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________________ जैन - रत्न I भविष्य में होनेवाली वस्तु वर्तमान होती है, और वर्तमान में होनेवाली वस्तु भूतकाल के प्रवाह में प्रवाहित हो जाती है । यह सब कालकी गति है । प्रदेश ऊपर बताये हुए धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल ये चारों जड़ पदार्थ और आत्मा अनेक - प्रदेशवाले हैं । ' प्रदेश' यानी सूक्ष्म - सूक्ष्मातिसूक्ष्म-अंश । इस बात को सब जानते हैं कि घट, पटादि पदार्थोंके सूक्ष्म अंश परमाणु हैं । ये परमाणु जबतक एक दूसरेके साथ जुड़े हुए होते हैं, तबतक ' प्रदेश' नामसे पहिचाने जाते हैं । मगर जब ये अवयवी से भिन्न हो जाते हैं; एक दूसरे से सर्वथा जुदा हो जाते हैं तब परमाणुके नामसे पुकारे जाते हैं । यह तो हुई पुगलकी बात । मगर धर्म, अधर्म, आकाश और आत्माक प्रदेश तो एक विलक्षण घनीभूत - सर्वथा एकीभूत हैं । भिन्न हो जाते हैं, वैसे धर्म, अधर्म, कभी एक दूसरे से भिन्न नहीं होते हैं । ही घड़ेके अस्तिकाय ४७० I प्रकार के हैं । ये प्रदेश परस्पर प्रदेश - सूक्ष्म अंश जैसे घड़ेसे आकाश और आत्मा के प्रदेश आकाश आत्मा, धर्म और अधर्म इन तीनोंके असंख्याते प्रदेश हैं । अनन्त प्रदेशवाला है । लोकाकाश असंख्य प्रदेशी है और अलोकाकाश अनंतप्रदेशी । पुद्गल के संख्यात, असंख्यात और अनंत प्रदेश होते हैं । इस तरह ये पाँच, प्रदेशयुक्त होनेसे ' अस्तिकाय ' कहलाते हैं । ' अस्तिकाय ' शब्दका अर्थ होता है १ - जिसकी संख्या नहीं हो सकती है उसको असंख्यात कहते हैं । यह सामान्य अर्थ है | मगर जैनशास्त्रोंमें इसका जो विशेष अर्थ किया गया हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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