SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन-रत्न ~~~~~~~~~~~~~~wwwwwwwwwwwww~~~~~~~~~~ ५८ " समचतुरस्र संस्थान वाला प्रभुका शरीर ऐसा शोभता था मानों वह क्रीडा करनेकी इच्छा रखनेवाली लक्ष्मीकी कांचनमय क्रीडा-वेदिका है । जो देवकुमार समान उम्रके होकर क्रीडा करनेको आते थे उनके साथ भगवान उनका मन रखनेके लिए खेलते थे । खेलते वक्त घूलधूसरित शरीरवाले और घूघरमाल धारण किये हुए प्रभु ऐसे शोभते थे, मानों मदमस्त गजकुमार है । जो वस्तु प्रभुके लिए सुलभ थी, वही किसी ऋद्धिधारी देवके लिए अलभ्य थी । यदि कोई देव प्रभुके बलकी परीक्षा करनेके लिए उनकी अँगुली पकड़ता था, तो वह उनके श्वासमें रेणु (रेतीके दाने) के समान उड़कर दूर जा गिरता था। कई देवकुमार कंदुक (गैंद) की तरह पृथ्वीपर लोटकर प्रभुको विचित्र कंदुकोंसे खेलाते थे । कई देवकुमार राजशुक ( राजाका तोता) बनकर चाटुकार (मीठा बोलनेवाले) की तरह 'जीओ! जीओ! आनंद पाओ! आनंद पाओ! इस तरह अनेक प्रकारके शब्द बोलते थे। कई देवकुमार मयूरका रूप धारणकर केका. वाणी (मोरकी बोली) से षड्ज स्वरमें गायन कर नाच करते थे। प्रभुके मनोहर हस्तकमलोंको ग्रहण करनेकी और स्पर्श करनेकी इच्छासे कई देवकुमार हंसोंका रूप धारणकर गांधार स्वरमें गायन करते हुए प्रभुके आसपास फिरते थे। कई प्रभुके प्रीतिपूर्ण दृष्टिपातामृत पानकरनेकी इच्छासे क्रौंचपक्षीका रूप धारणकर उनके समक्ष मध्यम स्वरमें बोलते थे। कई प्रभुको प्रसन्न करनेके लिए कोकिलाका रूप धारणकर, पासके वृक्षोंकी डालियोंपर बैठ पंचम स्वरमें राग आलापते थे। कई तुरंग Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy