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________________ जैन - रत्न जाना स्थिर किया | यमक और शमकको पुरस्कार देकर विदा किया । फिर वे मरूदेवा माता से बोले :- " माता ! आप हमेशा कहती थीं कि, मेरा पुत्र भिखारी है । आज चलकर देखिए कि, आपका पुत्र कैसा सम्पत्तिवाला है । " मरुदेवा माताको हस्तिपर सवारकरा अपने परिजन सहित भरत प्रभुको वाँदनेके लिए चले । दूरसे भरतने समवसरणका रत्नमयगढ़ देखकर कहा :- " माता ! देवी और देवताओंके बनाये हुए प्रभुके इस समवसरणको देखिए, पिताजीकी चरणसेवाके उत्सुक देवताओंका जयनाद सुनिए, आकाशमें बजते हुए दुंदुभिकी ध्वनि श्रवण कीजिए, ग्राम ( रागका उठाव ) और रागसे पवित्र बनी हुई प्रभुका यशोगान करनेवाली गंधकी हर्षोत्पादिनी गीति कर्णगोचर कीजिए । " ८४ पानीके प्रबल प्रवाहसे जैसे अनेक दिनोंका जमा हुआ कचरा भी साफ़ हो जाता है, उसी तरह आनंदाश्रुके प्रबल प्रवाइसे मरुदेवा माताकी आँखोंमें आये हुए जाले साफ़ हो गये । उन्हें स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगा । उन्होंने अतिशय सहित तीर्थकरों के समवसरण - वैभवको देखा । उन्हें बड़ा आनन्द हुआ । वे प्रभुके उस सुखमें तल्लीन हो गई । तत्काल ही समकालमें अपूर्वकरण के क्रमसे वे क्षपकश्रेणी में आरूढ़ हुई, घातिया कर्मोंका नाश होने से उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ । वे अंतकृत केवली हुई । उसी समय उनके आयु आदि अघाति कर्म भी नाश हो गये । उनका आत्मा हाथीके होदेमें ही देहको छोड़कर मोक्षमें चला गया। इस अवसर्पिणी कालमें मरुदेवी माता सबसे प्रथम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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