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जैन-रत्न m....~ आवे उसे दूसरी अहंत धर्मकी भक्तिकी याद दिलावे । इसीलिए मैं आज यहाँ आई हूँ । अब त संसारमें न फँस और जीवनको सार्थक बनानेके लिये दीक्षा ग्रहण कर ।" ___ इतना कहकर देवी मंडपको आलोकित करती हुई आकाश मार्गकी ओर चली गई । उधर वह गई और इधर सुमति पूर्व जन्मके वृतान्तकी याद आते ही भूञ्छित होकर जमीनपर गिर पड़ी । कुछ सेवा शुश्रूषाके बाद जब उसे चेत आया तो वह सभाजनोंसे हाथ जोड़कर विनयपूर्वक बोली:--" मेरे पिता और भाईके तुल्य उपस्थित सज्जनो! आपको मेरे लिए यहाँ निमन्त्रण दिया गया है । मगर मैं इस संसारसे छूटना चाहती हूँ। इसलिए आप विवाहोत्सवकी जगह मेरा दीक्षोत्सव मनाकर मुझे उपकृत कीजिए और मुझे दीक्षा लेनेकी आज्ञा दीजिए।"
राजा लोग यह विनय भरी वाणी सुनकर बोले:-"हे अनघे ! ऐसा ही हो । " सुमति सात सौ कन्याओंके साथ सुव्रत मुनिसे दीक्षा ग्रहण कर, उग्र तप कर, केवलज्ञान पा अन्तमें मोक्ष गई । ___ कालान्तरमें वासुदेव अनंतवीर्य चौरासी लाख पूर्वकी आयु भोगकर निकाचित कर्म से प्रथम नरकमें गया । वहाँ क्यालीस हजार वर्ष पर्यन्त नरकके नाना प्रकारके कष्ट सहन किये । फिर वासुदेवभवके पिताने-जो चमरेंद्र हुए थे-वहाँ आकर उसकी वेदना शान्त की। ___ बंधुके शोकसे व्याकुल होकर बलभद्र अपराजितने भी तीन खण्ड पृथ्वीका राज्य अपने पुत्रको सौंप, जयघर गणघरके पास दीक्षा ग्रहण की। उनके साथ सोलह हजार राजाओंने भी
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