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________________ २६६ जैन - रत्न व्याह किया गया । कुछ कालके बाद विद्युद्गतिने किरणवेगको राज्य देकर दीक्षा ले ली । किरणवेगकी पट्टरानी पद्मावती के गर्भ से किरणतेज नामका पुत्र पैदा हुआ। एक बार सुरगुरु नामक मुनि उस तरफ आये । उनकी देशना सुनकर किरणवेगको वैराग्य हो आया और उसने दीक्षा ले ली । I किरणवेग मुनि अंगधारी हुए । गुरुकी आज्ञा लेकर एकल विहार करने लगे । अपनी आकाशगमनकी शक्तिसे वे पुष्कर द्वीपमें गये । वहाँ शाश्वत अर्हतोंको नमन कर वैताढ्य गिरिके पास हेमगिरि पर्वतपर तीव्र तप करते हुए समतामें मग्न रहकर अपना काल बिताने लगे । कमठका जीव पाँचवें नरकसे निकलकर उसी हिमगिरिकी गुफामें एक भयंकर सर्पके रूपमें जन्मा था । वह यमराजकी तरह प्राणियोंका नाश करता हुआ वनमें फिरने लगा । एक वक्त वह फिरता हुआ उस गुफा में चला गया जहाँ किरणवेग मुनि ध्यानमें लीन थे । उन्हें देखकर उसे पूर्व जन्मका वैर याद आया । उसने उनको लिपट कर चार पाँच जगह शरीर में काटा । उनके सारे शरीर मे भयंकर जहर व्याप्त हो गया । मुनि सोचने लगे,—यह सर्प मेरा बड़ा उपकार करनेवाला है। मुझे जल्दी या देरमें अपने कर्म काटने ही थे । इस सर्पने मुझे मेरे कर्म काटने में बड़ी मदद दी है । उन्होंने चौरासी लाख जीवयोनिके जीवोंको खमाया और चारों तरहके आहारोंका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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