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श्री आदिनाथ-चरित
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भित होता था । इस प्रकार नाना प्रकार के सुलक्षणवाले प्रभु सुर, असुर, और मनुष्य सभी के सेवा करने योग्य थे । इन्द्र उनका हाथ थामता था, यक्ष चमर ढालते थे, धरणेन्द्र द्वारपाल बनता था और वरुण छत्र रखता था; तो भी प्रभु लेशमात्र भी, गर्व किये विना यथारुचि विहार करते थे । कई बार प्रभु बलवान इन्द्रकी गोद में पैर रख, चमरेन्द्रके गोदरूपी पलंग में अपने शरीरका उत्तर भाग स्थापन कर, देवताओंके आसनपर बैठे हुए दिव्य संगीत और नृत्य सुनते और देखते थे । अप्सराएँ प्रभुकी हाजिरीमें खड़ी रहती थीं; परन्तु प्रभुके मनमें किसी भी तरहकी आसक्ति नहीं थी ।
जब भगवानकी उम्र एक बरस से कुछ कम की थी, तबकी बात है । कोई युगल - अपनी युगल संतानको एक ताड़ वृक्षके नीचे रखकर - रमण करनेकी इच्छासे क्रीडागृह में गया । हवा झौंके से एक ताडफल बालकके मस्तकपर गिरा। बालक मर गया । बालिका माता पिता के पास अकेली रह गई ।
थोड़े दिनों के बाद बालिकाके मातापिताका भी देहांत हो गया । वालिका वनदेवीकी तरह अकेली ही वनमें घूमने लगी । देवीकी तरह सुन्दर रूपवाली उस बालिकाको युगल पुरुषोंने आश्चर्यसे देखा और फिर वे उसे नाभि कुलकरके पास ले गये । नाभि कुलकरने उन लोगोंके अनुरोधसे बालिकाको यह कहकर रख लिया कि यह ऋषभकी पत्नी होगी । प्रभु सुमंगला और सुनंदा के साथ बालक्रीडा करते हुए यौवनको प्राप्त हुए ।
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