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जैन-रत्न
लाता है। दूसरी तरहसे कहें तो शरीर ‘बहिरात्मा' है, शरीरस्थ चैतन्यस्वरूप जीव · अन्तरात्मा' है और अविद्यामुक्त परमशुद्धसच्चिदानंदरूप बना हुआ वही जीव 'परमात्मा है। ___ जैनशास्त्रकारोंने आत्माकी आठ दृष्टियोंका वर्णन किया है । उनके नाम हैं-मित्रा, तारा, बला, दीपा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा, और परा । इन दृष्टियोंमें आत्माकी उन्नतिका क्रम है । प्रथम दृष्टि से जो बोध होता है, उसके प्रकाशको तृणाग्निके उद्योतकी उपमा दी गई है । उस बोधके अनुसार उस दृष्टिमें सामान्यतया सद्वर्तन होता है। इस स्थितिमेंसे जीव जैसे जैसे ज्ञान और वर्तनमें आगे बढ़ता जाता है, वैसे ही वैसे उसके लिए कहा जाता है, कि वह पूर्वकी दृष्टियोंको पार कर चुका है। ___ ज्ञान और क्रियाकी ये आठ भूमियाँ हैं । पूर्व भूमिकी अपेक्षा उत्तर भूमिमें ज्ञान और क्रियाका प्रकर्ष होता है । इन आठ दृष्टियोंमें योगके आठ अंग जैसे-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि क्रमशः सिद्ध किये जाते हैं । इस तरह आत्मोन्नतिका व्यापार करते हुए जीव जब अन्तिम दृष्टिमें पहुँचता है तब उसका आवरण क्षीण होता है, और उसे केवलज्ञान मिलता है।
१--आठ दृष्टियोंका विषय हरिभद्रसूरिकृत 'योगदृष्टिसमुच्चय ' में और यशोविजयजीकृत " द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका' आदि ग्रंथोमें है । योगका वर्णन हेमचंद्राचार्य कृतं ' योगशास्त्र' में और शुभचंद्राचार्यकृत 'ज्ञानार्णव ' आदि ग्रंथों में है । पातंजल योगके साथ जैनयोगकी विवेचना यशोविजयजीउपाध्यायकृत ' द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिकामें है । ये सब ग्रंथ छपकर प्रकाशित हो चुके हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com