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जैन-दर्शन 'अस्ति ' यानी प्रदेश, और ' काय' यानी समूह; यानी प्रदेशोंके समूहसे युक्त । धर्म, आकाश, पुद्गल और जीव इनके साथ ' अस्तिकाय' शब्दको जोडकर इनका नाम 'धर्मास्तिकाय ।' अधर्मास्तिकाय ' 'आकाशास्तिकाय' 'पुद्गलास्तिकाय ' और 'जीवास्तिकाय ' रख दिया गया है । और ये ही नाम प्रायः व्यवहारमें आते हैं।
कालके प्रदेश नहीं होते । इसलिए वह अस्तिकाय नहीं कहलाता है । बीता हुआ काल नष्ट हो गया और भविष्य समय इस समय असत् है । इसलिए चलता हुआ, वर्तमान क्षण ही सद्भूतकाल है । घड़ी, दिन, रात, महीने वर्ष आदि जो कालके भेद किये गये हैं वे सब असद्भूत क्षणोंको बुद्धिमें एकत्रित करके किये गये हैं। इससे स्पष्ट है कि, एक क्षणमात्र कालमें प्रदेशकी कल्पना नहीं की जा सकती है।
उक्त पाँच अस्तिकाय और कालको जैनदर्शन 'षड्द्रव्य' के नामसे पहिचानता है।
पुण्य और पाप
___ भले कर्मोंको पुण्य कहते हैं और खराबको पाप । सम्पत्ति, आरोग्य, रूप, कीर्ति, पुत्र, स्त्री, दीर्घायु आदि सुखसाधन जिन कौके कारण मिलते हैं, वे शुभ कर्म ‘पुण्य ' कहलाते हैं; और जो कर्म इनसे विपरीत दुःखकी सामग्री एकत्रित कर देते हैं, वे अशभ कर्म 'पाप' कहलाते हैं।
कर्म आठ होते हैं-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । ( इनका सविस्तर वर्णन बंधतत्त्वमें
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