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जैन - रत्न
एक बार सौधर्मेन्द्र प्रभुका विवाह - समय जानकर प्रभुके पास आया और विनयपूर्वक बोला :- "प्रभो ! यद्यपि मैं जानता हूँ कि, आप गर्भवासही से वीतराग हैं, आपको अन्य पुरुषार्थों की आवश्यकता नहीं है इससे चौथे पुरुषार्थ मोक्षका साधन करनेही के लिए आप तत्पर हैं; तथापि मोक्षमार्गकी तरह व्यवहार मार्ग भी आपहीसे प्रकट होनेवाला है । इसलिए लोकव्यवहा रको चलाने के लिए मैं आपका विवाहोत्सव करना चाहता हूँ । हे स्वामी, आप प्रसन्न होइए और त्रिभुवनमें अद्वितीय रूपवाली सुमंगला और सुनंदाका पाणिग्रहण कीजिए ।
प्रभुने अवधिज्ञानसे उस समय, यह देखकर कि, मुझे अभी तिरयासी लाख पूर्व तक भोगोपभोग भोगने ही पड़ेंगे, सिर हिला दिया । इन्द्रने प्रभुका अभिप्राय समझकर विवाहकी तैयारियाँ कीं । बड़ी धूमधामके साथ सुनंदा और सुमंगला के साथ भगवानका ब्याह हो गया ।
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विवाहोत्सव समाप्त कर स्वर्गपति इन्द्र अपने स्थानपर गया स्वामीकी बताई हुई ब्याहकी रीति तभी से लोकमें चली ।
उस समय कल्पवृक्षोंका प्रभाव कालके दोष से कम होने लग गया था । युगलियोंमें क्रोधादि कषायें बढ़ने लगी थीं । हाकार, ' ' माकार' और 'धिक्कारकी ' दंडनीति उनके लिए निरुपयोगी हो गई थी। झगड़ा बढ़ने लगा था । इसलिए एक दिन सब पुरुष जमा होकर प्रभुके पास गये और अपने दुःख सुनाये । प्रभुने कहा :- " संसार में मर्यादा उल्लंघन करनेवालों को राजा दंड देता है | अतः तुम किसीको राज्याभिषेक करो ।
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