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________________ ३५६ जैन-रत्न १५ फिर एक चांडाल बनाया । उसने प्रभुके शरीरपर नोचकर खानेवाले पक्षी छोड़े। उन्होंने प्रभुके शरीरको नौचा। १६ प्रचंड पवन चलाया । उससे प्रभु मंदिरमें हवाके भयंकर झपाटोंसे इधरसे उधर उड़ उड़ कर टकराने लागे । १७ वटोलियां पवन चलाया। इससे चाकपर जैसे मिट्टीका पिंड फिरता है वैसे महावीर घूमे । १८ हजार भारका एक कालचक्र बनाया और उसे महावीरके सरपर डाला इससे महावीर। घुटनोंतक जमीनमें फंस गये। ___ जब इन प्रतिकूल उपसगोंसे महावीर स्वामी विचलित नहीं हुए तो उसने दो अनुकूल उपसर्ग किये। १९ उसने सुंदर प्रातःकाल किया। देवताकी ऋद्धि बताई और विमानमें बैठकर कहाः "हे महर्षि ! मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। जो माँगो सो + । स्वर्ग, मोक्ष या चक्रवर्तीका राज्य । जो चाहिए सो माँग लो।" ___ २० एक ही समयमें छहों ऋतुएँ प्रगट की; फिर जगमनमोहक देवांगनाएँ बनाई, जिन्होंने हाव, भाव, कटाक्षसे उनको विचलित करनेका यत्न किया। १ चक्रकी तरह फिरानेवाला वायु, भूतिया पवन x विशेषावश्यकमें यह परिसह नहीं है । इसकी जगह उन्नीसवाँ और उन्नीसवेंकी जगह संवर्तक वायुका चलाना लिखा है । कल्पसूत्रमें उन्नीसवाँ और बीसवाँ बीसवेंमें हैं और उन्नीसवेंमें लिखा है:-" प्रभात करके संगमने महावीरको कहा कि सवेरा हो जानेपर भी, इस तरह ध्यानमें कहाँतक रहोगे!" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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