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जैन-रत्न
दुःखोंकों नहीं सुखाया परन्तु संसारके तापोंने शोक, चिन्तादिने तपा तपाकर हमारे शरीरको क्षीण कर दिया। काल-समय समाप्त न हुआ, परन्तु हमारी आयु समाप्त हो गई। जिस तृष्णाके वशमें होकर हमने अपने कार्य किये वह तृष्णा तो नष्ट न हुई मगर हम ही नष्ट हो गये। उर्दूके कवि जौक़ने कहा है:
पर जौक त न छोडेगा इस पीरा जाल को, यह पीरा जाल गर तुझे चाहे तो छोड़ दे । अभिप्राय यह है कि, लोग दुनियाको नहीं छोड़ते । दुनिया ही लोगोंको निकम्मे बनाकर छोड़ देती है।
विमलवाहन वैराग्य-भावोंमें निमग्न था, उसी समय उसने सुना कि अरिंदम नामक आचार्य महाराज विहार करते हुए आये हैं और उद्यानमें ठहरे हैं।
इस समाचारको सुनकर राजाको इतना हर्ष हुआ जितना हर्ष दानेके मोहताजको अतुल सम्पत्ति मिलनेसे या बाँझको सगर्भा होनेसे होता है । वह तत्काल ही बड़ी धूमधामके साय आचार्य महाराजको वंदना करनेके लिए रवाना हुआ। उद्यानके समीप पहुँचकर राजा हाथीसे उतर गया। उसने अंदर जाकर आचार्य महाराजको विधिपूर्वक वंदन किया।
मुनिके चरणों में पहुँचते ही राजाने अनुभव किया कि, मुनिके दर्शन उसके लिए, कामबाणके आघातसे बचाने के लिए वज्रमय बख्तर के समान हो गये हैं; उसका राग-रोग मुनिदर्शनऔषधसे मिट गया है; द्वेष-शत्रु मुनिदर्शन-तेजसे भाग गया है।
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