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जैन-दर्शन
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जब जीव उसका पूर्ण अभ्यासी हो जाता है। पूरा अभ्यास होने पर सारे कर्मबंध छूट जाते हैं और आत्माके अनन्तज्ञानादि सकल गुण प्रकाशित हो जाते हैं। ऐसा सकल गुणप्रकाशित आत्मा ही परमात्मा-ईश्वर है। जो जीव अपनी आत्म-शक्तिको विकसित करनेका प्रयत्न करते हैं; परमात्मस्थितिको प्राप्त करनेकी यथावत् कोशिश करते हैं व ईश्वर हो सकते है । जैनसिद्धान्त यह नहीं मानते कि ईश्वर एक ही व्यक्ति है। तो भी एक बात है। परमात्मस्थितिप्राप्त सारे सिद्ध एक दूसरेमें मिले हुए हैं, इसलिए हम उनका समुच्चय रूपसे-समष्टि रूपसे 'एक' शब्दसे भी किसी अंशमें व्यवहार कर सकते हैं । भिन्न भिन्न नदियोंका पानी जैसे समुद्रमें जाकर मिलने पर एक हो जाता है, फिर उन भिन्न २ नदियों से आया हुआ जल एक कहलाने लग जाता है, इसी तरह भिन्न भिन्न जीव भी मोक्षमें जाकर ऐसे सम्मिलित हो जाते हैं, जिससे उनको-सिद्ध जीवोंको समुच्चय दृष्टिसे 'एक ईश्वर' या 'एक परमात्मा मानना अनुचित या असंभव नहीं है।
मोक्षका शाश्वतत्व ।
यहाँ एक आशंका होती है कि यह एक अटल नियम है कि, जिस पदार्थकी उत्पत्ति होती है उसका विनाश भी होता है । मोक्ष भी उत्पन्न होता है, इसलिए उसका अंत होना जरूरी है। जब मोक्षका अन्त हो जायगा तब वह शाश्वत कैसे रहेगा ? मगर मोक्ष उत्पन्न होनेवाला पदार्थ नहीं है । कर्मोसे मुक्त होना यही आत्माका मोक्ष है । आत्मामें जब कोई नवीन पदार्थ उत्पन्न नहीं होता तब उनके नाश होनेकी कल्पना तो सर्वथा व्यर्थ ही है। जैसे बादलोंके हट जानेसे देदीप्यमान सूर्य प्रकाशित होता है, वैसे ही कर्मावरणके
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