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श्री आदिनाथ-चरित
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धन
और उनके चरणोंमें गिरकर क्षमा माँगने लगा । उसका अन्त:करण उस समय पश्चात्तापके कारण जल रहा था । मुनिने उसको सान्त्वना देकर उठाया । उस समय बारिश बंद थी । 'धन' ने मुनि महाराज से गोचरी लेनेके लिए अपने डेरे चलनेकी प्रार्थना की । साधु गोचरीके लिए निकले और फिरते हुए घनसेठके डेरे पर भी पहुँचे । मगर वहाँ कोई चीज साधुओंके ग्रहण करने लायक न मिली । बड़ा दुःखी हुआ और अपने भाग्यको कोसने लगा | मुनि वापिस चलनेको तैयार हुए। इतनेहीमें उसको घी नजर आया । उसने घी ग्रहण करनेकी प्रार्थना की । शुद्ध समझकर मुनि महाराजने ' पात्र' रख दिया । धन सेठको घृत वहोराते समय इतनी प्रसन्नता हुई मानों उसको पड़ी निधि मिल गई है । हर्षसे उसका शरीर रोमांचित हो गया । नेत्रोंसे आनंदाश्रु वह चले । वहोरानेके बाद उसने साधुओंके चरणोंमें वंदना । की । उसके नेत्रोंसे गिरता हुआ जल ऐसा मालूम होता था, मानों वह पुण्य बीजको सींच रहा है ।
संसार- त्यागी, निष्परिग्रही साधुओंको इस प्रकार दान देने और उनकी तब तक सेवा न कर सका इसके लिए पश्चात्ताप करनेसे उसके अन्तःकरणकी शुद्धि हुई और उसे मोक्षका कारण दुर्लभ बोध - बीज ( सम्यक्त्व ) मिला । 'रात्रिको वह फिर साधुओंके पास गया । धर्मघोष आचार्यने उसे धर्मका उपदेश दिया । सुनकर उसे अपने कर्तव्यका भान हुआ ।
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