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जैन - रत्न
मत्स्यके जिस स्थानपर चिन्ह हो भावसहित यह मानो
चक्र, कमल, ध्वज, और गए हैं उस स्थान के दर्शन करो और कि, हमने प्रभुके ही दर्शन किये हैं । "
बाहुबलिने अपने परिवार और पुरजनों सहित उस जगह वंदना की और उस स्थान का कोई उल्लंघन न करे इस खयालसे उन्होंने वहाँ रत्नमय धर्मचक्र स्थापन किया । वह आठ योजन विस्तारवाला, चार योजन ऊँचा और एक हजार आरों वाला था । वह सूर्यबिंबकी भाँति सुशोभित था । बाहुबलिने वहाँ अठाई महोत्सव किया । अनेक स्थानोंसे लाए हुए पुष्प वहाँ चढ़ाए। उनसे एक पहाड़ीसी बन गई। फिर बाहुबलि नित्य उसकी पूजा और रक्षा करनेवाले लोगोंको वहाँ नियत कर, चक्रको नमस्कारकर, नगरमें चला गया ।
प्रभु तपमें निष्ठा रखते हुए विहार करने लगे । भिन्न २ प्रकारके अभिग्रह करते थे । मौन धारण किए हुए यवनाडंब आदि म्लेछदेशों में भी प्रभु विहार करते थे और वहाँके रहनेवाले निवासियोंको अपने मौनोपदेश से भद्रिक बनाते थे । अनेक प्रकारके उपसर्ग और परिसह सहन करते हुए प्रभुने एक हजार बरस पूर्ण किये ।
प्रभु विहार करते हुए अयोध्या नगरीमें पहुँचे । वहाँ पुरिमताल नामक उपनगरकी उत्तर दिशामें शकटमुख नामक उद्यान था उसमें गये । वहाँ अष्टम तपकर, प्रतिमारूपमें रहे । प्रभुने ' अप्रमत्त' (सातवाँ ) गुणस्थान प्राप्त किया । फिर 'अपूर्वकरण' ( आठवाँ ) गुणस्थान में आरूढ़ होकर प्रभुने ' सविचार
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