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________________ ३७० जैन-रत्न वाणव्यंतरीका और कानों में कीलें ठोकनेवाले गवालके उपसर्ग हैं । (३) वहमके कारण । लोगोंने, यह समझकर कि इन्होंने हमारी अमुक वस्तु दबा ली है, ये किसीके गुप्तचर हैं, अथवा इनका शकुन अशुभ हुआ है, इनको पानीमें डाला, पकड़ा या पीटनेको तैयार हुए या पीटा । इनमें गवालका लुहारका और म्लेच्छोंके उपसर्ग हैं। __उपसग करनेवालोंमें देव, मनुष्य और तिर्यंच सभी हैं। इन उपसर्गोंमें अनेक उपसर्ग ऐसे हैं जिन्हें यदि महावीर चाहते तो टाल सकते थे । जैसे म्लेच्छोंके उपसर्ग और चंडकौशिकके उपसर्ग । उपसर्ग, यदि शांतिसे सहन किये जायें तो, कर्मोको नाश करनेका रामबाण इलाज हैं । इस बातको महावीर जानते थे, और इसीलिए उन्होंने उनका आह्वाहन किया, शांतिसे उन्हें सहा, अपने कर्मोको क्षय किया, वे जगत्वंद्य बने और अनंत शांति एवं सुखके अधिकारी बने । अवसर्पिणीमें ऋषभदेव, भरत सिवाय उनके ९९ पुत्र और भरतके आठ पुत्र ऐसे १०८ उत्कृष्ट अवगाहनावाले एक समयमें मोक्ष गये । यह नवाँ आश्चर्य है। (१०) असंयमियोंकी पूजा-आरंभ और परिग्रहमें आसक्त रहनेवालोंकी कभी पूजा नहीं होती; परंतु नवें और दसवें जिनेश्वरके बीचके कालमें हुई । यह दसवाँ आश्चर्य है। इनमेंसे ९ वाँ ऋषभदेवके समयमें, ७ वाँ शीतलनाथजीके समयमें, ५वाँ श्रीनेमिनाथजीके तीर्थमें, ३ रा मल्लिनाथजीके तीर्थमें १० वाँ सुविधिनायजीके तीथमें और शेष महावीरके समयमें ये सब आश्चर्य हुए। (कल्प सूत्रसे) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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