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________________ जैन - रत्न बात संशयरहित सिद्ध हो जाती है कि, एक पदार्थको देखने और स्पर्श करनेवाला जो एक है वह इद्रियोंसे भिन्न है और उसीका नाम आत्मा है। आत्मामें काला, सफेद आदि कोई वर्ण नहीं है । इसलिए वह दूसरी चीजोंकी तरह प्रत्यक्ष नहीं हो सकता है । प्रत्यक्ष नहीं होनसे यह नहीं माना जा सकता कि आत्मा कोई चीज ही नहीं है । प्रत्यक्ष प्रमाणके अलावा अनुमान -प्रमाण आदिले भी वस्तुकी सत्ता स्वीकारनी पड़ती है । जैसे परमाणु चर्म. चक्षुसे दिखाई नहीं देते । परमाणुके अस्तित्वका निश्चय कराने के लिए कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है । तो भी अनुमान प्रमाणसे हरेक विद्वान् उसको स्वीकार करता है । अनुमान प्रमाणसे ही यह बात मानी जाती है किं, स्थूल कार्यकी उत्पत्ति सूक्ष्म, अतिसूक्ष्म परमाणुओं से होती है । I आत्माओं में से हम देखते हैं कि, कई दुःखी हैं और कई सुखी; कई विद्वान हैं और कई मूर्ख; कई राजा हैं और कई रंक; कई सेठ हैं और कई नौकर; आत्माओं में इस तरहकी विचित्रता भी किसी कारण वश हुई है । हरेक यह जान सकता है कि, ऐसी विचित्रताएँ किसी खास कारण के बिना नहीं हो सकती हैं । हम देखते हैं कि, एक बुद्धिमान मनुष्यको हजार प्रयत्न करनेपर भी उसकी इष्ट वस्तु नहीं मिलती है; और दूसरे एक मूर्खको विना ही प्रयास या अल्प प्रयाससे उसके साध्य सिद्ध हो जाते हैं । एक स्त्रीकी कूखसे एक ही साथ दो लड़के उत्पन्न होते हैं । उनमें से एक विद्वान हो जाता है और दूसरा मूर्ख रह जाता है । इस विचित्रताका कारण क्या है ? यह तो माना नहीं जा सकता कि, ये घटनाएँ यों ही हो जाया करती हैं । इनका कोई नियामक - योजक जरूर होना चाहिए । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com ४६०
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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