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जैन-दर्शन
अधिकृत होती हैं । मनको रोकनेके लिए राग-द्वेषको अपने काबूमें करना बहुत जरूरी है। राग-द्वेषरूपी मैलको धोनेका कार्य समतारूपी जल करता है । ममताके मिटे विना समताका प्रादुर्भाव नहीं होता। ममता मिटानेके लिए कहा गया है कि:
'अनित्यं संसारे भवति सकलं यन्नयनगम् ।' अर्थात्- आँखोंसे इस संसारमें जो कुछ दिखता है वह सब आनत्य है'-ऐसी अनित्य भावना, और ' अशरण' आदि भावनाएँ करनी चाहिएँ । इन भावनाओंका वेग जैसे जैसे प्रबल होता जाता है वैसे ही वैसे ममत्वरूपी अंधकार क्षीण होता जाता है; और समताकी देदीप्यमान ज्योति झगमगाने लगती है। ध्यानको मुख्य जड़ समता है । समताको पराकाष्ठाहीसे चित्त किसी एक पदार्थ पर स्थिर हो सकता है । ध्यानश्रेणीमें आने बाद लब्धियाँ-सिद्धियाँ प्राप्त होने पर यदि फिरसे मनुष्य मोहमें फँस जाता है तो उसका अधःपात हो जाता है। इस लिए ध्यानी मनुष्यको भी प्रतिक्षण इस बातके लिए सचेत रहना चाहिए कि वह कहीं मोहमें न फंस जाय ।
ध्यानकी उच्च अवस्थाको 'समाधि' का नाम दिया गया है। समाधिस कर्मसमूहका क्षय होता है; केवलज्ञान प्रकटता है। केवल. ज्ञानी जबतक शरीरी रहता है तबतक वह जीवनमुक्त कहलाता है; पश्चात्-शरीरका संबंध छूट जाने पर-वह परब्रह्मस्वरूपी हो जाता है। ___आत्मा मुददृष्टि होता है तब 'बहिरात्मा,' तत्त्वाष्ट होता है तब · अन्तरात्मा । और सम्पूर्णज्ञानवान् होने पर परमात्मा कहा १--" असंशयं महाबाहो ! मनो दुर्निग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन च कौन्तेय ! वैराग्येण च गृह्यते ॥" ( भगवद्गीता)
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