्रभुके मनको क्षुब्ध न कर सका तब उसने लाचार हो कर प्रभुसे कहा :- " हे क्षमानिधि ! आप मेरे अपराध क्षमा कीजिए और जहाँ इच्छा हो वहाँ निःशंक होकर विहार करिए । गाँवमें जाकर निर्दोष आहारपानी लीजिए । " महावीर स्वामी बोले :- " हम निःशंक होकर ही इच्छानुसार विहार करते हैं । किसीके कहने से नहीं । " 1 फिर संगम देवलोक में चला गया । प्रभु गोकुल गाँवमें गये । वत्सपालिका नामकी गवालिनने प्रभुको परमान्नसे प्रतिलाभित किया । वहाँसे विहारकर प्रभु आलभिका नगर गये । वहाँ हरि नामका विद्युत्कुमारोंका इन्द्र प्रभुको नमस्कार करने आया और नमस्कार कर बोला :- " हे नाथ ! आपने जो उपसर्ग सहे हैं उन्हें सुनकर ही हम काँप उठते हैं । सहन करना तो बहुत दूरकी बात है । अब आपको, थोड़े उपसर्ग और सहन करनेके बाद केवलज्ञान प्राप्त होगा । " आलभिकासे विहारकर महावीर श्वेतांबी नगरीमें आये । वहाँ हरिसह नामक विद्युत्कुमारेन्द्र वंदना करने आया । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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