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जैन-रत्न
थीं। अँगुलि-तलमें नंदावर्त के चिन्ह थे । अँगुलियोंके प्रत्येक पर्वमें जौ थे । इसी भाँति दोनों हाथ भी बहुत सुन्दर, नवीन आम्रपल्लवके समान हथेलीवाले, कठोर, स्वेदरहित, छिद्रवर्जित
और गरम थे । हाथमें दंड, चक्र, धनुष, मत्स्य, श्रीवत्स, वज्र, अंकुश, ध्वज, कमल, चामर, छत्र, शंख, कुंभ, समुद्र, मंदर, मकर, ऋषभ, सिंह, अश्व, रथ, स्वस्तिक, दिग्गज, प्रासाद, तोरण, और द्वीप आदिके चिन्ह थे । उनकी अँगुलियाँ और अंगूठे लाल तथा सीधे थे। पाँवोंमें यव थे । अँगुलियोंके अग्रभागमें प्रदक्षिणावर्त थे। उनके करकमलके मूलमें तीन रेखाएँ शोभती थीं। उनका वक्षस्थल स्वर्णशिलाके समान, विशाल, उन्नत और श्रीवत्सरत्नपीठके चिन्हवाला था। उनके कंधे ऊँचे और दृढ़ थे । उनकी बगलें थोड़े केशवाली, उन्नत तथा गंध, पसीना और मलरहित थीं । भुजाएँ घुटनों तक लंबी थीं। उनकी गर्दन गोल, अदीर्घ और तीन रेखाओंवाली थी। मुख गोल, कान्तिके तरंगवाला कलंकहीन चंद्रमाके समान था। दोनों गाल कोमल, चिकने और मांसपूर्ण थे । कान कंधे तक लंबे थे। अंदरका आवत बहुत ही सुंदर था । होठ बिंबफलके समान लाल और बत्तीसों दाँत कुंद-कलीके समान सफेद थे । नासिका अनुक्रपसे विकासवाली और उन्नत थी। उनके चक्षु अंदरसे काले, सफेद, किनारेपर लाल और कानों तक लंबे थे। भाँफने काजलके समान श्याम थीं। उनका ललाट विशाल, मांसल, गोल, कठिन, कोमल, और समान अष्टमी के चंद्रमाके समान सुशो
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