________________
१६ श्री शांतिनाथ-चरित
१७७
दूतके ये वचन सुनकर अनंतवीर्यने कहा:जा । हम विचार कर शीघ्र ही जवाब भेजेंगे।" दूत लौट गया और उसने राजाको कहा:-" लक्षणसे तो ऐसा मालूम होता है कि वे तुरत ही दासियोंको स्वामीके चरणों में भेज देंगे।"
दोनों भाइयोंके हृदयमें दमितारीकी इस अनुचित माँगसे क्रोधकी ज्वाला जल उठी; मगर दमितारी विद्याबलसे बली होनेके कारण वे उसको परास्त नहीं कर सकते थे । इसलिए थोड़ी देर चुपचाप सोचते रहे । फिर अनंतवीर्य बोला:-- " राजा दमितारी अपने विद्याबलसे हमें इस प्रकारकी घुड़कियाँ देता है। अगर हमारे पास भी विद्या होती तो उसे कभी ऐसा साहस न होता । अतः हमको भी चाहिये कि हम भी हमारे मित्र विद्याधरकी दी हुई विद्याकी साधना कर बलवान बनें।"
वे ऐसा विचार कर ही रहे थे कि विज्ञप्ति आदि विद्याएँ प्रकट हुई। उन्होंने निवेदन कियाः-" हे महानुभाव ! जिन विद्याओंके विषयमें आप अभी बातें कर रहे थे, हम वे ही विद्याएँ हैं। आपने हमें पूर्व जन्महीमें साध ली थीं। इसलिये अभी हम आपके याद करते ही आपकी सेवामें हाजिर हो गई हैं।" यह सुन दोनों भाइयोंको बड़ा आनंद हुआ। विद्याएँ उनके आधीन हुई।
एक दिन दमितारीका दूत आकर राजसभामें बड़े अपमान जनक वचन बोला:-"रे अज्ञान राजा ! तूने घमंडमें आकर स्वामीकी आज्ञाका उल्लंघन किया है और अभी तक अपनी दासियोंको नहीं भेजा है। जानता है इसका क्या फल होगा?"
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com