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________________ १६ श्री शांतिनाथ-चरित १९९ इसी तरह बाजको भूखसे तड़पनेके लिए भी कैसे छोड़ सकता हूँ? इस लिए मेरा शरीर देकर इन दोनों पक्षियोंकी रक्षा करना ही मेरा धर्म है। शरीर तो नाशमान है । आज नहीं तो कल यह जरूर नष्ट होगा। इस नाशवान शरीरको बचानेके लिए मैं अपने यशःशरीरको, अपने धर्मशरीरको नाश न होने दूंगा।" __ अन्तरिक्षसे आवाज आई,-"धन्य राजा ! धन्य !" सभी आश्चर्यसे इधर उधर देखने लगे। उसी समय वहाँ एक दिव्य रूपधारी देवता आखड़ा हुआ। उसने कहा:-" नृपाल ! तुम धन्य हो । तुम्हें पाकर आज पृथ्वी धन्य हो गई । बड़ेसे लेकर तुच्छ प्राणी तककी रक्षा करना ही तो सच्चा धर्म है। अपनी आहुति देकर जो दूसरेकी रक्षा करता है वही सच्चा धर्मात्मा है। __“हे राजा ! मैं ईशान देवलोकका एक देवता हूँ । एक बार ईशानेन्द्रने तुम्हारी, दृढ धर्मी होनेकी तारीफ की । मुझे उसपर विश्वास न हुआ और मैं तुम्हारी परीक्षा लेनेके लिए आया । अपना संशय मिटाने के लिए तुम्हें तकलीफ दी इसके लिए मुझे क्षमा करो।" देव अपनी माया समेटकर अपने देवलोकमें गया। दोनों पक्षियोंने राजाके मुखसे अपना पूर्वभव सुना कि, पहले वे एक सेठके पुत्र थे। दोनों एक रत्नके लिए लड़े और लड़ते लड़ते आतभ्यानसे मरकर ये पक्षी हुए हैं । यह सुनकर दोनोंने अनशन धारण किया और मरकर देवयोनि पाई। एक बार मेघरथने अष्टम तप करके कायोत्सर्ग धारण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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