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________________ ४७२ जैन-रत्न ~~~~~~~~~~~~ wwwmara..mx किया जायगा ।) इन आठोंसे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय ये चार कर्म अशुभ हैं । इसलिए ये पापकर्म कहलाते हैं । ज्ञानावरण ज्ञानको ढकता है, दर्शनावरण दर्शनको ढकता है, मोहनीय कर्म मोह पैदा करता है, यानी यह कर्म जीवको संयम नहीं पालने देता है और तत्त्वश्रद्धानमें बाधा डालता है; और अन्तराय कर्म इष्टप्राप्तिमें विघ्न डालता है । इनके सिवा शेष कर्म शभ और अशम दोनों प्रकारके होते हैं। अशभ जैसे-नामकर्मकी प्रकृतियों से तियंच गति और नरक गति वगैरह, गोत्रमेंसे नीच गोत्र, वेदनीयमेंसे असातावेदनीय और आयुमेंसे नरकायु ये अशुम होनेसे पापकर्म हैं। शुभ जैसे,—नामकर्मकी प्रकृतियों से मनुष्यगति, देवगति आदि, गोत्रमेंसे उच्च गोत्र, वेदनीयमेंसे साता वेदनीय और आयुमेंसे देवादि आयु ये पुण्य कर्म कहलाते हैं। आस्रव आत्माके साथ कर्मबंध होनेके जो कारण हैं उन कारणोंका नाम ' आस्रव ' रक्खा गया है । जिन प्रवृत्तियोंसे, जिन कार्योंसे कर्म आते हैं यानी आत्माके साथ कर्मका संबंध होता है, वे प्रवृत्तियाँ और वे कार्य आस्रव कहलाते हैं। आश्रूयते कर्म अनेन इत्याश्रवः ' ( जिनसे कर्म आते हैं वे आश्रव हैं । ) आश्रवको • आस्रव ' भी कहते हैं । ' आस्रवति कर्म अनेन इत्यास्रवः' ऐसी व्युत्पत्तिसे ' आस्रव ' शब्द बनता है। अर्थ उक्त प्रकार ही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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