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________________ १०० जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध ) ये पुनः युरोप गये । छः महीने जैनधर्मका प्रचार कर हिन्दुस्थानमें आये और सं० १९६७ में ये पुनः लंडन गये । वहाँ इन्होंने 'जैनसोसायटी' कायम की। इस सोसायटीको कायम करनेमें इनको श्रीयुत हरबर्ट वारन और बेरिस्टर जुगमंदरलालजीसे अच्छी सहायता मिली थी । ये सं० १९६१ तक टयुशन करके अपना निर्वाह करते थे | बादमें सर विसनजी त्रिकमजीके पास उनके कंपेनिअनकी तरह रहते थे और वे ही इनका खरचा चलाते थे। अब ये अपने भतीजे पदमसीके पास रहते हैं ! जो लालन और कंपनीके मालिक हैं । ये अच्छे वक्ता और लेखक हैं । अबतक इन्होंने नीचे लिखी पुस्तकें लिखी हैं । १ सहजसमाधि २ स्वानुभवदर्पण ३ सवीर्यध्यान ४ परमज्योति पंचविंशति ५ आत्मावबोध कुलक ६ सवक्ता ७ लालन आत्मवाटिका ८ आत्म विकासने मार्गे ९ जैनमार्गोपदेशिका चार भाग १० गोस्पल ऑफ मॅन । इनमेंकी अंतकी पुस्तक इंग्लिशमें है और दूसरी ९ पुस्तकें शुजराती भाषामें हैं । ये सरल और शांत प्रकृतिके मनुष्य हैं । इनका सारा जीवन निवृत्ति और अध्ययन, मनन और धर्मोपदेशमें बीता है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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