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जैन-रत्न
'अध्यात्म' कहो या 'योग' कहो, दोनों बातें एक ही हैं। योग शब्द 'युज्' धातुसे बना है, जिसका अर्थ है 'जोड़ना' । जा साधन मुक्तिके साथ जोड़ता है उसको योग कहते हैं । __ अनन्तज्ञानस्वरूप सच्चिदानंदमय आत्मा कर्मों के ससर्गसे शरीररूपी अँधेरी कोठडीमें बंद हो गया है। कर्मके संसर्गका मूल कारण अज्ञानता है । सारे शास्त्रों और सारी विद्याओंके सीखने पर भी निसको आत्माका ज्ञान न हुआ हो उसके लिए समझना चाहिए कि वह अज्ञानी है । मनुष्यका ऊँचेसे ऊँचा ज्ञान भी
आत्मिक ज्ञानके विना निरर्थक होता है। ___ अज्ञानतासे जो दुःख होता है, वह आत्मिक ज्ञानसे ही क्षीण किया जा सकता है । ज्ञान और अज्ञानमें प्रकाश और अंधकारके समान विरोध है । अंधकारको दूर करनेके लिए जैसे प्रकाशकी आवश्यकता होती है, वैसे ही अज्ञानको दूर करनेके लिए ज्ञानकी जरूरत पड़ती है । आत्मा जब तक कषायों, इन्द्रियों और मनके आधीन रहता है तब तक वह संसारी कहलाता है। मगर वहीं जब इनसे भिन्न हो जाता है; निर्मोह बन अपनी शक्तियोंको पूर्ण विकसित करता है तब मुक्त कहलाता है।
क्रोधका निग्रह क्षमासे होता है, मानका पराजय मृदुतासे होता है, मायाका संहार सरलतासे होता है और लोभका निकंदन संतोषसे होता है । इन कषायोंको जीतनेके लिए इन्द्रियोंको अपने अधिकारों करना चाहिए, इन्द्रियों पर सत्ता जमानेके लिए मनःशुद्धिकी आवश्यकता होती है। मनोवृत्तियों को रोकनेकी आवश्यकता होती है। वैराग्य और सक्रियाके अभ्याससे मनका रोध होता है। मनोवृत्तियाँ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com