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जैन - रत्न
नदीके तीरपर उतर कर प्रभु विहार कर गये । उनके पैरोंके चिन्हों को पीछेसे पुष्प नामके सामुद्रिकने देखा । उसने सोचा, - इधर चक्रवतीं गये हैं । चलूँ उनकी सेवा करूँ और कुछ लाभ उठाऊँ । प्रभु स्थूणक नामक गाँव के पास जा, कायोत्सर्ग कर रहे । पुष्प पदचिन्हों पर गया । मगर चिन्हवालोंको साधु देख दुखी हुआ । इन्द्रको यह बात मालूम हुई। उसने आकर सामुद्रिकको मनवांछित धन दिया और उसे प्रभुदर्शनका फल दिया ।
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पुष्प नामक सामुद्रिकको
दर्शनसे लाभ ।
प्रभु विहार करते हुए राजगृहमें आये और शहर के बाहर थोड़ी दूरपर नालंदा नामक स्थान में एक जुलाहेके, कपड़े बुनने के बड़े स्थानमें, उसकी इजाजत लेकर रहे । और विक्रम
नालंदा में दूसरा चौमासा
संवत् ५१२ ( ई. स. ५६९ ) पूर्वका दूसरा चौमासा प्रभुने वहीं किया । प्रभुने मासक्षमण ( एक महीनेका उपवास) कर कायोत्सर्ग किया । वहाँ गोशालक नामका
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१ मंखली नामका एक मंख [ पाटियों पर चित्र बना, लोगों को बता भीख माँगकर खानेवाली जाति विशेष ।] था उसके भद्रा नामकी स्त्री थी । वे दोनों चित्र बेचते हुए एक बार शरवण गाँव में गये । एक ब्राह्मणकी गोशाला में ठहरे । वहीं भद्राने पुत्र प्रसव किया । उसका नाम ' गोशालक ' रक्खा । वह जवान हुआ तब अपने मातापितासे लड़कर निकल गया और घूमता हुआ, नालंदा में- जहाँ महावीर स्वामी ठहरे थे वहाँ पहुँचा । दूसरे दिन मासक्षमणका पारणा करने प्रभु विजय सेठ के घर करपात्र द्वारा,
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