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श्रीआदिनाथ-चरित ~~~~~~~~~r mmmmmmmm प्रथक्त्व वितर्क' युक्त शुक्ल ध्यानके प्रथम पायेको प्राप्त किया। उसके बाद 'अनिवृत्ति' (नवाँ) गुणस्थान तथा 'मूक्ष्म संपराय' (दसवाँ) गुणस्थानको प्राप्त किया और क्षण वारहीमें प्रभु क्षीणकषायी बने, फिर उसी ध्यानसे लोभका हननकर उपशांत कषायी हुए । तत्पश्चात् 'ऐक्यश्रुत अविचार' नामके शुक्ल ध्यानके दूसरे पायेको प्राप्तकर अन्त्य क्षणमें, तत्काल ही प्रभुने 'क्षीणमो' (बारहवें ) गुणस्थानको पाया । उसी समय प्रभुके पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, और पाँच अन्तराय कर्म भी नष्ट हो गए । प्रभुके घातिया कर्मका हमेशाके लिए नाश हो गया ।
इस तरह व्रत लेनेके बाद एक हजार बरस बीतनेपर फाल्गुन मासकी कृष्णा ११ के दिन, चन्द्र जब उत्तराषाढा नक्षत्रमें आया था तब, सवेरे ही तीन लोकके पदार्थोंको बताने वाला, त्रिकाल-विषयज्ञान (केवलज्ञान-ब्रह्मज्ञान ) प्राप्त हुआ। उस समय दिशाएँ प्रसन्न हुई। वायु सुखकारी बहने लगा। नारकीके जीवोंको भी क्षण वारके लिए सुख हुआ।
इन्द्रादिक देवोंने आ कर प्रभुका केवलज्ञानकल्याणक* किया । समवसरणकी रचना हुई। सब प्राणी धर्मदेशना सुननेके लिए बैठे।
राजा भरत सदैव सवेरे ही उठकर अपनी दादी मरुदेवा माताके चरणों में नमस्कार करने जाते थे । मरुदेवा माता पुत्रवियोगमें रो रो कर अंधी हो गई थीं। भरतने जाकर दादीके
*-देखो, तीर्थकर चरित भूमिका पृष्ठ २६-३० तक ।
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