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________________ जैन-रत्न और अपने शरीरकी रक्षा कीजिए। हमें तो यह पक्षी भी छलपूर्ण मालूम होता है । संभव है यह कोई देव या राक्षस हो।" राजा मेघरथने गंभीर वाणीमें उत्तर दिया:-" मंत्रीजी आप जो कुछ कहते हैं सो ठीक कहते हैं। मेरे राज्यकी, मेरे कुटुंबकी और मेरे शरीरकी भलाईकी एवं राजधर्मकी या राजन्यायकी दृष्टिसे आपका कहना बिलकुल ठीक जान पड़ता है । मगर इस कथनमें धर्मन्यायका अभाव है । राजा प्रजाका रक्षक है । प्रजाकी रक्षा करना और दुर्बलको जो सताता हो उसे दंड देना यह राजधर्म है-राजन्याय है । उसके अनुसार मुझे बाजको दंड देना और कबूतरको बचाना चाहिए । मगर मैं इस समय राज्यगद्दीपर नहीं बैठा हूँ; इस समय मैं राजदंड धारण करनेवाला मेघरथ नहीं हूँ। इस वक्त तो मैं पौषधशालामें बैठा हूँ; इस समय मैं सर्वत्यागी श्रावक हूँ । जबतक मैं पौषधशालामें बैठा हूँ और जबतक मैंने सामायिक ले रक्खी है तबतक मैं किसीको दंड देनेका विचार नहीं कर सकता। दंड देनेका क्या किसीका जरासा दिल दुखे ऐसा विचार भी मैं नहीं कर सकता। ऐसा विचार करना, सामायिकसे गिरना है; धर्मसे पतित होना है। ऐसी हालतमें मंत्रीजी! तुम्हीं कहो, दोनों पक्षियोंकी रक्षा करनेके लिए मेरे पास अपना बलिदान देनेके सिवा दूसरा कौनसा उपाय है? मुझे मनुष्य समझकर, कर्तव्यपरायण मनुष्य समझकर, धर्म पालनेवाला मनुष्य समझकर, शरणागत प्रतिपालक मनुष्य समझकर, यह कबूतर मेरी शरणमें आया है; मैं कैसे इसको त्याग सकता हूँ ? और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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