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________________ २३६ जैन- रत्न मेरी भूलसे और अपनी हठसे आज यह सोनेकी प्रतिमा, इस अजान राहगीरकी पत्नी होगी । भाग्य ! दूसरे राजा लड़नेको तैयार हुए । अपराजितने उन सबको पराजित कर दिया । सोमप्रभ ने अपने भानजेको पहचाना और उसे गले लगाया | फिर उसने जितशत्रु वगैरासे अपराजितका परिचय करा दिया । उसका परिचय पाकर सबको बड़ा आनंद हुवा | धूमधाम के साथ अपराजित और प्रीति - मतीका ब्याह हो गया । जितशत्रुके मंत्री की कन्याके साथ विमलबोधकी भी शादी हो गई। दोनों सुखसे दिन बिताने लगे । कई दिन बाद हरिनंदीका एक आदमी वहाँ आया । उसे देखकर अपराजितको बड़ी खुशी हुई । वह उससे गले मिलकर माता पिताका हाल पूछने लगा । आदमीने कहा :- " आपके . वियोग में वे मरणासन्न हो रहे हैं । कभी कभी आपके समाचार सुनकर उनको नये जीवनका अनुभव होता है । अभी आपकी शादी के समाचार सुनकर वे बड़े खुश हुए हैं; आपको देखनेके लिए आतुर हैं । और इसलिए उन्होंने बुलानेके लिए मुझे यहाँ भेजा है । प्रभु अब चलिए मातापिताको अधिक दुःख न दीजिए । अपराजितको मातापिताका हाल सुनकर दुःख हुआ । वह अपनी पत्नियों को लेकर राजधानीमें गया । मातापिता पुत्रको और पुत्रवधुओं को देखकर आनंदित हुए । मनोगति और चपलगतिके जीव माहेन्द्र देवलोकसे चयकर अपराजितके अनुज बंधु हुए । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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