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________________ ४१८ जैन-रत्न प्रभु बोले:--" इस लिए कि तुम चक्रवर्ती नहीं हो।" कूणिकने पूछा:--" मैं चक्रवर्ती क्यों नहीं हूँ ?" प्रभु बोले:-"इसलिए कि तुम्हारे पास चक्रादि रत्न नहीं हैं।" कूणिक इससे बहुत दुखी हुआ और वह चक्रवर्ती बननेका इरादा कर अपने महलोंमें चला गया। प्रभु विहार करते हुए अपापा पुरीमें समोसरे । वहाकाँ राजा हस्तिपाल प्रभुको वंदना राजा हस्तिपालके स्वप्नोंका फल करने आया। वंदना कर, अपने आसनपर बैठा। प्रभुने उपदेश दिया:--" इस जगतमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष नामके चार पुरुषार्थ हैं । इनमेंसे अर्थ और काम तो नाम मात्रके पुरुषार्थ हैं । क्योंकि इनका परिणाम अनर्थरूप होता है। वास्तवमें पुरुषार्थ तो मोक्ष है । और उसका कारण धर्म है । धर्म संयम आदि दस तरहका है । वह संसारसागरसे जीवोंको तारता है । संसार अनंत दुःखरूप है और मोक्ष अनंत सुखरूप है । इसलिए संसारको छोड़ने और मोक्षको पानेका कारण एक मात्र धर्म ही है । जैसे लँगड़ा मनुष्य भी सवारीके सहारे दूरकी मुसाफिरी कर सकता है वैसे ही घोर कमी मनुष्य भी धमके सहारे मोक्षमें जा सकता है!" राजाने नम्रतापूर्वक पूछा:-" भगवन् ! मैंने रातको स्वममें क्रमशः, हाथी, बंदर, क्षीरवाला वृक्ष, कौआ, सिंह, कमल, बीज और कुंभ ये आठ चीजें देखी थीं । कृपा करके कहिए कि इनका फल क्या होगा ?" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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