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________________ जैन-रत्न चरणोंमें सिर रक्खा और कहा:- आपका पौत्र आपको प्रणाम करता है । " ___ मरुदेवाने भरतको आशीर्वाद दिया । उनकी आँखोंसे जलधारा बह चली । हृदय भर आया । वे भर्राई हुई आवाजमें बोली:-" भरत ! मेरी आँखोंका तारा ! मेरा लाडला ! मेरे कलेजेका टुकड़ा ऋषभ मुझे, तुझे, समस्त राज्य-संपदाको, प्रजाको और लक्ष्मीको तृणकी भाँति निराधार छोड़कर चला गया । हाय ! मेरा प्राण चला गया, परन्तु मेरी देह न गिरी। हाय ! जिस मस्तकपर चंद्रकान्तिके समान मुकुट रहता था आज वही मस्तक सूर्यके प्रखर आतापसे तप्त हो रहा है। जिस शरीरपर दिव्य वस्त्रालंकार सुशोभित होते थे वही शरीर आज डाँस, मच्छरादि जन्तुओंका खाद्य और निवासस्थान हो रहा है । जो पहिले रत्नजटित सिंहासनपर आरूढ़ होता था उसीके लिए आज बैठनेको भी जगह नहीं है। वह गेंडेकी तरह खड़ा ही रहता है। जिसकी हजारों सशस्त्र सैनिक रक्षा करते थे वही आज असहाय, सिंहादि. हिंस्र पशुओंके बीचमें विचरण करता है। जो सदैव देवताओंका लाया हुआ भोजन जीमता था उसे आज भिक्षान भी कठिनतासे मिलता है। जिसके कान अप्सराओंके मधुर गायन सुनते थे वही आज साँकी कर्णकटु फूत्कार सुनता है । कहाँ उसका पहिलेका सुखवैभव और कहाँ उसकी वर्तमान भिक्षुक स्थिति ! उसका उज्ज्वल, कमलनालसा सुकुमार शरीर आज सूर्यके प्रखर आताप, शीतकालके भयंकर तुषार और वर्षाऋतुके कठोर जलपातको सहकर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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