SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 211
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७८ जैन-रत्न यह सुनकर अनंतवीयको यद्यपि क्रोध हो आया था, परन्तु उसने जहरकी यूंट पी ली और गंभीर स्वरमें कहाः- "तुम ठीक कहते हो । इसका क्या फल होगा ? राजाने रत्नाभूषण, हाथी, घोड़े आदि बड़ी २ मूल्यवान वस्तुएँ नहीं माँगी हैं । माँगीं हैं केवल दासियाँ । राजाकी यह तुच्छ इच्छा भी क्या मैं पूरी न करूँगा? ठहर, मैं अभी ही तेरे साथ दासियोंको भेज देता हूँ" विद्याके बलसे अनंतवीर्य और अपराजित बर्षरी और किरातीका रूप धारण कर दूतके साथ दमितारीकी राजसभामें उपस्थित हुए । दूतने अपने स्वामीको प्रणाम करनेके बाद उन दोनों नर्तकियोंको हाजिर किया । महाराजने सौम्य दृष्टिसे उनकी तरफ देखा और उनको अपनी कला दिखलानेके लिए कहा। महाराजकी आज्ञासे उन नटियोंने अपनी नाट्यकलाका अपूर्व परिचय देना प्रारंभ किया । रंगमंचपर नाना प्रकारके अभिनय दिखाकर उन्होंने दर्शकोंके हृदयपर विजय प्राप्त कर ली । उनकी कलामें ऐसी निपुणता देखकर दमितारी उत्साहके साथ बोला:-" सचमुच ही संसारमें तुम दोनों रत्नके समान हो । हे नटियो ! मैं तुमपर प्रसन्न हूँ ! तुम आनंदसे मेरी पुत्री कनकश्रीकी सखियाँ बनकर रहो और उसको नृत्य, गान आदिकी शिक्षा दो।" पूर्ण यौवना सुंदरी कनकधीको कपटवेषी दोनों भाई अच्छी तरह नाट्यकला सिखाने लगे । बीच बीचमें अपराजित अनंतवीर्यके रूप, गुण एवं शौर्यकी प्रशंसा कर दिया करता था। एक दिन कनकश्रीने अपराजित से पूछा:-"तुम जिसकी प्रशंसा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy