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________________ श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन १५१ ईश्वरलालजीने कहा:-"अगर तुम मुझे खुश रखना चाहती हो तो मेरा कहना मानो । और अगर लोगोंकी खुशीके आधारपर रहना चाहती हो तो मेरी खुशीकी बात छोड़ दो।" लक्ष्मीदेवी काठकी पुतलीकी तरह थोड़ी देर खड़ी रहीं। एक तरफ पुराने खयालके लोगोंके तिरस्कारका डर था और दूसरी तरफ़ था अपने पतिकी नाराजगीका विचार । आखिर उन्होंने रामायणकी इस प्रसिद्ध चौपाईका स्मरण किया.___ 'एको धर्म एक व्रत नेमा, मनवचकाय पतिपद प्रेमा' और आँसू पोंछ डाले । जेवर उतार दिया। एक तरफ़ जाकर सफेद खद्दरकी साड़ी पहनी और अपने पतिके सामने आ खड़ी हुईं। यह दृश्य अवर्णनीय और स्वर्गीय था। दोनोंकी आँखोंमें स्नेहके आँसू थे। ईश्वरलालजीने कहा:-" अब गाड़ीमें बैठकर शहरमें अपने घर राखी बाँधने चली जाओ । शहरमें कहीं घूघट मत निकालना । न घरपर ही घूघट निकालना ।" देवी आज्ञानुसार खुले मुँह खुली गाड़ीमें जा बैठीं । शहरमें घर पहुँची । लोग-जो जानते थे-रस्तेमें उँगली उठाने और कानाफूसी करने लगे । घर पहुँचनेपर यह खबर मुहल्लेभरमें पहुँच गई। सौ सवा सौ औरतें इन्हें देखनेको आ पहुँचीं। इनकी रिश्तेदार औरतें इन्हें घेरकर बैठ गई और आंसू बहाने लगीं। मुहल्लेकी कोई कहती, " यह तो साध्वी हो गई।" कोई कहती," इसने तो विधवाका वेष कर लिया ।" कोई कुछ कहती और कोई कुछ । किसीने तिरस्कार किया और किसीने उपदेश दिया, मगर देवी चुप साधे बैठी रही । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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